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३३ - गंगापुर में त्रिवेणी का समागम
पूज्यजी महाराज को जब मालूम हुआ कि गयवरचंदजी सादड़ी से बिहार कर गंगापुर कर्मचन्दजी के पास गये हैं तो उन्होंने सोचा कि कर्मचंदजी महाराज की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की है और वे भद्रिक भी हैं तथा गयवरचंदजी बड़े ही खटपटी एवं पक्के मुशदी आदमी हैं। श्रतः कहाँ हो कर्मचन्दजी महाराज को फुसला कर वे दोनों संवेगी न बन जावें, इस लिए उन्होंने शोभालालजी को बुला कर कहा कि तुम गंगापुर जाकर गयवरचंदजी को समझा-बुझा और विश्वास दिलाकर मेरे पास ले आश्रो, इसी में तुम्हारी होशियारी है । किन्तु इस बात का वचन दे जाओ कि गवरचन्दजी आवे या नहीं, पर मैं तो वापिस श्राकर आपसे अवश्य मिलूंगा । शोभालालजी ने वचन दे दिया । पूजयजी ने यह भी कह दिया कि कदाचित् गयवरचन्दजी मेरे पास नहीं भी आवें, अतः मैं उनके गुरु मोड़ीरामजी को भी गंगापुर भेजता हूँ । गयवरचन्दजी मोड़ीरामजी के पास रहकर मारवाड़ की श्रोर विहार कर दें, कर्मचंदजी के पास नहीं रहें और तुम हमारे पास श्राजाना । पूज्यजी को विश्वास हो गया था कि शोभालालजी मेरा बन गया है, और यह वचन का भी पक्का है, वापिस मेरे पास आ ही जावेगा ।
शोभालालजी ने चार साधुओं को साथ ले इतना उम्र बिहार किया कि गवरचंदजी गंगापुर पहुँचे, उसके तीसरे दिन ही वे