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आदर्श-ज्ञान देवता जिनप्रतिमा को पूजा कर नमोत्थुणं के पाठ से स्तुति करते हैं, वह आत्म-कल्याण की भावना से करते हैं या राजभोगादि के लिये; और जो उनका पाराधिक होना बतलाया है, वह किस भावना से ?
(८) देवताओं ने जिन-प्रतिमा की पूजा के साथ और भी कई स्थानों पर पूजा की है, पर नमोत्थुणं केवल जिन-प्रतिमा के सामने ही दिया, इसका क्या कारण है ?
(९) यदि यह कहा जाय कि देवता ने अपने मंगलिक के लिये जिन-प्रतिमा की पजा की, और अराधी भी हुआ तो इस प्रकार कोई श्रावक भी अपने मंगलिक के लिये जिन-प्रतिमा की पूजा करे, तो फायदा है या नहीं अर्थात् अराधिक होता है या नहीं ?
पूर्वोक्त ९ प्रश्नों के उत्तर पूज्यजी महाराज के कहने से सेठजी अमरचंदजो ने लिख कर डाका द्वारा भेज दिये, जिसकी प्रतिलिपि निम्न प्रकार है:
१- पहले प्रश्न का उत्तर-चौथा और चौदहवां गुणस्थान की श्रद्धा तो एक है, केवल क्षायक क्षयोपशम को तरतमता अवश्य है; परन्तु जिस धर्म करणी में चौथा गुणस्थान वाला धर्म मानता है, उसमें चौदहवाँ गुणस्थान वाला भी धर्म समझता है ।
२-दूसरे प्रश्न का उत्तर -'जिन-प्रतिमा' का अर्थ टोकाकार तथा टम्बा कारने 'जिनेश्वरों की प्रतिमा' कहा है; और समास देखने से वे प्रतिमाए निर्वाण अवस्था की पाई जाती है। देवता तो जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण सब ही अवस्थाओं का वन्दन-पूजन करते हैं । अतः उन जिनप्रतिमाओं को जिनेश्वरों की प्रतिमा मानना शास्त्र समान है।