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श्रावक थे, आपके पास शास्त्रों का अच्छा संग्रह था । मुनि श्री आप से मिले और पूछा कि यदि हमारा चतुर्मास यहाँ हो जावे, तो क्या आप हमको शास्त्र पढ़ने को देवेंगे? उन्होंने कहाकि अशा - तना न करो और पाठ न उड़ाओ तो मैं आप को शास्त्र देता रहूँगा । यह निर्णय होने के बाद आप वहाँ से विहार कर रतलाम पहुँचे शोभालालजी महाराज वहाँ पहिले से ही मौजूद थे । उन्होंने हमारे चरित्र नायकजी से कहा कि यहाँ अमरचन्दजी श्रावक बड़े ही जानकार उत्पतबुद्धि वाले हैं। एक मास से मेरे पास आते हैं, और मूत्ति के विषय में वार्तालाप होता है । परन्तु यह लोग मूर्तिपूजा के बिल्कुल प्रतिकूल है अतः आप भी यहाँ संभल कर रहना ।
गयवरचंदजी - आपने उनको समझाया है या नहीं ? शोभालालजी – वे तो कट्टर हैं, उनको मैंने सूत्रों के पाठ बतलाये, किन्तु वे उन पाठों का उल्टा अर्थ करके मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं।
रतलाम पधारना
गयवरचंदजी ०- - फिर आपने क्या किया ?
शोभालालजी : मैं क्या करूँ, वे मेरी बात तो सुनते ही नहीं हैं और अपनी मिथ्या बात को सच्ची सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं | ज्यादा कहने का यहां मौक़ा नहीं है, क्योंकि सब लोग इनकी ओर बोलने वाले हैं। फिर सत्य कहने में बिना कारण हीहुल्लड़ हो जाता है, इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आपकी प्रकृति आग्रह करने की है, पर यहां तो लेना । अब मेरा तो कल बिहार करने का कल एक मास समाप्त हो जायगा, अतः कल्प
शान्ति से ही काम
इरादा है । कारण, इतना ही है ।