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सोजत चतुर्मास और भाज्ञा-पत्र की प्राप्ति
जाकर राजकुँवर को दर्शनार्थ सोजत ले आये, और आज्ञापत्र के लिए बहुत कहा-सुनी की, पर उन्होंने कह दिया कि यह काम हमारा नहीं, हमारे सासूजी व गणेशमलजी का है। फिर भी पूर्वोक्त दोनों श्रावकों ने एक आज्ञापत्र लिख कर राजकुँवर के पास में आये और जबरन उनके अंगुठे पर स्याही लगाकर नहींनहीं करते ही उनका अंगुठा आज्ञापत्र पर लगा दिया और वह आज्ञापत्र लाकर मुनिश्रीजी को सुपुर्द कर दिया।
सोजत के चतुर्मास में हमारे चरित्र-नायकजी ने अपनी उत्कृष्ट त्याग भावना के कारण केवल एक चहर और एक चोलपट्टा ही रखा था और वह भी इतनी मैली कि जिसमें कई जूंऐं पड़गई थीं । जब फूलचन्दजी महाराज को पूँछा तो उन्होंने कहा कि जूओं को इधर उधर डालोगे तो तुम पाप में डूब जाओगे, अतः जूओं का पोषण कर दया पालनी चाहिए । इसी प्रकार कन्हैयालालजी के भी कई जूंएं पड़ गई, उन्होंने भी गुरु श्राज्ञा शिरोधार्य कर जूओं का पोषण किया । नतीजा यह हुआ कि जो शुरु में पाठ दस जूंएं थीं, उनका पोषण करने से वे हजारों की संख्या में पहुँचगई । पोषण का मतलब यह है कि जूओं को एक कपड़े में रखीजाती थी और समय समय पर पैरों की जाघों और साथलों पर रख कर अपना खून उन जूओं को पिलाया जाता था । जब वे खून चूसती थीं, तब मालूम होता कि वहाँ सूई के घाव होते हैं । अन्त में वे घुऐं असंख्य हो गई ऐसी हालत में अरुची होजाना स्वभाविक है। लोग यह भी कहा करते थे कि ढूंढ़ियों के पास जाने पर वे जूंएं डाल देते हैं । और दिन बीतने पर उनका अभाव भी होने लगा, तथा आसोज से पैदा हुई जूओं का चैत्र