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आदर्श-ज्ञान
१६८ ने विहार कर दिया। किन्तु मुनि श्री के लिए डाक्टरों ने राय दी थी कि आपके नेत्रों में अभी कमजोरी है, इसलिए आप कहीं भी भ्रमण न करें, और जब तक हम राय नहीं दें, तब तक यहीं ठहरें। इसमें कुछ तो डाक्टरों की राय थी, और कुछ श्रावकों की भक्ति तथा व्याख्यान सुनने की अभिलाषा । अतः डाक्टरों की राय मान कर मुनिश्री को उदयपुर ही ठहरना पड़ा । उदयपुर के श्रावकों की श्राप पर इतनी श्रद्धा हो गई थी कि इस बीमारी में सब तरह के अनुकूल साधनों का उपयोग किया गया था। सबकी यही भावना थी कि आपके जल्दी अराम हो जिससे कि व्याख्यान सुनने का सौभाग्य मिले । नेत्रों में पूर्ण पाराम होते ही डाक्टरों की सलाह से माघ शुक्ल ५ को पुनः व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। उदयपुर में परिषदा का तो पहिले से ही ठाठ था, फिर मुनिश्री का मधुर, रोचक और मनोरंजक व्याख्यान के लिये तो कहना ही क्या था ! __ माघ शुक्ला १४ का दिन था, मकान ऊपर से नीचे तक खचाखच भर गया था। बड़े २ आदमी और राज कर्मचारी जैन एवं जैनेत्तर लोग व्याख्यान में उपस्थित थे। उस दिन सूत्र का विषय विजय देवता का था । जन्म के समय विजय देवता विचार कर रहा था कि मुझे पहिले क्या करना चाहिये जो कि हित सुख कल्याण और मोक्ष का कारण हो तथा पीछे क्या करना, इत्यादि इसके उतर में सूत्र का मूल पाठ पाया कि विजय राजधानी में एक सिद्धायतन ( जिन मन्दिर ) है, उसमें तीर्थङ्करों के शरीर प्रमाण और पद्मासन ध्यान अवस्था की १०८ जिन-प्रतिमाएं हैं तथा तीर्थंकरों की दादों है । उनका अर्चन, पूजन यावत् उपा