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आदर्श-
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-परिषदा ना देवता विजयदेव ना तथाप्रकारना अध्यवसाय एवं संकल्प ने जाग ने विजय देवता ने समीप श्राया अने त्यां श्रावी ने दोनों हाथ मस्तक पर लगावी जय विजय कही वधाया अने एम बोलवा लाग्य के हे देवाणुप्रिय ! विजय राजधानीमां सिद्धायतान छे अने तेने मध्य १०८ जिन प्रतिमा -- जिनना शरीर श्रमाणे अर्थात् जघन्य सात हाथ अने उत्कृष्ट ५०० धनुष्य प्रमाण पद्मासन स्थित छे तथा सौधर्मी सभामां मरणवक स्तम्भमा - बजरत्नों ना गोल डाबडा मां बहु जिन दांड़ों छे । तेओ हे देवाणु प्रिय - - तमारे अने विजय राजधानी माँ वसवावाला देवि देवत
- ज्ञान
, बन्दन, पूजन, सन्मान, सत्कार, कल्याण, मंगल और देवताना चैत्यनो पेटे पयुपासना करवा योग छे । हे देव णुप्रिय ! तेज तमारे पहला कल्याण नो कारण छे तेज तमारे पछि कल्याण नो कारण छे, तेज तमारे पहला करवा योग्य कार्य छै तेज तमारे पच्छि करबा योग कार्य छे, तेज तमारे पहला अने पछे हित-सुखकल्याण-मोक्ष ने अनुगामिक नो कारण छे ।
इस प्रकार मूल सूत्र और उसका टब्बार्थ लुगियाजी ने पढ़ा और परिषदा ने उसे खूब ध्यान लगाकर सुना । बत्ती सूत्रों के अन्दर जीवाभिगमजी सूत्र के मूल पाठ तथा टब्वार्थ में मूर्त्ति पूजा को हित, सुख, कल्याण, मोक्ष और अणुगामिक का कारण बतलाया देख कर समझदारों के दिल में शंका पड़ जाना एक स्वाभाविक बात थी। पर लूणियाजी ने कहा कि यह तो देवताओं की बात है और देवता जित आचार से जिन प्रतिमा पूजता भी होगा । पर इससे क्या हुआ ?
मुनि -- ऐसे उत्सूत्र भाषण द्वारा अनर्थ क्यों करते हो ? मूल