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आदर्श-ज्ञान
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मास में जाते पीछा छूटा। उत्कृष्टता एवं कपड़े नहीं धोने का यह परिणाम हुआ कि हजारों जीवों की ओर अपने शरीर एवं संयम की विराधनाओं के पाप की पोट सिर पर उठानी पड़ी ।
सोजत का चतुर्मास समाप्त होने पर हमारे चरित्र नायकजी आज्ञापत्र लेकर पूज्यजी की सेवा में पहुँचे । पूज्यजी अजमेर का चतुर्मास समाप्त कर खरवा पधारे थे । आपने खरवा जाकर पूज्य जी महाराज का दर्शन, वन्दन किया, और श्राज्ञा-पत्र देकर कहा कि अब मेरा आहार -पानी शामिल करने की आज्ञा दिलावें । पूज्यजी महाराज ने श्राज्ञा पत्र देखकर कहा कि यह तो राजकुँवर की आज्ञा है, पर आज्ञा चाहिए माता पिता की; अतएव तुम जाकर अपनी माता की आज्ञा लाओ, तब ही तुम्हारा आहार पानी शामिल किया जावेगा ।
जब बड़ों की दृष्टि इस प्रकार होती है, तब छोटा आदमी क्या कर सकता है । पूज्यजी के दिल के अन्दर तो दर्द था, बिना आज्ञा मन्नालालजी के पास रहने का और आपने व्यक्त भी कर दिया था कि मेरी आज्ञा बिना तुम मन्नालालजी के पास क्यों रहे, और उनके साथ तुम्हारी जो जो बातें हुई, वे साफ २ क्यों नहीं कहदेते हो । जबतक तुम इस बात का स्पष्ट तौर पर वर्णन नहीं करोगे, कभी सुख से नहीं रहोगे । किन्तु आपका खानदान ऐसा नहीं था कि एक की बात दूसरे को कहकर आपस में वैमनस्य की वृद्धि करे । जो कुछ सुख एवं दुःख है वह भोग लेना ही अच्छा है । हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की श्राज्ञा लेकर दूसरी बार आज्ञापत्र के लिए बीसलपुर जाने को रवाना हो गये । ब्यावर
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