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पुनः दीक्षा की भावना
भैरूँ की यात्रा करनी चाहिये । हमारे चरित्र नायकजी तो शुरू से ही सिवाय अरिहन्त देव के किसी को सिर नमाते ही नहीं थे, इतना ही क्यों पर आपके विवाह में सिवाय जैन मन्दिर के और किसी भी देवी देवता की जात तक भी नहीं दी थी, वे बड़ली के भैरूँ के वहाँ जाकर कब शीश झुकाने वाले थे, पर लोक-अपवाद भी एक ऐसी हटीली वस्तु है कि उनके सामने बिना इच्छा भी शीश झुकाना पड़ता है । राजकुँवरी और बहुत से सजनों के अति
आग्रह होने से घर से दिसावर जाने के समय जोधपुर आकर बड़ली गये और केवल राजकुँवरी ने ही बड़ली के भैरूँ की जात देकर स्व-इच्छा बोलवा बोली, बाद पुनः जोधपुर आये। इधर तीवरीवाले एवं जलगांव वाले जोधपुर से रतलाम पू०श्रीलालजी के दर्शनार्थ जा रहे थे, उन्होंने हमारे चरित्र नायकजी को भी आग्रह किया, और आपने उन्हीं के साथ रतलाम जाना स्वीकार कर लिया, राजकुँवर को भी पू०श्री. महाराज के दर्शनों की अभिलाषा थी। अतएव दम्पत्ति रतलाम जाकर पूज्य श्रीलालजी महाराज के दर्शन कर आनन्द को प्राप्त हुये ।
। १०–पुनः दीक्षा की भावना
भाद्र पद शुक्ल चौदस का शुभ दिन था, पूज्य श्री महाराज के व्याख्यान में हजारों नर नारी का इतना बड़ा समुदाय था कि विशाल भवन होने पर भी लोगों को बैठने के लिए स्थान नहीं