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पुनः दीक्षा की भावना
थी। भाप भोजन कर सीधे ही पूज्यश्री के पास आये। उस समय पूज्य महाराज आहार पानी कर आराम कर रहे थे; फिर भी आपको परदेशी जान कर अन्दर आने की आज्ञा दे दी। ___श्राप ने अन्दर जाकर वन्दना नमस्कार कर नम्रता पूर्वक अर्ज की कि पूज्य महाराज मैंने आज आपका अपूर्व व्याख्यान सुना है, और मैं कुछ आलोचना करना चाहता हूँ।
पूज्यश्री:-कहो भाई, क्या आलोचना है ?
गयवरचन्दजी:-मैंने चार वर्ष पूर्व (१) कच्चा पानी, (२) कच्ची हरी, (३) रात्रि भोजन, और (४) मैथुन इन चारों का त्याग किया था, ये चारों व्रत भंग होगये । इसकी आलोचना लेनी है; कृपाकर जो कुछ दंड प्रायश्चित हो वह देकर मेरा उद्धार कीजिए। __पूज्यजी:-तुम भाग्यशाली हा कि अपने भन व्रतों की आलोचना करते हो। . गयवरचन्दः-यह आपके व्याख्यान का ही प्रभाव है ?
पूज्यजी:-अच्छा भाई, व्रत भंग का प्रायश्चित तो हम शास्त्रानुसार दे देवेंगे पर वे चारों व्रत आज से आपको पालन करने होंगे।
गयवरचन्द:-पूज्य महाराज ! मैं गृहस्थी हूँ मेरा रहना दिसावर में है, मेरी युवकावस्था है, और स्त्री मेरे पास में रहती है, ऐसी हालत में वे चार खंध मेरे से कैसे पालन हो सकते हैं, अर्थात् बिल्कुल नहीं पलेंगे।
पूज्यजी:-भाई, ऐसाही है तो पहिले इन बातों का विचार करके ही व्रत . लेना था।