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१६ – आज्ञा के लिए बीसलपुर जाना
पज्यजी महाराज की आज्ञा लेकर आप अकेले ब्यावर आये । वहाँ भंडारीजी से मिले और सब हाल कह सुनाया; किन्तु वे तो सब एक ही गुरु के पढ़ाये हुए थे । भंडारीजी ने भी कह दिया, हां, आज्ञा पत्र तो आपको लाना ही पड़ेगा, और आज्ञा आने पर ही पूज्यजी आपको पास में रख सकेंगे ।
गयवर ० - भंडारीजी, वे वचन आप क्यों भूल जाते हो जो मेरे गृहस्थी के कपड़ों के त्याग के समय आप और पूज्यजी महाराज ने कहे थे । श्राज मैं केवल दो साधुओं को साथ भेजने की प्रार्थना करता हूँ, जिस पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है । यदि मेरे साथ दो साधुओं को भेजने में ही पूज्यजी को दोष लगता हो तो इतने महिने मुझको साथमें रख सब खानगी व्यवहार क्यों करते थे ? यदि उस व्यवहार में दोष नहीं था, तो अब साधु भेजनेमें इन्कारी क्यों की जाती है । क्या पूज्यजी महाराज और आपका यही कर्तव्य है कि मुझ निराधार को अकेले भेज रहे हो । स्त्रैर, मैं तो इन सबको सहन कर लूंगा, पर आप भवियमें किसी दूसरे को इस प्रकार न फँसा देना ।
बस, इतना कहकर आपने ब्यावर से बीसलपुर की ओर बिहार कर दिया । जब बीसलपुर एक मील दूर रहा, तो आपके पैर वहीं स्तम्भ हो गये । आपने थोड़ी देर वहाँ बैठकर विचार किया कि जैन साधु जगत-बन्धु और जगत् का कल्याण करने वाले कहलाते हैं, साधु ये ही हैं या कोई दूसरे हैं। इन को इतनी भी दया नहीं आई कि हमारे विश्वास पर एक योग्य खानदान के