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आदर्श-ज्ञान
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गयवरचन्द:- भाई, मैं तो किया हुआ विवाह भी छोड़ रहा हूँ तो दूसरों का विवाह करना तो मेरे से कैसे बन सकता है !
गणेशमल:- इस पर गणेशमल और राजकुँवर खूब करुण शब्दों से विलाप करने लगे। जो आस पास के लोगों में भी दया के भाव उत्पन्न होने लग गये और वे कहने लगे कि आप कुटुम्ब वालों के दिल में दाह लगाकर दीक्षा लेओगे तो आपको कोई लाभ नहीं होगा किन्तु इसके विपरीत पाप में डूब जाओगे, इत्यादि । बंस देवरभावज बिना अन्न जलग्रहण किये मारे दुःख के रो रहे थे क्योंकि इसके अलावा तो उनके पास उपाय ही क्या था ।
भंडारीजी ने आपको सलाह दी कि संसारो कुटुम्ब यों सहज में ही कब जाने देते हैं | यदि आपके हृदय में दीक्षा का सच्चा रंग है तो लो मैं यह बरतन देता हूँ; दो चार घरों से भोजन मांग के लाकर इनके सामने बैठ कर भोजन करलो ।
गयवरचन्दः- - पर आज चौमासे की चतुदर्शी है न ? भंडारीजी — कुछ हर्ज नहीं है, ले आओ आहार और इनके सामने बैठकर करलो गौचरी ।
बस, वैराग्य की धुन में हमारे चरित्र नायकजी दो-चार घरों से भिक्षा मांगकर ले आये और उन रुदन करते हुए देवर भावज के सामने बैठकर भोजन कर लिया, किन्तु उन रुदन करते हुए के लिए आपके हृदय में तनिक भी दया न आई ।
राजकुँवर - गणेश मलजी ! आपके भाई साहब का हृदय कितना कठोर बन गया है कि अपने भूखे प्यासों की इनको तनिक भी दया न आई और सामने बैठकर भोजन कर लिया । क्या अब