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आदर्श-ज्ञान
पूज्यजी - तो फिर आप गयवरचंदजी को कोई ऐसा उपाय बतला दो कि ये संसार के घोर दुःख से बचकर अपना आरम कल्याण करें ।
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भंडारीजी - पूज्यमहाराज संसार में जीव पापक्रमों में अनेक बार वचन देता है, और ऐसे वचन पालन करने से अनंत संसार भी बढ़ा है । मेरे विचार से तो ऐसे वचनों पर विश्वास न कर श्रात्म-कल्याण करना ही अच्छा है ।
पूज्यजी - क्यों गयवरचंदजी आपकी क्या इच्छा है । गयवर० – आप फरमावें वैसा ही करने को मैं तैयार हूँ । पूज्यजी - जब तुम आत्म-कल्याण के लिये दीक्षा लेने को तैयार हुए हो तो किसका भाई किसका विवाह यह तो मोह जाल है । गयबर० -- पर आज्ञा बिना आप दीक्षा भी तो नहीं दे सकते, और मैं अपने बचनानुसार भाई के विवाह में न जाऊँ तो मुझे आज्ञा मिलना भी तो मुश्किल है न ।
पूज्यजी - एक श्रापही क्यों कोई भी योग्य खानदान और कुटुम्ब वाला हो उसको सहज में ही आज्ञा कौन देदेता है परन्तु श्रात्म-कल्याण करने वाले उस श्राज्ञा के भरोसे ही नहीं रहते हैं । मैं मेरी ही बात कहता हूँ कि मेरे कुटुम्ब वालों ने आज्ञा नहीं दी तो मैं गृहस्थी के कपड़े छोड़ कर भिक्षाचारी करने लग गया ? फिर भी कुटुम्ब वालों ने श्राज्ञा नहीं दी तो मैंने स्वयं दीक्षा ले ली । इसी प्रकार शोभालालजी ने भी स्वयंदीक्षा ले ली थी । इसलिये यदि आपके हृदय में सच्चा वैराग्य और श्रात्म-कल्याण की भावना है तो इस प्रकार भिक्षाचारी करलो और आज्ञा न दें तो स्वयं दीक्षा लेलो ।