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पेशाब. चाण्डाल की योनी
कि गयवरचंदजी की आज्ञा की कोशिश क्यों नहीं करते हो । भंडारीजी ने एक पत्र बीसलपुर लिखा कि गयवरचंदजी ने गृहस्थ का वेश त्याग कर साधु के वेश में भिक्षाचारी करनी शुरू करदी है। अब वे आपके काम के नहीं रहे हैं । अकेले विचरने से उनको तकलीफ भी होती है । तथा आपकी आज्ञा बिना साधु अपने में शामिल नहीं करते हैं, और न आहार-पानी ही साथ में करसकते हैं । अतएव श्राप आज्ञापत्र लिखकर उन्हें भेज देवें जिससे कि वे साधुओं में शामिल हो जावें, इत्यादि। ____ यह पत्र बीसलपुर पहुंचा। पढ़कर सबके दिल में क्रोध की ज्वाला भभकने लगी। उन्होंने कहा यह कैसा साधुत्व, यह कैसा विश्वास घात, यह कैसी वचन-प्रतिज्ञा । पत्र के उत्तर में साफ लिख दिया कि जब तक वे गृहस्थ के वेष में एक बार बीसलपुर 'न' पाजावें, तब तक हम न तो श्राज्ञा दे सकते हैं और न हमारी आज्ञा बिना कोई भी साधु उनको अपना शिष्य ही बना सकता है। यह पत्र भंडारीजी ने गयवरचन्दजी को पढ़ाया। आप पत्र पढ़ कर बड़े ही विचार में पड़गये कि, मैंने पूज्यजी व भंडारीजी की फाकी में आकर बिना विचारे काम किया, जिससे वचन पतित और प्रतिज्ञा भ्रष्ट और अविश्वास का पात्र बनगया हूँ। इसका ही नतीजा है कि मैं न घर का रहा, न घाट का, अर्थात् इस समय धोबी के कुत्ते वाली मेरी दशा हुई है । फिर भी आप हतोत्साह न हुए और बड़ी हिम्मत के साथ निश्चय कर लिया कि कोई फिक्र नहीं है; यदि आज्ञा न होगी तो मैं अकेला ही संयम पालूंगा।
अहा-हा! छ काया के रक्षक निस्पृही, श्रमायी और सच्चाई