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साधुओं० मिक्षाचारी
पूज्यजी ने कहा-क्यों गयवरचन्दजी आपकी दोक्षा का रंग उतर गया ?
गयवर०-नहीं, महाराज। पूज्यजी-आपने अपने भाई के विवाह में जाना मंजूर किया
गयवर०-जी हाँ! पूज्यजी-तो फिर दीक्षा की आशा क्यों रखते हो ?
गयवर०-विवाह के बाद दीक्षा लेने का मैंने भाई से बचन ले लिया है।
पूज्यजी-किन्तु उस विवाह के समय दीक्षा का भाव रहेगा या नहीं, यह तुमको मालूम है ? . गयवर०–मेरे भाव तो दृढ़ हैं फिर ज्ञानी महाराज जानें । . पूज्यजी-भाई, तुम्हारे घर में तुमही बड़ेहो, एवं कर्ता धर्ता हो, फिर उस विवाह जैसे राग रंग के समय में वैराग्य रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? ... गयवर०-महाराज, मैं वचन तो दे चुका हूँ; एक बार मुझे नाना तो पड़ेगा ही। - पूज्यजी-यहतो तुम्हारी इच्छा की बात है, किन्तु हाथ में आये हुए चिन्तामणि रत्न,को तुम मुफ्त में खो रहे हो । एक समय तो तुम्हारी दीक्षा के लिए हंसी हो चुकी है, फिर दूसरी वार क्यों करवाते हो ?
गयवर०-वचन दे चुका उसका अबक्या उपाय हो सकता है। पूज्यजी- भंडारीजी, क्या इसका कोई उपाय नहीं है। भंडारीजी-पूज्य महाराज उपाय तो बहुत हैं।