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पिताजी की अंतिम सेवा
ऋण से कुछ उऋण हुए, आपने उनका बहुत इलाज करवाया, किन्तु श्रायुष्य का उपचार किसी वैद्य, डाक्टर अथवा हकीम के पास नहीं था । आपने अपने पिताश्री को अन्तिम समय तक धार्मिक स्तवन स्वाध्याय वैगरह खूब सुनाये तथा उनकी इच्छानुसार दान भी दिया गया । आखिर आश्विन शुक्ला १५ को मुताजी ने इस असार संसार को त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । लोकाचर की सब क्रियाएं आप ही के हाथ से हुई । जनता कहने लग गई कि संसार में वे ही भाग्यशाली हैं जो कि अन्तिम समय अपने माता पिता की सेवा कर उनके ऋण से मुक्त हो जाते हैं, आज गयवरचंद भी भाग्यशाली हुआ है जिसने कि पिताजी की अन्तिम सेवा की ।
मूताजी के देहान्त ने तो आपके सिर पर एक बड़ी भारी सख्ती डालदी । आपने दिसावर जाते समय अपना व्यापार व लेन देन आदि मुताजी को संभलाया था, किन्तु आज तो मुताजी खुद अपना सब व्यवसाय का वजन आपके सिर पर ही डाल गये, यद्यपि आप मूताजी की मौजूदगी में ही अलग हो गये थे, किन्तु इस समय गणेशमल तो दिसावर गया हुआ था शेष सब भाई छोटे थे । विशाल व्यापार और हजारों की लेन देन थी, यदि इसकी ठीक व्यवस्था न की जाय तो भविष्य में खूब हानि उठानी पड़े। आपके माताश्री का या मामाजी चंदमलजी का तथा अन्य सज्जनों का आग्रह पूर्वक कहना था कि अब जुदा शामिल को भूलकर इस काम को हाथ में लेकर सुचारु रूप से चला । आपने कहा कि इतना कहने की आवश्यकता नहीं है, इस कार्य को मैं अपना खास कर्तव्य समझता हूँ ।
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