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दीक्षा के नाम पर एक साधु पर व्याक्षेप आम्नाय पूज्य रुगनाथजी की समुदाय के मुनि श्री रत्नचंदजी की थी और वह साधु भी अच्छे थे उन्हीं के पास दीक्षा लेने का विचार किया, पर उस समय आपका बिराजना धूनाड़े था। हमारे चरित्र नायकजी वंदनार्थ धूनाड़े गये। और वहाँ जाकर अपना सब हाल मुनिजी को सुना दिया। इस पर स्वामिजी ने कहाः-गयवरचंद, तुम्हारी दीक्षा के लिए अभी आज्ञा होना मुश्किल है । कारण-पहिला तो यह है कि मुताजी के तुम सबसे बड़े पुत्र हो, दूसरे अभी तुम्हारे विवाह को चार वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए हैं; अतएव अभी तुम्हें दीक्षाका नाम तक भी नहीं लेना चाहिये । हाँ, चर्तुमास के पश्चात् मैं उधर अऊँगा जब नवलमलजी जो कि हमारे भक्तश्रावक हैं उनसे बातचीत करने पर निर्णय करूगा, पर इतना जरूर ध्यान रखना कि मेरे आने के पूर्व तुम कहीं दीक्षा की बात न करना, इस श्रेष्ठ सलाह को मानकर हमारे चरित्रनायकजी वापिस बीसलपुर श्रा गये।
बीसलपुर में पांच-सात आदमी परदेशी साधुओं के भक्त थे, उन्होंने समाचार देकर स्वामी केवलचंदजी तथा रत्नचंदजी परदेशी साधुओं को बुलाया और उन्होंने हमारे चरित्रनायकजी से कहा कि देशी साधुओं में साधुत्व नहीं है । वे स्थानक में उतरते हैं, गर्म पानी जो आधा कर्मी होने पर भी लाकर पी लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी कई दोषों से दूषित हैं, यदि तुम घर भी छोड़ते हो तो फिर ऐसे पासत्थों के पास दीक्षा क्यों लेते हो, इत्यादि भ्रम-जाल में डाल कर मनमें शंका पैदा करदी । प्रदेशी साधु और श्रावकों ने तो इतनी लग्न दिखाई कि जैतारण में बालचन्दजी चैत्र कृष्ण ८ को दीक्षा लेते हैं, भाप