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श्री १०८ दिगम्बर जैनाचार्य देशभूषण महाराज के
श्राशीर्वाद सहित
भारत को परतंत्रता की श्रृंखलाओं से मुक्त कराने वाली
तथा
स्वतंत्रता का स्वर्णमयी प्रभात दिखाने वाली
एक मात्र प्रतिनिधि संस्था
अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस
के
मनोनीत निर्वाचित अध्यक्ष
श्री उच्छरंगराय नवलशंकर ढेबर
के कर कमलों में
सर्व भाषामयी अपूर्व ग्रन्थराज सिरि भूवलय
सादर समर्पित है ।
पौष शुक्ला १, सं० २०१४ वीर निर्वाण सम्वत २४८४
श्री भूवलय प्रकाशन समिति ( जैन मित्र मंडल) धर्मपुरा देहली ।
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प्रकाशकीय वक्तव्य
महान ग्रन्थ राज श्री भूवलय का परिचय जब भारत के राष्ट्रपत्ति महा- चतुर्मास समाप्ति पर प्राचार्य श्री ने देहली से बिहार किया प्रतः ग्रन्थ राज के महिम डा. राजेन्द्रप्रसाद जी को दिया गया तो उन्होंने इसको संसार का पाठबा प्रकाशन का कार्य स्थगित सा हो गया। प्राचार्य श्री सदंव इस ग्रन्थ को प्रकाश पाश्चर्य बताया । इस महान ग्रन्थ की रचना आज से लगभग १००० वर्ष पूर्व में लाने के लिए पूछते रहे परन्तु हम अपनी विवशाए बताते रहे । अन्त में दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ कुमुदेन्दु स्वामी ने की थी। प्राचार्य । जब प्राचार्य श्री गुड़गावं में ये तो देहली के प्रमुख सज्जनों ने प्राचार्य श्री से श्री कुमुदेन्दु नन्दी-पर्वत के समीप, बैंगलौर से मीन दूर जाना की...कि वे जबतक देहली न पधारेंगे इस कार्य पा, प्रारम्भ होना वल्ली स्थान के रहनेवाले थे। वे मान्यखेट के राष्ट्रकूट राज के असम्भव है। प्राचार्य श्री पहले दो चतुर्मास देहली में कर चुके थे अतः देहली सम्राट अमोघवर्ष के राजगुरु थे। यह अपूर्व ग्रन्य अन्य ग्रन्थों से विलक्षण ६४ नहीं माना चाहते थे। परन्तु देहली निवासी लगातार प्राचार्य श्री को इस महान पड़ों में है जिससे कन्नड़ भाषा के हस्व, तथा दीर्घ आदि अक्षर बनते हैं। यह ग्रन्थराज के प्रकाश में लाने के हेतु-देहलो पाने के लिए प्राग्रह करते रहे । अन्त अन्धराज जैन धर्म की विशेषतया तथा अन्य धर्मों को संस्कृति का पूर्ण परिचय में प्राचार्य श्री ने इस कार्य को महानता तथा उपयोगिता को दृष्टि में रखते देता है। यह विज्ञान का भी एक अपूर्व ग्रन्थ है। इस ग्रन्धराज में १ महान हुए इस वर्ष देहली पाना स्वीकार किया। भाषाएँ तथा ७०० कनिष्ठ भाषाएँ गभित हैं। यदि इस ग्रन्थराज को भली आचार्य श्री अप्रल १६५७ में देहली पधारे । तत्काल ही तार आदि प्रकार समझा जाए तो इसके द्वारा मनुष्य का ज्ञान बहत अधिक उन्नति कर। देकर श्री यल्लप्पाजी शास्त्रीको बेंगलौरसे बुलाया गया। भाग्यवश भारतके प्रमुख सकता है । इस ग्रन्थ का कुछ भाग माइक्रो फिल्म कराया जा चुका है और उद्योगपति धर्मवीर दानवीर, गुरु भक्त श्री युगल किशोर जी बिडला-जोकि इसे भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में राष्ट्रपति के प्राधेशानुसार रखा गया है। आचार्य श्री को अपना धर्म गुरु ही मानते हैं। इस ग्रन्थ से बहुत प्रभावित गत वर्ष जन प्रदर्शनी तथा सेमिनार के आयोजन पर इस ग्रन्थराज
हुए उन्होंने भी यह प्रेरणा की कि इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाया जाए और की प्रदर्शनी की गयी थी। जनता इसको देखकर पाश्चर्य चकित तथा मुग्ध हो
उन्होंने क्रियात्मक रूप से सहयोग के नाते इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जो विद्वानों
। पर व्यय हो वह देना स्वीकार किया। उनके इस महान दान से हमको और भी गयी थी 1 जनता की पुकार थी कि इसे शीन प्रकाश में लाया जाए।
प्रेरणा मिली । ग्रन्थ के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक नियमित यह ग्रन्थराज स्वर्गीय श्री पं० यल्लप्पा शास्त्री, ३५६ विश्वेश्वरपुर सकिल ' समिति देहली की प्रमुख साहित्यिक संस्था जैन मित्र मण्डल धर्मपुरा देहली के बेंगलौर के पास था । वे भी गत वर्ष देहलो में थे। इस ग्रन्थराज के तत्वावधान में ग्रन्यराज थो भूगलय प्रकाशन समिति के नाम से स्थापित की प्रति उनकी अपूर्व श्रद्धा तथा भक्ति थी। वे प्रातः स्मरणीय विद्यालंकार । गयी जिसमें देहली नगर के प्रमुख सज्जनों ने अपना सहयोग दिया। समिति प्राचार्य रल श्री १०८ देश भूषण जी महाराज के जोकि । वर्तमान में निम्न प्रकार है। गत वर्ष देहली में चतुर्मास कर रहे थे मम्पर्क में आये प्राचार्य थो संस्थाप-दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ प्राचार्य देशभूषण जी के हृदय में जैन धर्म तथा जैन ग्रन्थों की प्रभावना की तो एक अपूर्व लगन है। महाराज। ही । प्राचार्य श्री ने इस गन्य की उपयोगिता देखकर इस ग्रन्थराज को प्रकाश संरक्षक-श्री सर्वार्थसिद्धि संघ बेंगलोर । में लाने का निश्चय किया। गत वर्ष इस विषय में काफी प्रयत्न किया गया।। सभापति-ला० अजितप्रसाद जी ठेकेदार ।
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उपराभापति-ला. मनोहरलाल जी जौहरी।
अनुपस्थिति में यह समिति क्या कर नकेगी। हम तो स्वर्गीय के प्रति श्रद्धा के ला. मुन्शीलाल जी कागजी
दो फल ही चढ़ा सकते हैं । केबल इतना और कह सकते हैं कि हम अपनो मन्त्री-श्री महताबसिंह जी बी० ए० एल.एल.बी.।
गोर हो पुर्ग पयल करेंगे कि जो कार्य हम स्वर्गीय के जीवन में न करसके बह " आदीश्वरप्रसाद जी एम० ए०।
उनके निधन के बाद अवश्य पूरा करें। ,, पन्नालाल जी प्रकाशक तेज ।
इस ग्रन्थराज का प्रारम्भ में इस समय केवल मंगल प्राभूत हो २५० कोषाध्यक्ष--श्री नेमचन्द जी जोहरी।
पृष्ठों में प्रकाशित किया जा रहा है। ग्रन्थराज बहुत विशाल है और इसको संशोधक स्वर्गीय श्री यल्लप्पा शास्त्री।
पूर्णतया प्रकाश में लाने के लिए सहस्रों पृष्ठ प्रकाशित करने पड़े में । प्रकाशन प्रबन्धक-ला. दुट्टनलाल जी कागजी।
पार्य धर्म शिरोमणि श्री युगलकिशोर जी बिड़ला ने इस कार्य में अपना पूरा " श्री मुनीन्द्रकुमार जो एम० ए० जे० डी.
सहयोग देने की स्वीकारता दी है। गत सप्ताह जैन जाति शिरोमणि दानवीर रघुवरदयाल जी।
साह शान्तिप्रसाद जो तथा उनकी सौभाग्यवती पत्नी रमारानी जो देहली में सदस्य-ला० श्यामलाल जी ठेकेदार ।
थीं । वे दोनों प्राचार्य श्री के दर्शनार्य उनके पास आये थे । वे इस ग्रन्थ से तथा , जोतिप्रसाद जी टाइप वाले।
इस ग्रन्थ के प्रति प्राचार्य श्री को लगन से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने , प्रेमचन्द जो जैनावाच कम्पनी
यह आश्वासन दिया है कि इसके भविष्य के कार्य-क्रम को रूप रेखा प्रादि उनके शान्तिकिशोर जी।
पास भेज देने पर वे पूर्ण रूप से इस ग्रन्थ के उद्धार तया प्रकाशन में सहयोग " रणजीतसिंह जी जौहरी।
दंगे। हमें आशा है कि उनके तथा बिड़ला जी के सहयोग से तथा आचार्य श्री , रामकुमार जी।
के आशीर्वाद से हम इन कार्य को भविष्य में भी प्रगति दे सकेंगे। ग्रन्थराजके संशोधन तथा भाषानुवाद का कार्य प्राचार्य थी की छत्रछाया में छुल्लिका विशालमती माताजी,स्वर्गीय श्री यल्लप्पाशास्त्री, पं. अजितकुमार
I हमें इस कार्य में देहली जैन समाज के अनिरिक्त दिगम्बर जैन समाज जी शास्त्री तथा पं.रामशंकरजी त्रिपाठी द्वारा शुरू किया गया। मुद्रण का कार्यगाना
गुड़गा, गोहाना, रिवाड़ी, फरुखनगर तथा रोहतक आदि से भी प्राधिक श्री देवभूषण मुद्रणालय को दिया गया। कार्य सुचारु रूपसे चलता रहा। प्राचार्य
- गरयोग प्राप्त हुआ है । ग्रन्थ के मुद्रण में जो कागज लगा है उसका अधिकतर श्री लगभग ८ घण्टे प्रतिदिन इस ग्रन्थराज के लिए देते रहे हैं। इसी प्रकार।।
देहलो के माननीय सज्जनों ने उठाया है जिनमें निम्न नाम विशेष उल्लेखयल्लप्पा शास्त्री जी भी दिन रात इस कार्य में संलग्न रहे । इसी बीच में एक.
हैं। ला. सिद्धोमल जो कागजो, ला० मनोहरलाल जी जौहगे, ला. महान दुर्घटना हो गयी जैसा कि सदैव होता ही है। भारत की स्वतन्त्रता
'मुन्शीलाल जो कागजी, लाल नेमनन्द जो जौहरो, ला. नन्नूमल जी कागजी, प्राप्ति के बाद शीघ्र ही देश को राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की आहुती देनी
ला. जयगोपाल जो आदि । पड़ी उसी प्रकार इस ग्रन्थ के प्रकाश में पाने से पहिले ही इस ग्रन्थ के संरक्षक 1 इस ग्रन्थ की ग्रारम्भ में २००० प्रतियां मुद्रण की जा रही श्री यल्लप्पा शास्त्री, अपने घर बैंगलौर से दूर इसो देहली में २३ अक्टूबर हैं। इनमें से १००० प्रतियां का समस्त व्यय देहलो जैन समाज के प्रमुख धर्म१९५७ को स्वर्गवास कर गये। आप केवल एक दिन हो बीमार रहे। अापका निष्ठ दानो स्वर्गीय ला. महावीर प्रसाद जी ठेकेदार ने अपने जीवन में हो देना निधन एक महान वचपात है, और आज भी समझ नहीं पाती कि उनको स्वीकार किया था। अन्य के मुद्रण को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने में
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देशभूषण मुद्रणालय के समस्त कर्मचारी गए तथा उसके प्रबन्धक श्रीचन्द जी जैन ने विशेष प्रयत्न किया है जिसके लिए हम उनके प्रभारी हैं । अन्त में हम आचार्य श्री के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आचार्य श्री के ही सतत प्रयत्नों तथा लगन के फलस्वरूप आज हम इस महान ग्रन्थ को प्रकाशित करते हुए अपने को धन्य मान रहे हैं। हमें स्वर्गीय श्री यल्लप्पा शास्त्री के दोनों पुत्र श्री धर्मपाल तथा शान्तिकुमार के सहयोग की भी हम हैं प्राचार्य श्री के आशीर्वाद के अभिलाषी---- अजितप्रसाद जैन ठेकेदार ।
महताबसिंह जैन बी० ए० एल० एल० बी० ।
प्रवराज श्री भूवलय जैन मित्र मण्डल,
अत्यन्त आवश्यकता है तथा हमें विश्वास है कि वे भी अपने पूज्य पिता की भांति इस कार्य में सहयोग देते रहेंगे। अन्त में हमारा समस्त जैन समाज से निवेदन है कि वह इस कार्य में हमें अपना पूर्ण सहयोग तन-मन-धन से दें । इस ग्रन्थ के प्रकाशन से जन संस्कृति की प्राचीनता तथा उसका महत्व संसार में सूर्य के समान प्रसारित होगा ।
सभापति मन्त्री
मन्त्री आदीश्वरप्रसाद जैन एम० ए० ।
पन्नालाल (तेज अखबार ) ।
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प्रकाशन समिति धर्मपुरा देहली ।
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श्रीभवलय- परिचय
श्रीकुमुदेन्दु श्राचार्य और उनका समय
श्रीकुमुदेन्दु या कुमुदचन्द्र (इन्दु शब्द का अर्थ 'चन्द्र' है) नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । एक कुमुदुचन्द्र आचार्य कल्याणमन्दिर स्तोत्र के कर्ता हैं । एक कुमुदचन्द्र प्राचार्य महान वादो वाग्मी विद्वान हुए हैं जिन्होंने श्वेताम्बरों के साथ शास्त्रार्थं किया था। एक कुमुदेन्दु सन् १२७५ में हुए हैं जो श्री माघनन्दि सिद्धांत चक्रेश्वर के शिष्य थे उन्होंने रामायण ग्रंथ लिखा है। किन्तु इस ग्रन्थ राज भूवलय के कक्ष श्री कुमुदेन्दु आचार्य इन सबसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
श्री देवप्पा का पिरिया पट्टन में लिखा हुआ कुमुदेन्दु शतक नामक कानड़ा पद्यमय पुस्तक है उसमें भूवलय के कर्ता श्री कुमुदेन्दु बाचार्य का उल्लेख है। देवप्पा ने कवि माला तथा काव्यमाला का विचार करते हुए संगीत मय कविता लिखी है, उसमें भूवलय कर्ता कुमुदेन्दु प्राचार्य का आलंकारिक वर्णन है । कुमुदेन्दु शतक के कुछ कानड़ी पत्र यहाँ बतौर उदाहरण के दिये जाते हैंकुमुदेन्दु श्राचार्य ने अपने माता पिता का नामका उल्लेख तो नहीं किया परन्तु मूर्ति होने के बाद इस भूवलय नामक विश्व काव्य की रचना करते समय अपना कुछ परिचय दिया, वह निम्न पद्यों से प्रकट है :
श्रोविसिनु कर्माटकद जनरिगे । श्री दिव्यवाय क्रमदे || श्रीवया धर्म समन्वय गणितद। मोदद कयेयनालिपु ॥ वरद मंगलद प्राभूतन महाकाव्य । सरणियोळ्गुरुवीरसेन || गुरुगळमतिज्ञान वरिवसिलेकिह । प्ररहंत केवलज्ञान । जनिसलु सिरिवोरनेर शितपन धनवाद काव्यदकयेय ॥ जिनसेन गुरुगल तनुविनजन्मद घनपुण्यवरधर्म नवस्त ॥ नाना जनपद वेल्लदरोळुधर्म । तानु क्षीपिसि बप ॥ तानल्लि मान्यखेटददोरे जिन भक्त तानुप्रमोघ वर्षांक ।
afa कर्नाटक जनता को सम्बोधन करते हुए कहते हैं :
श्रर्थं—श्री कुमुदेन्दु आचार्य का ध्येय विशालकीति है, मुनिचर्याका पालन करना उनका गौरव (गुरुत्व) है, वे नवीन नवीन कोति उत्पन्न करते थे, वे अवतारी महान पुरुष थे। सेनगा की कीर्ति फैलाने वाले थे । उनका गोत्र सद्धर्म है सूत्र वृषभ हैं, शाखा द्रव्यांग है, वंश इक्ष्वाकु है, सर्वस्वत्यागी सेन हैं। नवीन गरण गच्छ के भ्रानन्ददायक नेता थे । नव्य भारत में शुद्ध रुचिकार कर्माट राजा को उन्होंने भारत के निर्माण में अहिंसा धर्म की परिपाटी को बढ़ाने रूप आशीवाद दिया । समस्त भाषाओं और समस्त मतों का समन्वय और एकीकरण करने वाले भुवन विख्यात भूवलय ग्रन्थ की रचना को ।
इस तरह देवप्पा ने भूवलय के कर्ता श्री कुमुदेन्दु (कुमुदचन्दु) आचार्य का परिचय दिया है । भूवलय ग्रन्थ से प्रतीत होता है कि कर्नाटक चक्रवर्ती मान्यखेट के राजा राष्ट्रकूट प्रमोघवर्ष को भूवलय द्वारा कुमुदेन्दु श्राचार्य ने व्याख्या के साथ करणसूत्र समझाया था।
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के दिये हुए विवरण को परशीलन करके देखा जाय तो वे सेनगरण, शातवंश, सद्धमं गोत्र, श्री वृषभ सूत्र, द्रव्यानुयोग शाखा, और इक्ष्वांकु वंश परम्परा में उत्पन्न हुए तथा सेनगरण में से प्रगट हुए नव गरम-गच्छों की व्यवस्था की।
श्री कुमुदेन्दु को सबंश देव को सम्पूर्ण वाणी अवगत थी अतः वे महान ज्ञानी, धुरन्धर पंडित थे लोग इन्हें सर्वज्ञ तुल्य समझते थे और इनके पहले के मंगल प्राभृत भूवलय को गरिणत पद्धति के अनुसार जानने वाला श्री वीरसेनाचार्यं को बतलाया है। तथा श्री जिनसेन आचार्य का "शरोर जन्म से उत्पन्न हुआ घनपुण्यवर्द्धन वस्तु" विशेषरण द्वारा स्मरण करके वीरसेन के बाद श्री जिनसेन, आचार्य को गौरव प्रदान किया है ।
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जहां तक हमको ज्ञान हैं। अंक राशि से निर्मित अन्य कोई ऐसा साहित्य ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं ग्राया । श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने अपने परम गुरु वीर सेन आचार्य की सम्मति से बनाये गये इस "सब भाषामय कर्नाटक काव्य" में वीरसेन आचार्य से पहले को गुरु परम्परा का निम्न रूप में उल्लेख किया है
र
वृषभ सेन, केसरिसेन, बज्रचामर, चारुसेन, वज्रसेन यदत्तसेन, जलजसेन, दनसेन, विदर्भसेन, नागसेन, कुयुसेन, धर्मसेन मंदरसेन जयसेन, सद्धमंसेन, चकबंध स्वयंभूसेन, कुभसेन, विद्यालसेन, मल्लिसेन, सोमसेन, वरदत्तमुनिः स्वयं प्रभारती, और इंद्रभूति ( २४ तीर्थकरों के आदि गणधरों) के "वायुभूति, अग्निभूति सुधर्मसेन, आर्यसेन मुडिपुत्र, मैत्रेय सेन प्रकंपसेन, आंध्र गुरु [ भग० महावीर के] गणधर हुए। इनके बाद श्री प्रभावसेन ने हरिशिव शंकर गणित के एक महान ज्ञाता वनान्स [ काशीपुरी] में बाद विवाद करके जीता और गणितांक रूप पाहुड ग्रंथको रचना करके दूसरे गणधर पदकी प्रशस्ति प्राप्त की । [ श्र० १३,५०८७, १८, ११६]
गुरु परम्परा
गुरु परंपरा के इस भूवलय, धागे "पसरिपकन्नाडिनोडेय र पिसुख यदि कन्नडगक सवरनाडिनोचनिपर"
इस प्रकार कर्नाटक सेन गए के द्वारा संरक्षण तथा संवृद्धि को प्राप्त कर "हरि, हर, सिद्ध, सिद्धांत, अरहन्ताशा भूवलय" [६. १६६-१६०] घरसेन गुरु के निलय [ ७, १६] इस गाथा नम्बर से उद्धृत होकर घरसेनाचार्य से, अर्थात् घरसेन आचार्य करुणा के पांच गुरु को परम भक्ति से आने वाले अक्षरांक काव्य की रचना करके प्राकृत, संस्कृत और कानडी इन तीनों का मिश्रित करके पद्धति ग्रन्थ का इस १३-२१२ अन्तर श्रेणी के ४० श्लोक तक संस्कृत, प्राकृत, कर्नाटक रूप तीन भाषाओं के शास्त्रों का निर्माण हुआ तथा इस सरलमार्ग कोष्ठक काव्य [५-१-७७] को घरसेन आचार्य के पश्चात् भूतवली ने इस कोष्ठक बन्ध अंक [ ८ ५.१] रूप में भूवलय का नूतन प्राकृत दो संधि रूप में रचना कर गुरु उसे परम्परा तक लाये, इतना ही नहीं किन्तु इसके अतिरिक्त भूवलय के कर्नाटक भाग में ही शिवकोटि [४-१०-१०२] शिवाचार्य
[४-१०-१०५] शिवायन [ १०७] समन्तभद्र [ ४-१०-१०१] पूज्यपाद [१६१०] इनके नामों को और भूवलय के प्राकृत संस्कृत भाग श्रेणियों में इन्द्रभूति गौतम गणधर नागहस्ति, यायंमंत्र और कुंद कुंदाचार्यादिक को स्मरण किया है। इस समय अंक राशि चक्र में छिपे हुए साहित्य में नवीन संगति के बाहर निकल आने के बाद इसके विषय में नये नये विचार प्रगट होंगे। हम इस समय जितना प्रगट करना चाहते थे। उतने ही विषय को यहाँ दे रहे हैं।
श्री भूवलय को देख कर एवं समझकर, प्रभावित हुया प्रिया पट्टत के जैन बहामा अत्रे मोत्र का देवप्पा अपने कुमुदेन्दु शतक के प्रथम प्रदेश में महावीर स्वामी से लेकर कुछ श्राचार्य का स्मरण कर उनको नमस्कार कर कुमुदेन्दु के विषय को कहा है। कि श्री वासुपूज्य त्रिविधाघर देव के पुत्र उदय चन्द्र, इनके पुत्र विश्व विज्ञान कोविद कीर्ति किरण प्रकाश कुमुदचन्द्र गुरु को स्मरण करते समय उद्धृत हुआ आदि गद्य
श्री देशीगरणपालितो बुधनुत। श्री नंदिसंघेश्वर । श्री तर्कागमवाधिहिम (म) गुरु श्री कुंद कुदान्वयहः ॥ श्री भूमंडल राजपूजित सज्जुरोः पादपद्मद्वयो | जोधात् सो कुमुदंदु पंडित मुनिहि श्रवगच्छाधिपह ॥
इस पक्ष में देवप्पा ने इसी भूवलय के कर्ता कुमुदेन्दु को देशी गण नंदिसंध कुंद कुंदाम्नाय का बतलाया है। नये गरण गच्छ को निर्माण करके उन्हीं को उपदेश देने के कारण सेनगर में इन्हों को उल्लेखित किया है, और देशीगया का भी उसी में से विकास हुआ हो, ऐसा जान पड़ता है। इस समय भी सेनगर के कर्नाटक प्रान्त में जैन परम्परा के संचालक एवं अनुयायी अनेक जैन विद्यमान हैं और भूवलय ग्रन्थ के कर्ता कुमुदेन्दु गंग रस की विरदाबलो में दिये हुए कोडचड़ ग्राम तलेकात् श्रथवा तलेकाड नंदिगिरि को विश्ववंश जैनधर्म के पवित्र पर्वतों का वर्णन करते समय उनके सम्पूर्ण भाव जो नंदि पर्वत के ऊपर आदिनाथ तीर्थंकर का 'नंदि' चिन्ह् जो बन गया है, वह रूप उनको प्रशान्त भावना से श्रोत-प्रोत है। यह बात उनके वचनों से स्पष्ट होती है ।
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इहके नंदियु लोक पुज्य ॥५-५५।। महति महावीर नन्दि ।५।। भाषानों को समाविष्ट कर वस्तु तत्व दिखलाने का काव्य कोशल नहीं है। इहलोकदादियगिरिय । ६-५६। सुहुमानन्द गरिएतदबेटा।
श्री कुमुदेन्दु के विनीत शिष्य राजा अमोघ वर्ष ने अपने 'कविराज मार्ग' महसीदुमहावत भरत ।६१॥ वहिवनुव्रत नन्दि ।७२।
में कवियों के नामों का जो उल्लेख किया है वह इस प्रकार है:राहतेश गुपगट नेट्न १३' सहबर मूरारमा १७४।
विमलोवय नागर्जुन ! समेत जय घंधुदुविनीतानिगळी ॥ ___ इसका गंगराज के संस्थापक सिंह नर्नद मुनीन्द्र के द्वारा शक सं०१६
करमरोचिगद्या । श्रम पद गुरु प्रतीतियंके योन्जर ।। ईस्वी सन् [७८] में निर्माण हुमा था। पहली राजधानी इनकी नंदिगिरि
विमल, उदय, नागार्जुन, जयवंधु, दुविनीति कवियों में से नागार्जुन होनी चाहिए। हम ऐसा निश्चयत: कह सकते हैं कि प्रस्तुत कुमुदेन्दु उन्हीं ।
द्विारा रचित कक्षपुट तंत्र को समझा फिर नागार्जुन का 'कक्ष पुट तंत्र' जो पहले सिंहनंदि वंश के हैं। इन्हीं की परम्परा का एक मठ सिंहणगद्य में है जहां
| कानडी भाषा में था वह बाद में संस्कृत में परिवर्तन कर दिया गया इस तरह
इस उल्लेख से अनुमान किया जाता है कि यह दुविनीत के शासन समय का जहां सेनगण है वहाँ वहाँ सब इन्हींके धर्म का क्षेत्र है। इस प्रकार संपूर्ण । विषय का विचार करके दिये गए वर्णन को; जो कि देबप्पा ने दिया है, ठीक।
साहित्य हो उपलब्ध है। विमल जयबंधु का काव्य हमें उपलब्ध नहीं हुआ है
तो भी नृपतुग अमोघवर्ष के ग्रन्थ में आने वाले कर्नाटक गद्य कवि प्रिया पट्टन प्रतीत होता है।
के देवप्पा द्वारा कहे जाने वाले कुमुदेन्दु के पिता उदयचन्द्र का नाम ही 'उदय' भूवलय काव्य को देवप्पा ने विशेष रोति से समझ कर जनता के प्रति
हे ऐसा कहने में किसी प्रकार को आपत्ति नहीं है। और इस भूवलय ग्रन्थ में जो उपकार किया है वह उपकार विश्व का दसवा धारचय है। इस भूवलय। आनेवाले पूज्यवाद प्राचार्य ने कल्याण कारक ग्रन्थ को बनाया ऐसा स्पष्ट काव्य को, जो विश्व की समस्त भाषाओं को लिये हुए है। उनको रचना कर
पाया का लिय हुए है। उनकी रचना कर होता है। क्योंकि कुमुदेन्दु से जो पूर्ववर्ती कवि थे उनका समय सन् ६०० से उन्होंने अपने पिता को लोक में महान गौरव प्रदान किया है। इससे सिद्ध
सिद्ध बाद का नहीं है। इस ग्रंथ से हमने जो कुछ समझा है वह प्रायः अस्पष्ट है, होता है कि कुमुदेन्दु के पिता वासु पूज्य और उनके पिता उदयचन्द थे।
पूरा ग्रन्थ हमें देखने को नहीं मिला है। किन्तु हमने जो कुछ देखा है उससे कुमुदेन्दु के समय का परिचय कराने के लिये अभी तक हमें जितने भी। यह भलो भाँत्ति विदित है कि कुमुदेन्दु प्राचार्य के लिखे अनुसार दाल्मीकि साधन प्राप्त हुए हैं उनके आधार पर हम कह सकते हैं कि ग्रन्थ कर्ता । नाम के एक संस्कृत कवि हो गए हैं। [कदि' बाल्मीकि रस दूत अणि सूबा'] के द्वारा उल्लिखित पूर्व पुरुषों के नामों का उल्लेख और उनका संक्षिप्त परि- । इस प्रकार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अपने भूवलय ग्रंथ में शुद्ध रामायण अंक के चय, तथा समकालीन व्यक्तियों के नाम, समकालीन राजाओं का परिचय, कर्ता बाल्मीकि ऋषि के नामका उल्लेख किया है । परन्तु इनके विषय में अभी श्री कुमुदेन्दु का समय निर्धारण में सहायता करते हैं।
1 तक कुछ निर्णय नहीं हो सका है। कोई कहता है कि वह छठी शताब्दी के श्री कुमुदेन्दु से पूर्व होने वाले प्राचार्य धरसेन, भूतबलो पुष्पदन्त, नाग-है कोई कहता है कि उसके बाद के हैं। इस तरह उनके समय सम्बन्ध का हस्ति, पार्थ मा और कुदकुदादि, एवं अन्य रीति से उल्लिखित शिवकोटि, ठीक निर्णय नहीं हो सका है कि वे कब हुए हैं। शिवायन, शिवाचार्य, पूज्यपाद, नागार्जुन ये सब विद्वान पारवी शताब्दी से अमोघ वर्ष की सभा में वाद विवाद करके शिव-पार्वती गरिएत को कह पूर्ववर्ती हैं। उनकी परम्परा के ग्रन्थ न मिलने पर भी संस्कृत प्राकृत और कर चरक पैच के हिसात्मक प्रायुर्वेद का खण्डन किया। इस तरह कुमुदेन्दु कर्नाटक भाषा में लिखा हुआ विपुल साहित्य, तथा विश्वसेन भूतबली पुष्प- प्राचार्य के द्वारा कहा गया उक्त उल्लेख अभी तक अस्पष्ट है। प्राचार्य दन्तादि की रचनाएं विद्यमान हैं। पर उनमें कुमुदेन्यु के काव्य समान समस्त । समन्तभद्र का उल्लेख भी अभी विचारणीय है। इस कथन से स्पष्ट है कि कुमु
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देन्दु के द्वारा उल्लेखित सभी कविजन छठी शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। कुमुदेन्दु के समकालीन व्यक्तियों में से एक वीरसेनाचार्य दूसरे जिनसेनाचार्य, वीरसेनाचार्य के द्वारा षट् खण्डागम की धवला टीका बनाई गई है। और जिनसेन महा पुराण के कर्ता है। उन्होंने अपनो जयधवला टीका शक सं० ७५६ में बना कर समाप्त की है और महा पुराण भी लगभग उसी समय वे मधूरा छोड़कर स्वर्गवासी हुए हैं जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया या अतः बाद में उस समय उनके शिष्य कुमुदेन्दु मौजूद थे ऐसा अनुमान किया जाता है।
१३ – कुमुदेन्दु प्राचार्य ने राष्ट्र कूट राजा अमोघ वर्ष को अपना यह ग्रंथ सुनाया था ऐसा कहा जाता है। मान्यखेट के प्रमोघ वर्ष का समय इस से निश्चित रूप में कहा जा सकता है। कुमुदेन्दु आचार्य ने अपने ग्रन्थ में अमोघ वर्ष के नाम का कई बार उल्लेख किया है। जैसे कि
भारतदेशद मोघवर्धन राज्य । सारस्वतबंबंग १८ १२६ ।
तनल्लि मान्यखेटददोरेजिनभक्त । तानुप्रमोघवर्षांक ६.१४६ । सिहियखं उदकर्नाटकचक्रिय । महिमेमंडल भेज्ञरांतु १६-१७२। गुरुविन चरणधूळिय होमोघांक । दोरेयराज्य 'ऴ्' भूवलय ॥ जानरमोघवर्षांकनसभेयोळु । क्षोणिशसर्वज्ञभर्तादि ॥ इह ये स्वर्गवीएवंतेरदिम् । ६१७६ | दहिसि अमोघवर्षनृप || ऋषिगळेल्लरुएरगुते रविर्दाळ । ऋषिरूपधर कुमुदेन्दु ॥ हसनादमनदिदमोघवर्षांकगे । हेसरिट्टुपेळ द श्री गीतं । ४५ । ऊनविल्लद काव्यदक्षरांक काव्य करणिपर्वकु ंठ काव्य ॥ ४६ ॥ ऊनविल्लद श्री कुरुवंशहरिवंश | आनंदमय वंशगळलि । तानेतानागि भारतवादराज्यद । श्रीनिवासन दिव्य काव्य । सिरि भूवलयम्नाम सिद्धांतनु । बोरे प्रमोध वर्षांक नृपम् । ईयुत कर्माट जनपदरेल्लर्गे । श्रेयोमपिलधर्मम । १६-२४, ५ इस प्रकार अमोध वर्षका अनेक प्रकार से सम्बोधन करते हुए जो उद्धईस्वी सन् ८१४ से ८७७ तक उसने संदेह नहीं है। इनके गुरु का समय
र दिये गये हैं। अमोघ वर्ष का समय राज्य किया है, इसमें किसी प्रकार का
ईस्वी सन् की ८ वीं शताब्दी होना चाहिये ऐसा अनुमान किया जाता है । कुमुदेन्दु श्राचार्य ने गंग रस और उनके शंका कास्मरण किया है। और गोट्टिक नामक शैवट्ट शिवमार्ग के नामका उल्लेख भी किया गया है जैसे किमहदादिगांगेयपूज्य | ५६ | महियगन्गरसगरिंगत १६६ | महिय काप्पुकोवळला । ७१ । मवरितलेकाच गंग ॥ ७२ ॥ अरसराळिदगंगवंश | १२| त् रसोत्तिगेयवर मंत्र ॥१३॥ एरडुबरेय द्विपबंद | १४| गरुन गोट्टिगरेलुरंद ११५| अरसुगळाळ् वकळ्व पु | २० | बंगबनुभव काव्य 1२३| श्रादि योळ मत्त वदसेनर । नादिय गंगर राज्य । सादि अनादिगळ भय साधिप । गोदम निम्बंव वेव । २३ ।
इन समुल्लेखों से यह स्पष्ट है कि आचार्य कुमुदेन्दु ने जो श्रमोष
वर्ष का 'शैवह' शिवमार्ग' नाम से उल्लेखित किया है वे उनके प्रारम्भिक नाम ज्ञात होते हैं । “शिवमार देवम् संगोट्टनेबेरडेनये पेसरमुताल्दिः, शिवमार मत तथा गजशास्त्र की रचना कर और पुनः एनेलवदो शिवमारम । हो वलया-' fare सुभग कविता गुणमय' ।। भूवलय दोल" गजाष्टक | योगवनिगेयु "मोने के बाडु” मादुदे पेलगुम् ।
इस तरह पर कानडी गद्य में मजाष्टक नाम के काव्य की रचना की
है ।
यह शैव वट्टिग शुभ कविता बनाने में प्रवीण थे भूवलय में गजाष्टक वसिके वास इत्यादि काव्य कूटने और पीसने के विषय में कविता कर्नाटक भाषा में चत्तान्न वेदन्न' ऐसे दो प्रकार के पुराने पद्य पद्धति में पाये जाते हैं। जो कि पुरातन काव्य की रचना शैली को व्यक्त करते हैं। जहां तक प्रमोषवर्ष के काव्य का सम्बंध है, उसमें उल्लिखित उक्तदोनों काव्य हैं। उनको इन्होंने निश्चय से उपयोग किया है।
शिवमार्ग बट्टि ने दक्षिण कर्नाटक का राज्य ईस्वी सन् ८०० से ८२० तक किया हैं। इसके पश्चात् गंगरस राजा नंदगिरि ने ( लाल पुराधीश्वर ) (राजा) शासन किया है। इतना ही नहीं, किन्तु इसके अलावा इस भूवलय में
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किडवण्य' 'कल्ल वप्पु' (धवरणबेलगोल) का पुरना नाम है यह ७ वीं शताब्दी । बीरसेन, समंतभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, गृद्धपिच्छ, जटासिंहनंदो अकलंक के पहले के शासन में 'बड्ढारक' नामक प्राचीन ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लिखित । शुभचन्द्र "कृमुदेन्द्र मुनि" विनयचन्द्र, माघवचन्द्र, राजगुरु, मुनिवंद्र, बालचंद, मिलता है। यह स्थान गंग राजा के एक प्रान्त को राजधानी था ऐसा मालूम भावसेन, अभयेंदु, माघनंदियति, "पुष्पसेन' यह कुमुटु भो भूवलय के कता होता है। जैसे अन्य पुण्य तीर्थ है, उसी तरह इसे भी पुण्य क्षेत्र माना जाता नहीं है। इस विषय का अनुशीलन किया जाय तो कुमुदेन्दु गुरु का और उनके । समुदायके माघनंदी-(ई० मु० १२६०) इनको गुरुपरम्परा में मूल समकालीन राजा का क्रिश्चियनज्ञक ८१३ से ५१४ के मध्यवर्ती में सिद्ध होगा।
संघ बलत्कार गण के बगान (अनेक तने मास के शिष्य होने के वाद) श्रीधर इसे हम स्थल रूपमें कह सकते हैं। भूवलय के पागे के अध्याय को जहां तक शिष्य वाम् पूज्य, गिज्य उदयचंद्र, मिप्य कुमुदचंद्र, शिष्य माघनंदि कवि, यह टोग्रंक पर मे निकाल कर देखने के बाद मिलने वाले जितने चाहें उतने साहित्य कमदचंद्र भी भयलयके कर्ता नहीं हैं। से मिश्वियन शक १३ से ५१४ के बीच एक निश्चत समय हमें मिल जाता।
1 कमल भव-(२० म० १२७५) इनके द्वारा बतलाई हुई गुरु परम्परा में है। इससे कुमुदेन्दु प्राचार्य, किश्चियन शक ८ वीं शताब्दी में हुए हैं।
। कोंडकुन्द, भूतबलि, पुष्पदन्त, जिनसेन, वीरसेन, (पागे २३ व्यक्तियों के और वादी कुमुदचन्द्र-(ईसवी सन् १९००) में इन्होंने जिन-संहिता नामक
नाम कह कर) पद्मसेन वति, जयकीति, कुमुदेन्दु योगो, शिष्य माघनंदो मुनि प्रतिष्ठाकल्प की कानडी टोका लिखी है। यह "इति माघनंदी सिद्धांत चक्रवर्ती। इस तरह छह विद्वा के बाद" स्वगुरु माघनदो पंडित मुनि प्रादि है, इस गुरु के पुत्र चतुर्विध पदिन चक्रवर्ती श्री वादी कुमुदचन्द पंडित देव विरचिते' परम्परा में तीन माघनंदी का नाम पाया है। यह कुमदेन्दु भी भूवलय के कर्ता इस प्रकार उनकी स्तुति की गयी है।
नहीं हैं। पाव पंडित-(सन् १९०५) यह अपनी गुरु परम्परा को कहते हुए। इसी तरह कुमुदेन्दु या कुमुदचन्द्र नाम के और भी अनेक विद्वान हो गए वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, सोमदेव, वादिराज, मुनिचन्द्र, श्रुतकोति, नेमिचन्द्र हैं उनकी गुरु परम्परा प्रस्तुत कुमुदेन्दु से भिन्न है, और समय पर्वाचीन है, ऐसी वासपूज्य, शिष्य, थुतकीर्ति, मुनिचन्द्र, पुत्र वीरनंदि, मेमिचन्द्र सैद्धांतिक स्थिति में अन्य नामधारी कुमुदेन्दु नाम के विद्वानों के सम्बन्ध में यहाँ विशेष बलात्कारगरण के उदयचन्द्र मुनि, नेमिचन्द्र भट्टारक के शिष्य वासुपूज्य मुनि, विचार करने का कोई असर नहीं है। क्योंकि उनका प्रस्तुत ग्रंथकर्ता से रामचन्द्र मुनि, नंदियोगी, शुभचन्द्र, कुमुद वन्द्र, कमलसेन, माघवेंदु, शुभचन्द्र सम्बन्ध भी नहीं ज्ञात होता, अस्तु । शिप्य, ललितकोनि, विद्यानंदि, भावसेन, कुमुदचन्द्र के पुत्र वीरनंदि इत्यादि
भाषा और लिपि मुनियों की स्तुति की है। इनमें से कोई भी कुमुदेन्दु प्राचार्य से सम्बन्ध
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के कहने के अनुसार श्री आदि तीर्थंकर वृषभदेव के नहीं रखते।
गणघर वपनसेन से लेकर महावीर गणधर इन्द्रभूति तक सभी गणघर कुमुद- (६० सन् १२७५) कुमुदचन्द्र की इस गुरु परम्परा में ! कर्णाटक प्रान्त वाले ही थे इसलिये सभी तीर्थकरों का उपदेश सर्व भाषात्मक बोरसेन, जिनमेन (विद्वानों के बाद) वासु पूज्य के शिष्य अभयेन्दु के पुत्र | उस दिव्य दामो में हना था और उसो का प्रमार समस्त लोक में किया गया "कुमुदेन्दु" माधवचन्द्र अभयदु, कुमुदेन्दु अति पुर, 'माघनंदि मुनि, बालेन्दु । था। सर्व भाषात्मक उस दिव्य वाणी को प्रमाग संबद्ध रूप से व्यक्त करने को जिनचन्द्र" यह कुमुदन्द मुनि भी भूबलय के कर्ता नहीं हैं।
शक्ति केवल कर्नाटक भाषा में ही है। ऐसा कहा जाय तो कोई अत्युक्ति महाबल कवि-(ई. सन् १२५४) इनको गुरु परम्परा में जिनसेन । नहीं होगी।
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आदि तीर्थंकर श्री ऋषभ देव के द्वारा अपनी दोनों पुत्रियों को दिया वस्तुओं को दोनों का बटवारा करके देते समय एक को एक दिया और दुसरो हमा ज्ञान, कनाड़ी भाषा में हो या भोर यह भी कहा जाता है कि उनके मोक्ष पुत्री को दूसरा दिया ऐसा उनके मन में भाव न हो और उनको पता भी न पड़े जाने के पूर्व उन्होंने बड़ी रानी यशस्वती के पुत्र भरत को साम्राज्य पद और इस तरह एक ही वस्तु में दोनों को भिन्न भिन्न रूप में बतलाकर उन दो! लघु रानो सुनन्दा के पुत्र गोमंद देवको पोदनपुरका राज्य प्रदान किया। को भी संतुष्ट कर दिया।
पश्चात् उनकी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी देवो ने मिलकर पिता से इस पद्धति के अनुसार तमस्त शब्द समूह को प्रत्येक ध्वनि और प्रतिनिवेदन किया कि हे तात ! ऐसी कोई शाश्वत वस्तु हमें भी प्रदान कीजिये ।
1 ध्वनि रूप अक्षर संज्ञा को परिवर्तन करके इस अंक अक्षर को चक्रबंध प में इस तरह प्रार्थना करने पर पिता ने कहा कि ठीक है, परन्तु सभी लौकिक पहले ही गोम्मट देव के द्वारा अर्थात् बाहुबली के द्वारा "समस्त शब्दागम शास्त्र वस्तुएं पहले ही वे अपने पुत्रों को दे चुके थे।
रूपमें रचना किया गया है। उस दिनसे परम्परा रूपसे ही वह श्रीकुमदेन्दुप्राचार्य मगवान् वृषभदेव ने मन में सोचा कि इनको कोई लौकिक वस्तु देने ।
तक चला पाया है इस तरह इसमें उल्लेख किया गया है। उस समय प्रादि से क्या फायदा, कोई ऐसी चीज देना चाहिए कि जो परलोकमें भी इनको कीति !
तीर्थकर के द्वारा दिया हुआ अंक लिपिके अक्षर लिपि अलावा और भी उस समय को कायम रखे। इस तरह सोचकर भगवान् वृषभदेवने अपनी दोनों पुत्रियों को
वृषभदेव सर्वज्ञ पद (केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद कहा हा दिव्य उपदेश बुलाकर संपूर्ण ज्ञान साधन के आधारभूत वस्तु इन्हें देना चाहिए, ऐसा सोचकर।
भी करणटिक भाषामें ही कहा था श्री कुमुदेन्दु भाचार्य कहते हैं । कि इस गणित बुलाया और ब्राह्मो देवी को अपने जंघा पर बिठा कर उनके बायीं हथेली में
१ भाषा में विश्व को ७१८ भाषायों को अपने अन्दर खींचकर समावेश करने वाले अपने दाया हाथ के अंगुष्ट से संपूर्ण भाषाओं को पूर्ण करने के लिए जितना ।
अंक भाषा शास्त्र में उपलब्ध है ऐसा बतलाया है। मंक चाहिए उतने हो अंक को असे लेकर अ, इ, उ, ऋ, लू, ए, ऐ, यो, प्री
इश्व भूवलय दोळनुरु हदिगेन्दु । सरस भाषेगवतार ।४-१७७. .. इन नो भक्षर को हस्व, दोघं प्मुत के सत्ताईस स्वरों तथा पुनः क, च, ट, त, प, इस वर्गके पच्चीस वगित के अक्षरों को य, र, ल, व, श, प, स, ह, इन पाठ
वरद वादळनूरहदिनेन्टु भाषेय । सरमाले यागलु विद्या॥१०-२१० व्यजनों को तथा मागे, ०,००, ०००, ००००ये चार प्रयोग वाहनों को मिला- साविर देंटु भाषळिरलिबनेल्ला पावन यह वीर बारगी। कर ६४ चोसट अक्षर रूप, वर्णमालानों की रचना कर उनके हाथ में लिखा काव धर्मान्कबु ओंबत्तागियर्याग । तायु एनरकं भाष।५०-१२६। और उनको कहा कि ये अक्षर आपके नाम से यह अक्षय होकर रहें, और यह इबरोळु हुदगिद हदनेन्दु भाषेय । पइगळ गुणिसुन बरुवर् । सम्पूर्ण भाषानों को इतने ही पर्याप्त हैं ऐसा कहकर उनको आशीर्वाद दिया ।
बासवरेल्लाडुव दिव्य भाषेय । राशिय गरिएतदे कदि ।। दूसरी अपनी सुन्दरी नामक छोटी पुत्री को दायीं जंघा पर बिठाकर !
आशाधर्मामृत कुम्भदोळडगिह । श्री शनेननरंक भाषे।५-१२३। उनकी बाया हथेली में अपने दायें हाथ की अंगुष्ट से एक विदो इस तरह
मिक्किह एळ नूरु कक्षर भाषेयम् । दक्किय द्रव्यागमर । लिखकर उसी के समानरूप से दो छेद करके उसे ही प्राधा आधा छेदकर १,२,1 ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, लिख दिया । पुनः इसको एक में मिला देने से पहले।
तषक ज्ञानव मुदरियुष प्राशेय । चोक्क कन्नडद भूवलय ।५-१७५ के समान विदो रूप होता है और इन छेद को एक मेंको मिलाकर इस ग्रंक को। प्रकटित सर्व भाषांक (६-१४) धनवोदतर हबिनेट । हो वर्ग पद्धति के अनुसार मिलाते जाने से विश्व के समस्त मणु परमाणु ग्रहण वर्तमान भाषायें (६-४५-४६) सात सौ अठारह है। -१७४) उनमें करने के लिए जितने अंक आवश्यक हों उतने ये अंक पर्याप्त है । ऐसा भगवान सात सौ क्षुल्लक भाषायें और अठारह भाषायें कुल मिलाकर सात सौ अठारह मे इस पंक विद्याको, पुत्री सुन्दरो देवी को समझा दिया । और तदनुसार प्रत्येक 1(६.१६१) होती हैं।
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धो.
वशवाद काट देंटु भागव । रस भंग दंकक्षरसर्य।
गन्धर्व, आदर्श. माहेश्वरी, दामा, बोलधो, इस प्रकार के विचित्र नामादि का रसभावगळनेल्लब कूडलु वंदु । वशवेळनूर हदिने'टु भाषे।। । उल्लेख कर विवेचन किया गया है। प्राचार्य कुमुदेन्दु ने अपने भूवलय में सात सौ
॥११-१७१।।। अठारह भाषामों में से निम्न भाषामों का उल्लेख किया है, कर्नाटक में प्राकृत, इस प्रकार ७१८ भाषाओं को गर्भित करके सरल तथा प्रौढ रीति से । संस्कृत, द्रविड, अन्ध्र, महाराष्ट्र मलयालम, गुर्जर, अंग, कलिग, काश्मीर कम्बोज, श्री कुमुदेन्दु पाचार्य ने इस विश्व काव्य की रचना को है।
हमीर, शौरसेनी बाली, तिब्बति, व्यंग; बंग, ब्राह्मो, विजयाई, पद्म, वंदर्भ, इस तरह अपने काव्य अन्थ को सर्व भाषामय कर्नाटक भाषा में रचा है, वैशाली, सौराष्ट्र, खरोष्ट्री, निरोष्ट्र, अपभ्रशा, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरिष्ट, इसमें पुरातन और नूतन दोनों भाषाओं को गर्भित किया गया है। कुमुद- अर्धमागधी, (५-१०-२८-१०-५८) इनके अलावा और भी बतलाते हैंचन्द्राचार्य ने संयुक्त भाषा को इस तरह वितरण किया है कि संस्कृत, मागधी, पारस, पारस सारस्वत, वारस, बस, मानव, लाट, गौड, मागध, विहार पैशाची, सूरसेनी, विविध देशभेदवालो अपभ्रंग पांच नो, (५-१०-६-3-६) इन। उत्कल कान्यकुटज, वराह, वैगा , वेदान्त, चित्रकर और यक्ष राक्षस, हंस, भाषामों को तीन से गुणा करने पर अठारह होता है ।
भूत, ऊइया, यव, नानी तुर्की, मिल, संन्धव, माल परिणया, किरिय, देव नागरी, कर्नाटक, मागध, मालव, लाट, गौड, गुर्जर प्रत्येकत्र मित्यष्टादश, महा- । लाड, पाशी अमित्रिक, चारिणक्य, मूलदेवी इत्यादि (५-२८-१२०) इस प्रकार भाषा (५-९-७-६-८) इस प्रकार उल्लेख किया गया है ।
। आने वाली भाषा लिपियों को इस नबमांक समश नामक कोष्टक को एक ही सर्व भाषामयो भाषा विश्व विद्यावऽभासने ।
अंक लिपि में ही बांधकर उन सम्पूर्ण भाषानों को इस कोष्टक रूप बंधाक्षर के. त्रिषष्टि चतुपष्टिा बनाट् शुभनते मताः।
अन्तर्गत समाविष्ट करके सभी कर्माटकके अनुराशिमें मिश्रित कर छोड़ दिया प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंभुवः ।
है। कुमुदेन्दु के समान अन्य किसी महापुरुष में सम्पूर्ण भाषाओं को एक ही प्रकारादि हकारांन्तां शुद्धां मुक्तावलिमिव ।
| अंक में गर्मित कर काव्य रूप में गुफित करने की शक्ति नहीं हैं ऐसा में निश्चय सर्व व्यंजन भेदेन द्विधा भेदमुपयुम ।
से कह सकता हूं।
- भूवलय ग्रन्थ की परम्परा इतिहास । प्रयोगवाह पर्यन्तां सर्व विद्या सुसंगतांम् ।
भवलय नामक विश्व काव्य की परम्परा को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने प्रयोगाक्षर संभूति नंक बोजाक्षरश्चिता ।
। इस प्रकार बताया है कि प्राचीन काल में प्रादिनाथ तीर्थकर ने अपने समवादिवघत् ब्राह्मो मेघा विन्यति सुदरी गरिएतं ।
राज्य को, अपने पुत्र भरत और बाहुबली को बटवारा करके देते समय उनकी स्थानंक्रमः सम्यक् दास्यत् सतो भगवतो वक्तारः मिह श्रुताक्षरा पुत्रि ब्राह्मो और सुन्दरी इन दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण ज्ञान के मूल ऐसे अक्षरांक चलि, दभः इति व्यक्त सुमंगला सिद्ध मातृकं स भूवलय।। को पढाया था इस बात का हमने उपयुक्त प्रकरण में ही समझा दिया है । दोनों
(५.१.२.२.१.४.५० बहिनों को पढ़ाया हा प्रक्षरांक गणित-ज्ञान-विद्याको भरत ने सीखने की इच्छा इस संस्कृत गद्यमें प्राचार्य कुमुदेन्दु ने सर्व भाषामयो भाषा का निरूपण व्यक्त नहीं की। किया है। और अंक लिपि में सात सौ अठारह भाषाओं में से प्रत्येक का
विचार परायन गोमट देवनामोल्लेख किया गया है। ब्राह्मी, पवन, परिका, वराटिका, बजीद, खरसायिका रुगनु दोर्बलियवरक्क ब्राह्मोयु । किरिय सौंवरि परिति । प्रभूतका, उच्चवारिका, पुस्तिका, भोगवता, वेदनतिका, नियंतिका, अंक गरिपत । अरलाल्काक्षर नवमांक सोन या परिहर काव्य भूवलय।।
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गणित काव्य
यशस्वति रेविय मगळाद बाहोगे। असमान काटकद । मनविटूटु कलितनाद कारणविंदा मनुमथ नेनिसिबे देव।।
'रिसियु' नित्यवु अरतनाल्कल्कक्षर। होसेद अंगय्य भूवलय। इस अक्षर अंक गणितको मनःपूर्वक सीखने वाले होने के कारण बाहुबली करुणोयम् बहिरंग साम्राज्य लक्ष्मिय । अरहनु काटकद । का नाम मन्मथ भी इसी तरह पड़ा है ऐसा इस श्लोक से प्रतीत होता है । इस- सिरिमातायतते बोंरिपेळिद । अरवत्नाल्क भवलय ॥ लिए इसके निमित्त से इस अंक गणितके कर्ता बाहुबली को माना है । इस अंक 'धर्म ध्वज' वदरोळु केतिदचक्र । निर्मलदष्टु हगळम । चक्र का उपदेश बाहुबली ने जब बड़ा भाई भरत के साथ पाठ प्रकार का युद्ध सर्व मनदगल' केवतोंटु सोनय । धर्मद कालुलक्षगळे ।। हुचा था उस समय अपने भाई का अपमान करने के प्रति उनके मन में वैराग्य
प्रापाटियंक दोळ ऐदुसाविर कूडे । श्रीपाद पद्म दंगदल 11 हुया था उस वैराग्यमैं अंत समयमें भरत चक्रवर्तीने समझा कि ये तो अब मुनि
१-२३-३०-६५-६ होकर कर्म का क्षय करके मोक्ष चला जायगा । इस लिए इन से कुछ दान
यह चक्र ५१०२५०००+५०००=५१०,३०००० दल अंक रूप में मांगना चाहिये । इस तरह उनको उन्होंने कहा । तब बावली सपा विरक्त
अक्षर होकर गणित पद्धति के अनुसार रचना की है इस काव्य को ही कुमुदेन्दु होने के कारण उनके पास कुछ चीज देने योग्य नहीं यो। पीर पाहार दान,
। प्राचार्य ने स्पष्ट रूप में कहा है। शास्त्र बान, पौषध दान और अभय दान के अतिरिक्त और कोई दान देने योग्य
अनादि काल से यह चक्रबद्ध काव्य आदि तीर्थंकर से लेकर महावीर नहीं था। परन्तु मन में यह विचार किया कि मेरे पिता ने जो मुझे शास्त्र दान
तक इस की परम्परा वरावर चली आई है। जब भगवान महावीर को केवलदिया है। उसी को मेरे भाई को देना उचित है। अन्य तीन दान मेरे द्वारा।
ज्ञान हो गया तब महावीर की वह दिव्य वाणी (दिव्य पनि) सर्व भाषा देने योग्य नहीं । ऐसा विचार करके अपने पिता के द्वारा अपनो दोनों बहिनों से।
स्वरूप होने लगी। उस समय महावीर के सबसे प्रथम गणधर इन्द्रभूति ब्राह्मण समझी हुई "अक्षरांक समन्वय पद्धति" का आदीश्वर भगवान ने अपने को उपदम किया था वैमा ही सम्पूर्ण ज्ञान को सर्व भाषामयी ज्ञानमें जैसे अन्सभुक्त।
कर्नाटक, संस्कृत, प्राकत आदि अनेक भाषाओं के बिद्वान थे, उन्होंने ही महा
वीर की वाणी का अवधारण कर भव्य जीवों को वस्तु स्वरूप समझाया था। कहा था उसी तरह इस संदर्भ को जैसा कि श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भूवलय के
गणधर के बिना महाबीर की वाणी ६६ दिन तक बन्द रही, क्योंकि यह नियम पहले अध्याय के उन्नीसवें लोक में कहा है कि
है कि तीर्घदूर की बागी विना गणघर के नहीं खिर सकती। भगवान महावीर लावण्य दंग मेप्याद गोमट देव । आवागतन्न अण्ण निगे।
के मोक्ष जाने से पूर्व तक गौतम इन्द्रभूनि नें उनकी वाणी का समस्त संकलन ईवाग चक्रबंधद कटिनोळ कट् ि। वाविश्वकाव्य भूवलय।। करके राजा थेरिएक और चेलना रानो एवं अन्य सभा के लोगों को उसका
इस प्रकार कहे हुए समस्त कयन पर से पोर कुमुदेन्दु प्राचार्य के मता- भान कराया था। इसके बाद प्राचार्य परम्परा से जो पुराण चरित एवं कथा नुसार इस भूबलपर्क पादि कर्ता गोमटदेव ही हैं। इस काव्यको भरत वाहवली साहित्य तथा सिद्धांत ग्रन्थ रचे गए वे मन महावीर की वाणी के अनुरूप थे युद्धके बाद जब बाहुबली को वैराग्य हो गया, सब उन्होंने ज्ञान भंडार से भरे ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अपने भूवालय ग्रन्थ में प्रकट किया है। हुए इस काम को अन्तमुहूर्त में भरत चक्रवर्ती को सुनाया था। वहीं काव्या प्राचार्य कुमुदेन्दु ने नवमात्र से जो गग्गिन में काव्य रचना की है उसे परम्परा से पाना हुया गणित पद्धति अनुसार अंक दृष्टि से कुमुदचन्द्राचार्य द्वारा 'करण मूत्र' नाम प्रकट किया हैं। इसके सम्बन्ध में दो तीन लोक उद्धृत चक्रबंध रूप में रचा गया है।
1 किये जाते हैं
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नवकार मंतर दोळादिय सिद्धांत । अवयव पूर्वेय प्रय।
साविर दोंदुवरे वर्षगळिच । श्री वीर देव निम्बद । बवतार दादिमद्' क्षरमङ्गल । नव प्रप्रमअप्रमअप्रत्र । पावन सिद्धांत चक्र श्वर रामि । केवलिगळ परंपरेयिम् ।। वशगोंड 'प्रादि मङ्गल प्राभृत' । रसद'प्र'अक्षरबदु तानु ।२-१३१।। हुविना युर्वेद दोळ महाव्रत मार्ग । काव्यवुसुखदायकवेन् । प्रष्ट कर्म गळम् निर्मूल माळप । शिष्टरोरेद पूर्वेकाव्य 1३-१५२। दाव्यक्तदभ्युदय वनयशरेयव । श्री व्यक्तबिंब सेबिसिद ।४।. तारुण्य होवि 'मङ्गल प्राभूत' दारदंददे नवनमन ।४.१३२॥
यह विश्व काव्य भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर प्राचार्य परम्परा परम मंगल प्राभूत दो अकंव। सरिगडि बरुव भावेगळम्।५-७६ द्वारा डेढ़ हजार वर्षों से बराबर चला आ रहा था ! उसी के आधारसे को गई कुमुवेश्य हदिलिपूर्ष श्री विध्यारह सूत्रांक |१०-१०.११ देन्दुको यह रचना विक्रम की नौवीं शताब्दी की मानने में कोई पापत्ति नहीं है। श्री गुरु 'भगल पाहुडदिम पेळ्छ। राग विराग साथ.१०-१०५
भूयलय के छंद रस वस्तु पाहुड मगलरूपद । असदृश वैभव भाषे ।१०-१६५।। कुमुदेन्दु प्राचार्य के समय में भारत में जो काव्य रचना होती थी उसमें
इस पाहुड ग्रन्थमें प्रागे भी कहा है। कि (१०-२१२) जिनेन्द्र वाणी के विभिन्न छन्दों का उपयोग किया जाता था। कुमुदेन्बुने, दक्षिण उत्तर श्रेणी की प्रामृत (१००-२३७) रसके मंगल प्राभृत मंगल पर्याय को पढ़कर (११-४३) मिलाकर अपने शिष्य अमोघ वर्ष के लिए अनेक उदाहरणों के साथ नयो और मंगल पाहुड (११-६२-६२) इत्यादि
पुरानी कानडी मिलाकर प्रौढ़ और मूर्खजनों के हित के लिए उक्त रचना की थी, तुसु वारिणय सेविसि गौतम ऋषियु । यशद भूवलयादि सिद्धांत ।
क्योंकि पूर्व समय में पुरानी कानड़ी का प्रचार उत्तर भारत के प्रायः सभी सुसत गळभरके काबेंच हन्नेरड्। ससमांगवतु तिरहस्तदा१४-५॥
स्थानों पर होता था, और दक्षिण में तो था ही। कुमुदेन्द आचार्य ने ग्रन्थ
रचना करते समय इस बात का ध्यान जरूर रक्खा था कि किसी को भी उससे इस प्रकार गौतम गणधर द्वाराही सबसे पहले यह भूवलय ग्रन्थ ५ भागों में द्वादशांग रूपसे रचना किया गया था और उसे 'मंगल पाहुड' के रूपमें उल्लेखित !
बाधा न पहुंचे । इसलिये सर्व भाषामय बनाने का प्रयत्ल किया है। अतएव
उभय कर्नाटक भाषाओं में ही सर्व भाषाओं के गर्भित करने का प्रयत्न किया भी किया था। इस कारण इस ग्रन्थ की रचना महावीर के निर्वाण से थोड़े समय ।
गया है। भूवलय के कानड़ी श्लोक के विषय में ग्रन्थकर्ता ने यह दर्शाया है बाद में ही हो गई थी। इस समय भगवान महावीर के निर्वाण समय को।
कि जनता के पाग्रह से उन्होंने कर्नाटक भाषा में रचने का प्रयत्न किया है और २४८४ वर्ष व्यतीत हो गए। महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष बाद विक्रम ।
उसे सुगम बनाने के लिये ताल चौर क्रम के साय सांगत्य छन्द में लिखा है संवत् शुरू हो जाता है । यद्यपि गौतम बुद्ध और भगवान महावीर समकालीन हैं, दोनों का उपदेश राजगृह में दा भिन्न स्थानों पर होता था, परन्तु वे अपने जीवन
1 तथा दलोक १२३-१२४ का उल्लेख किया है। में परस्पर मिले हों ऐमा एक भो प्रसंग परिजात नहीं है । और न उसका कोई
लिपियु कर्माटक वागलेवेकेंव । सुपवित्र दारिय तोरि। ... समुल्लेख ही मिलता है । परन्तु यह ठीक है कि महावीर का परिनिर्वाण
मपताळ लयमूडि 'दार साविर सूत्र' । दुपसवहार सूत्रबलि । गौतम बुद्ध से पूर्व हुपा था। इस चर्चा का प्रस्तुत विषय से काई विशेष सम्बन्ध वरद बागिसि अति सरल बनागि । गौतमरिद हरिसि । नहीं है, अतः यहां प्रकृत विषय में विचार किया जाता है-प्राचार्य कुमुदेन्दु ने सकिदरयत्नाल्कक्षरदिद । सारि श्लोक 'पारुलक्षगळोळ् ॥ भगवान महावीर के समय के सम्बन्ध में 'प्राणवायुपूर्व में निम्न प्रकार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने नस काब्य-ग्रन्धको ताल और लय से युक्त छह हजार सूत्रों उल्लेख किया है
तथा छह लाख श्लोकों में रचना की है ऐसा उन्होंने स्वयं उल्लेखित किया है।
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कुमुदेन्दु के शिष्य नृपनु जने अपने कविराजमार्ग में नया पूर्व कवि नांग ओदिनोळत मुहर्तदि सिद्धांत । दादि ग्रंतप बनेल्ल चित्त ।। अपनी कविता में चतन वेदंदा' नाम की पद्धति में रचना की है। कुमुदेन्दु ने साधिप राज अमोघ वर्षनगुरु । साधिपश्रमसिद्ध काव्य 18-१६५॥ अपने काव्य को 'चत्तन्न बेदंडा' पूर्वी का मार्ग में 17 बार गे
पूर्वाचार्यों को समान इन्होंने ४६ मिनट में नाय को रचना की है, ऐसा बढ़ा दिया है। चत्तन्न को चार भाग में और वेदंड को १२ अध्याय १२ ।
उल्लेख किया गया है । यह सर्व भाषामयी, कान्य मुड़ और प्रौढ़ सभी लोगों अध्याय के अंत तक अन्तर्गत रूप दंढक रूप गद्य माहित्य में रचना करके ना।
को लक्ष्य में रखकर सरल भाषा में रचा गया है। सात मो अठारह भाषाओं तुग के पहले कर्नाटक छन्द को दर्शाया है। कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अपने काव्य में
को पाथ्य में निहित करते हुए कहीं-कहीं चक्रबद्ध और कहीं-कहीं चिन्हबद्ध काव्यों कहा है कि :
से अलंकृत किया गया है पहले यह ग्रन्थ मूल कानडी भाषा में छपा है उसमें मुद्रित मिगिलादतिशय देनर हदिनँटु । अगणित दक्षरभाषे ।।-१९८।
ग्रन्थ के पद्यों में श्रेणिबद्ध काव्य है। उस काव्य बंध में आने वाले कन्नड काव्य शगणादि पद्धति सोगसिम् रचिसिहे । मिगुबभाषेयु होरगिल्ल ।
1 के प्रादि अक्षरों को ऊपर से लेकर नीचे पढ़ते जांय तो प्राकृत काव्य निकलता चरितेयसांगत्य वेने मुनि नायर । गुरु परंपरेय विरचिता-१६६।
है और मध्य में २७ अक्षर बाद ऊपर से नीचे को पढ़ने पर संस्कृत काव्य चरितेय सांगत्य रागदोळगिसि । परतंव विषय गळेल्ला७१६२। निकलता है। इस तरह पद्यबद्ध रचना का अलग-प्रलग रीति से अध्ययन किया वशवागवेल्लगि कालदोळेव । असदृश ज्ञानद् सौगत्य ।
जाय तो अनेक बंध में अनेक भापा निकलतो हैं ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। उसहसेनर तोरवदु असमान। असमान सांगत्य बहुदुाह-१२३-१२२।
बंधों के नाम यह काव्य 'चत्तन्न होने के कारण इसका विशेष निरूपण करने की। जरूरत नहीं रही । उसका उदाहरण थोड़ा-सा यहाँ दिया जाता है।
चक्रबंध, हंसबंध, पद्म, शुद्ध, बवमांकबंध, वर पद्मबंध, महापद्म, स्वति श्री मदरामराज गुरू भूमंडलाचार्य एकत्वभावनाभावित उभय
द्वीप सागर, पल्लव, अम्बुबंध, सरस, सलाक, श्रेणी, अंक, लोक, रोमकूप, काँच नय समग्ररु' गुप्तरू' चतुष्कषाय रहितरु' पंचव्रत समय तर सप्त तत्व सरो
1 मयूर, गोमातीतादि बंध, काम के पद्म बंध, नख, चक्रबंध, सोमातीत गरिणत
बंध, इत्यादि बंधों से काव्य रचा गया है । यह काप आगे चलकर अंक बंध से जिनी राजहंसम् प्रष्टमद भजतलं, नव विधाबालब्रह्मचर्यालकृतरु-दशधर्म समेत
निकल कर इसमें क्रम रो मभी विपय पल्यबिन हो सकेंगे। प्राचार्य कुमुदेन्दु की द्वादश द्वादशांग भुतरु पारावार चदंश पूर्वादिगुरुंरलं । इस प्रकार १२ और ३१ अध्याय से ५० श्रेणी में उसका।
धार्मिक दृष्टि का इससे अधिक दिग्दर्शन कराने को जरूरत नहीं है । इस भूबलय विभाजन किया है।
में वेदंड में-नर्क व्याकरण, छंद-निघंटु अलंकार कान्य घर, नाटकाष्टांग, भूषलय को काव्यवद्ध रचना
गणित, ज्योतिष सकल शास्त्रीय विद्यादि सम्पन्न नदी के समान गम्भीर महाकुमुदेन्दु ने अपने काव्य को अक्षरों में नहीं लिखा है, किन्तु पूर्व में कहे । नुभाव, लोकत्रय में अयगर गारव बिरोध रहित, सकल महीमहलाचार्य हुए गोतम गणघर के मंगल प्राभृन के ममान इसी पाहड ग्रन्थ को प्राचार्य विश्व ताकिक चक्रवर्ती शत विया चनुमुंख, षट्टतर्क विनोदर, नैयायिक वावि, वंशेषिक सेन के लिखे हा के समान, इनके सभी साहित्य का प्राधार रखते हए कम्मर भाषा प्राभूतक, मीमांमक विद्याधर सामुद्रिक भवलय सम्पन्न । इन तरह वेवंड संस्कृत, प्राकृत में भूतबली प्राचार्य द्वारा लिखे हुए समान, मथवा नागार्जुन की गद्य में रचना की गई है। प्राचार्य द्वारा लिखे हुए कक्षपुट गरिणत के समान अंकों में गणित पद्धति से इस प्रकार कह कर अपने पौर अपनो विद्वत्ता के विषय में भी विवेचन गणना कर गुणन करके अंकों में लिखा है।
1 किया गया है। इस कारण लोक में उन्हें, समतावादी, सकलज्ञानकोविद रूप.
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से भी किन्हीं ने उल्लेख किया है। प्राचार्य कुमुदेन्दु ने जैन मत-सूत्रों के अभि- भद्राचार्य के शिष्य माघनंद्याचार्य को अपने ज्ञानावररणी कमक्षयार्थ प्रदान मान से इतर मतों के अभिप्रायों को ठुकराया नहीं । इतर मतों का बहुत किया था, ऐमा अन्य को अन्तिम लिपि प्रशस्ति से जाना जाता है। दिनों तक पूर्वजों की निषि समझकर उस साहित्य को एक प्रकार से तुलनात्मक __ अनूनधरमज नाम का प्रसिद्धरीति से सिद्ध करके बतलाया है। तुलना करते हुए कहीं भी विषमता को स्थान महनीय गुरणनिधाम् । सहजोत बुद्धिविनय निधिये नेनेगळ्दम् । नहीं दिया है। किन्तु अगाध प्रमाणों को सामने रखते हुए उस उपकार को
महिविनुत कौति कांतेय । महिमानम् मानिताभिमानम् सेनम् । उपयोग में लाकर केवल वस्तु तत्व का विवेचन मात्र किया गया है और इसके सिवाय उन्होंने अन्य किसी तरह का कोई प्राक्षेप प्रत्याक्षेप रूप में कोई कथन
इस सेन की स्त्रीमहीं ही किया है और आगे या पीछे होने वाले विपर्यास को ध्यान में रसते हए अनुपम गुरणगरण बाखवर् । मनशील निदानेयेनिसिजिन पदसत्के। मोती के समान निर्मल बुद्धिरूपी धागे में उसे पिरोया गया है ।
कनाशली मुखळेनेमा । ननधि श्री मल्लिकम्बे ललनारत्नम् ॥ जहां तक मैं जानता हूँ यह काव्य अत्यन्त प्राचीन है और भारतीय
अवनितात्नदपेम् । पावनगम योगळ लरि दुजिन पूजयना । साहित्य में ऐसा अनुपम काव्य (ग्रन्थ) अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुआ है। नाविधव दानद मळिन । भावदोळाम मल्लिकब्बयम् पोल्लवरार् । अतः इसे सबसे महान् काव्य कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
विनयदे शीलदोळ गुणदोळादिय पिनिम् पुट्टिद मनो। मूल ग्रन्थ
जन रति रूपिनोळ् खरिणयेनिसिई । मनोहर बप्पु दोदंरु॥
पिन मनेबान सागर मेनिप्पयधूत्त मेयप्पसबसे । कुमुदेन्दु आचार्य द्वारा स्वयं हस्त द्वारा लिखी हुई इस ग्रन्थ की मूल प्रति उपलब्ध नहीं है और यह उपलब्ध प्रति किसके द्वारा लिखी गई है यह भी
ननसति मल्लिकन्चे धरत्रियोळा:रेसद्गुरणंगळोळ् ।। जात नहीं है। अन्य समकालीन, पूर्व या पश्चाद्वर्ती किसी कवि ने उनका
श्री पंचमियम नोंतु । धापनेयम माडिबरेसि सिद्धांतभना ॥ उल्लेख भी नहीं किया है जिससे उनके सम्बन्ध में विशेष रूप से यहाँ विवेचन
रूपवती सेन वथुचित । कोप श्री माघनं दियति पतिमित्तल् ॥ प्रस्तुत किया जाता। केवल उनकी कृति भवलय ग्रन्थ में ही उनका नामोल्लेख इस मल्लिकव्वे के द्वारा प्रतिलिपि की हुई प्रति 'दान चिन्तामणि' मेरे होने से उनका नाम नबीन रूप से परिचय में प्राया है। अत: विद्वान लोग उस पास है । इस महिला ने ग्रन्थ को स्वयं पढ़कर और दूसरों को पढ़ाकर स्वयं मनन काल की ग्रन्थ राशि और शासन-सामग्रो का यदि परिशीलन करें तो तत्कालीन और प्रचार किया, ऐसा मालूम होता है। इस ग्रन्थ को पढ़कर उससे प्रभावित इतिहास और ग्रन्थकर्ता एवं अन्य की महत्ता के सम्बन्ध में विशेष जानकारी होकर प्रिया पदन के देवया ने अपने लिखे हए कुमुदेन्दु शतक में निम्न रूपमें प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु जिन्होंने इस ग्रन्थ का अध्ययन किया है, कराश है। उल्लेख किया हैउन्होंने ही इसकी महत्ता को समझा और अनुभव किया है। माता कब्बे, प्रिया
विदितविमलनानासत्कलान् सिद्ध मूतिहि । पट्टन के जैन ब्राह्मण कवि, और कन्नड कवि रल के पोषक, दान चिन्तामरिण के पोषक पत्तिमच्चे के समान, मल्लिकब्वे नामकी महिला ने इस भूवलय स्वरूप,
'घल कुमुदो राजयद् राजतेजम् ।। घवल जयधवल, महा धवल, विजय धवल और अतिशय धवल इत्यादि ग्रन्थों के
इमाम्यलवलेककुमुदींदुप्रशस्ताम् । साथ इस महान ग्रन्य की प्रतिलिपि कराकर इस महान् सिद्धान्त ग्रन्थ को गुण ।
कयास विश्रुवंतिते मानवाश्च ॥
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सुनय श्रेयसभसंख्यमश्नन्ति भद्रम् ।
शुभम् मंगलम् स्वस्तु चास्याह कयाचाह ॥ २०२॥
देवप्पाका हमें कोई विशेष परिचय प्राप्त नहीं है जिससे उनके विषयमें विचार किया जाय। देवप्पा ने ऊपर के पद्य में कुमुदेन्दु मुनि के विषय में ('थ लू व भू' य ल वलय') जो कुछ भी कहा है उससे ज्ञात होता है कि श्राचार्य कुमुदेन्दु बड़े भारी तेजस्वी महात्मा थे और उनका यह ग्रन्थ आदि मध्य और अन्तिम श्रेणी में विभक्त है, जो प्राकृत संस्कृत के महत्व को लिए हुए है। संस्कृत प्राकृत और कानड़ी, इन तीनों की श्रेणियों का यदि चिन्तन किया जाय तो ज्ञात होगा कि य ल व भू और यल वलय उनके नामहें जिनका उसमें कथन निहित है अथवा देवप्पा कुमुदेन्दु आचार्य के समय के नपादीक होने के कारण इनके माता पिता के नाम के साथ उन्हें जन्म स्थान का नाम भी ज्ञात था, ऐसा जान पड़ता है । देवप्पा के अनुसार अथवा कुमृदेन्दु के कहे अनुसार वह नंदिगिरि निश्चय से पर्वत के शिखर पर था ऐसा निश्चय किया जाता है। इस महात्मा के द्वारा कहे जाने वाले गाँव बेंगलूर ततः चिक्क वल्लापुर के मार्ग में होने वाले नंदी स्टेशन के नजदीक है। यही ग्राम और यही क्षेत्र कुमुदेन्दु की जन्मभूमि ज्ञात होती है। कुमुदेन्दु की जन्म भूमि के सम्बन्ध में और भी विचार किया जा रहा है।
• ग्रन्थ की उपलब्धि
संसार का दशव श्राश्वयं स्वरूप महान ग्रन्थ भूवलय ग्राज से लगभग २० वर्ष पहले पूज्य आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज ने बेंगलोर में श्री एलप्पा जी शास्त्री के घर पर आहार ग्रहण करने के अनन्तर देखा था, परन्तु अंक रूप में अंकित होने के कारण उस समय इस ग्रन्थ का विषय आचार्य श्री को ज्ञात न हो सका, अतः उस समय इस महान् ग्रन्थ का महत्व महाराज अनुभव न कर सके ।
श्री एलप्पा शास्त्री को यह ग्रन्थ अपने श्वशुरके घरसे प्राप्त हुआ था । उनके श्वशुर को यह ग्रन्थ कहाँ से किस प्रकार प्राप्त हुआ, यह बात मालूम न हो सकी ।
ह
भूवलय ग्रन्थ में एक कानड़ी पद्य आया है। उसके अनुसार सेठ श्रीषेण की पत्नी श्री मल्लिक ने श्रुत पंचमी व्रत के उद्यापन में धवल, जय घवल. महा धवल, प्रतिशय धवल तथा भूवलय ग्रन्थराज लिखाकर श्री माघनन्दि आचार्य को भेंट किये थे । धवल, जयधवल, महाधवल ग्रन्थ मुड़ बिद्री के सिद्धान्त वस्ति भण्डार में विद्यमान हैं। संभवतः भूवलय ग्रन्थ भी उसी सिद्धान्त वस्ति भएदार में विराजमान होगा। श्री एल्लप्पा शास्त्री के श्वशुर के घर पर यह ग्रन्थ किस तरह पहुंचा, यह रहस्य की बात अज्ञात है । अस्तु ।
श्री एल्सा शास्त्रीजी ने महान् परिश्रम करके अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा से भूवलय के अंकों का प्रक्षर रूप में परिवर्तित करके कानड़ी लिपिमें लिख डाला तब इस ग्रन्थ का महत्व जनता के सामने आया । यदि यह ग्रन्थ कानड़ी लिपि में ही रह जाता तो उसका परिचय दक्षिण प्रान्त में रहता, शेष समस्त भारत की जनता उससे अनभिज्ञ ही रह जाती। प्राचीन साहित्य के उद्धार में रुचि रखने वाले, अनेक प्राच्य ग्रन्थों को प्रकाश में लानेवाले, सतत ज्ञानोपयोगी, विद्यालंकार आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने श्री एलप्पा शास्त्री के सहयोग से इस भूवलय ग्रन्थ के प्रारम्भिक १४ अध्यायों का हिन्दी भाषा अतुवाद करके देवनागरी लिपि में प्रकाशित कराने की प्रेरणा की, उसके फलस्वरूप भूवलय के मंगल प्राभृत के १४ प्रध्याय जनता के समक्ष आये हैं ।.
इस महान अद्भुत ग्रन्थ को जब भारत के महामहिम राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी को श्री एल्लप्पाजी शास्त्री ने भेंट किया तो राष्ट्रपतिजी ने इस ग्रन्थ को सुरक्षित रखने के लिए भूत्रलय को राष्ट्रीय सम्पत्ति बना लिया । मैसूर राज्य की ओर से इस ग्रन्थ को इंग्लिश अंकों में परिवर्तित करने के लिये श्री एल्लप्पा जी शास्त्री को १२ हजार रुपये प्रदान किये गये । उस आर्थिक सहायता से इस ग्रन्थ का अंगरेजी अंकाकार निर्माण हो रहा है ।
जैन समाज तथा भारत देश के दुर्भाग्य से श्री एल्लप्पाजी शास्त्री का गत मास दिल्ली में शरीरान्त हो गया, अतः अब इस ग्रन्थ के अग्रिम भाग के प्रकाशन में बहुत भारी अड़चन आ गई है। यदि भारत सरकार का सहयोग पूज्य आचार्य श्री को मिल जावे तो इस ग्रन्थ का अग्रिम भाग प्रकाशन में था सकता है।
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भूवलय का परिचय
इस प्रकार प्रथमाध्याय को समाप्त करके दूसरे अध्याय का प्रारम्भ श्री कुमुदेन्दु ग्राचार्य ने अपने भूवलय ग्रन्थ में पंच भाषा मयी गीता का । निम्नलिखित रूप से किया हैसमावेश किया है, उन्होंने गीता का प्रादुर्भाव श्लोकों के प्रथम अक्षर से ऊपर । 'अथव्यासमुनीन्द्रोपदिष्ट जयाख्यानान्तर्गत गीता द्वितीयोऽध्याय': नीचे की घोर लेजाते हुए किया है, जिसको प्रथम गाथा 'अटवियकम्मवियला' । इस गद्य से प्रारम्भ करके गोम्मदेश्वर द्वारा उपदिष्ट भरत चक्रवर्ती को तथा प्रादि है। तदन्तर अपनी नवमांक पद्धति के समान
। भगवान नेमिनाथ द्वारा कथित कृष्ण को तथा उसी गीता को कृष्ण ने अर्जुन भूवलय सिद्धांतइयतेछु । तावेल्लवनु होंदिसिरुव ।।
को संस्कृत भाषामें कहा गोम्मटेश्वर ने भरत को प्राकृत भाषा में पौर भगवान श्री वीरवारिणयोळ्बह"इ,' मंगलकाव्य । ई विश्वर्यलोकदलिनेमिनाथने कृष्ण को मागधी भाषा में कहा था। जिसका प्रारम्भिक पद्य
इसमें चक्रवन्ध है, जिसमें कि २७ कोष्ठक हैं उन कोष्ठकों में से बीच । निम्नलिखित है। का अंक १' है जिसका कि संकेताक्षर 'न । 'य' से नीचे ( सब से ।
'तिस्थरणबोधमायामे आदि नीचे) गिनने पर १५ आता है १५ में ५८ संख्या है जिसका कि संकेत प्रक्षर ''
('अ' अध्याय १६वीं श्रेणो) है उसके ऊपर के तिरछे कोटे में पाने पर ३८ संख्या है जिसका कि संकेताक्षर नेमिगीता में तत्वार्थ सूत्र, ऋषि मण्डल, ऋद्धि मन्त्र को अन्तर्भूत 'ट् है। उसके आगे के कोठे में '१' आता है जिसका संकेत अक्षर 'अ' है इन । कर भावान मॉमनायरा कृष्ण को उपदेश किया गया है। तीनों प्रक्षरों को मिलाने पर 'प्रष्ट' बन जाता है।
एल्लरिगीरवते केळेदु श्रेणिक । गुल्लासदिदगौतमनु । . इस चक्र बन्ध को नीचे दिखाते है
सल्लीलेबिदलि व्यासरुपेळिद । देल्लतीतरकथेय ॥१७-४४॥ यह प्रथम चक्र-वन्ध है इसके अनुसार आये हुए अंकों को अक्षर रूप! व्याससे लेकर गौतम गणघर द्वारा श्रेणिक को कही हुई कथा को प्राकरके पढ़ा जाता है। इस प्रकार कनड़ी श्लोक प्रगट होते हैं उन कनड़ी श्लोकों। चार्य कुमुदेन्दु कहते हैं । के पाय अक्षरों को नीचे को सोर पड़ने से 'प्रवियकम्मवियला आदि प्राकृत ऋषिगळेल्लरु एरगुवतेरदिदलि ! ऋषिरूप धर कुमुदु । । भाषा की गाथाएं प्रगट होती है। उस कानड़ो श्लोकों के मध्य में स्थित हसनादमनदिद मोघवर्षाकगे। हेसरिददु पेळेद श्रीगीतें। अक्षरों को नीचे को प्रोर पढ़ने से ओंकार 'बिन्दुसंयुक्त' प्रादि संस्कृत
॥१७-६४-१००॥ श्लोक प्रगट होता है जो कि भूवलय का मंगलाचरण है।
इस प्रकार परम्परागत गोता को श्री कुमदेन्दु प्राचार्य ऋषि रूप या श्री कमुदेन्दु प्राचार्य ने भूत्रलय में जो गीना लिखी है वह उन्होंने कृपय रूप में अपने प्रापको अलंकृत करके अर्जुन रूप अमोघवर्ष राजा को प्राघुनिक महाभारतसे न लेकर उसमें प्राचीन 'भारत जयाख्यान' नामक काव्य गोता का उपदेश किया है। इस प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ विश्व का एक महान ग्रन्थ से ली है, ऐगा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने लिखा है। उस गीता को नबन्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसका विवरण श्री कुमुदेन्दु आचार्य स्वयं प्रगट करते हैंपद्धतिसे प्रगट किया है। प्राचीन नुन हए जयाथ्यान काम्य के भोतर पाये हए
धर्मध्वजबदरोळ केत्तिदचक । निर्मल दष्टु हगळम ॥ , . गोता काव्यको उद्धृन किया है, उम गौना का अन्तिम श्लोक निम्नप्रकार है
स्वम नदलगयवत्तोंदुसोन्नेयु । धर्म दकालुलक्षगळ । चिदानन्दघने कृष्णेनोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम् ।
पापाटियनकदोंळ ऐदुसाविर कूडे । श्री पादपद्म दंपदल ॥ वेदत्रयी परानन्वतत्त्वार्थऋषिमण्डलम् ।।
सपि अरूपिया प्रोम दरोळ व । श्री पद्धतिय भूबलय ।।
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इस प्रकार भूवलय के अंक और अक्षर पद्मदल ५१०२५००० है इस.७१ अंक राशि में दगी करण करके (अध्याय :-१७ ) 1 इन ग्रंकों को अंक में ५००० मिलाने से समस्त भूवलय को प्रक्षर संख्या हो जाती है, ऐसा परस्पर मिलाकर, परस्परभाग देकर २५ को अंक राशि किया है। इन श्री कुमुदेन्दु ने सूचित किया है। इन सरह ५१०३०००० संख्या का योग प्रतों को बर्ग भाग कर ३५ अभंग करके इस अंक राशि का २, ३, ४, ५, (५+१+o+३+:+o+o+%E) नवम अंक रूप है, वे अंक को ६, ७, ८, १ इस पहाड़े से परस्पर भंग करके अपने काव्यांक को मोती के समान प्रथम करके नवमांक गणित से इस राशि को विभक्त किया गया है।
माला में गूचकर काव्य की रचना की गई है। इस बग गरिणत का ६ वर्षक करुणेयोबत्तिप्पत्तेल ।। अहरण गुणवेम तोम दु ॥
प्रशुद्ध घन होने के कारण उत्तर में गलती जरूर मा जाता है। परन्तु कुमुदेन्दु सिरि एक नरिप्प तोम तुम ॥ वरुव महान् कगळारु ।।
प्राचार्य कहते हैं कि तुम इसे गलतो मत समझो । हम मागे जाकर इसका खुलासा एरडने कमल हानेरडू । करविङि वेळनन्द कुभ ॥
करेंगे।
कुमुदेन्दु प्राचार्य द्वारा कहा हुआ जो गणित है वह हमारी समझ में नहीं अहहन वाणो प्रोम बत्तू ॥ परिपूर्ण नवदंक करग ॥
पाता । उसे स्वयं प्रन्यकारने यागे जाकर स्पष्ट विवेचन के साथ राशि के रूप सिरि सिद्धम नमह प्रोम हत्तु १,६८, ७६ ॥
में बतलाया है। इस तरह वर्णमालांक- अक्षर राशि को तया ६.२७-७१-७२६ संख्या ।
अध्याय ३ को स्थापित करके ६-१२-७-६ का पूर्ण वर्ग होकर के विभाग कर दिया है।
इस अध्याय में कुमुदेन्दु आचार्य ने अपने काव्य की कुशलता का सभी Ext=E१४८१-७७६.xe=६५६१ उस तरह संख्या में पहला अध्याय र रतलाया है। समाप्त हुमा है । इस प्रकार इस राशि के प्रमाण अपुनरुक्त ६ अंक बन जाता ।
अध्याय ४
इस अध्याय में सम्पूर्ण काव्य ग्रन्थ को तथा अपनी गृरु परम्पराको नवकार मंत्तर दोळादिय सिद्धांत । अवयव पूर्व य ग रन्थ ।। कहकर रस, और रसमरिण की विधि, सुबर्ण तय्यार करने की विधि और दवत्तारादि मवक्षर मंगल । नव अप्रअअअ प्रमअप्र॥ लोह-शुद्धि का विषय अच्छी तरह से वर्णन किया गया है। रस शुद्धि के लिए
अनेक पुष्पों के नामों का उल्लेख किया गया है इस अध्याय २
अध्याय में रस मणि के
शुद्ध रूप को बतलाते हुएमें वैद्यशास्त्र की महत्ता को पाठकों को अच्छी तरह करणसूत्र गणिताक्षर अंक के समान है" 'क' को मिलाने २६x६०%31
से समझा दिया गया है। कुल ८८ होता है, इस ८८ को मापस में मिलाने से +८-१६ होता है। यह
अध्याय ५ १६-१x६- कुल सात होता है। ये सात भंग होकर के इन्हें मंक से भाग करने पर प्राप्त हुए लब्धांक से अपने इस काव्य को प्रारम्भ करते हुए, इस ।
इसमें अनेक देश भाषाओं के नाम' और देशों के नाम. तथा अंकों के शर्मम्मी कोष्टक को दिया गया है। यहां अनुलोम ग्रंक को ५४ अक्षर के भाग नाम देकर भाषा के वर्गीकरण का निरूपण किया गया है। करने पर जो मंक राशि के एक सूक्ष्म केन्द्र को ८६ अंक राशि रूपनिरूपण
अध्याय ६ किया गया है। (अध्याय २, श्लोक १२)
इसमें द्वैत, अद्वैत, का वर्णन करते हुए अपने अनेकान्त सत्त्व के साथ इस अनुलोम राशि को प्रतिलोम राशि के उसी ५४ अक्षर वर्ग के तुलनात्मक रूप से वस्तु तत्त्व को प्रतिष्ठा की गई है। इसमें प्राचार्य कमुदेन्दु
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ने ४ बातें मुख्य रूप से कही है
अन्याय १० दोषगळ् हदिनेन्टु मशियार्चाग । ईशरोळ भेव तोरुवा ।।
इसमें कर्नाटक जैन जनता को अध्ययन कराकर, तथा क ट प इनको राशिरत्नत्रय दापोय जनरिगे । दोष वळिवबुद्धि बहुदु ।।
नवमांक पद्धति को तथा 'य' इस अंक की अष्टक पद्धति को समझाया है इस वर्ग
पद्धति के अनुसार २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, इन भागों में समान पनुलोम-प्रति सहावास संसार वागिपोकाल । महियकळ्तलेये तोरबटु॥ ।
लोमों का परस्पर गुणा करने से सम्पूर्ण भाषाओं में यही काव्य ग्रन्य महरणारण बरणीय दोष बळियलु । बहु सुखविहमोक्ष वहुटु ॥ पा जाता है। यहां को तोड़कर दो भाग करके, इस गरिगत को रोति से विषहर बागलु चैतन्य बप्पन्ते । रससिद्धि अमृतवशक्ति ।। समस्त भाषानों को अंकित कर उनको रीति को विशदरीति से समझाया गया यशवागे एकांत हरकटु केटोडे । वशवप्पनन्तु शुद्धात्म ।। है। इस तरह पुरानी और और नयो कनड़ो मिलाकर मिथित रूप में काव्य रतुनत्रयदे प्रादियवंत । द्वितियवु द्वं तदेम्बंक ॥
१ को रचना की गई है।
अध्याय ११ तृतीयदोळ नेकातळवेने दैताद्वैतव । हितदिसाधिसिद्ध जैनांक । हिरियत्व बिवुमूरु । सरमालेय । अरहंत हारदरत्नम् ॥
इस भाग में ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखाये गये अक्षर
अंकों को लिख लिया गया है। इस पद्धति से कोड़ा-काही सागर को मापने को सरफरिणपरते मरर मूर प्रोंबत्त । परिपूर्णमूरारुमूरु ।।
'मेटगूट शलाका रोति को समझाया गया है। . ॥७७-८१॥
प्रध्याय १२ अध्याय ७
इसमें २४ तीर्थकरों, के उन वृक्षों का जिनके नीचे बैठकर उन्होंने इसमें कवि रस सिद्ध के लिए आवश्यक २४ पुष्पों की जाति तथा
तपा। अरहंत पद प्राप्त किया है। उन अशोक वृक्षों का नाम तथा उनकी प्राचीनता अष्ट महा प्राविहार्यों में एक सिंह का नाम कहकर चार सिंहों के मुखों की काजल्लेख किया गया है। महिमा का वर्णन किया गया है।
अध्याय १३ अध्याय
इसमें पुरुषोत्तम महान् तीर्थकरों की जीवनचर्या, तपश्चरण, विद्या इस भाग में समस्त सीर्थंकरों के वाहनों, सिंहासनों का प्राकार रूप । और उनके बैदुष्य गुण का महत्व ख्यापित किया है। साथ ही भगवान महावीर और उनके स्वभाव के साथ राशि की तुलना करते हुए उनकी पायु, नाम आदि के बाद होनेवाली प्राचार्य परम्परा का, तथा घरसेनाचार्य का कथन करके का प्रश्नोत्तर एवं शंका समाधान के साथ गणित शास्त्र का व्याख्यान किया है। सेनगण परम्परा का वर्णन किया गया है। अध्याय
अध्याय १४ इसमें रस सिद्धि के लिए प्रावश्यक कुछ पुष्पों का, और सिद्ध पुरुषों । इस अध्याय में पुष्पायुर्वेद को विधि बतलाकर तत्पश्चात् चरकादिद्वारा को दिव्य वाणी को, कर्नाटक राजा अमोघ वर्ष को सुनाया गया है, और उसमें । अज्ञात 'न समझी जाने वालो' 'रसविद्या' को और जिनदत्त, देवेन्द्र यति अपने वंश का परिचय देते हुए प्राचार्य भूत बली के भूवलय की ख्याति का । अमोघवर्ष, समन्तभद्राचार्य, मादि के द्वारा समर्थित एवं पल्लवित पुष्पायुर्वेद वर्णन किया गया है।
' का निरूपण किया गया है।
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अध्याय १५
१६ और २० अध्याय इसमें भवनवासी'देव, और उनके वैभव का कथन किया गया है। इसमें
इसमें सीधा भगवद्गीता के अर्थ को दूसरी श्रेणी में अंक विज्ञान, अणुसम्भव और असम्भव जंचनेवाले तत्वों का विशद विवेचन किया गया है। विज्ञान ग्रादि के प्रदर्भत विषयका ऊपर से नीचे तक अंक विद्यायों के साथ वर्णन अध्याय १६
किया गया है। इस तरह इस खंड में २० अध्याय हैं। उनमें इस मुद्रित भाग दोनों श्रेणियों में भगवद् गीता की प्रस्तावना का वर्णन तथा उसो के । में १४ अध्याय तक दिया गया है। शेष ६ अध्याय बाकी हैं। उनके यहां न अन्तर्गत तत्वार्थसूत्र का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है । और भगवद् ! दिये जाने का यह कारण है कि इसके मूल अनुवादक पंडित एलप्पा शास्त्री का गीता के प्रारम्भ करने के पूर्व मंगल कलश की पूजा करके गोता का व्याख्यान | अस्मात् आयु का अन्त हो जाने के कारण इस कार्य में कुछ रुकावट-सो प्रारम्भ किया है। तथा कृष्ण और अर्जुन के रूप को अपने में कल्पना कर आ गई है। किन्तु फिर भी हमारे चातुर्मास के अन्त में इसके भार को सम्हालने पूर्व गीता और तत्वार्थ सूत्र का विवेचन किया है। आगे अमोघवर्ष के लिए। वाले अन्य सहायक के अभाव में उसे पूरा करना सम्भव नहीं हो सका। कन्नड़ गीता की भूमिका का उल्लेख किया गया है।
तो भी हमने शेष को ११ अध्याय से लेकर १४ अध्याय तक रात दिन में इस अध्याय १७
का अनुवाद कर पूरा करने का प्रयल किया है । पामे अवसर मिलने पर, पीर इसमें भगवद् गोता की परम्परा ब्राह्मण वर्णोत्पत्ति गोम्मटदेव (बाहुवली)
एक स्थान पर ठहरने आदि को सुविधा उपलब्ध होने पर उसे पूरा करने का को उपनयन विधि, वनवासि-देश की. दण्डक राजा के विषय का अत्यन्त सुन्दर
प्रयत्न किया जायगा। विद्वानों को चाहिए कि वे इस ग्रन्थ का अध्ययन करके रूप से कथन करके राजा समुद्र विजय, तथा बलवन्त उपयत तारने
लाभ नलाग । क्योंकि ग्रन्थ का प्रतिपाद्य अंक विषय गम्भीर होने के कारण की विधि का काद्वारा उल्लेख किया गया है।
। सर्वसाधारण का उसमें सरलता से प्रवेश होना कठिन है। बलभद्र, नारायण इत्यादि की उपनयन विधि के साथ गीता तत्वोपदेश
चक्रवन्ध को पढ़ने का क्रम का समुल्लेख किया गया है। इस भगवद् गीता को सर्वभाषामयी भाषा गोता के इस 'नो' अध्याय की एक बिन्दो को तोड़कर, उसको घुमाने भवलय रूप में, पांच भाषा रूप में प्राकृत, संस्कृत, अर्धमागधी , प्रादि में से चक्र तथा पद्य प्रारम्भ हो जाता है। इस पथ का कहीं भी अंक में पता नहीं कृष्ण रूप कुमुदेन्दु ग्राचार्य ने निरूपण किया है।
1 चलता, क्योंकि भूवलय ग्रन्थ अक्षर में नहीं है। प्रक्षर में होता तो कहीं न अध्याय १८
कहीं पढ़ा जाता, अत: पढ़ने के लिए इसमें एक भी अक्षर नहीं है । बाएं से इसमें मूल थेणी में भगद् गीता को शेष परम्परा का उल्लेख करते दायें तक पराबर चले जायें तो उन अंकों को गणना २७ होती है । इसी तरह हए, पहले की थेगो में जयाग्थान के अन्तर्गत भगवद गीता के श्लोकों का! ऊपर से नीचे की ओर पढ़ते जावें तो भी २७ अंक ही प्रावगे, इस तरह चारों कनििटक भाषा में निरूपण किया गया है। और भगवद् गीता के अंक चक्र का ! ओर से पढ़ने पर २७ अंक हो लब्ध होते हैं । २७४२७-७२६ हो जाते हैं। कथन दिया हुआ है । तथा अंक चक्र को समझाकर द्वितीय अध्याय में उल्लि-: इसो चौकोर चक्र के कोष्ठक में ६४ अक्षर के गुणाकार से गुरिणत कर प्राप्त खित अनुलोम सम-विषम आदि की संख्या को शुद्ध करके गीता का आगे का हुआ लब्धांक ६४ ही लिखा गया है। उन २७ अंकों में से दोनों ओर के १३विवेचन दिया हुपा है। इस श्रेणी में कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहा गया १३ अंक छोड़कर ऊपर के एक का रूप '' है । 'प्र' के ऊपर से नीचे उत्तर 'अणुविज्ञान' का भी वर्णन करता है।
करके उसके अन्तिम अंक ६ को छोड़कर बगल के ५८ अंक पर पाजाय इस
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अंक का अर्थ 'प' है । वहाँ से आगे बढ़ने पर दूसरी पंक्ति के ऊपर के कोने में ब्रह्माण्ड मालूम होता है इसी में तीन लोक गर्भित हैं, उसी तरह नवमांक के ३८ माता है । इस अङ्क का अर्थ 'ट' होता है । पुनः ५८ के बाद एक अङ्क अन्दर सम्पूर्ण जगत् गभित है । इसमें विश्व को सभी भाषाएँ अन्तनिहित होने प्राता है । ६० का अर्थ 'ह' है, एक का अर्थ'प्र' है। इसी तरह से इसी क्रम रोति से इस ग्रन्य का नाम 'भूवलय' रखा गया है, जो उसके यथार्थ नाम को के अनुसार अन्त तक (६०) चले जावें, और ६० से लौटकर बाड़ी साइन की सूचित करता है। मध्यम प्रथम पंक्ति के २ पर पाजाय । दो का अर्थ 'या' हो गया। 'ह' में पा मिलाने से हा हो गया । इस तरह ऊपर चढ़ते हुए जाने से एक अंक
पहले अंक अक्षर में जो कानड़ी भाषा का इलोक अष्ट महाप्रातिहार्य पर पहुंचते हैं, क्योंकि वह एक अंक माड़ा हो जाता है। पुन: वहाँ से एक
रूप होता है । और अ' से नीचे को और पढ़ा जाय तो 'पट्टवियकम्म वियला' कोठा नीचे उतरकर फिर ऊपर '४७' पर जाय, वहाँ से फिर पाड़ा जाय और
प्राकृत भाषा की गाथा निकलती है । उस कानड़ी श्लोक के मध्य में 'यो' प्राता निश्चित कोठे पर पहुंचकर फिर ऊपर लिखे क्रम से उसी प्रकार प्रवृत्ति करता है। उसस नाच तक पकृत जाय ता संस्कृत काव्य निकलता हा इसा तरह स जाय तो घंटे के अन्दर सभी अंकों को पढ़ सकता है। इन ६४ अक्षरों में सभी
१५ अध्याय तक पढ़ते जायें तो उसके नीचे-नीचे भगवद्गीता निकलती है । इस भाषाओं का समावेश है । पर वह रूढ़ी रूप न होने से लोगों को उसके पढ़ने
तरह से इसअथाह अंक समुद्र में कोई पता नहीं चलता, परन्तु चतुर मनुष्य में कठिनाई होती थो किन्त दो वा के कठिन परिश्रम के बाद उसे पीने डुबकी लगाकर उसमें से सुन्दर सुन्दर मोती निकाल कर लाते हैं। इसी तरह पर सभी के लिए मार्ग सुगम हो गया है। और सभी जन प्रयत्न करने पर उस प्रक समुद्र का यथेष्ट रीत्या अवगाहन करने पर विविध भाषामों से प्रोतउसे प्रासानी से पड़ सकते हैं तथा सभो भाषामों का परिज्ञाम कर सकते हैं। प्रोत अनेक ग्रन्थों का सहज ही पता चल जाता है । जिस तरह समुद्र में डबकी जिस तरह से छोटे बच्चों को यदि यह भाषा सिखलाई जाय तो वे कम से कम ।
लगानेबाने चतुर मनुष्य गहराई में डुबको लगाकर असली और नकली मोती छः महीने में पढ़ सकते हैं अर्थात् १-२-३-४-५-६-७-८-६-०, इनमें से बिन्दी को !
निकाल लाते हैं और फिर उनमें से असली मोती छाटकर रख लेते हैं। उसी तोड़कर नद अंक की उत्पत्ति हुई है। इस तरह तत्व दृष्टि से विचार किया जाय।
प्रकार इस भगवद्गीता के अन्तर्गत गहराई से अध्ययन करते हुए 'ओम् इत्ये तो भगवान महावीर की समस्त वाणो का (उपदेशों का) सार सातसी अठहार।
काक्षरं ब्रह्म' अट्टवियकम्म वियला, सरस्वती स्तोत्र-चन्द्रार्ककोटि और तत्त्वार्य भाषाओं को उपलब्धि होती है। क्योंकि यह नव ग्रंक में संसार की समस्त सूत्र इत्यादि भाषाएँ निकलती है । इसके मागे और भी अवगाहन कर अनेक भाषाएं गभित है। और यह नव का अंक नव देवता का बाची है । पीर इष्ट भाषाप्रा का पता चलन पर नाचत किया जावगा । पाकि इस समय तक १४ मंगल रूप है ।
अध्यायों का हो अनुवाद हो सका है। शेष ग्रन्थ का अनुवाद बादको प्रस्तुत किया जिस तरह श्रीकृष्ण ने मुंह खोला तो यशोदा ने विचार किया कि यह ! जावेगा। पाठक गरग उससे सब समझने का यत्न करें।
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ॐ श्री वीतरामाय नमः श्री दिगम्बराचार्य बीर सेनाचार्यवोपदिष्ट श्री दिगम्बरखनाचार्य कुमुदेन्दु विरचित अंक भाषामग्री जैन सिद्धान्त शास्त्र
श्री भूवलय
हिन्दी अनुवाद कर्ता श्री दिगम्बर जैनाचार्य १०८ देशभूषण जी महाराज
प्रथम खण्ड
मंगल प्राभृत
"अ" अध्याय १.१-१ * प्राकृत
सं०७ अ महाप्रातिहार्य वयभवदिन्द । अषट गुरगनगळोळ्थे मदम् ।। सृष्टिगे मंगल पर्यायनित्त । हम जिनयेरावेनु ॥१॥ ८ वणेयकोतु पुस्तक पिन्छ पात्रेय। अवतारदा कमन्डलद ॥ नव रमन्त्र सिद्धिगे कारणवेन्दु । भुबलयोळपेळ्ब महिमा ॥२॥ रवणेयोळक्षरदंकन स्यापिसि । दवयवववे महावत ॥ अव बरिगे तकक शक्किगे वरवाद । मबमनगलब भवलय ॥३॥ चि हवाणि प्रोमकारदतिशय विहनिन्न । महावीरवारिग एनवेनुव ॥ हिमेय मनगल प्राभूत वेन्नुव । महसिद्ध काष्य भूवलय ॥४॥ है कयु द्विसम्योगबोळगेइप्पत्तेंटु । प्रकटदोळ रबत्तमकूडे ।। सकलांक दोळु व ट्ट सोल्नेये एन्टेन्टु । सकलागम ए
एनरेट
भंग ॥५॥ क मलगळेळु मुन्द के पोगुतिर्दाग। क्रमबोळगेरडु कालन्नूरु । ॥ तमलांक ऐबुसोल्नेयु पारुएरडेदु । कमलदगंध भूवलय ॥६॥ र मह वयबोळा कमलगळ् चलिपाग। विमलांक गेलुवन्दन । ।समवतुबेसदोळु भागिसे सोन्नेय विमलांक काव्य भूवस्म ॥७॥
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॥२॥
सिरि भूघलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-विस्य। म विरुद्ध सिद्धान्तवनु महाव्रतकेंदु। नवपदवणु प्रतकेंदु ॥ स वियागिसि प्रोढ मूढ-रीरिगोंदे ।नव पद भक्ति भूवलय
10 चियलियमल मुढ दमसरगुतलिया। जयपरीषहइष्पत्तेरडम् ॥ नय मार्गविंदगेल्दवर सद् वंशद। स्वयम् सिद्ध काव्य भूवलय .. य लयल दिक्कुगळ्हत्तनु बद्रेय । नलविनिम् धरसिद मुनि ॥ सलुवदिगंबर नेन्तेनुकेळुव । बलिदनक काम्प भूवलय का
फलियंक काव्य भूवलय ॥११॥ बलशलिगळभूवलय ॥१२॥ कळेयद पुण्य भूबलय १ गेलवेरिसुव भूबलय ॥१४॥ विलयगंवघद भूवलय ॥१५॥ जलज बदलद भूगलल Man सलुव प्रमाण भूवलय ॥१७॥
सलेसिद्धधवल भूवलय ॥१८॥ लावण्यदंग मैय्याद गोमट देव । आवागतन्न अपरगनिगे ॥ ईबागच के र बनधद कट्टिनोळकट्टि । दाविश्व काव्य भूबलय का गि जदहत्तनु पात्म धर्मवागिसि कोंड भजकर्गे श्रीविध्यगिरिय ॥ निज न त बवेळर दर्शनवन्नित्त । विजय धवलद भूवलय
॥२०॥ २ किनिसिल्लदाहत्तनु निदिद । तक्कजनकेपेळ्द महिमर् ।। सिक्करुस म सारसागर वो ळगेंब । घोक्क कर्माट भूवलय tट दि अनुभागबन्ध देप्रदेशवहोक्कु । विदियादिहदिनाल्कहोंदि । अदनल्लि मि धियागिशिवसौख्य होंदिद। पदवेमंगलकाटकवार य शस्बतिदेविय मगळाद माम्हिगे । असमान काटकद । रिसियुनि त् यबु अरवत्नाल्कक्षर । होसेद अंगय्य भूवलय ॥२३॥
___ रसद ओंकार भूवलय ॥२४॥ यशवेडगय्य भूवलय ।।२५॥ रसमूर गेरेय भवलय का
रिसिरिद्धि यरबत्त नाल्कु ॥२७॥ यशत्रु नालकारदु हत्तु ॥२८॥ रस सिद्धिया हत्तु प्रोमदु । क रुरणेयमबहिरनग साम्राज्यम् लक्ष्मिय । अरुहनु काटकद ।। सिरिमात य तनदे प्रोमरिम् पेळिव । अरबत्नालफंक भूवलय का जय सिद्धियादाप्रोम्देअक्षर ब्रह्म । नयदोळगअरबत् नाल्कु । जयिननेंस प्रयत्नदाकलेयतिशय । स्वयम् सिद्ध भंग भवलय ॥३१॥ मोति जरा मरणवनुगुणाकार । दातिथ्यबरेभागहार । ख्यातियभंगदोळरिब म विख्यात । पूत पुण्य भूवलय ॥३॥ पद पद्म दोळगणंकाक्षर विज्ञान । अदर गुणाकार मग्गि ॥ वदगि बंदा धया नि यरिथिगे सिलुकिह । सदधि ज्ञान भूवलय ॥३३॥
ण वपदकदिनगरिएसलोम्बत्तम्। अवरंक बनुलोम भंगा दवतारवयत्नपूर्वक ये भागिसे । अवनिगेयेळु भूवलय ॥४॥ है कद सम्योगदे भंगवागिह हत्तु ।सकलांक चक्र श्वरव ॥ अकलंक वादहत्त न् कद ओ मुंदे। प्रकटद पुरणकार बिन्यु ॥३५॥ ट कवनु महबीर नंतमुहूर्त दिमाप्रकटि सेदिव्य वारिणयलि ।। सकलाक्षरवम् ति दिदिह गौतम । नकलंक हन्नेरडंग ॥३ स वार्थसिद्धि येदेनलु अक्षर भंग । निर्वाहदोळगंक भंगम् ॥ सर्वांक यो गदोळ अरबत्तनाल्क ननेल्ल । निर्वहिसलु हत्तु भंग ॥३७॥ म रमवादाहत्तम्वळेसुव(कालदे)योग दे।निर्मलमशुद्धसिद्धान्तधर्मवहरडुवा गि न जिनपाद। शर्मर सिद्ध भूवलय ॥३॥ सा गर द्वीपमळेलय गणिसुव । श्रीगुरु ऐश्वरंक ॥ नागबनाकव न रकब मोक्षय। साधन वागिसिर्दक
॥३६॥ रा शियोळोस्दस्तेगेयलाराशियु घासियागदलेतु बिरुवा। श्रीशननन्तवपद वि ह संख्यात । दाशेयनन्त सम्ख्यात ॥४॥
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॥५१॥
सिरि भूवलय
सार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली दि शेयोळ बंद अनन्त संख्यातद । वश दोळसमल्यातवदम् ॥ रस कमलगळेळ का विरिसिददिव्य । रससिद्धि जलपद्मगंध
॥४ ॥ , वरखेयोळिरुवत् 'क' दोळ कूडिद् अरबत्तु । सविर्यक वेटेंट वरोळ् । प्रवितिह श्रीपद् म हदिनारु स्वप्नद । अवयव स्थलपद्मगन्ध ॥४२॥ ट बरणेयोळिजनक दोनु कूसि एन । जय गत्तागर कूडिदरे ॥ नव पद्म व द रिवबरुवंक एळम् । सविवरे बेट्टद पद्य ॥४३॥ स मनाद ई मुरु पद्मग: नेल्ल । ममहरुदयद शुद्धरसद। गमकदोळ अंन्टद अंट म् एंटनु । श्रमथिल्लदे सोन्लेगेयदु य शद ध्यानाग्नियिम् पुटविड़े रससिद्धि। वशवागुवुदु सत्य मरिणयु ॥ रसमरिण मा क्षदेकामववहुदेम्ब । रस सिद्धियंक भूवलय ॥४॥ ल वमात्रबादरू दोषगळिल्लद । नवमान्कदादि अरहनत ॥ अवनेरडू कालननूदि अन् क् । सविये भाविसे महापन
॥४६॥ व रतरवादेर. आपाद पद्मगळोळु । बरुव अतीतानागतदा। वरदबादोंदु या समयद ट पर । दरियरि वर्तमान वनु थ रण थरण वेन्तुब रसमरिणयौषध । गरिणतवम् नागार्जुननु । क्षरणदोळगरि दनु गुरुविन द लातनु । गुरिगसुत लेन्टु कर्म बनु ॥४॥ सा धिसि केडिसुत सिद्धान्त मार्गद । प्रोविननकाक्षरविद्य।मोदहिम्सालक्षण धर्मदि. म ।प्रादि जिनेन्द्रर मतदिम्
॥४६॥ रा गवगेलिदवराग पेळिद दिव्यम् । नागसम्पगेय हूउगळम् ॥ सागर वुपमान गुरिणतव च रितेयम् । भोगव योगदोळ कूडि सि द्वरसवमाडि हवनु कोंदिह । बुद्धियज्ञानव केडिसि ॥ शुद्धात्म नेले इ ह सिद्धर लोकद । सिद्ध सिद्धान्त भूवलय र रशन माडलु सदर्शन बागि। परमात्म पादव गुरिगसे ॥ तिरुगिद कमल व दलगळ कूडलु । बर लोमदु साविर वेन्दु
॥५२॥ अरुहन पद पा भंग ॥५३॥ परमन पदपद्म दंग ॥५४॥ गुरुपरम् परेयादि भंग ॥५५॥ सरसादक हुटिटद भंग
॥५६॥ गुरु गळ उपदेश दंग ॥५७॥ परिशुद्ध परमात्मनंग ॥५८॥ सरसद हन्नेरडंग ॥५६ करणेय मूरु हूवन्ग परिमळ रसवगेलवन्ग ॥६॥ सरसाक्षरद् एळु भत्ग ॥६२॥ गुरुसेन गरगदवरन्ग ॥६३॥ सरमंगल काव्य भंग ना
र्मध्वजवदरोळ. केत्तिद चक्र । निर्मलदष्टु हूगळम् ॥ स्वर्मन वळगळ यवत् पो मदु सोन्नेयु। धर्मदकालु लक्षगळे प्रो पाटियंकदोळ ऐदु साबिर कूडे । श्रीपाद पद्म गंधजल (दंगजल)। रूपि अरूपियानो म दरोळ पळुव । श्रीपद्धतिय भूवलय का सि रि सिद्ध अरहंत प्राचार्य पाठक । वर सर्वसाधु सद्धर्म ॥ परमागम वद म् बरेव चयत्यालयादिरूव श्रीबिबमोमबत्तु की
करुणे योमबत्त इप्पत्तेलु ॥६८।। अरुहन गुणवेबत्तोंदु ॥६६॥ सिरियेळ्नूरिप्प मोमबतम् ॥७०॥ बरुव मदानकगळार एरडने कमल हन्नेरडु ॥७२॥ करविडिदेळंक कुम्भ ॥७३॥ अरहन वारिस प्रोम्बत्तु ॥७४॥ परिपूर्ण नवदनक करगी
सिरि सिद्ध नमह प्रोमहत्तु ॥७॥ द गरिणत राशियोळुत्पन्न वागिह । बगेबगेयन्कदक्षरद ॥ सोगसिनिम् मन्गलप्रा का र भद्रवु । बगेगे शुभदसोस्यकर ॥७॥ वि षरणर् एन्देने वरुद्ध मुनिगळ सम्पद । दिशेयोळु बह बालमुनिगे । वशवागद - शियतिशय हारदोहौसेदरे बन्विह शिवत् ॥ म नबु सिंहासन तनुवु चैत्यालय । जिनबिम्बदन्ते नन्नात्म । नेनुत प्रक्ष बाद भावद्रव्यर्गाळदाधनबधपुण्यभूवलय ॥६॥ म रेतिहदेहाभिमानदोळध्यात्म । सरमालेयोळु बन्धकरगे । अरहनत रूपि न द्रव्यागमकाव्य सिरि यिरप सिद्ध भूवलय । ०||
॥६॥
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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ. उपसौर-दिस्ती न दयिद शरीरवतपिसिद । जिनपि नाशेयजनरू ।धनकर्माटक वेन्टनु गेले मोक्ष । दनुभव मंगल काव्य ॥ १ दि शेयोळोम्बत्तर वशपोंड सूत्रांक । बसमानि पाहुड काव्य ॥ क्शवाद न ममात्म स्वसमय वेन्तुव ।कु समय नाशक काव्य । म र्वार्थ सिद्धिसम्पददनिर्मलकान्या धर्मवलौकिकगणित निर् ममबुद्विय नवलम् बिसिरुवर । धर्मानुयोगद वस्तु ॥
शर्मर निर्मल काव्य ॥५४॥ धरम मूरारु मूरन्क ॥८॥ धर्म समन्वय काय्य ॥८६॥ निम्मकार वाक्यास्क ॥७॥ धर्म भाषेगळेन्टोन्देळु ॥५६॥ मर्म पश्चदातुपूर्वि ॥ धर्म समन्वय गुरिणत 1800 कर्मय परिकेय गरिणत ॥ करमद संख्यात गरिणत ॥६॥ कर्मदसमुख्यात गुरिणत॥३॥ कर्मदनन्तानक गुरिणत ॥४॥ कर्मदुतकरुष्टवनन्त | कर्मसिद्धानतद परिणत ॥६६॥ निर्मलदध्यात्म बन्धम् ॥७॥ सर्वस्व सार भूवलय ॥॥ धर्ममन्गल प्राभूतवु meen
निर्मल शुद्धकल्याणम् ॥१०॥ धर्मवय्भव भद्र सौख्य १०१॥ न वकार मनतर दोळादिय सिद्धान्त। अवयव पूर्वेय ग्रन्थ।।दवतारदादि मदन' क्षरमन्गलानव अमनप्रप्रम का
अवरोळ अपुनरुकतानक ॥१०३॥ अकुनोडल पुनरुक्त लिपि ॥१०४॥ अवरोळ गादिय भन्ग ॥१०॥ सबिएरळ मूर्नालकु भन्ग ॥१०॥ इषु ऐदारेळेंन्टु भन्ग ॥१०७॥ सवोमबत्त्तु हतहन प्रोमदु ॥१०८॥ सविहनएरङ हदिमूरू भन्ग ॥१०६॥ अवु हदिनालक हदिनय्दु ॥११॥ अबु हविनार् हदिनेळ ॥१११॥ नव वेरडेने हदिनेन्टु ॥११२॥ अवु हत्तोंबत्तु इप्पत्तउ ॥११३॥ अवर सुन्द् ओमदेरळमूर ॥१॥ सवि नालकपदारेन्ट नग ॥११५॥ नदमुनमृबत्त अन्ग ॥११६॥ अव नलवत् मुन्देहत्अन्क ॥११७॥ सवि हत्त उ मरवत्तु भन्य ॥११॥ अबु हत्तए अरबत्तु भन्ग ॥११॥ सवियोमदेरडुमू लकु ॥१२०॥ अषु कूडल अरवक्तनाल्कु ॥१२॥
सवियन अरबत्नाल्कु भन्ग ॥१२२॥ अवरंकबदु तोमबदएर ॥१२३॥ अयु अडगिहृदु अन्तरव ॥१२४॥ दुळियलु मास्वरे साबिर मुन्हे । बळसिह अरवत्तोंदु ।। तिळियंक औसत्तर मूर ह रिमुन्दे । कळेये मंगलव ( बळसे पाहडवुम् ॥१२॥ EXEXExe = ६५६१ %DE
६५६१ अन्तर ७७८५४१४३४६ = प्राकृत और कर्नाटक ये दोनों भाषा सक्रमवतों है
संस्कृत अक्रमवर्ती अट्टविहकम्म वियला गिटिटय कज्जा परणटसंसारा।
प्रोकारम् बिन्दु संयुक्त नित्यम् ध्यायन्ति योगिनः । बिट्टसयलल्य सारा सिद्ध्या सिद्धिम् मम विसन्तु ॥शा
कामदं मोक्षवम् चैव ओंकाराय नमो नमः ॥१॥ * प्रारम्भ के जात रंग के प्रक्षरों को ऊपर से नीचे की तरफ पढ़ने से प्राकृत भाषा बनती है। *वीच के लाल रंग के अक्षरों को ऊपर से नीचे की तरफ पढ़ने से संस्कृत भाषा बनती है।
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॥ श्री वीतरागाय नमः ||
श्री दिगम्बरजंनाचार्य वीरसेन जी के शिष्य श्री दिगम्बरजंनाचार्य विरचित श्री सर्व भाषामय सिद्धान्त शास्त्र
भूवलय
श्री १०८ दियम्बरनाचार्य देशभूषण जी द्वारा कानड़ी का हिन्दी अनुवाद
प्रथमखंड 'अ' अध्याय
की मोददायकमनंतगुरणाम्बुराशि, श्री कौमुदेन्दुमुनिनाथकृतोपसेवं । श्री देशभूषण मुनीश्वरमासुनम्य, हिंदीं करोमि शुभ भूवलयस्य बुद्ध्या ।। मंगल प्राभृत
भ्रष्ट महाप्रातिहार्य वैभवदन । अष्टगुरगंगळोळों सृष्टि मंगल पर्यार्यादिनित्त । श्रष्टमजिनगेरगुवेत्तु ॥
इस भूवलय ग्रन्थ की रचना के आदि में श्री कुमुदेंदु जैनाचार्य ने मंगल रूप में श्री चन्द्र प्रभु तीर्थंकर को ही नमस्कार किया है। यह चन्द्र प्रभु तीर्थंकर परमं देव कैसे हैं ? सो कहते हैं
अष्ट महाप्रातिहार्य
संपूर्ण विश्व के अन्दर जितनी भी श्रेष्ठ वस्तुएं हैं अर्थात् जितने वैभव चक्रवर्ती देवेन्द्र या मनुष्य के सुख हैं, उन संपूर्ण सुखों से भी अत्यन्त पवित्र एवं मंगलकारी सुख, जो है वह अष्ट महाप्रातिहायों तथा अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी के वैभवों से सुशोभित आठ गुणों से युक्त एक प्रष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान के पास ही हैं वे भगवान हो विश्व के प्राणियों को मंगल के देने वाले है। इसलिये हम अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान को मन-वचन-काय से त्रिकरण शुद्धि पूर्वक नमस्कार करते हैं ।
#
॥
१ ॥
श्री कुमुदेंदु आचार्य ने केवल अकेले आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु भगवान को ही नमस्कार क्यों किया ?
समाधान- भगवान गुणधर आचार्य द्वारा रचित जयधवल के टीकाकार अर्थात् कुमुदेंदु आचार्य के गुरु वीरसेन श्राचार्य ने जयघवल की टीका के आदि में चन्द्रप्रभु भगवान को ही नमस्कार किया है जैसा कि --
जय धवलंगते ए गाऊरियसयल भुवरण भवरागरणो । केवलरगाण सरीरो थांजरणो सामग्री चंदो ॥
अपने धवल शरीर के तेज से समस्त भुवनों के भवन समूह को व्याप्त करने वाले केवल ज्ञान शरीर धारी, प्रनंजन अर्थात् कर्म से रहित चन्द्रप्रभु जिनदेव जयवंत हो।
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बिन घि-चन्द्रमा अपने धवल अर्थात् सफेद शरीर के मंद आलोक, महन्त अवस्था को दिखलाने के लिए दिया गया है। इससे प्रगट हो से मध्य लोक के कुछ भाग को व्याप्त करता है, उसका शरीर भी जाता है कि यह स्तुति अर्हन्त अवस्था को प्राप्त चंद्रप्रभु भगवान की पार्थिव है और वह सकलंक है। परन्तु चन्द्रप्रभु भगवान अपने परमा- है। इस स्तोत्र के प्रारम्भ में पाए हुए 'जयइ घवलं' पद द्वारा वीरदारिक रूप धबल गरीर के तेज में नीनों लोकों के प्रत्येक भाग को मेन आचार्य ने इस टीका का नाम 'जयधवला प्रख्यात कर दिया है व्याप्त करते हैं। उनका अभ्यंतर शरीर पार्थिव न होकर केवल ज्ञान और चिरकाल तक उसके जयबन्त होकर रहने की कामना की है। मय है। और वे निष्कलंक हैं, ऐसे चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र देव सदा पही पाशा कुमुदेन्दु प्राचार्य की भी है, और कुमुदेन्दु आचार्य ने भागे जयवन्न हों।
चलकर महावीर इत्यादि द्वारा महावीर भगवान की स्तुति की है।
श्लोक ०१ वीरमेन म्वामी ने इसके द्वारा चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र की बाम मोर प्राभ्यन्नर दोनों प्रकार की स्नुनि की है। और श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य
अर्थ-प्रयोक वृक्ष प्रादि पाउ महापानिहार्य वैभवों से युक्त ज्ञानादि ने भी "अष्ट महाप्रातिहार्य वैभवदिद" अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी मे
पाठ गुगों में से एक 'मों' अक्षर समस्त संसार के लिए मंगलमय है। सुशोभित संपूर्ण प्राणियों को शुद्ध धवलीकृत कल्याण का मार्ग
अर्थात जो पाठ गृण है वे इस 'मों के पर्यायरूप हैं। ऐसे गुण और बतलाने के कारण उनको प्रथम नमस्कार किया है। श्री वीरसेन
पर्यायसहित मुगगों को प्राप्त करने वाले आठवें चन्द्रप्रभु भगवान को प्राचार्य ने 'घवलंगतएग' इत्यादि पद के द्वारा उनकी बाह्य स्तुति की
में ( कुमुदेन्दु प्राचार्य ) प्रणाम करता हूँ। है। औदारिक नाम कर्म के उदय से प्राप्त हया उनका पौदारिक
कुमुदेन्दु प्राचार्य ने व्याकरण इत्यादि तथा अाजकल के प्रचलित शरीर शुभ तथा सफेद वर्ग का था । उम शरीर की प्रभा चन्द्रमा
नाव्य रचना इत्यादि के क्रम के अनुसार इसकी रचना नहीं की है। की कांति के समान, निस्तेज न होकर तेजयुक्त थी। जो करोड़ों सूर्यो
बल्कि जिनेन्द्र भगवान की जो अनक्षरी बागी थी और जो वाणी की प्रभा को भी मात करती थी। अर्थात् तिरस्कार करती थी।
उनकी दिव्य ध्वनि के द्वारा सर्वांग प्रदेश मे खिरी थी वैसी ही "केवलणाराशरीरो" इस पद से भगवान की अत्यन्त स्तुति की गई
1 वाणी में प्रापने भूवलय ग्रन्थ की रचना की है। है और कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी इसी प्राशय को लेकर अंगरंग लक्ष्मी इस प्रकार कुमुन्देन्दु आचार्य ने जो इम ग्रन्थ की रचना की है की स्तुति की है। प्रत्येक आत्मा, केवल-ज्ञान, केबल दर्शन--आदि वह गणित के द्वारा ही हो सकती है अन्य किसी साधन से नहीं । अनन्त गुणों का पिंड है । इसलिए उन अनन्त गुगणों के समुदाय को छोड़ कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी इस भूवनय काव्य की रचना केवल गणित कर आत्मा जैसी स्वतंत्र और कोई वस्तु नहीं है। बाह्य परीर पादि द्वारा ही की है। के द्वारा जो यात्मा की स्तुति की गई, वह, आत्मा की स्तुति न इसीलिये ७१८ ( मात सौ अठारह ) भाषा ३६३ धर्म नथा ६४ होकर किसी विशिष्ट पुण्यशाची प्रात्मा का उम गरीर की स्तुति के द्वारा कलादि अर्थान नीन काल नीन नोक का परमाणु से लेकर वृहब्रह्मांड महत्व दिखलाना मात्र है। यहां केवल ज्ञान यह उपलक्षण है, जिस तक और अनादि काल मे अनन्त काल तक होने वाले जीवों की संपूर्ण में केवल दर्शन प्रादि अनन्न आत्मा के गुणों का ग्रहण होता है, अथवा कथायें अथवा इतिहास लिखने के लिये प्रथम नौ नम्बर (अंक) चार घातिया कर्मों के नाश से प्रगट होने वाले आत्मा के अनुजीवी लिया गया है । एक जो अंक है वह अंक किसी गणना या गिनती में गुणों का ग्रहण होता है। "अनंजणों" यह विशेषण भगवान की ! नहीं पाता है । इसीलिये परम्परा से जैनाचार्यों ने सर्व जघन्य अंक को
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सर्वाण सिद्ध संघ बेभलोर-दिल्ली दो २ को माना है माज उसी पद्धति के अनुसार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने से एक ही रह जाता है । यह ही इसकी अचिन्त्य महिमा है । कुमुदेन्दु सर्व जघन्य अंक दो को मानकर नौवें (नवां) अंक को माठवां प्रक प्राचार्य ने भूवलय' की कला कौशल की रचना में ज्ञानादि अष्ट गुणों माना है। नौ के ऊपर अंक ही नहीं है। फिर यहां में ‘ओं' अर्थात ज्ञान रूपी एक को ही सम्मान्य अर्थात मंगलमय माना' एक शंका होती है कि है और १ मिलकर दो या तो फिर यहाँ यह एक कहां से आ गया ? जब दो को छोडकर एक को लेते
इस भूवलय को गणित शास्त्र के आधार पर लिखा है। अंक हैं तो दो मिटकर एक एक ही रह जाता है। यह एक क्या चीज है? शास्त्र और गणित शास्त्र ये विद्या महान् विद्या है और इन दोनों दुनियां में रोमा प्रचलित है कि प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कोई चीज का विषय भिन्न-भिन्न है। अंक शास्त्र का विषय यह है कि सबसे रखी जानी है तो एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से गिनती के द्वारा पहले वृपभदेव भगवान ने मुन्दरी देवी की हथेली पर बिन्दु को काटगिनी जानी है, बे गिनती १०-१२-१५-२० इत्यादि जो मंग्या हैं एक कर एक और दो पापम में मिलाते हुए नौ तक लिखा था। इस को लेकर १२ या १३ या २० या 3 को प्राप्त हुई है। इनमें से विषय का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन करने वाले जो शास्त्र हैं उन्हीं का एक एक संख्या क्रम मे निकाल दी जाए तो अंत में केवल एक ही नाम अंक शास्त्र है। इस अंक शास्त्र के माधार से गणित शास्त्र की रह जाता है।
उत्पत्ति हुई, अर्थात् द्रब्य प्रमाणानुगम नामक रचना भगवान भूतबली उत्तर-अंक-कहे जाने योग्य एक नहीं है। एक का टुकड़ा कर दिया
प्राचार्य ने की। इसी द्रव्य प्रमाणानुगम शास्त्र के ग्राघार से इस भूवलय जाए तो दो टुकड़े हो जाते हैं और दो बार टुकड़े कर दिये जाएं ग्रन्थ के अाधारभूत जड़ को मजबूत किया गया है। इसलिये सर्व जघन्य तो चार होते हैं । इमी क्रम के अनुसार काटने चले जाएं तो काल दो मान लिया और दो से गिनती की जाए तो नौवां अंक पाठवां हो की अपेक्षा अनादि काल से फिर भी अनादि काल तक चलता ही जाएगा । इमलिये पानुपूर्वी क्रम से नवें चन्द्रप्रभु भगवान पाठवें तीर्थरहेगा । क्षेत्र की अपेक्षा मे केवली भगवान गम्प शुद्ध परमाणु कर हुए । इसलिये कुमुदेन्दु प्राचार्य ने न चन्द्रप्रभु भगवान को नमतक जाएगा । जीव की अपेक्षा से सर्व जघन्य क्षेत्रा- स्कार किया है। क्योंकि यह बात ठीक भी है कि संपूर्ण भूवलय की वगाह प्रदेशस्थ क्षुद्र भव ग्रहणधारी जीव नक जायगा, भाव की ६.४ अक्षरों में ही रचना की हुई है और पार को प्राट मे गुरषा करने से अपेक्षा केवनी भगवान के गम्य मुक्ष्मातिसूक्ष्म तक कर पाबंगे। ६४ होना है। ॥१॥ आप लोग हमेशा देखते हैं कि एक रुपया है, अथवा एक
[१] "टवरणेयकोलु" अर्थात् पुस्तक रखने की व्यासपीठ [रहल] घर है, या कोई चीज है ऐसे तुम गिनते रहते हो । नब
[२] पुस्तक [3] पिच्छ [५] पात्र रूपी कमंडल ये चारों ही नव तुम्हारे विचार से ही एक को हमेगा अलग २ मानेग।
पद सिद्धि के काग्गा है। इस प्रकार भूवलय की रचना के आदि में मभी चीज एक कैमे रह मकती है अर्थात् कभी भी नहीं रह
महा महिमावान [वैभवशाली] चन्द्रप्रभु भगवान ने कहा है। ॥२॥ मकती हैं।
इमी (व्यासपीट] अर्थात् रहल में एक पोर चौमठ अक्षर और __इतने महान शक्ति झाली होने पर भी प्रान्मध्यान में तुमरी पोर नौ अंक की जो स्थापना की गई है वही महाबत धारण बैठे हुए योगी राज के ममान अथवा सिद्ध भगवान के यह जो एक किये हुए महात्माओं ने अर्थात् [दिगम्बर मुनिराजों ने] भव्य जीवों अंश पाप अपने अन्दर ही स्थित है । ऐसे एक को एक मे गुण करने की शक्ति को जानकर उनकी शक्ति के अनुसार साध्य हुमा नव केवल
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लब्धि रूप नव मंगल हो भूवलय है । ॥३॥
यह नौ को वाणी प्रकार शब्द का अतिशय है । ऐसी इस वारणी को इस काल में महावीर वाणी कहते हैं और इसको महामहिमा वाला मंगल प्राभृत भी कहते हैं और इसको महासिद्ध काव्य भी कहते हैं, तथा इसको भूवलय सिद्धान्त भी कहते हैं । 11801
भूवलय की पद्धति के अनुसार 'ह्' और 'कू' इन दोनों अक्षरों के संयोग को द्विसम्योग कहते हैं । २८ और ह् ६० अगर इन दोनों अंकों को जोड़ लिया जाए तो आ जाता है। वह बिन्दी ही बन गयी और ८ को जोड़ देने से १६ बन गया और १ और ६ को जोड़ देने से ७ [सात] बन गया। सात के रूप में ही भगवान महावीर ने इसका नाम सप्तभंगी रखा ।
||५||
जिस समय भगवान महावीर सहस्र कमल के ऊपर कायोत्सर्ग में खड़े थे उस समय देवेन्द्र ने प्रार्थना की कि भव्य जीव रूपी पौदे कुमार्ग नाम की तीव्र गर्मी के ताप से सूखते हुए आ रहे हैं। इसके लिये धर्मामृत रूपी वर्षा की आवश्यकता है इसलिये तुम्हारा समवसरण श्री विहार, अखिल, काश्मीर, ग्रान्ध्र, कर्नाटक, गौड़, बाहलीक, गुर्जर इत्यादि छप्पन देशों में बिहार करके उन जीवों को धर्मामृत की वर्षा करने की कृपा करें, इस प्रकार उन्होंने नम्र प्रार्थना की। यद्यपि भगवान का समवसरण बिना प्रार्थना के चलने वाला था। परन्तु देवेन्द्र की प्रार्थना करना एक प्रकार का निमित्त था। जिस समय देवेन्द्र ने समझा कि भगवान का विहार होने वाला है उस समय इस बात की जानकर कमलों की रचना चक्र रूप में स्थापित की। किस प्रकार स्थापित किया यह बतलाते हैं ?
आगे की ओर सान पीछे की ओर सात, इस प्रकार चारों ओर बत्तीस २ कमल की रचना की अर्थात् चक्र रूप में स्थापना की । अव हमको इस प्रकार समझना चाहिये कि एक एक कमल में १००८ दल अथवा पंखड़ी होती है ।
३२४७ में गुणा करने से २२४ होते हैं और एक वह कमल जो
सर्वायं सिद्धसंघ बैंगलोर-दिल्ली
भगवान के चरण के नीचे है उसको मिलाकर कुल २२५ हुए और २२५ अर्थात् २+२+५ को जोड़ दें तो हो गया और कनाड़ी भाषा में इसका ऐरकालनूर' अर्थ होता है प्रोर इसी का अर्थ भगवान का चरण भी होता है। इसी का अर्थ कायोत्सर्ग में स्थित खड़ा होना भी है। और जब भगवान अपने कदम को दूसरी जगह रखते हैं तो उसी समय भक्तिवश होकर देव उस कमल को घुमा देते हैं। नब घूमने के पश्चात् वही कमल भगवान के दूसरे पांव के नीचे आकर बैठ जाता । प्रय जो २२५ कमल पहले थे उसको दुबारा २२४ से गुणा करने से ५०६२५ हो जाता है। [५+०+६+२+५=१६=८+१=c] ये भी जोड़ देने से परस्पर हो जाता है ।
भगवान के समवसरण में देव देवियाँ ऊपर के अंक के अनुसार अष्ट द्रव्य मंगल को लेकर खड़े थे। जब भगवान अपने पांवों को उठाकर दूसरे पांव पर खड़े हुए उस समय इतने ही द्रव्यों से प्रर्चना [ पूजा ] करते हुए तथा जब तीसरा पांव उठाकर रखा तो इसी अंक के गरिए तानुसार अर्चना करते हुए चले गए। अर्थात् सारे [५६ देशों] भरतखंड में भगवान के जिनने पांच पड़ते गए उतने ही देव देवियां हैं ॥ ६ ॥
जिस समय भगवान बिहार करते थे उस समय भगवान के चरण के नीचे जो कमल होता था उसकी सुगन्ध उसी भूमि से निकलकर भव्य जीवों की नासिका में प्रवेश कर हृदय में जाती थी। तब उनके हृदय में अत्यन्त पुण्य - परमाणु का बन्ध होना था। अब इस समय तो भगवान है ही नहीं, उनके चरण के नीचे का कमल भी नहीं। तब फिर वह गंध किस प्रकार आएगी। क्योंकि प्रव कमल की गंध तो है ही नहीं तो फिर हम क्यों भक्ति करें ?
इस प्रकार के प्रश्न प्रायः उठते हैं जिनका समाधान हम नीचे दिए हुए दसवें श्लोक में करेंगे 1
भगवान अपने समवसरण के साथ विहार करते समय पृथ्वी पर चलने-फिरने वाली चिड़िया के समान चलते थे। परन्तु अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का विहार चक्र के समान अर्थात् आजकल के हवाई- ..
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जहाज के समान तिरछा चलता था। इस समय वही भगवान के चरण । है। अगर भगवान् के ज्ञान में कुछ वस्तु शेष रह जाती तो उनको कमल हमारे हृदय-कमल में चक्र की भांति घुमते हुए सर्वांग भक्ति को । सर्वज्ञ नहीं कहा जाता। इसलिये उनकी वाणी प्रमाण होने के उत्पन्न कर अत्यन्त शान्तमय बना देते हैं। इस प्रकार भूने के कारण कारण किसी को भामागता के विषय की शंका नहीं हो सकती। पाठवां अंक मिलता है, उस अंक से तथा उस गुणाकार से '' नो यही भगवान के ज्ञान में एक महत्व है । इसलिये आजकल भी भगवान नामक ग्रंक दो से भाग होकर अर्थात् विषमांक से भाग होकर शून्य महाबीर के कमलों की गंध का आस्वादन ऊपर कहे हुए गुणकार से रूप बन जाता है । यह गणित की क्रिया किसी को मालूम नहीं थी। भगवान के पद-कमलों को गुणकार करते हुए विशेष रूप से वस्तु को स्वयं वीरसेन प्राचार्य को भी यह नवमांक पद्धति विदित न थी। कुमु- जान सकता है । यही हमारे कहने का प्रयोजन है ॥ ७॥ देन्दु प्राचार्य ने इस विधि को अपने क्षयोपशम ज्ञान से जानकर गुरू से पूर्वापर विरोधादि दोष रहित सिद्धान्त शास्त्र महाव्रती के लिये प्रार्थना की। तब धीरसेन प्राचार्य प्रसन्न होकर बोले-तुम हमारे शिष्य हैं और परहंत मिद्धाचार्यादि नव पद की भक्ति अणुव्रत वालों के लिये नहीं परन्तु हम ही भापके निष्य है। जैसा उन्होंने अपने मुख से है । इस रीति से अणुव्रत और महाव्रत दोनों की समानता दिखलाते प्रकट किया है, इस बात का आगे चलकर खुलासा दिया गया है।
हुए यह मूढ़ और प्रौढ़ अर्थात् विद्वान् दोनो को एक ही समान उपदेश यह विधि गणित शास्त्र जों लिये अधिक महत्वशाली है, बहुत
देने वाला भूबलय शास्त्र है। जैसे कि कनाड़ी श्लोकों को पढ़ लेने से दूर प्राच्य देवा ( जर्मन इत्यादि ) से आने वाला (रांडार बम्बार
मूढ़ भी अर्थ कर लेता है और इस कनाड़ी में भी विद्वान् अपने प्रथकमिशन ) पर्थात् राडर बिमान भारत के किसी एक बड़े भाग को नष्ट
प्रथक दृष्टिकोणों से उन्हीं अक्षरों को ढूंढ़ते हुए प्रथक-प्रयक भाषा करने के लिये पाता है । तब तुरन्त ही भारत पाले अपनी साइंस से
और विषय को निकाल लेते हैं ॥८॥ मालूम कर लेते हैं कि एक बड़ा विमान भारत के बड़े भाग को नष्ट
जिन्होंने सम्यक्त्व के आठ मूल दोषों को निकाल दिया है और देवकरने के लिये पा रहा है। तभी वह कई स्थानों को सूचित कर, उस
मूढता, गुरू मूढता और पाखंडी मूढ़ता को त्याग दिया है और दर्शनाविमान को गोली से.मार गिराने की प्राशा देते हैं । यदि गोली लग बरणी कर्म का नाश कर दिया है और क्षुधा, तृषादि बाईस परीषहों जाती है तो विमान नष्ट हो जाता है अन्यथा विमान अपना काम
को जीत लिया है । ऐसे महाव्रतियों के प्रमाण से जो वस्तु सिद्ध हो पूर्ण कर लेता है। इसका कारण क्या है ? इसका उत्तर है कि गणित
गई उस वस्तु को दुबारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। यदि शास्त्र की अघूरता ही इसका कारण है। यदि भूवलय का गणिन
कोई सिद्ध भी करे तो वह अविचारित रमणीय है। अर्थात् कुछ फल शास्त्र जमत में प्रचलित हो जाए और समांक का विषमांक से विभाग
नहीं। यह भूवलय काव्य भी महाबतियों के शिरोमणि प्राचार्य के हो जावे तो सब सवाल हल हो जाते हैं। और एक दूसरे को मारने की
द्वारा बनाया हुआ है अतः स्वयं प्रमाण है ॥ ६ ॥ हिंसा मिट जाती है । कहते हैं कि एक राजा के पास मारने का शस्त्र इस भूवलय काव्य में बतलाया गया है कि दस दिशा रूपी कपड़ों है और दूसरे के पास रक्षा करने का शस्त्र है तो उस मारने वाले शस्त्र
1 को अपने शरीर पर धारण करते हुए भी मुनिराज दिगम्बर कैसे बने ? का क्या लाभ अर्थात् कुछ नहीं। यही जैन धर्म का बड़ा महत्वशाली
1 जैसे सूर्य को दिनकर, भास्कर, प्रभाकर आदि अनेक नामों से अहिंसा का शस्त्र दुनिया को देन है । भगवान् महावीर के ज्ञान में कुछ । पुकारते हैं वैसे ही कदि लोग उस सूर्य को तस्कर भी कहते हैं . भी जानने में शेष न रहने के कारण उनके ज्ञान को सर्वज्ञ कहा । क्योंकि वह रात्रि के अन्धकार को चुराने वाला है। इसी
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ऐसे इस भूवलय के अंक फोटो कर लेने से उसके सब भंकाक्षर भान होकर सफेद बन गए हैं। उसी तरह जीव द्रव्य से शब्द निकलता है । उसी तरह यह अंक सिद्ध हुमा । यह भूवलय ग्रंथ है।
तरह दिगम्बर जैन मुनि सम्पूर्ण वस्त्रादि परिवह से रहित अर्थात् । निरावरण आकापा के समान होते हैं। मेयर एदारीर मात्र उनक पास परिग्रह है। इस रूप में होते हुए दशों दिशा रूपी वस्त्रको धारण किए हुए हैं। यह शब्द उपमा रूप में है 1॥१०॥
अनादि काल रो इस तरह मुनियों के द्वारा बनाया हुमा यह भूवलय नाम का काव्य है ॥ ११ ॥
प्रात्म बल से बलिष्ठ होने के कारण इन्हीं मुनियों को ही बलशाली कहते हैं ।। १२ ॥
ऐसे दिगम्बर मुनियों के द्वारा कहा हा काव्य होने के कारण इसके श्रवण-मनन ग्रादि से जो पुण्य का बन्ध होता है वह बंध प्रतिम समय तक अर्थात् मोक्ष जाने तक साथ रहता है अर्थात् नाश नहीं होता
इस भूवलय के धवरणमात्र से अनेक कला और भाषा आदि अनेक दैविक चमत्कार देखने को मिलते हैं इसी तरह सुनने और पढ़ने मात्र से उत्तरोत्तर उत्साह को बढ़ाने वाला यह काव्य है ॥ १४ ॥
इस प्रकार इस पवित्र भूवलय शास्त्र को सुनने मात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश होता है ।। १५ ।।
दिगम्बर मुनियों ने ध्यानस्थ होकर अपने हृदय रूपी कमल दल में धवल बिन्दु को देखकर जो जान प्राप्त किया था उसी के प्रतिशय को स्पष्ट कर दिखलाने वाला यह भूवलय है । अथवा यह धवल, जयघवल, महापवल, बिजयधवल और अतिशय धवल जैसे पांच धवलों के अतिशय को धारण करने वाला भूवलय है । जब दिगम्बर मुनिराज अपने योग में कमल दल के ऊपर पांच बिन्दुमों को श्वेन अर्थात् घबल रूप में जिस प्रकार एक साथ देखते हैं उसी तरह इस भूवलय गंच के प्रत्येक पृष्ठ पर तथा प्रत्येक पंक्ति पर इन पांच धवल सिद्धान्त अथ के एक साथ दर्शन कर सकते हैं और पढ़ भी सकते हैं ॥ १६ ॥
चौंसठ (६४) अक्षरमय गणित से सिद्ध अर्थात् प्रमाणित होने के कारण यह भूवलय सर्वोपरि प्रमाणिक काव्य है ।। १७ ।।
अत्यन्त सुन्दर शरीर वाले आदि मन्मथ कामदेव, गोमट्टदेव (बाहुबलि) जिस समय अपने बड़े भाई भरत चक्रवर्ती को तीनों युद्धों में जीतते समय जब वैराग्य उत्पन्न हुया तब जीता हुमा सम्पूर्ण भरतखंड अपने भाई को वापिस दे दिया । तव खेद खिन्न होते हुए सकल चक्रवर्ती राजा भरत ने ( बाहुबलि ) से पूछा कि हमने राज-लोभ से आपके बज वृषम नाराच संहनन से बने हुए शरीर पर चक्र छोड़ा। जो पर-चक्र को मात करने वाला सुदर्शन चक्र है वह चक्र आपके शरीर को भी घात करे इस विचार से छोड़ दिया। यह सभी लोभ कषाय का उदय है । मैं इतना बलशाली होते हुए भी पुद्गल से रचा हुआ होने के कारण प्रापफे जानमयी शरीर रूपी चक्र का घात करने में असमर्थ होने के कारण तुम्हारे पास निस्तेज होकर खड़ा हुआ है । मैं इस निस्तेज चक्र को वापिस कर रहा हूँ, यह मुझे नहीं चाहिए। पहले पिता वृषभदेव तीर्थकर जब तपोधन में जाने लगे तब मैं, पाप, ब्राझी और सुंदरी इन चारों को नो अंकमय चक्ररूपी भूबलय में ६४ (चौंसठ) अक्षरों में बांधकर ज्ञानरूपी चक्र को बनाने की विधि को दिखाया था। उस समय हमने अच्छी तरह नहीं सुना था, इसलिए मुझे लोभ पैदा हुमा है । उसके फल ने ही मुझे निस्तेज कर दिया अर्थात् मुके हरा दिया । अब मुझे किसी से न हारनेवाले भूवलय चक्र को वापिस दो। कुम्हार के चक्र के समान संसार में घुमाने वाला यह चक्र मुझे नहीं चाहिए। तब बाहुबली ने कहा कि जंमा पाप कहते हो चैसा नहीं हो सकता। इस भरत खंड का पाप पालें मैं तो इसका पालन नहीं कर सकता है, क्योंकि मैं इस पृथ्वी को पूर्णरूप से त्याग कर चुका हूँ । इसलिये मुझ को तो अब ज्ञान रूप चक्र के द्वारा धर्म साम्राज्य प्राप्त कर लेने की प्राशा दो तब-इच्छा न होने पर भी भरत चक्रवर्ती को मानना पड़ा अतः भरत महाराज बोले कि यदि मेरा
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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्ध संघ, बैंगलोर-दिल्ली
सुदर्शन चक्र चला जाए तो कोई चिन्ता नहीं है, परन्तु इस जान-चक्र- गूच कर इन अंगों से प्रत्येक भाषामों को लेकर सुननेवाले भव्य रूपी भूवलय को कदापि नहीं छोड़ सकता है। इसलिए मुझे लौकिक । जीवों की योग्यता के अनुसार उन्ही २ भाषाओं में उपदेश देते थे। चक्र और अलौकिक ज्ञान चक्र रूपी भुवलय चक्र इन दोनों को दो, इसलिए कर्नाटक भाषा को दिगम्बराचार्य कुमुदेन्दु मुनि ने कर्नाटक इसपर बाहुबली ने २७४ २७ = ७२६ कोष्ट में सम्पूर्ण द्रव्य श्रन- अर्थात् ६३ कर्मों के खेल को बतलाने वाली अथवा कर्नाटक अर्थात् रूपी द्वादशांग वाणी को ६४ अक्षरों में बांध कर इन अक्षरों को पुनः पाठ कर्मों की कथा को कहनेवाली और दिव्य वाणी को अपने ६ अंक में बांध कर दान दिया हुआ होने के कारण यह भूबलय अन्तर्गत रखने की शक्ति इस कर्माटक भाषा में ही बताई है, अन्य विश्वरूप काव्य है ।। १६ ।।
किसी भाषा में नहीं । ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य ने बतलाया है। इसी का उत्सभ क्षमादि दस प्रकार के बभी को अपना पात्मधर्म मानते नाम भूवलय ग्रन्थ है ।।२१।। हुए बाहुबली ने भक्त जनों को श्री विध्यगिरि पर अपने निजी सात यह कर्म चार भागों में विभक्त है--१ स्थिति २ अनुभाग ३ प्रदेश तत्व रूपी सप्त भंगों द्वारा जिसको प्रकट किया था वह विजय धवन बंध ४ प्रकृति बंध । ये चारों बंध प्रात्मा के साथ भिष-भिव रूप से ही यह भूवलय है 11 २०॥
फल को देते हुए पाठ कर्म रूप बन गए हैं। प्राठों कर्म आत्मा के तीनों शल्य रहित उन दश धर्मों को पालन करते हुए उनके द्वारा साथ पिंड रूप में प्रावरण करी के इस प्रात्मा को संसार रूपी जो अपने अंदर अनुभव प्राप्त किया है उस अनुभव को ग्रहण करने समुद्र में भ्रमण कराते हैं। इन सभी कमों के पाबागमन को द्वितीयोग्य सत्यपात्र रूपी भव्य जीवों को जो दान देने वाले महात्मा यादि चौदह गुणस्थान तक सम्यक्त्व रूपी निधि में परिवर्तित कर हैं इस संसार रूपी सागर में कभी नहीं डूब सकते । ऐसा बताने 1 आत्मा के साथ स्थिर करते हुए मोक्ष में पहुंचाने वाली यह कर्माटक वाला शुभ कर्माटक अर्थात् ६३ कर्म प्रकृति पर विजय पाने वाला नामक भाषा है ।। २२ ॥ तथा केवल ज्ञान प्राप्ति का उपाय बताने वाला यह भूवलय है ।
तिरेसठ ( ६३ ) कर्म प्रकृति को घातियाकर्म में और क्षेष बचे हुए काटक शब्द का विवेचनः--
५५ कर्मों को एक अधाति कर्म मानकर उस एक को ६३ में मिलाकर आदि तीर्थंकर अर्थात् वृषभदेव भगवान के गणधर वृषभसेनाचार्य ६४ (चौंसठ) मानकर भगवान ऋषभदेव ने चौसठ ध्वनि रूप, अर्थात् से लेकर गौतम गणधर तक सभी गणधर परमेष्ठी कर्नाटक देश के अाजकल कर्नाटक देश में प्रचार रूप में रहने वाली लिपि के रूप में ही थे। भौर सव तीर्थकरों ने अपना उपदेश (सर्व भाषामयी दिव्य रचना करके यशस्वती देवी की पुत्री ब्राह्मी की दाहिने हाथ की वारणी को) कर्नाटक भाषा में ही भव्य जीवों को सुनाया । यह हथेली को स्पर्श करते हुए क्रम से लिखा हुआ यह भूबलय नामक कर्नाटक कैसा था? जैसे कि सात सौ रेडियो को अपने घर में रखकर ग्रन्थ है ॥ २३ ॥ अलग अलग स्टेशनों पर नम्बर लगाकर उनको गायन सुनने के लिए उन चौंसठ यक्षरों को परस्पर मिलाने से "प्रोम" बन जाता है रख दिया जाय तो दूर से सुनने वालों को वीणा-नाद के समान अर्यात । अर्थात् ४ और ६ दस बन जाते हैं, दस में एक और बिन्दी लगाने से कोयल पक्षी के कंठ के समान मधुर अावाज सुनने में आती है । उसी । 'यो' से "प्रोम्" बन जाता है । कर्नाटक भाषा में एक को 'प्रोंदु' कहते तरह यह कर्नाटक भाषा है । इस भाषा से दिव्य ध्वनि के पर्थ को हैं, दु' प्रत्यय है। 'दु' को निकाल दिया जाय तो 'भोम्' रह जाता है समझ कर सब गणघर परमेष्ठियों ने बारह अंग ( द्वादशांग ) रूप में और 'दु' का अर्थ 'का' हो जाता है । 'का' का अर्थ छठी विभक्फि में
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सर्वार्थ सिद्ध संघ, बैंगलोर-दिल्ली लगता है । संक्षेप रूप कह दिया जाय तो 'ओम' शब्द में सम्पूर्ण , द्वितीयाद्धच्छेद में सोलह रह गया, तृतीया च्छेद में आठ रह गया, 'भूवलय' अंतर्गत होता है।
चतुथार्द्धच्छेद में चार रह गया, पंचभाईच्छेद में दो रह गया । यही अब पहले श्लोक से लेकर सत्ताइस अक्षर से तेइस श्लोक तक भूवलय रेखागम की मूल जड़ है। आ जाएं तो "प्रोकारं बिन्दु संयुक्त नित्यम्" हो जाता है। ये ही रूप इन चौसठ अक्षरों को दस (६+४) मानकर अन्त में एक मानने भगवत् गीता में नेमिनाथ भगवान ने कृष्ण को सुनाया है । वह गीता की विशिष्ट कला है। यदि इस प्रकार न करें तो रेखांकायम नहीं इस भूनलय ने प्रथम सत्यय से नी म होती है। इसका विवेचन बनता इसलिए कुंद-कुंद प्राचार्य को द्वादशांग से लेना पड़ा। . आगे चलकर करेंगे । २४ !!
सम्पूर्ण संसारी जीवों का सिद्ध पद प्राप्त करना ही एक __इस भारत में कर्नाटक दक्षिण की तरफ पड़ता है। ब्राह्मी देवी ध्येय है। इस लोक में रहने वाले सम्पूर्ण अजीव द्रव्यों में से एक का दायें हाथ से लिखने का भी यही कारण है कि कर्नाटक देश दक्षिण पारा ही उत्तम अजीब द्रव्य है । जैसे जीव अनादि काल से ज्ञानावरमें था । उसी दक्षिण देश में स्थित नन्दी नामक पर्वत पर इस भूवलय रणादि पाठों कर्मों से लिप्त है, उसी प्रकार पारा भी कालिमा, कटिक, की रचना हुई। नन्दी नामक पर्वत के समीप पांच मील दूरी पर सीमक प्रादि दोषों से लिप्त है । जब यह प्रात्मा इन ज्ञानावरणादि "यलव" नाम का गांव अब भी वर्तमान में है। उसी 'यलव' के 'भू' पाठ कर्मों से रहित हो जाती है, तब सिद्ध परमात्मा बन जाती है। उपसर्ग लगा दिया जाए तो 'भूवलय' होता है ।। २५ ॥
इसी तरह यह पारा भी जब इन कालिमादि दोषों से रहित हो जाता है ब्राह्मी देवी की हथेली में तीन रेखायें हैं। ऊपर की बिन्दी को
तो रसमणि बन जाता है। इन दोनों का कथन भूवलय में आगे चलकाट दिया जाए तो ऊपर का एक, बीच का एक और नीचे का एक
कर विस्तार पूर्वक कहा हैं ॥ २६ ॥ इस प्रकार मिल कर तीन हो जाते । सम्यक ज्ञान और सम्यक प्रहन्त देव ने कर्माष्टक भाषा कहा है। "प्रादौसकार प्रयोगः चारित्र के चिन्ह ही ये तीन रेखागम हैं । भूबलय में रेखागम का
सुखदः' अर्थात् सब के आदि में जो सकार का प्रयोग है वह सुख देने विषय बहुत अद्भुत है। सारे विषय को और सम्पूर्ण काल को इस
वाला है। इसलिए सिद्धान्त शास्त्र के आदि में सकार रख दिया है। रेखागम से ही जान सकते हैं। सिद्धान्त शास्त्र के गणित में इस
"सिरि" यह शब्द प्राकृत और कनाडी दोनों भाषा में समान रूप से रेखा को अद्ध छेदशलाका अथबा शलाकान्छेद नाम से भी कहते
देखने में आता है । इस तरह यह प्राचीन भाषा है । जब इस प्राचीन हैं ।। २६ ॥
भाषा को अपने हाथ में लेकर संस्कृत किया तब से 'श्री' रूप में प्रचलित दिगम्बर जैन मुनियों ने ऋद्धियों के द्वारा अपने रेखागम को जान हुमा । 'इस श्री' शब्द का अर्थ अंतरंग और बहिरंग दोनों रूपों में लिया है वह बहुत सुलभ है। मान लो कि दो और दो को जोड़ने से 'लक्ष्मी' है। अंतरंग लक्ष्मी यह है कि सब जीवों पर दया करना। चार, चार और चार को जोड़ने से आठ, पाठ और पाठ को जोड़ने से परन्तु दया करने से पहले किन जीवों पर किस रीति से दया करना, सोलह, सोलह और सोलह को जोड़ने से बत्तीस, बत्तीस और बत्तीस इस बात को सबसे पहले जान लेना चाहिए। जिस समय ज्ञानावरजोड़ने से चौंसठ होता है। इस तरह करने से चौसठ होता है। यदि रणादि कर्म नष्ट होते हैं तब अनन्त ज्ञान प्रकट होता है, इस ज्ञान को गुणा किया जाय तो पांच बार करने से चौंसठ प्राता है इस रेसागम केवल ज्ञान कहते हैं । इस केवल ज्ञान से भगवान ने सब जीवों का से चौंसठ को एक रेखा मान लो। प्रथमादच्छेद में बत्तीस रह गया, हाल यथावत् यथार्थ रूप से जान लिया था। सिद्ध जीव तो अपने
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सिरि भूषलय
संवर्षि सिद्धि संघ,बंगलोर-दिल्ली । समान अनादि काल से पाप अपने अंदर हमेशा ही सुख में स्थित हैं । मानिए। " रहा जिल्लादि बारदानक अंकों से बने हुये दुनिया में जितनी अंक सिद्ध जीवों के ऊपर दया करने की कोई आवश्यकता ही नहीं बल्कि संसारी, राशि हैं उन सबको नव पदों से गुणा कर देने से अर्थात् १ को दो से और दो जीवों के ऊपर दया करने की आवश्यकता है। इसीलिए भगवान ने अनन्त ज्ञान । को ३ से, ३ को चार से, ओर ४ को ५ से, और ५ को ६ से गुना करने से प्राप्त किया । इसी को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अंतरंग लक्ष्मी कहा है। उपदेश के 1८२० मा मया। वह इस प्रकार है १४२४३४४४५४६४७७२० इस क्रम को बिना जीवों का उद्धार तथा सुधार नहीं हो सकता। एक-एक जीब को । अनुलोम भंग भी कहते हैं। इस प्रकार चौसठ बार यत्नपूर्वक करते जाए तो ६२ अलग-अलग उपदेश करने का समय भी नहीं मिल सकता, क्योंकि समय की । डिजिटस [स्थानांड] आ जाता है। इसी रीति से उल्टा अर्थात् ६४४६३४कमी होने के कारण सभी जीवों को एक ही समय में सब भापानी में सभी । ६२४६१ इस रीति से एक तक गुना करते चले जाये तो वही ६२ अंक प्रा विषयों का एकीकरण करके उपदेश देना अनिवार्य है। सभी जीवों का एक जायेगा । इसी गणित पद्धति से भूवलय की रचना हुई है। इतना बड़ी अंक स्थान पर बैठकर यथा योग्य उपदेश सुनने का जो नाम है उसी का नाम ममव
राशि को यदि कोई जान सकता है तो परमावधि धारक महामेधावी बीरसेनासरण है। यह समवसरण बहिरंग लक्ष्मी है। इन दोनों सम्पत्तियों को बताने
चार्य सरीरवा ही जान सकता है । परन्तु अपनी शक्ति के अनुसार मतिथतज्ञान वाली कर्माटक भाषा है। इन भाषाओं को प्रोम् से निकाल कर चौंसठ अक्षरों।
सभा के धारक हम सरीने लोग भी जान सकते हैं। अब इस भूवलय में यह एक अपूर्व को दया, धर्म प्रादि रूपों में विभक्त कर उपदेश दिया है । यही सर्व जीवों का 1 बात है कि नव का अक जो है वह दा, चार, पाच, आदि हरएक अक कद्वारा एक साम्राज्य है। इस बात को कहने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ।। ३०॥ पूर्णरूप से विभक्त कर लिया जाता है । अर्थात् उन अंकों के द्वारा नौ का अंक
नय मार्ग से देखा जाय तो ६४ अक्षर हैं । जयसिद्धि अर्थात् प्रमाण रूप से देखा जाय तो एक है। उसी का नाम 'प्रोम्' है। "प्रोमित्येकाक्षरब्रह्म "
J टू ३८, क्२८, कुल मिलकर ६६ हुआ । उनमें से पादि और अन्त का अर्थात् 'ओम्' यह एक अक्षर ही ब्रह्म है। इस प्रकार भगवद्गीता में कहा दोनों पुनरुक्त हैं। उन पुनरुक्तों को निकाल देने से ६४ बन जाता है। अर्थात् गया है। वह भगवद्गीता जैनियों की एक अतिशय कला है। इन कलाओं ६६-२-६४ । ६+४=१० अंक में जो बिन्दी है वह बिन्दी सर्वोपरि होने से से ६४ अक्षरों को समान रूप से भंग करते जाये तो सम्पूर्ण भूवलय शास्त्र उसका नाम सकलांक चक्रेश्वर है और प्रकलंक हे अर्थात् निरावरण है, जब स्वयं सिद्ध बन जाता है।॥ ३१॥
अंक बन गया तो फिर उससे अक्षर भी बन जाता है यही भूवलय का एक बड़ा इन भंगों से पूत अर्थात् जन्म लिया हुआ जो ज्ञान है, वह शान गुणा- महत्व है ॥३५॥ कार रूप से जाति, बुढ़ापा, मरण इन तीनों को जानकर अलग अलग विभा- इस टक भंग को महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य वाणी में अन्तर मुहृतं जित करने से पुण्य का स्वरूप मालूम हो जाता है। इसी लिए यह पुण्यरूप 1 में प्रकट किया, ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। इस बात पर शंका होती है भूवलय है ।। ३२॥
भगवान के चरणों के नीचे रहने वाले कमल पत्रों के अन्दर होने वाले ऊपर पांचवें श्लोक में हक भंग रूप में भगवान महावीर ने कहा था, जो धवल रूप नंक अक्षर हैं, वह सब विज्ञानमय हैं। अर्थात् प्राकाश प्रदेश में ऐसा लिखा है, वहां बताया है कि हक भंग से सप्तभंगी रूप वारणी की उत्पत्ति रहने वाले अंक हैं। उन अंकों को पहाड़े का गुणाकार करने से लिया गया अर्थात् होती है और टक भंग से द्वादशान १२ की उत्पत्ति होती है और १२ को जोड़ ध्यान में स्थित मुनिराजों के योग में झलके हुए अंकाक्षर सविधिज्ञान रूप है, । देखें तो ३ पा जाता है ऐसी विषमता क्यों ? इसका समाधान करते हुए कुमुदेन्दु उन्हीं अंकों से इस भूवलव अन्य की रचना हुई है ॥३३॥
। प्राचार्य कहते हैं कि:
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बंगलोर-विल्नौ
हक भंग से सब तीर्थकरों द्वारा द्वादशांग वाणी का प्रचार हा यह तो इस प्रकार जघन्य संख्यात दो है। सर्वोत्कृष्ट संस्थात नौ है तो एक अटल बात है परन्तु चौबीसवें तीर्थकर श्री महावीर ने गोनम गणधर को सम- नम्बर में अनन्त भी है, असंख्यात्त भी और संख्यात भी हैं ।। ४० ॥ झाने के लिए ट्क भंग को स्वीकार किया था। ट्क भंग से गौतम गग्गवर ने इन तीनों दिशाओं से आई हुई अमन्त राशि को संख्या राशि से बारह अंग को जान लिया और उसी को सम्पूर्णभव्य जीव को गूंथ कर समझा मिनी किण जावे तो प्रत्येक राशि में अनन्त ही निकल कर पाता है। ऊपर दिया है ।।३६॥
भगवान के समवसरण बिहार के समय में बताये हुये जो सात कमल हैं, इस बारह अंग शास्त्र का अध्ययन करने से सवार्यसिद्धि की प्राप्ति: उन कमलों को जलकमल मानकर उन जल कमलों से रससिद्धि या होती है । अर्थ का मतलब चौंसठ अक्षर होता है उन अक्षरों को भंग करने से पारा की सिद्धि बन जाती है। कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस सिद्धरस को दिव्य रस १२ अंक मा जाता है फिर घटाते चले जाये तो वही ६४ अंक पा जाता है, I सिद्धि कहा है ॥४१॥ और बस अंक भी मिल जाता है ।। ३७।।
पाँचवां श्लोक में जो 'हक' भंग पाया है उसमें E६ की संख्या है । उस ___मर्म रूपी इस बस को उपयोग में लाने से नमस्त मिद्धान्त का ज्ञान हो अठामी वर्ग स्थान में जो गुप्त रीति से छिपा हमा है, उसका नाम श्री पदम जाता है। जो कि पहले कहे हुये जिनेन्द्र देव के चरण कमल की सुगन्ध को। है । भगवन्त के जन्म कल्याण के समय के पीछे गर्भावतरण के समय में जिन फैलाने वाला है ॥३८॥
माना को जो सोलह स्वप्न हुए थे उस स्वप्न समय का जो कथन है उस कथने इस दश के अक का पर्द्धच्छेद कर देने से पांच का अंक पा जाता है । के अन्दर जो पद्म निकल कर पायेगा उसका नाम स्थल पद्म है। उस पद्म जो कि पंच परमेष्ठी का वाचक है । इसी अंक से मध्यलोक के द्वीप सागरादि में पारा को घर्षण किया जाय तो महौषधि बन जाती है ।॥ ४२ ॥ की गणना हो जाती है तथा नागलोक, स्वर्ग लोक,, नर और नरक लोक पुनः उमी अठासी को जोड़ दिया जाय तो सात का कथन निकल एवं मोक्ष स्थान तक की गणना की जा सकती है। इन्हीं तीन लोकों के धन पाना है । इस कथन के अन्दर जो कमल आकर मिल जाता है उसको पहाड़ी राजुगों को पिण्ड रूप बनाने से वही दश का क पा जाना है अर्थात् ३४३ पदम या कमन मे कहते हैं। इस प्रकार जल पद्म स्थल पद्म और पहाड़ी को क्रममाः जोड़ देने पर दया बन जाता है। इस बात को दिखलाने वाला यह पद्म मे तीन पद्म इस गिनती में मिल गये । इन तीनों पद्मों को कुमुदेन्दु अंक रूपी भूवलय है ॥ ३६॥
पात्रार्य ने इगी भूवलय के चौथे खण्ड प्राणावाय पूर्व के विभाग में अतीत कमल यह एक का अक महाराशि है, उस राशि को गिनती किसी दूसरे
अनागत कमल और वर्तमान कमल इन तीनों नामों से भी कहा है। मंक से नहीं होती है । अतएव इस राशि को अनन्त राशि कहने है। क्योंकि
इसका मतलब यह है कि प्रनीत चौबीम तीर्थकरों के चिन्हों से गिनाया हुआ इस राशि में से आप कितनी ही एक-एक रागि निकालते चले जानो नो भी
जो नाम है वह अनागत कमल है। इसी तरह वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का उमका अन्त नहीं हो पाता है जिनना का जितना ही कह रहता है। मे करते
लांच्छनों का गणित मे गिना हुआ जो नाम है वह प्रतीत कमल है । अनागत चौबीस हुए भी जिनेन्द्र देव के चरण कमल को १, २, ३, ४, गेमे १ तक गिननी करने
नोर्थकगं के चिन्हों से गिना हुअा नाम वर्नमान कमल है। का नाम संख्यात है और प्रसंन्यात भी है। संख्यात राशि मानव के असंख्यात "कु'भानागत सद्गुरु कमलजा' अर्थात् अनागत सद्गुरु ऐसे कहने राशि ऋद्धि प्राप्त मुनि पौर देव इत्यादि के लिए और अनन्त राशि केवलो से अनागत पीबीसी इसका अर्थ होता है। कुंभ अर्थात् जो कलश है वह १६वें भगवान के गम्य है।
तीर्थकर का चिन्ह है। इन तात्विक शब्दों से भरे हुए तथा गणित विषय से
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सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली परिपूर्ण ऐसे इस शास्त्र के अर्थ को जैन सिद्धान्त के वेत्ता महाविद्वान लोग ही । उस ज्ञान को पाठ बार क्रियात्मक रूप देकर रसमरिण बनाया था उसी विधि के अपने कठिन परिश्रम से जान सकते हैं । अन्यथा नहीं ।। ४३ ।।
अनुसार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस अलोकिक गणत ग्रन्थ में सोना आदि बनाने की अब आगे कुमुदेन्दु आचार्य ध्यानाग्नि और पुटाम्नि दोनों अग्नियों का ! भी विधि बताई है। विशेष रूप से साथ-साथ वर्णन करते हैं।
आदि नाथ भगवान के निर्दोष सिद्धान्त मार्ग से प्राप्त एकाक्षरी विद्या उपर्युक्त प्रतीत अनागत और वर्तमान कमलों को अथवा यों कहो कि 1 से अहिंसात्मक विधि पूर्वक यह रसमरिण बनती है। सम्यग्दर्शन सम्यम्ज्ञान पीर सम्यक्चारित्र इन तीनों को समान रूप में लेकर
कांक्षर विधि को पढ़ने से कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्धान्त का उनके साथ में सम्मिश्रण करके अपने चञ्चल मन माप पाग को पीसने से मार्ग मिलता है जिसे अहिंसा परमो धर्मः कहते हैं। और यह यथार्थ रूप में उसकी चपलता मिट जाती है और वह स्थिर बन जाता है ।। ४४ ॥
प्रात्मा का लक्षण ही अहिंसा धर्म है । इस लक्षण धर्म से जो आयुर्वेद विद्या फिर उस शूद्ध पारा को ध्यान रूप अग्नि में पटपाक विधि से पकाया। बतलाई गई है यह धर्म श्री वृष भदेव आदि जिनेन्द्र के द्वारा प्राप्त हया हैrver जावे तो वह सम्यक् रूप से सिद्ध रमायन हो कर मच्चा रत्मवय रूपी रममणि
और इसे सम्पूर्ण रागढ प नष्ट हो जाने के कारण जब सर्वज्ञता प्राप्त बन जाता है । तत्पश्चात् यही रसमरिण संसारी जीवों को उत्तम सुख देने में समर्थ हो गई तब भगवान ने बताया था। हो । इस तरह काम और मोक्ष इन दोनों पुरषार्थों को साधन कर देने वाला 1 दिगम्बर मुनि राग को जीतने वाले होने के कारण सूक्ष्म जीवों की यह भूवलय नामक अन्य है।४५।।
हिंसा न हो जाए इस हेतु से वृक्ष के पत्ते उसकी छाल, उसकी जड़, शाखाएं, नवमअङ्क के आदि में श्री अरहन्त देव हैं जो कि बिलकुल निर्दोष हैं। फल आदि को न लेकर उन्होंने केवल पुष्पों से अपने पापुर्वेद शास्त्र की रचना उनमें दोष का लेश भी नहीं है। वह भगवान् मरहन्न देव विहार के समय में जब । को है । पुष्प में हिंसा कम है और इसमें ऊपर कहे हुए पंच.मंग का सार भी जब अपना पैर उठाकर रखते हैं तो उसके नीचे जो कमल बन जाता है उसको । होने से गुण अधिक है। अब आगे कुमुदेन्दु प्राचार्य का पारा या रस की महापद्याङ्क कमल कहते हैं।
सिद्धि के लिए जो अठारह हजार पुष्प हैं उसमें से इधर एक को लेकर, बिहार के समय में भगवान के चरण के नीचे २२५ कमल रचे जाया, जिसका नाम "नागसम्पिगे" अर्थात् नागचम्पा है। उन चम्पा पुष्पों से बना ही करते हैं । उन कमलों में से सुरुडग के समय भगवान के चरण के नीचे जो रसमणी में सागरोपम गुरिणत रोग परमाण नष्ट करने की शक्ति हैं। उतना ही कमल होता है वह बदल कर घुमात्र खाकर दूसरे डग के समय भगवान के शरीर सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है। जब सौन्दर्य, प्रायु शक्ति इत्यादि की वृद्धि चरण के नीचे दुसरा कमल पाया करता है। इसी प्रकार घुमाद खाकर नम्बर हो जाती है तब ममान रूप से भोग और योग की वृद्धि हो जाती है ॥५॥ बार हरेक कमल अाते रहते हैं ! अब भगवान के चरण के नीचे पहले आये जगत में एक ड़ि है कि सभी लोग पुष्प को तोड़ कर पूजा, अलंकार हुये कमल को तो अतीत कमल कहते हैं। चरण के नीचे पाकर रहने वाले यादि के निमिन से ले जाते हैं और वे सब व्यर्थ ही जाते हैं। यहाँ प्राचार्य कमल को वर्तमान कमल कहा जाता है। किन्तु घुमाव माकर प्रागे भगवान के । ने उन पुष्पों को सिद्ध रस बनाने के लिए ही तोड़ने की आज्ञा दी है । जो फूल चरण के नीचे आने वाले कमल को अनागत कमल कहते हैं।
भगवान के चरण में चढ़ाया जाता है इसका अर्थ है कि वह सिद्ध रस बनाने उपयुक्त प्रकार की रसमणी के बनाने को गणित विधि को। के लिए ही चढ़ाया जाता है वह व्यर्थ नहीं जाता। प्राचीनकाल में भगवान की नागार्जुन ने अपने गुरुवर श्री दिगम्बर जैनाचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी से जानकर । मृति को सिद्ध रसमणि से तैयार करते थे। जिस फूल से रसिमरिण बन गयी
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ वदलोर-दिल्ली उसी फल को तोड़ कर भगवान के चरणों में चढ़ाया जाता था। उन मूर्तियों इन फलों के घर्षरण से यह अन्तरात्मा परमात्मा बन जाता है। का अभिषेक करने से फिर उस धारा को मस्तक पर सिंचन करने मात्र इन परमात्मा के चरण कमलों के स्पर्श बाले कमलों की सुगन्ध से से कुष्ठादि महान् रोग तुरन्त नष्ट हो जाते थे। इस पद्धति का विज्ञान-सिद्धि । पारा रसायन रूप में परिणत होकर अग्नि स्तम्भन तथा जलतरण में सहायक से सम्बन्ध था। आजकल गन्धोदक में वह महिमा नहीं रही सारांश यह हे बन जाता है। कि वह पहले मूर्ति बनाने की विधि जो कि रसिमणी से बनाई जाती थी वह यह सेनगण गुरु परम्परा से ग्राया हुआ है, इस सेनगण में ही वृषभ नहीं रही। लेकिन इससे हमें आज के गन्धोदक पर अविश्वास नहीं करता। सेनादि सब गणधर परमेष्टि हए हैं, इन्हीं परम्परा में घरसेन प्राचार्य वीरसेन चाहिए क्योंकि अगर ऐसे छोड़ दिया जाय तो धर्म का घात भी होगा और जिनसेन प्राचार्य हुये हैं तथा इस भूवलय ग्रन्थ के कर्ता कुमुदेन्दु प्राचार्य भी इसी वह रसमणी भी नहीं मिलेगा । परन्तु आजकल बह पुष्प भी मौजूद है और
सेन संघ में हुये हैं तथा अनादि कालीन सुप्रसिद्ध जैन ऋग्वेद के अनुयायी जैन भगवान पर चढ़ाया भी जाता और उसमें रसमणि बनाने की शक्ति भो है लेकिन क्षत्रिय कलोत्पन्न जैन ब्राह्मण तथा चक्रवती राजा लोग भी इन्ही सेनगण के रसमणो बनाने को विधिन मालूम होने के कारण आजकल उसका फल हमें याचार्यों के शिष्य थे। सब राजाओं ने इन्हीं आचार्यों की आज्ञा को सर्वोपरि नहीं मिलता है अगर इसी भूवलय अन्धराज से विदित करने तो हम इस विधि प्रमाण मानकर धर्म पूर्वक राज्य किया था और उनकी चरण रज को अपने को जानकर रसिमणी प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा ज्ञान कराने वाला केवल 1 मस्तक पर चढ़ाया था ।। ५६ से ६३ ।। भूवलय ग्रन्थ ही है ।। ५१ ।।
और इस मंगल प्राभूत का शृङ्खलाबद्ध काव्यांग है । वह वावशाल रूप ऊपर कही गई विधि के अनुसार भगवान के चरण कमल की गिनती
है।।६४॥ करके सम्यक् दर्शन भी प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के शरीर में रहने वाले इस मंगल प्राभृत काव्य को चक्र में लिखे होने के कारण यह धर्म ध्वजा एक हजार पाठ लक्षणों से लक्षित चिन्ह भी हमें प्राप्त होंगे ॥ ५२ ।। के ऊपर रहने वाले धर्म चक्र के समान है। उस चक्र में जितने फूलों को खुद
अरहन्त भगवान के चरण कमलों की गणना करने का यह गुग्गाकार वाया गया है उतने ही अक्षरों से इस भूबलय की रचना हुई है। अब आगे उसके भंग है । लब्धांक को घात करने से जो अक पाता है उस भंगांग [ गुणनखंड] कितने अक्षर होते हैं सो कहेंगे। कहते हैं । यही द्वादशांग की विधि है। यह विधि गुरु परम्परा से आई हुई । स्व मन के दल में इन अंकों की स्थापना कर लेते समय इक्यावन, अनादि अनिधन भंग रूप है ५३-५४-५५ ।
बिन्दी पौर लाख का चतुर्थांश अर्थात् पच्चीस हजार कुल मिलकर ५१०२५००० इन सम्पूर्ण अतिशयों से युक्त होने पर भी भंग निकालने की विधि बहुत हजार होंगे ।।६५| सुलभ है । गुरु परम्परा से चले आये भंग रूप है।
उतने महान अंकों में ५००० हजार और मिला दिया जाय तो (५१०अठारह दोषों का नाश कर चुकने वाले परमात्मा के अंगों से प्राया हुमा ३००००) अंक होगा। इन अंकों को नवमांक पद्धति से जोड़ दिया जाय तो यह अंग ज्ञान है।
नौ हो जायेगा। भगवान का एक पाद उठाकर रखने में जितने कमल घूमे उतने सुलभता पूर्वक रहने वाले ये बारह अंग हैं मो दया धर्म रूप कमलपुष्पक कमलों में से सुगंधित हवा निकले, उतने परमाणुओं के अरूपी द्रव्य का वर्णन पत्तों के समान हैं अथवा यह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपात्मक हैं और आत्मा इस भूवलय में है। ऐसे मान लो कि एक कानडी सांगत्य छन्द के श्लोक में १०८ के अंतरंग फूल है।
असंयुक्ताक्षार मान लिया जाय तो उपयुक्त कहा हा अंक को १०८ से भाग
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सी भूपलय
सर्वार्थ सिदिसंभ, मैंगलोर-दिल्ली देने से ७२५००० इतने कानड़ी श्लोक संख्या होते है। इतने श्लोकों । अंक बार-बार माते रहते हैं तो भी कुमुदेन्दु आचार्य ने अपुनरुक्तांक ही कहा से रचना किया हुया काव्य इस संसार में और कोई कहीं भी नहीं है। महा है। यहां पर विचार कर देखा जाय तो अनेकान्त की महिमा स्पष्ट हो जाती भारत को सबसे बड़ा शास्त्र माना गया है। उसमें १२५००० श्लोक हैं। वे है। इस रीति से ६४ प्रक्षर भी बार-बार पाते हैं। संस्कृत होने के कारण से भूवलय में १०८ अक्षरों में एक कानड़ी श्लोक की
इन अंकों में से यह आदि भंग हैं ॥१०॥ अपेक्षा से महाभारत की श्लोक संख्या सवा लाख होने पर भी ७५००० हजार
इस क्रम के अनुसार २३ और ४ भंग है ।।१०६॥ मानी जायेगी इस अपेक्षा से यह भूवलय काव्य महाभारत से छः गुणा बड़ा है
इसी क्रम से ५६ ७ ८ भंग है11१०७॥. बल्कि छ: गुरणा से ज्यादा ही समझना चाहिए। इस भूवलय के अंक ५१०
इसी तरह ११० ११ भंग होते हैं ।।१०।। ३००००हैं। इन अंकों को चक्र रूप में कर लेना हो तो ७२६ से भाग देना होगा इसी तरह १२ १३ भी भंग होते हैं 11१०६! तब ७०.९९ इतने चक्र बन जाते है। परन्तु यदि हम अपने प्रयत्न से चक इसी क्रमानुसार १४ १५ भंग हैं ॥११०।। बनाना चाहें तो १६००० ही बना सकते हैं । शेष के ५४०६६ चक्र बनाने का
इसी रीति से १६ १७ मंग हैं ।।१११॥ ज्ञात हमारे अन्दर नहीं है। किन्तु उन १६००० चक्रों को भी यदि निकालने का दो नौ मिलकर अठारह भंग हुए ॥११२|| . अयल किया जाय तो उनके निकालने में भी इतने महान करोड़ों अंक भी [3] इसी तरह १९ २० भंग होते ।।११३॥ इस एक अक्षर में गर्भित हैं। इस तरह से १७० वर्ष लगेंगे । रूपी और प्ररूपी उसके प्रागे १ २ ३ अर्थात् २१ २२ २३ भंग है ॥११४॥... ...
भी द्रव्यों को एक ही भाषा में वर्णन करने वाला यह सूबलय नामक ग्रन्थ है।। इसी क्रम के अनुसार ४ ५ ६ ७ ८ अर्थात् २४ २५ २६ २७ २८ मंग इसका दूसरा नाम श्री पद्धति भुवलय भी है ।।६६।।
होते हैं 11:१५॥ श्री सिद्ध २ अरहन्त ३ प्राचार्य ४ पाठक अर्थात उपाध्याय ५ सर्व इसा क्रम से नौ अर्थात २६ और ३० भंग है ॥११६|| ... साँघु ६ सद्धर्म ७ परमागम, परमागम के उत्पत्ति कारण चैत्यालय और
इसी तरह ३१३२ के क्रमानुसार ३६ तक जाना चाहिए ।।११७॥ जिन बिम्ब इस तरह नौ अंक में समस्त भूवलय को गभित कर रचना किया
- इसी क्रम से ५० से ५६ तक जाना चाहिए ॥११॥ . . . . हुआ ये सम्पूर्ण अंक है ।।६॥
उसके बाद ६०वां भंग आ जाता है ।।११६॥ दया धर्ममयी इम अंक को रत्नत्रय मे गुणाकर देने से Ex = २७ तत्पश्चात् १-२-३-४ अर्थात् ६१-६२-६३-६४ इस तरह भंग पाता है,
॥६॥ उन सभी को मिलाने से ६४ भंग पाता है। ये ही ६४ भंग सम्पूर्ण भूवलय इस सताईम को २७४३ = ८१ ॥६६।।
है ।।१२।१०१।१२२ ।। इसी तरह भूवलय में रहने वाले ६४ अक्षर बारम्बार पाने रहें तो भी
उन ६४ भंगों के क्रम के अनुसार प्रतिलोम और अनुलोम के क्रमानुअपूनरुक्त अक्षर का ही समावेश समझना चाहिए ॥१०४।।
सार अंक और शब्दों को बना दिया जाय तो ६२ स्थानात पा जाता है। इसमें कोई शंका करने का कारण नहीं है, भूवलय के प्रथम खण्ड मंगल
६४ प्रक्षरों को १ से गुणाकार करने पर ६४ पाता है। इस ६४ को प्राभृत के ४६ वें अध्याय में २०,७३,६०० बीम लाख तिहत्तर हजार छ: सौ अंक।
असंयोगी भंग अथवा एक संयोगी भंग कहते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के इन हैं। उन सभी के १२७० चक्र होते है इसको अक्षर रूप भूवलय की४ अक्षरों में से जिस अक्षर का भी हम उच्चारण करते हैं तो वह वस्तुतः गिनती से न लेकर चकांक की गिनती से ही लेना चाहिए। ऐसे लेने से नौ। अपने मूल स्वरूप में ही रहता है । इसलिये इसको असंयोगी भंग कहते हैं ।
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सिरि भूवजय
सार्च खिदि संच, बेगनोर-विम्ली
वह इस प्रकार है
चरणों का एक श्लोक होता है। इसमें से प्राचार्य श्री ने केवल अन्त चरण 4x7 = अथवा १४१ १
को ही बारम्बार गणना की है ।। १२४ ॥ अब भूवलय सिद्धान्त में पाने वाली द्वादशांग वाणी में द्रव्य थत के
यह मंगल प्राभूत का प्रथम अध्याय समाप्त हया । इसमें कुल ६५६१ जितने भी प्रक्षर हैं और उनके जितने भी पद होते हैं तथा एक पद में जितने
ग्रंकाक्षर हैं। कोह से यदि ३ बार गुणा किया जाय तो भी इतने अंकाक्षर भी अक्षर इत्यादि क्रम बद्ध संख्या को जहाँ-तही मागे देते जायेंगे। अब पा जाते हैं। इस अध्याय में चक्र हैं तथा प्रत्येक चक्र में ७२६ अक्षराङ्क है। असंयोगी भंग अर्थात् ६४ प्रक्षरों के द्विसंयोगी भंग को करते समय आने । यहाँ तक कानड़ी का १२५ वा श्लोक सभाप्त हुमा । बाले गुणाकार को यहाँ बतलाते हैं । ६४४६३ - ४०३२
अब इन कनाड़ी श्लोकों का प्रथमाक्षर ऊपर से लेकर नीचे तक यदि विसंयोगी भंग-संपूर्ण संसार में अनादि काल से लेकर आज तक
चीनी भाषा की पद्धति के अनुसार पढ़ते चले जायं तो प्राकृत भगवद्गीता
लिका प्राप्ती है । कानड़ी श्लोकों का मूल पाठ प्रारम्भ के जो काल बीत चुका है और पाज से लेकर अनन्त काल तक जो पाने वाला काल
पृष्ठों में पा चुका
है। अब उसका अर्थ लिखते हैं। जिन्होंने शानावरणी प्रादि पाठों कों को है उसकी जितनी भी भाषायें होती हैं तथा उसके पाश्रय पर चलने वाले जितने भी मत है उनके द्विसंयोगी सभी शब्द इस हिसंयोगी मंग में गभित हैं। भाव ।
जीत लिया है और जो इस संसार के समस्त कार्यो को पूर्ण करके संसार से यह है कि कोई भी विद्वान या मुनि अपनी समझ से नूतन जानकर जो अक्षरों।
मुक्त हो गये हैं तथा तीनों लोकों एवं तीनों कालों के समस्त विषयों को जो वासा शब्द उच्चारण करता है तो वह सब इसी में पा जाता है। प्रय
देखते रहते हैं ऐसे सिद्ध भगवान् हमें सिद्धि प्रदान करें। पदि ३ अक्षरों के भंग को निकालना हो तो हिसंयोमी भंग को ६२ से गुणा करें,
अब कनाड़ी श्लोक के मध्य में ऊपर से लेकर नीचे तक निकलने वाले चतु. संयोगी भंग निकालना हो तो त्रिसंयोगी भंग को ६१ से गुणा करे इसी
संस्कृत श्लोक का अर्थ लिखते हैं:प्रकार मागे मी यदि चतुःषष्ठि भंग तक इसी क्रमानुसार ६४ बार गुणा करते
अर्थात् "यो" एक अक्षर है । बिन्दी एक अंक है। इन दोनों को यदि जायें तो-६८५१८६४३३८०३७७४४८६१६८५४०३०२४०६८७१९१६३-1
परस्पर में मिला दें तो "घों" बन जाता है। मों बनाने के लिए अ, उ तथा म ३५४७३७-८७३४२६४०३७८७३५३०२२६६२६१५६४०२८४४१६०००
इन तीनों प्रक्षरों की जरुरत नहीं पड़ती। क्योंकि कानड़ी भाषा में स्वतन्त्र
प्रो अक्षर है। उन अक्षरों का नम्बर भूवलय में २४ बतलाया गया है। प्रो ००००००००००००० इतनी संख्या मा जाती है, जो किह से भाग देने पर शेष सून्य बचता है । यही १२३ श्लोकों से निकला हुआ अर्थ है 11 १२३ ॥
अक्षर को बिन्दी मिलाकर प्रों बनाकर योगी जन नित्य ध्यान करते हैं। क्योंकि अव यहां पर प्रश्न उटता है कि हजार-दस हजार पृष्ठ वाले छोटे से !
अक्षर में यदि अंक मिला दिया जाय तो अदभुत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। भूवलय अन्य में से इतनी बड़ी संख्या किस प्रकार प्रगट हुई?
उस शक्ति से योगी जन ऐहिक और पारलौकिक दोनों सम्पत्तियों को प्राप्त उत्तर-इस मूवलय ग्रन्थ को लेखन शैली ही ऐसी है। यहाँ पर चार । कर लेते हैं।
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दूसरा अध्याय पा दिय अतिशय ज्ञान साम्राज्य । साधित वय भववाद ।। मोद य ांगम अविरल शब्दव। नोविप नबम बंधदो० ॥१॥ दि बद देवागमवाद समव सति । यव यव वद नालवेरळ ॥ स वि रदे निदु न भो बिहारवमाडि । दवतु पेळिरुव भूवलय ॥२॥ म नुज रोळतिशय दनुभव चक्रिगे। घन शक्ति वय भवक र नु। अनुजनुदोर्बलियवनादि मन्मथ । जिनपिनादि भूवलय ॥३॥ स रस विध गोळ कामद कलेयोछु । हरुषदायुर् वेदवोळ् उ ॥ ल रयद अपुनरुक्ताक्षर दनकद । सरस सौंदरि देवियोडने ॥४॥ म् नविटु कलितवनाद कारणदिद । मनुमथ नेनसिदे देवा ॥ श एसदे सनदरियरि तन्क गरगनेय । घनविद्ये इरुव भूवलय ॥५॥ ह कदन्कदोळु बन्द कर भाजितम् । सकलवु गुरिणतवो एम् ब् अ॥ सकलशब्दागमद्एळ भंगगळिह । प्रकटद तत्व भूवलय ॥६॥ ण वदन्कवदनेळ रिदलि भागिसे । नव सोन्नेयु हुट्टि बहु व ॥ अवधरिसलुबिडियन्कगळ्एष्टेंब। सबिशंकेगितु उत्तर ७ ॥७॥ रग वपददंदद करण सूत्रब कोळ व । अवयव दोळगिह ६ गत ॥ नवमत्तुनाल्कसोन्नेगळेरळमरनाल्कु सविपारारेरडों बत्तारु ॥८॥ १८५८१९८३६५६२३२७६२५६५३६१८७३४१२९७०४५८४५२८०७३६८४७८३५४६३६३१५२६६००६४८६६२६६४३२००००००००००००० (यहां ८५ को चौंसठ ६४ अक्षरों से पाया भंग है । प्राडासे जोड़ दे तो ३६६ होता है । ३६६ को पुनः प्राडासे मिलाने से १८ हो जाता है।
१८ मिला दिया जाय तो १+%D । जु णि एंटु नाल्कोंबत्त सोन्ने सोन्ने योंबत्त । घनवे नौ वोंबत्तेरडंदु ।। जिनोंदु मूरोंबतमूर बंदकन्द । घनदेमुदके बरवंक | दो ड्ड ओंबतु नाल्कंदु मुटेछ । मोडिडद नाल्केंटोघ ॥ गुडडे यार् मूरेछु सोन्ने एंटेरडेदु । अड्डनाल्केंटेदु नाल्कु ॥१०॥ स म सोन्ने एळु ओंबत्तेरडोंदु । गममाल्कु मरेछु बर् प् था। कमरेटु श्रोंदोंबत् मूरु ऐदोंबत्तु । विमल ऐदेरडार एम् ॥११॥ म रळि एरडु मूरु एरडारदोंबत्तु । सरदे मूरटेंब र शि ॥ अरुहर ओबत्तु ओमटु एंटेंटु। सरियोंबु बरलु बंदक ॥१२॥ च रिते यो प्रतिलोम गुणकार दिबंद । वरवंवत्नाल क् अक्षरद।। सरमालेइदरोळअनुलोमक्रमविह परिपद्रव्यागमयरिये ॥१३॥ ज तरवोळु सोन्नेगळु हन्नेरडु । प्रोतं नाल्केरडे अक् षा ॥ मतेंटेळेददेंढारु बंबंक । वतिनोळंटु नाल्केळु ॥१४॥ र सदोम दोंदु नाल्कू सोन्ने यररंदु । वसटदारुकु ल षा॥ यशदेळं दारु ओंदु ओंबत्त । वशदोंवतु नाल्केरडु ॥१५॥
र नालकारू सोल्नेयु नोंदु येरडारू । एरळ मूरु एदेबरित ॥ सरि प्रोवेळ द मूर? मूरनात्कु । बरेसोन्ने योंदारु भोंदु । म विमरेटु सोन्यु ऐन्होंबत्तु । नबऐळ नाल्केरळ हो म दे॥ कवि सोन्ने नाल्कु बंदंक वैभव । दवयव अनुलोम दरिय की ४०२४७६६८०८३१६१०४३८३५७१५३२६२१०६४२४६६१६५७६५८५२०४११७४८६८५५७८२४००००००००००००
इस ७१ अंक को जोड़ दे तो २६१ = आता है। न वदंक वाद ई अनुलोम विवरिद । सविरस धेनु सितु स क लं ॥ सवेसलु भागवहार लब्धदि बंद । भवभयहरणद अंक ॥१८॥ ग पितदे हन्नेरळ सोनेगळागलु। गण मूरोंबत्तेरडों न ॥मरिण ऐदेळ नाल्कोंबत्तु नारूकु । गण भोंदों बत्ता ना ल्कु ॥१६॥
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२०
सिरि भूवलय
सर्वा सिद्धिसंघ बैंगलोर-दिल्ली
४६६१४६४७५१२६३०००००००००००० यह मात्रा हरेक के द्वारा आया हुआ लब्धांक है इन कुल मिलाने से ६४ आता है ।
६४ को जोड़ दे तो १० होता है ।
भू
॥ सारतरात्मतत्यव नोडलेरळ् भाग । दारके श्ररथत्तोंदु तन्दु ॥ श्रदरद्धं माडलु बह भंगाक्षर । वदर क्रम वदितिहुनु ॥ विमलात्कारु ऐवेळ मूरेळ । समनाकळे दुनात्सूर्येरड दे ॥ श्रवतरिसिद तप्प तप्पेनलागदु । सधियंक दुपदेश मुदे
म
क्षणवागि इप्पत्तों बत्तक । धावल्य वदतु काणु विर
ल
॥ कोविदोंक उत्पत्ति याप्तिल्लि । नववैर्दार भागवाय
ल
बढें तो अंतु हृदय होक्कु । हृदनागि भोग योग वनु ॥ने कोने होगिसि कर्मवकेडिसलु । श्रनुपम पंचान्गि इदेको मनुजत्वदनुभवलाभ ||२६|| घनकर्मदात्रवविल्ल ॥३०॥ जिनमुद्र हृदय होकिकह जिननाथनोप्पिदभक्ति ॥ ३३ ॥ जिन मुनिगळ ज्ञानयोग ||३४|| विनुतांतरंग विज्ञान जिननाथ अडिटमार्ग ||३७|| घन कर्म वळिव भूवलय ॥ ३८ ॥ जिनवर्धमानसाम्राज्य
चा
म्
रित्र दंकवितिवनेल्ल कूडिद । दारियोळ बंबिहूदं दहिरतेय क्रम प्रतिलोम वा । अदरक प्ररवशनाल मना हन्मोंदु सोन्नेय निट्टु मुन्दरण मदोळ ऐरिब afaya कालक्र
स
वदंक बनेर परस्पर fe
न
डानि मंगल वृद्ध बहस गमनिस लाग ॥ तावे तप्पित वेनिल्ल । श्रवियादुत्तर दं
रंगो वदंकदे बंद
₹
भृ
दिन दिन दत्याशे एरलुबिडदिह । अनुपमयोगाग्ति यदतुम् धनरत्न ऐडुइंद्रिय ॥ २८ ॥ अनुभवगम्यद दृष्टि ॥३२॥ तनयरिगेल्ल सौभाग्य ॥ ३६ ॥ मनसिंहवग्रद कमल ॥४०॥
"
रद संहननद आदि यादी काव्य । धरेय भव्यर भावदलि ॥
万 दन बावु वक्रवददु । सदरदि हूविन गंध ॥ मृटु
नवोळु तपदात्म योगदे तम्म । तनुवतु कृशव्
॥४३॥
वनु संख्यात बोळरिवं जिननाथनरिकेगेगम्य वनपडेदवनोव्बयोगि दिन दिन उन्नति गडव सादं कर्म भूवलय
॥५२॥
॥ ५५॥
मनव माजिद कर्मद कगळटु । विमलात्म गुणायदे सयुतवागिऽच्चुत बरला प्रत्म होस श्रादियाद ज्ञानयद ॥ वशनोळिसुवनुपाध्यायं ॥५८॥ यशवोळिद्रियव जयिसिरुव ॥ ६१ ॥ असम मानवरग्रगण्य ॥६४॥
॥४६॥
Н
॥४६॥
28
11
22
व
रुय प्रतिम समुद्घातयनुतोष । गुरुगळंवर दिव्य चरण श्राग ॥ जिननाथनंदद सर्व साधुगळंक । दनुभव साधुसमाधि घननं तांकोळरिय धनदुष्कर्म दावाग्नि
॥४४॥
घन शिव सौख्यद पडेव धनशुद्धोपयोगियवं
11
वनुप्रसंख्यातदोळरिव तनुमनवचनातीत
॥४७॥
विनुत वैभव शालि अज्ज नगृह्य् वेल्लवनरिव
॥५॥ ॥५३॥
मु रुळि ॥ गमकद कलेयन्तेऽच्चत बहवाग । तमगल्लि उपदेश शक्ति शियोळ, पड़ेद, दहगलुख न द ल्लगे । वशागोळिसुघव पालकन रस दूध उणि सुबनाये (चार्य) ॥५६॥ यशद े भूवलयवनलेव ॥६०॥ होसब नागेसेव भ्रुबलय ॥६२॥ हसियनोड़िसिद महात्मा ॥ ६३ ॥ हो सेबु पेळुव द्वादशांग असदृश समतेय वेळ व ॥६६॥
॥६५॥
॥२०॥ २५॥
॥२२॥
।।२३।।
।। २४ ।।
।। २५ ।।
॥२६॥
॥२७॥
॥३१॥
।। ३५ ।।
॥३६॥
।। ४१ ।। ॥४२॥ ४५।। ॥४८॥
।। ५५॥
।। ५४ ।।
॥ ५६ ॥ ।। ५७॥
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२१
शु
१
प
रिसि समुदाय दोळ
होस बुद्धि ऋद्धि सिद्ध
हसर मेल्लद दयापरनु
F#
व
६
॥ मिगिलागिपालिसुतदरन्ते भव्यर। बगेय पालिसुवनाचार्य ॥७५॥ हि ॥ प्रवस्वारगेस प्राचार सारख सवियवयवव तोरिसुव ॥ धर्म वैभव वदरंक दष्टाचार । धर्म व पालि सुवार्य तुरनारैदु तोरुव । सारतरात्म श्राचार्य नरद मार्ग भूवलय
ध
41
श्रा रिगियोळ, वश धर्मद सारय। सारिदगुरुप्राचार्य ॥ सारद सि
हारद रत्न भूवलय
सारतरात्म भूवलय ॥७६॥ दारि योळ, बन्द भूवलय ।।८२ ॥ सारात्म किरण भूवलय ॥८५॥ शूरर ज्ञान भूवलय ॥६८॥ सारमा गिक्यभूवलत वीर महादेव बलय सारवसारिदाचार्य सिद्धिबालसुवरद बशवाणुबन्तात्म निर
11 219 11
त
शनागुबनु लोकाप्रदेने लसुध राशियोशुद्ध तानागी ॥ लेसा तो र्तनागिरे ग्रात्मनुसंसारद । व्यथेयनेल्लवम्समेदि
55
होसमाद वार्जवरूप
यशदोषद्वय हि
वृषभनाथन काल दरिव
गन मार्ग दो पोपरंदद तीव्रत्व | दगणितदाचारसद
वद कद ते सम्पूर्ण पदार्थद । सविचार वेल्लवन
मं साम्राज्यद सार्वभौमत्वबु । निर्मल सद्धर्मव
मा
॥६७॥
॥७०॥
॥७३॥
।। ६१ ।।
॥ ६४ ॥
सिरि भूवलय
॥१०५॥
॥१०८॥
॥११७॥
॥१२०॥
॥ १२३॥
धीरन चरण भूवलय
र्
मायलोभ क्रोध कवायद । तारवेल्लवईगळिदु ॥ ताण वा बकारमन्त्रवसार सर्वस्व । श्रवरिवरेन्नदेसर
नवदंक संपूर्णसिद्धर् अवरनन्तांकदेवद्धर् प्रवरंगनिर्मलशुद्धर श्रवरु "स" अक्षरयादि ॥ ११४॥
॥ १११ ॥
श्रवतारवळि बुबाळ्ववरु सवियागुरुलघुगुरु
अवरव्यांबाधधररु
॥८०॥
शूरर काव्य भुवलय ॥८३॥
नेर सिद्धान्त भूवलय ॥८६॥ सारात्म ज्योति भूवलय ॥८६॥
॥६६॥
॥७१॥
स
अवरुवासिसुव भूवलय श्रवरनन्तवज्ञानवररु अवयववदिवयवत श्रवमिन्दजीविपर
॥७४॥
नवसूक्ष्मत्वताळ्दवरु radhariva
॥१०६॥
॥ ११२
।। १.१५ ।।
श्रवरनन्तदबीर्ययुतरु
सर्वार्थ सिद्धि संप बेंगलोर-दिल्ली
॥६६॥ ॥७२॥
होसदाद पदशवार्य उ सहसेनार्य वंशज
॥११८॥
T१२१॥
॥ १२४ ॥
क्रूर कर्मारि भूवलय नेरदध्यात्म भूवलय
वीरनवचन भूवलय
वीरजिनेन्द्र भूवलय ॥ ६२ ॥ भूरि वैभवयुतवलय
॥ ६५ ॥ 11 = 11
एरियनन्त आचार गेरिवेनुभक्तिय
भूरि वैभवद विरागी
॥ यशवळि सुवदेहवजतनागुल । वशवागेमोक्षवुसिद्ध, र्थवद सारेभव्यर | राशिराशिये काविह
पा ।। क्षितिये श्री सिद्धत्व दनुभवदादिय । हितवदनन्तषु काल रंगयनेल्लकातलरियुत। श्रानन्ददिहरेल्ल सिद्धर्
॥१०२॥
॥१०३॥
।। मवयववेश्रात्मन रूपवागिह। अवरुसिद्ध एम्बरियय् ॥ १०४॥ नवकार मन्त्रवसिद्धर् नवकोटिमुनिगळगुरुगळ् नवसद्दर्शनमयद
॥१०६
सविसौख्यसार सर्वस्वर
॥७६॥
110011
113411
६४
।।६४।।
६७
रा
॥६३॥
॥६६॥
HEE
॥१००॥
॥१०॥
॥१०७॥
।। ११० ।। ॥११३॥
॥ ११६॥
अधरनन्तवसुखमय
११६॥
॥१२२॥
कवियवगाहवोळिक अवररहन्तत्त्वतिळिवर ॥ १२५ ॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर दिल्ली सुविशालजगवनोल्पवरु ॥१२६॥ अवरपादकेनमिसुवेनु ॥१२७॥ भवळिववरासिद्धर् छ वर्णयोळ कदक्षरवतुस्यापिसि । दवयववो येम्ब प्रव र । नवकेवललब्धिगोडेयरेन्देनुबरु । अवररहन्तर् इष्टात्म, ॥१२॥ इष्टवदेवरुधातिकर्मबगेल्दु । स्पष्टदेभववनीगिद
स द्॥ वृष्टियोळ् भूवलय के धर्मव पेळ्द । स्पष्ट द प्रोंकार वेळदवरु ॥१२६॥ नियोळ मूरुवेळेलि अनन्तद । गरिणतदोळडगिसिदवरम् ॥ वन ज नाभिय सोंकनिन्ददेवरम् । जिनदेवरदरियुवुदु
॥१३॥ २ सयुतबाद भूवलय सिद्धान्तके । रसवन्तर्मुहूर्तदि तोर थ । होसेदेन्दुमूरुकालव नोन्देकालदि । होसदोन्दरोळपेळ दिहर
॥१३॥
॥१३२॥ पोपकारोंदरोळुगिसिदरवत्नाल । कंकम दक्षर है ।। अंकवेअक्षर अक्षर अंकयेम् । बकियपळदवरवरु
॥१३३॥ मनमयनुपटळ दोळु बाळव नररिगे। घनकर्मधाळदवस र. व ॥ अनुभववनु पळद अरहन्तरडिमळ नेनेवल्लि ऐदंकसिद्धि
॥१३४॥ गा खशिखेगळु समानदोळिप देहब । सकलांकपरमनिगिरु मुम् ॥ सकलागमवु सर्वांगम् ओंदरिम् । प्रकट वादरहन्त देव ।
॥१३५॥ चरव्यन्तर भवनामर कल्पद । सचरदेवतेगळवरु नो ॥ सचराचरवनेल्लवकेळिदवरागि। प्रचलभक्तिय प्रकटिसिदर
॥१३॥ सनेन्द्रियदासेयळिव भव्यात्मरु । वशगेय् सकलांक दुदया। वशवादुदेमगेन्दु नमिसुतपोबरू । असदृश भूवलपक्के
॥१३७॥ नविल्लद ज्ञान प्रौंददुहुट्टि। श्री निकेतनंगदुप रि ॥ प्रानतवागिह मुक्कोडे पूमळे । भानुमंडलद भूवलय
॥१३॥ शगोंड "अ" आदिमंगलप्रामृत। रसद अक्षरवदु मा नु॥ यशदारुसाविर देनररवत्तोंदु । रसदेरडनेय अन्तरदोळ्
॥१३॥ यशदैदेन्टेळेळ अन्तरद ॥१४०॥ दिशेयधिकारदोळ बपं ॥१४१॥ रसदकगणनेयक्षरद
॥१४२॥ यशदेकूड़िदरेबाहक ॥१४३॥ रसवेन्टमर्नाल्केरडु ओंबु ॥१४७॥ यशदसाविर हन्नेरउरेय
॥१४॥ दिशेयोळुबरुवचारित्र्य ॥१४६॥ यशवदन्तागे "या" इदरोळ् ॥१४७॥ रसदन्तराधिकारदोळु
४E1 रसदक्षरदलेक्कसिद्धि ॥२४॥ कुसुमगळन्नुकूड़िदरे ॥२५॥ विषहरदनुभवविरुव
॥१५॥ यशदककाव्यदसिद्धि ॥१५२॥ रिषियमानरवाक्य ॥१५३॥ रसदन्तरेन्टनालकेन्ट ऐळु ॥१५४॥ प्रो मदंकवेप्पत्तळ येम्भत्तं दु । अम्मलुमन्तर न दरलि ॥ उम्मिदेन्टनालकेन्टेळ बंदंक । सम्मतब "ग्रा" क्य भूवलय ॥१५॥
संपूर्ण प्रा दूसरे अध्याय में ६५६१ अक्षर है। अन्तर में ७८४८ = है। कुल मिलकर १४४०६ अक्षर होते है
अथवा
प्रथम-अध्याय १४३४६+ दूसरे या अध्याय १४४०६ -२०७५५ हुये। प्रथम अक्षर ऊपर से नीचे तक पढ़ते जायंतो प्राकृत भाषा सक्रमवर्ती आदिमसंहरणणजुदोसमचउ रस्संगचारु संठाणोम् दिन्ववरगन्धधारी पमाणठिदरोमणखरुवो ॥२॥
२७ वा अक्षर से लेकर यदि ऊपर से नीचे पढ़ते जायं तो संस्कृत भाषा सक्रमवर्ती अविरलशब्दघनौघप्रक्षालित सकल भूतल मल कलंका । मुनिभिरपासिततीर्था । सरस्वती हरतुनो हुरितान् ॥२॥
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द्वितीय अध्याय
अनादि कालीन ज्ञान साम्राज्य के वैभव युक्त इतिहास को लिए हुये तथा नवमबन्ध में कहे जाने वाले अत्यन्त सुन्दर अर्थागम को प्रकट करने वाला यह अखिल शब्दागम हूँ । ?
आकाश में अधर गमन करने वाले तथा देवों द्वारा निर्मित अत्यन्त सुन्दर समवशरण नामक सभा में विराजमान होकर उपदेश देने वाले भगवान् के मुख कमल से निकला हुआ दिव्य ध्वनि रूप यह भूवलय शास्त्र है । २
सम्पूर्ण मनुष्यों में अतिशय सम्पन्न और चक्रवर्ती के अपूर्व वैभव से युक्त ऐसे श्री भरत महाराज के अनुज तथा जिन रूप धारण करने बांसे ऐसे प्रादि मन्मथ श्री बाहुबलि जी द्वारा निरूपित यह भूवलय है।
विवेचनः - मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच तथा कुन त, कुमति और कुअवधि ये तीन मिलकर आठ प्रकार के ज्ञान हैं। इनमें जो पहले के पाँच हैं वे सम्यग्ज्ञान के भेद हैं और जो शेष तीन हैं वे मिथ्या ज्ञान कहलाते हैं। इन तीनों को विभंग ज्ञान भी कहते हैं । स्यावर इत्यादि असंज्ञी जीवों को कुमति, कुश्र ुत होता है। और सेनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को विभंग ज्ञान भी हो सकता है। यह ज्ञान सासादन गुणस्थानवर्ती जीवों तक होता हूँ । सम्यग् मिथ्यात्व गुणस्थान में सदशान और असद्ज्ञान (अज्ञान) ये दोनों मिश्र ज्ञान होते हैं। मति श्रत अवधि प्रसंयत सम्यग्दृष्टि आदि को होता है । मनः पर्ययज्ञान प्रमत्त गुण स्थान को लेकर क्षीरण कषाय गुग्ण स्थान तक होता है। तेरहवें गुणस्थान में केवल ज्ञान होता है और चौदहवें गुग्ण स्थान वाला प्रयोग केवली होता है इससे ऊपर अशरीरी होकर सिद्ध हो जाता है । . पांचों ज्ञानों में जो पहले के चार ज्ञान हैं वे परोक्ष हैं और केवल ज्ञान पूर्णतया आत्माधीन होने के कारण प्रत्यक्ष है। यह ज्ञान आदि और अतिशयवान् भी हैं। केवल ज्ञान हो जाने के बाद फिर शरीर धारण नहीं करना पड़ता इसलिये इसे अशरीरी भी कह सकते हैं और पौद्गलिक पर वस्तु के संबंध से रहित है, इसलिये यह अरूपी
भी कहलाता है । मन श्रति अवधि और मनः पर्यय ये चारों ज्ञानपरीक्ष हैं क्योंकि ये चारों ज्ञान इंद्रियों की अपेक्षा रखते हैं। केवल ज्ञात ग्रतीन्द्रिय है और संसार के सभी पदार्थों को एक साथ जानने वाला है । इसलिये इसको सर्वेश ज्ञान कहते हैं। अनन्त ज्ञान भी इसे कहते हैं। जिसका अन्त नहीं है वह अनन्त है । केवल ज्ञान का भी हो जाने के बाद अन्त नहीं होता है ।
यह ज्ञान व्यवहार नय से लोकालोक के त्रिकालवर्ती संपूर्ण विषयों को जानता है तथा निश्चयनय से अनाद्यनन्तकाल से पाये हुए अपने अात्मस्वरूप को प्रतिक्षण में जानता है अतः इस ज्ञान को शुद्धात्मज्ञान कहते हैं ।
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अतिशय वैभव से संयुक्त संपूर्ण जीवों को आमोद प्रमोद उत्पन्न करने वाले गंगा नदी के पवित्र प्रवाह के समान अखंडित होकर बहाने. वाले अर्थागम को मैं {दिगंबराचार्य कुमुदेन्दु मुनि) ने नवम अंक के बंधन में बांध दिया है । यह पहले कानड़ी श्लोक के अर्थ का सार है। ऐसा होने पर भी नवम बंध- वैभव इन दो शब्दों की व्याख्या विस्तार पूर्वक नहीं हो सकी। इसी अध्याय का छः से लेकर थाने वाले दलोक में संक्षेप में नवम बंध के अर्थ का विवरण करते हैं। ऐसा कहने पर भी वह पूर्ण नहीं हो सकता |
:
बंधनानुयोग द्वार का कथन विस्तार के साथ ही होना चाहिये । इसका विस्तार आगे लिखेंगे।
वैभव शब्द का अर्थ ३४ अतिशय है. जिनका विवेचन मागे समयानुसार करेंगे । श्लोक दूसरा:
ऊपर कहे ये श्लोक के अनुसार मनुष्य को केवल ज्ञान अर्थात् : निर्विकल्प समाधि प्राप्त होने के बाद उसके बल से स्वर्ग से देवेन्द्र ग्राकर उस केवली भगवान के लिये समवसरण की रचना करते हैं ।
देवताओं के द्वारा समवसरण की रचना होने पर भी उसकी माप
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सिरि भूवाय
सर्वार्थ सिद्धि संभ देगलोस्टमासी तथा ऊँचाई इत्यादि सर्व प्रमाण भूवलय में दिया गया है। जैन श्लोक तीसरा :शास्त्र में कोई भी बात अप्रमाणित नहीं होती अर्थात् प्रमाणिक होती इस मनुष्य भव में अतिशय देने वाले तीन पद है। इससे अन्य कोई है। आजकल विमान चढ़ने में दस, बारह सीढ़ी तक एक ही तरफ भी महान पद नहीं है। बीते हुए जन्म जन्मान्तरों में अतिशय पुण्यसंचय लगा देते हैं, परन्तु ममवसरण के लिये चारों ओर हर एक में २१०००
कर सोलह कारला भावना, बारह भावना तथा दस लक्षण धर्म इत्यादि सीढ़ियां होती है । आज के विमानों में चढ़ते समय एक के ऊपर एक
भावनात्रों को भाते हुये पाने के कारण राजा महाराजादिक १८ पांव रखकर चल पाता है दुमका ३ का ५५ का
श्रेणियों को चढ़ते हुये पाने से परम्परा अभ्युदयसुख किसी १८ थेणियों क्रम न होने के कारण इस तरह चढ़ने को आवश्यकता नहीं रहती।। में कहीं भी खंडित न होकर परम्परागत अभ्युदय सुख में सबसे पहले
१ भरत चक्रवर्ती तथा मन्मथ बाहुबली महान् उन्नतिशाली पराक्रमी कामपहली सीढ़ी में पाद लेप औषधि के प्रभाव मे मनुष्य और निर्यच ।
। देव थे । मन्मथ का अर्थ-ईश्वर के ध्यान में ज्ञानाग्नि से शरीर को उसने प्राणी समवसरण भूमि में जाकर भगवान् के सन्मुख पहुंच जाते थे।।
के कारण इसका नाम मन्मथ पड़ा, ऐसा कतिपय विद्वानों का कथन है। यद्यपि यह बात अाजकल की जनता के लिये हास्पकारक मालूम होनी
जिनके शरीर नहीं है वे दूसरे के मन को कैसे आकर्षित कर सकते हैं ? है तथापि श्री भगवान् कूदकदाचार्य तथा श्री पुज्य पाद प्राचार्यादिक
ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते है। पहले इसी प्रकार की पाद पौषधि का लेप करके आकाश में गमन
कुमुद्देन्दु प्राचार्य ने अपने मुवलय में इस प्रकार कहा है कि जिस करते थे, यह बात उस समय की जनता के समक्ष प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर
समय मनुष्य को पुवेद प्रगट होता है उस समय स्त्रियों के साथ मोग होती थी। पाद औषधि का विधान किस प्रकार करना चाहिये, इस
करने की इच्छा उत्पन्न होनी है। स्त्री वेदनीय कर्म का उदय होने से विधि को भूवलय के प्राणावायु पर्व में पूर्ण रीति से स्पष्ट किया गया
पुरुष की अपेक्षा और नपुसक वेद का उदय होने से एक साथ स्त्री है। विमान इत्यादि तैयार करने की भी विधि इसमें पाई हुई है। इस
और पुरुष इन दोनों के साथ रमण करने की इच्छा होती है, ऐसे खंड में जंगली कटहल के फलों से पादलेप तयार होता है ऐमा कुमुदेन्दु
अवसर में अशरीरी ईश्वर मन्मथ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो प्राचार्य ने बतलाया है । प्रागे इसके विधान का प्रसंग पाने पर लिखेंगे। ऐसे देव निर्मित समवसरण में विराजमान होने पर भी भगवान ने
सकता है, ऐमा कुमुदेन्दु याचार्य ने अपने भूवलय में कहा है । इतना ही
नहीं उस समय मभी मनुष्यों में बाहबली अत्यन्त सुन्दर देखने में पाये समवसरण का स्पर्श नहीं किया । दल्कि वे सिंहासन के ऊपर चार अगुल अपर विराजमान रहते थे और आकाश में गमन किया करते थे।
थे। इस प्रकार संपूर्ण भरतखंड के मानव प्राणियों को अपने प्राधीन
करके रहने वाले भरत चक्रवर्ती ये। यदि मनुष्य सुख की अपेक्षा देसा सर्वसंघ परित्याग कर अपने तप के द्वारा संपुर्ण कमों की निर्जरा जाय तो ये दो ही सुख है एक कामदेव का सुख और दूसरा चक्रवर्ती करके केवल ज्ञान साम्राज्य को प्राप्त कर, संपूर्ण प्राणी को भिन्न- का सुख। इसके अतिरिक्त संसारी सुख अन्य किसी में भी नहीं है। भिन्न कल्याण का मार्ग न बतलाकर एक महिमामयी सच्चे पात्मक- ऐसे पतिशय कारक सुख, रूप लावण्य तथा बल इत्यादि संपूर्ण इंद्रियल्याणकारी मारमधर्म को बतानेवाले भगवान श्री वीतराग देव के द्वाग जन्य सुख को तुरण के समान जानकर उसे त्याग कर सबसे अंतिम तथा कहे हुए भूवलय को कुमुदेन्दु आचार्य ने संपूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के सर्वोत्कृष्ट अविनाशी अनाद्यनन्त मोक्ष पद को प्राप्त करने का उद्यम लिये सर्वभाषामयी भाषा ग्रंक रूप में कहा है।
1 किया, तो क्या यह बात सामान्य है? यह जिनरूप धारण करने की
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प्रबल इच्छा मन में प्रगट होने के बाद विषय वासना कभी रह नहीं सकती। किंतु इस जिन रूप का स्पष्टीकरण ही इस भूवलय में है ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। इसलिये इसकी प्राप्ति के लिये गोमटदेव ने संपूर्ण मानव को सुखकारी भूवलय ग्रन्थ की रचना को हैं ।
वृषभदेव तीर्थंकर कृत युग के आदि में संपूर्ण साम्राज्य पत्र भरत चक्रवर्ती को देकर तपोवन को जाने के लिये जब उद्य क्त हुए थे नव अपने शरीर के संपूर्ण आभरणों को प्रजाजनों को अर्पण कर दिया था । उस समय उनके शरीर पर कुछ भी शेष नहीं रह गया था। तब ब्रह्मचारिणी युवती ब्राह्मह्णे व सुन्दरी नामक दो देवियों अर्थात् भरत चक्रवर्ती की बहिन ब्राह्मी और बाहुबली की बहिन सुन्दरी देवी दोनों आकर पिताजी से निवेदन करने लगी कि पिताजी ! भाई भरत को तया बाहुबली को तो आपने बहुत कुछ दिया परन्तु हमें कुछ नहीं दिया इसलिये हमें भी कुछ मिलना चाहिए। तब भगवान ने कहा कि वेदियो ! तुम्हें क्या चाहिए अर्थात् तुम क्या चाहती हो ? इस तरह भगवान की प्रश्न करने की आदत यो संसार एक ऐसा अनूठा है कि यदि कोई प्राकर किसी से पूछे तो वह यह नहीं कह सकता कि तुमको क्या चाहिए ? अर्थात् वह कहूंगा कि मेरे पास १०-२० या ५० रुपया है, इसे तुम ले जाओ यही बात कहेगा। परन्तु भगवान की इस तरह भावना नहीं होती। क्योंकि भगवान के अन्दर लोभ कवाय का सर्वथा प्रभाव था तथा उनकी आत्मा के अन्दर स्वाभाविक दान करने की प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रति शंकात्मक उत्तर मिलता है। भगवान के अन्दर यही एक अतिशय है। पिताजी की इस बात से प्रसन्न होकर दोनों पुत्रियाँ लौकिक सम्पति पूछना तो भूल ही गई पर ब्रह्मचारिली होने के कारण वह परलोक के कल्याण निमित्त तथा भविष्यकाल की सर्वजनता के कल्याणार्थ उन दोनों पुत्रियों ने इस प्रकार प्रार्थना की कि:- हे पिताजी ! अभी भरत चक्रवर्त्यादि को आपने जो वस्तु दिया है वह सब कि इंद्रिय जन्य तथा अंत में दुःखदायी है। इस लिए हमें ऐसी वस्तु नहीं चाहिये। हमें आप कोई ऐसी वस्तु दें कि जो
सिद्धिसंघ पोरी
सदा हमारे साथ रहे । तब भगवान ने दोनों पुत्रियों को मरने पास बुलाकर बांई अंक में ब्राह्मी को और दाहिती ग्रंक में सुन्दरी देवी को बिठा लिया । नत्पश्चात् ब्राह्मी से कहा कि पुत्री ! तुम अपना हाथ दिखाओ । पिता की आज्ञानुसार ब्राह्मी देवी ने अपना दाहिना हाथ निकाला | तब भगवान ने अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को अंदर रखकर मुट्ठी बांधकर श्राह्मी की हथेली में बंधे हुए अमृतमय अपने अंगूठे से लिख दिया । ऐसा लिखने का कारण यह था कि जब भगवान का जन्म हुआ तब बालक अवस्था में सौधर्म इंद्र ने तत्काल जनित भगवान के मृदुल मृणाल अंगूठे के मूलभाग में अमृत भर दिया था। इसलिये उस अमृत को उनके अंगूठे के मूलस्थान से लेकर सिंचन करते हुए सर्वभाषामयी भाषाश्री को धारण करनेवाला कर्माष्टक प्रर्थात् आठ प्रकार की कन्नड़ भाषा के स्वरूप को दिखानेवाली लिपि रूप कई अक्षरों को लिखकर कहा कि बेटी आपके प्रश्न के अनुसार अक्षर की उत्पत्ति हुई है। सो अनन्त काल तक रहेंगी। इसलिये यह साथ अनन्त कहलाता है । पहले भोग- भूमि के समय में इस लिपि की आवश्यकता नहीं थी । उसके पहले अनादि काल से अर्थात् सबसे प्रथम कर्म भूमि के प्रादुर्भाव के समय में सबसे प्रथम तीर्थंकरों से आज जैसे ही उत्पत्ति होती आई है। इस दृष्टि से देखा जाय तो तुम्हारी हथेली पर लिखे हुए प्रदार धमा चनन भी कहे जायेंगे। इसलिये कर्नाटक भाषा साधनंत भी है और अनाद्यनंत भी। छठवें काल में ये अक्षर काम में नहीं आने से शांत हो जाते हैं । इस दृष्टि से देखा जाए तो अक्षर आदि और सांत भी हैं। चलकर बताया जाएगा ।
इसका विस्तार भागे इस बात को सुनकर हार्दिक इच्छा पहले से अतः उसे प्राप्त होते यही मत है कि सभी
ब्राह्मी देवी सन्तुष्ट हो गई क्योंकि उसकी यही थी कि हमें कोई अविनाशी वस्तुनि । ही यह प्रयन्त प्रसन्न हुई । अनेक विद्वानों का लिपियों की अपेक्षा ब्राह्मी लिपि प्राचीन है ।
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सवार्य सिद्धि संघ बेंगलोर-विल्ली
क्योंकि यह लिपि आदि तीर्थकर श्री अषभनाथ भगवान की सुपुत्री । ब्राह्मी देवी के हाथ में भगवान ने अपने दायें हाथ से आधुनिक लिपि ब्राह्मी देवी के नाम से अंकित है।
के समान लिखा और सुन्दरी देवी के हाथ में बायें हाथ से लिखने की श्री कुमुदेन्दु आचार्य कहते हैं कि सबसे पहले श्री प्रादिनाथ भग
आवश्यकता पड़ी। 'वान ने ब्राह्मी देवी की हथेली में जिस रूप में लिखा था वह आधुनिक इसी कारण बायें से दायीं मोर वर्णमाला लिपि तथा दायें से कानड़ी भाषा का मूल स्वरूप था।
बायीं ओर अंकमाला लिपि प्रचलित हुई। प्राचीन वैदिक और जैन - उपयुक बात को देखकर पिताजी (भगवान आदिनाथ) शास्त्रों में "कानां वामतो गतिः" ऐसा लेख तो उपलब्ध होता था किन्तु की जंघा पर बैठी हुई सुन्दरी देवी ने प्रश्न किया कि पिताजी? उसके मूल कारण का समाधान नहीं हो रहा था। इस समय इसका बहिन ब्राह्मी को हथेली में जो आपने लिखा वह कितना है? जिस समुचित समाधान भूवलय से प्राप्त होकर उसने सभी को चकित कर प्रकार किसी विश्वस्त व्यक्ति का सहयोग लेने के लिये यदि प्रश्न किया। दिया है । इस समाधान से समस्त विद्वद्वर्ग को सन्तोष हो जाता है। जाय कि हमें अमुक कार्य करने के लिये रुपये की आवश्यकता है। सो तत्पश्चात् भगवान् प्रादिनाथ स्वामी जी ने उपरोक्त नियमानुसार अापके पास मौजूद है या नहीं ? तो उसके इस प्रश्न पर यदि वह कह सुन्दरी देवी की दायीं हथेली के 'गूठे द्वारा १ बिन्दी लिखी और दे कि मैं आपको पूर्ण सहयोग दूंगा तो रुपये पैसे का कोई प्रश्न । उसके मध्य भाग में एक प्राड़ी रेखा खींच दी। उस रेखा का नाम नहीं उठता क्योंकि पूर्ण रूप से महयोग देने की प्रतिज्ञा कर लेने के ।
कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अद्धच्छेद शलाका दिया है और छेदन विधि को कारण वहाँ पैसे के प्रमाण की कोई पावश्यकता नहीं रह जाती पर शलाकार्षच्छेद अर्थात् एक दम बराबर काटने को कहा है। जब बिन्दी यदि गरािब हो जागो या तिने ने मा सहयोग देंगे ऐसा प्रश्न को प्रभाग से काटा गया तब उसके बराबर दो टुकड़े हो गये। करते ही रुपये की संख्या की जरूरत पड़ जाती है। इसी प्रकार जब कानडी भाषा में ऊपरी भाग को [१] तया नीचे के भाग को [२] सुन्दरी देवी ने यह प्रश्न कर दिया कि पिताजी ब्राह्मी बहिन की हथेली। कहते हैं, जोकि थोड़े से अन्तर में आज भी प्रचलित हैं। में जो आपने लिखा वह कितना है ? तो तत्काल ही उन बरणों की संख्या ये दो टुकड़े नीचे के चित्र में दिये गये हैं। इसे देखने से पाप की आवश्यकता पड़ गई।
लोगों को स्वयं पना चल जायेगा। तब भगवान ने कहा कि बेटी ! तुम अपना हाथ निकालो, बाह्मी एक टुकड़े से दो-दो टुकड़े से तीन चार, छः, सात, पाठ और की हथेली में हमने जो लिखा सो बतलायेंगे ।
नौ और एक बिन्दी और टुकड़ा मिलाने से पांच अर्थात् चार को एक, अब यहां यह प्रश्न उठता है कि सुन्दरी देवी को कौन मा हाथ टुकड़ा मिला देने से पांच बन जाता है। इन सब प्रकों को. निकालने में तथा भगवान् श्रादि-नाथ को किस हाथ से लिखवाने में एकत्रित कर मिलाया जाय तो पहले के समान बिन्दी बन जाती है। सुविधा हुई?
इसका स्पष्टीकरण मागे पाने वाले २१वें अध्याय में अन्यकार इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार ब्राह्मी देवी के हाथ में स्वयं विस्तार पूर्वक कहेंगे । यदि उपयुक्त विधि के अनुसार अंकों की भगवान ने अपने सीधे हाथ से लिखा था उसी प्रकार सुन्दरी देवी के । गणना की जाय तो विदी के दो टुकड़े होने पर भी कानड़ी भाषा में
हाथ में लिखने की सुविधा नहीं थी। क्योंकि ब्राह्मी देवी भगवान् की 1 ऊपर का टुकड़ा एक और नीचे का टुकड़ा दो होने से तीन हो गये .... बायीं जंघा पर बैठी हुई थी और सुन्दरी देवी दाहिनी जंघा पर । अतः । अर्थात् १ + २ = ३ हो गये । इन तीनों को तीन से गुणा करने ........
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पर 8 [नी] हो गये इस नौ के ऊपर कोई श्रंक ही नहीं है। अर्थात् एक बिन्दी को एक दफे काटा जाय तो तीन बन गया दूसरी बार गुणा करने से नौ बन गया यही भगवान् जिनेन्द्र देव का व्यवहार औरनिश्चय नय कहलाता है । इस प्रकार यह संपूर्ण भूवलय ग्रन्थ व्यवहार और निश्चयनय से भरा हुआ है। नो के ऊपर कोई भी श्रंक नहीं है। तो नम्बर में ही चार और छः आ जाता है । ऊपर के कथनानुसार भगवान् ने ब्राह्मी देवी की हथेली पर जितना अक्षर लिखा था वह सब चार और छः अर्थात् चौंसठ ये सभी नो में ही समाविष्ट है। इसी चोट अक्षर को गति पद्धति के अनुसार गिनते जायें तो संपूर्ण द्वादशांग शास्त्र निकल आता है। इसका खुलासा आगे चल र नुसार करेंगे ।
आवश्यकता
श्री दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदेन्द्र मुनिराज श्राज से डेढ़ हजार वर्ष पहले हुये हैं जो महा मेघावी तथा द्वादशांग के पाठी, सूक्ष्मार्थ के वेदी और केवल ज्ञान स्वरूप तो शंक के संपूर्ण अंश को जानने वाले थे । इसलिये छः लाख इलोक परिमित कानी सांगत्य छन्द में श्राज कल सामने जो मौजूद हैं वह नौ अंकों में ही बन्धन करके रक्खा हुआ है । उन्ही नौ श्रों से सातसी आठरह भाषा मय निकलता है ।
ये किस तरह निकलती है सो आगे चलकर बतायेंगे । भगवान ऋषभदेव ने एक बिन्दो को काटकर अंक बनाने की विधि बताकर कहा कि सुन्दरी देवी ! तुम अपनी बड़ी बहिन ब्राह्मी के हाथ में ६४ वर्ण माला को देखकर यह चिन्ता मत करो कि इनके हाथ में अधिक और हमारे हाथ में अल्प है। क्योंकि ये ६४ वर्ण के अन्तर्गत ही है। इसके अन्तर्गत ही समस्त द्वादशांग वाणी है। यह बात सुनते ही सुन्दरी देवी तृप्त हो गई ।
इस प्रकार पिता-पुत्री के सरम विद्याओं के बाद-विवाद करने में संसार के ममस्त प्राणियों की भलाई करने रूप ज्ञान भण्डार का - संक्षिप्त समस्त इतिहास ध्यान से मन लगाकर गोम्मट देव ने सुना ।
सर्वार्थ सिद्धि संभ बैंगलौर-दिल्ली
इस प्रकार मन को मंथन करके सुनने के कारण ही गोम्मट देव का नाम मन्मथ [ कामदेव ] हुआ । पहिले गोम्मट देव को उनके पिता जी ने कामकला और सभी जीवों का हितकारी आयुर्वेद अर्थात् समस्त जीवों का रोग दूर करने वाला अहिसात्मक बंधक शास्त्र सिखलाया था। अब अक्षर और श्रंक दोनों विद्याओं के मालूम हो जाने पर परमानन्दित होते हुये भगवान् से पहले सीखी हुई विद्याओं की वर्षा का स्वरूप प्रकट हुआ । ६४ अक्षर का गुणाकार करने से वे ही व बारम्बार आते रहते हैं, इसलिए अपुनरुक्त कैसे हुआ ? ६ अंक के ऊपर पुनः १ अंक की उत्पत्ति है और १० की उत्पत्ति होती है। वह १० का ग्रंक पुनरुक्ति है । ऐसा सभी श्रंकों का हाल है । इसलिए पुनरुक्ति हुआ । जब भगवान् ने ब्राह्मी देवी को ६४ प्रक्षर और सुन्दरी को ६ घ क सिखाया तथा अपुनरुक्त रूप से सारी द्वादशांग वाणी निकलती है और प्रपुनरुक्त से निकलता है, ऐसा बताया। ६४ के ऊपर पैंसठवां अक्षर तथा 6 के ऊपर १० ये दोनों प्रक्षर श्रीर पुनरुक्त हो है। इसी प्रकार अगले प्रक और अक्षर दोनों क्रमशः यानी प्रथा, ११-१२ इत्यादि पुनरत होते जाते हैं।
भगवान् ने कहा कि ये
६४ अक्षर और अंक अपुनरुक्त है, यह कैसे हुआ ? इसके बोर में भगवान् ने उत्तर दिया। ऐसा कहने में भगवान् से जो उत्तर मिला वह अगले श्लोक में आयेगा ।
अव कामकला और आयुर्वेद इन दोनों विषयों की चर्चा चल रही हैं । किन्तु कामकला का जो विषय है वह यहाँ चलने के लायक नहीं है कि पिता और पुत्र पिता और पुत्रियों, भ्रातृ और भगिनी उसमें भी ब्रह्मचारिणी भगिनी उसके समक्ष कामकला का वर्णन सर्वथा अनुचित है कामकला तो पवित्र प्रेम वाले पति-पत्नी और अपवित्र प्रेम वाले वेश्या और कामुक पुरुषों में होता है, ऐसी शंका उठाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यहाँ रहने वाले दोनों पिता-पुत्र तद्भव मोक्ष भागी है। अर्थात् पुनर्जन्म नहीं लेने वाले हैं और दोनों स्त्रियों ग्रहा
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चारिणी हैं। ऐसे पवित्रात्माओं से ही यदि काम कला निकले तो वह लोकोपकारी हो और प्रायुर्वेद विद्या शारीरिक स्वास्थ्य दायिनी बने। इस आयुर्वेद और कामुक दोनों का परस्पर में अभिन्न संबंध है । और ये दोनों ही अनादि भगवदवाणी से निकली हुई हैं । अर्थान् पवित्र और अपवित्र ये दोनों कलायें भगवदवाणी से निकलती है. अन्यथा भगवदवासी अपूर्ण हो जाती है। कुमुदेन्दु श्राचार्य ने कहा है कि पवित्रता तथा पवित्रता पदार्थ में नहीं, बल्कि वीतराग अथवा सराग रहने वाले जीवों में है । इसलिए इसे ४ पवित्रात्माओं की चर्चा करनी चाहिये । इसके लिए एक कथा भी है, सो देखिये ।
भगवज्जिन सेनाचार्य श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य के सहाध्यायी थे। बे सकल जैन समाज में मान्य दिगम्बर जैन मुनि थे, यह इतिहास देखने : से ज्ञात होता है। कि जब जिनसेन पवित्रकुल में पैदा हुये तब उस घर में एक वे ही लड़के थे। उनकी उम्र ४ वर्ष की थी जिससे कि वे घर - में बालक्रीडा किया करते थे । एक दिन आचार्य कुमुदेन्दु के गुरु श्री नीरसेनाचार्य [घवल और जय धवल ग्रंथ के कर्ता ] श्राहार के लिये इसी घर में आ पहुंचे। आप आहार के पश्चात् तेजस्वी बालक को शुभ लक्षणों सहित समझकर उसके माता-पिता से कहने लगे कि इस बच्चे को संघ में सौंप दो वह होनहार बालक प्रपने माँ-बाप का इकलौता लाड़ला था, अतः उन लोगों की इच्छा न होने पर भी गुरु वचनमनुल्लंघनीयम् अर्थात् गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए इस नियम से तथा आचार्य वीरसेन की आज्ञा को चक्रवर्ती राजे महाराजे आदि सभी सहर्ष शिरोधार्य करते थे। अतः उनकी आज्ञा अप्रतिहत प्रवाहरूप चलती थी। इसलिये उन्हें सौंपना ही पड़ा । बालक कच्छेद, उपनयन तथा चूडाकर्म संस्कार से रहित था । यथा जात रूप [ दिगम्बर रूप था। उनका चूडा कर्म ही केशलुचन रूप प्रतिभासित होता था । इसी रूप में साधक ८ वर्ष के पश्चात् केशलुव करके यथाविधि दिगम्बर दीक्षा धारण की इसलिये वे प्रागर्म दिगम्बर मुनि कहलाते हैं। ऐसे दिगम्बर मुनियों का शुभ समागम प्राप्त होना
सर्वार्थ सिद्धि संच बेंगलोर - दिल्ल
प्राजकल परम दुर्लभ है ।
जिनसेन श्राचार्य के नाम से चार आचार्य हुये हैं । उनमें से हमारे कथानायक जिनसेनाचार्य पहले वाले कुमुदेन्दु प्राचार्य के सहपाठी थे । इसी प्रकार वीर सेनाचार्य भी प्राजकल मिलने वाले धवल तथा जयधवल टीका के कर्ता वीरसेन नहीं बल्कि इससे पहले के पश्चात्मक धवल टीका के जो कर्ता थे वे ही कुमुदेन्दु आचार्य के गुरु थे । घाजकल पद्यात्मक बबल टीका उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार कल्याण कारक ग्रंथकर्ता उग्रादित्याचार्य भी राष्ट्रकूट प्रमोध वर्ष नृप के समय वाला नहीं है। क्योंकि कल्याण कारक में जितने भी श्लोक हैं वे सभी भूवलय में आते हैं, इसलिये उस काल के उम्रादित्याचार्य नहीं हैं । उग्रादित्याचार्य श्री कुमुवेन्दु भाचार्य के समय में थे, ऐसा कतिपय विद्वानों का मत हैं यद्यपि यहाँ इस समय इस विषय की आवश्यकता नहीं थी, तथापि इसका कुछ घोड़ा विवेचन यहाँ किया गया है।
पहले गोम्मट देव अर्थात् बाहुबली काम कला तथा आयुर्वेद पढ़ते थे वैसे ही इस काल में भी आचार्य कुमुदेन्दु के शिष्य शिवकुमार, उनकी पत्नी जक्की लक्को प्रब्वे तथा कुमुदेन्दु वीरसेन, और उग्रादित्याचार्य आदि मेधावी आचार्य उस समय मौजूद थे । इसलिये वन्य है वह काल । ऐसे दिगम्बर मुनि साक्षात् भगवान् का रूप धारण करके संपूर्ण भारत में जैन धर्म का डंका चारों मोर बजाया करते थे । वह महोन्नति काल जैन धर्म के लिये या । कर्णाटक के एक राजा ने सारे भरत खंड को जीत कर उसे अपने अधीन कर हिमवान् पर्वत के ऊपर अपने झंडे को फहराया था । इतिहास में कमटक देश का राजा पहले शिवमार ही था । जिनसेनाचार्य :
जिनसेन दिगम्बर जैनाचार्य होकर राजस्थान में भी बिहार करके वहां उपदेश दिया करते थे । वीतरागी जिनमुद्राधारी भगवान स्वरूप जिनसेनाचार्य कहलाते थे। ऐसे जिनसेनाचार्य अपने एक काव्य में
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिस्ती अत्यन्त सुन्दर स्त्रियों के प्रत्येक अंगोपांगादिक के मर्माग का सुन्दर रूप से वर्णन । के समय में उनके पिता भगवान वृषभदेव और उनकी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी करके भंगाररस का प्रत्युत्तम विवेचन किया था। उस काल के कई विद्वान् बड़े दोनों ब्रह्मचारिणी चारों जन मिलकर काम कला की चर्चा करने से इस भूवलय सुन्दर बंग से स्त्रियों का वर्णन करने वाले परस्पर में कहने लगे कि ये मुनि
में काम कला के बारे में जो विवेचन पाने वाला है वह अत्यन्त सुन्दर और काम विकारी अवश्य होंगे। ऐसो जनता के मन में शंकास्पद चर्चा उत्पन्न हई
गृहस्थों के लिए अनुकरणीय है। और यह बात सर्वत्र फेल गई। यहीं तक नहीं बल्कि यह बात धीरे २ जिनसेन
गृहस्थों की भोगादि क्रियायों में वीर्य वृद्धि के लिए स्खलन होने से प्राचार्य के कानों में भी जा पहुंची। तब जिनसेन प्राचार्य पाश्चर्य चकित होकर
शरीर दुर्बल होता है। वे पुनः तत्कालीन वीर्य की वृद्धि के लिए प्रादुर्वेद कहने लगे। केवल एक हो टिपर यदि यह दोष या जाता तो कोई
तथा प्रौषधादि सेवन से सुखी होंगे। अपने समान अर्थात् बाहुबलि के समान दोष नहीं था । परन्तु संपूर्ण दिगम्बर मुद्रा पर यह दोष लगाना है, यह ठीक नहीं
शरीर बना लेने की ही अाशा गोम्मटदेव की थी। है। क्योंकि यह धर्म को कलंकित करने वाला है। इस तरह जिनसेन प्राचार्य
श्री भूवलय में प्राने वाली काम कला और आयुर्वेद ये दोनों अनादि मन में सोचकर राजस्थान में चले आये और उस राजा को पाशा दी कि कल
काल से भगवान को वाणी के द्वारा चले आये हैं और अनन्त काल तक चलते एक सभा बुला कर सभी युवक और युवतियों को लाकर बिठा देना और उनके
रहेंगे। इसलिए ये तीनों काल में अहिंसात्मक ही रहेंगे। क्योंकि जिनेन्द्र देव नीचे छोटी २ चटाई विद्या देना । इस प्रकार पाजा पाते ही राजा ने तुरन्त ही सभी तैयार करवा दिया। तब पाचार्य जिनसेन ने खड़े होकर कहा कि हम धर्म
ने सभी जीवों पर समान दयालु होने के कारण एक चींटी से लेकर सम्पूर्ण अर्थ तथा काम इन तीनों पुरुषाथों पर व्याख्यान देंगे। इस तरह पहले अपने
प्राणी मात्र पर अर्थात् मनुष्य पर जिस जिस समय में रोगादिक बाधा हो जाती व्याख्यान की भूमिका समझा दी। तत्पश्चात् धर्म और प्रर्य को गौण करके है उस समय उन सब रोगों को नाश करने वाला पुष्पायुर्वेद को बतलाया है। काम पुरुषार्य का विवेचन करेंगे । ऐसा कहकर काम पुरुषार्थ के श्रृंगार रस
उसके श्री भूवलय के चौथे खण्ड में एक लाख कानड़ी श्लोक हैं। इन्हीं श्लोकों का वर्णन इस तरह किया कि उस सभा में बैठे हुए सभी युवक और युवतियां
को संशोधक महोदय ने उसमें से निकाल कर अपने पास रक्खा है। इस श्लोक अपने पाप को भूनकर मुह खोलकर सुनने में दत्तचित्त हो मये और कार्याध को संशोधक महोदय ने सरकार को अर्पण कर दिया है। भारत की सरकार ने होकर परक्शता के कारण स्वयं हो चटाई पर बीर्यपात कर चुके।
इस ग्रन्थ को अनुवाद करने के लिए सर्वार्थसिद्धि संघ, विश्वेश्वरपुर सकल बंगइस तरह जिनसेन प्राचार्य का उपदेश समाप्त होते ही बैठे हुए युगक
सौर को सौंप दिया है। यह ग्रन्थ अब जल्दी ही क्रम से उद्धृत होकर जनता के और युवतियों के उठने पर घटाई पर गिरे हुए युवकों के बीर्य तथा स्त्रियों के हाथ में आयेगा। अब उस काम कला और आयुर्वेद के साथ शब्द शास्त्र भगरज को देखकर राजा और सब प्रजा परिवार सहित विस्मित होकर कहा कि बद्गीता (पांच भाषायों में) और भगवान वृषभदेव के द्वारा कही हुई पुरु गीता, देखो जिनसेन प्राचार्य के इन्द्रियों पर विकार है या नहीं? किन्तु जिनसेन
श्री नेमिनाथ भगवान के द्वारा अपने भाई श्री कृष्ण को कही हुई नेमि गीता, भाचार्य के लिय में किसी प्रकार का भी विकार नहीं दीख पड़ा। तब राजा ने द्वारका के कृष्णा के कुरक्षेत्र में कही हुई भगवद्गीता, और भगवान महावीर के उन्हें सच्चा महात्मा कह कर प्राचार्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि पाप ही एक द्वारा गौतम गणधर को कही हुई, गौतम गणघर के द्वारा एिक राजा को कहीं सच्चे महात्मा है। राजा व सारे मा परिवारले इस प्रकार अनेक स्तुति को निकृष्ट हुई और वेरिणक राजा के द्वारा अपनी रानी चेलना देवी को कहो हई भगवान कराल पंचम काल में भी ऐसे महात्मा ने इस भरत खण्ड में जन्म लिया था तब महावीर गीता को कहा है। जक्की लक्की पब्बे और उसका पति राजा सईखूषम तीर्थंकर के समय में गोम्मट देव अर्थात् बाहुबलि प्रादि बज वृषभ नाराच गोट्टा शिवमार प्रथम अमोघवर्ष इन दोनों दम्पतियों को उपदेश की हुई कुमुसंहनन वाले काम कला के विषय की चर्चा को करते हुए भी इस विषय में अरुचि देन्दु गोता, और उसी अक्षर से दश तक की निकलने वाले ऋग्वेद इत्यादि भने कासे को या काम दिकार कुछ कर सकता है ? अर्थात् नहीं। इस चर्चा — हजारों ग्रन्थ हुए है । परन्तु कोई उन्हें अभी तक देख मी नहीं पास है।
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सर्वार्थ सिदिसंग बैंगलोर मिली प्रतिलोमांक भागहार - १८१६६३६५६२३२७६२५६५३६१८७३४१२६७०४५८४५२८०७३६८४७६३५४६३६३१५२६८४८६६२६६४३२००००००००००००० ४-१६०६१.१६४२३३२६४४१७५३४२८६१३०४८४२५६६६६६३०६३४२८१६४६६१४७४२३१२९६
२७५२७८४७२२६६८३४५०६११०४२६२८७१३४५८७८६५०१०२७६६१८८४६६१८१२१६६४० ६–२४१४८७EYLE६६६२६३०१४२६६४७२६३८५४६६४६६४५६५११२२४७०४६२११३४६६४४
३६७८०४८३७६७-६८२४३०४६२८२३३५६०५४६०८६३६५४५०७६५३६४१४४६७७-६६६६६ ६-३६२२३१४८२७४८४४६३१४५२१४३७१ ३५८६५७६२४६२४६१८६२६६८३७०५७३८१७०२०४१६
५६७२८४५२३०२३३०३६४४१३८५४२०१७६१२६३४४०६३१८४८७१०४३६२५६६१६७६५५३४ १-४०२४७EES०३१६१०४३८३५७१५३२६२१०६४२४६६१६५७६५८५२०४११७४८६८५५७५२४
१५४८०५४४२१६१६६२२४१७१५५०६२०६४१४६६८७२५८३६८०८५७४८२३७७१०८ ४-५६०६६१९६२३३२६४४१७५३४२८६१३०४८४२५६६६६६६६३०६३४८E१६४६६१४७४२३१२४६ ०-३८१३५४६८५६६४८५३०४२८५२७४५०६६३६३६४१७६६७७६५१७५८१६१४८८८८१४५८१२६ ---३६२२३१६८२७४८४४६३६४५२१४३७६३५८६५७८२४६२४६१८६२६६८३७०५७३८१७०२०४१६
१६१२३००३१५६४३३६४६३३१३०७१६०४६८१५८३८७२८६२४६.१३२४४२२६६६७५६०८७६ । ४-१६०६६.१६६२३३२६४४१७५३४२८६१३०४५४२५६६६६६६६३०६३४०८१६४६६६४७४२३१२६.६
३०२३८०३१.२३१६६२३१७६७०२१-२६४८३६०२३०७६६१६४२७९१६२५८०००२८१८५५५३६ ७-२८१७३५४८६५८२१२७३०६८५०८७२८३४७४४६७४६४१६०३६०४६४२८२२४०७६०४७६८
२०६४४४०५७३४७५८७२८५२०६५७१४६१५७३३२६६६७१४६६२७८४८७४८०६३३८६७५६६ ५-२०१२३८४१५८०५२१६१७८५७६६३१०५३२१२६५८२८५२६२६०२८५-७४३४२७८६१२०
determindarmeatbdoktenaduateishshaan" ५२०४०६६४३२१५३५८१३४२८०५१८१०४१२०१७०८८६१३३५२४६६८४३४६६५८८६८६६४
प्रशुद्ध नवम शंक . १-४०२४४६१८०८३१६१०५३५३५७१५३२६२१०६४२४६६१६५७६५८५२०४११७४८६८५५०५२४
चौवन अवर सम्मिलित ११७६२६७१२३८३७४०४०५८८०८६८५४८३-५५६२०६६१५५६६३१४६४८१७५०१०३१८८४०३
तब्धांक:२-८०४६५६६६२६६३२२०८७६७१४३०६५२४२१२८४६६३३१५३१७०४०८२३४६७३७११५६४८
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मंगांक:६-३६२२३११८२७४८४४६३६४५२१४३७४३५८६५८२४४२४६१८४२६६८३७०५७३८१७०२०४१६
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शेषांक:३-१२०७ ९४२ ०००००००
०००००००००००००००००००००००००० ००००००००००
suhaadatdhadsbebhajiraokrianbir-bn
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सिरि भवजय
सवार्थ सिवि संघ क्लोर-दिली (मंगल प्राभूत का दूसरा अध्याय, पद्य एक से बाईस तक) . ..१-४०२४.८०८३१६१०४३८३५७१५३२६२१०६४२४६६१६५७६५८५२०४११७४८६८४५७६२४०००००००००००
-२-८०४८१६६३२२०३७६७१४३०६५२४२१२८४६६८३३१५३१७०४०८२३४६७३७११५६४८ ३-१२०७४३६४:४६४८३१३१५०७१४५६७८६३१६२७४६७४७५५६१२३५२४६०४६७३४७२ ४-१६०६६ १६६२३३२६४४१७४३४२८६१३०४८४२५६६६६६६६३०६३४०८१६४६६६४७४२३१२६६ ५. २०१२३६४६०४१५८०५२१६१७८५७६६३१०५३२१२४६५८२८८२६२६०२०५५७४३४२७८४१२० ६-२४१४८७XECE६६२१३०१४२६१६.५७२६३८५४६६४६६४५६५११२२४७०४६२११३४६४४४ ७-२८१७३५४८६५८२१२७३०६८५०८८७२८३४७४४६७४६४१६०३६०६६४२८२२४-७६E0४७६८ ६-३२१९८३६८४६६५२८८३५०६८५७२२६०६९८५१३६६E.३३२६१२६०१६३२६.३६८६४८४६२५६२
t-३६२२३१६८२७४८४४६३६४५२१४३७६.३५८६५७८२१६२४६१८६२६६८३७०५७३८१७०२८४१६ - अर्थ-प्रथम अध्याय में 'हक' पाइड का विषय पाया है। पहले अध्याय
अब ५४ अक्षर को घुमाने से इसके अन्दर वह महत्त्व निकलता है। के पांचवें लोक में भी हरु पार का विषय प्राथा है। भूवलप प्रतर भग विषय को ७ वें श्लोक में स्वयं कुमुदेन्दु प्राचार्य कहेंगे ॥६॥ कर गणित के नियमानुसार यदि कर लिया तो "ह" का अर्थ ६० और "क" ऊपर कहे हुए संपूर्ण नव पदों का अर्थात्- . का अर्थ २८ इन दोनों के परस्पर में मिलाने से ८८ होता है। ६० में जो
१ सिरिसिद्ध, २ अरहन्त, ३ प्राचार्य, ४ पाठक ५ वर सर्व बिंदो थी उस बिंदी का लोप हो गया अन यह नहीं दीखती । जो ८८ अंक
साधु ६ सद्धर्म, ७ परमागम, ८ चैत्यालय, . और बिम्ब उत्पन्न हुआ है उसको यदि पाड़ी रीति से जोड़ दिया जाय तो +८=१६
ओंवत्त ॥ होता है। १+६७ हुआ इस गणना के अनुसार भगवान महावीर ने सात
इन नौ पदों में सात अंक से भाग देने से बिंदियां पाती हैं। इसके भंग के नियमों के अनुसार अनादि कालीन संपूर्ण द्वादशांग को इस गुणाकार
का यही एक महत्व है। आज कल प्रचलन में पाने वाले पाश्चात्य गणित की विधि से निकाल कर भव्य जीवों को उपदेश दिया था।
शास्त्र में नौ अर्थात् विषमांक को सम प्रकों से भाग देने पर बिंदी नहीं पाती श्री भगवान पार्श्वनाथ तक आये हुए समस्त द्वादशांगों का विवेचन उदाहरणार्थ नौ अंक को दो अंक से भाग देने पर ४ (चार) दफे नौ चौ भगवान पार्श्वनाथ ने टक भंग में लिया या। १-१-१-३६ + वह टक भंग आकर शेष नौ बच जाता है । पर इस तरह बचना नहीं चाहिए । यह पाश्चात्य भी अनादि द्वादवाांग में ही मिल गया है और पाये भी मिलता हो जाएगा। गणित शास्त्र की अपूर्णता समझना चाहिए। यह भूवलय भगवान महावीर भगवान महावीर ने श्री पाश्वनाथ भगवान के टक भंग से लेकर हक भंग से को बागी होने के कारण और संपूर्ण प्रश को जानने वाला होने के कारण उपदेश किया। केवल ज्ञान की ऐसी महिमा है कि अने केवल ज्ञान से सम्पूर्ण ऊपर कहे हुए नो अंक दो से विभक्त होकर बिंदी पा जाना और ७-६-५-४ वस्तुओं को एक साथ जानने को शक्ति केला म होती है, अतः जैसे है वैसा इत्यादि पूर्ण अंकों से विभक्त होकर शून्य शेष रहने वाली विधि को बतलाने ही यथार्थ पदार्य द्वादशांग वाणा में कहा गया है।
वाले को सर्वज्ञ कहते हैं। ऐसे नौ अंक किसी ग्रंक से विमत नहीं हा वा .. +११३१६ ऐगा कहने से प्रथम संड मंगल प्राभूत समझना चाहिए। दूसरा जो यह है कि इसे निशान श्लोक संख्या समझना चाहिए । भागे इसी तरह क्रम समझना चाहिए।
क-क्यनकक्कानम-वाचकानरम-गकामकाज
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सरि भूषवप
सर्वार्थ सिदि संपलं गलोर-बिल्ली शेष रह जाय तो वह सर्वज्ञ वाणी पोसे होगी? इस जटिल प्रश्न का, इस । इतने बड़े अंश अर्थात् चौरासी स्थान पर बैठे हुये सब के सब महान् अंक मुख्य प्रश्न का अगर हल हो जाता है तो जैन धर्म सार्व धर्म हो सकता है।। नौ के अन्दर गर्भित हो गये हैं यह कितने आश्चर्य की बात है? परन्तु जैन धर्म सार्व धर्म होते हुए भी वह ताले में या विस्तर में बंद होकर
यह बात पाश्चर्य की नहीं है बल्कि इसे- भगवान के केवल ज्ञान की गुप्त रूप में ही रह गया। उसका दर्शन अन्य लोग या जैन विद्वानों की महिमा समझना चाहिए। पांसों के सामने मा नहीं पाया। यह दोष केवल जैन विद्वानों पर ही नहीं पर टो केवल जंत विद्वानों पर टीनरी
५४ अंक को संयोग भंग से प्रतिलोम के कम से ५४ बार गुणा है विज्ञानादि साधनादि वस्तुओं के संग्रहालय करोड़ों रुपये व्यय करके अपने करते माने से यह यक निकल पाता है। इसकी विधि इस तरह है कि--.' हाथ में रहने वाले पाश्चात्य विद्वानों के हाथ से भी नहीं हुपा परन्तु धी भवलय
६४४६३ = ४०३२ इसमें दुनियां की सम्पूर्ण भाषामों के दो प्रकार अन्य का अध्ययन परम्परा जैन विद्वानों के द्वारा चली आती तो जैन धर्म
का सम्पूर्ण शब्द निकल आते हैं। एक बार याया हुमा शब्द पुनरुक्त नहीं
याता है। का भी उद्धार होता जाता और सारे संसार का भी उद्धार हो जाता।
उदाहरणार्थइस श्लोक के द्वारा यह निष्कर्ष निकला कि नौ अंक सात से विभतर
१ को अ और ६४ का : फ : ५ दोनों मिलकर (म फ) होता है यह होकर शून्य पा जाता है। ये कैसे ? जैसे प्राचार्य कुमुदेन्दु स्वयमेव प्रश्न
भाषा इंगलिश है। सभी लोग ऐसा कहते हैं कि इंगलिश भाषा ईसा मसीह के उठाकर उसका समाधान करते हैं कि यह शंका परमानन्द वाली है, ऐसा बताते
समय से प्रचलित हुई है इसके पहले ग्रीक भाषा थी इङ्गलिश नहीं थी। हैं। इस उत्तर का समाधान करते हुए आचार्य ने ऊपर दी हुई गरिगत विधि
परन्तु भूवलय ग्रन्थ से साबित होता है कि इङ्गलिश भाषा पहले भी मौजूद को बतलाया ॥७॥
थी। भगवान महावीर की वाणी के अन्दर भी यह भाषा मौजूद थी। पाश्र्व-नौ अंक को अपने नीचे रहने वाले ८ पाठ ७ सात ६ छः ५ पांच
नाथ भगवान को वाणी में भी मौजूद थी। इसी तरह केवल भगवान वृषभचार ३ तौन २ दो इन संख्यामों में विभाग होने की विधि को प्राचार्य ने
देव तक ही नहीं परन्तु उससे मी पहिले से अनादि काल से यह भाषा मौकूद थी करण सूत्र में ऐसे कहा है और एक संख्या से सब संख्या का विभाग होता
अगर यह बात भूवलय सिद्धान्त अन्य से उनको मालूम हो जाय कि यह इङ्गलिया
भाषा अनादि काल से मौजूद है तो लोगों को कितना आनन्द होगा। इसी तरह नौ और चार मिन कर ०००००००००००००ये तेरह बिदी अन्त में
कानड़ी, गुजराती, तेलगु, तामिल इत्यादि नयी उत्पन्न हुई हैं ऐसा कहने वालों को रखना चाहिए और पहले बिंदी से बांये माग से २, ३, ४, ६ यहां तक पाठ
भो इस विषय को जानना चाहिए। श्लोकों का प्रथं पूर्ण हुआ।
अब देखिये इसी गणित पद्धति के अनुसार कहीं इङ्गलिश भाषा का गौतम वापर से जब किसी जिज्ञासुने प्रश्न किया कि भगवान के करण । शब्द निकाल कर देते हैं वह इस प्रकार है कि:सूत्र की विधि क्या है? ऐसा प्रश्न करने से गौतम गरगधर ने उत्तर में कहा
(of) 4032 कि करण सूत्र अनेक हैं उनमें से एक यह करण सूत्र है । इस सूत्र से जो प्रक
फिराने से fo 64 and 1
4030 निकले हुए है उन सभी अक्षरों को द्वादशांग वाणी ही समझना चाहिए । कुल प्रक
(off) 2nd 642
" foo , 2 चौरासी स्थान में ही बैठा है सबका जोड़ लगाने से तीन सौ उनत्तर (३६६) मंक होते हैं। प्रकों को पुनः जोड़ने से १८, प्रठारह को पुन: जोड़ने से (if)4,64
4026 होते हैं जैसे ३+६+६=१८ अब अठारह आ गये, इस १८ को १-८-९
4028
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लकम
२१३
सिरि भूषजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-चिल्लो पर कहे हुए अनुसार गुणन फल से ४०३२ निकला उस में १ और।
५५, २८,५२, ६४ मिला दिया तो इंगलिश का (fo) पाया अब इसमें से २ दो घटाइये तो
कलम २८,५५,५२, ४०३० बाकी बचा और बचा हुआ ४०३० ये उलट कर ६४ और १ मिला
मकल ५२,२८,५५, दिया जाय तो (fo इस fo को first, for furlang.
लमक ५५, ५२,२८ इस तरह इङ्गलिश वाक्य रचना करने की मिसाल मिल जाती है। अब अनेकान्त दृष्टि तथा प्रानुपूर्वी क्रम से देखा जाय तो २८ की १ अब बचा हुआ ४०३० से और दो घटाने से ४०२८ वास होता है। इसमें बाधन को २, और ५५ को तीन माना जाय तो से दो दीर्घ 'या' और ६४ को मिलाने से off :: इन चार बिन्दुओं का
१२३ खुलासा ऊपर के मुखपत्र चार्ट पर देखो। अब इसको उलटा करने से ::'
२३१ 'या' ffo होता है इससे :: फादर father fast इस तरह वाक्य रचना
३१२ करने के लिए शब्द निकल पाते हैं । अब बचा हुआ ४०२८ में और दो निकाल देने से बचा हुआ २६ छब्बीस बच गया है। इसी तरह इसको भी इसी रीति से करते जाये तो अन्त में चार बिंदी आ जाते हैं। इसलिए इस भूवलय का गणित प्रामाणिक है ऐसा सिद्ध होता है । आगे इसी तरह करते जायें तो तीन ! ३२१ इस रीति से अन्त तक करते जायें तो छः ०००००० बिंदी अक्षर का शब्द निकल पाता है। कैसे निकल पाता हैं ? उस विधि को प्रायंगी इसलिए भगवान की दिव्य ध्वनि को भूवलय गणित के प्रमाण में अनेकांत बतलाते हैं
से यह सत्य है एकांत से नहीं हैं । भगवान की दिव्य ध्वनि के द्वारा बारह मंग " ४०३२ को x ६२ से मुणा किया जाय ।
शास्त्र का प्रभाव हो गया इस समय वह शास्त्र मौजूद नहीं है। ऐसे कहने ८०६४
वाले दिगम्बर जैन विद्वानों की यह असमझ है। श्वेताम्बर आदि समस्त जैन २४१६२
जनेतर सभी विद्वान् अपने पास बचा हुआ थोड़ा बहुत अंकात्मक श्लोक को २४६६८४ भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि निकल पायी ।।ही भगवद् वाणी मानते हैं। तो भी भूवलय ग्रंथ में कहा हा गणित तीन लोक और तीन काल में रहने वाले तथा होने वाले पद्धति के अनुसार एक भी श्लोक नहीं निकलता है। इसलिए वे सब जो श्लोक समस्त भाषानों की पौर समस्त विषयों की तीन अक्षर के शब्द निकल!
हर के शब्द निकल ! से परिमित संख्या वाले हैं वे एक भाषात्मक कहलाते हैं। इसलिए वे परिमित पाते हैं। इन तीन अक्षरों की वाणी ही द्वादशांग वाणी है ऐसे कहते हैं।।
श्लोक भगवान की दिव्य ध्वनि नहीं कहलाते हैं। भगवान की तीन अक्षरों की वाणी को छोड़कर अन्य प्रचलित किसी वेद में भी दिगम्बर विद्वान लोग कहते हैं कि हमारे पास इस समय अंग ज्ञान देखने में नहीं आता है, इसलिए यह भूबलय ग्रंथ प्रमाण है। उसका क्रम इस की व्युच्छुत्ति हुई है । उनका कहना भी सच है । क्योंकि सम्पूर्ण तरह से है कि
विषय और सम्पूर्ण भाषाओं को बतलाने वाले कोई भी साधन रूप 'कमल, ऐसा एक शब्द लीजिये
बतलाने वाले की भूवलय ग्रन्थ की क से पढ़ने की परिपाटी तेरह सौ वर्षों कमल २८.५२,५५,
I से अर्थात् श्री प्राचार्य कुमुर्देदु के समय से आज तक अध्ययन अध्यापन की मलक ५२.५५.२८,
परिपाटी बंद होने के कारण अंगादि विच्छेद मानने लगे थे। अब यह भूवलय
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सिरि भूवलय
साप सिख पोत दिल्ली प्रन्थ से निकलकर ऊपर लिखा हुमा मरिणत पद्धति के क्रम से महान् मेघा । बहत्तर शब्द निकल पायेंगे । ७३ शब्द नहीं हो सकते हैं कोई ७३ निकाल कर वाही नहीं कि सामान्य पढ़े लिखे हुए मामूली आदमी भी आसानी से भूवलय , रले तो वह पुनरुक्त हो जाता है इसलिए भगवान महावीर की वारणी जितनी प्रय जैसी हादशांग वाणि को आसानी से निकाल कर दे सकता है। अब चार। छोटी हो उसमें पुनरुक्त दोष नहीं पाता है। पर कहे जैसा अगले पाने वाले बझार भंग आप लोगों को प्रासानी से निकालने वाली विधि निम्न प्रकार उत्सर्पिणी काल में जितने तीर्थकर होंगे उनकी सब दिव्य ध्वनि में निकलकर बतायेगे इससे आप लोगों को समझ में आयेगा।
प्राने वाले अक्षर का भंग इस भूचलय में अभी भी मिल जायगा, यही अनेकान्त ४ अक्षर के भंग
| सत्य है। ग्राम लक
इसी विधि से आगे बढ़ते हुए छः अक्षर "कमल" इस पाब्द को अपुन१) १२३४ था म ल
क २ ) २३४१ म ल क पा रुक्त रूप से घुमाते जाएं तो १२० दाब्द निकलकर पाएगा ऊपर कहे जैसा ही ३) ३४१२ ल क मा म
। इसको भी मान लेना । इसी विधि से आगे बढ़ते हुए सात अक्षर "कमल दल ५) २३२५ क ल म पा
रज" इस शब्द को अपुनरुक्त रूप से घुमाते पाए तो ७२० शब्द निकलकर ३२१४ क ल म प्रा.
31 कपल घुमात प्राए ता ७२०
पाएगा उसमें पहिले व अन्त के दोनों शब्द पुनरुक्त रीति से पा जाते १३४२ वा ल क म! म पालक
। है इसलिए वह निकाल देने से ७१८ माषा रह जाती है, वह इस प्रकार है:१) ३४२१ ल क म आ १०) २१४३ मा क ल ११) १४३२ ा क ल म १२) २१३४ मा ल क वह क्रम इस प्रकार है१३) ३२४१ ल म क पा
४२३१ के मल या १२४२४३४४४५४६ = ७२०-२७१८ और ८ अक्षर १५) २३१४ मल पा
क १६) १३०४ मा ल म काकी शब्दराशि को निकालकर आपके सामने रखना हमारी बुद्धि के बाहर है १०) ४३ ० २ क ल ा म १८) ३ १४ २ ल पाक म ऐसा रहने में इसके ऊपर का ६-१०-११-१२ इसी रीति से बढ़ते हुए अक्षरों १६) २४३१ ला कम २०) ०२४३ मा म क ल के स्वरूप को मिलाते हए शब्द राशि बनाते जाना इस काल में बहुत कठिन २१) २४३ ० म क ल ा २२) २०२४ ल मा म क है इसी विधि से ऊपर कहे हुए ५४ अक्षरों का एक शब्द निकालना हो तो २३) ४०२३ क पा मल २४) ०४२ ३ ा क म ल। इस अध्याय में पाये हुए ८४ स्थान हैं जो ८४ स्थान में प्रायी हुई प्रक
इस चार प्रक्षर के समस्त अंक की राशि में सम्पूर्ण विश्व के अंक ! राशि ५४ अक्षरों का समूह है उस राशि से अपुनरुक्त रूप से ५४-५४-५४-५४ राशि आगये है कोई बाहर बाकी नहीं रह जाता है।
ऐसा अक्षर निकालते पाएं तो ८४ अन्य आजायगा ०००००००००००००००आगे के उत्सपिरिण काल में तीर्थकर रूप में होने वाले समंतभद्रादि
०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० महान मेधावी बड़े बड़े प्राचार्यों ने भी अपने प्रत्य में या भविष्य में होने वाले 100०००००००००००००००००००००० जब गिनती में शून्य पा गया तो
अमर तीबर इस चार प्रक्षर | प्राचार्य जी का कहना सत्य है ऐसा मानना ही पड़ेगा। ऊपर लिखा हुमा क्रम रूपी मूवलय में अब ही मिल जाता है। इसी तरह
अर्थात् ८४ स्थान प्रतिलोम कम है । "कमल दल" ये पांच अक्षर हैं
६४४६३४६२४६१ इस रीति से ११ अंक तक प्रागए तो ५४ कपर के अनुसार पांच अक्षरों को अपनुदक रूप से फिराते मायें सो बार हो जाता है।
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सिरि मुचतय
सर्वार्थ सिद्धि मंत्र बेंगलोर - दिल्ली
अनुलोम क्रन्म जैसे ऊपर १२३४४४५४६ ऐसे क्रम ५४ तक | नामक माला रूप में इसकी रचना हुई है। अब आगे आने वाले अनुलोम क्रम लिखा जाए तो शब्द राशि की उत्पत्ति प्राती है जितने बार की प्रतिलोम की से आने वाले द्रव्यगम है ऐसे जानना चाहिए। संख्या है उतने बार की अनुलोम क्रम संख्या के भाग देने से उतना ही शून्य आजावेगा अब प्रतिलोम क्रम ११ और अनुलोम क्रम पद तक हम आए हैं। अब प्रतिलोम क्रम ६४ से लेकर १ तक आएं अनुलोम क्रम १ से लेकर ६४ तक रहे तो २ अंक हो जाता है वह फिर बताया जावेगा ।
अनुलोम क्रम ७२ अंक का आता है ८४ प्रतिलोम ८४ अंक को अनुलोम ६१ अंक से भाग करने से पूरणा आने के लिए जो कोष्ठक बतलाया गया है उस रीति से कर लेना । अर्थात् अनुलोम ७१ अंक को २ से गुणा करे तो जो अक आता है उसको भागना इसी सत्र से ३-४-५-६-७-८-8 तक कर लेना तब भाग देते थाना जब भाग देते भावें तो ऊपर से नीचे जिस संख्या से भाग होता है उस संख्या को आड़ा पद्धति से लिख लें जो अंक आता है उसको लब्धांक कहते हैं । उसको आधा करें तो सारी शब्द राशि हो जातो हैं। अवधि ज्ञान सम्पन्न महा मुनि और देव देवियां और कुमति ज्ञान वाले नारको जीव के लिए इतना ज्ञान है। आजल्ल सीमंधर भगवान् के समोशरण में रहने वाले ऋद्धि धारक मुनि ही इस ग्रंक से निकलने वाला अर्थात् ६४ अक्षर का एक शब्द ६३ अक्षर की एक शब्द ६२ प्रक्षर का एक शब्द जान सकते हैं । हम लोगों के ज्ञान-गम्य नहीं हैं। परन्तु श्वाचार्य कुमुदेन्दु ने इस समस्त विधि को गणित पद्धति से जान लिया था। इसलिए उनका परम पूज्य उस मूल - धवल सिद्धान्त का रचयिता श्राचार्य वीरसेन अपना शिष्य होते हुए भी इतना महान भूवलय जैसे ग्रंथ रचना से उनकी महान मेघा शक्ति को देख करके अपने शिष्य को ही अपना गुरु मानकर शिष्य बन गया। सो ऐसा महान प्रसंग दिगम्बर जैन साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन आचार्य जी को सल्लेखना लेने के समय मैं अपने शिष्य को अपना गुरु बना करके शरीर त्याग करने की परिपाटी मिलती है और चालू भी है परन्तु जीवित काल में ही शिष्य बनकर रहना महान गौरव की बात है।
ऊपर कहे हुए के अनुसार प्रतिलोम गुणा कर ५४ अक्षर की सरमाला
भावार्थ —
इसकी व्याख्या विस्तार के साथ ऊपर की गई है। इसलिए पुनरुक यहाँ नहीं किया गया है ।
४७६६८०७३१६१०४३७३५७१५३२६२१०६४१४६६१६५०६५७
५२०४११७४८६८४५७८२४०००००००००००० इस अंक के पूर्ण वैभव का अवयव अनुलोम पद्धति अनुसार है।
इस अंक में ७१ प्रक हैं इस अंक को आड़ा करके मिला दें तो २६१ होता है। इसको पुनः जोड़ दिया जाय तो हो जाता है ।
अर्थ - इस प्रकार नौ अंक में अन्तर्भाव हुआ इस अनुलोम क्रम के अनुसार ऊपर कहा हुआ प्रतिलोम के भाग देने से जो लब्धांक आता है वही भवभय को हरण वाले अंक है । ऊपर कहे हुए कोष्ठक में रहने वाले प्रत्येक लव्यांक को लेकर आड़ा करके रख दिया जाय तो ४६६१४६४७५१२६३०००००००००००० यही ५४ अक्षर का भागाहार लब्धांक यही अंक घाड़ा रखकर मिला देने से ६४ होता है। इस ६४ को मिला देने से से १० होता है। दस में भी १ एक ही है श्रर्थात् नम्बर १ अक्षर है और जो बचा हुआ बिंदी है। यही एक भंग से निकलकर आया हुआ भगवान के नीचे रहने वाले बिंदी रूप कमल है ।
भावार्थ-
गणित की दृष्टि से देखा जाय तो ऊपर के कहे हुए प्रतिलोम रूप छोटी राशि " नो" । इस नौ से भाग देने से अर्थात् नो को नो से भाग देने से बिंदी आना था। परन्तु अब यहां दस मिल गया यह आश्चर्य की बात है । गणित के संशोधन करने वाले गरिणतज्ञ विद्वानों के लिए महान निधि है इसी क को प्राथा करके कुमुदेंदु आचार्य भंगांक को निकालने की विधि को बतलाने वाले तीन श्लोकों में 'पांच' मिल जाता है । वह और भी आश्चर्य कारक है । 8 से ९ को भाग देने से शून्य थाना था। लेकिन ऊपर दस आया है नीचे पांच
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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
आया है, बस व्याख्यान से इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि ६ को पांच से । कुमुदेन्दु आचार्य ऐसे गृहस्थ श्रावक के बारे में कहते हैं किभाग देने से शून्य आ गया है। पाश्चात्य गणितज्ञ लोगों के मत से तो ५ से। ये लोग गधे के समान खाना खाते हैं। उसी प्रकार आजकल के गृहस्थ रहते हैं विभक्त नहीं होता है और समांक से विषमांक का कभी भाग नहीं होता है। जब खेत में किसान बीज बो देता है तब शुरू में धान का अंकुर उत्पन्न होकर ऐसा कहने का उन लोगों का अभिप्राय है। उस अभिप्राय का निरसन करने | ऊपर पाना प्रारम्भ होता है । तब उस समय कदाचित गवा पाकर उसको खाने के लिए इतना बड़ा विस्तार के साथ लिखा हुआ भगवान महावीर को अगाध ! लगे तो सबसे पहले उसका मुंह धान की जड़ तक धुसकर जड़ सहित उखाड़ लेता महिलाओंसे अनेकांतदृष्टि से देखा जाय तो विषमांक हुमा । को समांक दो चार है और उसके साथ मिट्टी का ढेर भी पाता है। उस समय में गया अपने मुंह पाठ और विषमांक तीन-पांच-सात, से भी नौ विभक्त होकर शून्य आता है। में लेकर घास को खाने लगता है तब मिट्टी भी उसके साथ जाती है । जब मिट्टी गणितज्ञ विद्वानों को इस विषय पर कहीं वर्षों तक बैठकर खोज करनी चाहिए। साथ जाती है तब केवल बीच में से खाकर दोनों तरफ छोड़ देता है । तब दोनों जसे हमने अर्थात् जैनियों ने माना है उसी तरह जाना जाय तो आनन्द तथा तरफ छोड़े हुए को कोई ग्रहण नहीं कर सकता और दोनों तरफ से भ्रष्ट होता है। प्रशंसनीय माना जायेगा।
उसी तरह अवती अपात्र मनुष्य आप जो खाते हैं वह खाना अणुव्रती या महाव्रती रलत्रय में चारित्र तीसरा है, अनियत वसतिका और अनियत विहार नहीं खा सकते हैं । इसलिए उनका खान पान हेय माना गया है। ऐसा माहार अर्थात् कुमुदेन्दु प्राचार्य के और उनके महान् विद्वान मुान शिष्य तथा उनके खाने से कुष्ठादिक अनेक रोग होते हैं जैसे कहा भी है किअन्य चतुः संघ के मुनि जनों के लिए खास नियत वास करने के लिए घर नहीं मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । था। अर्थात् वसतिका इत्यादि कोई स्थान नहीं है । और उनको किसी गाँव या
कुरुते मक्षिका बान्ति कुष्ठ रोगं च कोकिलः। किसी अन्य स्थान में पहुंचने की भी कोई निश्चित योजना नहीं थी। उनके लिए
कण्टको दारखण्डञ्च वितनोति गलन्यथाम्। ... नियमित रूप नहीं है। वे हमेशा गोचरी वृत्ति अर्थात् जिस प्रकार गाय या मैस घास या रोटी देने वाले से राग द्वेष न करके चुपचाप पाहार
व्यञ्जनांतनिपतितस्तालु विति. वृश्चिकः ।। खाती है उसी तरह दिगम्बर साघु किसी खास व्यक्ति के या अन्य काला या
भोजन के समय त्रौंटी अगर पेट में चली जाय तो बुद्धि नष्ट होती है, जू गोरा व्यक्ति को ख्याल या अपेक्षा न करके केवल उनके द्वारा शुद्ध आहार ।
पेट में चली जाय जलोदर रोग उत्पन्न होता है, मक्खी पेट में चली जाय तो राग द्वेष भाव से रहित लेते हैं।
बमन अर्थात् उलटी करा देता है, मकडी पेट में चली जाय तो कुष्ठ रोग
होता है। कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि
छोटे कांटे या छोटे तिनके इत्यादि पेट में चले जायं तो कंठ में अनेक ___ गृहस्थ धर्म में अवती, अणुवती तथा महाव्रती इस तरह पात्र के तीन भेद ।
। रोग उत्पन्न होते हैं। बतलाते हैं पहले अवती में पात्रापात्र दोनों हैं । प्रसयंमी अपात्र में शुद्धाशुद्ध के
इसी तरह मार्कडेय ऋषि ने भी कहा है कि:--- विचार से रहित होकर भक्ष्य और अभक्ष्य का कोई नियम नहीं रहता है, और । पशु के समान उनके खान पान का हिसाब रहता है। वैसे आज कल के लोग।
प्रस्तंगते विवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । ग्राहार विहार का कोई विचार न करके एक दूसरे की मूठन को भी नहीं छोड़ते
अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ॥ .. . हैं और न उसको अगुव मानते हैं और न इनको रात और दिन का ख्याल पाना मार्कडेय ऋषि ने सूस्ति होने के बाद अन्न ग्रहण करना मांस के है। यही चिन्ह अपात्र अविरत मिथ्यादृष्टि का है।
समान तथा जलपान करना घिर के समान कहा है । इसलिए उत्तम बुद्धिमान
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सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली मनुष्य को रात्रि को गन्न और पानी का त्याग कर देना चाहिए।
१ १२०७५१७६४२५७३४६८७५७३२४१०२२६४७२८८४६३७४६७२६७५५ऊपर के कहे हुए जो चारित्र की हानि या नाश करने का साधन हैं ६२३४३७८४२६०७१३६१२०७५१७६४२५७३४६८७५७३२४१०२३६४७-" उन सबको त्याग कर जब अणुव्रती तथा क्रम से महाव्रती बनता है तभी शुद्ध २८५४६३७४६७२६७५५६२३७८४२६७१३६१२०७०००१४२००००००००चारित्र को प्राप्त कर सकता है।
०००००००००००००००००७४६७२६७५५६०३००००००००० यह जितने शुद्ध चारित्र केबल महापती मुनि हो पालन कर सकता है। यह शुद्ध चिन्ह दिये मये हैं वे सभी अंक ६ पाना चाहिए था परन्तु यहाँ ६ नहीं चारित्र निरतिचार अठारह हजार शीलों के नथा चौरासी लाख उत्तर गुणों के पाया है। पालने से होता है। इस चारित्र के अंक भंग को निकालने की विधि को ऊपर अर्थ-प्रतिलोम और अनुलोम ६ से भाग देते समय जो गलती कहे हुए गरिणत से लिया है।
पाती है उस गलती को बतलाने के लिए जितनी गलती पायी है उतने अंक यदि पात्मतत्व की दृष्टि से देखा जाय तो समस्त भूवलय स्वरूप। नीचे यह (०००) चिन्ह दिया गया है। इस गलती को जान बूझकर ही हमने अर्थात् केवलो समुद् घात, लोक पूरण समुद्घात रूप आत्मतत्व व्यवहार और डाला है और प्राचार्य ने इसको ऊपर छोड़ दिया है। क्योंकि यदि ऐसे गलत निश्चय दो विभाग से होता है । इसी तरह ऊपर कहा हुअा भागाहार लब्धांक अंक को नहीं रखते तो संस्कृत भगवद्गीता नहीं निकल सकती थी और न को भी दो भाग करने से ६४ शेष रह जाता है, ऐसा कुमुदेंदु आचार्य कहते हैं। प्राकृत भगवद् गीता हो । इसीलिए इस अक्षर को बतलाने के लिए जैन ऋग्वेद प्रतिलोम से लिखा हुआ "रुदळिरते" प्रतिलोम से पढ़ते जाय तो ।
के समान महर्षि के द्वारा रचित अनादि कालीन ३६३ मत जैन ऋग्वेद में "तेरळिदर" एस तरह शब्द बन जाता है। यह "हदळिरते" शब्द किस !
नहीं निकलते । अनादि ऋग्वेद के सम्बन्धी १० मंडल के प्रष्टक ८८८८-' भाषा का है सो हमें पता नहीं लगा। जो ऊपर लब्धाङ्क आया है बह ६४ है,
1 ८८८८ अर्थात् श्री नेमि गोता के प्रथम अध्याय का ७ वां सूत्रउसको आधा किया जाय तो ? ६८ होता है। इसकी विधि इस तरह है:-
"सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शनकालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च" ... २३४५७४७३७५६४६५००००००००००० इससे इसका निष्कर्ष यह! इस सूत्र के अनुसार आठ अनुयोग द्वारा ऋग्वेद नहीं आता था। वही, निकला कि अनेकांत दृष्टि से देखा जाय तो ६४ से ६८ भाग होता है ऐसा । ऋग्वेद अनादि कालीन गणित को नहीं मिलता था। जैन पद्धति के वाल्मीकि । प्राचार्य ने बतलाया है।
ऋषि ने रामायण के अंक के पन्त में स्तवनिधिव्रह्म देव की स्तुति के द्वारा इसका आचार्यों ने भंगांक ऐसा कहा है। गणित विधि बहुत गहन पहले होने वाले प्राजकल के वैदिकों में प्रचलित रहने वाले, साम्य वेद के होने के कारण पुनरुक्ति दोष नहीं पाता । महान मेधावी तपस्वी हैं वे इसे पूर्वाचिका और उत्तराचिका नामक महान भाग नहीं निकल सकता था। मोर: पुनरुक्त न मानकर जो रस इस गरिणत से पाता है उस रस को पास्थादन पूर्वाचिका के अर्थ के अन्दर ही उत्तर अचिका मिलकर हमारे गणित पद्धति के :करते हुए आनन्द की लहर में मग्न हो जाते हैं।
अनुसार सांगत्य कानडी पद्य के अनुसार नहीं पा सकता था। उसके ६५ पद्य, प्रतिलोम को अनुलोम से भाम देते समय लब्धांक के इसी विधि में के १ अध्याय में प्रत्येक श्लोक में ६५ अध्याय होकर ६५ सांगत्य पद्य में पुनः अन्तिम भागांक में जो गलती है उस गलती को ऊपर के कोष्ठक में देख लेना । ६५ सांगत्य पद पाड़ा और सीधा मिलाकर १०० श्लोक वाल्मीकि रामायण ... ऊपर के लब्धांक गणित के अन्त में सभी शून्य ही पाना चाहिए था परन्तु 1 के अन्तर्गत देखने में नहीं पा सकता था। नहीं पाया, अक ही भा गया है।
रामायण के बालकांड, अयोध्या कांड और अरण्य कांड ये तीनों काट।
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सौर्य सिद्धि संक गनोलपत्नी देखने में नहीं पा सकने थे। इसके अलावा और भी कितनी अद्भुत साहित्य को महान् २ गलती होती हैं । भोग का विरोध करने पले योग को योग का कला को हम गणित के द्वारा नहीं छुड़ा सकते और जैसे कितने ही रस-भरिता विरोध करने वाले भोग को समान करके ॥ २६ ।। काव्य (साहित्य) के नष्ट होकर गिर जाने से यहां हमने गलत संख्या को रखा प्रति दिन बढ़ाई जाने वाली अतिशय आशा रूपो अनि ज्वाला दिया है। इसका उत्तर आगे दिया गया है।
की शक्ति को दवाकर उसके बदले में उपमा रहित योगाग्नि रूपी पदाला १७६ श्लोक के नीचे दिये गये प्रतिलोम१७१६५४३६६४६०२११६०- को बढ़ाते हुए कर्म को नाश करने से सिद्ध हुआ गणित का पांच अंक योगी २२८६७११८८४६२०८८२२३४६५७०६७६०७७०७५६५३६९३७०४३५४-१लोगों के लिए पञ्च अग्नि के समान है।। २७ ।। ६३१६६६३३३१२०००००००००००० हैं। आगे उस जगह पर २६ अंक। ये पञ्चाग्नि रूपी रत्न ही पाँच प्रकार की इन्द्रिया हैं ॥२८॥ स्वच्छ चन्द्रमा की चांदनी के समान निकलकर आते हैं। यहां तक २४ श्लोक। जिस कार्य को सिद्धि के लिए मनुष्य पर्याय को हमने प्राप्त किया उस पूर्ण हुए।
पर्याय से अद्भुत लाभ होने वाले कार्य को सतत करते रहने से कर्म का बंधनहीं अब प्राचार्य कुमुन्देदु ने स्याद्वाद का अवलम्बन करके गणित के बारे में होता परन्तु छोटे छोटे सांसारिक कार्यो के करने से कर्म का बंध होता है मानन्द दायक उत्तर देते हुए कहा कि कोई गलती नहीं है । क्योंकि जिस गलती २९-३०॥ से महत्व का कार्य साधन होता है ऐसी गलती को गलती नहीं माना जा सकता इस गणित की जो मनुष्य हमेशा भावना करता है उनके हृदय में दिगम्बर जिस छोटी गलती से ही महान् मलती होतो है उसी को गलती माना जाता है। मुद्रा या भगवान जिनेश्वर की भावना हमेशा पूर्ण रूप से भरी रहती है ॥३०॥ परत यहां ऐसा नहीं है यह मंगल प्रामृत है, अतः यहाँ अमंगल रूप गलती नहीं। तर्क में न आने वाले और स्वात्म-चितकर में ही देखने का पानेसले इस आनी चाहिए ऐसे यदि सम प्रश्न करोगे तो ऊपर के कोष्ठक में दिए हये (४६६१) पाँच अंक की महिमा केवल अनभव-गम्य है॥३२॥ इत्यादि रूप से ऊपर से नीचे उतरते हुए लब्धांक को देखो उसमें किसी प्रकार तीसरा दीक्षा कल्याण होने के बाद छमस्थ अवस्था में मारे गये फिरवर को गलती नहीं दीखती । गलती के बदले में अतिशय महिमा के (१) अंक को को यह भक्ति है ॥ ३३ ॥ उत्पत्ति होती है यदि उसका आधा किया गया तो '६८' पाकर '' नामक यह जो पांच अंक बह जैन दिगम्बर मुनियों को देखने में माया ५ अंकों से भाग हो गया । यह अतिशय धवल को महिमा नहीं है क्या? ऐसा । हा है ॥ ३४॥ कुमुदेन्दु आचार्य भूवलय ग्रन्थ में लिखते हैं । इस प्रकार २५ श्लोक तक पूर्ण ।
ख्याति को प्राप्त हुआ यह अक विज्ञान है ॥ ३५ ॥
यह छोटे छोटे बालकों से भी महान् सौभाग्य को प्राप्त कर देने मन्मय का बाण सोधा नहीं है वह तो टेड़ा है मन्मथ का पुष्प वाण वाला है।। ३६ ॥ स्त्री और पुरुष के ऊपर छोड़ाजाय तो तीर जैसे हृदय में घुसकर बार बार वेदना जिनेन्द्र देव ने गणित के इस अंक के ऊपर हो गमत किया है बाहर उत्पन्न करता है उसी तरह मन्मथ के वारण भी स्को पुरुष के हृदय में घुस । क्षेत्र भी है।। ३७ ।। कर हमेशा भोग की तीव्र वेदना उत्पन्न कर देते हैं। जिस तरह पुरुष मृदु। बड़े २ कर्म रूपी शत्रु का नाश करने काला पात्मस्वस्प नानक होने पर भी पुरुष या स्त्री को अपनी सुबन्धि से बार बार सुगन्धित करता है । हयभूवलय है ।। ३८ ॥ उसी तरह मन्मथ का वाण मृदु होने पर भी स्त्री या पुरुष के भोगने की। श्री भगवान महावीर स्वामी की वृद्धि समान यह अध्यात्मवेदना को उत्पन्न कर देता है। इसी तरह छोटी छोटी गलती से अनेक प्रकार साम्राज्य है ।। ३६ ॥
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सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली मन रूपी सिंह के ऊपर आकाश गंगा के समान अधर भाग में स्थित उस साधु को घर तया बन का रहस्य अच्छी तरह ज्ञात (मालूस) कमल है ॥ ४० ॥ २८ से लेकर ४० तक अन्तर पत्र को नीचे दिया जाएगा ! होता है ॥५३।। यह प्रत्येक चौथे चरण का प्रक्षर है। इसमे पहले २७ इलोकों के पहले तीन वह योगी व्यानो साधु जिनेन्द्र भगवान के समान अपना उपयोग शुद्ध चरणों को मिलाकर पढ़ लेना चाहिए ।
रखने में लगा रहता है, अतः वह अन्य साघुओं के समान शुद्ध उपयोगी होता अर्थ:-जैसे उत्तम संहनन वालों का शरीर है। वैसे इम काव्य को रचना । है ३५४||
विवेचन-शारीरिक संगठन के लिए हड्डियों का महत्वपूर्ण स्थान है, इस काल के पृथ्वी के भव्य जीवों के भाव में करुणा अर्थात् दया के इस हड़ियों के संगठन को 'संहनन' कहते है। संहनन के ६ भेद है-१-वन अप्रतिम रूप अर्थात केवली समुद्घात को बतलाने वाला यह काव्य है पौरपंच ऋषभ नाराच (वन के समान न टूट सकने वाली हड्डियों का जोड़ और वन परमेष्टियों का यह दिव्यरूपी चरण भूवलय काव्य है और ऊपर का आया हुआ । मरीखी हड्डी की संधियों में कीली), २ वय नाराच (वज सरीखी हडियां हों पांच का चिन्ह है ।। ४३ ॥
जोड़ बच समान न हो), ३ नाराच (हड्डियां अपने जोड़ों तथा संघियों में जंगल में तप करके बात्म-योग द्वारा अपने शरीर को कहा करते समय श्री। कोल सहित हो) ४ मद्ध नाराच (हड्डियां पाधी कीलित हो) ५ कीलक जिला जिनेन्द्र देव का अंतिम रूप ही मनमें धारण करना सर्व साधु का अन्तिम रूप है।
कीलों से मिली हो), ६ असंप्राप्ता सृपाटिका (सांप की हड्डियों की तरह शरीर अर्थात् अरह त सिद्ध आचार्य पीर उपाध्याय ये चार और जिन धर्म जिनागम, 1 का हाडमा बिना जा रहा, कवल नसा स वषा हुइ हा)। जिन बिब तथा जिन मंदिर, इन दोनों चार नाम नकों को मिलाने वाला बीच का समुद्घात-मूल पारीर को न छोड़ते हुए प्रात्मा के कुछ प्रदेषों का पांच अंक है। यदि चारों ओर देखा जाय तो पांच ही अंक है। इस रीति से होदारीर से बाहर निकलना समुद्घात है, उसके ७ भेद हैकाव्य की रचना हुई है । यही सायु समाधि है।
१ कषाय, २ वेदना, ३ विक्रिया, ४ पाहारक, ५ तंजस, ६ मारणान्तिक इसके आगे ४३ से ५५ इलोक तक के अन्तर पद्यों में देख लें। । और ७ केवल समुद्घात । अर्थ:-इन पाँच को संख्यात से ४३ असंख्यात से 11 ४४ 11 तक और !
इस प्रकार विविधि विषयों का प्रतिपादन करने वाला यह भूवलय सिद्धांत बहत बड़े अनन्त पक से अर्थात् इन तीनों से पांच को जानना चाहिए ॥ ४५ ॥
ग्रन्थ है ।।५५ । यह जिनेन्द्र भगवान का ही स्वरूप दिखाया गया है ।। ४६ ॥
पूर्व काल में बांधे गये कर्मों का जितना हो वमन (निर्जरा या क्षय) वह साधु मन वचन से अतीत यानी अगोचर है ॥४७॥
किया जाय उतना ही आत्मिक गुणों का विकास होता है और जब पात्मिक वह माधु दुष्ट कर्मों को भस्म करने के लिए दावानल के समान है।४८
गुणों का विकास होता है तब संगीत कला में परम प्रवीण गायकों की गान ऐसा ज्ञानी ध्यानी साघु ही वास्तविक योगी है ॥४॥
कला के समान उपदेश देने की शक्ति बढ़ जाती है ।।१६।। ऐसा ही यामी साधु प्राचार्य पद के योग्य माना गया है ।१५०॥
तब हृदय में नित्य नवीन ज्ञान रस को धारा प्रवाहित होती है। जैसे ऐसा साधु ही परम विशुद्ध मुक्ति के सुख को प्राप्त कर लेता है ॥५१॥ रात्रि में पढ़ा हुआ पाठ दिन में स्मरण हो जाता है । उसी प्रकार योगी को
बह योगी दिन प्रतिदिन अपने आध्यात्मिक गुणों में निरन्तर वृद्धि करता। रात्रि समय का ज्ञान-चिन्तवन दिनमें उपस्थित हो जाता है। ऐसे ज्ञानी साधु जाता है ॥५२॥
पाठक यानी उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं १५७१
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सिरिमूवलच
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सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली उपाध्याय परमेष्ठी कहलाने वाले एक ही व्यक्ति अवस्था के भेद से । कारण तीव्र गति से गमन करता है। उसी प्रकार तीव्र प्रगति से जो आचारक्रमशः श्रात्मिक योग में बैठ जाने पर साधु परमेष्ठो, अठारह हजार शील व ५ सार के अगणित आचार को स्वयं आचरण करते हैं और अन्य भव्य जीवों आचार के पालन करने के समय में आचार्य परमेष्ठी, चारों घातियाँ कर्मों का क्षय को आचरण कराते हैं वे आचार्य होते हैं ||७५ ।। कर लेने के पश्चात् ग्ररहन्त परमेष्ठी तथा चारों अघातिया कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद प्राप्त कर लेने के पश्चात् सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं ।
उस आध्यात्मिक ज्ञान को अपने वश में करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी
४०
है
उस ज्ञानरूपी श्रमृत रस को अपने मधुर उपदेश द्वारा भव्य जीवों को पिलाने वाले प्राचार्य परमेष्ठी हैं ||२६||
ऐसे आचार्य परमेष्ठी समस्त जीवों को ज्ञान उपदेश देते हुए पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं || ६०
वे समस्त इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ।। ६१॥
सम्पूर्ण जीवों के लिए नई नई कला को उत्पन्न करने वाला भूवलय है ॥६२॥
सम्पूर्ण श्रसत्य के त्यागी महात्मा होते हैं || ६३ ॥
वे महान मनुष्यों के अग्रगण्य होते हैं ।। ६४ ।।
सम्पूर्ण विषयों को बटोर कर बतलाने वाला द्वादशांग है ||६||
अनुपम समता को कहने वाले हैं ||६६ ॥
नये नये मार्दव आर्जव गुण को उत्पन्न करने वाले हैं ||६७ ||
सम्पूर्ण ऋषियों में अग्रगण्य हैं ||६६ || नये नये उपदेश देने वाले प्राचार्य हैं ६६॥ पवित्र औषध ऋद्धि के धारक हैं ।। ७० । अनेक बुद्धि ऋद्धि तथा सिद्धि के धारक हैं ।। ७१ ॥ वृषभसेन प्राद्य गणधर के वंशज है || ७२ || श्री ऋषभदेव के समय से ॥७३॥
चलने वाले समस्त विषयों को जानने वाले
दयालु होने से सम्पूर्ण हरितकाय के भक्षण के त्यागी हैं ||७४ ||
जिस प्रकार आकाश मार्ग से जाने वाला प्राणी श्रव्याहृतगति होने के
विवेचन आकाश मार्ग से जाने वाले चारण ऋद्धि-धारी साधु विद्याधर या विमान जितने वेग से गमन करते हैं, उस वेग को अगणित विधि को भूवलय की गणित पद्धति से जाना जा सकता है। वह इस प्रकार है । गणित का सबसे जघन्य अंक २ दो माना गया है क्योंकि एक की एक से गुणा या भाग करने पर कुछ भी वृद्धि आदि नहीं होती ।
२ को यदि वर्ग किया जावे ( २x२= ४ ) तो ४ अ क आता है, चार को चार से एक बार वर्ग करने से (४ x ४ = १६) १६ होते हैं, यदि ४ को तीन बार रखकर गुणा किया जावे तो [४४४४४=६४] ६४ प्रांता है, यदि चार को चार बार गुणा किया जावे तो [४×××४४४=२५६] २५६ होता है । यदि ४ के वर्गित संगित अंकों के २५६ को इसी पद्धति से afia संगित किया जावे तो संवर्गित फल ६१७ अंक प्रमाण श्राता है जोकि प्रचलित गणित पद्धति के दस शंख के १९ अंक प्रमाण संख्या से बहुत बड़ी अक राशि होती है । दो के वर्ग ४ की संबंधित संख्या जब इतनी बड़ी होती है तो विचार कीजिये कि भूवलय में प्रतिपादित र अक की वर्गित संबंगित संख्या कितनी बड़ी होगी ? ऐसी गरिणत-पद्धति से आकाश में गमन करने की तीव्रतम प्रगति को भी जाना जा सकता है।
नौ अंक के समान आचार्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थों के मर्म को दिखलाकर अपनी अपनो शक्ति के अनुसार गृहस्थों तथा मुनियों को आचार के पालन करने की प्रेरणा करता है ।। ७६ ।।
धर्म साम्राज्य के सार्वभौमत्व को प्रगट करके आचार्य प्रक. के समान समस्त आचार धर्म को पालन करते हैं ||७७॥
इस संसार में उत्तम क्षमा आदि दशधर्मो का प्रचार करने वाले मुरु आचार्य महाराज हैं | तथा सिद्ध भगवान के सारतर आत्म-स्वरूप को बतलाने वाले श्राचार्य हैं ॥७८॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर दिल को
अन्तर श्लोक
श्लोक इसी प्रकार सारतर आत्म-स्वरूप को बतलाने वाला भूवलय है ।।७।। जिस प्रकार सिद्धरसायन द्वारा कालायस (काला लोहा) भी सुवर्ण धौर वीर मुनियों के आचरण का प्रतिपादक यह भूवलय है ।८०॥ बन जाता है, उसी प्रकार पतित संसारी जीव को देह से भेद-विज्ञान उत्पन्न सरल मार्ग को बतलाने वाला भूवलय है ॥१॥
करके मुक्ति प्रदान करने वाला भूवलय है ।।१०।। श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने मार्ग में चलते हुए अपने शिष्यों को जो पढ़ाया घातिकर्म नष्ट करके जीवराशि में जीवनमुक्त ईश्वर (महन्त) होकर वह यह भूवलय सिद्धान्त है।शा
भव्य जीवों की रक्षा करता हुआ धर्म तीर्थ द्वारा उनका कल्याण करके वह यह भूवलय शूर वीर मुनियों का काव्य है !
सोर के नाम-भाग में विराजमान सिद्धराशि में सम्मिलित हो जाता रलहार में जड़े हुए मुख्य रत्न के समान भूवलय ग्रन्थ-रत्नों में प्रमुख ह॥१०॥ है।1८४॥
जब यह आत्मा सांसारिक व्यथा से पृथक हो जाता है तब मुक्ति स्थान मात्मा को निर्मल ज्योति-रूप भूवलय है ।
में प्रात्मा के आदि अनुभव को अनन्तकाल तक अनुभव करता है ।।१०।। अत्यन्त सरलता से सिद्धान्त का प्रतिदिन करने वाला भूवलय
अनादिकाल से संलग्न कोष काम लोभ मायादिक को जव यह आत्मा प्रन्थ है ॥८६॥
नष्ट कर देता है, तब वह प्रात्मा सिद्धालय में अपने पापको जानता देखता क्रू र कर्मों का प्रजेय शत्रु भूवलय ग्रन्थ है ॥२७॥
हुआ समस्त पदार्थों को जानता देखता है । समस्त सिद्ध निराकुल होकर प्रानन्द शूर वीर ज्ञानी ऋषियों के मुख से प्रगट हा यह भूवलय है ।।६।।
से रहते हैं ॥१०॥ आत्मा की सार ज्योति-स्वरूप यह भूवलय है ।।६।।
1 णमोकार मंत्र में प्रतिपादित पांच परमे ठो प्रात्मा के पांच अंग स्वरूप सरलता से आत्मतत्व को बतलाने वाला भूवलय है ॥१०॥
हैं। जब यह आत्मा सिद्ध हो जाता है तब वह भेद-भावना मिट जाती है और जिस प्रकार रत्नों में मारिणक श्रेष्ठ होता है उसी प्रकार शास्त्रों में सभी सिद्ध एक समान होते हैं ।।१०४॥
अन्तर श्लोक श्रेष्ठ शास्त्र यह भूवलय है ॥६॥
मक के समान सिद्ध भगवान परिपूर्ण है ॥१०॥ श्री वीर जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित यह भूबलय है ॥१२॥
सिद्धों के रहने का स्थान ही भूवलय है ॥१०६।। श्री वोर भगवान की दिव्यबारणो स्वरूप यह भूवलय है ।।३।।
णमोकार मंत्र की सिद्धि को पाये हए सिद्ध भगवान हैं ॥१०॥ श्री महाबीर महादेव के प्रभा-वलय के समान वह भूवलय है ॥१४॥
सिद्ध भगवान अनन्त प्रकों से बद्ध हैं यानी संख्या में अनन्त हैं ।।१०।। विशाल यात्मवैभवशाली यह भूवलय है।
वे अनन्तज्ञानी हैं ॥१०॥ अनन्त पाचार की वृद्धि करने वाला यह भूवलय है ॥१६॥
वे तीन कम करोड मुनियों के गुरु हैं ॥११०॥ इस प्रकार प्रति उत्कृष्ट प्राचार को प्रतिपादन करने वाले प्राचार्य
वे निर्मल ज्ञान शरीर-चारी हैं 11१११॥ के समान यह भूवलय है ।।६७||
वे भौतिक शरीर के अवयवों से रहित हैं किन्तु प्रात्म-अवयव (प्रदेशों) अत्यन्त वैभवशाली वैराग्य को उत्पन्न करने वाला यह भूवलय है। बाले हैं ॥११२॥ भव्य जीवों के हृदय में भक्ति उत्पन्न करने वाला भूवलय है ||
परिपूर्ण अंक समान परिपूर्ण दर्शन बाले वे सिद्ध भगवान हैं ॥११॥
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साथ सिद्धि मग नगलोर-सिली 'प्रादौ सकारप्रयोगः सुखदः' के अनुसार सिद्ध भगवान आदि अक्षर मोहनीय कर्म के समूल क्षय से आत्मा को अनुपम अनुभूति कराने वाला वाले हैं ।। ११॥
सम्यक्त्व गुण है ॥३॥ वे अन्न आदि अन्य पदार्थों की सहायता से जीवन व्यतीत नहीं करते अनन्त पदार्थों को निरन्तर अनन्त काल तक युगपत् जानते हुए मी अतः स्वतन्त्र-जीवी हैं ॥११॥
। प्रात्मा में निर्बलता न आने देकर अनन्त शक्तिशाली रखने वाला वीर्य गुण है। वे अत्यन्त रुचिकर सर्वस्वरूप सुख के सार का अनुभव करते हैं॥११६॥ जो कि अन्तराय कर्म के क्षय से प्रगट होता है ॥४11
वे सिद्ध भगवान अवतार (पुनर्जन्म) रहित होकर अपना सुखमय जीवन उक्त चारों गुण अनुजीवो गुण हैं । व्यतीत करते हैं ॥११७॥
वेदनीय कर्म नष्ट हो जाने से प्रात्मा में प्राकुलता-वाधा आदि काम वे अनन्त वीर्य वाले हैं ॥११५||
रहना अव्याबाध गुण है 11॥ दे अनन्त सुखमय है ।।११।।
आयु कर्म सर्वथा न रहने से शरीर की अवगाहना (निवास) में न रह वे गुरुता लघुता-रहित अत्यन्त रुचिकर अग्ररुलघु गुणवाले हैं ॥१२॥ कर स्वयं अपने प्रात्म-प्रदेशों में निवास रूप अवगाहनत्व गुण है ॥६॥ उन्होंने नवीन सूक्ष्मत्व गुण को प्राप्त किया है ।।१२।।
नाम कर्म द्वारा पौद्गलिक शरीर के साथ संसारी दशा में प्रात्मा सतत दे महान कवियों की कविता द्वारा प्रशंसा के भी अगोचर हैं ॥१२॥ स्थूल रूप बना रहता है। नाम कर्म नष्ट होने से प्रात्मा में उसका सूक्ष्मत्व गुण वे इ.व्यावाध गुरण वाले हैं ।।१२३॥
प्रगट होता है ।।७।। वे समस्त संसारी जीवों द्वारा इच्छित महान पात्मनिधि के स्वामी गोत्र कर्म प्रात्मा को संसार में कभी उच्च-कुली, कभी नीच-कुली हैं ।।१२४॥
बनाया करता है । गोत्र कर्म नष्ट हो जाने पर सिद्धों में गुरुता (उच्यता), वे ही अर्हन्त भगवान के तत्व (रहस्य) को अच्छी तरह जानने वाले । लघुता (नीचता) रहित अगुरुलघु गुण प्रगट होता है ॥८॥
अन्तिम चारों गुण प्रतिजीवी गुण हैं । ये ४ अनुजीवी तथा ४ प्रतिउन्होंने समस्त विशाल जगत को अपने ज्ञान दर्शन द्वारा देखा है ।।१२६॥ जीबी गुण सिद्धों में पाए जाते हैं। इस कारण में उनके चरणों को नमस्कार करता हूँ ।।१२७।।
अर्हन्त भगवानक्योंकि उन्होंने (सिद्धों ने) समस्त संसार-भ्रमण का नाश कर दिया व्यास पीठ में उल्लिखित अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, है ।१२८॥
जिन वाणी, जिन धर्म, जिन चैत्य, जिन चैत्यालय; ६ स्थानों का सूचक अंक विवेचन-सिद्ध परमेष्ठी में वैसे तो अनन्त, पूर्ण विकसित. शुद्ध गुण क्या है केवल लब्धियों के अधिपति अर्हन्त भगवान को सूचित करता है ? हां वे होते हैं किन्तु ८ कर्मों के नष्ट होने से उनके ८ विशेष गुण माने गये हैं। । ही अर्हन्त भगवान इष्ट देव हैं ।।१२।।
ज्ञानावरण कर्म के नष्ट होने से लोक अलोक के त्रिकालदर्ती समस्त विवेचन-विशेष आध्यात्मिक निधि के प्राप्त होने को 'लब्धि' कहते हैं। पदार्थों को उनकी समस्त पर्यायों सहित एक साथ जानने वाला अनन्त ज्ञान । अर्हन्त भगवान को चार घाति कर्म नाश करने के अनन्तर । लब्धियां प्राप्त होता है ।।१।।
होती हैं। (१) केवल ज्ञान, (२) केवल दर्शन, (३) क्षायिक सम्यक्त्व, (४) ___ दर्शनावरण कर्म के समूल नाश हो जाने से समस्त पदार्थो की सत्ता क्षायिक चारित्र, (५) क्षायिक दान, (६) क्षायिक लाम, (७) क्षायिक मोग का प्रतिभासक दर्शन मुरण है ।। २॥
(5) क्षायिक उपभोग, (8) क्षायिक वीर्य (अनन्त वीर्य) ये नौ सब्धियां हैं।
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्ध संघ बंगलौर-दिल्लो ज्ञानावरण के नाश से केवल ज्ञान लब्धि प्रगट होती है जिससे ग्रहन्त करके तीन संध्या काल में अपनी दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को कहा। वे भगवान त्रिलोक, त्रिकाल के ज्ञाता होते हैं । ही जिनेन्द्र भगवान हैं ॥ १३१ ॥
दर्शनावरण कर्म के नाश हो जाने से लोकालोक की सत्ता की प्रतिभासक केवलदर्शन लब्धि प्राप्त होती है ।
शान्त वैराग्य ज्ञान यादि रसों से युक्त भूवलय सिद्धान्त को प्रभव को श्री जिनेन्द्र भगवान ने तीनकाल-वर्ती विषयों को अन्तर मुहूर्त में प्रतिपादन करके धर्म तो बना दिया ।। १३२ ।।
४३
दर्शन मोहनीय कर्म सर्वथा हट जाने से अक्षय आत्मानुभूति कराने वाली क्षायिक सम्यक्त्व लब्धि प्रगट होती है ।
चारित्र मोहनीय नष्ट हो जाने पर आत्मा में अनन्त काल तक अटल अचल स्थिरता रूप क्षायिक चारित्र लब्धि का उदय होता है । दानातराय के क्षय होने से पा को अपनी दिव्य वाणी द्वारा ज्ञान दान तथा अभय दान करने रूप अर्हन्त भगवान के अनन्त दान लब्धि होती है।
लाभान्तराय के नष्ट हो जाने से बिना कवलाहार किए भी अन्त भगवान के परमोदारिक शरीर की पोषक अनुपम पुद्गल वर्गणाओं का प्रति समय समागम होने रूप क्षायिक या अनन्त लाभ नामक लब्धि प्राप्त होती है । भोगान्तराय के क्षय हो जाने पर जो अर्हन्त भगवान पर देवों द्वारा पुष्प वर्षा होती है, वह क्षायिक भोगलब्धि है।
उपभोगान्तराय के क्षय हो जाने पर अर्हन्त भगवान को जो दिव्य सिंहासन, चमर, छत्र, गन्धकुटी आदि प्राप्त होते हैं वह क्षायिक उपभोग लब्धि है ।
वीर्यान्तराय के क्षय हो जाने पर जो प्रर्हन्त भगवान के आत्मा में श्रमन्तशक्ति प्रगट होती है वह क्षायिक या अनन्त वीर्य तब्धि है ।
उत नो लब्धियों के स्वामी अर्हन्त भगवान हैं, उनसे ही श्राध्यात्मिक इष्ट मनोरथ सिद्ध होता है, अतः वे ही इष्ट देव हैं।
इष्ट देव श्री अर्हन्त भगवान ने चार घाति कर्मों का क्षय करके संसार के परिभ्रमण का अन्त किया और प्रोंकार के अन्तर्गत अपनी दिव्यध्वनि द्वारा भूवलय सिद्धि के लिए उपदेशामृत की वर्षा की ॥ १३० ॥
गन्धकुटी पर रखते हुए सिंहासन के सहस्रदल कमल के ऊपर चार गुल अघर विराजमान अर्हन्त भगवान ने अनन्त अंकों को गणित में गर्भित
श्री एक अक्षर है और उसपर लगी हुई बिन्दी एक छौंक है, इस प्रकार ॐ (श्रों) की निष्पत्ति है। समस्त भूवलय ६४ अक्षरात्मक है । ६४ अक्षर में गर्भित हैं। वह कैसे ? सो कहते हैं- ६४ अक्षर (६+४= १०) १० रूप हैं । १० में एक का अंक 'ओ' अक्षर रूप है और बिन्दी अंक रूप है । इस तरह ॐ में ६४ अक्षर गर्भित है । अंक ही अक्षर हैं और अक्षर ही अंक हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।। १३३॥
स्पष्टीकरण - ० ( बिन्दी ) को श्रद्ध रूप में विभक्त करके उसके दोनों टुकड़ों को विभिन्न प्रकार से जोड़ने पर कनड़ी भाषा में समस्त श्रंक बन जाते हैं जैसे ० ( बिन्दी ) को आधे रूप में विभक्त करने से दो टुकड़े हुए उस टुकड़ा का श्राकार क्रमश: एक श्रादि श्रंक रूप बन जाता है ।
मन्मथ (कामदेव ) की गुदगुदी में जीने वाले समस्त नर पशु श्रादि प्राणियों को श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणों का स्मरण करने से पांच प्रक (५) की सिद्धि होती है अर्थात् पंच परमेष्ठी पद प्राप्त होता है ।। १३४ ||
श्री अर्हन्त भगवान के परमोदारिक शरीर में नख ( नाखून) और केश (बाल) एक से रहते हैं, बढ़ते नहीं हैं। उन श्रन्त भगवान के एक सर्वाङ्ग शरीर से द्वादश अंग रूप द्रव्य श्रुत प्रगट हुआ। वह द्वादश अंग एक ॐ रूप है ।।१३५॥
अर्हन्त भगवान की उपर्युक्त अनुपम चराचर पदार्थ गर्भित दिव्यवारणी को सुनकर विद्याधर, व्यन्तर, भवनामर, कल्पवासी देवों ने श्री जिनेन्द्र देव में अचल भक्ति प्रगट की ॥१३६॥
रसना इन्द्रिय की लोलुपता से विरक्त भव्य मनुष्य अंक परिपूर्ण भगवान का उपदेश सुनकर पूर्ण तृप्त हुए और अनुपम भूवलय को नमस्कार करके अपने अपने स्थान पर चले गये ।। १३७॥
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सिरि मूबलय
सर्वार्थ सिदि सैप बेंगलोर-वल्ली
कभी भी रंचमात्र कम न होने वाला एक ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ! जो कठिनाई से प्राप्त हुआ ।।१५।। समवशरण में विराजमान श्री जिनेन्द्र देव के सिर के ऊपर तीन छत्र झुक रहे । उससे मक रूपी यश काव्य की सिद्धि होती है ॥१५२।। हैं, देवों द्वारा पुष्प वृष्टि होती है तथा पोठ के पीछे प्रभामंडल होता है। ऐसी । यह ऋषीश्वर भगवान जिनेन्द्र देव का वाक्य है ।।१५३॥ ज्ञान प्रभा प्रगट करने वाला भूवलय है ॥१३॥
अन्तर श्लोकों की अक्षर संख्या ७८४८ हैं ।।१५४॥ भूवलय के प्रभावशाली इस 'पा' (दूसरे) मंगल प्राभूत में विविधता १से प्रगट हया ७७८५ । अन्तर में GE४८ अकाक्षर रहने वाला परिपुर्ण ६५६१ अक्षर प्रमाण श्रेणी बद्ध श्लोक हैं । अन्तर श्लोकों के अक्षर ! सर्व सम्मत 'अ' अध्याय भूवलय है ।।१५।। आगे बताते हैं ।।१३६॥
६५६१ ग्रन्तर ७८४८%१४४०६ अन्तर श्लोक
अथवा अन्तर में ५८७७: ॥१४०।।
अ (प्रथम) अध्याय ६५६१ + अन्तर ७७८५=१४३४६+ 'प, (दूसरा) अनेक भाषामय काव्य प्रगट होते हैं ॥१४॥
अध्याय १४४०१=२५७५५ अक्षर हैं दोनों अध्यायों में १५ मंक चक्र हैं। अंकों द्वारा अक्षर बनालेने पर उन विविध काव्यों का निर्माण होता !
इस द्वितीय अध्याय के मूल श्लोकों श्रेणी-बद्ध आद्य अक्षरों से (ऊपर है।।१४२।।
से नीचे तक पड़ने पर) जो प्राकृत गाथा प्रगट होती है उसका अर्थ निम्न. बड़ी युक्ति से उन अंकों को परस्पर मिलाने से उन काव्यों का उदय
लिखित हैं। होता है ।।१४३॥ [८३४२] पाठ तीन चार दो एक ।।१४४॥
प्रथम संहनन (बज्रऋषभ नाराच) तथा समचतुरस्त्र संस्थान-धारी, ११२५०० ॥१४॥
| दिव्य गन्ध सहित एवं नख केश न बढ़ने वाला अर्हन्त भगवान का परमौदारिक यह अंक चारित्र का वर्णन करने वाला है ।। १४६।।
शरीर होता है। अन्तरान्तर में जो काध्य प्रगट होता है, वह चारित्र का वर्णन करता
३ तथा मध्यवर्ती (२७) अक्षर की श्रेणी से जो संस्कृत श्लोक बनता
है उसका अर्थ निम्नलिखित हैहै ।।१४७॥ इस अन्तराधिकार में जितने अक्षर हैं उन्हें बतलाते हैं ।।१४८॥
अविरल (अन्तर रहित) शब्दों के समुदाय रूप, समस्त जगत के कलङ्क बे अक्षर जितने हैं उतने ॥१४६।।
१ को धो देने वाली, मुनियों द्वारा उपास्य सीर्य-रूप सरस्वती (जिन वाणी) वर्ण मिलाने से ॥१५०।
हमारे पापों का क्षय करे।
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तोसरा अध्याय
॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥
॥१८॥
मा दिदेवनु आदियकालदि फेळ्द । साधनेयध्यात्म योग ।। दादिय प्र ज्ञानवळिद धर्मध्यान । साधित काव्य भूवलय णे रदोळात्मनभ्युदय सौख्यदपोंदे । दारियुदोरेताग अ ज ज ॥ सारा मशिखियेरि बरुवागयोगद । सारवैभववु मंगलवु हि तवादतिशय मंगलप्राभूत । सततवु भद्रपर्याय ॥
जा वज्ञात तत्वगळनेल्लव पेळ व । ख्यातांक शिवसौख्य काव्य म नवनु सिंहपीठवनागिपकाव्य । दतुभव जिनमार्गवागे ॥ न नेकोनेवोगिसुत् अध्यात्मयोगब । घनसिद्धांत लेक्कलि म रितुदे ज्ञान तन्नरिविनोळ नोळ पुदे । सरुवज्ञ दर्शन ति येंब । परमनकारपके इवेरडरोळ बेरेयुदे । सस्वचारित्र अनंत
परमात्मनरिव अनन्त ॥६॥ करुणेयुबेरेद अनंत ॥७॥ वरसिद्धगोष्ठियनंत ॥८॥ रितु तन्नात्मअनंत ॥६॥ परिवुनोडिदरिगनंत ॥१०॥ दोरेवुदेसुरुरत्नांक ॥११॥ सरससमख्यातदनंत ॥१२॥ सरमग्गियोळगसंख्यात ॥१३॥
बरुवुद गुणिसलनंत ॥१४॥ करगदनंत संख्यात ॥१५॥ परिशुद्ध चारत्रिदंक ॥१६॥ विरचित गरगनेयनंत ॥१७॥ ए वशुद्ध चारित्रदतिशयविदलि । अवनियपरिसुव नव मि ॥ सवरदे मेरुवादेनिल्वकुळितिर्प ।। नवयोगशक्तियंकवदु
नवशुद्द दर्शनयोग ॥१६॥ अवर घ्यानिपशुद्धयोग ॥२०॥ अवनियमरेवसुज्ञान ॥२॥ नवमांकदद्वयतयोग ॥२२॥ सुविशाल पृविधारणेय ॥२३॥ अवसरदोळ बंद योग ॥२४॥ सविद्वतनध्यात्मयोग ॥२५॥ नवदेवतेय काम्बयोग ॥२६॥
नवमांकवादिययोग ॥२७॥ अवरु साधिपशक्तियोग ॥२६॥ - मसिद्धपरमात्मएन्नुत ननदलि । ममकारवेन्नात्म
राग ।। समनिसेद्रव्यागम बंधदोळ कटि । दमलात्मयोग चारित्र ते नम शुद्धात्मयोगायेन्नुत । प्रानत भावस्वभाव ।। ध्यानान नदबाह्याभ्यंतर । वेनिल्ल परभावबेनुत हि तयोगवताळ्दयसरदोळ योगि । अतिशय बहिरतरंग ॥ धात्रियनेनहनेल्लव मरेदातनु । प्रीतियोळ्मेरुविना म यनिसिदध्यात्मयोग वैभवकेंदु। सततदुद्योग पर नगि ॥ हितवेनगागेलोकानवेरवेरुवेनेव । मतियुतनागुत योगि
हितदनुभवहोंदिवाग ॥३३॥ अतिशय शिवभद्रसौख्य ॥३४॥ सततदभ्यासव बुद्धि ॥३५॥ हितवीवचारित्रशुद्ध ॥३६॥ हतिसलुवीयांतराय ॥३७॥ हतवुदर्शनमोहनीय ॥३८॥ अथवाउपशमवागे ॥३६॥ अथवाक्षयवागलात्म ॥४०॥ हिनवेशुद्धात्मस्वरूप ॥४१॥ नुत शुद्धसम्यक्त्वसार ॥४२॥ नुतस्वसंवेद विराग ॥४३॥ प्रतिशय सबलविराग ॥४४॥
हितवदेतन्नस्वरूप ॥४५॥ हतकमलीनवात्मनोळु ॥४६॥ अथवास्वरूपाचरण ॥४७॥ गुरुगळाचरिसुव चारित्रसारद । परिये देशचारित्र ।। दिरवि अप्रत्याख्यान दुपशम । बरलयवा क्षयोपशमं
रदे भयवागे देशचारित्रद । दारियु सकलचारित्र ॥ शूर झा निगळसोम्मागुवकालदे । मरने क्रोधादिनाल्कु हि तवल्लदिरुवकषायगळ पशमं । अथवाक्षयदुपशम मा॥ सततोद्योगद फदिवक्षयवागे । क्षिति पूज्यमहावतबहुबु जुजुणु रेनुवदिव्यध्वनि सारद । गणनेयसकलचारित्राा क्षणक्षरएकाग्रतउज्वलवागुत । कुणियुतबहुदात्मयोग
॥२६॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥
॥४८॥ ॥४६॥ ॥५०॥ ॥५ ॥
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॥५॥
॥७ ॥७
॥ ॥
सिरि भूवस्खय
सर्वार्थ सिद्धिसंघ सोर-विली नगेबंद ध्यानदनुभदिदलि । धनवाद यथाल्यात न निसे॥ गुरणस्थानबेरुख परमावधियागे । जिनरयथाख्यातवदु रदेतोरुत जारुतबरतिर्प । चारित्रदंतल्लवद् ॥ शुरन योगददारिइंदसद । चारित्रसार भूवलय
सेरुत गुरणस्थानदन ॥५४॥ सारात्म चारित्रयोग ॥५५॥ भरिवेभवदात्मभोग ॥५६॥ दारियसिद्ध लोकाग्र ॥७॥ नेर कषायवियोग ॥५॥ शूर कषायद भाव ॥५६॥ दारिये शद्धविशेष ॥६०॥ चारित्रवे यथाख्यात ॥१॥ दूरपूर्णतेयाप्रयोग ॥६२॥ शरअयोगीकेवलियु ॥६३॥ प्रारेंद्र ग्रणास्थानदेय ।।६४॥ शूररध्यात्मस्वातन्त्र्य ॥६५॥ गारादसंसारनाश ॥६६॥ नेरदेदेहर्वाजतबु ॥६७॥ पदंडदे कपाटा सारततर लोकपूरणे ॥६६॥
वेरिद बळिक सिद्धत्य ॥७॥ पपूरणं कुभदेम्भत्नाल्कु लक्ष । वशद नौवमृत शरावे॥य हा बदरोळगे अंधानु आकाशदि । नेदचितामणि रत्न भ भद्रवागि बिद्दन्ते मानवदेह । प्रभवनागलु बटुिंद ला ॥ उभयभवार्थ साधनेय तरद्वय । शुभमंगललोक पूर्ण
॥७२॥ निज्ञान चारित्रमूरंग । स्वर्शमरिण सोकलाग ॥ मर्
कट मानवनावन्ते मानव । स्वर्मनर्वाळवदेनरिदे । रखियमेलिई घरेयन्तरंगव । परिपरियणविनविष या । वरिदतन्नात्मन दर्शनबेरसिद । धरेयग्र लोकब होन्द मरवादतिशयथावैभव । वामहात्मरिगिल्लवागे। प्रेम चराचरवन्नेल्ल कारणप। काामान माक्षव पान्दि
भामयोळ कूडुवनात्म ७६॥ प्रेमादिगळगेल्द कामी ॥७॥ श्रीमयसुख सिद्ध भद्र ॥७॥ प्रा महात्मनु भूमियळिद ।।७।। सीमेयगडिदान्टिदभव ।।८०11 नेमदे चिरकालविरुव ॥१॥ स्वामियेजगदादिगुरुतु ॥५२॥ राम लक्ष्मरण हृदयाबज ॥३॥ नामरूपगळे ल्लयळिद ॥५४॥ कामसंनिभनल्लि बेरेद ॥६५॥ गोमटेश्वरनय्य वृषभ ॥६॥ श्री महासूक्ष्मस्वरूप ॥७॥
प्रामहिमनु श्री अनंत ॥८॥ भूमिकालातीत संज्ञा ॥६॥ स्वामि अनन्तकिंवलय ॥६॥ रि द्विवभवलि ज्ञान साम्राज्य । शुद्धदर्शनद अन्
का होवे चारित्रय देहद सेरेमने ।। इदरुबंधर्वाळवद्ध ३. नुविद्द रेनबनमलात्म संपद । जिननन्ददे तानक प बुध ॥ दनुभव होन्बुवध्यात्मदाळिरुवाग 1 घनतेय देहवळियुद्ध रुख मुनिमार्गदारकेयिहदेह । सेरुतलात्मन बळिय ॥ सा 1. बनावाग कारागहतल्ल ॥ सेरिरुवात्मन विडिसे
NE31 यविनिसिल्लदे ध्यानदोळा योगि । नयमार्गवनु बिडदिरव नानियतबोळात्मनो बाळ्वाग ध्यानाग्नि । लयमाळपदघवनेललबनु ॥ शवागलाध्यान तनु कायोत्सर्ग । दसमान पल्यंकय गो वशवेरडरोळोंन्यासनकोळगिई । रस परिपूर्णनागुवनु
वशव रागवनु चितिपनु ॥६६॥ स्वसमाधियोळगे निल्लुवतु ॥७॥ स्वसंपूर्णनागुतलिवनु ॥६॥ हुसिमार्गवनु तोरेदिहनु ॥६॥ बशिवन अपराधगळनुम् ॥१०० यसेवनु कर्म दंडवनु ॥१०॥ होस वीक्षेवडेदनन्तिमनु ॥१०२।। यशवे लक्ष्यवनु साधिपनु ॥१३॥ होसदाद गुरपदोळगवनु ॥१०४॥ रससिद्धियनु बेडदिनु ॥१०॥ कुसुमकोदंडवल्लणनु ॥१०॥ होसहोसपरिचितिपनु ॥१०७॥
॥ १॥ ॥२॥
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४७
सर्वागं 'सद्धि संच बेंगलोर-दिल्ली
एसेवन परद्रव्यगळनुम् ॥ ११०॥ असम भुवलयदोहिनु ॥११३॥ यशद मंगलद प्राभृतनु । ११४ ।। लि चितिप आकुलितेय बिट्टु स्वयंशुद्ध रूपानुचरण तस स्थावर जीवहितवन साधिय । ह्सवळिवेल्ल पौगलिक म श्रवनु || बळिसार्द व्याकुलबेल्लव केडियन । कलिलहन्तकनात्मशुद्ध ॥ ल्लवनुसाधिसुतिर्प कालदोळनुराग । दवयवविनिसिल्लदिनु नवनु ॥ भवंद बिडत परद्रव्यदनुरागद् । जयवन्ने चितिसुतिहनु ॥ ११६॥ त ॥ नवमांक गणितदोळ् स्वद्रव्ययरिवनु । भवभय नाशनकरनु विदऴ्तलेयनोडिनु ॥१२२॥ अवनु निरंजनपदनु ॥ १२३॥ श्रव धर्मवरि ।। १२५॥ कविकल्पनेगे सिक्कदिनु ॥ १२६ ॥ नववतु भागिपनेरडिम् ॥ १२८ ॥ भवसागरवनु गुरिणसुव ॥ १२६ ॥ नवस्वगंगळ कूडिसुव ॥१३१॥ नवसिद्धकाव्य नवलय ॥ १३२ ॥ सम्यक्त्य शुद्धवागिसदेन्दु । श्ररिवह वरु गुरुगळ मनके ॥ बरुवन्ते माउलु सिद्धतानवकेम्ब । परम स्वरूपाचरण य् ॥ साध्य असाध्यवेम्बेरउनु तिळिदिह । श्राद्याचार्यरु हितवर् ॥१३५॥ श्री ॥ सहनेय धर्म निराकुलबेन्नव । महिमेयंकाक्षर वारली
॥१२०॥
2
॥१३३॥ ।। १३४ ।।
च
नवकार जपम् ॥१३०|| रुसनमाड़े परद्रव्यंगळ । बरुवा कर्मद बंध | वर रियोळात्मन संसारवि किन्तु । अरहन्त सिद्धरम् द्रो द्यवागिव चारित्रवम् सारिव । रातराचार्य वर हरिवेचन वाणिबंदिह । महिमेयभद्रसौख्यतु रुद्ध नवाद आ निराकुलितेय । सरमागे मंगलबर श् अरहंतदेवर कृपेयु ।। १३८ ॥
।। १३६ ।। 1179001
ang संख्यात गुणित ॥ १३८ ॥ सरलांकं बुद्धिरिद्धि ॥। १४१ ।। परिपरियतिशय सिद्धि ॥ १४२ ॥ शरणु बंदवर पालिसुव ॥ १४४ ॥ हरदायकबाद वाक्य ॥। १४५ ।। परम सम्यज्ञान निधियु ॥ १४७॥ सरस साहित्यद गणित ॥ १४८ ॥ परमभाषेगेल वरिव ।। १५० ।। अरहंत रोरेद भूवलय ॥ १५१ ॥ वीरमहादववारिणय सर्वस्त्र | शूरदिगंबरमुनियु ॥ सारिद रुगळु दारिवेळ बरुवाग । नरदध्यात्म भूवलय vafaa काव्यसिद्धसंपदकाव्य । श्राशय भव्यभावुक मृ ।। सिभिजित बरुव निर्मलकाव्य श्री शत गणितब काव्य
॥ करुणेय वेरेसिह गरिणतवे गुणिसिह । बरुव दयापर धर्म परमौषध रिद्धिय गणित ॥ १४० ॥ गुरुगळाशिसुतिह सिद्धि ॥१४३॥ परिपूर्ण भरतव सिरियु ॥१४६॥ भरिवु येळन्नदिने दु ॥१४६॥
भ
य
द
न
ज
म
म
ह
afe
दंडित
सिय प्रेमव तोरेदिह
सिरि भूवलय
यशव चारित्रदोकिनु रिसिय रूपिन भद्रदेहि
।। १०८ ।।
॥ १११ ॥
वेळ तलायोग । जयिपपरानुरागवतु ॥ नयव शवदु शाश्वत सुखवेन्दरियुत । असमान शान्तभाववलि || लिबन्द सुखदुःखगळलि श्राकुलितेय | बलवेण्डिहुदेन्द aपद धर्म गरिणतव गुरिणसुत । अवरोळगात्म गौरव यजयवेन्नुत तन्न देहदोळिह । स्वयंशुद्धआत्मन aपढ योगवनबरो रतिथितं । सवियादंकाक्षर सर अवतारविनिसिल्लम्बनु ॥ १२१ ॥ सुविशाल धर्मसाम्राज्य ॥ १२४ ॥ श्रवधरिसुख तत्वगळतु ॥१२७॥
॥१०६॥ ॥ ११२ ॥
।। ११५।।
॥ ११६ ॥
॥। ११७॥ ॥११८॥
२२५२॥ ॥१५३॥
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सिरि मूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
इले
प्रष्ट कर्ममळं निर्मूलवंमाळ्प । शिष्टरोरेद पूर वे काव्य ॥ दृष्टांतबोळगेल्ल वस्तुवसाधिप । अष्टमंगलविह काव्य ॥१५४॥ व नुमन घचनद कृतकारितनुमोद। जिन भक्ति न वाद ॥ गुणकारवेन्नुव गणकरिबंदिह । अनुभव वैभव काव्य ॥१५॥ थळयळिसुद दिव्य कलेगळरवत् नाल्कु। गेलुवंकनम न काव्य ॥ बळेसुत चारित्रव शुद्धगोळिसुत । बळियसारिपदिव्य काव्य ॥१५॥
इळेय पालिप नव्यकाव्य ॥१५७॥ बेळेव सर्वोदय काव्य ॥१५॥ घळिगे वटूटल दिव्य काव्य ॥१५॥ सुळिय बाळेय वन काव्य ॥१६॥ तिळियादसरसाक काव्य ॥१६॥ गिळिय कोगिले दनि काव्य ॥१६२।। यळेवेण्पदनियंक काव्य ॥१६३॥ इळेगादि मनसिज काव्य ॥१६४॥ सुलिवल्ल सुलियद काव्य ॥१६॥
इळेय कळतले हर काव्य ॥१६६॥ बळिय सेरलु व्रतकाव्य ॥१६७॥ गेलवेरिदर व्रत काव्य ॥१६॥ __नलविनध्यात्मव काव्य ॥१६॥ सलुव दिगम्बर काव्व ॥१७०॥ क मांटक मातिनिलि बळेसिह । धर्म मूर्नुररर्व तमूर म्॥ निर्मलवेन्लुत बळिय सेरिपकाव्य । निर्मल स्यावाद काव्य ॥१७॥ त् नगे बारद मातुगळनेल्लकलिसुतम् । विनयदध्यात्म अचल ॥ घनदंकएळ साविरदिन्नुरु तोबत्तु । एनलु अंतराल बरुव ॥१७३॥ ता नल्लिहत्तूवरे साविरअरवत्तारु । रानंदवेरडम्
प्र॥ कायद् हदिनंदुसाविरवेळनूर । कारपदनलवत्तनालकंक ॥१७४।। रो दनबेल्लबनळिसुब (मोडिप) सोहं । प्रावि ओंदोंबत्तु बंद प्रासाधिसि मूरु काव्य बकूडिवक्षर। प्रावि जिनेंद्र भूयलयम् ॥१७॥
इस तीसरे 'या' अध्याय में ७२६० अक्षरांक है। अंतर काव्य में १०,५६६ अंकाक्षर है। कुल मिला देने से १७८५६ अंकाक्षर होते है। अथवा पहला और दूसरा अध्याय मिला कर २८७५५ और दस अध्याय के १७८५६ मिलकर ४६६११ अंक हुए । इस अध्याय में पाने वाली प्राकृत गाथा:
प्राणेहि अरगन्तेहि गुणे हि जुत्तो विशुद्धचारितो। भवभयदन्जणदच्छो महवीरो प्रत्यकत्तारो॥ संस्कृत श्लोक:
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं एन तस्मय श्री गुरवेन्नमह ।।
इस श्लोक में एन के स्थान में व्यंजन "येन" रहना चाहिए था, किन्तु अंक भाषा में स्वर होने के कारण उसे हो रक्खा गया, है या यों समझिये कि घातूनामनेकार्थत्वात् धातुओं के अनेक अर्थ होने से एन, और येन दोनों समान ही है। प्रतः विद्वानों को इसकी शुद्धि न करके मूल कारण का अन्वेषण करना चाहिए।
यह भुवलय नामक अपूर्व चमत्कारिक ग्रन्थ सर्वभाषामयी होने के कारण प्रत्येक पेज ७१८ (सात सौ अठारह) भाषाओं से संयुक्त है अतः इस प्रकार व्यतिक्रम यदि आगे भी कहीं दृष्टिगोचर हो तो उसका सुधार न करके मूल कारणों का हो पता लगाना चाहिए । हो सकता है कि पुनरावृत्ति होने के समय यह स्वयं सुधर जाय ।
(संशोधक)
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तीसरा अध्याय
कर्म भूमि के प्रारम्भ काल में श्री ऋषभनाथ भगवान ने भोले जीवों के अपनी यात्मा को जानना भी अनन्त है, यानो उसमें भी अनन्त गुण । प्रज्ञान को हटा कर अध्यात्म योग के साधनीभूत धर्म ध्यान को प्राप्त करा || देने वाला जो प्रक्रम बताया था उसी को स्पष्ट कर बताने वाला यह भूवलय।। यह सब जान कर अपने अन्दर ही देखना भी अनन्त गुण है ॥१०॥ काव्य है ॥१॥
अपने पाप को प्राप्त करना सारे रत्नत्रय का अङ्क (मुख्य स्थान ) है. धी ग्रादिनाथ भगवान के द्वारा प्राप्त हुये उपदेश से अभ्युदय और नि: सो भी पनन्त है।॥१शा श्रेयस का मार्ग जब सरलता से प्राप्त हो गया तब धर्म रूप पर्वत पर चढ़ने के
सरलता से इस अनन्त को संख्यात राशि से भी गिनती कर सकते हैं। लिए उत्सुक हये आर्य लोगों को योग का मङ्गलमय सम्वाद प्रदान करने वाला। उदाहरण के लिए चौबीस भगवान में से प्रत्येक में अनन्त गुण हैं ॥१२॥ . यह भूवलय ग्रन्थ है ।।२।।
इसी रीति से असंख्यात से भी अनन्त को गुग्गा कर सकते हैं ॥१३॥ .. यह मंगल प्राभूत प्राणिमात्र का सातिशय हित करने वाला है। क्यों
तथा अनन्त को भी अनन्त से गुणा किया जा सकता है ।।१४।। . ... कि ज्ञात और अज्ञात ऐसो सम्पूर्ण वस्तुओं को बतलाकर ऐहिक सुख तथा पार
परमोत्कृष्ट शुद्ध चारित्र का अङ्ग यही है ॥१५॥ माथिक सुख इन दोनों को सम्पन्न करा देने वाला है ॥३॥
इन सभी बातों को ध्यान में लेकर अनन्त की रचना की गई है ॥१६॥ यह मंगल प्रामुन मन को सिंहासन रूप बनाने वाला है। तथा काव्यशैली के द्वारा जिन-मार्ग को प्रगट करते हुए अध्यात्म योग को भीतर से बाहर।
महामेरु पर्वत के शिखर पर अधर विराजमान योगिराज अपनी अपूर्व व्यक्त कर दिखलाने वाला है। तथा यह मंगल प्राभृत या भूवलय ग्रन्थ प्रक्षर
योगशक्ति के द्वारा इस अंक की महिमा को देख पाये हैं ||१७|| यहाँ पर योग विद्या में न होकर केवल गणित विद्या में विनिर्मित महा सिद्धान्त है ।।४। ।
शब्द से पृथ्वी धारण समझना, जो कि विशुद्ध चारित्र के अतिशय से उपलब्ध जानना ही ज्ञान है और अन्दर देखना हो दर्शन है। इन दोनों को पूर्ण-
है हुई है ॥१८॥
ए तया सर्वज्ञ परमात्मा ने ही प्राप्त कर पाया है। जानने और श्रद्धान करने के।
जितना चरित्र अंक है उतना ही दर्शन योग का अंक है ॥१६॥ बीच में मिलकर रहने वाला चारित्र है जो कि अनन्त है ।।५।।
ऐसा संयमी महापुरुषों के शुद्धोपयोग ध्यान द्वारा जाना गया है ॥२०॥ - अब पागे अनन्त माटद की परिभाषा बतलाते हैं
यहां पर बताई हुई पृथ्वी धारणा या सुमेरु पर्वत से पृथ्वी या सुमेरुगिरि : अनन्त के अनन्त भेद होते है जिन सब को सर्वज्ञ परमात्मा ही देख न लेकर अपने चित्त में कल्पित सुमेरु पर्वत या पृथ्वी को लेना, जो कि अपने . सकता तथा जान सकता है यौर दूसरा कोई भी नहीं।६।।
। ज्ञान में गृहोत है ॥२१॥ पाप को भी अनन्त के द्वारा नापा जाता है और पुण्य को भी अनन्त के यह भूवलय ग्रन्य भी उन्हीं योगियों के ज्ञान में योग के समय झलका द्वारा नापा जाता है। याद रहे कि आचार्य श्री ने यहां पर अनन्त शब्द से दया। हुपा है । भूवलय ग्रन्थ नवमा से बद्ध होने के कारण अद्वैत है। क्योंकि १ के धर्म को लिया है ॥७॥
बिना नहीं होता और जहां पर । होता है वहाँ १ अवश्य होता है। एवं सब जीवों में श्रेष्ठ श्री सिद्ध भगवान हैं उनको भी अनन्त से नापा । अव त भी अनन्त है ।।२२॥ जाता है ।।
जो पाभिवीय सुमेरु है वह एक लाख योजन परिमित माना गया है जो
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
कि असंख्यात प्रदेशी है । किन्तु योगियों के ध्यान में पाया हुया सुमेरु पर्वत्र तो विषय को संक्षेप से तीसरे नवमांक बंधन में बांध कर रचा और उसे भी पूर्वोक्त इससे कई गुणा अधिक है, जो कि अनन्त रूप है ॥२३॥
नवमांक में मिला दिया, और जो तीन काल सम्बंधी द्रव्यागम को भिन्न २ उस कल्पित पृथ्वी के ध्यान किये बिना अनन्त का दर्शन नहीं हो। रूप में रचना की गयी थी वह सभी इसी में एकत्रित होकर नवमांक रूप बन सकता ॥२४॥
गयी। यह द्रव्यागम इस भरत क्षेत्र में लगभग अजितनाथ भगवान् के समय तक इस कल्पित पृथ्वी की धारणा मूल पृथ्वी के विना नहीं होती अतः यह । स्पष्ट तथा अस्पष्ट रूप में चला पाया और अंतराल काल में नष्ट-सा हो गया। कथंचित् अति भी है ॥२५॥
पुन: अजितनाथ भगवान ने वृषभनाथ भगवान के कथन को और अनादि कालीन इस विशाल योग में अर्हत् सिद्धादि । देवतायों का समावेश हो जाता | कथन को मिश्रित कर चौथे नवाक पद्धति का अनुसरण करके रचना करते है ॥२६॥
हुए अपने समय के समस्त द्रव्यागमों को पूर्वोक्त क्रम में मिला दिया और संक्षेप जो देवता इसी योग शक्ति के द्वारा अपने अनन्त गुणों को प्रकाश में 1 में अनागत काल में होने वाले समस्त द्रव्यागम को छठवें तथा नववें बंध में लाये हुये हैं ॥२६॥
बांधकर पूर्वोक्त सभी अनादि कालीन द्रव्यागम रूपी नवम बंध में दाँध कर सुर___ इस अद्भुत महत्वशाली योग को हम नवमांक का अादि योग कह । क्षित रक्खा । यह द्रव्यागम संभवनाथ के अंतराल काल तक चला पाया, इसी सकते हैं ॥२०॥
क्रमानुसार सातवें नववे तथा पाठवें नववें भंगादि रूप से भगवान महावीर श्री सनम सिद्ध परमात्म" (सिद्धपरमात्मने नमः ) ऐसा मन में कहते हुए, कुदकुदाचार्य भद्रबाहु स्वामी, घरषेण आचार्य, वीरसेन, जिनसेन और कुमुदेंदु ममकार ही मेरा ग्राम राग है, इस प्रकार अपने मन में भाते हुए द्रव्यागम ! प्राचार्य तक चले आये। इस क्रम के अनुसार कुमुदंदु आचार्य ने अपने समय के बंधन में इसे बांध कर उसी में रमण करने का नाम अमल चारित्र है। । सम्पूर्ण विषय को नवमांक बंध विधि को अपने दिव्य अंक तथा गणित ज्ञान
विवेचन:-यहां कुमुदेंदु प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है कि के द्वारा रचना कर भूषलय रूप से अनादि कालीन-सिद्ध द्रव्यागममें मिला दिया योगी जन बाह्य इंद्रिय-जन्य परवस्तु से समस्त ममकार अहंकार रागादिक को और अनागत काल के सम्पूर्ण द्रव्यागम को भिन्न नवमांक में संक्षेप रूप से बांध हटा कर इससे भिन्न अपने अन्दर योग तया संयम तप के द्वारा प्राप्त करके कर मिला दिया इसी तरह अतीत, अनागत और वर्तमान के समस्त द्रव्यागस देखे हए शुद्ध प्रात्माके स्वरूपमें प्रीति करते हैं, उसी को अपना निज पदार्थ मान एकत्रित करके सुरक्षित रखने की जो विधि है वह जैनाचार्यों की एक अद्भुत कर परवस्तु से राम नहीं रखते अर्थात् केवल अपने प्रात्मा पर आप ही राग ! कला है। करते और उसी में रत होते हुए द्रव्यागम में उसे बांधकर उसी में रमण करते ।
आत्महित में संलग्न होने के अवसर में योगी अतिशय संपूर्ण विश्व की हैं। इसी को अमल अर्थात् निर्मल चारित्र बताया गया है।
बाह्म और आभ्यंतर दोनों प्रकार की वस्तुओं से अपने ध्यान को हटाकर प्रात्मा द्रव्यागम क्या वस्तु है ?
1 में अत्यन्त मग्न होकर मेरु के शिखर के समान निश्चल स्थित होता है ।॥३०॥ श्रो वृषभनाथ भगवान ने अनादि काल से लेकर अपने काल तक चले
1 आत्महित करने के लिये स्वानुकूल योग धारण करते हुए वह योगी आये हुए समस्त विषयों को उपमुक्त क्रमानुसार नवमांक बंधन में बांध कर ।
बहिरंग और अंतरंग अतिशय को प्रगट करने के लिये सम्पूर्ण विश्व की वस्तुओं द्रव्यागम की रचना की । उसके बाद अपने संयम के सम्पूर्ण द्रव्यागम को विभिन्न विधि से नवमांक पद्धति के द्वारा रचा और पूर्व में कथित नवमांक में बांधकर को भूल कर उत्साह से महान मेरु पर्वत के अग्रभाग पर है ॥३॥ मिला दिया । तत्पश्चात् प्रागे अनागत अनंत समय में होने वाले समस्त द्रव्यागम । मथन किये हुए अध्यात्म योग के वैभव को प्राप्ति के लिए प्रयल
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सधि सिदि संघ बैंगलोर-दिल्ली शील होकर लोक के अग्रभाग पर विराजमान होने की इच्छा से ज्ञान युक्त कभी दिखने वाला कभी प्रावरण में छिप जाने वाला यह योगी ॥३२॥
चारित्र मुनियों के योग-मार्ग के द्वारा पाया है उस चारित्र का सार नामक अन्तर श्लोक
भूवलय है ॥५३॥ हितानुभव के बाद ॥ ३३ ॥ अतिशय शिव भद्र सौरव्य ।। ३४ ।। ऐसे चढ़ते पढ़ते सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक चढ़ जाता सर्वदा अभ्यास में रत रहने की बुद्धि । ३५। हित करने वाले निर्मल चारित्र है ॥५४॥ । ३६ वीर्यान्तराय के नाश हो जाने पर । ३७ । दर्शन मोहनीय के नाश
खाने पीने तथा चलने फिरने के व्रत नियम इत्यादि में जो व्यवहार हो जाने पर । ३८ । अथवा मोहनीय के उपशम हो जाने पर । ३६ । अथवा
चारित्र है ऐसा चरित्र यह नहीं है । यह केवल शुद्धात्म योग रूपी सार से उत्पन्न मोहनीय के क्षय हो जाने पर आत्मा । ४० । हित कारक शुद्धात्म स्वरूप ।४१)
होकर पाया हुआ सार-यात्म चारित्र है ॥५५॥ प्रशस्त सम्यक्त्व का सार । ४२ । स्वसंवेदन का और विराग । ४३ । अतिशय
अर्थात् यह आत्म योग के साथ प्राने वाला अद्भुत प्रात्म-वैभव सबल विराग । ४४ । वही हितकारक अपने स्वरूप। ४५ । में लीन पात्मा।
रूपी योग सार है॥५६॥ । ४५ । अथवा इसी स्वरूपाचरण में योगी रत होता है । ४७
लोकाग्र तक चढ़ जाने के लिए यही मार्ग है ।।५७॥
इसी मार्ग से सरलता पूर्वक चढ़ते हुए जाने से कषाय का नाश होता गुरुजनों के द्वारा जो आचरण करने का सार है वही देश चारित्र का ॥५॥ अंश है। देश चारित्र में प्रत्याख्यान का उपशम होने से अथवा क्षयोपशम संसार को बढ़ाने वाला प्रत्यंत शूरवीर एक कषाय ही है । उस कषाय से मनियों के प्राचरण करने योग्य सकल चारित्र प्राप्त होता है । ४८ । सुगम को नाश करने वाला यह शुद्ध चारित्र योग है ।।५।। रीति से प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होकर देशा चारित्र का जो
यह रास्ता शुद्ध है और इसमें विशेषता भी है ।।६।। मार्ग है वही सकल चारित्र है । जब सकल चारित्र की प्राप्ति होती है तब
इसी चारित्र का नाम यथास्यात है॥६॥ भूखीर ज्ञानी दिगम्बर मुनि के तीसरे क्रोधादि चार कषायों का उपशम होता
अयोगी चौदहवां गुण स्थान अग्न अर्थात् पंतिम है ॥६॥
जब अहंत भगवान अयोगी कहे जाते हैं तब इस गुणस्पान में अल्प अकल्याणकारी कषाय के उपशम अथवा क्षयोपशम के सतत काल तक स्थित रहता है ॥६॥ उद्योग के फल से क्षय होकर तीन लोक में पूजनीय महावत होता है ।।५०॥
पाठवें अपूर्व करण गुरण स्थान में दो श्रेणी होती हैं, एक उपशम और जब सकल चारित्र होता है तब 'जुग जुरस' अर्थात् वोगा ध्वनि के नाद दूसरा क्षायिक, जब जीव इस आठवें गुण स्थान में प्रवेश करता है तो उसी के समान जुण जुण आवाज करते हुए दिव्य ध्वनि सार का गणनातीत सकल । एक एक क्षण में हजारों २ अद्भुत प्रात्मा के विशुद्ध परिणामों को देखता है । चारित्र उसो क्षण क्षण में महाव्रत रूप उज्वल होकर नाचता हुआ पात्म-योग। ऐसे परिणाम को अनादि काल से लेकर आज तक कभी भी इस प्रकार नहीं उस मुनि में प्रगट होना है ।।५८||
देखा, इसलिए इसका नाम अपूर्वकरण-गुणस्थान है जब यह संसारी मानव अपने को प्राप्त हुए. अध्यात्म के अनुभव से महान सो यथाख्यात | रूपधारी जीवात्मा संपूर्ण संसार या इंद्रिय-जन्य वाह्य और प्राभ्यन्तर समस्त चारित्र उत्पन्न होकर गुणस्थान चढ़ने योग्य परम समाधि रूपी भगवान ! बासनानों को त्याग कर मुनि व्रत धारण करके एकाकी महान गहन जंगल, केवली जिनेश्वर के अत्यंत निर्मल यथाख्यात निर्मल चारित्र प्रगट होता। नदी, समुद्र तट इत्यादि किनारे पर प्रात्म-योग में स्त होकर जब अपने शरीर है ।।५।।
पर होने वाले अनेक परिषह तथा दुष्ट जन, और क्रूरतियंच इत्यादि द्वारा
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सार भूषजय
मार्य सिद्धि संघ बंगलोड़ दिल्ली
होने वाले उपसर्ग तथा धूप सर्दी बरसात इत्यादिक परीषहों को सहन करते। अब आगे केवली समुद्घात का वर्णन करते हैं:हुए मन में विचार करता है कि जैसा मैंने पूर्व जन्म में कर्म किया था उसी के । अरहन्त परमेष्ठी के जो चार अधातिया कर्म शेष रह जाते हैं उनमें से अनुसार पाप का उदय आकर मुझे फल देकर जा रहा है। इसे तो मुझे एक प्रायु कर्म को स्थिति कुछ न्यून तथा नामादि कर्मो को स्थिति कुछ अधिक आनन्द के साथ सहन कर लेना चाहिए। ऐसा विचार कर वे मुनिराज एक दम होती है तो वे अरहन्त परमेष्ठी अपनी ग्रायु के शेष होने में अन्त मुहूतं बाकी रहने उपशम श्रेणी पर चढ़ जाते हैं । तब इस मुनि को आकाश में गमन करने तथा । पर केवली समुद्घात करना प्रारम्भ करते हैं । सो प्रथम एक समय में अपने आत्मजल के अन्दर गमन करने की ऋद्धि प्राप्त होती है तथा इन्हें यहां पर्वत के प्रदेशों को चौदह राणू लम्बे और अपने शरीर प्रमाण चौड़े ऐसे दण्ड के प्राकार शिखर पर भूमि के अन्दर एवं आकाश मार्ग में गमन करने की शक्ति उत्पन्न । में कर लेते हैं । फिर एक समय में उन्हीं आत्म प्रदेशों को पूर्व से पश्चिम वातहोती है। ऋद्धि के मोह से दूसरे सासादन गुणस्थान में गिर जाता है। वलयों के प्रान्त तक फैला लेते हैं कपाट की तरह । इसके बाद एक समय में
वह मुनि दन पूर्व तक जिन बाणी का पाठी होकर भी फटे हुए घड़े आरम-प्रदेशों को उत्तर से दक्षिण में फैलाते हैं जिसको प्रतर कहा जाता के समान होता है अतः यह भिन्न दश पूर्वी या भिन्न चतुर्दश पूर्वी कहलाता है। है। इसके भी बाद में एक समय में उन्ही पात्म प्रदेशों को वातवलयों तक में भी ऐसे लोगों को महान् प्राचार्य नमस्कार नहीं करते ।
व्याप्त करके लोकपूर्ण कर लेते हैं इस प्रकार चार समयों में करके फिर इसी अब जो क्षपक श्रेणी प्राप्त कर आगे बढ़ने वाला अपूर्व करण गुणस्थानी
1 क्रम से चार समयों में अपने प्रात्म-प्रदेशों को वापिस स्वशरीर प्रमाण कर जीव है वही वास्तविक अपूर्व करगा वाला होता है क्योंकि वह पागे पागे अपूर्व
लेते हैं ऐसे पाठ समय में केवलि समुद्घात करते हैं। इस क्रिया से नामादि तीन यानी पहिले कभी भी प्राप्त नहीं होने वाले ऐसे परिणामों को प्राप्त होता।
अपातिया कर्मों की स्थिति घायु कर्म के समान हो जाती है। इसको स्पष्ट करने हुमा अविच्छिन्न गति से बढ़ता चला जाता है। और वही अभित्र दशपूर्वी या
के लिए कुमुदेन्दु आचार्य ने दृष्टान्त देकर समझाया है कि जैसे गीले कपड़े को
लिए • अभिन्न चतुर्दगपूर्वी होता है, उसी को महात्मा लोग नमस्कार करते हैं।
{इकट्ठा करके रखे तो देरी से मूखता है किन्तु उसी को अगर फैला देवें तो
वह शीघ्र ही सुख जाया करता है उसी प्रकार प्रारमा भी अपने प्रघातिया को - इसी विषय को गणित मार्ग से बतलाने हुए श्री याचार्य कुमुदेन्दु जो
1 को समान बनाकरके खपाने में समर्थ होता है ।
. ने कहा है कि पाठवां गुग्गुम्यान अपूर्व करण है और उससे आगे जो छः गुण
तब अघाति कर्म को नाश कर सिद्ध परमात्मा होना है।६८-७० स्थान हैं उन दोनों को जोड़ने से चौदह होते हैं । अब उन चोदहों को भी जोड़
किसी एक स्थान में विष से परिपूर्ण चारामा ८४ सास्य घड़े रखे हुए देने से एक और चार मिलकर पांच बन जाते हैं। तथा पञ्चम गति मोक्ष है।
हैं उनके बीच में एक अमृत भरा हया कलश है। क्रिमी अंघे पुरुप ने आकाश उसी मोक्ष को अगति म्यान भी कहते हैं ॥३६४||
से इच्छित फल को देने वाले चितामणि रत्न को फेंक दिया 131 . अध्यात्म साधन में जो मुनि इस प्रकार आगे बढ़ना चला जाता है यानी
बह चितामणि रत्न शुभ भाग्य से उस अमृत कुभ में गिर जाता क्षपक श्रेणी में चढ़ना चला जाता है वह अनादि काल में खाये हुए अपने है, उसी प्रकार चौरासी ला जीव-योनि इस जगत में हैं। उसके भीतर अमृत स्वातन्त्र्य को क्षण मात्र में प्राप्त कर लेता है ।।६।।
1 से भरे हुए कुभ के समान एक मनुष्य योनि ही है। उस मानव योनि में पूर्व तब संसार का प्रभाव हो जाता है ॥६६॥
जन्म में किये हुए अल्पारंभ परिग्रह रूपी शुभ कर्मोदय से अंघे मनुष्य के हाथ अन्तिम भव का मनुष्य देह दूर होकर आत्मा अशरीरी बन जाता है। से गिरे हुए रत्न के समान मनुष्य देह रूपो अमृत कुभ में भद्रता पूर्वक जीव अथवा यों कहो कि शरीरी होते हुए अमृत ही रहता है ।६७) I गिर जाता है । यह मनुष्य भव कैसा है ? सो कहते हैं :
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चौथा अध्याय इके ष्टोपदेशव नष्ट पनि । गारने अजार
रो ॥ अष्टगुणान्वित सिद्धर स्मरिसिद । अष्टमजिन सिद्ध काव्य ॥ यक शश्चतिदेविय करविडिदादि । वृषभजिनेशन काव्य ।। अश रोक्ष र सिद्धत्व बडर्दू बाळुव काव्य । ऋषिवंशदादि भूवलय ॥२॥ मू* रुवेळे योळु सामायिकवेनिल्व । वीरजिनेन्द्रदारियद ॥ सेरि ए* वृतियतिशयदनुभव | सारभव्यर दिव्य काव्य ॥३॥ लक्षवरियुत स्वसमयवद सारि । अक्षरदंकदोवे र सि* ॥ शिक्षयोळेविंद्विय मत्तु मनवनु । लक्षणविस्तब्धगोळिसि ॥४॥ तनुवनु मरेयुत जिनरूपे नानेब । धनविद्य यनुभववागे ॥ म नवेसिमहासनवागिरलमलात्म । जिननंते कमलदासनदि ॥५॥
इनवैभवदिद कुळितु ॥६॥ जिननंते कायोत्सर्गदलि ॥७॥ अनुदिनदम्यासबलदि ॥८॥ दिनदिनयोगहेच्चुतिरे ॥६॥ इन तैतपिन ज्योति ॥१०॥ घनवागि बेळमुलिरतु ॥१॥ तनगेताने ब्रह्मनेनुव ॥१२॥ जिन धर्मदनुभव बरलु ॥१३॥ ऋगव देहब मरेतिहरु ॥१४॥ एरिणकेगे बारध्यात्म ॥१॥ घनप्रतिक्रमण तानागे ॥१६॥ चिनुमय मुद्रेयदोदगे ॥१७॥ घनरत्न मूरर बेळकु ॥१८॥ तनगेताने बंदु बेळगे ॥१६॥ मनुमयनुपटल करगे ॥२०॥ जिननाथनोरेद भूवलय ॥२१॥ तनुविनोळात्म भूवलय ॥२२॥ वेनुर्तितु निलुव कुळिरुव ॥२३॥
तनुवदे स्वसमय सार ॥२४॥ न* प्रवदकंदंते स्वयम् परिपूर्णद। अवयवत्रदे शुद्ध गु* पद ॥ अवतार स्थानद हदिनाल्करत्नद । चिनुमय सिद्ध सिद्धांत ॥२५॥ त नुवनु परदरियुत प्रापर। दनुरागवनु तोरेदाग ॥ जिन र सिद्धर रूपिननुभव हेच्चुत । तनु रूपिनंतात्म रूप ॥२६॥ कर रगुवुदास्रव बरुव बंधवदिल्ल । निराकुलतेय पद्म वै । सरमालेयते तन्नेदेयलिकारणबाग । अरुहनपददंग गुरिणत ॥२७॥ दल रतरवाद अद्भुतपरिणामद । सरस संपदवेल्न अव न* ॥ हरुषवनेरिप समयद लधियु। बरुवागना अंतरात्म ॥२८॥
वरुवाग प्रबनतरात्म ॥२६॥ परिणाम लधियागुवदु ॥३०॥ बरलरहंत तानेनुव ॥३॥ वरुषवर्द्धनकादि एनुव ॥३२॥ बरे बरुवाग तन्नात्म ॥३३॥ गुरुवादे जगकेएंदेनुव ॥३४॥ अरहंतरनु कंडेनेनुव ॥३॥ परिशुद्ध नाने एंदेनुष ॥३६॥ परमात्म पदवडनुव ॥३७॥ गुरुपद दोयितेबेनुव ॥३८॥ सिरियायतुज्ञानवे दनुव ॥३६॥ परममंगलनाल्कु एनुव ॥४०॥
परमात्म चरण भूवलय ॥४॥ ता नु तन्नंद पडेव कार्यदोळिर्प । आनन्द शाश्वत सुख म ॥तानु तन्निदले तनगागि पोंदुव । तानल्लदन्यरिगरिया ॥४२॥ सिवनव बाश्वत निर्मल नित्यन् । भवयनेल्लय केडिसुय ह ॥अविरल सुखसिद्धियवने महादेव । अवनादि मंगल भद्र ॥४३॥ रिजियाशेय होडविरुव चिन्मयनु । शुद्धत्ववेल्लमह __ श री ॥ बुद्धिद्धियाचार्य पाठक साधुवु । शुद्ध सम्यक्त्वपसारा ॥४४॥
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सिरि मूवलय
सर्वार्थ सिबि संघ मंगलोरस्ती वो तरागनु निरामयनु निर्मोहिय । कातरविनितिल्लविह ॥ त्यात रो यो बाळुब भव्यरिगाश्रय । पूत पुण्यनु शुभ सौख्य ॥४५॥ रोष तोषगळिल्ल क्रोध मोहगाळल्ल । प्राशेयनंतानुबंब ॥ पर असरिसलेडेयिल्लदवननुभव काव्य। श्री शन सिद्ध भूवलय ४६॥
श्री शनाडिद दिय्य वाणि ॥४७॥ घासि अप्रत्याख्यान ॥४८॥ राशि कषायगाळगुम् ॥४६॥ मासुत प्रत्याख्यान ॥५०॥ रोषद सूक्मसम्ज्वलन ॥५१॥ लेसिन जलरेखेयन्ते ॥५२॥ पाशाजलद संज्वलन ॥५३॥ लेसिनि भावदोळ मेरेये ॥५४॥ तासुतासिनोळगनन्त ॥५॥ राशिकषायभेदगळ ॥५६॥ घासिय माडुतबहुदु ॥७॥ लेसिन जलरेखेयन्ते ॥५॥ मासदे बन्दुसेरुवुदु ॥५६॥ प्रासेय भेदविज्ञान ॥६॥ राशिमाळपुदु तुषगळनु ॥६१॥ माषदकाळिनन्तात्मा ॥६२।। श्री सनन्ददलि योगदोळु ।।६३॥ श्री सिद्धालयबे अल्लिहुदु ॥६४॥
आसिद्धालयद अनन्त ।७॥ राशिय सिद्ध भूवलय ॥६६।। इ® दरोळगिरुव षद्रव्यगळेल्लव । हुदुगिसिकोडिह प न स || पाली पंगास्तिकायरे । अदु मत्त एलु तत्वगळ ॥७॥ न वपदार्थगळेम्ब अवसर वस्तुब । नवयवदोळु तुम्बि म* रळि ।। अवनेल्लयनोन्दकूडिसि तिळियुव । अवुगळ लेक्कवे जीव ॥६॥ * रुशन ज्ञान चारित्रव वशगोन्डु । सरमाले इवनेल्ल मुरु गु शरदप्रोम्बत्तेळू ऐदारु कूडलु बरुद् दिप्पत्तेळरंक ॥६ ॥ भू वलय सिद्धान्त दिप्पत्तेर्छ । ताबल्लवन होन्विसि * द॥श्री वीरवारिणयोवह "इ" मंगल काव्य । ईविश्वदूर्वलोकदलि ॥७॥ दि* वगळग्रद तुत्ततुदियलि बेळगुन । शिवलोक सलुब मान वर वरु ॥ धवल छत्राकार दप्रदगुरुलघु । सवियात्म गुणदोळगिहरु ॥७॥
प्रवरव्याबाघ गुरणरु ॥७२॥ नवनवोदित सूक्ष्म धनरु ॥७३॥ अवरवगाहदोलिहरु ॥७॥ सवियनन्तद ज्ञानधररु ७५॥ नव सम्यक्त्व दर्शनरु ॥७६॥ अवरनन्तानन्त बलए ॥७७॥ अवरनागत सुखधररु ॥७॥ प्रवरती तद ज्ञानधररु ॥७॥ सविरुपिनशरीर घनरु ८०॥ अवरुशाश्वतरुचिन्मयरु ॥५१॥ प्रवरावागलु नित्यर ॥२॥ अवरसुखयु वेकेन्वेनुव ॥३॥
नवपद काव्य भूवलय ॥४॥ विश्वदग्रके गमनबनिटु प्रायोगि। विश्वेश्वर सिद्धवर चे* ॥दस्वरूपरध्यानिसुत भावदोळिप । विश्वज काव्यवविद ॥८ ॥ प रमामृतकाव्य अरहन्त भाषित । गुरु परम्परे यादि प* दद ।। गुरु सिद्धपदप्राप्तियागबेकेम्वगें। सरसविद्यागम काव्य 11८६॥ प* डतियोल चक्रबंध हंसदबंध । शुद्धाक्षरांक र क्षेयतु ।। होविद अपुनरुक्ताभर पद्मव । शुद्धद नवमांक बंध 1८७॥ व र पम महापद्म द्वीप सागर बंध। परम पलयद अ म्* बुबंध ॥ सरस सलाके श्रेणिय अंकदबंध । सरियागेलोकदबंध ॥५॥ रोक मकूपद बंध क्रौंच मयूरद । सीमातीतद वन्ध ।। कामन प* दपद्म नख चक्रबंधद । सीमातीतब लेवक बन्ध ॥
ने मदकिरणदबंघ ॥६॥ स्वामिय नियमदबन्ध ॥१॥ हेमरत्नद पद्मबन्ध ॥१२॥ हेमसिंहासन बन्ध ॥१३॥ ने मनिष्टेय व्रतबन्ध ।।६४॥ प्रेमरोषव गेल्दबन्ध ॥ श्री महावीर नबन्ध ॥६६॥ ई महियतिशयबंध ।६७॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिली सिद्ध हो जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो जाने से स्वयं ही कमनीय मर्दन, कपड़े लत्त, कोट कम्बल इत्यादि अनेक प्रकार के चीजों की जरूरत पड़ती हो गया ।
है। जब वह संसारी जीव मुनि वत धारण करता है तब उसे अपनी पात्म रक्षा ऐसे गुण विशिष्ट कौन हैं ? तो कहना होगा कि वे युग के प्रारम्भ में करने के लिए शरीर की रक्षा करना पड़ता है। अनादि काल से शरीर रूपी होने वाले गोम्मटेश्वर के पिता जगद् गुरु ग्रादिनाथ भगवान हैं ।६।
कारागृह में बन्धे हुए प्रात्मा को बाहर निकाले बिना उसकी सेवा नहीं हो सकती घे सबसे महान हैं तो भी सबसे सूक्ष्म हैं ।८७
क्योंकि शरीर की सेवा वास्तविक सेवा नहीं है क्योंकि उसकी सेवा जितनी अनन्त गुणों के स्वामी होने के कारण वे महान है ।।
ही अधिक की जाती है उतनी ही और आकांक्षा दिनों दिन बढ़ती जाती है पर क्षेत्र और माला की परिधि से रहित हैं ।।
यदि आत्मा की सेवा एक बार भी सुचारु रूप से हो जाय तो पुन: कभी भी अनन्त प्रकवलय मे वेष्टित हैं अर्थात् इनके अनन्त गणों को अनन्त उसकी सेवा करने की पावश्यकता नहीं पड़ती। अतः आत्मा को शरीर से मुक्त अंकों के बलयों से ही जान सकते हैं ।
करला ही यथार्थ सेवा है ॥१३॥ महत सय में ऋषियों का भामा, पूरा ज्ञान साम्राज्य प्राप्त ।
तिल मात्र भी भयभीत न होते हुए जब ध्यान में रत होकर नयमार्ग था, योर चारित्र में लीन थे इसलिए परमौदारिक देह में रहने पर भी देश के को म छोड़ने वाले नियम से प्रात्मा में रत होने वाला योगी ध्यानाग्नि के द्वारा विकारों से अलिप्त थे इसीलिए उन्होंने अन्त में देह बन्ध को तोड दिया अनन्त कालीन पापकी निर्जरा करले, इसमें क्या पाश्चर्य है ? अर्थात नहीं है।
जिनका मन अपने पात्म सम्पत्ति में लीन है वह हमेशा भगवान । निर्भय होकर योगी नये मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। नियम से जिनेश्वर के समान प्रक्षुब्ध अर्थात् राग रहित बीतरागी होकर अपने प्रात्मानु- आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन होता है तब ध्यानाम्नि द्वारा अनन्त राशि भव में लीन रहता है। इस प्रकार से अक्षुब्ध आत्मानुभव में रत रहने वाले । संचित पाप कर्मों का नाश कर देता है । इसमें कुछ भी आश्चर्य नही है ।१४। के अत्यन्त निबिड कर्मों की अनन्त निर्जरा होती है।
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है किॐ नमः सिद्धन्यः
योगी समस्त मदों से दूर रहकर व्यवहार और निश्चय दोनों नय मार्ग विवेचन
का आश्रय लेता हुमा स्व वशीकृत खङ्गासन अथवा पदमासन से ध्यान में रत श्री कुमुदेन्दु पाचार्य ने इस श्लोक में शुद्धात्म रत ध्यानी योगी के होता है और तब स्वरस से परिपूर्ण हो जाता है । ६.५॥ योग सामर्थ्य का वर्णन इस प्रकार किया है कि ज्ञानो योगी के शरीर होने पर स्वरस में परिपूर्ण हो जाने पर अपने वशीभूत हुए मार्ग का ही चितवन भी न होने के समान है, कारण यह है कि जिस योगी का मन सदा अात्म- करता है ।९६. सम्पत्ति रूपी सम्पदा में मग्न रहता है वह हमेशा वीतराग जिनेन्द्र भगवान के स्वसमाधि में स्थिर हो जाता है ।१७। स्व में सम्पूर्ण हो जाता है । समान अक्षुब्ध है, ऐसे शुद्धात्म अनुभव में रहनेवाले योगी के अनादि काल से । समस्त मिथ्या मार्गों को छोड़ देता है । पूर्वकृत अपराधों को बहा देता . लगे हुए अत्यन्त कठिन कर्मों के पिघलने में क्या देरी है ? अर्थात् कुछ नहीं। । है ।१००। कर्म रूपी दंड को जला देता है । १०१५ नवीन दीक्षित को जैसे
इसप्रकार श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने यहां तक सिद्ध भगवान तथा अर्हत । आनन्द का अनुभव होता है वैसा प्रानन्दानुभव होने लगता है ।१०२। यश को भगवान के गुणों का वर्णन किया । अब १३ तिरानवे श्लोक से प्राचार्यादि पैदा करने वाले लक्ष्य को सिद्ध कर लेता है ।१०३ नवीन गुणों की वृद्धि से तीन परमेष्ठियों के स्वरूप का वर्णन करेंगे।
युक्त होता है ।१०४। इस सिद्धि की इच्छा से रहित होता है। संसारी जीव को अपने शरीर की रक्षा करने के लिए तेल, साबुन, ।
भावार्थ-संसारी जीव जिस प्रकार नाना ऋद्धियों की इच्छा से
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सर्वार्थ सिद्धि मंप नेगलोर-दिल्ली पाकुलित रहता है इस प्रकार यह किसी भी ऋद्धि की इच्छा से आकुलित रहा वे अपने रस सिद्धि की कठिनता और उसके लिए किये गये परिश्रम का नहीं रहता। यहां उपयोगी होने से श्रीभर्तृहरि पौर शुभ चंद्रो चार्य का कथानक । बार बार बसान करते हुए उलाहना देने लगे। लिख देना उचित है । एक राजा के दो पुत्र थे, एक का नाम भर्तृहरि और दूसरे। यह देखकर शुभचन्द्र तो जमीन पर से धूलि चुटकी में उठाई और' का नाम शुभचन्द्र या संसार की दशा का विचार कर दोनों वैरागी हो बनवासी शिला पर डाल दी जिससे सम्पूर्ण शिला सोने की बन गई और भाई भतृहरि हो गये । मतं हरि रस प्रादि ऋद्धियों के साधन करने वाले गुरु के शिष्य हो से बोले कि--भाई ! तुमने अपने इतने समय को व्यर्थ ही रस सिद्धि के फेर में गये और शुभचन्द्र किसी भी ऋद्धि को न चाहने वाले प्रात्म योगी वीतराग पड़कर गवा दिया । सोने से इतना प्रेम या तो अपने राज महल में वह क्या साधु के शिष्य बने । भर्तृहर ने बहुत वर्षों की साधना के बाद रस ऋद्धि को। कथा
। कम था । वह वहां अपरिमित था। उसे तो प्रात्म गुण की पूर्णता प्राप्त करने प्राप्त को अर्थात् इस-पारद को सिद्ध कर लेने के कारण सुवर्ण बनाने लगे।
नाम के लिए हम लोगों ने छोड़ा था । आत्मसिद्धि हो जाने पर वह जड़ पदार्थ अपने
निरा एक दिन उन्हें अपने भाई का ख्याल पाया कि मैंने तो रस सिद्धि प्राप्त किस काम का है? इसलिए यह सब छोड़कर बात्म सिद्धि में लगाना उचित है। करलो है और मेरे भाई ने क्या सिद्ध किया है इसलिए एक शिष्य को शुभचंद्र
है शुभचन्द्र की यह यथार्थ बात सुनकर भर्तृहरि को यथार्थ ज्ञान होगया की तलास में भेजा। इधर उधर खोजते हुए शिष्य ने शुभचंद्र को दिगम्बरमौर बेदिगम्बर वीत रागी यथार्थ साप बन गये। (वस्त्र आदि के प्रावरण से रहित) वेप में देखा और मन में सोचा कि हमारे ।
है इसीलिए योगी आत्मसिद्धि करते हैं और इस सिद्धि की तरफ लक्ष्य गुरु के तो बड़े ठाठबाट हैं परन्तु इनके शरीर पर तो बस्त्र तक नहीं हैं। प्रस्थिमात्र शेष हैं, माहारादि भी नहीं मिलता। इस तरह मन में दुःखित हो शिष्य ।
नहीं करते ११०५॥ गुरु भर्तृहरि के पास लौट गया और सब वृत्तान्त कह सुनाया।
रस सिद्धि जब नहीं चाहते तब काम देव का प्रभाव उनपर पड़ ही कैसे भतृहरि ने अपने भाई की यह दशा सुनकर सिद्ध रस तू बड़ी में भरप
अपने भाई की यह दशा मतकर मिल रस पीने भर सकता है ? पर्थात् कामवासना उनको नहीं सताती ।१०६ मेजा और कहलाया इससे मन चाहा सोना बनाकर वस्त्र आहार आदि आवश्यक
योगी उस समय नवीन नवीन पदार्थों का ध्यान में चितवन करता वस्तुओं को प्राप्त करना ।।
है।०७। क्षुधा प्रादि परिष है पर विजय करते हुए शरीर से दंडित करता शिष्य सिद्ध रस से भरी नुम्बडी लेकर शुभचंद्र के पास पतंचा और गरु ।।१०८। कोति देने वाले चारित्र में स्थिर रहना है ।१०६। पर द्रव्यों का वक्तव्य कह सुनाया। शुभचंद्र ने यह सब मना, मन में भत हरि की बदि पर की फक कर पृथक कर देना है।११०। दिखावटी प्रेम से रहित होता है।११॥ दया भाव किये पीर शिष्य से कहा कि इस रस को फेंक दो तो बह धम साध्य
इसी प्रकार के ऋषि रूप को धारण करने वाले भद्र देही होते सिद्ध रस को इस प्रकार निरर्थक फेंकने के लिए राजी न हया । परन्तु बापिस है।११।। रस को ले जाने से गुरु नाराज हो जायेंगे इस बात से इसको शिला पर फेंक देना इस मध्य लोक की पृथ्वी पर रहकर भी पात्म रूपी भूबलय में रहता पड़ा । वापिस लौटकर अब गुरु भतहरि से सब वृत्तांत कहा तो वे बड़े दुःखित है अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वभाव में रत रहता है ।११३॥ हुए और स्वयं भाई के पास पहुंचे। शुभचन्द्र को अत्यन्त दुर्वल देखकर विश्व से ख्याति को आत्मा को फैलाने वाले मंगल प्राभूत में रहता आश्चर्य में आ गये और सिद्ध रस लेलेने का आग्रह करने लगे। भत हरि की । है ।११४॥ भ्रांति को दूर भगाने के उद्देश्य से शुभचंद्र ने रस भरी तूंबडी पत्थर पर पटक विशेषार्थ:-समस्त मंगल प्राभूत में २०७३६०० अक्षर अंक है वे ही दो जिससे सब रस फैल गया । अब तो भर्तृहरि के हाहाकार का ठिकाना न । पुनः पुनः धुमा फिरा कर समस्त भृवलय में प्रयुक्त हुए हैं इसलिए भूवलय ही
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सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली मंगल प्राभूत है मौर मंगल प्राभूत ही भूवलय है । इसी भूवलय के अक्षरों को। अङ्क और अक्षर को समान देखते हुये वह भव भय का नाश करने वाला भिन्न भिन्न प्रणालि से भिन्न भिन्न पृष्ठों के पड़ने पर ३२४०० भूवलय बन होता है ॥१२०॥ जाते हैं।
जब तक कि यह संसारी जोब नवम अंक और अक्षरों में भेद समझता सर्व जीवों के भय को निवारण करने वाले योगी को भय कहां से । जा रहा था तभी तक इसको जन्म मरण करना पड़ रहा था। अतः जब उन पायेगा । जिस योगी ने परानु राग को जीत लिया है इन योगी राज को भय । दोनों में अभेद स्थापना कर लेता है तो सहज में जन्म मरण से रहित हो जाता कहां से होगा, स्वयं शुद्ध रूपानु चरण में रत रहने वाले योगी को भय कहां? ! है। ।।१२। । सम्पूर्ण नय मार्ग की प्राकुलता को छोड़कर आत्म चितवन में रहने वाले योगी। अज्ञान रूपी जो अंधकार था अब वह मष्ट हो गया अर्थात उसको पूछता है कि भय कैसा है ॥११॥
भगा दिया ॥१२२॥ जो योगी असमान शान्त भाव में रहने के कारण अस स्थावर जीवों
वह योगी निरंजन पद का धारी होता है ।।१२३॥ के हित को साघन करने वाला होता है, बह योगी शाश्वत मुक्ति सुख को !
जनको विशाल धर्म साम्राज्य मिल जाता है ।।१२४॥ प्राप्त कर लेता है । क्योंकि वह योगी देहादिक संसार के सम्पूर्ण पोद्गलिक धर्म रूपी पर्वत की शिखर पर पहुंच जाता है ।।१२।। पदार्थो को अपने से भिन्न समझता है और वह योगी विचार करता है कि इन अर्थात् धर्म द्रव्य लोक के अन्त तक है इस लिये यह आत्मा उसके अन्त पौद्गलिक पर पदार्थों में होने वाले सुख दुःख की याकुलता का कितना बल है । तक पहुंच जाता है। इसको मैं देख बूंगा। इस प्रकार धैर्य धारण करते हुए सम्पूर्ण कर्म मल
उसकी कवि कल्पना भी नहीं कर सकता है ॥१२६।। को नाशकर शुद्धात्मा बन जाता है ॥११६-११७||
अपने भात्म-तत्व के साथ अन्य संपूर्ण तत्व को जानता है ।।१२७।। अर्हत्सिद्धादि नव पदों को गुणा कार रूप अपने प्रात्म गौरव को बढ़ते सभी गणित शास्त्र तत्वज्ञों का यह कथन है कि नव प्रक को दो अंक हुए वह योगी अपने आत्मस्वरूष को शुद्ध बनाता है तो उसके पास पर पदार्थों से विभाजित करने पर शेष शून्य नहीं आता है किन्तु जैनाचार्यों ने असाध्य कार्य के प्रति तिलमात्र मी राग नहीं रह जाता है । ११८॥
को भी साध्य कर दिया है, अर्थात् नब को दो से विभाजित करके शेष शून्य को हे पात्मन ! जय हो जय हो ! इस प्रकार परम उल्लास को प्राप्त होते । बचा दिया है। इसका विवरण दूसरे अध्याय के विवेचन में कर चुके हैं, वहां से हए तथा पर पदार्यों के लगाव को दूर हटाते हुए केवल अपने शुद्ध प्रात्मा के । समझ लेना ॥१२॥ चितवन में ही लीन हो रहा है ॥११॥
यह योगी अनादि काल से चले आये भव समुद्र के जन्म रूप जल के __ वह योगी-जब अहंसिद्धादि नव पदों के चितवन में एकाग्रतापूर्वक ! कणों को ऊपर रहे हुए गरिणत रूप से जान लेता है । तल्लीन होता है एवं नवम अङ्क की महिमा को प्राप्त करता है तब उस समय । नवकार मंत्र को जपते रहता है ।।१२०॥ उस नवम अङ्क की महिमामय अपने माप को ही अनुभव करते हुए तथा नवम | म. इ. उ ऋ ल ए ऐ. प्रो. प्रो. इन नव स्वरों को मिला देता है। ऐसे
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सर्वार्थ सिद्धि संघ वेगलोर-दिल्ली योगियों का गुण गान करने वाला यह भूवलय है। परद्रव्य के दर्शन करने से । आये हुए जीवों की रक्षा करता है सभी जीवों को हर्ष उत्पन्न करने वाला यह जिस कर्म का बंध होता है वह कर्म सम्यक्त्व को शुद्ध नहीं करता है जैसा मर-1 वाक्य है। यह वाक्य सम्पूर्ण भरत खंड की सम्पत्ति है ॥१४६!! हत, प्राचार्यादि, गुरुयों ने समझाया है। परम स्वरूपाचरण में परमोत्कृष्ट सम्यग्ज्ञान की निधि है ।।१४७।।
रहने वाले प्रात्मा को संसार से निकाल कर सम्यक्त्व चारित्र में रहने के सुलभ साहित्य का गणित है ।।१४८॥ कारण मन की ओर अरहंत और सिद्धों को लाकर स्थिर करने से सिद्ध पद परम उत्कृष्ट ज्ञान को ७१८ भाग में विभाजित किया गया है ।।१४६॥ प्राप्त होता है । ऐसा अरहंत परमेष्ठियों ने कहा है । अर्थात् कानड़ी काव्य का । उन अनेक प्रकार की विधियों को भाषाओं के नामसे अंकित किया है १ छन्द सांगत्य २ चरित्र में ही गभित है ऐसा भी इसका अर्थ होता है। वे सभी इस भूवलय में हैं ॥१५॥
जिन जिन भावों में जो असाध्य है, इस बात को वृषभ ! इसलिये अरहंत देव ने ही इस भूवलय का कथन किया हे ॥१५क्षा सेन आदि प्राचार्यों ने साध्य कहा है भव्य जीवों को प्राचार विचार चारित्रादि में इस श्री महावीर की सर्वांग सुन्दर दिव्य ध्वनि को शूर दिगम्बर मुनियों ने स्थित करने वाले अन्य भागम में किसी प्रकार उघृत नहीं किया है ।।१३शा मार्ग में बिहार करते समय अध्यात्म रूप में लिखा तद्रूप यह भूवलय ग्रन्थ हैं।।१५२।।
सभी माचार्यों ने परम्परा परिपाटी के अनुसार मंगल तथा सुख मय । इस काव्य को पढ़ने से सम्पूर्ण कषाय नष्ट हो जाती है। शेष को नष्ट निराकुलतायें सराहनीय धर्म को अंकाक्षर मिश्र रूप से उत्पन्न होने वाली वाणी । कर सिद्ध पद को प्राप्त करता है। इस लिए भव्य भावक (जीवों) मनुष्य के की परम्परा पद्धति के अनुसार ही भगवान महावीर की वाणी से लिया है, . द्वारा इसकी आराधना करते हुए गुणाकार रूपी काव्य है ॥१५३] इसलिये यह वाणी यथार्थ रूप है ॥१३६॥
इस भूवलय ग्रन्थ में साठ हजार प्रश्न है । इन प्रश्नों उत्तर को देते समय __ यह निराकुल अर्थात् प्राकुलता रहित मार्ग मंगल रूप होने के कारण संतोष प्रत्येक प्रश्न पर दृष्टान्त पूर्वक विवेचन है। इस ग्रन्थ को चौदह पूर्व तथा की वृद्धि करने वाला है। और परम अर्थात् उत्कृष्ट करुणामय गणित से । उस से प्रकट हुई वस्तु भी कहते हैं। जिन्होंने प्रष्ट कर्मों को नष्ट किया है ऐसे निकल आता है, इसलिए इसका दूसरा नाम दयामय धर्म भी है ॥१३७।। भगवान ने कहा है । अतः इस भूवलय ग्रन्थ में अष्ट मंगल द्रव्य हैं ॥१५४।।
यह धर्म परहंत भगवान के मुख कमल से प्रकट हुआ है ॥१३८।। जिनेन्द्र देव की भक्ति करते समय मन वचन काय को कृत कारित अनुसंख्यात अंकों से भी गुणा कर सकते है ॥१३॥
मोदना इन तीनों से गुणा करने से नौ गुणनफल आता है। फिर इन अंकों को उत्कृष्ट प्रौषध ऋद्धि गणित को यह बतलाने वाला है ।।१४०॥ अरहन्त सिद्धादि नौ पदों से गुणा करने से ८१ (इक्यासी) संख्या हो जाती है। आठ प्रकारों की बुद्धि ऋद्धि को सुलभ अंकों से बतलाने वाला है ॥१४॥ इस प्रकार गणना करने वाले 'गणक' ऐसा कहते हैं । उन गणकों के अनुभव में भित्र भिन्न अनेक अतिशय युक्त सिद्धि को प्राप्त करा देने वाला है।।१४२॥ ३ घाया हुआ यह भूवलय ग्रन्थ है ॥१५॥ भव्य जीवों का उपकार करने के लिए प्राचार्यों ने लिखा है ॥१४३॥ । इस भूवलय में चौसठ कलायें है। यह सब चौसठ कलाऐं नौ अंक संसार सागर में अनेक बार भ्रमण करते करते प्रत्यंत मय भीत होते 1 में ही अन्तर्गत हैं। यह नौ अंक समस्त जीवों के चारित्र को शुद्ध करते हुए
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५३
सिरिमूवलय
अपने श्रात्मा के समीप में लाने वाला यह दिव्य भुवलय काव्य है ।। १५६ ॥ जनता का पालन, सच्चरित्र द्वारा कराने वाला यह काव्य है || १५७।। इस काव्य को पढ़ने से सर्व प्रकार की उन्नति होती रहती है इसलिये सर्वोदय काव्य है ।।१५८॥
काल को बताने वाली जल घटिका के समान यह दिव्य एक है।। १५६ ॥ केलों के पत्ते के उद्वम काल में जैसी कोमलता और सुन्दरता रहती है वैसे ही यह मृदु सुन्दर काव्य है ॥ १६० ॥
अत्यंत सूक्ष्म अक्षर वाला यह सरसांक काव्य है ॥ १६१ ॥
तोता और कोयल के शब्द के सामान सुनने में प्रिय लगने वाला यह काव्य है ।। १६२ ।।
कुमारी बालिका की बोली जैसे लिक होती है वैसे ही यह काव्य सुनने में है ॥ १६३॥
सुनने में प्रिय लगती है और मांगप्रिय लगता है और मंगल को देता
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर- दिल्ली
की वाणी भी मूल में इसी भाषा में प्रचलित हुई थी इसलिए ग्रन्थ को कुमुदेन्दु आचार्य ने इसी भाषा में लिखा है ।
प्रथम कामदेव गोम्मदेश्वर का यह काव्य है ।। १६४ ।।
श्रदंत धावनदि श्रठाईस मूल गुरणों को धारण करने वाले दिगम्बर मुनियों का यह काव्य है ।। १६५ ||
सम्पूर्ण जगत के अज्ञान अंधकार का नाश करने वाला मह काव्य है । ॥१६६॥
इस काव्य का अध्ययन करने वाला मनुष्य व्रती बन जाता है ।। १६७।। व्रत को उज्ज्वल करने वाला यह काव्य है ।। १६८ ।।
श्रानन्द को अत्यंत बढ़ाने वाला यह आध्यत्मा काव्य है ।। १६६ ॥
दिगम्बर मुनि विरचित यह काव्य है ॥ १७० ॥
जिसको कर्णाटक कहा जाता है उस भाषा का नाम वास्तव में कर्नाटक है
यह बात करर्णाटक राज्य के दो करोड़ प्रादमियों में आज भी प्रचलित है। भगवान
इस भूतल पर तीन सौ त्रेसठ मत देखने में आ रहे हैं जो कि एक दूसरे से परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं और सदा ही लड़ते रहते हैं उन सब को एकत्रित करके मंत्रीपूर्वक रखने वाला स्याद्वाद है एवं उस स्याद्वाद के द्वारा श्री प्राचार्य ने इस भूवलय ग्रन्थ में बड़ी खूबी के साथ शांतिपूर्वक उन सब को अपनाया है ।। १७१।।
इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से जिन भाषाओं का लाभ हमको नहीं हैं उन सब भाषाओं का ज्ञान भी सरलता पूर्वक हो जाता है। एवं विनय पूर्वक इसका अनुमान करने से अध्यात्मसिद्धि होकर वह आदमी अचल बन जाता है । इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले इस तीसरे अध्याय में, ७२६० अङ्क हैं जिन में श्रा जाते हैं ऐसे दश चक्र हैं। उन्हीं दशचक्रों को दूसरी रीति से पढ़ने पर १०५६६ अंक और निकलते हैं । इन दोनों को मिलाने पर १४४ कम १८००० काक्षर हो जाते हैं ॥ १७२ ॥
सम्पूर्ण संसार के दुःख को नष्ट करने वाला सोऽहं यह अपूर्व मन्त्र हैं इसका अर्थ होता है कि युग के प्रादि में होने वाले भगवान ऋषभ देव की सिद्धात्मा का जैसा स्वरूप है वैसा ही मेरा भी स्वरूप है ।
प्रश्नः - सिद्ध भगवान तो अनादि से हैं फिर श्री ऋषभदेव को हो क्यों लिया? इसका उत्तर यह है कि - श्री ऋषभ देव भगवान ने ही प्रारम्भ में अपनी पुत्री सुन्दरी को अंक भाषा में यह भूवलय ग्रन्थ पढ़ाया था। जो कि नौ ६ अंकों में सम्पादित किया हुआ है ॥ १७४॥
इति तीसरा आ ३ प्लुत अध्याय समाप्त हुआ।
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सिरि भूवलय
सर्वाचं सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली
इसी के अन्तर्गत यह निम्न लिखित मंगलाचरण का इलोक निकलता
इस अध्याय के अन्तर्गत प्राकृत भगवद्गीता है उसको यहां उथत । करते हैं।
आगाह अन्तहि गुणहि जुतो विशुद्धमारतों। भवभयदजणदच्छो महवीरो अत्थकतारों।
अर्थ-पा (णा) गोहि यान ज्ञानादिी अनन्त गुणों से युक्त विशुद्ध चारित्र! काले भव भय का नाश करने वाले भगवान महावीर ही इस ग्रन्थ के अर्थ कर्ता
प्रज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं एन तस्मै श्री गुरु वेन्नमः ।
इस श्लोक में पाये हुये एन' के स्थान पर संस्कृत भाषा की दृष्टि से 'येन' होना चाहिये परन्तु चित्र काव्य और श्लेषाल कार में एक तथा ये को एक हो मान लिया जाता है । इसी प्रकार गुरुवेन नमः के बारे में भी समभलेना।
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चौथा अध्याय
॥३॥
इक ष्टोपदेशव नष्ट कर्माशव । स्पष्टदे अरहंतर श* री॥ अष्टगुणान्वित सिद्धर स्मरिसिद । अष्टमजिन सिद्ध काव्य ॥१॥ यत शश्वतिदेविय करविडिदादि । दृपजिनेशन काव्य ।। प्रश रो* र सिद्धत्व वड? बाळुव काव्य । ऋषिवंशदादि भूवलय ॥२॥ मूॐ हवेळेयोळ सामायिकर्देनिलव । वोरजिनेन्द्रदारियद ॥ सेरि प द्धतियतिशयदनुभव । सारभव्यर दिव्य काव्य ल* क्षरणयरियुत स्वसमयवव सारि । अक्षरदंकदोब्बे र सि* ॥ शिक्षेयोलदिद्रिय मत्तु मनवतु । लक्षणदिस्तब्धगोलिसि ॥४॥ तर नुवनु मरेयुत जिनरूपे नानॅब । घनविद्य यनुभववागे ॥ म नबेसिम्हासनवागिरलमलात्म । जिननंते कमलदासनदि ॥५॥
धनवैभवदिद कुलितु ॥६॥ जिननंते कायोत्सर्गदलि ॥७ अनुदिनदभ्यासबलदि ॥८॥ दिनदिनयोगहेच्चुतिरे ६ इननंततपिन ज्योति ॥१०॥ धनवागि बेळगुतलिरलु ॥११॥ तनगेताने ब्रह्मनेनुव ॥१२॥ जिन धर्मदनुभव बरलु ॥१३॥ ऋषद देहब मरेतिहरु ॥१४॥ एरिणकेगे बारध्यात्म ॥१५॥ धनप्रतिक्रमण तानागे ॥१६॥ चिनुमय मुद्रेयंदोदगे ॥१७॥ घनरत्न मूरर बेळकु ॥१८॥ तनगेताने बंदु बेळगे ॥१६॥ मनुमथनुपटल करगे ॥२०॥ जिननाथनोरेच भूवलय ॥२१॥ तनुविनोळात्म भयलय ॥२२॥ वेनुर्तितु निलुव कुळिरुव ॥२३॥
तनुवदे स्वसमय सार ॥२४॥ न प्रवदकरते स्वयम् परिपूर्णद । अवयवबद शुद्ध गुर राव ॥ अवतार स्थानव हदिनाल्करत्नद । चिनुमय सिद्ध सिद्धांत ॥२५॥ तर नुवनु परवेंदरियुत प्रापर । दनुरागवनु तोरेदाग ।। जिन र* सिद्धर रूपिननुभव हेच्चुत । तनु रूपिनंतात्म रूपु ॥२६॥ क* रसुवुदास्रव बरुव बंधवदिल्ल । निराकुलतेय पद्म वे ळु ।। सरमालेयंते तन्नेदेयलिकारणबाग । अाहनपदबंग गुरिणत ॥२७॥ * रतरवाद अद्भुतपरिणामद । सरस संपदवेल्न अव न* ॥ हरुषवनेरिप समयद लधियु । बरुबागमा अंतरात्म ॥२॥
वरुवाग अवनतंरात्म ॥२॥ परिणाम लधियागुवदु ॥३०॥ बरलरहंत तानेनुब ॥३॥ वरुषवर्द्धनकादि एनुव ॥३२॥ बरे बरुवाग तन्नात्म ॥३३॥ गुरुवावे जगकेएंधेनुव ॥३४॥ अरहंतरतु कंडेनेनुव ॥३५॥ परिशुद्ध नाने एंदेनुव ॥३६॥ परमात्म पदवडनुव ॥३७॥ गुरुपद दोरेयितदनुव ॥३८॥ सिरियायतुज्ञान देनुव ॥३६॥ परममंगलनाल्कु एनुव ॥४०॥
परमात्म चरण भूवलय ॥४१॥ तानु तन्नंद पडेव कार्यदोलिपं । आनन्द शाश्वत सुख म* ॥ तानु तन्निदले तनगागि पोंदुव । तानल्लदन्यरिगरिया ॥४२॥ सिवनद शाश्वत निर्मल नित्यनु । भववनेल्लव केडिसुव् ह ॥अविरल सुखसिद्धियवने महादेव । अवनादि मंगल भद्र। ॥४३॥ रिडियाशेय होद्धदिरुव चिन्मयनु । शुद्धत्ववेल्लमह * री॥बुद्धितियाचार्य पाठक साघुयु । शुद्ध सम्यक्त्वदसारा ॥ ४॥
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सिरि भूवलय
सर्वाचं सिद्धि संघ बेगलोरविल्ती वो* तरागनु निरामयनु निर्मोहियु । कातरनिनितिल्लदिह ॥ ख्यात रो* योळु बाळुन भन्यरिगाश्रय । पूत पुण्यनु शुभ सौल्य ॥४॥ रो*ष तोषगळिल्ल लोध मोहळिल्ल । प्राशेयनंतानुबंध ॥ प* असरिसलेडेयिल्लदवननुभव काव्य। श्री शन सिद्ध भूवलय ॥४६॥
श्री शनाडिद दिव्य वाणि ॥४७॥ घासि अप्रत्याख्यान ॥४८॥ राशि कषाय मळळिगुम् ॥४६॥ मासुत प्रत्याख्यान ॥५०॥ रोषद सूक्ष्मसम्ज्वलन ॥५१॥ लेसिन जलरेखेयन्ते ॥५२॥ पाशाजलद संज्वलन ॥५३॥ लेसिनि भावदोळ मेरेये ॥५४॥ तासुतासिनोळगनन्त ॥५५॥ राशिकषायभेदगळ ॥५६॥ घासिय माडुतबहुदु ॥५७॥ लेसिन जलरेखेयन्ते ॥५॥ मासदें बन्दुसेरुवुदु ॥५६॥
प्रासेय भेदविज्ञान ॥६॥ राशिमाळपुदु तुषगळनु ॥६॥ माषदकाळिनन्तात्मा ॥६॥ श्री सनन्ददलि योगदोळु ॥६३॥ श्री सिद्धालयवे अल्लिहुदु ६४॥
आसिद्धालयद अनन्त ।७५॥ राशिय सिद्ध भूवलय ॥६६॥ इक बरोळगिरुव षड्द्रव्यगळेल्लव । हुदुगिसिकोन्डिह प र म ॥ पदप्राप्त जीयने पंचास्तिकायदे । अदु मत्ते एळु तत्वगळ ॥६॥ न* वपदार्थगळेम्ब अवसर वस्तुव । नवयवदोळ तुम्बि म रळि ॥ अवनेल्लबनोन्दकूडिसि तिळियुव । अवुगळ लेक्कवे जीव ॥६॥ द* रुशन जान चारित्रन नलगोतु । सरमाले बल्ल मुरु गु* ॥शरदनोम्वत्तेनु ऐदारु कूडलु बरुव दिप्पत्तेळरंक ॥६६॥ भू* वलय सिद्धान्त दिप्पत्तेछ । तावेल्लवनु होन्दिसि रु* व॥ श्री वीरवारिणयोकबह "ई" मंगल काव्य। ईविश्वयलोकदलि ७०॥ विश वगळग्रद तुत्ततुदियलि बेळगुव । शिवलोक सलुब मान व वर ।। धवल छत्राकार दगदगुरुलघु । सबियात्म गुणदोळगिहरु ॥७१॥
अवरव्यावाध गुरगरु ॥७२॥ नवनवोदित सूक्ष्म घनरु ॥७३॥ अवरवगाहदोळिहरु ॥७४॥ सवियनन्तद ज्ञानधररु ॥७॥ नव सम्यक्त्व दर्शनरु ॥७॥ अवरनन्तानन्त बलरु ॥७७॥ अवरनागत सुखधरर ॥७॥ अवरती तद ज्ञानधररु ॥७९॥ सविरुपिनशरीर घनरु ॥८॥ अवरुशाश्वतरुचिन्मया ॥१॥ अवरावागलु नित्यर् ॥२॥ अवरसुखवु बेकेन्देनुव ॥८॥
नवपद काव्य भूवलय ॥२४॥ विश्वदनके गमनवनिटु मा योगि । विश्वेश्वर सिद्धबर वे ॥दस्वरूपरध्यानिसुत भावदोलिप । विश्वज्ञ काव्यदनवियु ॥ ५॥
प* रमामृतकान्य अरहन्त भाषित । गुरु परम्परे यादि पर दद ॥ गुरु सिद्धपदप्राप्तियागबेकेम्बर्गे। सरसविद्यागम काव्य ॥५६॥ पद्धतियोळु चकबंध हंसबंध । शुद्धाक्षरांक र* क्षेयनु । होद्दिद अपुनरुक्ताक्षर पद्मद । शुद्धद नवमांक बंध ॥७॥ वर र पद्म महापद्म द्वीप सागर बंध । परम पलयद प्र म बु बंध ॥ सरस सलाके शेरिणय अंकदबंध । सरियागेलोकवबंध ॥८॥ रोमकूपद बंध क्रौंच मयूरद । सीमातीतद बन्ध ।। कामन पर दपद्म नख चक्रबंधद । सौमातीतद लेषक बन्ध का
ने मवकिरणदबंध 1tor स्वामिय नियमनबन्ध ॥६ हेमरत्नद पद्मबन्ध ॥२॥ हेमसिंहासन बन्ध ॥६॥ ने मनिष्टेय व्रतबन्ध | प्रेमरोषय गेल्दबन्ध ॥६५॥ श्री महावीर नबन्ध ॥६६ ई महियतिशयबंध ॥१७॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली का मनगरिणतवत्बन्ध ॥६॥ प्रा महामहिमेयबंध Heil स्वामियतपद श्रीबन्ध ॥१०॥ सामन्तभदन बन्ध ।।१०।। श्री मन्तशिवकोटिबंध ॥१०॥ प्रा महिमन तप्तबंध ॥१०३।। कामितफलवीवबंध ॥१०४॥ नेमशिवाचार्य बंध ॥१०॥
स्वामि शिवायनबंध ॥१०६। नेमनिष्ठेयचक्र बंध ॥१०७॥ कामितबंध भूघलया १०८11 उत्तम संहननद चक्रबंध म। तुत्कृष्ट देहद रा* ग॥ चित्तजनन्दद संस्थान बंधदे ॥ सुतुवरिद दिव्यबंध ॥१६॥ वक रदसम्यग्दर्शनदादिय बंध । गुरु परम्परेय प्राचा * मल । वरतपबंधद सरमग्गी कोष्टक । विरुवअध्यात्मदबंध ॥११०॥ तके पिसुत देहवुउपसर्ग केड़ेयागे। अपरिमितानन्दनब * प्रा । सुपवित्रभावद सत्यवंभव बंध उपशमक्षयदादि बंध ॥११॥
* वपद्मबंधद कट्टिनोळकट्टिद । अवरसच्चारित्र य* बंध ॥ अवतारविल्लद अपुनरावृत्तिय । नवमांक बंध सुबंध ॥११२॥ ते रसगुरपठारगदोळगात्मनकूडि । सारधर्मवराशिमाडि ॥ बोर गु* एंगळअनन्ताकदो कट्टि । सारवागिसिह भूवलय ॥११३॥
शूरवागिसिद भूवलय ॥११४॥ नुसरनम्त भूयसय ११५॥ ' सारात्मरावास वलया ॥११६॥ धीररचारित्रयवलय १११७॥ दारियोळपवर्ग निलय ॥११॥ सेरुवघ्यात्म निर्ममव ॥११६।। क्रू र कर्मारिविलयद ॥१२शा दारिपतोर्वक निलय ॥१२०॥ भूरिवैभवदसद्वलय ॥१२२॥ घोरोपसर्गदविलय ॥१२३॥ सारात्म शिखयादिनिलय ॥१२४॥ क्रूरकार्मरणदेह विलय ॥१२॥ चारित्र सारसद्वलय ॥१२६॥ सारज्ञानाम ननिलय ॥१२७॥ दारकेयवरंकवलय ॥१२॥
घोर स्ववलिद भूघलय ॥१२६॥ करुणेय धर्म बद्ध नवागेलोकदे । बरुब कष्ट गळेल्लक र गि* ॥ गुरुविगेशिष्यने गुरुवागुवागल्लि । दोरेवसमाधियोळ् मोक्ष ॥१३०॥ तु नगेताने सिद्धियागुवकाल । जिन धर्मदतिशय वेळगि । घन वे दद्वादशदनुभवबेरलु । जिन बर्द्धमानन धर्म ॥१३॥ ता* रुण्यब होंदिमंगल प्राभृत । दारदंददेनवनम न* ॥ वेरतुवंदिह अध्यात्मवैभव । शूरमुनिगळदारिइह ॥१३२।। रो गशोकगळेल्लकरगुवयोगदे। सागर पल्यशलाके । यागुव म% हिमेय नवमांक बंधद । साघनकर्म सिद्धान्त ॥१३३।।
श्रीगुरुपदद सिद्धान्त ॥१३४॥ नागनरामरकान्य ॥१३॥ प्रागळिदयोग काव्य ॥१३६।। तागुवात्मध्यान काव्य ।।१३७॥ नागसंपगेपुष्पवैद्य ॥१३॥ भोगयोगदसिद्धि काव्य ॥१३६॥ भोगदतृप्तिय कळेव ॥१४०॥ श्रीगुरुशिवकोट्याचार्य ॥१४१॥ प्रामवाळिप शिवायनन ॥१४२॥ रोगवकेडिसिदकाव्य ॥१४३॥ नागमल्लिगेकृष्णपुष्प ॥१४४॥ तागलुस्वर्ण सिद्धान्त ॥१४॥ हेगेयुतप्पद योग ॥१४६।। नागार्जुन सिद्धकाव्य ॥१४७॥ प्रागिर्दकापुटांक ॥१४॥ श्रीगुरुयर सेनगरणदि ॥१९॥ रागदिपेळ्दसिद्धान्त ॥१५०॥ साधन वहस्वर्णकाव्य ॥१५॥
राम विराग भूवलय ॥१५२॥ अष्टमहाप्रातिहार्य वैभववनु । स्पष्टगोळिसिदादि वर हा ॥ इष्टार्थवेल्लात्म संपदावेन्नुव । अष्टमजिन सिद्धकाव्य ॥१५३॥
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सिरि भूवलय
श्रो
५६
शु गुपाद गुडुचाद धर्म कर्मदलोह । दतुभववदे स्वर्ण त नुवनकाश के हारिसिळितिसुव । धनवैमानिक दिव्य काव्य ॥ # नेकोनेवोगिसि भव्यजीवरनेल्ल । जिनरूपिदिपकाव्य || तेरनुयळे युवदारियो बरुवंक दारंकेय मादलद सार दारिय पुष्पायुर्वेद ॥ १५८ ॥ साराग्निपुट दिव्य योग ।। १६१ ॥ सारात्मशुद्धि पारदव ॥ १६४॥ एरिसितिळिव पारदद ।। १६७।। दारियगुरु वृद्धियंक ॥ १७० ॥ शूररकाव्य भूवलय ॥१७३ से रवमनवनु पारददोळु कट्टि । नूरुसाबिर हुबुगल || सारव तु सरुवार्थसिद्धियग्रदश्येत ( शिलेयद ) क्षत्रव बरेदंकमार्ग *
*b
र
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली
॥। १५४ ।। ।। १५५
।। १५६ ।। ॥१५७॥
॥ अनुभवगम्यद समवसरण काव्य । धनसिद्धरसदिव्यकाव्य नसपुष्पद काव्य विश्वम्भर काव्य । जिनरुपिनभद्र काव्य कळेय कूगनिल्लवागिप काथ्य दनुभयखेचर काव्य परक्षिमापदि रोग
नाशकद
माऋ
॥१५६॥
॥१६२ ॥
मारनंगेय केदगेय पारदपादरिपुष्प नूरारुसंपुटयोग ।। १६५।। श्रीरमेगिरियकरिणय ।। १६८ ।। मररवर्ग शलाके ॥ १७१ ॥
सारविन दिव्य योग ॥ १६०॥ पारद जयदग्नि योग ॥ १६३ ॥ सारस्वतर वाहनद सेरिसेबरुव हूवगळ
॥१६६॥
॥१६६॥
यारके मिरुव भूवलय
॥ १७२ ॥
न
॥ १७७॥
न्दुमाड़ त रसमणियन 1 सेरिसे भूवलय सिद्धि ॥ १७४॥ बरलु || प्रहादि बत्तम् बेरेसिह तारणदो (लरिथिरिसिद्धान्तवदम् ) ळरिवसिद्धान्त भूवलय ।। १७५ ।। श्रा* गममार्गदह दिमूरु कोटिय। तागिदायुर्वेद ( प्राणावाय ) || सागरवन् ने रिपुनरुक्तंकद ( अपुनरुक्ताक्षर ) । सागर रत्नमंजूष ॥१७६॥ इ* रुव भूवलय दोळेऴ्तूरहदिनेदु । सरस भाषेगळवतार ॥ ररिगे प्रथम संयोगदे बहुदेव । शिरिधिह सिद्ध भूवलय सिरियिह मूरु संयोग ॥१७६॥ सिरियिह नाल्कु संयोग ।। १८० ।। परमात्म कलेयंक भंग ॥ १८२ ॥ परमामृतद भूवलय ॥ १८३॥ रिॐ द्वियादासूरु श्रादिभंगदतेर । होददिकोंडिकगळ ॥ म द्विनोळे सारिदिन्नूरतों बत्तु । सिद्धांक बागलु "इ"ल्लि या यअंतर आरेरडोम्बत्तात्तु । ईवक्षरगळेल्लवा * ॥ पाचन दंकगळंतर काव्यव । नोवदे [भावदेवरुवंकवेल्ल ] काय भूवलय ।। १८६ ।। "इ" ७२६० + अंतर = १०६२६ = १८२१६ अथवा श्र । इ -४६६११ + १८२१६ = ६४८२७ । अब पहले अक्षर से लेकर ऊपर से नोचे तक आ जाय तो प्राकृत भाषा भगवद्गीता अर्थात् पुरुगोता आती है सो देखिये, थिय मूल तंतकता सिरिवोरो इंदभूदिविप्पवरो ।
सरियिह एरडने योग ॥ १७८ ॥ परिवाह श्ररवत्तनात्कु ॥१८२॥
॥१८५॥
उवतंते कत्तारो प्रष्णुतं ते से साइरिया ||४|
इसी प्रकार संस्कृत भाषा भी निकलती है- श्री परम गुरवे नमह । श्री परमगुरवे परंपराचार्य गुरवे नमह । श्री परमात्मने नमह । इति चतुर्योध्यायः ।
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चौथाअध्याय
यह भूवलय प्रात्मा के लिये इष्ट उपदेश है, यह प्रष्ट कर्म को नष्ट करने
तत्पश्चात् शीतल चन्द्रमा के समान प्रात्म-ज्योति बढ़ती जाती है।॥१०॥ वाला है। अर्हन्त भगवान की लक्ष्मी को प्रदान करने वाला और प्रष्ट गुणों से
तब आत्मज्योति पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाती है ||१|| युक्त सिद्ध परमेष्टियों में सदा स्थिर रहने वाला अष्टम जिन (चन्द्रप्रभ) सिद्ध ऐसा हो जाने पर यह अपने को आप ही ब्रह्मस्वरूप अनुभव करने लगता काव्य है।॥१॥
है |१२|| श्री वृषभ देव ने जब यशस्वती देवी के साथ विवाह किया उस समय
इम प्रकार अनुभव करते हुए जव विशुद्ध जैन धर्म का अनुभव आता का यह काव्य है और शरीर अवस्था अर्थात् मुक्ति अवस्था प्राप्त कराने वाला है॥१॥ यह काव्य है।
तब अनादि काल से प्राप्त ऋण रूपो शरीर को भूल जाता है |१४|| यह ऋषि वंश का आदि स्थान भूवलय हे ॥२॥
गणना में न आने वाले अध्यात्म को ॥१५॥ यह तीन काल में होने वाले सामायिक को बताने वाला, उन बीर जिनों
आप स्वयं महान् प्रतिक्रमण रूप होकर ॥१६॥ के मार्ग का अतिशय अनुभव करा देने वाला सार भव्यात्मक काव्य है ।।३।।
चिन्मय अर्थात् चित्स्वरूप मुद्रा प्राप्त होती है ।।१७।। स्वशुद्धात्मा के कथन रूपी अक्षर को जानकर उसी शिक्षा के द्वारा मन ! तत्पश्चात् उपयुक्त सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपो रल की ज्योति प्रगट और पांचों इन्द्रियों को लक्षण से स्थिर करके स्वशरीर को भूलकर "भगवान हो जाती है ॥१८॥ जिनेन्द्र येव के नमान में स्वयं हूं" ऐसी महान् विद्या का अनुभव होकर निजमन तब वह ज्योति अपने पास पहुंचकर स्वयमेव अपनी पारती करती ही भगवान के लिये सिंहासन स्वरूप प्रतीत होता है और मेरी आत्मा भगवान् । है ।।१६।। जिनेश्वर के समान हृदय रूपी पद्मासन पर विराजमान होकर सुशोभित हो रही। ऐसा होते हो मन्मथ रूपी पटल पिघल जाता है ॥२०॥ है ।।४, ५॥
मन्मथ रूपी पटल पिघलने के बाद जिस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देव को जिम प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव समवशरण में अष्ट महा प्रातिहार्य तथा संपूर्ण भूवलय दिखाई देना है उसी प्रकार उम आत्मरत योगी को सकल भुव३४ अतिशयों से समन्वित होकर प्रशान्त मुद्रा से विराजमान हैं उसी प्रकार | लय दिखाई पड़ता है ।।२१।। मेरी प्रात्मा भी हृदय रूपी पद्मासन पर विविध प्रकार के वैभव से सुशोभित हो तब अपने शरीरस्थ प्रात्मरूपी भुवलय में समस्त मुबलय दिखाई पड़ता रहो है ।।६।।
। है ॥२२॥ इसी प्रकार मेरी प्रात्मा जिनेन्द्र देव के समान कायोत्सर्ग में वही
इस प्रकार विचार करके अपनी प्रात्मा के निकट विराजमान हये योगी है (१७॥
को |॥२३॥ कायोत्सर्ग में किसके बल से बड़ा है?
वहाँ शरीर स्व-समय सार है ॥२४॥ कायोत्सर्ग में होने वाले ३२ दोषों से रहित निरन्तर सिजात्मा के जिस प्रकार : अंक के ऊपर कोई दूसरी संख्या न होने से ६ को परिअभ्यास के बल से योगी खड़ा है ।।।।
पूर्ण अंक माना जाता है उसी प्रकार शुद्ध गुण अवयवों से सहित शुद्ध पात्मा जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे योग भी बढ़ता जाता है भी परिपूर्ण है । वही परिपूर्ण शुद्धावस्था सिद्ध पद में है। वह सिद्ध पद चोदह
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सिरि भूवलय
सवार्थ सिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली
गुणस्थान के अन्त में चिन्मय सिद्ध स्वरूप है. ऐया भूवलय सिद्धान्त का कथन, तब विलक्षणपरिणामन सहित सरम संपत्ति के द्वारा उसके हर को बढ़ाने है। इस प्रकार अनुभव होने के बाद अपने शरीर को पर मानते हुये उसे त्याग। वालो काय लब्धि प्राप्त होने से उस अन्तरात्मा को करण लब्धि होती है। देने के पश्चात् श्री जिनेन्द्र भगवान् तथा मिद्ध भगवान के स्वरूप को अनुभव करण लब्धि भेदाभेद रलवयात्मक रूप मोक्ष मार्ग को दिखाती है, अपने प्रात्म में बढ़ते जाने से ऐसा प्रतीत है कि "इस ग्रात्म का रूप हो मेरा तथा सकल कर्मक्षय के लक्षण स्वरूप मोक्ष को दिखलाती है और मागे शरीर है" ||२५, २६॥
। अतीन्द्रिय परम ज्ञानानन्दमय मोक्ष स्थल को अनेक नब निक्षेप प्रमारणों से खिदा इस प्रकार जब प्रात्मरत योगी की भावना सिद्वात्मा में सुदु हो पाता।
, देती है । उसे करण लब्धि कहते हैं ! वह करण तीन प्रकार का है:ह तब आने वाला कर्मास्त्र तथा वंच रुक जाता है। तत्पचात् वह निराकुल होकर
अधः प्रवृत्ति करण, अपूर्व करण तथा अनिवृत्ति करण । प्रत्येक करण भगवान के चरमा कमल के नीचे सात कमल को माला रूप में जब प्रपन हृदय में
२ का समय अन्तमुहूर्त होता है। उस अन्तमुहर्त में पहले की अपेक्षा दूसरा संख्यात धारण करके देखता है तब अरहन्त भगवान के गुणाकार द्विगुण वृद्धि को प्राप्त
गुण हीन काल होता है जो कि अल्प समय में ही अधिक विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है ॥२७॥
होता है और प्रधःप्रवृत्ति करण से प्रति समय अनन्तगुरण विशुद्धि रूप धारण सब विविध भाँति के चित्र विचित्रित अद्भुत परिणामों के माथ सरस संपत्ति उस योगी के हृदय में हर्ष को बढ़ाने वाली काललब्धि जब प्राप्त हो
करते हुये अन्तर्मुहुर्त तक चला जाता है अर्थात् पहले समय में जितनी विशुद्धि जाती है तब उम अन्तरात्मा अर्थात् उस योगी की अन्तगत्मा को परिणाम
प्राप्त हुई थी उससे अनन्त गुणी विशुद्धि दूसरे समय में प्राप्त होती है । लब्धि होती है ॥३०॥
अधःप्रवृत्ति करण प्रत्येक समय में अनन्तगण विशुद्धि करता हुआ निरन्तर विवेचन :
अन्तमुहर्त काल पर्यन्त चला जाता है। वहां पर होने वाली विशुद्धि असंख्यात श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जी ने इस भूवलय के "चतुर्य" अध्याय में २७ लोक प्रमाण गणना का महत्व रखती हुई चरम काल पर्यन्त समान वृद्धि से होती वें श्लोक से लेकर ३० वें श्लोक तक इस प्रकार विवेचन किया है कि जब जाता ह जिनेन्द्र देव तथा सिद्ध भगवान के स्वरूप का अनुभव बढ़ता जाता है तब याने
प्रश्न-लोक तो एक ही है, फिर असंख्यात लोक को कल्पना कैसे हुई? आत्म रूपी शरीर में रत हो जाता है । तब सना में रहने वाले कर्म स्वयं पिघल उत्तर-एक परमाणु के प्रदेश में अन तानन्त जीव रहते हैं। उन अनन्त जाते हैं और बाहर से याने वाले नये कर्म रक जाते हैं। तत्पश्चात् निगकुलता
जीवों में से एक जीव के अनन्तानन्त कर्म होते हैं। ये समस्त जीव और अजीव उत्पन्न करने वाल ७ कमलों की माला के समान जब अपने हृदय में योगी। एक परमाणु प्रदेश में भी रहते है । एक परमाणु प्रदेश में इतने ही जीव और देखने लगता है तब अरहन्त भगवान के चरण के नीचे सान कमलों के द्वारा ग्रजीव समाविष्ट होने से असंख्यात परमाणु प्रदेशात्मक इस लोक में अनन्तानन्त अपने शुभ परिणामों को द्विगुण २ वृद्धि प्राप्त कर लेता है वह द्विगुण इस पदार्थ रहने में क्या पाश्चर्य है ? अर्थात् असंन्यात लोक प्रमाण हो सकते हैं। प्रकार है:
स्थिति बंधापसरण का कारण होने से इस करण को अधःप्रवृत्ति २२५४२२५
। करण कहते हैं । यहां पर भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी होते ११२५
है। तदन्तर यहां से ऊपर अपूर्वकरण नामक करण होता है । उस करण में
प्रति समय में असंख्यात लोक मात्र परिणाम होते हैं। जोकि कम से समान ५०६२५
1 संख्या से बढ़ते हुए असंख्यात लोक मात्र हुया करते हैं । जोकि स्थिति
४५०
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सिरि स्वलय
सर्वार्थ मिति संघ बैंगलोर-दिल्ली बंधापसरण, स्थिति काण्डकघात, अनुभाग काण्डकघात, गुणसंक्रमण और गुग । अब हम अन्तरात्मा पद से परमात्मा बन गये ॥३७।। श्रेणी निर्जरा इत्यादि क्रिया करने का कारण होते हैं।
अब हमें सच्चा पंचपरमेष्टी का पद प्राप्त हो गया ॥३८॥ वहां से ऊपर अनिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम होता है।। सम्पत्ति के दो भेद है। (१) अन्तरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) और (२) स्थिति बंधापसरणादि क्रियायें पहले की भांति होती हैं । उस करण के अन्तिम
। वाह्य सम्पत्ति (लक्ष्मी)। धन गृह, वाहन इत्यादि से लेकर समवसरण पर्यन्त समय में होने वाली क्रिया को देखियः --
समस्त वस्तुयं बहिरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) तथा ज्ञान, दर्शनादि अनन्त गुणों वाली चारों गतियों में से किसी भी गति में जन्मा हुमा गर्भज, पंचेन्द्रिय, नंज्ञो ।
। अंतरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) है। इन दोनों सम्पत्तियों को प्राकृत पौर कानड़ी पर्याप्तक सर्वविद्धि वाला जागृत अवस्था में रहते हये जीब प्रज्वलित होने
भाषा में 'सिरि' और संस्कृत, हिन्दी इत्यादि में श्री कहते हैं। लौकिक काव्य वाली शुभ लेश्या को प्राप्त होकर, ज्ञानोपयोग में रहने वाला होकर अनिवृत्ति
की रचना के प्रारम्भ और आत्म-द्धि के प्रारम्भ में या दीक्षा के प्रारम्भ में करण रूप शक्ति को प्राप्त होता है वह शक्ति बखदंडकघात के समान घात। सिरि' और 'श्री' शब्दों का प्रयोग मंगलकारी मान कर किया जाता है। कहा किये हुये संसार दुर्ग रूपी मिथ्यात्वोदय को अन्तम एनं काल में विच्छेद कर। सम्यग्ज्ञान लक्ष्मी के संगमोचित सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त होता है। सम्यक्त्व
आदी सकार प्रयोगः सुखदः" । अर्थात् आदि में सकार का प्रयोग प्राप्ति का शुभ मुहुर्त यही है।
मुखदायक होता है । 'सिरि' और 'श्री' ये दोनों शब्द हमें आत्म ज्ञान रूप में उस अन्तर्मुहुर्त के प्रथम समय में पापान्धकार को नाश करने के लिए उपलब्ध हुये हैं, ऐसा के योगी चिन्तन करते हैं ॥३६॥ सूर्य, सकल पदार्थों को इच्छा मात्र से प्रदान करने वाला चिन्तामणि, कभी भी । मंगल चार प्रकार के होते हैं। [१] परहंत मंगल, [२] सिद्ध मंगल, युन न होने वाला, संवेगादि गुण की खानि ऐसा सम्यक्त्व होता है। पीर तब [2] साधु मंगल, (४) तथा केवलि भगवान परणीत धर्म मंगल ।।४।। सम्यग्दर्शन हो जाने से संसार से मुक्त होने को स्वयं परहन्त देव स्वरूप बह ऊपर कहा हा जो भगवान का चरण है वही परमात्म-चरण रूप अंतरात्मा अपने को मानता है ।।३।।
भूवलय है ।।४१॥ अनादि काल गे आज तक अनन्त जन्म-मरण धारण किये और प्रत्येक । अपने आप के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले तथा उस कार्य में रहने वाले जन्म में अनित्य जयन्तियां (वर्ष बदनोत्सब) मनाई । परन्तु आज से (करए। आनन्द से शासित जो प्रात्म रूप सुख है वह अपने आत्म ज्ञान-गम्य है, अन्य लब्धि हो जा पर) नित्य जीवन की प्रथम जयन्ती ( वर्ष वर्द्धन महोत्सव ) कोई जानने में अशक्य है ॥४॥ प्रारम्भ हुई, जो अनन्त काल पर्यन्त उत्तरोसर विजय देती हुई स्थिर रहेगी। वही शिब है वही शाश्वत है, निर्मल है, नित्य है और अनन्त भव को इतना ही नहीं मब, संसारी जीव भी इसका जयगान करते हुये वर्षवर्द्धन महो- नष्ट करने वाले. अविरल सुख सिद्धि को प्राप्त किया हुआ महादेव है। वही त्सव मनाते रहेंगे ।।३।।
। अनादि मंगल स्वरूप है।॥४३॥ इस प्रकार नित्य सुन्वानुभव के प्रथम वर्ष प्रारम्भ होने के पश्चात् अपने । वह ऋद्धि इत्यादि की आशा न करने वाला चिन्मय रूप है । अत्यन्त आत्मा में ॥३३॥
निर्मल शुद्धात्मा को प्राप्त हुमा बुद्धि, ऋद्धिधारी, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी कों का मैं स्वयं गुरु बन गया, ऐसा चिन्तन करता है ॥३४॥ 1 है। यही शुद्ध सम्यक्त्व का मार है ॥४४॥ मैंने अपने अन्दर अरहंत भगवान को देख कर पहिचान लिया ॥३५॥ है वह यही मेरी शुद्धात्मा बीतराग, निरामय, निर्मोही है। समस्त प्रकार में समस्त परभाव रूप अशुद्धियों से रहित परम् विशुद्ध हूं ॥३६॥ । के भय और चिन्ता से रहित है । संसारी भव्यजन के लिए इहलोक और परलोक
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सिरि भूवलय
सडॉर्थ सिद्धि संघ गोर-दिल्ली के मुख का साधन है, पवित्र है, पुण्यमय है तथा उत्तम सौरूप को देने के लिए, उसी तरह छिलके से भिन्न उडद को दाल के समान अत्यंत परिशुद्ध आश्रयदाता है ॥४॥
अपने प्रात्मा में रत होते हुए ॥६॥ राग, द्वेष, क्रोध, मोह आदि से रहित है, क्रोध, मान, माया लोभ जो भगवान जिनेश्वर के समान निश्चल योग में स्थिर होकर बेठ अनन्तान बन्धी की चौकडी है उससे रहित तथा अन्य प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान, जाता है ॥३॥ संज्वलन इत्यादि कषायों के भेदों से रहित पाप अपने अन्दर ही अनुभव किया।
इस प्रकार योगी अपने योगानं में जिस समय रत रहता है उस समय हा शुद्धात्म काव्य नामक गिरीर अर्थात् सिद्ध भगवान का यह भूवलय ह॥४६॥ यामाहा हो मिटालय को प्राप्त हो जाता है अर्थात में इस समय यही भगवान की दिव्य वारणी है ।। ४७ ॥
1 शुद्धस्वरूप हूँ और अन्य किसी स्थान में नहीं हूं। शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर प्रत्याख्यानावरण नामक ।। ४% 11
। मैं सो सिद्धालय में विराजमान हूँ ॥६॥ कषाय के ढेर को ।। ४६॥
उस सिद्धालय के अनन्त ॥६॥ भस्म करते आये हुए प्रत्याख्यान ।। ५०॥ संयम को न घातने वाला सूक्ष्म संज्वलन कषाय है ॥५१॥
राशि के तुल्य यह सिद्ध भुवलय है ॥६६॥ वह निर्मल जल रेखा के समान है ।। ५२ ॥
इस भूवलय में रहने वाले समस्त ६ द्रव्य पंचास्ति काय सप्ततत्त्व ऐसे निर्मल जल के समान उज्ज्वल कपाय के मन्दोदय-वाने पात्मा-1
नौ पदार्थ नामक वस्तुओं को मिलाकर गणित के अनुसार जानने वाला परमात्म नुभव में मग्न होते हैं ।। ५३ ।।
स्वरूप जोव ही गणित है ॥६७-६८॥ अपने मात्मा के अन्दर हमेशा रमण करते हैं ।। ५४ 11
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इन तीनों को मिलाकर संकलित कर मुरणा करते प्रति समय में अपने प्रात्मा के अन्दर ॥५५॥
से अर्थात् ३ x ३ =tx३%= २७ इस तरह करने से २७ अंक प्राता है । ६६॥ कषाय राशियों के ढेर को ॥१६॥
इस भुवलय सिद्धान्त के ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय. ७ तत्व, ६ पदार्य इन नाश करते हुए पाता है कि ॥५७।।
सभी को मिलाकर पाया हुआ जो २७ है यही श्री भगवान महावीर की वाणी जसे निर्मल जल रेखा के समान ।।५।।
के द्वारा गाया हुआ यह मंगल काव्य है। तीनों लोकों के प्रय-भाग में अनन्त, तब अत्यन्त निर्मल शुद्धात्म-स्वरूप अपने अन्दर जैसे निर्मल गंगा का ! अनागत काल तक हमेशा प्रकाशमान होने वाला वह शिवलोक प्राप्त करने पानो अपने घर में आकर पाइप के द्वारा प्रविष्ट होता है और पीने योग्य होता वाला मानव धवल छत्राकार के अग्र-भागमें अगुरुलघु प्रादिप्रत्यंत अमृतमय शुद्धात्म है उसी प्रकार जैसे-जैसे कपाय ढेरों का उपभम होता जाता है वैसे ही अपने गुणों में चिरकाल पर्यन्त बास करता है । इसी प्रकार मेरी शुद्धात्मा मो घवल अन्दर आकर निर्मल शुद्ध भाबों का प्रवेश होता है ।।५।।
छत्राकार के मध्य में अगुरुलघु सहित अत्यन्त अमृतमय मिद्धात्मा के गुणों में तब उसी समय उस योगी को भेद-विज्ञान प्राप्त होता है। यानी सम्पूर्ण ।
विराजमान है ।।७०-७१॥ पर-वस्तुपों से भिन्न तथा अपने शरीर से भी भिन्न विज्ञानमय प्रात्मानन्द सुग्न । विवेचन-मोक्ष मैं परमात्मा के अगुरुलघु नामक एक गुण है, यह गुण स्वरूप का अनुभव बह जीव प्राप्त कर लेता है ।।६।।
पारमा का स्वभाविक गुण है, इस गुरग के बल से प्रारमा नीचे नहीं गिरता तब उस समय प्रात्म-ध्यान-रत योगी जैसे उड़द के ऊपर के छिलके है और सिद्ध लोक से बाहर अलोक आकाश में भी नहीं जाता है। इस प्रकार को अलग कर देता है ।।६।।
1 इस अगुरुलघु गुण का स्वभाव है। यह अगुरुलघु नामक जो गुण है पात्मा के
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सिरि भुवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली आठ गुणों में से एक गुण है। इसी तरह पागम में पाठ कमों को आपस में इसी तरह हजारों बल्बों के बटनों को दबाते जायें तो उन सबका भी प्रकाश गुणाकार करके निकालते समय नाम कर्म के अनेक भेदों में से एक अगुरु लघु उसी में शामिल होते हुए उसमें भिन्नता दिखाई नहीं देती है । तब इन हजारों नामक शब्द भी आता है वह नहीं समझना चाहिए । क्योंकि सिद्धों के आठ गुणों बल्बों का प्रकाश जैसे एक ही प्रकाश में समा गया ? सबसे पहले जो एक दीपक में जो अमुरुलधु शब्द पाया है उसे जागरुल घुत्व' कहते हैं इसलिए दोनों १ का अखंड प्रकाश था, उसमें जितने-जितने और प्रकाश पडते गये उतने-उतने भिन्न-भिन्न हैं। वह अगुरुलघुत्व गृरण कर्म से रहित है और जो अगुरुलघु है। पहले के दीपक सूक्ष्म रूप होते हुए प्रकाश गुण बढ़ता जाता है। जहां मूर्ति रूप वह कर्म से सहित है।
पुद्गल में यह शक्ति देखने में पानी है, तो अमूर्त रूप सिद्धों में अन्य सिद्धों का सिद्ध भगवान प्रव्याबाध गुरण से युक्त हैं।
सूक्ष्मत्व गुण के कारण समावेश होने में कौनसा आश्चर्य है ? अर्थात् नहीं है ।७३॥ अव्याबाध--
अवगाहगुरण का विवेचनजिस जगह में हम बैठे हैं उस जगह में दूसरे मनुष्य नहीं बैठ सकते है। एक क्षेत्र में अनेक पदार्थो का समावेश हो जाना अवगाहन शक्ति है। इतना ही नहीं किंतु हमारे पास भी नहीं बैठ सकते हैं, इसका कारण । जैसेकि ऊंटनी के दूध से भरे हुए घड़े में चीनी समा जातो है उसके बाद उसमें यह है कि उनके शरीर का पसीना हमको अपाय कारक होता है अर्थात् दोनों भरम भी समा जाती है। कोई किसी को रुकावट नहीं पहुंचाती, उसी प्रकार जनों का पसीना आपरा में विरोध रूप है । परन्तु सिद्ध भगवान के एक ही जगह जिन आकाश के प्रदेशों में एक प्रात्मा के प्रदेश हैं उन्हीं में अनन्त आत्माओं के में अनन्त मिद्ध भगवान होने पर भी हमारे शरीर धारी के समान उनको कोई १ प्रदेश भी समा जाते है और धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गल परमाणु मी बने भी बाधा नहीं होती है। श्री महावीर भगवान सर्व जघन्यावगाह के रहते हैं। इसी को अवगाहन गुण कहते हैं। इसी प्रकार इस भूवलय में जितने सिद्ध जीव हैं । उनके जीव प्रदेश में अनन्तानन्त सिद्ध जीव एक यात्रावगाह रूप प्रतिपाद्य विषय हैं उनके वाचक शब्द हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ हैं, वे सब एक से हमेशा रहते हुए भी परस्पर बाधा रहित हैं ॥७२॥
मरे को न तो बाधा देते हैं और न विरुद्ध अर्थ कहते हैं, सब विषय परस्पर में सूक्ष्मत्व गुण---
एक दूसरे की सहायता करते हुए रहते हैं ॥७४॥ प्रत्येक सिद्ध जीव में सूदमस्व नामक एक गुण है। इस गुण से महान । जैसे सिद्ध भगवान में अनन्त ज्ञान रहता है, उसी प्रकार इस भूवलय गुणों से युक्त अनन्त जीवों में रहने वाले अनन्तानन्त गुणों के समूह को एक | ग्रन्थ में भी अनंत ज्ञान भरा हुआ है ।।७।। ही जीव ने अपने अन्दर समावेश कर लिया है इसी का नाम सूक्ष्मत्व है।
जिस प्रकार सिद्धों में अनन्त दर्शन, सम्यक्त्व रहता है उसी प्रकार इस उदाहरणार्थ एक कमरा लीजिए उस कमरे को चारों ओर से बन्द भूवलय ग्रन्थ में सम्यक्त्व तथा अनंत दर्शन विद्यमान है शब्द रूप में अनंत बल करके उसके भीतर हजारौं विद्य त दीपक रखिये 1 पहले समय में एक बल्ब का सहित है ॥७६-७७।। बटन दबाया जाय तो एक दीपक जलता है तब उस दीपक का प्रकाश कमरे के वे सिद्ध अनागत सुख के धारक हैं |७|| आकाररूप फैल जाता है, अर्थात जिस समय उस बल्ब का प्रकाश फैल जाता है वे प्रतीत ज्ञान के धारक हैं॥७६।। उस समय उस कमरे के अन्दर रखी हुई कोई चीज बिना प्रकाश से बच नहीं शरीर रहित होने पर भी उनका प्राकार चरम शरीर से किंचित् ऊन है सकती, सभी पदार्थों पर प्रकाश पड़ता है। उसी समय अगर उसो कमरे । और आत्मघन प्रदेश रूप है ।।८।। के अन्दर दूसरा बटन दबाया जाय तो उतना ही प्रकाश उसमें ही समावेश वे शाश्वत और चित्स्वरूप हैं ॥१॥ हो जाता है और उसमें भिन्न प्रकाश मालूम न होकर एक रूप दीखता है।। वे हमेशा नित्य हैं ॥२॥
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उनका सुख हमको प्राप्त हो ।।३।।
तो उन ग्रन्थों में इतने विषय समावेश नहीं कर सकते थे, परन्तु अनादि काल से इन सब को बतलाने वाला यह नव पद काव्य नामक भवलय है ||२४ चले आये दिव्य ध्वनि के आधार से सम्पूर्ण विषयों को आदि से लेकर अनंत प्रश्न ?
काल तक ०, १.२, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९ अंकों में गभित करते हुए ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय, ७ तत्व, ६ पदार्थ ये मिलकर २७ हुए। २७ । उन अंकों में परस्पर गुणाकार करते हुए अनंत गुणाकार तक अर्थात् सिद्धचक्र कोष्ट भूवलय में हैं तब आप नवपद भूवलय कसे कहते हैं ?
भगवान के अनंत ज्ञान तक ले जाकर उस महान् अंक राशि को अर्धच्छेद रूप उत्तर-२७ सत्ताईस संख्या के अंक ७१ २ जोड़ देने से होते हैं इस 1 गणित रूपी शस्त्र द्वारा काटते हुए जघन्य संख्या से २ तक लाकर दिखाने के लिए नव पद से निर्मित भूवलय है।
लिए चक बंध रूप २७४२७ कोठा बना कर अनेक प्रकार की पद्धति से सिद्ध लोक के अग्रभाग की तरफ गमन अर्थात् उपयोग करने वाले योगी-निकाल कर ग्रंक रूप कोष्ठक में भरा है। वह कोष्टक अनेक विकल्प रूप है। राज विश्व के अधिपति हुए, सिद्ध परमात्मा वेद अर्थात् जिन वापी रूप हैं। वे विकल्प कितने प्रकार के हैं ? जितनी अर्घच्छेद-शलाकाय हैं उतने मात्र हैं। ऐसे ध्यान करते हुए अपनी पारमा को प्रफुल्लित करने वाला यह विश्वज्ञ काव्य अर्थच्छेद-शलाफा कितने प्रकार की हैं ? इसके उत्तर में प्राचार्य समाधान सभी काव्यों में अग्रसर है, अर्थात् यह अग्रायणोय पूर्व से निकला हुआ करते है कि हमने उसे अनन्त राशि से लिया है। हमारे अनंत बार अर्धच्छेद काव्य है ।१८५॥
करते चले ग्राने पर भी वह शलाकाछेद भी अनन्त होना अनिवार्य है। यह काव्य परहंत परमेष्ठी को दिव्य वाणी के अनुसार और श्री वृषभ- अर्थात् वह अनन्त अर्धच्छेद हैं । इन समस्त अनन्त राशियों को उपयुक्त सेनादि प्राचार्य परंपरा के आदि पद से आने के कारण परमामृत काव्य अति। कोष्ठकों में संख्याल रूप से हम भर चुके हैं । इसलिए समस्त भूवलय में समस्त अत्यन्त उत्कृष्ट अमृतमय काय है। अपने को गुग या अरहन या सिद्ध पद प्राप्ति विषयों को गभित करने में हम समर्थ हए । मंगल प्राभूत के इस चौथे 'इ'पध्याय को जो इच्छा रखता है उन्हीं को यह भूवलय काव्य रास्ते में सरस (मुगम) के अक्षर रूपी काव्य में जो भिन्न २ प्रकार की भाषायें और विषय उपलब्ध होते विद्यागम को पढ़ाते हुए अंत में परम कल्याण कर देने वाला है ।।६।। हैं. वे बड़े महत्वशाली तथा रचिकर श्लोक है। इसे देखकर पाठकगण को
विवेचन-यहां तक कुमुदेन्दु आचार्य ने ५६ दलांक तक अरहंत की अंतरंग । स्वाभाविक रूप से प्रानन्द प्राप्त होगा ही, किन्तु उन्हें सावधान रहकर केवल सम्पत्ति के बारे में, मिद भगवान के गुणों के बारे में पौर, नीनों गुम आदि । प्रस्तुत पानन्द में ही रत नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि यदि वे केवल इसी में समस्त प्राचार्यों के शीलगुणादिक के वर्णन में ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय, सात । मग्न रहेंगे तो आगे आने वाले अत्यन्त सूक्ष्म विषय को समझ नहीं सकेंगे। तत्व और नी पदार्थादिक के वर्णन में यहत सुन्दरता के साथ लिख है। ये
नम्म ज्ञानवदेष्टु निम्म ज्ञानवदेष्ट्र, नम्मनिमेल्लरगें पेळय । सव तीन लोक के अंतर्गत हैं; इतने गहान होते हुए भी इनका एक जीवात्मा के
नम्म सर्वज्ञ देवन ज्ञान वेष्टॅब हेम्मेय गणित शास्त्र दोछु । ज्ञानके अंदर समावेश है । ऐसे जोव संख्या में अनन्त हैं। उन अनंतों में से प्रत्येक जीव के अंदर अपर कह हुए समस्त विषय समाविष्ट हैं। उन सब विषयों को श्री
नम्मय गरिणत शास्त्रदोळ । निम्मय गणित शास्त्र दोळु ॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य ने एकत्र रूप में अपने भूवलय ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। यह
इत्यादि-- किस तरह से समाविष्ट है ? इस का उत्तर निम्नलिखित श्लोकों में निरूपण अर्थात् हमारा ज्ञान कितना है, तुम्हारा ज्ञान कितना है तथा हम सब किया है। हम पहिले से हो लिखते आए हैं कि इस भूवलय में कोई भी को सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर लगाने वाले सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान कितना है ? अक्षर नहीं है । यदि भिन्न-भिन्न अन्यों की रचना जैसे का तैसा भिन्न-भिन्न करते । इन सब को बताने वाला गौरव शाली यह गणितशास्त्र भूवलय है। यह गणित
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शास्त्र हमारे ज्ञान को भी गणना करता है, आपकी (हम से भिन्न जीव के ) भी गणना करता है । इस प्रकार यह गणित शास्त्र हमारे गौरव को बढ़ाता है। आपके गौरव को बढ़ाता है और सबके गौरव को बढ़ाता है।
भूवलय रचना चक्रबन्ध पद्धतिः-
इसकी पद्धति में (१) चक्रबन्ध, (२) हंसवन्ध, (३) शुद्धाक्षर बन्ध, (४) शुद्धांक वन्ध, (५) यक्षबंध ( ६ ) अपुनरुक्ताक्षर बंध (७) पद्म बन्ध (८) शुद्ध नवमांक बन्ध (६) वर पद्म बन्ध (१०) महा पद्म बन्ध ( १२ ) द्वीपबंध (१२) सागर बन्ध (१३) उत्कृष्ट पल्य बन्ध (१४) प्रवन्ध (१५) शलाका बन्ध (१६) श्रेण्यंक बन्ध (१७) लोकबन्ध (१८) रोम कूप बन्ध (१६) क्रौञ्च बंध (२०) मयूर बन्ध (२१) सीमातोत बंघ (२२) कामदेव बन्ध [२३] कामदेव पद पद्मवन्व [२४] कामदेव नख बन्ध [२५] कामदेव सीमातीत बन्ध [२६] सरितबन्ध [२७] नियम किरण बन्ध [ २८ ] स्वामी नियम बन्ध [२] स्वर्ण रत्न पद्म बन्ध [३०] हेमसिंहासन बन्ध [३१] नियमनिष्टाव्रत बन्ध [३२] प्रेमशेषविजय बंध [ ३३ ] श्री महावीर बन्ध] [३४] मही- प्रतिशय बंध [३५] काम गणित बंध [ ३६ ] महा महिमा बंध [३७] स्वामी तपस्त्री बंध [३८] सामन्तभद्रबंध [ ३६ ] श्रीमन्त शिवकोटि बंध [४०] उनकी महिमा तप्त [४१] कामित फल बंध [४२] शिवाचार्य नियम बंध | ४३ ] स्वामी शिवायन बंध [ ४४ ] नियमनिष्ठा चक्र बन्ध [ ४५] कामित बंध भूवलय "६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५.६६ ६७ ६५ १६ १०० १०१ १०२ १०३ १०८ १०५ १०६ १०७ १०८ ।
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चक्र बंध की रचना की है। इसलिये इस बंध का नाम उत्तम संहतन चक्रबंध उत्कृष्ट शरीर का राग उस बाहुबली के शरीर संस्थान ४५ समचतुर संस्थान अर्थात् सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अगोपांग की सबसे सुन्दर रचना की है। इस भूवलय ग्रन्थ के अनेक बंध हैं। इन सभी बंधों में से एक ४६ सूत्र वलय बंध है ४७ प्रथमोपशम सम्यक्त्व बंध, ४८ गुरु परम्परा आचाम्ल व्रत बंध, ४६ ऋतु तप बंध, ५० कोष्ठक बंध, अध्यात्म बंध, ५१ सोपसर्ग तथा तपो बंघ, ५२ (उपसगं आने पर भी तप जैसे उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता है, उसी प्रकार वक्तव्य विषय में वाधा पड़ जाने पर भी अपने अपने अर्थ को स्पष्ट बतलाता है ) ५३ उत्तम सुपवित्र भाव को देने वाला सत्य बंभव बंध है, ५४ उपशम क्षयादि बंध है।
छह प्रकार के संहनन होते हैं, ४४ आदि का बंध उत्तम संहनन है । ४४ संहनन का अर्थ हड्डी की रचना है उत्तम संहनन का अर्थ वज्र के समान निर्माण हुए हड्डी और संधि बंधन इत्यादि जो चीजें हैं ये सभी वज्र के समान बने हुए हैं । यह संहनन तद्भव अर्थात् उसी भव में मोक्ष जाने वाले भव्य मनुष्यों को होता है । तदुद्भव मोक्षगामी वज्र समान संहनन वाले मनुष्य के शरीर को किसी मामूली शस्त्र के द्वारा काट नहीं सकते हैं। जैसे शरीर आदि भूवलय के कर्ता गोमटेश्वर अर्थात् वृषभनाथ भगवान के पुत्र बाहुबली का भी था। वही बाहुबली भूवलय ग्रन्थ के आदि कर्ता थे। उनका शरीर जैसा था वैसी ही दृढ़ इस भूवलय
५५ नव पद बंधन से बंधा हुआ योगी जनों का चारित्र बंध है । ५३ अवतरण रहित पुनरावृत्ति नवमांक बंध होने से यह सुबंध है । तेरहवाँ गुणस्थान प्रदान कर आत्मा के सार धर्म की राशि को एकत्रित कर वीर भगवान के अनन्त गुणों में सम्मिलन कर देने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ॥ १०६ ।।११०।१११।११२ ।। ११३ ॥
अनन्त पदार्थों से गर्भित यह भूवलय है शुद्धात्मा का सार यह भूवलय है घीर, वीर पुरुषों का चारित्र वल हैं। भव्य जोवों को अपवर्ग देने के लिए यह प्रावास स्थान है । निर्ममत्व अध्यात्म को बढ़ाने वाला है, क्रूर कर्म रूपी शत्रु का नाश करने वाला है, भव्य जीवों को मार्ग बतलाने वाला यह भूवलय है । अनेक वैभव को देने वाला सत्यवलय अर्थात् भूवलय है। अनेक महान उपसर्ग को दूर करने वाला भूवलय है, शुद्ध श्रात्मा के रूप को प्राप्त कर देने वाला आदिवलय है । अत्यन्त क्रूप कामादि को नाश करने वाला सुबलय है, चारित्र सार नामक यह मवलय है । अत्यन्त ज्ञान रूपी श्रमृत से भरा यह भूवलय है । हमेशा जागृतावस्था को उत्तम करने वाला भूवलय है। प्रत्यन्त सम्पूर्ण कठिन कर्मों का नाश करने वाला भूवलय है। संसार में अनेक प्राणी निर्भयता से परस्पर विरोध करते हुये दूसरे जीवों के प्रति अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाकर अन्त में क्रूर परिणाम के साथ भरकर कुगति में जाते हैं अर्थात् आपस में विरोध करते ये पापमय धर्म को अपना धर्म मानकर निर्दयता पूर्वक अनेक जीवों को घात
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पहुंचाते हुये अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे समय में इस संसार में पुण्य । अतप्त, भोग को नाश करने वाला काव्य है ।।१४०॥ मय दया धर्म के प्रचार के साथ फैलाते हए पाने वाले के सम्पुर्ण कष्ट नाश श्री शिवकोटि प्राचार्य शिवानन के रोग को नाश किया हुआ यह काव्य होते हैं । उस समय मोक्ष मार्ग खल जाता है । जिस समय ससार में मनुष्य के है। अन्दर मुख का मार्ग मिलता है तब जोव संसार से छूटने की इच्छा करते है। नाग पुष्प, कृष्ण पुष्प स्पर्श होने से स्वर्ण बनाने वाला सिद्धांत काव्य तब उनको ठीक समाधि से मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा होती है । जब मोक्ष । है । कभी भी असत्य न होने वाला काव्य है। प्राप्त करने की समाधि उन्हें प्राप्त हो जाती है तब गुरू पौर शिष्य का भेद नाग अर्जुनक द्वारा सिद्ध किया हुआ काव्य है, अर्थात् नाग अर्जुन के समाप्त हो जाता है ।। १३०॥
| कक्षपुट में रहने वाला कक्षपुटाँक है ।।१४१३१४२२१४३११४४११४५॥ उसी समय अपने अन्दर शुद्ध होने का समय प्राप्त होता है । तब उसी श्री गुरू सेनगण से चला आया है। प्रेम से कहा हुआ सिद्धांत है। समय जिन धर्म का अतिशय चारों ओर प्रसारित होता है जब महान द्वादश अंगों। महान सुवर्ण को प्राप्त करा देने वाला काव्य है। का द्वादश अनुभव वृद्धि प्राप्त कर लेता है उसी का नाम जिन वर्द्धमान भगवान
राग और विराग दोनों को बतलाने वाला भूवलय है ॥१४६, १४७ का धर्म हैः ।।१३१॥
१४८, १४६, १५०, १५१,१५२।। समाधि के समय में मंगल प्राभृमयि यौवनावस्था को प्राप्त होता है जैसे ऊपर कहा हुमा प्रष्टमहा प्रातिहार्य वैभव का हमने यहाँ तक विवेचन कि चरखे पर, कातने से रूई का धागा बढ़ता जाता है उसी तरह। कर दिया है। यह काम्य अष्टम थी जिनचन्द्रप्रभु तीर्थंकर से सिद्ध करने के अध्यात्म वैभव भी तारुण्य को प्राप्त होता जाता है। यही शुरवीर मुनि का कारण यह अन्तिम पारम सम्पत्ति नामक अष्टम जिनसिद्ध झाध्य है ॥१५३॥ मार्ग है।
अब आगे श्री कुमुदेन्दु आचार्य कहते हैं कि रसमरिण सिद्धि तथा प्रात्म इसी प्रकार नवमौक में अपने अन्दर ही तारुण्य को प्राप्त कर अपने । सिद्ध का एक हो श्लोक में साथ साथ वर्णन करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं। अंदर ही दृढ़ रहता है ।।१३२।।
। प्रात्मा मृदु है और स्वर्ण मृदु है लोहा कठिन है, और कर्म भी कठिन है यौवनावस्था में यदि कोई रोग हो जाये तो जैसे वह स्वास्थ्य । जब लोहा और कर्म दोनों ही मृदु होते हैं तो यह समवशरण का वैभव बन को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जब अध्यात्म योग समाधि को प्राप्त हो जाता है जय कर्भ नर्म हो जाता है तो प्रात्मा जाकर समवशरण में विराजमान जाता है तब रोग, क्रोधादि सब को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार नवाक हो जाता है और जब लोहा नर्म होता है तो वह स्वर्ण बन जाता है ऐसे दोनों बन्ध नागर, पल्प शला का रूप होते हुए भी अपने अन्दर रहता है। ऐसा कथन । को एक साथ अनुभव करा देने वाला यह काव्य ममीकरण काव्य अथवा धन करने वाला कर्म सिद्धांत वन्ध है ।।१३३॥
सिद्ध रस दिव्य काव्य है । श्री गुरु पद का सिद्धांत है ।।१३४॥
विमान के समान शरीर को उड़ा कर आकाश में स्थिर करने वाला यह नाग, नर, अमर काव्य है ।।१३।
। यह काव्य है। उसी समय कहा हुअा योग काव्य है ॥१३६।।
यह पनस पुष्प का काव्य है। यह पात्मध्यान काव्य है ।।१३७॥
यह विश्वम्भर काव्य है। नाम पुष्प, चम्पा पुष्प, वंद्य काव्य है ।।१३८।।
यह भगवान जिनेश्वर रूप के समान भद्र काष्य है। योग, भोग को देने वाला सिद्ध काव्य है ॥१३॥
भव्य जीवों को उपदेश देकर जिन रूप प्राप्त कराने वाला काव्य है।
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सिद्ध रसमरिण के प्रताप से श्राकाश में उड़ कर लड़ती हुई सेनाओं के युद्ध को बन्द कर देने वाला काव्य है। आकाश में गमन करने वाले खेचरता के अनुभव का काव्य है ।। १५६||
मादल ( विजीरा) — जैसे एक रथ को रस्सी पकड़ कर हजारों आदमी खीचते हैं वैसे हो मादल रम से बने हुए रसमणि के प्राय से हजारों रोग नष्ट हो जाते हैं ।। १५७॥
पुष्पायुर्वेद से यह काम सिद्ध हो जाता है ।। १५८||
बाहुबलि अपने हाथ में केतकी पुष्प रखते थे। उस केतकी पुष्प के सिद्ध हुए पारद में भी नैकड़ों रोगों को नष्ट करने की शक्ति रहती है ।। १५६ ॥ आयुर्वेद के वृक्ष ग्रायुर्वेद, पत्र आयुर्वेद, पुरुष आयुर्वेद फल आयुर्वेद प्रादि अनेक भेद हैं, उनमें से यह पुप्प प्रायुर्वेद है। श्रेष्ठ पुष्प निर्मित दिव्य योग है ।। १६० ।।
अग्निपुट के चार भेद हैं:- दीपाग्नि २ ज्वालागि लाग्न ४ गाढ़ाग्नि । यहां चारों ही अग्नियों का ग्रहण है ।। १६१ ।। पादरी पुर से भी रस सिद्ध होता है ।। १६२ ।
पारा अग्नि का संयोग पाकर बढ़ जाता है, परन्तु इस क्रिया से उड़ नहीं पाता ।। १६३ ।।
सर्वात्म रूप से शुद्ध हुए पारे को हाथ में लेकर अग्नि में भी प्रवेश किया जाता है || १६४॥
मैकड़ों श्रग्निपुट देने से पारे में उत्तरोतर गुण वृद्धि होती जाती है ॥१६५॥
जो इस क्रिया को जानता है वह वेद्य है ।। १६६ ॥
तैयार किया हुआ शुद्ध निर्मल पावरम को साफ से कमरे में अमित के ऊपर रखकर थोड़ी देर के बाद गमनरूप में उड़ाकर जैसे कमरे के नीचे दीपक जलता रहता है उसी प्रकार यह पारा उड़कर छत से नीचे के दीपक के समान चमकता हुआ छत्राकार में स्थिर रहता है, उस समय वह व्यक्त रूप में आंखों से देखने में नहीं आता अर्थात् जैसे शरीर को छोड़कर प्राण निकल जाते समय श्रांखों से दीखता नहीं है, उसी प्रकार पारा भी नहीं दीखता है ।
सर्वार्थ सिद्धि सँघ बेंगलोर-दिल्ली
बहुत से विवाद करने वाले अज्ञानी लोग इसके मर्म अर्थात् भेद को न जानने वाले उसे यह समझते हैं कि यह आकाश में उड़ गया प्रर्थान् नष्ट हो गया और अपना काम बेकार हुआ ही समझते हैं। परन्तु वह पारा कहीं भी नहीं जाता है जहाँ का तहां ही है, किंतु विद्वान लोग, पारा उड़ते समय उसके नीचे को अग्नि को हटा कर तुरन्त ही उसके नीचे कागज का सहारा लगाते हुए जहां पारा ठहरता है वहां तक कागज नीचे पकड़े रहते हैं तब वह पारा उस कागज में आकर ठहर जाता है। इसी प्रकार जंगल में याकाश स्फटिक भी रहता है। सूर्योदय के समय में जैसे सूर्य क्रमशः ऊपर २ गमन करता है, और जब ठीक बारह बजे के समय ठीक बीच में आता है और स्थिर रहता है तब उसके बाद पश्चिम की तरफ उतर जाता है और सायं काल में श्रस्त होता है। उसी प्रकार यह प्रकाश स्फटिक भी नीचे उतरते-उतरते संध्या काल में जमीन में प्रवेश भीतर ही भीतर करता जाता है। रात के बारह बजे तक इसी क्रमानुसार इले २ एक स्थान पर स्थिर हो जाता है। इस को अधोगमन या पातालगमन कहते हैं ।
यदि चाकाश स्फटिक मणि पर सिद्ध रसमणि सहित पुरुष बैठ जाय तो मरिण के साथ-साथ सूर्य के साथ २ आकाश में और पृथ्वी के अन्दर गमन कर सकता है अर्थात् आकाश में ऊपर उड़ सकता है और नीचे पृथ्वी के अंदर घुसकर भ्रमण कर सकता है ।। १६७ ।।
fifeofuका नामक एक पुष्प है। इस पुष्प के रस से पारा सिद्ध किया जाता है जो ऊपर बताये हुए प्रकाश गमन और पाताल गमन दोनों में ठीक काम देता है ॥१६८॥
इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पुष्पों के रस से पारा सिद्ध किया जा सकता हैं ।। १६६ ॥
उससे भिन्न-भिन्न चमत्कारिक कार्य किये जा सकते हैं ॥ १७० ॥
उन भिन्न पुष्पों के नाम तीन अंक के वर्ग शलाकाओं से जो अक्षर
प्राप्त हों उनसे मालूम हो सकता है ।। १७१ ।।
इस प्रकार कार्य क्रम को बतलाने वाला यह भूवलय है ॥ १७२ ॥
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सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली शूरवीर दिगम्बर मुनियों के द्वारा सिद्ध किया हुपा काव्य भूवलय नामक ६४ अक्षर संयोग से भी प्राता है ॥११॥ है ॥१७३।।
इससे परमात्म कमा पंक भी देख सकते हैं ॥१२॥ जैसे दिगम्बर मुनि अपने चंचल मन को बांध लेते है अर्थात स्थिर कर । इसलिए यह परम अमृतमय भूवलय है ।।१८३ । लेते हैं उसी तरह सैकड़ों हजारों पुष्पों के रस से पारा स्थिर किया जाता है।। इस तरह [१] ६४४१ ६४ [२] ६४४६३=४०३२ इस तरह भूबलय से मन और पारा योनी स्थिर किये जाने हैं ।।१७४।।
[2] ६३४६२% २४६६५४ [४] ६२४६१=१५२४१०२४ सर्वार्थसिद्धि के अग्रभाग में सिद्धगिला है उसके श्वेत छत्राकार रूप में इस क्रम के अनुसार है । इस प्रकार महारशि को बतलाना ही परमात्मा का लिखा हा अंक मार्ग जो बाता है उसो अंक को अरहतादि नौ ग्रंकों से मिश्रित अर्थात् केवली भगवान की ज्ञानरूपी कला है। यह कला इसमें गभित होने के अपने अंदर देखना, जानना हो भूवलय नामक सिद्धांत है ।।१७५||
कारण यह भूवलय ग्रन्थ परमात्म-रूप है। परमागम मार्ग से आयुर्वेद को निकाल दिया जाय तो-१३.००००००० . उत्तरोत्तर ऋद्धि प्राप्त योगी मुनि के समान पहले के तीन अकनि समस्त करोड़ पदों को मध्यम पद से गुणाकार करने से २१२५२८००२५४४०००००० अंको को अपने अंदर समावेश कर लिया है। उसी तरह यह चौथा अध्याय भी इतने अक्षर पागम मार्ग से सिद्ध है अर्थात् निकल पाते हैं। ये अंक एक सागर
यहां ७२६० अंकों को अपने अंदर गभित कर नौ अंक में सिद्धांक रूप होकर के समान हैं । तो भी यह अंकाक्षर इ पुनरुक्त रूप है । इसलिए यह सागर रूप
श्रेणी रूप में स्थित है, अर्थात् १० चक्र के अंदर यह गभित है ।।१४।। 'रन मंखूषा' नाम से प्रसिद्ध है ।।१७६।।
इतने अंकों में से और भी अंतर रूपसे निकाल दिया जाय तो १०९२६ इस भूवलय में ७१८ भाषामों के अवतार हैं, यह अवतार प्रथम संयोग। इतने और भी अंक पा जाते हैं, इतने अंकों को अपने अंदर गर्भित करता से भी निकल पाता है ऐमा कहने वाला यह सिद्ध भूवलय नामक काव्य है||१७७॥1हुमा यह भूवलय नामक ग्रन्थ है ॥१५५।। दूसरे संयोम से भी प्राता है ॥१७८।।
'इ' ७२६०+ अंतर १०९२६=१८२१६ । तीसरे संयोग से भी प्राता है ।।१७६।।
अथवा 'मा' - ई = ४६६११+१८२१६=६४८२७ ॥ चौथे संयोग से भी आता है ॥१६011
इति चौथा 'इ' अध्याय समाप्त हुआ।
चौथे अध्याय के प्रथम अक्षर से लेकर ऊपर से नीने तक पड़ते जांय तो प्राकृत गाथा निकल पाती है उस का अर्थ इस प्रकार है
इस भूदलय अन्य के मूल तन्त्र कर्ता श्री वीर भगवान हैं। उनके पश्चान् इन्द्रभूति ब्राहाण, उपतंत्र कर्ता हुए, कुमुदेन्दु प्राचार्य तक सभी प्राचार्य अनुतंत्र कर्ता हैं । प्रब धागे इस अध्याय के बोत्र में आने वाले संस्कृत गद्य का अर्थ कहते हैं :
श्री परम पवित्र गुरु को नमस्कार, श्री परमगुरु और परम्परा प्राचार्यों को नमस्कार, श्री परमात्मा को नमस्कार ।
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पांचवां अध्याय ई* ग पाबाग हिन्दण मुन्दके बहा । नागतकाल वेल्लयनु । प्राय स दन्तव सागुत काणुव । श्री गुरुवयवर ज्ञान ॥१॥ य* वेयकाळिन क्षेत्र वळतेयोळडमिसि । अवरोळनंत, बस क* लान् । कवनवदोळ सवियागिसिपेळुव । नव सिरिइरुव भूवलय ॥२॥ म्* रमद समयज् जान बातमनरूपु। निर्मलानन्दतद् असक ल* धर्मव परसमयद वक्तव्यतेयलि । निर्मलगोळिसुव ज्ञान ॥३॥ णा गवरणीय कलियलु । तानु केवल ज्ञानियागि ॥ श्रानन्द क* रतु पात्म स्वरूपव ताळ्व । श्री निलयान क प्रोमबत्तु ॥४॥ या वाग नोडिदरावागअललिये । ठाबिनपूणाचकवेनसि ॥ ताबुका लु* यव होनदुवन्कगळनु । तीविकोडिरुवातम नवम ||
पावन परिशुद्ध नवम ॥६॥ ईविश्व परिपूर्ण नवम ॥७॥ साविर लक्षानक नवम ॥८॥ पावन सूच्यग्र नवम ॥६॥ श्री विशवदादियु नवम ॥१०॥ साविर कोटिगळ् नवम ॥११॥ सावु वाल्विकेयोल्ल नवम ॥१२॥ साबु नोवुगळल्लि नवम ॥१३॥ नायुगळरियद नवम ॥१४।। श्री वीरनरिकेय नवम ॥१५॥ दावानल कर्म नवम ॥१६॥ ऋवागमवर्ष नवम ॥१७॥ प्रोविद्यासाधन नवम ॥१६॥ पावनवागिप नवम
क गुलामानुपपता २०॥ तावुताविनोळेलल नयम ॥२१॥ श्रीवीर सिद्धान्त नवम ।।२२॥ श्री बीरसेनर नवम ॥२३॥ नायुगळळे युव नवम ॥२४॥ काबुतलिरुव भूवलय ॥२५॥ व रद हस्तद नवपदद निर्मलदनक । गुरुगळय्वर इ * रदनक || सरससाहित्यदवर्णनेगादिय । वरदकेबललधियन्क ॥२६॥ हा रदग्रदरत्न नायक मरिणयन्क मूरु । मूर्ल प्रोसबत्र अनक नूरु साविर लक्ष कोटियोळ् प्रोसवम् । दारिवेगेयलोम्बत् अनका२७॥ रिक द्धि सिद्धिगळनु कूडिसि कोडुबक । होदि बस्व दिव्य विश्न ये॥ अध्यात्मसिद्धियसाधिसिकोडुवनक । शुद्घकाटकदनक।।२।। यशस्वतियाडुव पराक्रत लिपियन्क । रसद समस्कत ध* रव्यदनक॥ असमानद्रविडसान्ध्र महाराष्ट्र वशदलिमलेयाळदनकर
रिसिय गुर्जर देशदक ॥३०॥ रससिद्ध अन्गव अनक ॥३१॥ यशद कळिनगद अनक ॥३२॥ रसद काश्मीरानगवनक ॥३३॥ ऋषिय कम्भोजादियनक ॥३४॥ सनद हमम्मोरदनक ॥३५॥ यश शौरसेनीयदनक ॥३६॥ रस वालियनक दोमबत्तु ॥३७॥ वशवा तेबतियादियनक ॥३८॥ रसवेगि पळुधिन अन्क ॥३६॥ असमान वन्ग देशान्क ॥४०॥ विषहर बामहिपायनक ॥४१॥ रस नेमि विजयादनक ॥४२॥ व्यसनर्वाळप पद्मदनक ॥४३॥ रस सिद्धि वयुदयरनक ॥४४॥ वशद वयुशालियाद्यनक ॥४५॥ रसद सौराषटर दायनक ॥४६॥ यशद खरोटिय अन्क ॥४७॥ वशद निरोष्ट्रद अन्क ॥४८॥ यशदापभ्रमशिकवन्क ॥४६॥ विशेय पयशाचिकरन्क ॥५०॥ यशद रक्ताक्षरदनक ॥५१॥ वशवादरिष्ट देशान्क ॥५२॥ कुसुमाजियर देशबनक ॥५३॥ रसिकर सुमनाजियनक ॥५४॥ रसदयन्द्रध्वजदनक ॥५५॥ रस जलजद दलदनक ॥५६॥ वशद महा पद्मदनक ॥७॥
रसवर्ष मागधियनक ॥५॥ प्रा* रस पारस सारस्वतदन्कम् । बारस देशदादयन्क ।। वीर व* शद वेशदारय के सेरिद । शूर मालव लाट गवुड ॥५६॥ इस गळ नेरेनाड मागध देशान्क । प्रयराचेय विहारान्क ॥ नव म* दक्षरद उत्कल कन्याकुवजानक। सपिय बराह नानक ॥६॥ रिश धिय वयशरमणर नाडिनन कवु । शुद्ध वेदान्तदाद्य स र । इद्लले इश्व सन्दर्भद नाडक । एदु बरुव चित्रकरव ॥६॥ या डगम्य नाडक अन्वेने बाम हिय । एडगम्य सरद कर लब्द मडुविनन्कदे बेरेसलु प्रयवयवादन्क । एडबलसबन्दरियन्क ॥२॥
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सिरमूवलय
५४ में १ मिलकर = ५५ = १० (यह सौंदरिय अन्क) पोडविय हदिनेन्दु लिपिय ॥६३॥ विडिसलार प्रोम्बत्तरक ॥६४॥ गडिय मूरल मूररन्क ॥६५॥ सङगरल हदिनेन्दु ॥६६॥ डिडिगळनोड गूडिदन्क ॥६७॥ कडेगे ऐवत्नाल्करक ६८॥ प्रोडगडे ऋयहाँदनेन्दु ॥६६॥ नडेघ मुरर मोमबत्ताक ||७०॥ अडविय बनवासियक ॥७१॥ मडदिय त्यागिगळक ॥७२॥ इडिदु कूडिवर अोम्दे अन्क॥७३॥ बिडिसि नोडिदरोम्दे अन्क ॥७४॥ गुडियोळाडुव ज्ञानदन्क ॥७॥ सुउियु करमाटकमन्क ॥७६॥
हिडिय मातुगळ भूवलय ॥७७॥ प्रोडगूडे करमाटकअनक ॥७॥ पर रमम् पेलिद हदिनेन्टु मानिन । सरसद लिपि ई नवम ॥ वर म नगल प्राम्हतदोळु अन्कव । सरिगडि बरुवे भाषेगळम् ॥७॥ र सवु मूलिकेगळ सारव पोर बन्ते । होस करमाटक भाषे ॥ रस २ री नवमान्कवेल्लरोळ्बेरेयुत । होसेदु बन्दिह प्रोम् प्रोमदन्क ॥८॥ स रम वादा प्रोम्कार दोळडगिद । सर्वज्ञ वारिणयन होसेघे ॥श् रेॐ यम् पोन्दुतगरिगतबन्धदोळ् कटि । धर्म सासराज्यदन्कदो ॥१॥ प* बवागिसि पद पद्मवनागिसि । हरुदय पद्मा दलरि ।। सद य त्ववेनिसिमेदुळ होक्कु केल्वर । ह रुदयके करमवाटवनु ॥२॥ रा* गव वयाग्यवनोम दे बारिगे। तागिसे करणार कद ।। बागिल सा लिनिम् परितन्व कारण । श्री गुरु वर्धमानान्क ॥३॥
९४६ - ५४ ईग सम्ख्यातदन्क 1४1 नागल सम्रूयातदन्क | देशदनन्त समरूपान्क ॥८६रागद मध्यमानन्त ॥८॥ तागलु उत्क्रुष्टानन्त ॥ प्रागुवनस्तानन्ताक ॥८६शरी गुरु मध्यमानन्त ॥९॥ श्रोम् गुरु उत्कृष्टानन्त ॥१॥
आगर रत्नत्रयान्क ॥२॥ चागर शाश्वतानन्त ६३ जागरविरुव भूवलय ॥ ४॥ ग* मनिसे 'अथवा प्राकरत संस्कृत। विमल 'मागध पिशाच' म भा ॥ सम 'भाषाश्च शूरसेनी च' द । करमदें षष्टोतर' बभरि ॥५॥ व रुशिसे 'भेदोवेशविशेषा'द । वर विशेषादपभ रमशह ॥ परम् प* द्धतियिन्तिवरनु मूररिम् । परि गुरिशसलु हदिनेन्टु ॥६॥ म* रळिसलयवा 'कर्णाट मागध'वरे। बरलु'मालव लाट गौड'। वरिपरि 'गुर्जर प्रत्येक प्रयमित्य' । वरद 'ष्टादश महा भाषा' ॥७॥ म रळि मरलि बेरे विधविन्द पेव । गुरुवर सन्ध भेगळ ।। व* रकान्य सरणिय शप्लियन्तिरळोग । सरस सक्नदरिय रिदम्क ॥९॥ ग* बमाक गबनेयोल भूषलय सिद्धांत । अवरतुळोमवव र* नका ॥ नवमनु प्रतिलोमवागिसि बन्दन्क । सविय भूवलय सिद्धांत |2| सा* विरदेन्दु भाषेगळिरलवनेल्ल । पावन महावीर वारिस । काब घ र्माकवु अोमबत्तागिपाग 1 तावु एळ्नूर हृदिनेन्दु १००।
६४३-१८ । १८४३ =५४ कासदु हम्सद लिपियम ॥१०॥ नावरियद भूत लिपियु ॥१०२५ शरो वीर यकषिय लिपियु ॥१०॥ ठाविन राक्षसि लिपियु ॥१०४॥ तावहिल ऊहिया लिपियु ॥१०५॥ काये यवनानिय लिपियु ।।१०६। कावद तुर्किय लिपियु ॥१०७।। पावक दरमिळर लिपियु ॥१०॥ पावेव सइन्य लिपियु ॥१०६॥ ताव मालवणोय लिपियु ॥११०॥ श्री विधकोरिय लिपियु ॥११॥ पावन नाडिन लिपियु ॥११२॥ देव नागरियाब लिपियु ॥११३॥ वविध्य लाडद लिपियु ॥११४॥ काविन फारशि लिपियु ॥११॥ काव आमित्रिक लिपियु ॥११६॥ भवलयद चाणक्य ॥११७॥ देवि ब्राह्मिा मूलदेति ॥११॥ श्री वीर वारिण भूदलय ॥११॥
देवि सवन्दरिय भूवलय ॥१२०॥ पु* ट्ट भाषेगळेळु नूरक मातिन । गट्टिय लिपिगळिल्लदं न कर हुनपर भाषेय नरियुव । हुलिललद लिपियनक ॥१२॥ व र 'सर् वभाषाम इ भाषा एन्नुव । प्ररहन्त भाषित वाक्य भा पर विश्व विद्यावभासिने (एन्नुब)एन्देम्बा परिभाषेय अंक ॥१२२॥ वा* सवरेल्लराडुव दिव्य भाषेय । राशिय गरिगतदे कट्टि।। पाशा बस मारुत कुम्भदोळडगिति श्रीशनेळ नूरनक भाषे ॥१२॥ इबरोळ हृदुगिह दिनेन्दु भाषेय। परगळ गुरिणसुत बरुव * सवनव तोरेदु तपोवनवन सेरे। हरुवय के शान्ति ईवन्क ॥१२४॥
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वा चक्रान्कम् ॥१३६॥ धावल्माय भातिनक ।
रा* 'पिस्वयम् प्रविष्टिहि चतुष्टि
fसरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली रि* विगळल्लरु कूडि महिमेय लिपिगळ ! वशगोन्डु भाषेय सर मर हसगोळिसुत ईगरण हिन्दरण मुन्वे । यशवप्प मातुगळन्क ॥१२॥ या व भाषेगळलि एष्टक वेन्तुय । ठाविन शन्केगे तावु ।। तायु स मन्वयमोळिसि समाधान । वीव सिद्धान्त भूवलय ॥१२६॥
ई विश्ववाळुव अन्क ॥१२७॥ श्री वोरवारिणय ग्रंक १२८॥ साविरलकृषशन्केगळ ॥१२६॥ ठाविन उत्तरदन्क ॥१३०॥ पावन स्वसमयदंक ॥१३१॥ आविद्य काव्यद अंक ॥१३२॥ कावनाडय मातिनंक ॥१३३॥ विश्वव्यात्मदंक ॥१३४॥
तीविकोन्छिह दिव्य अंक ॥१३५॥ सावनळिसुव चक्रान्कम् ॥१३६॥ धावल्य बिन्दुविनन्क ॥१३७।। प्रा विश्ववंक 'रिषष्टि हि चतुहषष्टि' । पावनवादा ग्रंक म* तीवि 'रावरगाह शुभमतेमताहंदा काव 'प्राकृतेसंस्कृतेचा॥१३॥ रापिस्वयम् प्रोक्ताह स्वयम्भुवा' । प्रापद विरुवन्कन बन॥धापद सम्योगदोळ अरबत्नाल्कु । श्रीपदपद्म सम्गुरिगसे ॥१३॥ णु णुपाद बाह्मिय एडगय्योळंकित । गुगनद सरमाले ब न धापद सम्योगदोळु पर्वानाल्कु। श्री पद पद्म सम्गुरिगसे ॥१४॥ स* रस सउंदरिय बलद कम्योळच्चोस्ति । अरवत्नाल्कु ध* दविनोळ आदीशवरेदखरोष्टिय। तनियाद बृषभाकितधु ॥१४१॥ र सयुतवा 'अकारादि हकारान्ताम्' । वश 'शुद्धाम् मुक्तावली म् क रस 'मिवस्वर व्यन्जनमीदेन द्वि । वश 'दाभेद युपय्यु ॥१४सा ए* वर 'कोम् प्रयोगवाह द 'परयंताम् सरव' । विवर विद्यासु' म* 'सर्ग'। नव 'ताम्अयोगाक्षरसम्भूतिम्'। सवि नरकबीचाक्षरयश्वि म नु 'ताम् समवादि दधत्वाहि मेधा । विन्पति सुन्दरो, बर भ घन 'सुन्दरी गरिणतमस्थानम्'स'क्रमहि । धनवह'सम्यगधास्यता१४॥ का र ततो भगवतो नानिहिस्रुता । कषरावलोम सिद्ध व ह 'नमई'। सरतिव्यक्तसुमनगलाम् सिद्ध' गुरु मात्रुकाम् 'स भूघलय दर रुशनमाडलन्याचार्य वानगमय । परियलि ब्राझियु व या दे। हिरियळादुदरिन्द मोदलिन लिपियंक । एरडनेयदु यवनांक१४६ म रळिद दोष उपरिका मूर। वराटिका नाल्कने अंक ॥ सरव जे* खरसापिका लिपि अाइदंक । वरप्रभारात्रिका प्रारम् ॥१४७॥
सर उच्चतारिका एम् ॥१४॥ सर पुस्तिकाकषर एन्टु ॥१४६॥ वरद भोगयवत्ता नवमा ॥१५०।। सर वेदनतिका हत्तु ॥१५॥ सिरि निन्हतिकाहन्मोंदु ॥१५२॥ सर माले अंक हनेरडु ॥१५३।। परम गरिपत हदिमूरु ।।१५४॥ सर हदिनाल्कु गान्धर्व ।।१५।। सरि हदिनय्दु आदर्श ॥१५६।। वर माहेश्वरि हदिनारु ॥१५७॥ बरुव दामा हदिनेछु ॥१५८॥ गुरु बोलिदि हदिनेन्दु ॥१५६।।
इरुविवेल्ल अंक लिपियु ॥१६॥ ति रियन्च नारकररियद हदिनेन्टु । परिशुद्ध लिपियंक व* वनु । बरेयलु बहुदुहेळ केळलु बहुदव । सरसान्क प्रकपर लिपियोळ्१६१ रके सभाव काव्य सनदर्भदुचित नुडि । यशस्वती देविय मर गळ ।। होसदाद रोति देसिक दरिकेयनेल्ल । हेसरिटुकलियलु बहुदु१६२ या शस्वतियममन तगि सुननदेय । बसरलि बनद् अन्गजन न। यशद कामायुर् वेददोळ त्यागव । रससिद्धियिम् कारणबहुदु ॥१६३॥ रण वमन्मथ रोळगादिय मन्मथ । अवनादि केवलिनम्न हक सुविशाल कायद परमात्म रूपनु । अनिन्द सवन्दरि कन्ड ॥१६॥
अवधरिसुत तन्गिर्दन्क ॥१६५॥ छवियोळ कारपब सत्यान्क ।।१६६॥ नवमन्मथरादियन्क ॥१६७।। भवभय हरण दिव्यान्क ।।१६८।। अवरोळ प्रतिलोमदन्क ॥१६६॥ अवनु कूडलु मोमबत्त प्रोमदु १७०॥ नवकार मन्त्र प्रोम्दु ॥१७१२॥ सवरणर धर्मानक प्रोमदु ॥१७२॥ सवियामिसिरुब भूवलय ॥१७३॥
अनुलोम १-२-३-४-५-६-७-८-६ प्रतिलोम 8-८-७-७-५-४-३-२-१
लब्धानक १-१-१-१-१-१,१-१-१-० अोम्गत्प्रोमदु गिक जद हत्तनु भोमबत्तागिसिदन्क । प्रदरनुलोमान्कपद पूछ । प्रदरलिवश्वसोननेय बिट्टमोमबत तु । पदगळकाव्यभूवलय ।१७४
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सिरिभूचलय
सर्वांच सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली मिल किह एळ नऊरु नक्षरभाषेयम् । दकिप द्रव्याग प्रम र तकक ज्ञानव मुन्दकरियुव प्राशेय । चोक्क कन्नाड भूवलय ॥१७॥ त रणनु दोर्बलियवरक्क बामहियु । किरियसौन्दरि अरि ति रख ॥ अरबत्नात्का पर नवमानकसोल्नेय । परियिह काव्य भूवलय
॥१७६।। सरमग्गिकोष्टक काव्य ॥१७७॥ गुरूपाळम् परितन्दगणित ॥१७८॥ गुरुगळयबरगणितानक ॥१७॥ परहनतरीरेविह गणित ॥१०॥ सिरिष भेश्वर गणित ॥१८१॥ गुरुवर अजित सिद्धगणित ॥१२॥ परमात्म शम भव गरिणत । १८३॥ सुपूनम शामिलानेश ६ म नर वन्दय शी सुमति ॥१५५।। तिरियनच गुरु पद्म किरण ॥१८६।। नरकर वन्द्य सुपार्शव ॥१८७॥ गुरुलिन्ग चन्दुर प्रभेश ॥१८॥ सिरि पुष्पदन्त शोतलरु ॥१८६॥ गुरु याम्स जिनेन्द्र ॥१६०॥ सरुवज्ञ वासुपूज्येश ॥१६॥ अरहन्त विमल अनन्त ॥१९२॥ हरुषन श्री घरम शान्ति ॥१९३॥ गुरु कुन्थु पर मलि देव ॥१६४।। सिरि मुनि सुव्रत देव ॥१६५॥ हरि विष्टर नमि नेमी ॥१६६॥ यर पार्शव वर्धमानेन्द्र ॥१६॥
गुरु माले इप्पदनाल कुम् ॥१६॥ तक हरण मन्मथनारु सोन्ने एरडु । सरियोम दु अन तर बोके घ॥ सरस कव्य यागमदरवत् नालक कषर । विरुव ई' काव्यवु ऐदु।१६६।
शिरसिनन्तिह सिद्धराशि [भूवलय] ॥२०॥ म् नविडेपोमबत् प्रोम्दुसोग्नेयु एन्टु । जिनमार्गदतिशय घ* म ॥ वेनुत स्वीकरिसलु नवपद सिद्धय । घनमर्म काव्य भूवलय
५ वा ई ८०१६+अन्तर १२००६-२००२५ अथवा अ-ई ६४,८२७+ई २०,०२५-८४,८५,२ पहले श्रेणी के सुरु के अक्षर से लेकर नीचे पढ़ते प्राचाय तो प्राकृत निकलता है
ईयमणाया वहारिय परम्परा गम मणसा।
पुवाइरिया प्राराणु सरणं कदं तिरयरण निमित्तम् ॥५॥ बीच में लेकर ऊपर से नीचे के तरफ इसी श्लोक के समारण पढ़ने आजाय तो संस्कृत श्लोक निकलता है
सकल कलुष विध्वंसकं |यसां परिवर्द्ध कं।
धर्म संबन्धकं भव्य जीव मनः प्रति बोधः ॥ ६५ श्लोक से इनिर्टिड कामा तक पढ़ते जाय तो पुनः संस्कृत काव्य की दूसरी भाषा निकलती है। अर्थात्प्राकृक, संस्कृत, भागध, पिशाच, भाषाश्च, सूरशेनोच । षष्ठोत्तर भेदा देश विधेशादप शह ॥ करर्णाट मागध मालव लाट गौड गुर्जर प्रत्येकत्रय मित्याष्टादश महा भाषा । सर्व भाषा मई भाषा विश्वविद्यालयाव भाषिणे॥ ... त्रिषष्टिः चतुषष्ठिा वर्णहा शुभमते मतह । प्राकृतेसंस्कृते चापि स्वयं प्रोताह स्वयंभुवह ॥ प्रकारादि हकारांतां शुद्धाम् मुक्तावली-मिव । स्वरव्यंजन भेदेन द्विधाभेदमुपैययुषीम ॥ प्रयोग वाह पर्यंत सर्व विद्या सुसंगताम । अयोगाक्षर संभूतिम् नेक वीजाक्षरश्चिताम ॥ समवादि वदत्ब्राम्हो मेधाविन्यति सुंदरी । सुदरी गणित स्थान क्रमः सम्यग्हस्थत् ॥ ततो भगवतो वक्त्रानिहह बताक्षरावलीं। नवइति व्यक्ति समगला सिद्ध मात्रकाम् ॥
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पांचवां अध्याय
अब हम पांचवें अध्याय का विवेचन करेंगे।
1 से खण्ड रूप और प्रकाश की अपेक्षा अखण्ड रूप कह सकते हैं । उस छोटी मटइस समय वर्तमान काल, बीता हुया अनादि काल और इस वर्तमान की के अंदर जो आकाश का प्रदेश है उसमें रक्खे हुए एक परमाणु को आकाश के आगे आने वाला भविष्य काल, इन तीनों कालों के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, १ का सर्व-जघन्य प्रदेश कह सकते हैं । उस परमाणु को आदि लेकर १२-३-४-५ दक्षिण चारों दिशाओं ईशान, वायव्य, आग्नेय और नैऋत्य, ऊर्ध्व प्राकारा और । ग्रादि परमाणु बढ़ाते हुये समस्त आकाश के प्रदेशों की पंक्ति जानना केवलीनीचे के भाग में यानी आकाश की सभी दिशाओं में, विद्यमान समस्त पदार्थ । गम्य है क्योंकि केवल जान के द्वारा समस्त विश्व के पदार्थ पाने जाते हैं ॥१॥ महन्त सिद्ध परमेष्ठी के ज्ञान में स्पष्ट झलकते हैं । संसार का कोई भी पदार्थ उपर कड़ी हुई समस्त वस्तयों को सरसों के दाने के बराबर क्षेत्र में उनके ज्ञान से बाहर नहीं है।
छिपा कर उसमें अनन्त को स्थिर करके उस सकलांक को नौ अंक में मिश्रित विवेचन:-प्रतीत (भूत) काल बहुत विशाल है, जितना-जितना पोछे करें, मूदु रूप में करने वाले नव श्री अर्थात् ग्रहन्त सिद्धादि नव पद रूप में रहने जाते हैं, आकाश की तरह उसका अंत नहीं मिलता। इस लिये इस काल को। वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ॥२॥ अतीत काल या अनादि काल कहते हैं। इतना विस्तृत होने पर भी अनागत विवेचन:-असंख्यात प्रदेश वाले इस लोक में अनंतानन्त पुद्गल काल से भूतकाल बहुत छोटा है । अनीत काल को अनन्ताङ्ग से गुणा करने पर परमाणु परस्पर विरोध रहित अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं। (परमाणु जितना लब्धाङ्क आता है उतना अनामत काल है । इन दोनों कालों के बीच में । प्रदेशेष्वनत्तानन्तकोटयः जीव राशयः) इस उक्ति के अनुसार वैद्यवर्तमान काल समय मात्र है, यह वर्तमान काल बहुत छोटा होने के कारण शास्त्र के कर्ता वाग्भट्ट ने कहा है। जीव राशि में से प्रत्येक जीव में अनन्त कर्म भूतकाल और भविष्य काल को छोटी कड़ी के समान जोड़ता है। इसी तरह । वर्गणाओं का कसे समावेश होता है? इस बात का खुलासा पिछले अध्याय में क्षेत्र भी है, क्षेत्र का अर्थ अाकाश है। यह आकाश अनन्त-प्रदेशो हति हुएकह सके है। माकाश प्रदेश में अनन्त जीव और उनके कर्मागुनों को जानने के भी तीन लोक की अपेक्षा से असंख्यात-प्रदेशी भी है। परमाणु की अपेक्षा से ज्ञान को नवमांक में बद्ध कर मनेक भाषात्मक रूप में व्यक्त करके उन सब को संख्यातप्रदेशी (एक प्रदेशी) भी है।
। एकत्र करके इस भूवलय ने कथन किया है। एक घड़ा रक्खा हुया है उसके बाहर किसी भी ओर देखा जावे आकाश ! लोक में अनादि काल से २६३ मत है, एक धर्म कहता है कि सम्पूर्ण ही माकाश मिलता है उस का अन्त नहीं मिलता, इसलिये आकाश को 'अनन्त-जीवों की रक्षा करनी चाहिए । दुसरा धर्म कहता है जीवों का नाश करना प्रदेशी' कहा है । घड़े के भीतर जो आकाश है वह सीमित है, क्यों कि वह घड़े चाहिए। तीसरा धर्म कहता है ज्ञान ही श्रेयस्कर है, तथा चौथा धर्म कहता है के भीतरी भाग के बराबर है, अत: उसका अन्त मिल जाता है। फिर भी उस कि अज्ञान ही श्रेष्ठ है। इस तरह परस्पर हठ करके कलह करते रहते हैं। इस छोटे आकाश के प्रदेशों को अंकों से गणना नहीं कर सकते, इसलिये वह असंख्य प्रकार भिन्न-भिन्न मतों में परस्पर संघर्ष होने के कारण जैनाचार्यों ने इन धर्मो प्रदेशी है । यदि उस घड़े के भीतर बहुत छोटा ( संख्यात प्रदेशी) मिट्टी का को पर-समय में रखा है। इन सब पर-समयों को कहने के जो वचन हैं उसको बर्तन रख दिया जाय तो उस में जो माकाश के प्रदेश हैं वे संख्यात है, उनकीपर-समय-वक्तव्य कहते हैं । जब इन सभी धर्मों को एकत्र करके कहने के लिए गिनती की जा सकती है। १,२,३,४,५ आदि रूप से उनकी गणना कर वाक्य की रचना होती है तब सभी धर्मो' को समन्वित करके छोड़ देता है। सकते हैं। इस प्रकार अखण्ड माकाश को घट आदि पदार्थों की अपेक्षा के भेद यह समन्वय दृष्टि भूवलय का एक विशिष्ट रूप हुया है। ३६३ इस अंक को
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सिरि भूवलय
गर्वार्थ सिदि संघ बैंगलोर- विल्मी दाहिनी तरफ से मिलाने पर ६ और ३= पाता है और बांयी तरफ से नवमांक प्राप्त हो जाने पर हो जाता है। नवम अङ्क प्राप्त हो जाने के बाद ३ और ६ मिला देने से ह पाता है। इस प्रकार इन अंकों में समन्वय कर देना ही संख्या का जन्म हो जाता है अर्थात् के बाद एक, दो बोले जाते हैं इसोहै। यह क्रिया सम्यक् ज्ञान मात्र से ही साध्य है, अन्यथा नहीं । यही ज्ञान सभी लिए जन्म मरण रूप दोनों अवस्थानों में नवमांक रहता है ।।१२॥ मतों को समन्वय करने वाला है, और यही सम्यक्रज्ञान दर्शन चारित्र के साथ । सुख दुःख दोनों में नवमांक काम आता है ॥१३॥ मिलकर रत्नत्रय स्वरूप करके छोड़ देता है । वह रत्नत्रय ही आत्मा का स्वरूप
छद्मस्थ की बुद्धि के अगम्य नवमांक की गम्भीरता है ।।१४॥ है। सम्पूर्ण मल दोषों से रहित होने के कारण अनंतानंत वर्ग स्थान के ऊपर श्री वीर भगवान का ज्ञान-गम्य यह नवमांक है ॥१५॥ जाकर सब को जान लेता है। इसी तरह अनंतानन्त वर्ग स्थान के नीचे उतर
कर्म बन के लिए दावानल के समान जलाने वाला नवमांक है ॥१६॥ कर सर्वोत्कृष्ट असंख्यात तक आकर; वहां से जघन्य असंख्यात में उतर कर
ऋषि-सूत्र द्वादशांग नवमांक से बद्ध है ॥१७॥ वहां से पुनः सर्वोत्कृष्ट असंख्यात तक आकर और पुन: वहां से २ अंक तक
समस्त विद्याओं का साधक नवमांक है ।।१८। पाकर वहां से गणनातीत होकर एक अक्षर रूप में होता है। अब कुमुदेन्दु
वाणी को पवित्र करने वाला नवमांक है ॥१६॥ प्राचार्य इस नवमांक की महिमा का वर्णन करते हैं ।।३।।
विश्व का रक्षक यह नवमांक है ॥२०॥ ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त कर अनन्त
विश्व में व्याप्त नवमांक है ॥२१॥ सुख देने वाला अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी का प्राधयभूत यह नवा ॥४॥
श्री वीर भगवान का सिद्धान्त नवमांक है ।।२२।। यह नवमांक जहां भी देखें, सभी जगह पूर्णाङ्क दिखाई देता है नवांक। से पहिले के अंक मार्ग और मलिन दोख पड़ते हैं। उनकों को अपने अन्त
श्री वीरसेन प्राचार्य का सिद्धान्त नवमांक है ॥२३॥ मुख करके पूर्ण और विशुद्ध वनाने वाला यह नवमांक है ॥५॥
हमारा (कुमुदेन्दु प्राचार्य का) सिद्धान्त नवमांक है ॥२४॥ भावार्थ:-नव ९ अंक से पहिले के ग्रंक एक दो आदि सब ही अपूर्ण
इन सब ६ अङ्कों का रक्षक भूवलय है ।।२।। हैं क्योंकि उनसे अधिका-अधिक संख्या बाने अंक मौजूद हैं। एक नवमांक हो ।
यह नवमांक वरद हाथ के समान है, नव पर पंच परमेष्ठियों का इष्ट ऐसा है जहां संख्या पूर्ण हो जाती है क्योंकि उसके पागे कोई अंक ही नहीं है। है, सरस साहित्य के निर्माण में प्रधान है । क्षायिक नव केवल लब्धि (सायिक यह नवमांक पावन और परिशुद्ध है ।।६।।
सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त दान, अनन्त लाभ, विश्व भर में व्याप्त यह नवमांक है ॥७॥
अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त बीयं) प्रदान करने वाला है ॥२६॥ हजार, लाग्न प्रादि गिनतो में भो नवमांक है ।।८।।
रत्न हार को मध्यवर्ती प्रधान मणि के समान ही गणित का यह अङ्क पाक्न मूच्यग्र में भी नवमांक है अर्थात् छोटे से छोटे भाग में भी नवमांक । प्रधान अंक (नब) है । ३ अंक को ३ अंक से गुणा करने पर यह नवमांक है और बड़े से बड़े भाग में भी नवमांक है ।।।।
होता है । सो, हजार, लाख, करोड़ ग्रादि जितनी संस्था है उनमें एक संख्या श्री विश्व अर्थात् अंतरङ्ग विश्व में भी नवमाक है ।।१०।।
घटा दी जाय तो नो अंक हो सर्वत्र दिखाई पड़ता है। जैसे १०० में से { घटा हजारों करोड़ों आदि रूप से रहने वाला नवमाङ्क है ।।११।। देने से हो जाता है, १००० में से १ घटा दें तो हो जाता है, १०००
जन्म मरण जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष है, वैसे ही नवमांक की अपेक्षा १०० में से १ घटा दें तो EEEEE हो जाता है, १००००००० में से १ घटा दें अन्य सभी अङ्क रखते हैं। मरण अन्त को कहते हैं, संख्या का अन्त-मरण, तो RREEEEE हो जाते हैं ॥२७॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली
१००००००००००००००००००००
ऋग्वेद ऋषिमंडल स्तोत्र आदि इसी भाषा द्वारा श्री भूवलय में कहे
गये हैं। EEEEEEEEEEEEEEEEEEE
जिस देश में जो भाषा बोली जाती है, वह उसी देश में लोगों का केवलज्ञान आदि जान ऋद्धि. जंधा प्रादि से आकाश में गमन करा देने उपकार करती है और उसे "संदर्भ" कहते हैं। ४८ 'चित्रक भाषा' (चित्रों द्वारा वाली चारण-ऋद्धि और अणिमादिक अतिशय प्रदान करने वाली समस्त ६४ कही जाने वाली भाषा) अर्थात् चित्र बना कर अपना अभिप्राय बताना, सब
ऋद्धियों की सिद्धि कर देने वाला यह नवमांक है । सदा सार-मास रहने वाला ! टेला में सपाल मा से लोगों का उपकार करती हैं। जैसे कि-चीनी भाषा चित्र दिव्य विद्या रूप यह नवमांक है। अध्यात्म-सिद्धि का साधन करा देने वाला भाषा है । कहीं लोगों में परस्पर गाली गलौज हो गयी तो वहां वाले अपने नवमांक है । अष्ट कर्मों को नष्ट कर देने वाला नवमांक है । अथवा शुद्ध कर्मा- । सामने दो स्त्रियों का चित्र लिख देते हैं। यदि 'मारपीट हो गई' यह कहना टक भाषा का महानकाच्य है 1 अथवा घाति-कर्मों के नष्ट हो जाने के बाद बचे होता है तो तीन अर्थात् बहुतसी स्त्रियों का चित्र बना देते हैं। इसका अभिप्राय हए ८५ अर्थात कर्मों का वर्णन करने वाला यह काव्य है। इसलिए (१) गद्ध यह है कि स्त्री का स्वभाव सब देशों में एक जैसा रहता है। जहां दो स्त्रियां कर्माटक है ॥२८॥
इकट्ठी हुई कि बातों-बातों में गाली देने लगती हैं और जहां तीन पादि ज्यादा यशस्वती देवी द्वारा बोली जाने वाली प्रावात भाषा १, लिपि २, रस एकत्र हुई तो मारपीट भी करने लगती हैं। इसीलिए चित्र में २-३ आदि भरी सरस नित्य संस्कृत भाषा ३, अस्मान् द्राविड़ा ४, (१ कानड़ी, २ तामिल, स्त्रियां दिखाते हैं । ३ तेलङ्गी, ४ मलेयाल और ५ तुल) इन पांच भाषाओं को पंच द्रविड़ भाषा भगवान ऋषभदेव ने अपनी बड़ी पुत्री को जो लिपि (अक्षर विद्या) कहते हैं ५, महाराण६, गुर्जर ७, अंगद, कलिंग ६, काश्मीर १०, काम्भोज दहिने हाथ की हथेली पर लिख कर सिखाई थी उसमें जो अक्षर हथेली के ११, हम्मीर १२, शौरसेनी १३, रुहाली (पाली) १४, तिब्बत १५, बंगी। मीधे मार्ग पर लिखे गये थे उनका प्राश्रय लेकर बोली जाने वाली भाषा एक इत्यादि सात सौ भापायें हैं। बंग १६, विषहर ब्राह्मी । नेमि 'विजयाई १७, प्रकार की हई और हथेली के निम्न भाग में लिखी गई लिपि (अक्षर) का पद्म १८, वैधी १६, वैशाली २०, सौराष्ट्र २१, खरोष्ट्र २२, नीरोष्टा २३, पाश्रय लेकर जो भाषा बोली गई वह दूसरी प्रकार की भाषा हुई। इसी प्रकार अपभ्रंशिका २४, पैशाची २५, रक्ताक्षर २६, ऋष्ट २७, कुसुमाजी २८, सुमना- दक्षिण देश के भिन्न-भिन्न भागों में बोली जाने वाली पाठ भाषायें हैं। जी २६, ऐन्द्रध्वजा ३०, रसज्वलज ३१, महा पद्म ३२, अर्द्ध मागधी ३३।।
·
अथवायहां तक ५८ श्लोक हो गये । आगे ५६ श्लोक से लिखेंगे ॥२६ से ५८ तक ।।
प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाय सूरासेनीय । ३४ पारस, ३५ पारस, ३६ मारस्वन, ३७ बारस, ३८ वीर वा, ३६ मालव, ४० लाट (लाड देश में इस भाषा के अनेक भेद है)
छट्टोत्तर मेदाहिदेशविशेषादपभ्रंशः ।। ४१ गौढ़ (गौड़ देश के पास रहने वाले मागध), ४२ मागध के बाहर का देश अर्थ-प्राकृत, संस्कृत, मागध, पिशाच, शौरसेनी तथा अपभ्रंश इन मूल विहार, ४३ नौ अक्षर वाले, ४४ कान्य-कुब्ज, ४५ बराह (वराड), ४६ ऋद्धि! ६ भाषाओं का ३ से गुणाकार करने पर १८ महाभाषाएँ ऋम से होती प्राप्ति को कर देने वाले वैश्रवण, ४७ शुद्ध बेदान्त भाषा तथा दो ढाई हजार है ॥६५ ६६॥ वर्ष पहिले की संस्कृत भाषा को गीवारण भाषा कहते हैं। भूवलय के श्रुतावतार पुनः कर्णाटक, मागध, मालव, लाट, गौड और गुर्जर इन मूल ६ नामक दूसरे खण्ड के संस्कृत विभाग में गीर्वाण इसी को कहा है। | भाषामों का ३ से गुणा करने पर १८ महामाषाय हैं ।।१७॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली इस रोति से दिगम्बर जैन आचार्यों के संघ भेद के कारण काव्य रचना। अतः अर्हन्न भगवान को दिव्य भाषा को विश्वविद्याभाषिणी भी कहते हैं। को पद्धति सरणी तया शैली आदि बदलती रहती है किन्तु यह परिवर्तन हमें इस भूवलय ग्रन्थ में चौंसठ अक्षर होने के कारण विश्व की सर्व विद्यानों की यहां इष्ट नहीं है अपितु भगवान ऋषभनाथ ने अपनी सुपुत्रो सुन्दरी को जो प्रभा निकलती है। इसलिये विविध भाषाओं को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने मंक में कमो न बदलने वाली अंक विद्या सिखलाई थी, वही अंक विद्या हमें यहां इष्ट | बद्ध कर दिया है ॥१२२॥ है।
स्वर्गों में प्रचलित भाषा को दिव्य भाषा कहते हैं। उन सब माषाओं क्योंकि नवमांक विद्या सदा एक हो रूप में स्थिर रहती है, इस कारण की एक राशि बनाकर के गणित के बंघ से बांधते हुए जिनेन्द्र देव की दिव्य अनुलोम प्रतिलोम पद्धति द्वारा नवमांक से भूबलय सिद्धान्त को रचना हुई। वाणी सात सो भाषाओं में मिलती हुई धर्मामृत कुम्भ में स्थापित हुई है ॥१२३॥ है ॥४॥
I इस कुम्भ में समावेश हुई सब भाषामों में रहने वाले पदों को गुणा नगत में प्रचलित हजारों भाषायों को रहने दो । भगवान महावीर की। करके बुद्धिमान दिगम्बर जैन ऋषि जब अठारह भाषा के लिपिवद्ध के महत्व को वाणी नवमांक में व्याप्त होने के कारण नवमांक पद्धति से ७१८ भाषामों का तपोवन में अध्ययन करते हैं नब उनके हृदय को शान्ति मिलती है ।।१२४॥ प्रनट होना क्या आश्चर्यजनक है ? ॥१०॥
____ इन महिमामयी लिपियों को अपने हाथ में लेकर महा ऋद्धि-प्राप्त इसी प्रकार ऊपर कहे अनुसार '४६ भाषाओं के अलावा और भी भाषा।
ऋषियों ने सुन्दर काव्य रूप बनाया है। वर्तमान प्रतीत और अनागत काल में तथा लिपि कुमुदेन्दु प्राचार्य उद्धृत करते है--
होने वाली सब भाषाओं के अंक इसमें हैं ॥१२॥ हंस, भुत, वोरयक्षी, राक्षसी, ऊहिया, यवनानी, तुर्की, मिल, संवव, किस भाषा में कितने अंक है मौर कितने प्रदार हैं इन सब को एक मालवणीय, किरीय, नाह, देवनागरी, वैविध्यन, लाड, पारसी, प्रामित्रिक, साए प्राचार्य जी ने कैसे एकत्रित किया। इन वांकानों को समन्वय रूपारमक भूवलयक, चाणक्य, ये ब्राह्मी देवी की मूल भाषायें हैं। ये सभी भाषाय था। सिद्धान्त रूप से उत्तर कहने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ॥१२६॥ भगवान महावीर की चाणो से निकल कर भूवलय रूप बन गयी है।
इस भूवलय ग्रन्थ में सर्वोपरि रहने वाला जो नौ अंक है, वह विश्व का यह सुन्दरी देबो का भूवलय है ॥११०, १११, ११२, ११३, ११४, १
ग्राधिपत्य करने वाला है ॥१२७॥ ११५, ११६, ११७, ११८, ११६, १२० ।
श्री भगवान महावीर को अनक्षरी वारणी इन्हीं नो अंक रूप में . इस संसार (विश्व) में सात सौ क्षुद्र भाषाएँ है, उन सब भाषानों की । लिपि नहीं हैं । शेष भाषायों को बोलने वाले कहीं किसी प्रदेश में रहने वाले ! थी ॥१२॥ हैं। किसी देश में क्षुद्र भाषा बोलने वाले प्राणी नहीं हैं जहां हों वहां भाषा भी
1 शंका अनेक प्रकार की होती है । शंका में शंका ही उत्तर रूप से अर्थात् उत्पन्न हो सकती है। जो भाषा जहां उत्पन्न होने वाली है उसको वहां के प्राणी पूर्ण से उत्तर न मिलने वाला और उत्तर मिलने वाला इत्यादि रूप से अनेक जान सकते हैं। क्योंकि यह भूबलय अन्य त्रिकालवर्ती चराचर बस्त को देखने । समाधान होते हैं। उन सबका ।।१२६।। वाले महावीर भगवान की वाणी से निकला है। इसलिए इससे जान सकते है जिस जगह में शंका उत्पन्न होती है उसी जगह में समाधान करने वाला हैं ॥१२॥
। यह भूवलय ग्रन्थ है ।।१३०॥ अर्हन्त भगवान की वाणी को सर्व-भाषामयी भाषा कहते हैं। सम्पूर्ण इस भूवलय में स्वसमय-वक्तव्यता, परसमय-वक्तव्यता और तदुभवजनत में जो भाषाएँ है वे सभी भगवान महावीर की वाणी से बाहर नहीं। वक्तव्यता ऐसे तीन प्रकार को वक्तव्यता का अर्थ प्रतिपादन करना है । स्वसमय
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सिरि भूवलय
समर्थि सिवि संघ बैंगलोर-बिल्ली का अर्थ आत्म-द्रव्य है। स्वसमय वक्तव्यता में केवल आत्म द्रव्य का कथन है। इसी ६४ अक्षर मय काव्य-बन्ध को श्री ऋषमदेव भगवान ने सुन्दरी पर-समय का अर्थ पुद्गल आदि द्रव्य हैं । उसका जहां वर्णन हो उसे 'पर-समय की हथेली में एक आदि नौ अंकों में गभित करके लिखा था जिन नौ प्रकों को वक्तव्यता' कहते हैं। जिसमें 'स्व' यानी आत्म-द्रव्य की और पर पुद्गल द्रव्य । पहाड़ों के प्रस्ताव रूप में करने से उन में विश्व भर को महिमा आषाती है जिस की बात आई हो उसे उभय वक्तव्यता कहते हैं।
को लिपि मंक गणित कहलाती है ॥१४१॥ इन तीनों तरह की बक्तव्यताओं में से इस भूवलय ग्रन्थ में स्वसमय
अयवा प्राकृत सस्कृतमागधापिशाचभाषाश्च । बक्तव्यता की प्रधानता है ॥१३॥
षष्ठोत्तर [१५] भेदों देशविशेषावपभ्रंशः । [९६) यह भूवलय-सहज अंकमय काव्य को उत्पन्न करने वाला है ॥१३२।।।
कर्णाटमागधमालवलाटगौडगुर्जरप्रत्येकत्रय-- इस अनजय प्रम को सनो पहले गोमट देने प्रकट किया था ।।१३३॥
मित्यष्टादशमहाभाषा [१७] यह भूवलय ग्रन्थ समस्त जीवों के लिए अध्यात्म विद्या को प्रगट करने
सर्वभाषामयीभाषा विश्वविद्यावभासिने ।११२॥ वाला है ।।१३४॥ इसके सिवाय और भी समस्त प्रकार की विद्यानों को सिखलाने बाला
त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिवावर्णाः शुभमते मताः। है ॥१३॥
प्राकृते संस्कृते चा [१३८] पिस्वयं प्रोक्ताःस्वयम्भुवा ॥१३॥ मरण को जीतकर नित्य जीवन देने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है।।१३६॥ प्रकारादिहकारान्ता शुद्धां मुक्तावलीमिव । इस भूवलय में जो चक्रांक है सो सब धवल बिन्दु के समान हैं ॥१३७।। स्वरव्यजनभेदेन द्विधा भेदमुवंयु-११४२।षीम् । श्री स्वयम्भू भगवान के बताए गए हये ६३ प्रथबा ६४ प्रक्षर प्राकृत
अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यास, सङ्गताम् । भाषा में तथा संस्कृत भाषा में विद्यमान हैं ॥१३८।।
मायोगाक्षर सम्भूति नकबीजाक्षरश्चि-[१४३] ताम् । ये सभी अक्षराङ्क पवित्र हैं और विश्व को नापने वाले हैं। इन अक्षरों
समवादी दधत् ब्राह्मोमेधाविन्यपि सुन्दरी। को परस्पर संयोगात्मक करके अनेक प्रकार के बन्धनों में बाँध कर चक्राकार पद्म रूप में बनाने वाला यह भूवलय है। चक्र के भीतर २७४२७ = ७२६
सुन्दरी गरिणतस्थानं क्रमैः सम्यगधास्यत ॥१४४।।
तातो भगवतोवक्ता निःसृताक्षरावलीम् । पारे बनते हैं ॥१३६॥ इस भूवलय काव्य को पादिनाथ भगवान ने श्री ब्राह्मी देवी की हथेली
नम इति व्यक्तांस मंगलां सिद्ध मातृकाम् ॥१४॥ में लिख कर प्रगट किया था ब्राह्मी देवी की हथेली अत्यन्त मृदु थी इसलिए यह अर्थ-भगवान ऋषभनाथ के मुख से प्रगट हुए प्रकार से हकार तक भूवलय भी अतिशय कोमलरूप है । उपयुक्त अक्षरों को गुणाकार रूप में लाकर अयोगवाह अक्षरों (क ख पफ) सहित शुद्ध मोतियों की माला की तरह वर्णरत्नहार की भांति उनसे गुंथा हुआ यह भूबलय काव्य है । इस भूवलय ग्रन्थ को। माला को ब्राह्मी ने धारण किया । जो (वर्गमाला) कि स्वर और व्यंजनों श्री भगवान ने ब्राह्मी देवी की हथेली में लिखा था और कागज, कलम तथा के भेद से दो प्रकार है, समस्त विद्याओं से संगत है, अनेक बीजाक्षरों से भरी स्याही की सहायता के बिना सिर्फ अपने अंगुष्ठ से लिखा था और पाठ-पाठ हुई है, नमःसिद्धेभ्यः से प्रगट हुई सिद्धमात का है। भगवान ऋषभ नाथ की अक्षरों वाली पाठ पंक्तियों में लिखा था जो कि लेख कहलाया। इसलिए उसका दूसरी पुत्री सुन्दरी ने क्रम से ६ अंकों द्वारा गरिणत को मोतियों की माला को दूसरा नाम 'खरोष्ट' पड़ गया ॥१४०।।
। की तरह धारण किया।
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सिरि भूवनय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
ब्राह्मी देवी वृषभनाथ भगवान की बड़ी पुत्री होने के कारण ब्राह्मी मिलते हैं। अतः यह सर्व माषामय न होकर यदि एक ही भाषा में होता तो लिपि को ही पहली लिपि माना गया है। दूसरी लिपि यवनांक लिपि है ऐसा। उसी के अनुसार इसका प्रचार हो सकता था। ऐसा कुछ लोग कहते हैं परन्तु अन्य प्राचार्यों का भी मत है ।।१४६।।
अनेक भाषायें कनड़ी से सम्मिश्रित होकर गणित रूप से उनका प्रादुर्भाव होता। "दोषउपरिका तीसरी भाषण है, बराटिका (वराट) चौथी है। सर्द-1 दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदेन्दु ने अपने स्वतन्त्र अनुभव द्वारा यद्यपि इस मूवलय की जी, अथवा सारसापिका लिपि पांचवीं है । प्राभृतिका घटी है ॥१४॥
रचना की है फिर भी यह काव्य परम्परा से भगवान जिनेन्द्र देव के मुख से उच्चतारिका सातवीं हैं, पुस्तिकाक्षर पाठवीं है, भोगयवत्ता नौवीं है। प्रगट हुए शब्दों में से चुन कर बनाया गया है। इस तरह प्रामाणिक परम्परा बेदनतिका दशवी है। निन्हतिका ११ वी, सरमालांक १२वीं, परम गरिणता १३ ॥ से यह भगवान की वाणी रूप काव्य हैं । चोथे काल में भी यह अंकमयी भाषा वीं है, १४ वीं गान्धर्व, १५ पादर्श, १६ माहेश्वरी, १७ दरमा १८ दोलिदी थी। इसलिए आचार्य कुमुदेन्दु 'उस काल की भाषा को भी गणित से ले ये सब अङ्क लिपियां जाननी चाहिए ॥१४॥
सकते हैं, ऐसा लिखा है। दिगम्बर मुनियों के संघ भेद के कारण भाषाओं में भी भेद देखने में ।
यशस्वती देवी की छोटी बहिन सुनन्दा के गर्भ से पहले कामदेव बाहुआया है। परन्तु इन में भेद रूप समझकर परस्पर विरोध रूप में ग्रहण नहीं । बली का जन्म हया । वे काम शास्त्र तथा पायुर्वेद के ज्ञाता थे। किन्तु उन्होंने करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जितनी भी प्रचलित भाषायें हैं उनमें भेद उन दोनों विषय में त्याग तथा रस सिद्धि को बनलाया ॥१६॥ मानना चाहिए ।।१४८ -१६०॥
श्री गोम्मटदेव (बाहुबली) कामदेवों में पहले कामदेव (अपने समय में ऊपर कही हई बातों को नारको जीव, तिथंच जीव नहीं जानते हैं। सबसे अधिक सुन्दर) थे। इसके सिवाय वे प्रथम केवली भी थे, अतः उनको परिशुद्ध अंक को देवता लोग, मनुष्य जान सकते हैं । कोई लिपि न होने पर भी।
हमारा नमस्कार हो। ध्वनि शास्त्र के अवलम्बन से केवल नो अंकों से ही लिख सकते हैं कह भी ।
प्रश्न--भगबान ऋषभनाथ को बाहुबली से पहले केवल ज्ञान हुमा था सकते हैं और सुन सकते हैं, ऐसे सरसांक लिपि को अक्षर लिपि रूप में परिवर्तन ।
अतः बाहुबली को प्रथम केवलो कहना उचित नहीं । कर सकते हैं ॥१६॥ विवेचन श्री भुवलय ग्रन्थ में एक भी अक्षर नहीं है १ से लेकर ६४
उत्तर-बाहुबली भगवान ऋषभनाथ से पहले मुक्त हुए हैं अतः उनको तक प्रारूप में रहने वाले १२७० चक्र है। उन चकों के द्वारा १६००० अंक!
प्रथम केबली कहा गया है। चक्रों को निकाला जाता है।
सुन्दरी ने अपने पिता से भी २५ धनुष अधिक ऊंचे अपने भाई बाहुभगवान ऋषभनाथ ने यशस्वती और दोनों पुत्रियों ब्राह्मी, सुन्दरी को । बला का दर
सेको बली को देखकर भक्ति को ओर जगत में यही सबसे अधिक विशानकाय अक्षर तथा अंक पति से भूवलय पढाया था। उनकी देशभाषा में पाने वाला परमात्मा है, ऐसा अनुभव किया ॥१६४|| काव्य रस, शब्द रीति श्रादि जो उस समय थी उसको हम पाज भी भूवलय सुन्दरी देवी ने अपने बड़े भाई से चक्रवन्ध गरिगत को जाना और १० द्वारा पढ़ सकते हैं । ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं ।।१६२॥
के भीतर ६ अंक को गर्भित हुआ समझा ।।१६।। विवेचन-यह भूवलय ग्रन्थ प्राधुनिक बोली में लिखा गया है अतः पाज।
उस गणित के मानचित्र (छबि) में अन्तर्भूत सत्मांक है ॥१६६॥ . कल के विद्वान इसको दशवीं शताब्दी का मानते हैं अथवा अमोघवर्ष नृपतुग समस्त कामदेवों में प्रथम बाहुबली द्वारा कहा हुआ यह अंक है ।।१६७।। के तथा इन्द्रनंदी घतावतार के ग्रन्थ के तथा और भी कुछ श्लोक भूवलय में! जन्म मरण रूपी भवभय को हरण करने वाला यह अंक है ।।१६।।
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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
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उन प्रकों में प्रतिलोम प्रक को स्थापित करना, उसके ऊपर अनुलोम ! तत्पश्चात् देवों द्वारा वन्दनीय श्रो अभिनन्दननाय तीर्थकर ने इसे प्रक को स्थापित करना ॥१६॥
। बतलाया ॥१८४|| उन दोनों को जोड़ देने पर नौ बार १-१ तथा एक विन्दी पाती। देव, मनुष्यों द्वारा पूज्य श्री सुमतिनाथ ने इसे कहा ॥१८५।। है॥१७॥
तत्पश्चात् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र ने इसको बतलाया ॥१८६।। इस रीति से नवकार मंत्र एक ही है ॥१७॥
श्री सुपार्श्व नाथ तीर्थकर धर्म प्रचार करके अन्त में शेष कर्म क्षय करके दिगम्बर मुनियों का धर्मांक १ है ॥१७२।।
मोक्ष चले गये । नारकी जीव इनकी वाणी को स्मरण करते हैं ॥१७॥ इस रीति से मृदु-काव्य रूप यह भूवलय ग्रन्थ है ।।१७३॥
चन्द्रप्रभतीर्थकर की दिव्य ध्वनि सुनकर उन्हें 'चन्द्रशेखर' अथवा 'शिव, अनुलोम १२३४५६७८६
गुरु लिंग' इत्यादि नामों से पूजते हैं ॥१८॥ प्रतिलोम ६८७६५४३२१
इसी प्रकार पुष्पदन्त और शीतलनाथ भगवान का उपदेश क्रम समझना १११११११११०
चाहिए ॥१६॥
श्री पाश तीर्थंकर का भी यही क्रम है ॥१६॥ इस रीति से जो १० अंक प्राये वह दस धर्म का रूप है इसलिए वह !
श्री वासुपूज्य का क्रम भी यही है ।।१६१ परिपूर्णाक में गभित है। वह कैसे ? समाधान-बिन्दीको छोड़ देने से
श्री अरहनाथ तीर्थकर, विमलनाथ, और अनन्तनाथ का भी यही क्रम रह गया । इस प्रकार परिपूर्णांक ० से बना यह भुवलय ग्रन्थ है 11१७४। ।
रहा ।।२६२॥ शेष ७०० भाषाएँ अंकों द्वारा लिखे हुए होने के कारण अनक्षरी
श्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ का क्रम भी इस तरह है ॥१६३॥ भाषाएँ हैं । द्रव्य प्रमाणानुगम के ज्ञाता दिगम्बर मुनि उन भाषाओं को जानते
श्री कुयुनाथ, अरनाथ और मल्लिनाथ तीर्थंकर का भी यही क्रम है। उनके ज्ञान को आगे दिखावेंगे । ऐसा प्रतिपादन करनेवाला यह कर्माटक। भूवलय हैं ।।१७।।
श्री मुनिसुव्रततीर्थङ्कर का क्रम भी इसी तरह था ॥१६शा बाहुबली, ब्राह्मी घोर सुन्दरी ने जो अपने पिता भगवान ऋषभनाथ से
श्री नमि और नेमिनाथ तीर्थङ्कर का क्रम भी इसी प्रकार समझना ६४ अक्षर तथा बिन्दी सहित ६ अंक सीखे थे, उसे अव बताने ॥१७॥ चाहिए ॥१६॥ उस सबको पहाड़े रूप गरिणत से जाना जा सकता है ।।१७७।।
और पाश्वनाथ तीर्थ ड्र तया श्री वर्द्धमान तीर्थङ्कर का क्रम भी इसी यह सव गुरु-परम्परा से आया हुआ गरिणत है ।।१७।।
प्रकार था ॥१७॥ पांच परमेष्ठियों से अर्थात् ५ से गुणा किया हुआ यह गरिएन अंक
इस प्रकार चौबीस तीयङ्करों ने भूवलय को रचना (अपनी दिव्य-ध्वनि है।।१७६॥
द्विारा ) की थी इसलिए यह भूवलय ग्रन्थ की परिपाटी प्रमाण रूप में अनादि सबसे पहले तीर्थंकरों ने इसे सिखाया ।।१८०॥
| काल से चली आई है ॥१६॥ सबसे पहले भगवान ऋषभनाथ ने इस गणित को सिखाया ।।१८१॥
अब इस पांचवें अध्याय को कुमुदंदु प्राचार्य संकेत रूप करते हुए अंक फिर भगवान अजितनाथ ने इसका प्रतिपादन किया ॥१८॥
से सम्पूर्ण विषयों को बतलाते हैं। इसी अंक से इस अध्याय के समस्त मंकका इसी प्रकार श्री सम्भवनाथ ने इसे सिद्ध किया ॥१३॥
। भी ज्ञान होता है। वह इस प्रकार है:
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सिरि भुवजय
सार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली वाहुबलो ने अपनो तरुण अवस्था में इस भूवलय काव्य में गभित अन्तर ! जो इस अध्याय में श्रेणीबद्ध प्राकृत गाथा निकलती है उस गाथा को काव्य का परिज्ञान कर लिया था। ६.०२१ अथवा १२०६ यह अंक ६४ प्रदार । और उसका अर्थ यहाँ दिया जाता है । का ही भंग है, इससे अत्यन्त सुन्दर सरस काव्यागमरूप भूवलय निकल आता "ऊपर कहे हुए" अनुसार यह भूवलय ग्रन्थ आचार्य परम्परा से चला है। इस लिए इस अध्याय का नाम "ई" अध्याय लिखा है ॥१६॥ । आया है उन सब मुनियों की संख्या तीन कम नौ करोड़ कहते हैं। उनके द्वारा
जगत के अग्र-भाग में सिद्ध समुदाय है । जोकि तीन लोक रूपी शरीर कहे हुए इस मूवलय अन्य को समस्त भव्य जीव अध्ययन करें, सुनें और मनन के मस्तक स्वरूप है। इसी प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ भी मस्तक के समान महत्व- करें। इसका भक्ति तथा त्रिकरण शुद्धि-पूर्वक अध्ययन करने से इस लोक मोर शाली है ॥२०॥
परलोक के सुख की प्राप्ति होती है अन्त में मोक्ष प्राप्त होती है। ___ जिन मार्ग का अतिशय मानकर स्वीकार करने से नव पद सिद्धि के मध्यम श्रेणी के संस्कृत काव्य का अर्थ:धन मर्म रूपी पांचवां अध्याय भूबलय नामक काव्य श्रेणी में ग्यारहवां चक्र यह भूवलय काव्य पढ़ने से समस्त कर्म रूपी कलंक नाश होकर है। इसके सब अक्षरांक ८०१६ है । २०१
योमार्ग की प्राप्ति होगी। सदा धर्म का सम्बन्ध तथा अभ्युदय को देने वाला पांचवें "ई" ८०१९॥+अन्तर २२००६-२००२५
यह काव्य है । एवं हमेशा भव्य जीवों को प्रतिबोध करने वाला यह भूवलय अथवा अ-ई ६४, ८२७+-ई २०, ०२५ = १४, ८५, २ ।
काव्य है।
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र
क*
छटा अध्याय अरि गरण मुन्दरणानागत हिन्दर । सागिद कालवेल्लरली | सागु तका* सर्वज्ञदेवतु सर्वागदिम् पेठ्द । सर्वस्व भाषेयस मु* क्तियोळिह सिद्ध जोवर तागुत । व्यक्ताव्यक्तवदामि ॥ स * दिनेन्दु भाषे महाभाषेयागलु । बदिय भाषेगळ् एळ्ळुन्नर म गुः गान्ध सिर! नरक तिर्यच पु * मकद कलेयो तोर्ष वयविध्यद । सम विषमाकद आग * कसेरलेन्टेण्ड समगळ्एरड कूडे । सकळवु विषम एळुव प्रकटिसलध्यात्म योग ॥८॥ सकलद्वि सम्योग भंग ॥६॥ निखिल द्रव्यागमदंग ||१२|| ओटि श्रीम् श्रोष्णु ओम् श्रंक ॥ प्रकटित सर्व भाषांक ॥ १४ ॥ सकल नोसर्व उत्कृष्ट ॥ १६ ॥ अकलंक अनुक्रुष्ट बंध ||१७|| निखिल जघन्य अजघन्य ॥ १८ ॥ शकमय बंधद फाल सकल ध्रुव अध्वांक ||२०|| निखिलय बंध स्वामित्व ॥ २१ ॥ हक बंध सत्रिक ॥२४॥ शक भंगविचय विभाग ||२५|| सकल भागाभाग क्षेत्र सकल कालांतर भाव ॥२८॥ सफलांक अल्पबहुत्व ॥२६॥ सकल बंद नाकु गुसित ॥३०॥ व र प्रति स्थिति अनुभाग सरणिय | सरिय प्रदेशद् य शदिन्द गुरिपसलु बर्पएर । वशदोळ् उन्झालक * ववन्दद ई भाषेगळेल्लवु । श्रवत रिसिदि कर्मबाट || सब सू* नुमथनरवत्त नाल्कुकलेय बल्ल ।
रण्ङ्क्र
य
॥१॥
योगव गुव सर्वज्ञदेवन । काण्व भूवलय रि ॥ पर्वबन्ददल हन्त होगि लोकाग्र । सर्वार्थसिद्धि वळसि ॥२॥ लघु कर्माटदरणुरूप होन्दुत प्रकटदे श्रमदरोळ डगि ||३|| ह वयदोळडगिसि कर्माट लिपियागि । हुदुगिसिदन्क भूवलय ॥४॥ ळिग्द || नररू देवतेगळनक्षर भाषेय । तिरुगिसि गरिसळ बहु ||५|| य ।। विमलव समलव क्रम मूरमग्गिय । गमकदि तिळियलु बहुदु ||६|| । हकद वन्धद बन्ध पाहुड भेदव । नकलन्क सूक्षानुक दरिविम् ॥७॥ विकलांक समयोग भंग ॥१०॥ सकलयु प्रपुनरुक्तांक ॥११॥ १३॥ विकलवागिहसर्व बंध ॥ १५॥ सकल सादि अनादि ॥ १६ ॥ प्रकट बंधांतर काल ॥ २३॥ निखिलद परिमारण स्पर्श ॥२७॥
॥२२॥
||२६||
प्रकृति ॥ विरचित गुणकार 'एन्टेन्दु 'बन्दुद। मरळि प्रदम् 'एन्ट'रिद ॥३१॥ र* कळेये ॥ यशस्वति देविय भगळरिवेळनूर । पशु देव नारक भाषे ॥३२॥ कायेन्देन्नवे सवियागिसिकोन्डवि वरद काव्य भूवलय ॥३३॥ जिन धर्मदनुभवद् शु* रधि ॥ घन कर्माटकदादियोऴ् बभाषे । विनयत्व वळवडिसिह ॥ ३४ ॥
६८x८ = ७०४-४-७०० ।
सुनयदुर्नयवडगिहुदु ॥ ३५॥ जिन घन भाषेगळ लेकबहु ॥३६॥ को मतगळकूfsyदु ॥४३॥ नकोनेपोगिसुव भाव ॥४७॥
धर्मवदु मानवर ॥ ३६ ॥ तनुवनेल्लक होक्ड बहुदु ||३७|| मनदोष ऋतु कोल्लुवुबु ||३८|| धनव सम्पदवेल्ल बहुदु ॥ ४० ॥ मनुजर मोक्षकोय्पुवुदु ॥४१॥ तनियाद भाषेगळिदु ॥ ४२ ॥ जिनमागंदणुव्रत बहुदु ॥ ४४ ॥ घनवावेऴ्नु र्हदिनेन्टु ।।४५।। जिन वर्धमान भाषेगळ ॥४६॥ जिनर भूवलयदोळि हुदु ॥४८॥ धनकले अरवत्तनात्कु ॥४६॥ जीवि सितुम बिरुव भूवलय ॥ ५१ ॥
तनगे ताने तन्नोळगे ॥५०॥ भ्रू वलयद सिद्धांतव अंकवम् तीबिकोन्डा अक्षरद ॥ पाव क* रेल्लर्गे मुराह मूरर 1 श्रा विश्वधर्मयेल्लवनु * शगोन्डु स्तात ( बनेल्लव) अनेकांत । रसदोळु श्रोम्कारव मुकम् ॥ यशवादक्षरदोवि बेसेविह। होसदादनादिय ग्रन्थ
॥५२॥ 11"
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सिरि भूषलय
सचि सिद्धि संघ देनलालदल्ली ल व मात्रवादरू भेदवम् तोरदे । शिव विष्णु जिन ब्रह्म भू पाई भवभय हरिसेम्ब रत्न मूरन्कदे। नवकैलाश बैकुण्ठ ॥५४॥ यक शसत्य लोक वोमूरन कदप्रद । सु सौभाग्य दध्यात्म वनु ॥ पर सरिष समवसरण दिद होरबन्दु । दिशेगळ्हत्तनु व्यापिसिरुब ॥५॥ म हावीरवारिण येम्बुदे तत्वमसियागि । महिमेय मंगलवदु प. रा॥ महत्वबअणुविनोळ तोरुव । महिमेयवहिसिहविष्यप्राभूतद॥५६॥ मह सिद्धि काव्य वेन्देनिप ॥५७॥ सहनेयम् दयेयोडवेरसि ॥५६॥ महिमेय समतावादल ॥५६ सिहि समन्वयदोडवेरसि ॥६॥ कहियन कवम् कळेदिरिसि ॥६१॥ महिय भूवलयदोळ् वहिसि ॥६२॥ सहनेय विद्येयोळ् कूडि ॥६३॥ षहदन्कवदनेल्ल गुरिणसि ॥६४॥ महिमेय भाग सम्प्रहिसि ॥६५॥ इह परवेरडरो कट्टि ॥६६॥ रहमदन्कव नेलेगोळिसि ॥६७॥ वहिसिद धर्मदोळ् इरिसि ॥६॥ छह खण्डदागम विरिसि ॥६६॥ एहदंक अपुनरक्त लिपि ।।७। उहबद तिरुगिसि बिडिसि ॥७१॥ गहनद विषयच बहिसि ॥७२॥ इहबोळु मोक्षय वाहाँस ॥७३॥ अहमोन्दर पदविय सहिसि ॥७४॥ महावीर सिद्ध भूवलय ॥७॥ महिमेय त्रयत्न वलय ॥७६॥ दो षषु हदिनेन्टु राशियागिदाग । ईशरोळ् भेद तोरुवुदु ॥ राशि र* त्नत्रयदाशेय जनरिगे । दोषळिद वुद्धि बहुदु ॥७॥ स हवास सम्सार वागिर्व काल । महिय कळ्तले तोरुबुदु ॥ मह गा* रणावरणीय दोषवदळियलु । बहु सुखविह मोक्ष बहुदु ७८॥ विष हरवागलु चैतम्यवप्पन्ते । रससिद्धि अमरुतद श* क्ति ।। यशयागे एकान्त हटवदुकेटोडे । वशवप्पनन्तु शुद्धात्म ॥७९॥ र* तुनत्रयदे आदियद त । द्वितीययु द्वंत वेम्बन कर तरुतोयदोळने कांतवेने द्वैताद्व तथा हितदि साधिसिद जैनांक ॥८॥ हि* रियविनु मूरु सर मरिगमालेय। अरहंत हारदरत्न म* सरपरिणयन्ते सरर मर प्रोम्बत्त । परिपूर्ण मूरारु मूरु ॥१॥ य* शदन्कवदरोळगोमदम् कूडलु । वशदा सोन्नेगे ब्राम्ह, इ* वेसरिन लिपियंक देवनागरियेम्ब । यशवदे ऋग्वेददक ॥२॥ म् नुजराडुव ऋक्कु दिविजराडुव ऋक्कु । दनुजराड्डव ऋक्कु व* नद। विनयबु गोब्राह्मणेभ्यह शुभमस्तु। जिनधर्मसमसिद्धिरस्तु ।८३॥ घनव प्राक्त वृद्धिरस्तु ॥४॥ जिनवर्धमानांक नवम ॥८॥ एनुवंक लिपिय अक्षाम श ॥८६॥ एनुव समस्त शून्यांक ॥७॥ दनुज मनुजरयक्यदक ॥८॥ सनुमत धर्मदय्क्यांक ६॥ अनुदिन बाळविके यन्त्र ॥६॥ मतुजरेल्लर धर्मदंक ९१॥ कोनेयादि परिपूर्णबंक ६२॥ मनु मुनिगळ घ्यानदंक ॥६३॥ कनसिनोळ् शुभदादियंक ॥१४॥ मनुमयरायदतर्दक |n
जिनरूप साधनेयन्क ॥६६॥ इननंते ज्योतियायनक IItu घन कर्माटक रिद्धियंक ॥६॥
तनुविन परिशुद्धदनकम् HEEL कोनेयादि ब्राह्मि भूवलय ।' १०० सुॐ विशाल गरगनेय पूर्वानुपूर्विय । सविषयवागलवंत म सवियादियदु पश्चादानुपूर्वियदागे । नवदन्ते कोनेगे अद्वयत ॥१०॥ द* रशनज्ञान चारित्र मूर रोळ् । परमात्मरूपगिरता शा* सिरि मूर तदुभयवेने यत्रतत्रानु । वर पूर्वेय पपुअवयत ॥१०२॥ ध* ममबदिनतु समन्वयबागलु । निर्मलनद्वयत्न शा सके तर ॥ शरिगा मूरु आनुपूर्विगेबंदु । धर्मद ऐक्यबनु साधिपुदु ||१.०३।। म नयिद अनेकांत जयनर । जिन निरूपितवह शास् त् र ॥ दनुभय द्वयत कथच्चिदद्वयतद । घनसिद्धियात्म भूवलय ॥१०॥ सनुमत दिव्य सिद्धांत ॥१०५॥ जिन सिद्धरात्म भूवलय ॥१०६॥ कोनेयादियन्क भूवलय ॥१०७॥ घनघर्भदन्क भूवलय ॥१०॥ जनरिमनन्त भूवलय ॥१०॥ नेनेदाग सिद्ध भूवलय ॥११॥ अणुमहान् काव्य भूवलय ॥१११॥ जिनरवाक्यार्थ भूवलय ॥११२॥
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सिरि भूवलय
- मार्य सिद्धि संघ बंगलौरदिल्ली मन शुद्धियात्म भूवलय ॥११३॥ तनुविन अतनु भूवलय ॥११४॥ तनगात्म शुद्ध भूवलय ॥११५॥ कनकद कमल भूबलय ॥११६॥ प्रा* दिगनादिय कालवे निन्नेयु ई दिन नोनु बाळुबुदु । प्रादियवश र दनत्रयगळ साधिप । नादि अनन्तवे नाळे ॥११७॥ ग* मनिसलेल्लर्गे सम्यक्त्व रत्नद । क्रमदत्कबधुनाम् हुट्टि।। समतेय खड्गदिम क्रोधमानवगेल्व पिनलांकनाळेय दिवस ॥११॥ म नद दोषके शास्त्र तनुविन दोषके । घन हदिमूरु कोटियवश प्र* जिनर वयुद्यागम वचन दोषके शब्द । बेनुबक मूरु भूवलय ॥११॥ मिदु मधुरतेयिद हरदयवाळवदिव्य । हदनाद मुदवीश्री व यण ॥हरुदयांक पद्मद दलवेरि नाळेय । हदनकारिणसुवअदत ॥१२०॥ दिनुविंदु वर्तमान निनयतोतबु । घननाळे अनागतवा भर तणषु द्वैताद्वैत जयनव कूडिप । मनुज विविज धर्म दन्क ॥१२॥
जिन वर्धमान धर्माक ॥१२२॥ मनुजरेरिगोम्दे धर्म ॥१२३॥ तनु विनोळात्म सध्यम ॥१२४॥ घननाळे इन्दु निनेगळ ॥१२॥ कोनेयादियन्क मूरारु ॥१२६॥ जिन धर्मदैया सिद्धांत ॥१२७॥ मनुजरिग प्रोम्दे सद्धर्म ॥१२८॥ मनुजर ज्ञानसूत्रांक ॥१२६॥ शरणसदे वाळव(सूत्रांक)सम्यक्त्व ॥१३० अनुजरागिसुव सन्मन्तर ॥१३॥ घन विरारूप सूत्रांक ॥१३२॥ जिन विष्णु शिव दिव्य ब्रह्म ॥१३३॥
तनयर सलहुव मन्त्र ॥१३४॥ धनबंध पुण्य सबंध ॥१३५॥ विनय सद्धर्मद् अहिम्से ।।१३६॥ घनसत्य भद्र भूवलय ॥१३७॥ प* रिशुद्ध वतगळम् अणु महाद एननुध । हनुमन्त जिन व ररका मुनिसुव्रतर कालदे बंद रामांक । जिन धर्म वर्षमानांक ॥१३॥ रिश दधियोळ् श्री वालि मुनिगल गिरियंक । शुद्ध सम्यक्त्व ल* क्षणदा। बुद्धिरिद्धियोळगरण यशद समन्वय । शुद्ध रामायरगदक ।।१३६॥ ककै विगे वाल्मीकिय रसदूट उणिसुव । सविये महावतदेक। पत्र वेय मुच्नुव कालदलि बहदोषच । नक्शुद्धिगोळिप दिव्यांक १४०। हि रिय दोषगळिगे अणु व्रतगळनित्तु । हिरिय महावत सि द्धि । धरेगे मंगलदप्राभृतद दर्शनदित्तु परिशुद्धबागिसिदंक ॥१४॥ य शस्वति देविय बसिरिन्द वन्दनक । वशद ब्रह्माण्ड * अक्षरद।। रसवनन्गय्य मूलदलि सुरिसिदंक । विषहर नीलकंठांक ॥१४२॥ म् नमथ दोर्बलियादिय तंगिगे । घनद् नवमांक दर्शन धा* अनुभव वन्नित्तु जिनरादि प्रोस्वत्त । तनुजर्गे शून्यदोळ् तोरि ॥१४३॥
जिन धर्मद् अोमबत्तम् सारि ॥१४४॥ जिन स्मार्त विष्णुगळन्क ॥१४५॥ तनुविनोळात्मन तोरि ॥१४६॥ कोनेयलि 'सोन्ने' यागिसुत ॥१४७॥ तनुदोष प्रोम्दे एन्देत्तुत ॥१४॥ सुनय दुर्नयगळ तोरि ॥१४॥ कोनेगे दुर्रनयगळ केडिसि ॥१५०॥ सुनयद अतिशयवेरसि ॥१५१॥ कोनेगे अनेकान्तवेरसि ॥१५२॥ चिनुमयत्वव तनगिरिसि ॥१५॥ दनुजर हिम्सेयम् बिडिसि ॥१५४॥ जिनमार्ग सुन्दरवेनिसि ॥१५॥
विनय धाक भूवलय ॥१५६॥ ते रस गुणस्तथानदन्त के बरुवाग । दारि सम्यक्त्ववेन्दे न ब॥ सार श्रीजिन वारिणयनुभवबन्दाग । नूरुसागरकर्म केडुगु ।।१५७।। पर वपददाविय प्ररहंत प्रोम्दुस् । अवेरडरलि सिद्धम् तर नवदादि मूरन्क प्राचार्य नाल्कर । बिवर उपाध्याय ऐदु ॥१५८॥ द रितब वहनवे साधु समाधिय । सरुव साधुत्व प्राररलि ॥बरे नाश ळे सधर्म एळक प्रागम परिशुद्ध जिनबिम्ब एन्दु ॥१५॥ क विव गोपुर द्वार शिखर मानस्तम्भ । दनिय बिम्बालय म* नवमवेन्दनुवरु आगम परिभाषे। विवरवे नव पददमक ॥१६॥ 'हिरियाशे विदरलि बपकेयद तबु । वरमुन्द के द्वत घे न॥ सरियरिगे मुक्तियुभयमुक्तिय लाभ गुरुपवसिद्धि ईवरिगे ॥१६॥
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सिरि भूवलय
३०
सर्वार्थ सिद्धि संघ गौर-दिल्ली या* वाग दोरेखुदो प्राग अनेकांत । ताविन नयमार्ग दोरेये ॥ नावा य श होन्दे जनत्व लाभद सावकाशवे हृदिनात्कु ॥ १६२ ॥ आविध योग राहित्य ।। १६३० श्री कुल १६४॥ का कैलास मुक्ति ॥१६५॥ शुरी वीरवारिणय विद्ये ॥ १६६ ॥ नायु केन्तुव सिद्धि ॥१६७॥ कावक सत्यद लोक ॥ १६८ ॥ पावन परिशुद्ध लोक ॥ १६६ ॥ साबु हुदुर्गाळल्लदिह श्री ॥ १७० ॥ भाव अभाव राहित्य ।।१७१ || नोबुगळाशिष मुक्ति ॥ १७२ ॥ ई विश्व काव्य भुवलय ।। १७३॥ हरि हर जिन धर्मदरिषु मूरारु । सरसिजदलबक्षर * a* शवागे श्रोम्बत्तु कामदम् जनरिगे । हसिवु बायारिके निर् श्र* न* वदन्क सिद्धियकरण सूत्राक्षर 1 दवयव सर्वबुव सू* ति रेयु कालगळु ई बरुव मूरुगळलि । हरिव भव्यर भवदभ ॐ परदुगेय्यलु बंद लाभ ।। १७८ ॥ अरहन्त रूपिन लाभ ॥ १७६ ॥ अरहन्त रडरिद मार्ग ॥ १८२ ॥ चिरकाल विरुवसौभाग्य ॥ १८३॥ धरसेन गुरुगळ प्रन्ग || १८६ ॥ हृरुष वर्धनरादि भंग ।। १८७॥ अरहन्तराशा भूवलय ॥ १६० ॥
श्रोम्॥ बरुवन्कगरणनेयमूहकालबोळ कूडे । परिदुबंदिकाव्य सिद्धि ॥१७४॥ वैसेगेट्टु हदिनेन्दु इत्यादि भवरोग । हेसरि ल्लदन्ते होगुबुबु ॥ १७५॥ य ॥ सविय भाषेगळेन्टोम्देळर वस्य । श्रयुगळे मुरारुमूरु ॥ १७६ ॥ सत्यार्थसिद्धि सम्पदद एरडु भव परिशुद्ध जीव स्वभाव ॥ १७७॥ करुणेय मारिद लाभ ॥ १८० ॥ गुरु हम्सनाय सन्मार्ग ॥। १८१ ॥ सश्वराराधित वर्म ॥ १८४ ॥ गुरुपरम्परेयादि लाभ ॥१८५॥ परखकालदेसिद्धकवच ॥ १८८ ॥ हरिहर सिद्ध सिद्धांत ॥१८६॥
।
तत्वार्थ सूत्र महार्थ प्रसन्गद | सत्यार्थ दनुभव मु च्* रितेय सान्गत्य रागदोळडगिसि । परितन्द विषयगळे ल च दुरिन 'श्ररी' भूवलय सिद्धांत दोछ । हुदुगिसि पेददिव्या गु * निकाल कालद प्रन्तर भावद । कोनेगल्पबहुत्व विन्तह र मनुजरोळ्यक्य वप्पन्न || १९५|| दिन दिन प्रेम वरुध्यंग ॥१६६॥ विनयवेल्लरिगे समांग ॥ १६६॥ जनपद नाडिन संग ॥ २००॥ जनरिगय्दने काल (भंग) दंग ॥ २०१ ।। कोनेगाररोळु इल्लवंग ॥ २०२॥ एनुवंगधर ज्ञानरंग ।।२०३ ।। जनरिगे [बह धरो] वशवाद धर्म || २०४ ॥ * पण चरण वेम्व द्वंत अहं तद । कोनेगे जैनर म न आ गमविदर 'श्ररो भागदेबंद का रागविरागसाम्राज्य ॥ प्रागु थ
॥ रत्न प्रकाश वर्धन दिव्य ज्योतिय । तत्व एक समन्वयद ॥१९१॥ अरहंत मुख पद्मयेने सर्व श्रन्गदिम् । होर बंदिह दिव्यध्वनिय ॥ १६२॥ र ।। पद पददक्षरदंक अंकदरेखे । अदर क्षेत्रगळ स्पर्शनय ॥ १६३ ॥ जिन धर्मवदु मानव जीवराशिय । धन धर्मवागिसिबंक ॥१६४॥ घन दुष्कर्म विध्वम्स ॥१६७॥ जिन शास्त्र वेल्लगेम्बंग ॥ १६८ ॥
ई ८७४८ + अन्तर ११६८८-२०,७३६= १८६
पहले श्लोक के श्रेणीबद्ध काव्य
ईस मुहग्गहवयां भूवलय बोषवि रहियं शुद्धं । श्रागममदि परि कहियं तेरगबु कहिया हवन्ति तच्चत्था || ६ || * कानडी काव्य के मध्य में से निकलनेवाले संस्कृत श्लोक
कारकं पुण्य प्रकाशकं पाप प्रशिकम् इदं शास्त्र हुभव भूवलय सिद्धांतनामध्येयं अस्य सूल ग्रन्थ .. ॥
त सेरि॥ जिनरेन्द्र नाल्केऴुएन्टुकाव्याक्षर । धनवाह्न सम्बरिथंक ॥२०५॥ एन्टेन्दु श्रम्बत्तु प्रोमो । तावक्षरद भूवलय ॥ २०६ ॥ अथवा श्रई ८४८५२+२०, ७३६ १०.५५,८८
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छठा अध्याय
विद्यमान वर्तमान काल, पाने-वाला अनागत काल, पोर बीता हा कर दिया है। उन ही ६०००० साठ हजार श्लोकों को गरिएत पद्धति से मिला प्रतीत काल, इन तीनों कालों के प्रत्येक समय में अनंत घटनायें पटित होती हैं। कर श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भूवलय में ७१८ अठारह भाषाओं में निबद्ध कर तथा होंगी। उस-उस घटना के समीप जाकर प्रत्यक्ष रूप में दिखा देने वाला दिया है। यह भूवलय ग्रन्थ है, तथा त्रिकालवर्ती प्ररहंत देव के योग को भी दिखाने वाला कषायपाहुड़ तथा जय धवल को गणित से निकाला है। और इसके यह भूवलय है ॥१
प्रथमानुयोग कथन को गणित पद्धति से निकाल कर व्यास ऋषि ने जयाख्यान प्रत्येक शब्द सुख प्रादि से उलन होकर अपने कानमें पहुंचने तक बेलके
काव्य लिखा है, उसने २२ वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की दिव्य ध्वनि से प्रगट समान बढ़ते बढ़ते लोकान (लोक शिखर) को स्पर्श कर (एकर) मर्दार्थ-सिति
द्वादशांग शास्त्र का संग्रह करके हरिवंशी और कुरुवंशी राजाओं का कथन के चारों ओर होकर पुनः समस्त लोक में व्याप्त होते हुए कान को स्पर्श कर
जनवंश और मुनिवंश के कथन के साथ मिलाकर २५००० हजार श्लोकों के स्थिर हो जाता है । अर्थात् किसी व्यक्ति के मुख से निकला हा शब्द संपूर्ण ।
साथ जयाख्यान अन्य की रचना की थी। लोकमें धूमकर कान में पहुंचता है। शब्द वर्गरणामोंमें इतनी तीव्र गमन करने की।
व्यास से लेकर आज तक के विद्वानों ने अपने बुद्धि कौशल से घटा बढ़ा पाक्ति है । तो धी सर्वज्ञ भगवान के सर्वाङ्ग से निकली हुई वाणी के तीन लोक ।
कर रद्दोबदल करते हुए उस महाभारत को सवा लाख श्लोकों में विस्तृत कर में व्याप्त होने में क्या प्राश्चर्य है ? अर्थात् कुछ आश्चर्य नहीं ।।२।।
दिया । इसलिए द्वादशांग पद्धति के साथ में उसका मेल न खाने से अथवा नव
मांक गणित पद्धति में न आने से असंगत होने के कारण जनों ने उसे नहीं विवेचन-अनादि काल से जितने भी शब्द निकले हैं वे सब कालाणु के। माना। साथ याकाश प्रदेश में हमेशा के लिए स्थित है। प्रागे होने वाले सभी शब्द यहां पर यह शंका होती है कि व्यास ऋषि को जिस प्रकार इस राशि उन ही कालाणु के प्रदेश में घुसकर मिल जाती है। इस रीति से समस्त । ग्रन्थ में मान्य किया है उसी प्रकार और जन ग्रन्यों में इस का उल्लेख क्यों नहीं शब्द-राशि एक क्षेत्रावगाह रूप से स्थित हो जाती है। इसमें से हमको जिस मिलता है ? ... वस्तु का नाम-निर्देश शब्द चाहिये उस को महर्षि गण अपनी योग दृष्टि से इसका समाधान यह है कि यहां पर व्यास शब्द से तीन कम नव करोड़ जानकर सूत्र रूप में रचना कर लेते हैं । उसको ज्ञापक सूत्र अथवा प्रज्ञापक सूत्र ! मुनियों को लिया गया है। उन्हीं में से किसो एक महर्षि के द्वारा कहते हैं। उसके विस्तार रूप व्याख्या को सूत्रार्थ पौरुषी व्याख्यान कहते हैं। इस । इसका निर्माण हुआ है। व्याख्यान को बुद्धि ऋद्धि आदिमें जो प्रवीण होते हैं, वे ही इसका अर्थ कर सकते न्यूनकोटिनवाचार्यान ज्ञानकचरणचितान् । हैं। हमारे समान छद्मस्थ ज्ञानियों से नहीं हो सकता।
ज्ञानदकसुखवीर्यार्थमानमानम्यार्यवंदितान् ॥ दृष्टांत के लिए-भूवलयमें आया हुआ षट्खंड आगम और कषाय पाहुड़ । अर्थात्-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक तीन कम पादि है । ग्रन्थ का विवेचन करते हुए 'काय' शब्द में रहने वाले तीन प्रक्षरों नव करोड़ मुनि महाराज लोग हैं जो कि अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन अनन्त सुस को "पेज्ज" शब्द के दो अक्षरों में संग्रह करके सूत्र-बद्ध कर दिया है। सूत्रके इन। और अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टयों के लाभ के लिए मार्य-लोगों के द्वारा ही दो अक्षरों का वीरसेन, जिनसेन, प्राचार्यों ने साठ हजार श्लोकों में विस्तार । वन्दना किये जाते हैं, उन महर्षियों को मैं नमस्कार करता है।
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कककककर
सिरि मुंबलय
सर्वार्थ सिदि संप बेंगलोर-बिल्ली इस श्लोक के प्रारम्भ में जो तकार अमर पाया हुया है वह भगवद्गीताक निकलते जाते हैं। उन लम्बाक तथा मंग अंकों से विमल और समर्ने पदर्षि जयाख्यान और ऋग्वेद इन तीनों से सम्बन्ध रखने वाला है। क्योंकि ॐ तत्स- प्रगट हो जाते हैं ।।६।। वितुर्वरेण्यं इत्यादि जो गायत्री मन्त्र है उसके एक एक अक्षर का सम्बन्ध यहां जिस प्रकार ह. (६०) को क (२८) को योग करने पर ५५ होता है चौवन-चौवन श्लोकों तक चल कर जहां गायत्री मन्त्र पूर्ण होता है उसमें फिर और = को योग कर (जोड़) देने पर १६ होते हैं, उस १६ के अंक १ ऋग्वेद जयाण्यान गोता और भगवद्गीता ये तीनों आ जाते हैं। उन सब का तथा ६ को परस्पर जोड़ने से विषम अंक ७ होता है। यह ह क्बन्ध बंष-पाहुड समाहार रूप संग्रह इस भूवलय की गणित पद्धति के अनुसार एक कार में आ से प्रगट हुआ है जहां पर सूक्ष्म अतिसूक्ष्म विवेचन है ॥७॥ जाता है। त् अक्षर नित्य सदा से चला पाया है ।।२।।
जो अध्यात्म योगी हैं वे ही इस ग्रंक-प्रक्रिया को बता सकते है | जब भगवान् पाति कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं संक्षेप में हम उस प्रक्रिया का नाम बतला देंगे। बन्ध-पाहड़ में विषम तो अपनी वाणी द्वारा विश्व भर को प्रतिबोधित करते हैं इसके बाद अघाति योग मंग से प्रारम्भ होता है l कर्मों का नाश करने के समय में उसके पूर्व में जब केवली समुद्घात करते हैं तो विषम योगभंग में ही सम विषम अंक बन जाते हैं ॥१०॥ अपने आत्म-प्रदेशों द्वारा समस्त लोक का स्पर्श करके फिर वापिस हो दारीरमें गा! शन गंकों से जो शब्द बनते हैं वे सब अपुनरुक्त होते हैं ॥१॥ जाते हैं इसका तात्पर्य यह है कि भगवान अपनी वाणी द्वारा पूर्व में विश्व को
इस प्रक्रिया से समस्त द्रव्य आगम ( द्वादश अंग ) प्रगट हो जाता व्यक्त करते हुए अन्त में सम्पूर्ण कर्माटक के अणु रूप में होते हुगे अव्यक्त रूपमें है।.१२॥ आ जाते हैं ॥३॥
वह द्रव्य पागम एक-एक राशि रूप हो जाता है । तब तेलगू भाषा में जिस प्रकार केवलो समुद्घात के समय केवली के पात्म-प्रदेवा मोक्ष में 'वकटि' कनड़ी भाषा में 'प्रो' तामिल भाषा में 'मोन' तथा इसी प्रकार अब रहने वाले सिद्ध जीवों को स्पर्श कर लेने पर (लोक पूर्ण समुद्घात के अनन्तर) भाषामों में 'मोम' निकल कर पाता है ॥१३॥ पुनः अपने मूल शरीर में आ जाते हैं। इसी प्रकार कर्णाटक भाषा १० महा- उन शब्द राशियों में सर्व भाषाओं के अंक प्रगट हो जाते हैं। अब ८५ भाषाओं रूप होकर ७०० क्षुल्लक भाषाओं को अपने अन्तर्गत करके पुनः अपनी बन्ध का नाम कहेंगे ॥१४॥ कर्णाटक लिपिबद्ध रूप बनाने वाला यह 'भूवलय' है ॥४॥
सर्वबन्ध, नौ सर्वबन्ध, उत्कृष्ट बंच, अनुत्कृष्ट बंध, जषभ्य बंग, अजय सात सौ क्षुल्लक भाषामों को तथा १८ महाभाषाओं को उपर्युक्त गुरणा-बन्य, सावि बन्ध, अनादि बन्न, घव बन्ध, अघ्र वबन्ध, मिसिलबन्ध, बब कार क्रम से ६४ अक्षरों के साथ गुणा करने पर सुपर्ण कुमार, (गरुड), गंधर्व, स्वामित्व, बन्ध काल, बन्धान्तर काल, ह क बन्ध सन्निकर्ष, मंगलिवर, भाम किन्नर, किम्पुरुप, नरक, तिर्यञ्च, भील (पुलिन्द), मनुष्य और देवों की भाषा माग, क्षेत्रबन्ध, परिमारण वंध, स्पर्शबन्ध, कालान्तर बंध, भाव बन्ध; अल्प बहुत्व या जाती है ।।५।।
बन्ध, इस तरह २२बन्ध हए ॥१५-२६॥ जिस प्रकार नाट्यशास्त्र में गमक कला द्वारा विविध नृत्य क्रिया प्रगट इन २२बत्रों को प्रकृति, स्थिति अनुमांग और प्रदेश बंध से गुणा होती है उसी प्रकार उपर्युक्त ३ पहाड़े के अनुसार गुणा करते समयसम तथा विषम करने पर २२४४-८८ अठासी भेद हो जाते हैं ॥३०॥
१ प्रकृति बंध, २ स्थिति बंघ, ३ अनुभाग बंध और ४ प्रदेश मंत्र बंध के दो कार भेद हैं। इनमें भी प्रत्येक के १ उत्कृष्ट २ अनुत्कृष्ट ३ जघन्य, और ४ अजघन्य, इस तरह ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृति (स्वभाव) ज्ञान को ढंकना प्रादि है। कर्मों के इन स्वभावों का प्रात्मा के सम्बन्ध को पाकर प्रगट होना प्रकृति है। और भात्मा के साथ कर्मों के रहने की काल-मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। कर्मों में फल देने की शक्ति की हीनता वा अधिकता को अतुभाग
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सिरि भूबलव
रार्थि सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध का प्रकृति के द्वारा रचा हुमा। यादि घाउ कर्मों ने अपने प्राधीन कर लिया है उन सब अनादिअनन्त जीवों का ऊपर पाया जो गुणाकार आठ-पाठ ८, है पुनः उसे पाठ से अथवा ! कथन करने वाली यह कर्माटक भाषा है, इसलिए इसमें सुनय पौर दुनय अन्तर्गत पाठ कों से गुणाकार करें तो सात सौ चार (५८४८७०४) होते हैं ॥३१॥ है ॥३५॥
उसमें से चार कम कर दिया जाय (७०४-४-७००) तो ७००रह जाते है जब इस भूवलय ग्रन्थ का स्वाध्याय श्रद्धापूर्वक किया जाता है तब हैं । इन क्षुल्लक भाषाओं का प्रमाण यशस्वती की पुत्री ब्राह्मी देवी ने पशु देव, दुर्नय निकलकर कल्याणकारी केवल सुनय मात्र शेष रह जाती है ॥३६॥ नारकियों की भाषामों को जो वृषभनाथ भगवान से सीखा है वे भाषाएं निकल जब यह मानव सुनय और दुर्नय के स्वम्प को समझ लेता है तो जैन आती हैं। ये भाषाएँ नब ग्रंक रूप कर्म सिद्धांत के अवतार रूप होने के कारण धर्म में रुचि प्राप्त करता है यानी उसके अन्तरङ्ग में जैन धर्म प्रविष्ट हो जाता कर्माटक भाषा रूप होकर परिणत हुई हैं। ऐसा कहते हुए रसायन के समान है ।।३७॥ अपने भीतर समावेश कर लेने यह वालावलय काव्य है ।।३२-३३॥
इस मानव का मन स्पर्शनादि पांचो इन्द्रियों में प्रवृत्त होता है उससे बाइबली ने भगवान ऋषभन से चौसठ कलाओं को समझ लिया था। मनमें जो चंचलता उत्पन्न होती है, उसको यह भूवलय ग्रन्थ निर्मूल करने कर्नाटक देश के प्रादि में प्राने वाली भाषा ने सम्पूर्ण दिनयत्व को अपने भीतर वाला है ॥३॥ गर्भित कर लिया है ॥३४।।
जब उपर्युक्त दोष दूर होकर मन परिशुद्ध हो जाता है तब इस भूवलय कर्माटक भाषा में कर्म की कथा और कर्म से मुक्त होने की कथा का।
की गरिपत पद्धति के द्वारा समस्त भाषानों में तत्व को जानने की पाक्ति उसे वर्णन है अतः इसमें अनेक नय गर्भित हैं। उन सब को यदि संक्षेप में कहा जावे ।
सहज प्राप्त हो जाती है ॥३६॥ तो एक सुनय और दूसरा दुर्नय है । जगत में अनन्त नय होने के कारण अथवा । बब गणित शास्त्र का सम्पूर्ण रहस्य प्राप्त हो जाता है तब फिर तीन ३६३ मत होने के कारण प्रत्येक मत प्रौर नय अपने आपको श्रेष्ठ तथा शेष सबको। लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य हस्तगत होने में क्या देर लगती है 11४०॥ कनिष्ठ कहती है, अत: वह दुर्नय है, क्योंकि जिस अंश को यह कहती है इस प्रकार यह गणित शास्त्र इस जीव को मोक्ष देने वाला है ।१४शा पदार्थ उतना ही नहीं है, और अंश भी पदार्थ के हैं उन अवशिष्ट अंशों की इस भूवलय शास्त्र में विश्व की समस्त भाषाओं का समावेश है। यानी उपेक्षा करने के कारण वह दुनय सिद्ध होती है। इस कारण इस दुनय को इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार को भाषाएँ बन जाती है।॥४२॥ एकान्त पक्ष कहते है । सुनय इससे विपरीत है वह विविध अपेक्षामों से पदार्थ के इस भूतल पर नाना प्रकार के परस्पर विरुद्ध जो मत प्रचलित हैं उन समस्त अंशों का समावेश तथा समन्वय करती है। इसलिए उसको मुनय, मवको यह भूवलय एकता के सूत्र में बांध कर सार्थक तथा सफल बनाने वाला सम्यग्नय, प्रमाणाधीन नय, आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। इस तरह सुनय है ।।४३॥ तथा दुर्नय है। समस्त दुर्नयों को और समस्त सुनयों को बतलाकर सबका ठीक इस भूवलय ग्रन्थ के अध्येता को कम से कम जिन-मत-सम्मत अणुव्रत समन्वय करने वाली कर्माटक भाषा है। समस्त संसारी जीवों को ज्ञानावरण धारण करने की योग्यता तो अवश्य प्राप्त हो जाती है॥४४॥
bathokomatoothsts at that theodecidicherrested
बंध कहते हैं तथा बंधने वाले कर्मों की परमाणु संख्या को प्रदेश बंध कहते हैं। उत्कृष्ट प्रादिक भेदों के भी१ सादि (जो छूट कर पुनः बंधा हो) २ अनादि बंध (अनादि काल से जिसके बंच का प्रभाव न हुमा हो) ३ ७ वबंध अर्थात् जिसका निरन्तर बंघ हुमा करे और ४ अन वबंध अर्थात् जो अंत सहित व घ हो, इस प्रकार चार भेद हैं । इन बन्धों को नाना जीवों को तथा एक जीव को अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा स्थानों में यथासंभव घटित कर लेना चाहिए।
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सिर मुवलय
पर्वार्थ सिद्धि संघ मलौर-दिती जब वह अणुव्रतों पर रुचि प्राप्त कर लेता है तब फिर उसको इस बात जितने प्राभृत हैं वे सब द्वादशांग से ही निकले हैं प्राभृन का अर्थ का भी पूर्ण विश्वास हो जाता है कि भगवान महावीर की वाणी में सात सौ अनादि काल के सम्पूरणं वेद को अनुरूप में बतला देना है। इसलिए इसका नाम पठारह भाषा होती हैं जैसा कि इस भूवलय ग्रन्थ में है ।४५-४६॥
प्राभूत रखा गया है कि महान विषय को मुक्ष्म रूप से कहने वाला है। वह कसे जब यह विश्वास होता है कि भगवान महावीर की वाणी सात सौ सो कहते हैंअठारह भाषाओं में सम्पर्ण तत्व का प्रकाश करने वाली है तो उस जीव के
। भगवान महावीर की वाशो से 'तत्त्वमसि' यह शब्द निकला हुआ है उसका चित्त में एक प्रकार का उल्लास होता है एवं उस उल्लास को पैदा कर देने
प्रथं यह है कि "तत्' 'वह' 'त्व' 'न' 'असि' यानी' है' । अर्थात् 'वह तू है' । ऐसा की शक्ति जिन भगवान के इस भूबलय ग्रन्थ में है । ४७-४८। .
'तत्त्वमसि' का अर्थ है। इससे यह सिद्ध हुआ कि तत् अर्थात् "सिद्ध परमेष्ठी' भगवान जिनदेव की वाणी जो ६४ अक्षरों के गुणाकार-मय है वह।
'त्वमसि हे आत्मन तू ही है ।५६॥ निरर्थक नहीं है।४६॥
"तत्त्वमसि" असि मा उ सा” इत्यादि महामहिमा-शाली मन्त्रों से भरे जब इस प्रकार की प्रतीति हो जाती है तब वह जीव उन चौसठ अक्षरों
होने के करण इस भूवलय को महासिद्धि काव्य कहते हैं ।५७। को गुणाकार रूप से अपने अनुभव में लाता है एवं वह सहज में द्वादशाङ्ग का। वेत्ता बन जाता है 1101
किसी कारणवश लोग सहिष्णुता (सहनशीलता) की बात करते हैं । परन्तु उस महापुरुष के अनुभव में जो कुछ पाता है उसी को अभिव्यक्ती असहिष्णुता (दूसरों की बात या काम न सहसकने का स्वभाव) होने से सच्ची करने वाला भूबलय है । ५१॥
सहिष्णुता प्रगट नहीं होती है । सहिष्णुता के लिए मनुष्य के हृदय में दया का विश्व भर में बिखरे हए जो भिन्न-भिन्न नीन सौ तिरेसठ मत हैं उनहोना आवश्यक है, दया के बिना सच्ची सहिष्णुता नहीं पा सकतो कहा भी है सब को चौंसठ अक्षरों के द्वारा नौ ग्रहों में बांधकर एकीकरण कर बतलाने कि "दयामूलो भवेद्धर्भः" यानी-जहां दया है वहीं धर्म है, जहां दया नहीं है वाला यह भूवलय है ।।२।।
यहां धर्म कहां से पावेगा? प्रात्मा का स्वभाव दयामय है. अतः आत्मा का धर्म द्वैत यानी दो और मदत यानी एक इन दोनों को मिलाने से तीन दयामय ही है । अतः जहां दया है वहां पर सहनशीलता स्वयं या जाती है। बनता हे जोकि रत्नत्रय स्वरूप होते हुए अनेकान्त रूप है एवं कार मय है । दया के सुरक्षित रखने के लिए ही समस्त व्रतों का पालन किया जाता है। जैसे जोकि अनादि से चला आया हुआ है उसी प्रकार के प्रङ्कको चौंसठ अक्षरों में , कि "अहिंसावतरक्षार्थ मूलबतं विशोषयेत्" यानी-अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए अभिव्यक्त करते हुए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस भूवलय ग्रन्थ की रचना की है इस 1 मूलबतों की शुद्धि करे १५८। लिए यह कथंचित् सादि तो कचित् अनादि रूप भी है ।५३।
संसार के सभी जीच कर्म-बन्धन की दृष्टि से समान हैं। दीखने वाला इस जगत में शिव, विष्णु, जिन, ब्रह्मा आदि महान देव हैं जोकि सभी । छोटा जीव जैसे कर्म जाल में फंसा हुआ है बड़ा जोब भी उसी प्रकार कर्म से कैलाश, वैकुण्ठ सत्यलोक आदि में रहते हैं ऐसा कहकर अपने अपने अपने मान्य । पराधीन है। इसी कारण महान ज्ञानी योगी सब जीवों को अपने समान समझते देव की श्रेष्ठता प्रमट करते हैं और पक्षपात करके परस्पर विरोध बढ़ाते हैं। हैं । इसी कारण वे सभी छोटे बड़े जीव पर दया भाव रखते हैं। जब सब परन्तु भूवलय के कत्ता श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने उस विरोध को स्थान न देते । जीवों की आत्मा एक समान है तब उनको दुःस्व का अनुभव भी एक समान हुए समस्त जीवों को अध्यात्म मार्ग ही कल्याण कारी बताया है। तदनुसार होता है इसलिए सब पर दया करनी चाहिए ॥५६ समवशरण से मिलने वाले सिद्धान्त को जगत में दशों दिशाओं में फैलाकर हृदय में जब ऐसा भाव आता है तब समन्वय की बुद्धि उत्पन्न होती पारस्परिक विरोध मिटाने का भूवलय द्वारा प्रयत्न किया है ।५४-५२ है। समन्वय बुद्धि वाला व्यक्ति ही समाज को, देश को, जाति धर्म, देव पादि
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सरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली को समन्वय भाव से देखता है । तब वह समन्वय अमृतमय बन जाता है।६।। दण्डे में नहीं, बल्कि वह तो मेरे मन के भीतर है। ऐसी भावना जब हृदय में जाग्रत होती है तब "मैं बड़ा हूं शेष सब
राजा को उत्तरोत्तर क्रोध पाता रहा प्रतः उसने तलवार से साधु के प्राणी मुझ से छोटे हैं। ऐसा छोटा भाव हृदय में नहीं रहता उस समय बह दोनों हाथ काट दिये और बोला कि-अब बता तेरी क्षमा कहां है ? त्रिलोकपूज्य माना जाता है । ६१॥
साधु ने शान्ति से फिर वही उत्तर दिया कि वह मेरे भीतर है। तब उसके जितने भी गुण हैं वे सभी भूवलय (जगत) के लिए प्रति
राजा ने तब साघु के दोनों पैर भी काट दिये और बोला कि बता, फलीभूत होकर पुनः प्रज्वलित अवस्था प्राप्त करा देते हैं ।६
१ क्षमा कहां है? तब वह जीव ५८ श्लोक में कहे अनुसार दयामय होने के कारण अपनी 1 इतने पर भी साधु को शान्ति भङ्ग नहीं हुई। बह बोला कि राजन ! सहनशीलता के सभी गुणों को सुरस विद्यागम रूपी भूवलय में देखता हुआ, मैने कह तो दिया कि वह मेरे हृदय के भीतर है, तुम्हारे इन शस्त्रों में वह नहीं संतोष से अपना प्रात्म-कल्याण कर लेता है।६३! .
। हो सकती है इस भूबलय ग्रन्थ का अध्ययन करने से मनुष्य में सहनशीलता पाती। _ तब राजा को होश ग्राया और वह सोचने लगा कि मैं बड़ा पापी हूँ है जैसे कि
। मैंने बिना बात इस साधु को कष्ट दिया परन्तु महान कष्ट होने पर भी साधु किसी एक राजकीय बगीचे में आकर एक तरुण सुन्दर सुडौल ऋषि जी ने अपनी क्षमा नहीं छोड़ी। ये साधु महात्मा बड़े धीर गम्भीर हैं। ऐसा विराजमान हुआ। उसी बाग में राजा सोया हुया था और उसकी रानियां । विचार करते हुए बह साधु महाराज के चरणों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने इधर उधर टहल रही थीं। उन्होंने जब उस साधु को देखा तो सब इकट्ठो होकर । लगा। धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से उसके पास प्राकर बैठ गई । मुनि ने उस समय । साधु बोले कि राजन् इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? तुमने अपना कार्य उनको अहिंसा धर्म के अन्तर्गत क्षमा धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। किया और मैंने अपना कार्य किया तब राजा ने प्रसन्न होकर कहा कि प्रभो !
____ इतने में उस राजा की आंख खुली तो उसने देखा कि-रानियां उस ! इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि पाप क्षमा के भण्डार हैं। साधु के पास बैठी हैं। श्रम से उसके मन में यह विचार पाया कि यह नवयुवक ३ तात्पर्य यह है कि क्षमा के प्रागे सबको सिर मुकाना पड़ता है परन्तु साधु इन रानियों को भ्रष्ट करना चाहता है इसीलिए यह उनसे वार्तालाप । यह क्षमा धर्म अध्यात्म-विद्या के अध्ययन किये बिना नहीं आ सकता। वह कर रहा है । इस विचार से क्रोध में आकर राजा उस साधु के पास गया और अध्यात्म विद्या इस मूवलय का सज्जीवन है, अतः यह भूवलय विश्वभर को बोला कि तुम इन रानियों के साथ क्या व्यर्थ बातें कर रहे हो ?
क्षमा धर्म का पाठ पढ़ाने वाला है। ___ साधु सरल परिणामी थे। अतः उन्होंने राजा से मीठे शब्द में कहा कि 'मैं ' अर्थात् अट्ठावन और 'ह' यानी ६० इनको परस्पर जोड़ दिया जाय तो क्षमा धर्म का व्याख्यान कर रहा है। परन्तु राजा के मन में तो कुछ ३ ११८ होते हैं इसका वर्ग करने पर १३९२४ होते हैं। उनमें से पुनरुक्क एक को
और ही बात समाई हुई थी इसलिए उसने उस साधु के एक तमाचा जमा । कम करने पर १३९२३ रह जाते हैं जोकि नौ से विभक्त हो जाते हैं तो १५४७ दिया और बोला कि में देखना चाहता हूँ कि तुम्हारा क्षमा धर्म कहां है ? लब्ध हुए इनमें उस पुनरुक्त एक को मिला दिया जाय तो १५४८ हो गये
साघु ने फिर शान्ति से उत्तर दिया कि-क्षमा धर्म मेरे हृदय में है। इनको नौ से भाग देने पर १७२ पाते हैं इसमें से एक निकाल देने पर १७१ रह राजा को फिर क्रोध पाया, अतः उसने दूसरी बार उस साधु के ऊपर एक दण्डा, जाते हैं जोकि नौ से बंटकर १६ आते हैं उसमें से एक निकाल दिया जाय तो १८ जमा दिया। साधु ने शान्ति-पूर्वक फिर कहा कि-राजन् ! क्षमा तुम्हारे इस रह गया जिसको परस्पर जोड़ देने पर (१+१=) नौ हो जाते हैं। तात्पर्य
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सिरि भूजलय
सवार्य सिद्धि संघ बैंगलोर-बिल्ली यह है कि इह सोस्य विषम है तथा परलोक का सौख्य सम है। इन दोनों को किसी मनुष्य को सर्प काटता है तो वह मुरदे के समान प्रनेत दीखता है यदि समान रूप से बतलाने वाला यह भूबलय शास्त्र है।६६।
। उसे सर्प-विषनाशक औषधि दी जावे तो वह तत्काल सचेत हो जाता है। पादरस र ५४ 'ह' ६० म ४२ इन तीनों को मिलाने से -
1 में रहने वाले दोष नष्ट हो जाने पर पादरस में अमृत के समान शक्ति उत्पन्न ५४४६०४५२%: १६६ । हो जाती है। इसी तरह विपरीत मान्यता से जो देव में छोटा या बड़ा माव
रखता था वह अपनी विपरीत भावना (मिथ्या श्रद्धा) निकल जाने पर स्वस्थ शुद्ध पात्मा बन जाता है॥७६11
विवेचन-इस संसार में शुद्धात्मा को न जानकर यह मेरा देव है यह एक मिलाने से १७१
मेरा ब्रह्मा है । इस संसार में एक ब्रह्म ही है दूसरा कोई नहीं है। इसलिए तीनों मिलाने से ह नौ पाता है।।
हमारा धर्म मदत धर्म है। इत्यादि तरह से एकान्त पक्ष लेकर लोग सत्य का १७० एक षट् खण्ड प्रामम मिलाने से ण ४२ औरह = ६० निर्णय नहीं करते, वे पन्धकार में स्वयं भटकते हैं और दूसरों को भी भटकाते १ मिलाने से १७० षट खंड आगम मिलाने से १७६+४२+६०= २७८+ १ = २७६ २+७= &t+१८ = उपयुक्त लिपि हुई।
जब एक शव शिव को जगत में बड़ा मानता है तब वैष्णव अपने विष्णु इस प्रकार महान महान विषयों का सुलभ गति से इस के द्वारा अनुभव को बड़ा मानकर विष्णु के माथ लक्ष्मी को भी मानकर द्वैत रूप में अपने धर्म होता है ।। ६७ से ७२ ।।
का प्रचार करता है। इस तरह दोनों देवों के भक्तों में परस्पर विरोष फैम यह भूवलय ग्रन्थ इस लोक में मोक्ष के सम्पूर्ण विषय को बतलाता है। जाता है। इस विरोध के निराकरण के लिए कुमुदेन्दु आचार्य ने उपर्युक्त दो परलोक में अहमिन्द्र पद को प्राप्त कराकर अन्त में मोक्ष प्रदान करता । श्लोक लिखे हैं।
श्लोक लिखे हैं। है ।७३-७४।
प्रागे भाचार्य श्री दोनों धर्मों का समन्वय करने के लिए श्लोक इस भूवलय को भगवान महावीर ने सिद्ध करके अन्त में मोक्ष फल 1 कहते हैं:प्राप्त किया ऐसी महिमा. बतलाने वाले यह त्रय रत्न बलव यानी-रत्नत्रय
रत्नत्रय धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित स्पी घलय है ७६।
इन तीनों में यादि का सम्यक् दर्शन प्रदंत धर्म माना जाता है । परन्तु यह क्षुधा तृषादि १८ दोष जिनकी पात्मा में प्रचुर मौजूद है उनको यह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र बिना पूर्ण नहीं होता। देव बड़ा है और यह देव छोटा है। इस तरह उनको देवों में अनेक मेद दीखते
तीर्थकर जगज्येष्ठा यद्यपि मोक्षगामिनः । हैं। किन्तु जिनके हृदय में १८ दोप नष्ट करने की तीन इच्छा है उनके मन में
तथापि पालितं चंय चारित्रं मोक्षहेतवे ।। 'रत्नत्रय रूप प्रात्म धर्म ही स्वधर्म है' ऐसी धारणा होती है ।७७
जगत में श्रेष्ठ जन्म से ही मति, थुन, अवधि ज्ञान के बारक तद्भब मोक्षजिन्होंने विपरीत धारणा से संसार को ही अपना घर मान लिया है। गामी तोयंकर भी मोक्ष प्राप्ति के लिए चारित्र को प्राचरण कहते हैं तभी उनको स्वग्रात्म-धर्म में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है जब उनका ज्ञाना
। में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है जब उनका ज्ञाना-1 उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है। वरस कर्म नष्ट होता है तब उन्हें अन्तकाल तक सुख देने वाले मोक्ष की । इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ सम्यकचारित्र धारण करने की अत्यात प्राप्ति होती है।
मावश्यकता है।
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सिरिमूवलय
सर्वार्थ सिदिसंभ वंगलोर-दिल्ली
ब्रह्म को प्रत धर्म कहने बाले की मान्यता को सुनकर द्वैतवादी एक साथ रखकर घुमाते हुये चले जाने वाला उनके बीच में धुरा होता है। उसी वैष्णवों को खेद हुआ अतः वे बोले कि ब्रह्म अत धर्म ठीक नहीं है हमारा प्रकार द्वैत और भवंत इन दोनों को टकराने न देकर एक साथ रखने वाला विष्णु धर्म हो (वंत धर्म हो) श्रेष्ठ है क्योंकि विष्णु के साथ लक्ष्मीः रहेती और दोनों को सफल बनाने वाला घुरे के समान यह अनेकान्त धर्म है ॥१०॥ है। इस प्रकार दोनों धर्मों में स्पर्धा होने लगी। तब श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने अद्वैत दंत और अनेकान्त ये तीनों रत्नत्रय रूप महान धर्म हैं और कहा कि माई ! विवाद मत करो आप यथार्य बात सोचो अद्वैत भी श्रेष्ठ ग्रहन्त भगवान के हार के प्रमुख रत्न हैं। इस रत्नत्रय हार की मम धन है और द्वैत भी क्योंकि 'न त अव तं इस प्रकार कहने में दो का निषेध काय, कृत कारित अनुमोदना रूप ३४३% परिपूर्ण अंक रूप कड़ियां हैं। इन करके एक होता है प्रर्यात् दो के बिना एक नहीं होता।
परिपूर्ण अंकों में ३६३ मतों का समावेश हो जाता है विचार कर देखें तो पद्धत शब्द का पर्व ब्रह्म न होकर एक होता है। उसो परिपूर्ण अंक के ऊपर एक १ का अंक मिलाने से एक सहित १ तथा द्वैत शब्द का अर्थ विष्ण और लक्ष्मी न होकरः दो होता है। एवं . इन मून्य (१०) आता है । उससे ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति हुई है। उस ब्राह्मी लिपि दोनों को मिला कर तीन का अंक जो बनता है वह मनेकान्त स्वरूप हो जाता को देव नागरी लिपि कहते है तथा उसी को ऋग्वेदांक भी कहते हैं। है। तात्पर्य यह है कि कथंचित् एक, और कथंचित दो ठीक होता है, प्रतएव ! एक से लेकर नौ तक अंकों द्वारा द्वादशांग को उत्पत्ति होती है उस दोनों का समावेश रूप रत्नत्रय धर्म अनेकान्त धर्म ही सर्ममेष्ठ धर्म है और सोअंक में एक और मिलाने से उस १० दश अंक से ऋग्वेद को उत्पत्ति होती है।
को जैन धर्म कहते हैं । कर्मारातीन जयतीति मिनः जो सम्पूर्ण कर्मों को नीतनेइसी को पूर्वानुपूर्वी, पश्चात् अनुपूर्वी कहते हैं। द्वादशांग रूप वृक्ष की शाखाप - वाला हो उसको जिन कहते हैं और उस जिन भगवान का जो धर्म-पाचरण है, ऋग्वेद है। इसलिए इस वेद का प्रचलित नाम ऋक शाखा है ॥२॥ वह जैन धर्म है, ऐसा सुन्दर अर्थ होता है। यही प्राणीमात्र का धर्म सार्व- ऋग्वेद तीन प्रकार का है मानव ऋग्वेद, देव ऋग्वेद तथा दनुज
(दानव राक्षस) ऋग्वेद । इन वेदों द्वारा पशुओं को रक्षा, गो-ब्राह्मण की रक्षा कर्मों को अपने अन्दर बनाये रखना न तोल वादियों को इष्ट है और तथा जैन धर्म को समानता सिद्धि हो, ऐसा कुमुदेन्दु आचार्य प्राशीर्वाद देते न भन्दै सवादियों को इष्ट है। इसलिए जैन धर्म होः सर्वश्रेष्ठ धर्म है, यह सबको है ॥३॥ - 'मानना पड़ेगा।
विवेचन–प्रचलित ऋग्वेद का प्रारम्भ 'अग्निमीले पुरोहितम्' से होता जैन धर्म रलत्रयात्मक है रलत्रय में सम्यादर्शन पहले है जो कि एक होता है परन्तु भूवलय में ऋग्वेद का प्रारम्भ 'ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य होने से प्रदत हैं और उसके अनन्तर ज्ञान तथा चारित है जो द्वैत रूप हैं । इस धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' से है। 'अग्निमीले पुरोहितम्' भी बाद में मा
पर अद्वैतवादी कह सकता है कि पहले पाने की वजह से हमारा धर्म : प्रधान है । जाता है । अब तक वैदिक लोग जैनों को वेद न मानने के कारण वेद-ग्रह .. परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि यहां पर जिस प्रकार पूर्वानुपूर्वी क्रम लिया जाता है । कहते थे । भूवलय के अतिरिक्त अन्य जन ग्रन्थों ने वेदों में हिंसा का विधान नवसे ही पश्चादानुपूर्वी क्रम भी लिया जाता है। पूर्वानुमूर्ती में सम्यग्दर्शन रूप होने से उस को अमान्य मानकर छोड़ दिया है। किन्तु मुबलय में उपलब्ध
अदत धर्म पहले आ जाता है तो पश्चादानुपूर्वी में करिव और ज्ञान रूप द्वैत । ऋग्वेद में हिंसा विधान, मद्यपान, चूत क्रीडा, दुराचार आदि नहीं है। यह . धर्म पहले आ जाता है । इस युक्ति को लेकर सब का समन्वय करके एक साथ दुराचार दानवीय ऋग्वेद में है, मानवीय तथा देवोय ऋग्वेद नहीं है । जैन ग्रन्यों रखने वाला अनेकान्त पर्म है।
में हिमा का विशद विस्तृत वर्णन है उसके विपरीत हिंसा के त्याग रूप हिंसा जैसे कि एक गाड़ी को बहन करने वाले दो चक्के होते हैं उन दोनों को । का वर्णन है क्योंकि हिंसा का विवरण बताने पर ही अहिंसा का विधान होता
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सिरि भुक्षय
हैं। दानवीय ऋग्वेद में मानवीय ऋग्वेद के हिंसा के विवरण के ही विधेय रूप से फर्शन किया है, अहिंसा का विधान छोड़ दिया है।
मानवीय ऋग्वेद के लुप्त हो जाने से दानवीय ऋग्वेद ही प्रचार में प्राता रहा, जैसे कि द्वादशांग वाली विलुप्त हुई। मानवीय ऋग्वेद के लुप्त हो जाने पर मनुष्यों ने दानवीय वेद को अपना लिया। इस कारण पशु हिंसा आदि क्रियाएं वेद का आधार लेकर चल पड़ीं। इस वैदिक हिंसा को रोकने के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा का प्रचार किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी वैदिक हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई। जब भूवलय में ऋग्वेद का समावेश उपलब्ध हुआ तब से स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी प्रार्य समाज की वारणा जैन धर्म या जैन समाज के प्रति बदल गई है।
३८
तदनुसार आर्य मार्तण्ड, सार्वदेशिक पत्रिका यदि अपने मासिक पत्रों में आर्य समाजी विद्वानों ने भूवलय ग्रन्थ की प्रशंसात्मक लेखमालाएं प्रकाशित की हैं । उन लेख-मालाओं के आधार से कल्याण, विश्वमित्र, P.E. N तथा श्रागंनाईजर यादि विख्यात पत्रों ने भी भूवलय ग्रन्थ का महत्व विश्व में फैला दिया है। बेंगलोर आर्य समाज के प्रमुख श्री भास्कर पंत ने अजमेर के प्रसिद्ध भार्य समाजी विद्वान डा० सूर्यदेव जी शर्मा एम० ए० तथा विश्वविख्यात विद्वान् स्वा० ध्रुवानन्द जी को तथा अन्य चार्य विद्वानों को ग्रामंत्रित करके सर्वार्थसिद्धि बेंगलोर में लाने का प्रयास किया। उन विद्वानों ने बेंगलोर में भूवलय ग्रन्थ का अवलोकन करके हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की तथा श्री डा० सूर्यदेव जी ने भूवलय की महिमा में निम्नलिखित श्लोक निर्माण किया
अनादिनिधाना वाक्, दिव्यमीश्वरीयंवचः । ऋग्वेदोहि भूवलयः दिव्यज्ञानमयो हि सः ।।
अर्थ भूवलय ग्रन्थ अनादि अनन्त वाणी स्वरूप है, दिव्य ईश्वरीय वचन
है, दिव्य ज्ञानमय है और ॠग्वेद रूप है ।
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य आशीर्वाद देते हैं कि इतिहास काल से पूर्व का प्रचलित वेद का ज्ञान प्रसार भविष्य में भी हो ॥६४॥
श्री जिनेन्द्र वर्द्धमानांक यत्र तत्रानुपूर्वी के क्रम से नवम है ॥ ८५ ॥ यह नवमी कही जाने वाली लिपि ही अक्षांश में है ॥८६॥
सर्वार्थ सिद्धि बंगलौर-दिल्ली
विदी से प्रारम्भ होकर बिंदी के साथ ही अंत होने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ||८||
इसकी उत्पत्ति इस तरह है
९ अंक शून्य से निष्पन्न हुआ है और वह शून्य भगवान के सर्वाग से प्रगट हुआ है। जिस प्रकार हम लोग वार्तालाप करते समय अपना मुख खोलकर बातचीत करते हैं उस प्रकार भगवान अपना मुख खोलकर नहीं करते । भगवद्गीता में भी कहा गया है कि:
सर्वद्वारेषु कौन्तेय प्रकाश उपजायते !
इसी प्रकार उपनिषद् में भी 'मौन व्याख्या प्रकटित परब्रह्म' इत्यादि रूप से कहते हैं । मोन व्याख्या का अर्थ भगवान के सर्वांग से ध्वनि निकलना है। अभी तक इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सका था, किन्तु जबसे सुवलय सिद्धांत शास्त्र उपलब्ध हुआ तब से यह आधुनिक विचारज्ञों के लिये नूतन विषय दृष्टिगोचर हुआ । ऋषभनाथ भगवान् ने अपनी कनिष्ठ कन्या सुन्दरी देवी की हथेली पर प्रमृतांगुली के मूल भाग से वायों योर एक बिन्दी लिखी। तत्पश्चात् उस बिन्दी को श्रर्द्धच्छेद शलाका से दो टुकड़ों में बनाया। उन्हीं दोनों टुकड़ों के द्वारा अंकशास्त्र की पद्धति के अनुसार घुमाते हुये ६ अंक बनाये, जो कि अन्यत्र चित्र में दिया गया है । किन्तु अंक में रहने वाले दोनों टुकड़ों को यदि परस्पर में मिला दिया जाय तो पुनः बिन्दी बन जाती है ।
:
यही बिन्दी श्री ऋषभदेव भगवान के बन्द मुँह से हूं इस ध्वनि के रूप में निकली जोकि भूवलय के ६४ प्रक्षरांकों में से इकसठवां अकाक्षर है । यानी (०) अनुस्वार है न कि ५२ व अक्षरांक (म) है।
है
अब उस बिन्दों (०) को ठोक मध्य भाग से तोड़कर दो टुकड़े करने से उसके ऊपर का भाग कानड़ी भाषा का १ अंक बन जाता है, जोकि संस्कृतादिक द्राविडेतर भाषाओं में नहीं बनता । भगवान के सर्वांग से जो ध्वनि निकलो वह भी उपर्युक्त बिन्दी के रूप में हो प्रगट हुई। इसलिए उसका लिपि आकार भी "" ऐसा प्रचलित हुआ। इस प्रकार लिपि के आकार का मर ध्वनि निकलने के स्थान का परस्पर में सम्बन्ध होने से इसी बिन्दी का दूसरा
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सिरि मलय
सर्वार्थ सिद्धि संभ बैंगलोर-दिल्ली
नाम "गौड़” नाम पद है। इसी बिन्दी को कानड़ी भाषा में सोन्ने, प्राकृत में है ऐसा हम पहले भी अनेक स्थानों पर बता चुके हैं। यह भूवलय आदि में और - शून्य तथा हिन्दी भाषा में बिन्दी इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं ।
अन्त में एकसा है | १२
मनु और मुनि इत्यादि महात्माओं के ध्यान करने योग्य यह भूवलय - ध्यानाक है |३|
६८.
शून्य का अर्थ प्रभाव होता है और उस शून्य को काटकर ही कानडी भाषा के १ और २ बने । इन दोनों को मिलाकर ३ हुए और ३ को परस्पर में गुणा करने से होते हैं, जोकि सद्भाव को सूचित करते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रभाव और सद्भाव कथंचित् प्रभिन्न धीर कथंचित् भित है। एवं भिन्नाभिन्न हो स्याद्वाद का मूल सिद्धान्त है। यहां तक ८७ श्लोक का अर्थ समाप्त हुआ।
कामदेव व यशोगान करने वाला है उस ऋग्वेद को देव, मानव और दानव तीनों ही गाते रहते हैं परन्तु उनमें परस्पर में कुछ विशेषता होती है । मनुज और देव ये दोनों तो सौम्य प्रकृति हैं इसलिए गो, पशु और ब्राह्मण इन तीनों को रक्षा करने वाले तथा शुभाशीर्वाद देने वाले हैं एवं जैन धर्म की प्रभावना करने वाले हैं। किन्तु दानव क्रूरकृति वाले होते हैं इसलिए उसी ऋगवेद को क्रूरता के रूप से उपयोग में लाने वाले एवं हिंसा का प्रचार करने वाले हैं। अब यह भूवलय अङ्क उन तीनों के परस्पर विरोध को मिटाकर उन्हें एकता के साम्राज्य में स्थापित करने वाला है तथा उपर्युक्त श्रद्धंत, हंस और अनेकान्त तोनों में भी परस्पर प्रेम बढ़ाकर समन्वय करने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है |
यद्यपि ये तीनों धर्म परस्पर में कुछ विरोध रखने वाले हैं । फिर भी इन तीनों को यहां रहना है अतएव यह भूवलय ग्रन्थ उन तीनों को नियन्त्रित करके निराकुल करने वाला है ॥६.०१
यह भूवलल ग्रन्थ हम लोगों को बतलाता है कि सम्पूर्ण प्राणी मात्र के लिए समान रूप से एक ही धर्म का उपदेश देने वाला ऋग्वेदा है । ६१ ।
यह भूवलय ग्रन्थ आदि में भी और अन्त में भी परिपूर्णाङ्क वाला है । सो बताते हैं - यह भूवलय ग्रत्य - विन्दु से प्रारम्भ होता है अतएव आदि के बिन्दु है उस बिन्दु को काटकर कानड़ो लिपि के १-२-३ आदि नौ तक के प्रक" बनते हैं । अन्त में जो तो का श्रद्ध है वह भी बिन्दु के दोनों टुकड़ों से बनता है ।
यह भूवलय ग्रन्थ-स्वप्न में भी सब लोगों को सुख देने वाला हैश्रतएव शुभाङ्क है |२४|
..
सभी मन्मयों का यह श्राद्यन्त अंक है |२५|
जिनरूपता को सिद्ध कर दिखलाने वाला यह अंक है |१६|
जिस प्रकार चन्द्रमा के प्रकाश में आदि से लेकर अन्त तक कोई भी अन्तर नहीं पड़ता उसी प्रकार इस भूवलय में भी ग्रादि से अन्त तक कोई अन्तर नहीं है | ७|
इस भूवलय की भाषा कर्मा (र्णा) टक है जोकि ऋद्धि रूप है और अपने गर्भ में सभी भाषाओं को लिए हुए है | ६८
शरीर को पवित्र और पाचन बनाने वाला यह अंक है अर्थात् महाव्रतों को धारण करने की प्रेरणा देने वाला है । ६६
आदि से अन्त तक यह भूवलय ब्राह्मी (लिपि) अंक है ॥१००॥
अद्वैत का प्रतिपादन करने वाला एक का अंक पूर्वानुपूर्वी में जिस प्रकार प्रारम्भ में आता है उसी प्रकार पश्चादानुपूर्वी में नौ के समान सबसे अन्त में आता है, इस बात को बताने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है । १०१।
अद्वैत का श्रयं सम्यग्दर्शन है, क्योंकि सम्यग्दर्शन हो जाने पर यह जीव अपनी आत्मा के समान इतर समस्त आत्माओं को भी इस शरीर से भिन्न ज्ञानमय एक समान जानने लगता है। द्वैत का प्रयं सम्यग्ज्ञान है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण आत्माओं की या इतर समस्त पदार्थों की विशेषताओं को ग्रहण करते हुए आपापर का भेद व्यक्त हो जाता है। इसी प्रकार अनेकान्त का अर्थ सम्यक् चारित्र लेना चाहिए; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान इन दोनों को एकता रूप करते हुए स्थिरतामय हो जाता है । यब पूर्वानुपूर्वी क्रम में सम्यग्दर्शन प्रथम श्राने से प्रधान है, तो पश्चादानुपूर्वी क्रम में सम्यक्चारित्र प्रधान बन जाता है । इसी प्रकार यत्रतत्रानुपूर्वी क्रम में सम्यग्ज्ञान मुख्य ठहरता
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सिरि भूगलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली
है। इस तरह अपने अपने स्वरूप में सभी मुख्य और पर रूप से देखने पर गौण महान् काव्य है ।१११॥ बनते रहते हैं । इस स्याद्वाद पद्धति से स्याद्वाद, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र यह भूवलय जिनेश्वर भगवान का वाक्या५ है ।११२॥ का पूर्णतया प्राप्त होना ही परमात्मा का स्वरूप है । और यही प्रदत है ।१०२।। यह भूवलय मन शुद्ध्यात्मक है ।११३।
इस प्रकार जो विद्वान पूर्वोक्त तीनों प्रानुपूर्वियों का ज्ञान प्राप्त कर शरीर विद्यमान रहने पर भी उसे अशरीर बनाने वाला यह भूवलय लेता है उसका हृदय विशाल बन जाता है, क्योंकि उसमें समस्त धर्मो का है ॥११६।। समन्वय करने की योग्यता आ जाती है। और उसके विचार में फिर सभी जिसको कि तुम स्वयं अवगत किये हुए हो, ऐसे व्यतीत कल में अनादि धर्म एक होकर परम निर्मल अद्वैत स्थापित हो जाता है।
! काल छिपा हुआ है । आज यानी-वर्तमान काल में तुम मौजूद ही हो, अतः वह इस प्रकार अद्वैत का परमः श्रेष्ठ हो जाना जैनियों के लिए कोई स्पष्ट ही है । इसी प्रकार पाने वाले कल में अनन्तकाल छिपा हुआ है। परन्तु आपत्ति कारक नहीं है। क्योंकि हम यदि गम्भीरता से अपने मन में विचार जब तुम रत्नत्रय का साधन कर लोगे तो बीते हुए कल के साथ में आने वाले करके देखें तो जैनियों के जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादितः यह भूवलयः शास्त्र कल को एक करके स्पष्ट रूप से जान सकोगे । एवं अपने पाप में तुम स्वयं अनुभव रूप है । अर्थात् अचित् द्वैत रूप है, तो कथंचिक अष्ट्त रूप है और अनाद्यनन्त हो जाओगे । अतः प्राचार्य का कथन है कि तुम भरसक रलत्रय कथंचित् द्वं ताहत उभय रूप है। अतएव अपंचित् दोनों रूप-भी नहीं है। साधन करने का सतत पल करो ॥११७॥ इस प्रकार उभय अनुभव इन दोनों की धनसिद्ध-(समष्टि) रूपब यह भूषलय इस प्रकार सच्चा रत्नत्रय प्राप्त हो जाने पर समतारूपी खडग के द्वारा ग्रन्थ है ॥१०४।
क्रमशः क्रोध, मान, माया लोभ का नाश करके आत्मा विमलांक बन जोती है इसलिए यह भूबलय दिव्य सिद्धान्त ग्रन्थ है। यानी सर्वसम्मत-ग्रन्थ । और इसी का नाम अनागत काल है । इसको बताने वाला भूवलय है ॥११॥ है मर्थात् सबके लिए माननीय है ।१०॥
मन के दोषों को दूर करने वाला अध्यात्मशास्त्र है, जो कि इस भूवलय वस्तुतः यह भूयलय ग्रन्थ जिन सिद्धान्त अन्य है ०६।
में भरा हुआ है। बचन के दोषों को दूर करने वाला व्याकरण शास्त्र है, वह प्रारम्भ से लेकर अन्त मक समान रूप से चलने वाला अंकमयः यह भी इसी भूवलय में गभित है। इसी प्रकार शारीरिक वातादि दोषों को दूर - भूवलय ग्रन्थ है ।१.०७।।
करने वाला १३ करोड़ मध्यम पदात्मक वैद्यक शास्त्र भी इस भूवलय में या आत्मा का स्वरूप धन स्वरूप है इसलिए यह - धन धर्मांक- भवलया गया है। इसलिए मन, वचन व काय को परिशुद्ध बनाने वाला यह भूवलय है।१०८।
है ॥११॥ अंक में संख्यात असंण्यात और: अनन्त ऐसे तीन भेद होते हैं। अनन्त यह भूवलय भगवान् की दिव्य ध्वनि से प्रगट हुआ है। अतः यह भी केवली-गम्य है। रस. अनन्त राशि को जनता को बनाने वाला यह भूवनय (शोभावान्) बचन होने से अत्यन्त मृदु, मधुर और मिष्ट है 1 तथा हृदय कमल है ।१०६॥
पर पाकर विराजमान होने से मन को प्रफुल्लित करने वाला है और मन जब अनन्त अंक का दर्शन होता है तब सिद्ध परमात्मा का शान हो। प्रफुल्लित हो जाने पर भविष्यत् काल भपी कल पूर्ण रूप से अवगत हो जाता ...जाता है इसलिए नाम सिद्ध भूवलय है ।११०॥
है तथा प्रात्मा अद्वैत बन जाती है ॥१२०॥ यह भूवलय ग्रन्थ विन्दी से निष्पन्न होने के कारण अणुस्वरूप है और यह भूवलय ग्रन्थ भूत भविष्यत् वर्तमान कालों को एक कर के बतलाने अनम्नानन्त अर्थात् ६ तक जाने के कारण महान् भी है। इसलिए यह मां-बाला, दैत अद्वैत और जय इन तीनों को एक कर बतलाने वाला एवं देव,
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धिसंघ बंगलोर-दिल्ली
fol
atra तथा मानन इन तीनों को एक साथ समता से रखने वाला है। इसलिये है नष्ट करके विरोध पैदा करके एक ही धर्म को अनेक रूप मानने लगे हैं । द्वेष यह धर्माक है ।। १२१ ॥
भाव मिटा कर ऐक्य के लिए प्रेरणा देने वाला यह भूवलय है ॥ १३१ ॥
इन समस्त धर्मों को एकत्रित कर बतलाने वाले श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र भगवान् के धर्म का भी यह भूवलय प्रसिद्ध स्थान है। अतः धर्माक है ।। १२२॥ वस्तुतः सभी मानवों का धर्म एक है, जिसका कि इस भूवलय में प्रतिपादन किया गया है ॥ १२३॥
अन्य ग्रन्थों में अक्षरों को कम करके सूत्र की सूचना हो सकती है। परन्तु भूवलय ग्रन्थ में इस तरह नहीं हो सकता क्योंकि इसमें एक भाषा के साथ अनेक भाषाएं और अनेक विषय प्रगट होते हैं, अतः अन्य ग्रन्थों के सूत्रों के समान इस ग्रन्थ के सूत्र नहीं बन सकते । भूवलय के एक एक प्रक्षर में अनेकों सूत्र बनते हैं। इसलिए भूवलय ग्रन्थ सूत्र रूप है तथा यह ग्रन्थ विराट रूप भी है ॥१३२॥
प्रति शरीर में जो श्रात्मा विद्यमान है, वह उत्तम धर्म वाली है || १२४|| गत कल अनन्त काल तक बीता हुआ है और आने वाला कल भी अनन्त काल तक है अर्थात् आने वाला भूत काल से भी विशाल है इन दोनों की वर्तमान काल कड़ी के समान जोड़ता है ।। १२५ ।।
आदि में रहने पर भी आदि को देख नहीं सकते, और अंत में रहने पर भी अंत को नहीं देख सकते, ऐसा जो अंक है वह ३४३ = नो अंक है । जैन धर्म में प्रतेक भेद हैं उन भेदों को मिटा कर ऐक्य करने वाला यह नव पद जैन धर्म नामक ऐक्य सिद्धांत है ।। १२६ ।। जगतवर्ती समस्त प्राणी मात्र के कल्याण करने वाले सभी धर्म नहीं हो सकते यद्यपि दुनिया में अनेक धर्म हैं परन्तु वे सभी धर्म कल्याणकारी नहीं हैं ॥१२७॥
जिस धर्मसे समस्त प्राणीमात्र का कल्याण हो उसी को सद्धर्म अथवा धर्म कहा जाता है, अन्य को नहीं ॥ १२८ ॥
सम्यग्ज्ञान के पांच भेद हैं, उन विभिन्न ज्ञानों की योग्यता को बताने वाला यह भूवलय है ॥ १२६॥
हमारा ज्ञान अधिक है और तुम्हारा ज्ञान अल्प है, इस प्रकार परस्पर विरोध प्रगट करके झगड़ने वालों के विरोध को मिटा कर सम्यग्ज्ञान को बतलाने वाला यह भूवलय है। अर्थात् परस्पर विरोध को मिटाने वाला तथा सच्चा ज्ञान प्राप्त कराने वाला यह भूवलय है ।। १३०॥
देव लोग और राक्षस (सज्जन और दुर्जन) एक ही प्राणी के सन्तान हैं। जैन जनता भगवान महावीर की परम्परा संतान रूप से अनुगामिनी है अर्थात् उनकी भक्त है । परन्तु कलिकाल के प्रभाव से जैसे पांडव और कौरवों ने एकता को तोड़ कर मास में विरोध पैदा किया उसी प्रकार जैन भाई आपसी प्रेम को
अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये परमेष्ठी विभिन्न गुणों के कारण भिन्न रूप दिखने पर भी आध्यात्मिक देव दृष्टि से पांचों समान हैं इनमें कोई भेद नहीं है । अथवा समस्त तीर्थंकर देवत्व की दृष्टि से समान हैं, पूर्ण शुद्ध परमात्मा में जिन विष्णु शिव, महादेव और ब्रह्मा आदि नामों से कोई भेद नहीं होता ।। १३३||
अर्हृदादि देवों के वाचक अक्षरों से बना हुआ। मन्त्र भक्तों की रक्षा करता है ।। १३४॥
उपर्युक्त मन्त्रों को एकाग्रता के साथ जपने वाले को सातिशय पुण्य बन्ध होता है ||३५||
इसी के साथ-साथ उनको विनत भाव और अहिंसात्मक सद्धमं की भी प्राप्ति होती है ॥ १३६॥
यह भूवलय ग्रन्थ परम सत्य का प्रतिपादन करने वाला होने से सभी के लिये कल्याणकारी है ॥१३७॥
यह भूवलय का नवमांक अणुव्रत और महाव्रत का स्पष्टरूप से प्रतिपादन करने वाला है इसलिये अणु महान् (हनुमान) जिन देव का कहा हुआ यह अक है। उस हनुमान जिन देव की कथा रामाङ्क में बाई हुई है और रामाक यानी राम कथा भी मुनिसुव्रतनाथ भगवान की कथा में आई है। श्री मुनिसुव्रतनाथ की कथा प्रथमानुयोग में अद्भुत है । प्रथमानुयोग शास्त्र श्री द्वादशाङ्ग वाणी का एक अंश है । यह भूवलय ग्रन्थ द्वादशाङ्गात्मक है, इसलिये यह जिन धर्म का वर्द्धमाना है ||१३||
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सिरिमूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इस भूवलय ग्रन्थ में अनेक महान् ऋद्धियों का वर्णन है। ऋद्धियां जैन का दर्शन तथा अनुभव कराकर अरहंतादि नव देवता सूचक जो नौ अंक है, मुनियों को प्राप्त होतो हैं। जिन ऋद्धियों के प्राप्त होने पर शुद्धात्मा की । उस अंक को शून्य के रूप में अनुभव कराकर दिया हुआ है वां अंक उपलब्धि होती है और सम्यक्त्व परिशुद्ध हो जाता है उन्हीं ऋद्धि वाले महर्षियों में । है॥१४३।। से एक श्री वालि महामुनि भी हैं जोकि राम-रावरण के समय में हो गये हैं । जब जैन धर्म में कहे हुए अर्हतादि नव पद के समीप आकर ||१४४।। अपने बलके अभिमान में आकर रावण ने कैलाशगिरि को उठाकर समुद्र में स्मार्त अर्थात् स्मृतियों के धर्म को और वैष्णव धर्म को इन्हीं अंकों में डालना चाहा था उस समय श्री बालि मुनि ने अपने घर के अंगुष्ठ से जरा सा समाबेश और समन्वय करते हुए ॥१४५|| दबाकर कैलास पर्वत के जिन मन्दिरों को रक्षा को थी और रावण के अभिमान ! इन धर्म वालों को अपने गरीर में हो अपनी प्रात्मा को दिखला कर को दूर किया था । ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व के धारक श्री बालि मुनि की बुद्धि ऋद्धि नव ग्रंक में शून्य बतलाकर इन धर्म वालों के शरीर के दोष एक हीका यशोगान करने वाला यह भूवलय शुद्ध रामायणाङ्क है ।।१३६॥
समान है कम अधिक नहीं है ऐसे बतलाते हुए सम्यग्नय और दुर्नय इन दोनों द्वादशाङ्ग बाणी में जो शुद्ध रामायण अंकित है, उसी रामागासो नामों को बतलाया । अंत में दुर्नय का नाश करके सुनय में अतिशय को बताकर लेकर बाल्मीकि ऋषि ने कबि लोगों को काव्य रम का प्रास्वादन कराने के । अन्त में उस अतिशय को अनेकांत में सम्मिलित कर दिया फिर चैतन्यमय प्रात्म लिए कान्य शैली में लिखा और उसमें महाव्रतों की महिमा को बतलाया ! उन
तत्व को अपने हृदय में स्थापित करके हिंसामय धर्म से छुड़ा हिमा में स्थापित महाव्रतों में परिस्थिति के वश होकर यया समय में पाने वाले दोपों को दूर कर देते हैं । इसी रीति से जिन मार्ग को सुन्दर बना कर और विनय धर्म के हटाने वाला यह भूवलय ग्रन्थ परिशुद्धाङ्क है ।। १४०।।
साथ सद्धर्माक को जगत में फैलाने वाला यह भवलय ग्रन्थ है ।।१४६-१५६।। जो परिणदाङ्क-संसारी जोबों के गहादुखों को दूर हटाने के लिए प्रण
चौथे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक उत्तरोत्तर प्रात्मा के व्रतों की शिक्षा देता है, उन्हीं अग व्रतों के अभ्यास से महा व्रतों की सिद्धि
सम्यकत्व गुण की निर्मलता होती जाती है जिससे कि आगे आगे असंख्यात गुणी
निर्जरा होती रहती है ।।१५७॥ होती है । जो मनुष्य महाव्रतों को प्राप्त कर लेता है उसको मंगलप्रामृत की। प्राप्ति हो जाती है । उस मंगलमय महात्मा का दर्शन कराकर सम्पूर्ण जनता
ऊपर जो अनन्न नाब्द आया है उसकी महिमा बतलाने के लिए सर्वको परिशुद्ध बनाने वाला यह भूवलयांक हे ॥१४१।।
जघन्य संख्यात दो है। इस बात का खुलामा ऊपर बताया जा चुका है तथा एक
का अंक अनन्त है यह बात भी ऊपर बता चुके हैं। अब एक और एक मिलाकर विविष मंगलरूप अक्षरों से समस्त संसार भर जावे फिर भी अक्षर बच ।
राम समस्त संसार भर जाव फिर भी अक्षर बच दो होता है इसलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि सर्व जघन्य संख्यात भी जाता है। सबसे प्रथम उन सभी अक्षरों को भगवान आदिनाय ने अमृतमय रस:
अनम्तात्मक है। इतना होकर भी आगे लाने वाली संख्यांगों की अपेक्षासे बिलके समान यशस्वती देवी के गर्भ से उत्पन्न वाह्मी देवी की हथेली पर लिखा था। कुल छोटा है । इस छोटे से छोटे अंक को इसो से वर्गिः सम्बगित करें तो ४ ये हो प्रक्षर माज तक चले आये हैं । इन ६४ अक्षरों का ज्ञान होने से अनादि।
महाराशि पाती है ३४ इसको पागम की परिभाषा में एकबार वगित सम्बकालीन आत्माके विष के समान संलग्न प्रज्ञान दूर हो जाता है । इसलिये इन अक्षरों !
4 इन अक्षरा गित राशि कहते हैं। का नाम "विषहर नौलकंठ' भी है । नीलकंठ का अर्थ ज्ञानाबरणादि कर्म हैं । वे इस राशि (४) को इसी राशि से वगित सम्बगित करें तो दो सो छप्पन कर्म विपरूप हैं उन कर्मों का कथन करने वाला भगवान का कंठ है, इस कारण 1xxxxxx४२५६ आता है। इसका नाम दुवारा वगित सम्बनित राशि है। यह भूवलय का अंक नीलकंठ अंक है ।।१४।।
अब इस राशि को इसी राशि से वगित सम्बगित करें तो २५६ = ६१७ स्थाआदि मन्मय बाहुबली को बहिन सुन्दरी को इस नवमांक रूप भूवलयनांक भाते हैं इसको तीन बार वर्गित सम्बगित राशि कहते हैं।
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सिरिमूवलय
२५६×२५६४२५६४२५६ २५६ ४ २५६ इस प्रकार दो सो छप्पन बार गुणा करनेसे जो महाराशि उत्सन्न होती है उसका नाम ६१७ स्थानांक है । (१) २५६×२५६ इसी रीति से बार-बार दो सो छप्पन वार करना ।
(२) ६५५३६x२५६ (३) १६७७७२१६x२५६
३
इस तरह से सर्व जघन्य दो को सिर्फ तीन बार वर्गित सम्वगित करने से ही कितनी महान राशि हो गई। इससे भी अनन्त गुणा बढ़कर कर्म परमाणु राशि प्रत्येक संसारी जीव के प्रति संलग्न है। उन कर्म परमाणुओं को नष्ट कर दिया जाये तो उतने ही गुण आत्मा में प्रगट हो जाते हैं। अब सर्वोत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्याङ्क को लाने की विधि श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य बतलाते हैं—
उपर्युक्त तीन बाद सम्बनिया से सम्बंधित करें तो चार बार वर्गित सम्वर्गित राशि आती है। इस चार वार वर्गित सम्बर्गित राशि को इसी राशि से वर्गित सम्बर्गिन करने पर पांच बार वर्गित सम्बर्गित राशि बनती है इसी प्रकार छटवें वार, सातवें वार, आठवें वार और नौवें वार उत्तरो
तर वर्गित सम्वर्गित करते चले जावे तो जो अन्त में महा राशि उत्पन्न होती है उसका नाम नौ बार वगित सम्बर्गित राशि होता है। इस राशि का नाम उत्कृष्ट संख्यानानन्त है । इसके मध्य में दो से ऊपर जो भेद हुये सो सब मध्यम संख्यातानन्न के मेद हैं। इसमें एक और मिला देने से जघन्य श्रसंख्यात होता है यह असंख्यात का एक हुआ। इस श्रसंख्यात में इतना ही श्रीर मिलायें तो श्रसंख्यात का दो हो जाता है। इस प्रकार करने पर उत्पन्न हुई महा राशि को श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने असंख्यात के दो माने हैं । इस दो को इसी दो से वर्गित सम्बंगित करें तो असंख्यात की वर्गित सम्बंगित रात्रि ४ हुईं। यह असंख्यात की प्रथम बार वर्गित सम्बर्गित राशि हुई। असंख्यान ३४ इस चार को इसी चार से चार बार गुणा करने पर जो महा राशि उत्पन्न हो वह असंख्यात की दुबारा वर्गित सम्बंधित राशि असंख्यात ४ असंख्यात ४५ प्रसंख्यात ४४ असंख्यात ४x = संख्या २५६ होता है। इसी प्रसंख्यान महा राशि को इस महा राशि से इतनी ही वार वर्गिन सम्बर्गित करने पर असंख्यात की तीन वार वर्गित सम्वर्गित राशि असंख्यात २५६ स्थानांक उत्पन्न होती है।
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली
इसी प्रकार चार बार असंख्यात सम्बर्गित, इत्यादि नौ बार वर्गित सम्वगित कर लेने पर जो महाराशि होती है वह उत्कृष्ट असंख्यातानन्व है । धीर इसके बीच के सब मेद मध्यम असंख्यातानन्त होते हैं। इसी में एक धीर मिला देने पर अनन्तानन्त का प्रथम भेद हो जाता है अर्थात् श्रनन्तानन्त का एक होता है और इसमें इतना हो और मिला देवे तब अनन्तानन्त का दो हो जाता है। इस दो को इसी दो से वर्गित सम्बंगित करने पर अनन्तानन्त का ४ आता है जोकि अनन्तानन्त का एक बार वर्गित सम्वर्गित राशि होती है । अब इसको भी पूर्वोक्तरीत्य नुसार के पश्चात् नौ बार वर्गित सम्दगित करने से जो महाराशि होती है वह उत्कृष्टानन्तानन्त होता है । यह अनन्तानन्त परिभाषा तो गणना को अपेक्षा से बताई गई है इससे भी अपरिमित अनन्तानन्त ओर हैं जिन के नाम एकानन्त, विस्तारानन्त, शाश्वतानन्त इत्यादि ग्यारह स्थानों तक चलता है। जोकि छद्मस्य के बुद्धि-गम्य न होकर केवलि गम्य है । यह गणित पद्धति विद्वानों के लिए श्रानन्द-दायक होनी चाहिए क्योंकि यह युक्तिसिद्ध है।
नवमांक में पहले अरहंत, दूसरे सिद्ध तीसरे प्राचार्य चोथे उपाध्याय, पांचवें में ।। १५६ ।।
पाप को दहन करने के लिए साबु समाधि में रत साधु छठा सच्चा धर्म, सातवां परिशुद्ध परमागम, आठवीं जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति । १५६
नौवां गोपुर द्वार, शिखर, मानस्तंभ इत्यादि से सुशोभित जिन मन्दिर है, आगम परिभाषा में ऊपर कहे हुए नौ को नव पद कहते हैं ।। १६० ॥
इस नत्र पद का पहला मूल स्वरूप श्रद्वैत दूसरा है त है इन दोनों से समान रूप से मोक्ष पद प्राप्त करने की जो प्रबल इच्छा रखते हैं । उनको एक हो समान द्रव्य और भाव मुक्ति के लाभ दोनों को ।।१६१।।
अनेकांत का मूल स्वरूप नय मार्ग मिलता है । प्राप्त करेंगे तो चौदहवें गुरणस्थान की प्राप्ति
जब मिलता है तब हम लोग इसी तरह जंनत्व को हो सकती है ।। १६२ ||
तब उसमें मन वचन काय योग की निवृत्ति होती है । उसो समय विश्व के अग्रभाग पर यह आत्मा जाकर स्थित रहता है ।।१६३ ।। १६४ ।।
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सिरि भूचालय
सवार्य सिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली उसो सिद्ध अवस्था प्राप्त किये हुए स्थान को मोक्ष या बैकुण्ठ कहते हैं 1१६५९ उसको चतुर्थ पुरुषार्थ हस्तगत हो जाता है ।।१७।। यह श्री वीर वाणी विद्या है ।१६६॥
बह नवमांक सिद्धि किस प्रकार होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है इसी विद्या के सिद्धि के लिए हम अनादि काल से इच्छा करते । कि-रम भवलय ग्रन्थ में दव्य प्रसा
कि-इस भवलय ग्रन्थ में द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोग द्वारान्तर्गत जो करण सूत्र थे ॥१६७।।
है उसका पुनः पुनः अभ्यास करके उपस्थित कर लेने से नवमांक की सिद्धि हो केवली समुद्घात के अन्तर्गत लोक-पूरण समुद्रात में भगवान के प्रात्म!
जाती है । और वह पुरुष विश्व भर में होने वाली मातसौ पठारह भाषामों प्रदेश सर्वलोक को व्याप्त करते हैं उससमय केवलो का प्रात्मा समस्त जीव का एक साथ जाना हो जाता है। तया तीन सौ पर मतान्तरों का भी रावि के पात्म प्रदेश में भी स्थित होने के कारण उस प्रदेश को सत्यलोक ऐसे ।
जानकार बन जाता है ।।१७६॥ कहते हैं ॥१६॥
इस संसार में यह जीव अनादि काल से अशुद्ध अवस्था को अपनाये उस केवली भगवान के परिशुद्ध पात्म-प्रदेश हमारे प्रात्म-प्रदेश में सम्मिलित होने के बाद समस्त जीव लोक और भव्य जीव लोक इन दोनों।
हुए है, अतः तीन काल में एक रूप से बहने वाले अपने सहज भाव को न
पहिचान कर भयभीत हो रहा है । इसलिए दोनों लोकों में सुख देने वाली लोक को शुद्धि होती है ॥१६॥
अविनश्वर सर्वार्थ सिद्धि सम्पदा को प्राप्त करा देने वाले परिशुद्ध स्वभाव उन भगवान के विराट रूप का अन्तिम समय जन्म और मरण
को प्राप्त नहीं किया है। इस भूवलय के द्वारा नवमांक-सिद्ध प्राप्त हो को नाश करने वाला है ॥१७०॥
जाता है ॥१७॥ और वही समस्त भाव और प्रभाव रहित है ।।१७१॥
विवेचन-परमारण से लेकर तोनों वातवलय तक रहने वाले छः द्रव्यों इसलिए हे भव्य मानव प्राणियो ! तुम लोग इसी स्थान को हमेशा माशा
से परिपूर्ण भरा हुया क्षेत्र का नाम ही पृथ्वी है । एक परमाणु को जानने के करते रहो ॥१७२।। इस प्रकार प्राशा को रखते हुए श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस विश्वरूप ।
लिए अनायनन्त काल का परिचय कर लेने की भी जरूरत है। एक परमाणु के
परिचय कर लेने में अनाद्यनन्त काल बीत जाता है तो असंख्यात अथवा भूवलय काव्य का महत्व बताया है ।।१७३॥
अनन्तानन्त परमाणु के परिचय कर लेने में कितना समय लगेगा ? इस प्रश्न श्री विष्णु का कहा हुमा दत धर्म, ईश्वर का कहा हा अदत धर्म ।
{ के बारे में श्री कुमुदेन्दु याचार्य से असंख्याता संख्यात उत्सपिरणी और अवसर्पिणी तथा जिनेन्द्र भगवान का कहा हुआ अनेकांत इन तीनों धर्मोंका ज्ञान हो जाय तो।
काल के अर्द्धच्छेद शलाका से भी इस परमाए के कथन को घटा नहीं सकते ऐसा ३६३ अनादि काल के धर्म का ज्ञान होता है। उन धर्मों के समस्त मर्म के शानी ।
कहा है। इस प्रकार का महान जान इस भवलय में भरा हुआ है। उस सभी लोग अपने हृदय कमल की पाखंडियों में लिखे हुए अक्षरों में प्रों अंक को गुणा ।
ज्ञान को एक क्षण में कह देने वाला केवल ज्ञान कितना बड़ा होगा? इस कार रूप से गुणनकर के पाये हुए अंक में अनाद्यनंत काल के समयों को।
विचार को आप लोग ही करें। शलाका खंड के साथ मिला देने से आया हुआ जो काव्य सिद्ध है वही भूवलय , है ॥१७॥
एक व्यापारी थोड़ा सा रुपया खर्च करके बहुत सा लाभ प्राप्त करलेता है भूवलय के नौ अंकों के रहस्य को जो कोई भी मनुष्य जान लेता है, उसके समान तीन काल और तीन लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेने के लिए जा इन को वश में कर लेता है उसके निद्रा भूख प्यास इत्यादि अठारह दोष जोकि । थोड़ी सी तपस्या की जाती है उससे महान लाभ होता है, रंचमात्र भी नुकसान संसार के मूल हैं, सभी नष्ट हो जाते हैं इनका नाम-निशान भी नहीं रहता है। नहीं है ॥१७॥
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सिार भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली इन सब में जो सच्चा लाभ है वह एक प्ररहंत भगवान को हो प्राप्त प्राप्त कर लिया। यहो परजीव पर दया करने का फल है। हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। अर्थात् वही सच्चा लाभ है ॥१६॥
यह ऊपर लिखे अनुसार गुरु हंसनाथ का सन्मार्ग है ।१८१॥ दया धर्म को बेचकर उसके द्वारा प्राया हुआ जो लाभ है वही यथार्थ
सभी तीर्थंकर परम देवों ने इसी मार्ग को अपनाया है ।१२। लाभ है ॥१८०॥
यह सदाकाल रहने वाला मात्मा का सौभाग्य रूप है ।१८३॥ दया धर्म का महत्व
यही धर्म विश्वकल्याणकारी होने से प्राणी मात्र के द्वारा प्राराधना एक दयालु धर्मात्मा श्रावक अपने काम के लिए परदेश जा रहा था।
। करने के योग्य है। १८४१ बीच में भयानक जंगल पड़ा गर्मी के दिन थे और उस जंगल की
यह अविच्छिन्न गुरु परम्परा से प्राप्त हुना प्रादि लाभ है ।१८५॥ जितनी घास थी वह सभी मुग्न गई थी। भयानक जंगल होने से उस।
यही घरसेन गुरु का अंग है। अर्थात् काल दोष से जब अंग ज्ञान में बहुत भाद और भाड़ियां उपजी हुई थीं। इसलिए उस जंगल में बहुत।
हिमा होने लगा तब श्रत की रक्षार्थ अपने अन्तिम समय में बुद्धि विचक्षण बड़े-बड़े हाथी और अन्य अनेक जानवर इत्यादि रहते थे। एक श्री भूतवलि और पुष्प दन्त नामक महषियों की साक्षी देकर बत देवता की जंगल में चारों ओर भाग लग गई, प्राग लगते ही उस जंगल में रहने वाले प्रतिष्ठापना जन्हाने की थी उन्हीं गुरु देव का अनुयायी यह भूवलय है ।१८६। जीब अग्नि के भय से भयभीत होकर चिल्लाने लगे । उस चिल्लाने की आवाज । जिन लोगों ने अपने जन्म में सत्य अत का अध्ययन करके प्रसन्नता उस दयालु धावक ने सुनवार देखा तो चारों और प्राग लगो हुई थी। और सभी पूर्वक जन्म बिताया उन महापुरुषों कामूल भूत गणित भंग यह भूवलय प्राणी भयभीत होकर चिल्ला रहे हैं। तुरन्न ही वह दयाल धाबक पहुंचकर है।१८७) उन सभी प्राणियों को बचाने का उपाय सोचने लगा। अर्थात् अग्नि को युद्धार्थी शूरवीर को जिस प्रकार कवच सहायक होता है उसी प्रकार बुझाने की युक्ति मोचने लगा परन्तु गर्मी के दिन होने के कारण वह अग्नि । परलोक गमन करनेवाले महाशय के लिए परम सहायक सिद्ध कवच बढ़ती जाती थी बुझने की कोई उम्मेद नहीं थी। वह विचारता है कि अगर है।१८। इस समय पानी बरस जाय तो अग्नि ठण्डी हो जायगो अन्यथा नहीं परन्तु हरि अर्थान् सबको प्रसन्न करने वाला और हर अर्थात् दुष्कर्मों का नाश आकाश साफ अर्थात् एकदम निर्मन दीख रहा है, पानी बरसने की कोई उम्मीद करनेवाला इनके द्वारा सिद्ध किया हुमा सिद्धान्त ग्रन्थ भी यही भूवलय नहीं है। अब क्या उपाय करना चाहिए ऐमा मनमें मोचते हुए उमने विचार किया । है|१८६४ कि इस अग्नि को शान्त करने के लिए एकान में बैठकर प्रज्ञप्ति मंत्र का जाप । अरहन्त पदों की पाशा को पूर्ण करने वाला यह भूवलय प्रन्थ है ।१६०। जपना चाहिए ऐसा मन में निश्चय करके एक झाड़ के नीचे बैठकर एकाग्रता से रत्नत्रय के प्रकाश को बढ़ाने वाला तथा सत्यार्थ का अनुभव करा देने मन्त्र का जाप करने लगा। एसे जाप करते-करते बहुत से जाप किये तब वाला एवं सात नत्वों का समन्वय करने वाला तत्वार्थ सूप ग्रन्थ है । उस तत्वार्थ तुरंत ही बादल होकर सब पानी वरमा जिमसे अग्नि ठएडी हो गयी और सभी सूत्र अन्ध को इतर अनेक विषयों के साथ में संगठित करते हए इस मवलय जीव अपनी २ जान बचाकर शांत चित्त में विचरने लगे। परन्तु दयालु प्रावक ग्रन्थ में भगवान के मुख तथा सर्वाङ्ग से निकली हुई वाणी का सम्पूर्ण सार अभी तक जाप में ही था जाप करते-करते उसी जाप में निमग्न होकर अपने । भर दिया गया है । इसलिए यह ग्रन्थ दिव्य-ध्वनि स्वरूप है ।१९१-१९२॥ शरीर को मूल गया । उसे तुरन्त मच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने । यह छठवां ई ई नामक अध्याय है। इस अध्याय में सम्पूर्ण सिद्धान्त दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करली। तत्काल कठिन तप के द्वारा उसने केवल ज्ञान को भरा हुआ है । इसलिए इसमें जो पद का अक्षर, अक्षर का अङ्ग, अङ्ग को
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सिरि भूवलय
सकर्ष सिदि संघ बेंगलोर-दिल्ली
रेखा, रेखा का क्षेत्र क्षेत्र का सर्शन, स्पर्शन का काल, काल का अन्तर, अन्तर हो जाता है ।२०४। का भाव और अन्तिम में अल्प बहुत्व इन अनुयोग द्वारों से उस महार्य को मैंने प्रकाशमान हुअा द्वंत, अद्वेत और अनेकान्त इन तीनों का सूत्र प्रन्थ बन्धन बद्ध किया है अत: जैन धर्म का समस्तार्थ इसमें है, जोकि मानव मात्र । इस अध्याय में अङ्किन है। इस अध्याय में आठ हजार सात सौ अड़तालोस का धर्म है ।१६३-१६४॥
इथेणी में ब्राह्मी देवी का प्रदार और सुन्दरो देवा के इतने ही अंक हैं ।२०५॥ इस राज्य का अध्ययन करने में सम्पूर्ण मानवों में परस्पर एकता
पाराम के जानकार लोग सई अध्याय में मे रागवटक और वैराग्य स्थापित होती है ।१६५॥
वक दोनों ही प्रकार का मतलब ले सकते हैं। इसी मध्याय के अन्तर में जिस एकता से उत्तरोनर प्रेम बढ़ता जाता है।१६६।
। ग्यारह हजार नौसी प्रवासी अंकाक्षर रखनेवाला यह भूवलय ग्रन्थ है।२०६॥ एकता और प्रेम के बढ़ने से सभी के दुष्कर्मों का नाश हो जाता
ई इ-८७४८+अन्तर ११९८८-२०७३६ है ।१६७
अथवा प्रा-ई इ तक ८४८५२+२०७३६ - १०५५८८ जैन शास्त्र किसी एक सम्प्रदाय विशेष के ही लिए नहीं किन्तु भबके
ऊपर से नीचे तक प्रथमाक्षर जो प्राकृत गाथा है उस गाथा का अर्थ लिये, है ऐसा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं । १६८।
। यहां दिया जाता हैजैन धर्म में विशेषतः विनय धर्म प्रधान है जोकि सबके प्रति ।
भगवान के मुखारविन्द से निकले हए वचनात्मक यह भवलय अन्य समानता का पाठ सिखलाता है । १६६।
| होने से बिलकुल निर्दोष है और शुद्ध है। इसलिए इसका दूसरा नाम महर्षियों सब देशों में रहने वाले तथा किसी भी प्रकार की भाषा के बोलने वाले ने पागम ऐसा बतलाया है। यह भवलय अन्य समस्त तत्थार्थों का प्रतिपादन सभी मनुष्यों के साथ में यह सम्बन्ध रखता है ।२००।
करने वाला है ।२०६॥ यह धर्म पंचभ काल के अन्त तक रहेगा ।२०१॥
इसो के बीच में से जो संस्कृत भाषा निकलती है उसका अर्थ लिखा छठे काल में धर्म नहीं रहेगा।२०६१
जा रहा हैऐसा कहनेवाले अङ्ग धरों का ज्ञान ही यह भूवलय ग्रन्थ है ।२०३।। (भव्य जीव मनः प्रतिवोधः) कारक होता है, पुण्य का प्रकाशक होता
दूसरे इ अध्याय में प्रतिपादन किये हुए धर्म का पाराधन यदि है, पाप का नष्ट करने वाला है ऐसा यह ग्रन्थ है जिसका नाम भवलय है सुगम नहीं है तो दुर्गम भी नहीं है किन्तु कुछ थाहा प्रयास करने पर प्राप्त । इसका मूल ग्रन्थ -
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सातवां अध्याय
उपपाद शाय्येय मारणान्तिकवाद सफलद को क वरद समुद्घातदो लोकपूररण । सरिदोरि बरलात्म रूप। दो * वाद वयखरियो साधिसिदात्मन । साधनेयडगिदयोग ।। मोदव ता * रुशनशक्ति ज्ञानद शक्ति चारित्र | बेरसिद रत्नत्य परिशुद्धरात्म भूवलय ( निर्मलद ) ॥५॥ हरि विरचिगळ सद्बलय ॥ ८ ॥ अरहंत राशा भूवलय
र
॥११॥
।।१४।।
हर सिव मंगल वलय परिपूर्ण सुखदावि वलय
112911
॥२०॥
॥२३॥
परमात्म रूपिन निलय मरणवागद जीव वरद मा* न माय लोभ क्रोध कषायगळ् । तानव्श्र र* न मूरर रूप घरिसिद श्रा शुद्ध । नृनान्तरगद वर रंग बदंक परिपूर्ण वागिसिरहन्त । अवनिगे सिद्धत्व
11 201
दुपरिम लोक पूरणदळतेयोळिह । उपमेय त्रस नालियन्क एताग अ इ उ ऋ ए ऐ श्री श्री सर्व बरेयलागद 'उ' भूवलय 11.२॥ आदिगनादिय घोष व स्याद्वाद सिद्धिय । ॥३॥ बरेदरु श्रोदबारद । सिरिय सिद्धत्व भूवलय २०४५ गुरु सद्गुरुवाब नियम ॥७॥ सिरि सिद्धरूपिन परम ॥ १०॥ पुरुदेवनोदिशू रोनिलय ॥ १३ ॥ करुय फलसिद्धि निलय ॥१६॥ धरसेन गुरुविन निलय ॥ १६ ॥ रुव वस्तुनो युद्ध ॥२२॥
व ॥ बरयबारद ॥६॥
॥६॥
अरहन्त रूपळिदिरुव निरुपमवाfह उपमा परमाम्र तसिद्धनिलय ॥१२॥ बरेयलागद चित्र सरल ॥ १५॥ गुरुपरम् परेयाशा वलय ।। १८ ।। aranteeशान्ति निलय ||२१|| परमात्म सिद्ध भूवलय ||२४|| हदिनारु भन्य ह तामत्ति बिट्टोडे निजरूपदोळात्म | आनन्द रूपनागुदम् ॥२५॥ श* री ॥ यत्नदिम् बन्द सद्धर्म साम्राज्य । नित्यात्म रूपवी लोक ॥२६॥ ति। श्रवतारवादिये लोकाग्र मुकतिय । नवमानक प्राप्तिय लोक ॥। २७ ॥ हरि हर जिनरेव सर तिरेयगुर लोकाग्र मुक्तिय साम्राज्य । हरुषव लोकपूरावु ॥२८॥ विरुवाग हर्दिनात्कु स र्व । वर साधु पाठक प्राचार्य ई मूह । गुरुगलंकवु नवपद ॥२६॥ दिशेयग्र वेनिसिद सर व यशवेल्ल श्रीमदाद मूर्तिये जिन विम्ब । हसनाद बिम्बदालभ्यु ॥३०॥ यशद दिव्यध्वनि शास्त्र ॥३२॥ रससिद्धि नवकारर्थ ||३३|| विषहर सौख्यांक नवम ॥ ३४ ॥ यसश्वतिदेविय पतिय ॥ ३७॥ यशद सुनन्देय पत्रिय ||३८|| कुसुमानुघन गेल्दम्क ॥ ३६॥ वशवादमरुत निभानुक ॥४०॥ असदृशअजित नायक ॥। ४१॥ वशदशम्भवर दिव्यांक ||४२ || वशद पद्मप्रभ विमल ॥ ४४ ॥ स सुपार्श्व चन्द्रप्रभांक ||४५ || वश पुष्पदन्त शीतलर ॥४६॥ ऋषि विमलानन्त धर्म ॥४८॥ व शान्ति कुन्यु श्री अरह ॥४६॥ यशमल्लि मुनिसुव्रतां ॥ ५०॥ रस ऋषि वर्धमानान् ॥ ५२ ॥ यशविन्तु वर्तमानांक ॥५३॥ यशदिप्पत्नात्कु मत्पुनह ॥५४॥
री
स
* रतु लोकद रूपपर्याय होन्दतु । ति रेय रूपनु हो न्दिदात्मत पर्याय । य* शदर सर्वस्ववा ससुद्घात । वशवाद सद्धर्म लोक ॥३१॥ असमान सिद्ध सिद्धान्क ||३५|| रसऋषि वृषभनाथांक ॥ ३६ ॥ रस अभिनन्दन सुमित ॥ ४३ ॥ सश्रेयास वासुपूज्यांक ||४७ | यश नमि नेमि सुपार्श्व ॥५१॥ विषहर काव्यदोळ बहुदु ॥ ५५ ॥
|
पद भूतकाल इप्पत्नात्वरक पद शूरौ शान्ति सर्व जन ॥ मुद इप्पत्सूरु प्रतिक्रान्त श्री भद्र । विदरंक येप्पएर ॥५६॥
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लिन उद्धररु एन्टक
जिन विमल मोम्टन्क ।
सिरि भूवलय
राथि सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली रिश षि इप्पत् प्रोम्दु श्री शुद्धमति देव । रस ज्ञानमति सुज ञ देव।। वशदइप्पत् अन्ककष्णहत् प्रोम्बतम् । यशोधर हदिनेन्टरंक ॥७॥ रण* वपद्म विमलांक हदिवए परमेश । अब हविनार् एम्ब दे वा ॥ नवमत्तु प्रारम्क जिनह ज्ञानेश्वर । नव ऐड उत्साहरंक ॥१८॥ ब* नवर वन्दित शिवगण हदिम्ऊरु । घन कुसुमान्जलि दे बा* जिनरु हनएरडंक सिन्धत्रु होमदु । जिनरु सन्मतियु हत्पन्क ॥५६॥
जिनरु अनगोर अोमबत्तु ॥६॥ जितरु उद्धररु एन्टक ॥६१॥ जिन अमलप्रभरेळु ॥६॥ घन सुरत्त् प्रान्कवु पार ॥६३॥ जिन श्री धरान्कवु ऐदु ॥६४॥ जिन विमल प्रभ नाल्कु ॥६५।। जिन देव साधु मूरक ॥६६॥ धन सागर एरडाक ॥६७॥ जिना निर्धारण प्रोमदनक ॥६॥
अनुगाल विनिताद अंक ॥६६॥ जिन भूत वर्तमानांक ॥७॥ एनुबाग बन्द भूबलय ॥७॥ त* नुवळिदतनुव गेलदक विन्तागे । ततुलिबवरकम् स* व नव।। एनुविप्णत्नाल्वरनागत तोर्थका जिन सिद्धनाम स्वरवप ॥७२॥ स वरण महापद्म मोदलागे सुरदेव । जिन एरडे सुसुपारी ॥ त* नि मूरु स्वयंप्रभ नाल्कु सर्वांत्म भू । तनुजिन ऐबबरन्क ॥७॥ लो* कयकर् देवपुत्राख्य आरन्कबु । आ कुल पुतर सेरुयु दु* ॥श्री कर एळु महोदक एन्टागे । श्री कर नवम प्रोष्ठिलर ॥४॥ य* श जयकीति हत्ता मुनि सुबत ॥ ऋषिहत् प्रोमदु एन्दुक त* अ। यश अरद्वादश पुष्पदन्तेशरु । वशवागे हदिमूररक ॥१५॥
रस चतुर्दश विष्कषाय ॥७६॥ यश हदिनयदु श्री विपुल ॥७७॥ वश हादनाहरु निर्मला ॥७॥ रिषि चित्रगुप्त सप्तदश ॥७॥ यशहदिनेन्दु समाधि ॥०॥ वश गुप्त श्री जिनरन्क ॥१॥ रस्वयम्भू हतप्रोम्बग्रंक।।२।। यश अनिवत्त इप्पत्तु ॥५३॥ रस विजयरु इप्पत ओम्दु ॥१४॥ यशद विमल इप्पत् एरडु॥८॥ इप्पत्मरु देवपाल ॥६॥ असमान महानन्त वीर्य ॥७॥ रस अनागतइप्पत् नाल्कु ॥८॥ कुसुम कोदन्डदल्लगर ॥६॥ रसदेप्पत् एरडन्क नेवम् IIEl दिशेयन्क पोमबत्तु काध्य ॥११॥ रस काल तीर्थकरन्क ॥२॥ यशदन्क काव्य भूवलय ॥३॥
वशमूरु मूरळोमबत्तम् ॥६४॥ बेसदन्क काव्य भूवलय ॥६५॥ पू# वोपाराजित कर्मद केडिसिद । पूर्वदिप्पत्ताला इनि तो । निर्मलदोगरण इप्नाल्क्मन्कद। धर्म मुन्दरण इप्पत्नाल्कु ॥६६॥ र सद ई कालद श्रीतोयनाथर । रस कूटदलि एरडेछ।। बेस र वनत्रय मूरु सूरल प्रोमबत्तु । शवदे मूह कालान्क ॥१७॥ २४४३=७२
* रदे ई मूरु गुणकारविम्बन्द । हारमरिणयनगवद ॥ सार ग* रन्थद हदिनाल्कु गुणस्थान । दारदगुणकारबिन्द ॥६॥ ३४३ ए वपद प्राप्तिय गुणकार मग्गियिम् । सविहदिनाल्कन्क र सदिम् ॥ सबनिसेसाविरदेन्टुबलद पद्म । दवतारदक्षरदंक En:
[७३४१४=१००८.] ग मनिसि साविरदेन्दु दलगळळळ । कमलपळ एर काल न रु ॥ कर्मपाच प्रोमदारिम् गुरिगसे सोन्नेयु श्रा, विमल सोन्ने एन्ट,
पारेरडेरड्ज ॥१००॥ [१००८४ २२५-२२६८०० दोष विनाशनवादप्रोमदेपाद । वाशक्तियतिशयपुष्य ॥ राशिय य* रतर गरिणतदोळात्मन । प्रा सिद्धरसव माडुवुदु ॥१०॥
श्राशेयनेल्ल कूडिपुबुम् ॥१०२॥ राशिकर्मव कळेपुवुद् ॥१०३।। श्रीशन माडुत बहुदु ॥१०४॥ लेसतु साधिसलहृदु ॥१०॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ मंगलौर-दिल्ली राशि ज्ञानव होरडिपुदु ॥१०६॥ श्री सिद्ध पदवसाधियुद्ध ॥१०॥ राशियनोमदुगुडिपुदु ॥१०॥ ईशत्यवदनु साधिपु० ॥१०॥", ईषत्प्राग भारकेयदिपुदु ॥११०॥ राशि सूक्ष्मत्व साधिपुदु।।१११॥ प्राशेयव्याबाधवहुदु ॥११२॥ नाशत्वेल्लगेल्युदु ॥११३॥ प्रोषध रूप वागिपुबु ॥११४॥ प्रोषधवम्त बागिपुदु ॥११५॥ राशिय वगाहवागिपुदु ॥११६॥ लेसिनगुरु लघुवहुन् ॥११७॥
लेसनेल्लरिगे तोवुदु ॥११८॥ प्रा शक्तियनुभव काव्य ॥११॥ श्रीशक्तियादयन्कवलय ॥१२०॥ भूषणवाक्य भूबलय ॥१२शा के* ळुव भव्यर नालगेयप्रद । सालिनिम् परितन्दुदनु ।। काल क* लापद अरवत्तु साविर । लीलेयान्के गुत्तरवम् ॥१२॥ व रदवागिसि प्रतिसरलवनागिसि। गुरु गौतमरिन्द हरिसि।। स * वान्कद् अरवत्ताल्क अक्षरदिन्द । सरिश्लोक पार लक्षगळोळ् ॥१२॥ लि* पियु कर्माटक वागलेबकेम्ब । सुपवित्र दारिय तोरि ।। मप ता* ळलयगडिद् प्रारुसाविर सूत्र । दुपसम्हार सुत्रदल ॥१२४॥ गो* प्रागमद्रव्य शास्त्र वागिसिदन्क । ई आगम द्रव्य व र* द॥ ऊ प्रागमद दिध्याक्षर स्वरदोळु श्री प्रागमद भूवलय ॥१२॥ ता प्रागतद सिद्धान्त ॥१२६॥ को आगमनलेके ।।१२७॥ णो आगम भाव काल ॥१२८॥ सो अागमद (अनन्त) अन्तरवु ॥१२॥ पो आगमतव्यतिरिक्त ॥१३०॥ श्री प्रागमक्षेत्र स्पर्श ॥१३॥ गोमागमाल्प बहुत्व ॥१३२॥ श्रीग्रागतद सिद्धांत ॥१३३।। गो पागम बंध द्रव्य ॥१३४॥ आ आगमद अबंध ॥१३५॥ श्री प्रागम सम्ख्यदक ॥१३६॥ श्री प्रागतदि बन्दिरुय ॥१३७॥
ई प्रागमद भूवलय ॥१३॥ अष्टमहाप्रातिहार्य वय्भववे। अष्टमहा पाडिहेरा ॥ उस ह* जिनेन्द्रादिगळिगे केवलज्ञान । बेसेद अशोककक्षगळ ॥१३॥ ब* रद नामगळोळु न्यग्रोधयु प्रोम्दु । वर सप्तपरान्क ग* ॥ एरडागेशालसरलप्रियन्यु प्रियन्गुम । बरलु मूर्नाळकल्दारु ॥१४०।। ल* क्षरणवा शिरीषतु एळु श्रीनाग। वक्ष अक्षवु धूलियव एक ॥ वृक्ष पलाश एन्टोम्बत्तु हतग्रंक । लक्षिसे हन्नोम्दरम्क ॥१४॥ म रळि पाटलवु नेरिल दधिपर्णबु । वर नन्दिहन्एरड्य ध र ॥ सररिण हदिमूर्हदिनाल्कूहदिनय्दु । बरलु तिलक हदिनार ॥१४२॥ बिळिमानु कनकेलि सम्पगे बकुल । बळिहन्एल्हदिनेन्दु ।। सळ र स विहत्तोम्बत्इप्पत्तु मेषवरना । प्राळिमलेयोळग इप्पत्योम्दु ॥१४३॥ यश धूलियुधव शालविन्तियुगळ । वशइप्पत् एरडदु वर दे* रसद् इप्परमूरिप्पलाल्कू एनुवन्क । रस सिद्धिगादि अशोक ॥१४४।।
यशद मालेगळ तोररादि ॥१४॥ असमान घंटेय सरदिम् ॥१४६॥ यश मन मोहक वेनिप ॥१४७॥ असमान रमणीयवेनिसि ॥१४॥ यशदना राग पल्लवदि ।।१४६॥ यशवे पुष्प सम्कुलदि ॥१५०॥ वशवप्प रससिद्ध हूवु ॥१५१॥ रसमरिण गादिय हुषु ॥१५२॥ यशस्थति देविय मुडिपु ॥१५३॥ कुसुम कोदन्डनम्बच्चु ॥१५४॥ असदृश कामित फलद ॥१५॥ यशद् बळिगळ हुटंग ।।१५६।। विषहरवाद अमरुतयु ॥१५७11 कुसुमाजि मुडिदलन्कार॥१५॥ रस घट्टिगादिय भन्ग ॥१५॥
यशद कोम्बेगळ भूवलय ॥१६॥ स्थ वणत्यसिद्धिय शोकवादिय दिव्य । नववक्ष जातीय वा* ॥ अवगळु तमगिन्त हनएरडष्टुह । नव रस्त वर्षशोभेगळ् ॥१६॥ व* रनवेके देवेन्दरतुदद्यानदि । निर्वाहवागन् अगिढ़दे ॥ ह* पवनीवुदेवदेनलेके साकद । निर्मल तीर्थमन्गलव ॥१२॥ व रद हस्तद तेरनाद छत्र त्रय । परहंत शिरवलिर् प* प्राग। हरषदचन्द्रमण्डल मुक्ताफलज्योति। वेरसि निदिहुद शोभेयलि।१६३
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सार भूषलय
साथ सिदि सब जगनारपती ज* यद सिम्हासन नालमोदिदिह । नयव निर्मलमार्गदि र विम्। जयरत्न स्फटिकगळ् केत्तिरुवंकवे। नयप्रमारणगळु मोम्द प्रागे।१६४ गोड पुरदा हिन्दे इरुष सिम्हासन । रूपाळदिह ई गणित ॥ श्रीप ति* यडियु सोक्किद दिव्य मंगल । श्री पाहुडद शोभेयति ॥१६॥
कोपळिद सिम्ह मुखगळ् ॥१६६॥ तापप्रतापद् अहिम्से ॥१६७॥ रूपदोळ शौर्य प्रसिद्धि ॥१६॥ ध्यापित भय्याम्जहरुदय ॥१६६॥ अपरनेरपि शक्ति
पी पद्धतिय पाहुनु ॥१७॥ या पाहुडवे प्रारुतबु ॥१७२॥ रूपस्थ वीररासनवु ॥१७३॥ दीपद ज्योतियादि भंग ॥१७४॥ रूपनेल्लरिगे तोरुखुदु ॥१७५॥ झरी पददंग तोरुवुद ॥१७६॥ श्री पद्धतियायंक ॥१७७॥ याफ्नीयर दिव्य योग ॥१७॥ कापाडयदु शान्तियनु ॥१७॥ रूपागिबहुदु भारतिमे ॥१०॥
श्री पदवलय भवलय ॥१८॥ सप्य के बहुदु भारतदि ॥१२॥ ह.* रुषद स्फटिक सिम्हासन प्रतिहार्य । सरि मुन्के देवर ग* ए॥ निरुततु कयमुगिदिहज़पुल्लितमुख । सरसिजद्विन्द सुचिहरु ॥१५३॥ प्रोत बन्निारि दर्शनक एग्नुवन । हाडो इदेम्ब दुन्दुभि रण* ॥ पाडिन गम्भीर नादयिहुदु मुन्दे । नाडिन हूगळ मळेषु ॥१४॥ दिक यदिन्द बीवुदु वर सूर्य शोभेय । सबिय भामण्डल बन् ध% नव पूर्णचन्दर अथवा शन्खदन्तिह । सविय् अरबलाल चामर॥१५
नवस्वर हस्व दीर्घ प्लुत ॥१८६॥ अवर वर्णगळ् इप्पत् ऐदु ॥१८७॥ सवियह वेन्टु व्यन्जन ॥१८॥ सन्नम् प्रहकह यह योगवाह ॥१८६॥ विवरक्वेन्तेम्ब शन्के ॥१६०॥ अवतार दुत्तर विन्तु ॥११॥ नव स्वरवर्णय्यन्जनब ॥१२॥ वियरद् योगवाहाळम् ॥१६३॥ सविय्प्रोमद अक्षचामरतुम् ॥१६॥ अबुगळु अरवत्त नाल्कु ॥१९५॥ अवनेल्ल कूडलु प्रोम्दु ॥१९६॥ इवु अष्ट महाप्रातिहार्य ।।१९७॥ नवम अन्धद मंगलद ॥१९८॥ विवर मंगलद प्राभूत ॥१६६॥ कविगे मंगलद् आदि वस्सु ॥२०॥ शिव चन्द्रप्रभ जिनरस्क ॥२०१॥ नवमांक सिद्ध सिद्धांक 1॥२०२॥ अवतार कामद बहु ॥२०॥ शिव सवख्य रससिद्ध काव्या।२०४॥ सवार्गे अरबत्तनाल्कु ॥२०॥ नवकार मंगल ग्रन्थ ॥२०॥
भवहर सिद्ध भूवलय ॥२०७॥ नव मन्मथरादियन्क ॥२०।। नवद्राम्हिलिपिय भूवलय ॥२०॥ त* स लोकनालियोळडगिह भव्यर। पशगोन्ड सम्यक्तवद र स ॥ यशकाय कल्पद रससिद्धि हूगळो । कुसुम मंगलद पर्याय ॥२१॥ सरे मतेयोळक्षरदंकब तोरव । गमकद शुभ भद्रअ वर दे क्रमन सक्रमगेरद चन्द्रप्रभ जिन । नमिसुध भक्तर पोरेको ।।२११॥ पास शवागदलिह अक्षरांक बनित्त । प्रा सिद्ध पदविगेरिसु बार ॥ राशियन्कवदनु भाषाम्बत्तरोळ् कट्टि । दाशेय पाहुए अन्य ॥२१॥ ली लांक प्रोम्बउ प्रोमटु सोन्ने एन्टागे। मालेयल अन्तर ह* रुषा। दोलेयोमोमधुमूरोम्दुमूरोम्दुम्। बाउ'काव्य भूमिरप)वलय२१३ उ ८०१९+अन्तर १३१३१=२११६० =६,
अथवा अ-उ १०,५५,८८+२११५० =१,२६,७३८ । पहले श्लोक की श्रेणी से नीचे तक पढ़ते जाय तो प्राकृत निकलती है। * बोच में से पढ़ने से संस्कृत भाषा निकलती है* उबवाद मारणंतिय परिणदथसलोय पूरणोणगदो।
कर्तारह श्री सर्वज्ञदेव स्तदुत्तर ग्रन्थकारह, गावर देवहः । केवलियो प्रबलंबिय सव्वजगो होदित्तसरणाली॥
प्रति गरगधर देवाह..............
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सातवा अध्याय
सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद जोव स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेने सबसे पहले आदिनाथ भगवान ने इस निलय को अपनाया था ॥१३॥ से पहले मारणांतिक रूप में अस नाली में नमन करते हैं। केवली भगवान के यह हर तथा शिव का भी मङ्गल वलय है ॥१४|| लोकपूरण समुद्घात का अवलम्दन पास इस समाली को ना सकते है ।।१॥ यह चित्र लिखने में नहीं आ सकता फिर भी सरल है ॥१॥
जिस समय के बली भगबान समुद्घात में स्थित होते हैं तब एक जीव यह निलय दया धर्म का फल सिद्धि रूप है ॥१६॥ के परमोत्कृष्ट विस्तृत प्रदेशों में प्रात्मरूप दिखाई देता है । एक जीव को अपेक्षा परिपूर्ण सुख को देनेवाला यादि वलय है ।॥१७॥ इससे अधिक विस्तृत जीव प्रदेश नहीं होते इसी को विराट रूप पुकारते हैं।। गुरु परम्परा का प्राशा बलय है ॥१८॥ "प्रदउ ल ए ऐ मो औ" इस स्वरों के उच्चारण समय में सम्पूर्ण भूवलय। धरसेन गुरु का भी ज्ञान निलय है ॥१४॥ का ज्ञान हो जाता है । इस बात का "3" अध्याय में उल्लेख न पाने पर भी परमात्म स्वरूप का निलय है ।।२०।। यहां लिखा है ॥२॥
पानेवाले काल का शान्ति निलय है ॥२॥ अभी तक प्रात्मा सिद्ध करने के लिए वाक् चातुर्य का प्रयोग करना पड़ता। सम्पूर्ण वस्तुओं को देखने वाला होने से बुद्ध कहलाने योग्य है ।।२२।। . था, पर अब वह वाक चातुर्य बन्द हो गया है । अब स्यावाद सेयात्मा को सिद्ध । यह मररण को न प्राप्त होने वाला शुद्ध जीव है ।।२३।। किया जाता है । यह मारमा प्रादि भी है और अनादि भी है ।।३।।
इस परमात्मा से सिद्ध किया गया हुआ यह भूवलय है ॥२४॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों की सम्मिलित शक्ति को रत्नत्रय । विवेचन-लोक पूर्ण समुद्घात गत केवली भगवान के स्वरूप का वर्णन शक्ति या प्रात्म-पाक्ति कहते हैं। इन तीनों से उत्पन्न हए शब्द को लोकपुर्ण। यहां तक हुमा । अब आगे अरहन्त भगवान से लेकर सिद्ध भगवान तक का: समुद्घात के समय में नहीं लिखा जाता । कदाचित् लिखा भी जाय तो पढ़ वर्णन करेंगे ।।२४।। नहीं सकते। ऐसे सम्पत्ति शाली सिद्धस्य की प्रथम सिद्धि यह भवलय है ॥४॥
क्रोष मान माया और लोभ इस तरह चार कथायें अनन्तानुबन्धी ऐसे परिशुद्ध प्रात्मा के लिए यह भूवलय ग्रन्थ है ॥५॥
अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप में परिणत होती अब तक सिद्ध होने से पहले तीर्थकर अवस्था थी अब वह नष्ट हो। है अतः कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं । इन सबके नष्ट होजाने के बाद यह गई॥६॥
मात्मा अपने ग्राम स्वरूप में लीन होकर आनन्द मय बन जाता है ।।२।। परहन्त ये तब तक सबके गुरु ये अव सद्गुरु बन गये |॥७॥
वह मानन्द रत्नत्रय का सम्मिलित रूप है। जोकि सर्व पोष्ठ, नूतहरि और विरंचि शरीरवों के द्वारा भी पाराधना करने योग्य सद्वलय । नान्तरङ्ग श्री निलय प है। प्रात्मा अपने प्रयत्न पूर्वक सद्धर्म रूप साम्राज्य है।
का पाश्रय करते हुए इस रूप को प्राप्त कर पाता है। जब इस रूप को प्राप्त इस तरह से निरुपमहोकर भो उपमा के योग्य है क्योंकि यह त्रसना- कर लेता है और अपने प्रदेशों के प्रसारण की पराकाष्ठा को यह प्रात्मा प्राप्त ली के भीतर है और सिद्ध परमात्मा रूप होने वाला है ॥६-१०॥
होता है उसी प्राकार में नित्य रहनेवाला यह लोक भी है ।।२६ । प्रहन्त भगवान जिस अवस्था को प्राप्त करने के सम्मुख थे उस यह पराकाष्ठा को प्राप्त हुपा लोक का जो स्वरूप है वह अरहन्त अवस्था रूप यह भूवलय है।।११।।
वाणी से निकले हुए नवमांक के समान परिपूर्णतावाला है। अब परहन्स . परमामृत रूप सिद्ध भगवान का यह प्रादि स्थान है ।।१२।। ६ दशा में यह परिपूर्ण अवस्था प्राप्त हो जाती है उसके अनन्तर यह पारमा सिद्ध
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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली
बन जाती है ।अरहन्त अवस्था से जो सिद्ध दशा को प्राप्त होना है उसी का है। अर्थात् जिन विम्ब का दर्शन करने से सब तरह का सुख होता है ॥३४॥ नाम अवतार है। इस प्रकार से आत्मा जब सिद्धावस्था के अवतार को प्राप्त 1 उपर्युक्त सिद्धांक यानी सिद्ध दशा जो है वह अनुपम है इसकी बराबरी कर लेता है तो नवमांक के जो दो टुकड़े हैं वे स्वयं प्रापस में मिलकर शून्य करने वाली चोज दुनिया में कोई नहीं है ॥३॥ बन गये हों तादृश हो जाता है । जिम शून्य में सम्पुर्ण लोक समाविष्ट है ।२७४ काम देव को भी जिसने जीत लिया है ऐसा यह अङ्क है ॥३६॥
इस उपयुक्त दशा को प्राप्त हुआ आत्मा ही हरि, हर, जिन इत्यादि विवेचन-मब पागे जिस-जिस नाम पर जिन विम्ब होता है. उस सरस नामों से पुकारने योग्य बनता है क्योंकि इससे वह लोक के अग्रभाग में बात को बतलावेंगेमुक्ति साम्राज्य को प्राप्त कर लेता है ॥२८॥
यशस्वती देवो के पति और सुनन्दा देवी के पति श्री ऋषभदेव का जब जीव ने लोक पूरण समुद्घात किया था एवं लोक का मर्व स्वरूपबना । यश गाने बाला १ अङ्क है जो ऋषभदेव महर्षि हैं जिन्होंने सम्पूर्ण प्रजा को था तो तेरहवें गुण स्थान में मिथ्या स्थान में होनेवाला लब्ध्वपर्याप्त कर सजीवित रहने का उपाय बतलाया था श्री ऋषभनाथ के विम्ब दर्शन से निगोदिया जीव जो अदभव धारण करता है बहू जीव लोक का सर्व जघन्य । अमृत यानी मोक्ष की प्राप्ति होती है। रूप है और लोक पूरए समुद्घात दशा उसी का अन्तिम (उत्कृष्ट) रूप है। अजित नाथ भगवान का जो दूसरा अंक है वह भी असदृश्य है। जोकि तेरहवे गुण स्थान मय है। अब तक नवपद का जघन्य रूप तीन था। सम्भव नाथ भगवान का तीसरा अंक है जोकि दिव्यांक है। चौथा अंक जोकि साधु उपाध्याय योर आचार्य मय है वह नवमांक प्राद्यश है ।।२९॥ अभिनन्दन का, पांचवां सुमतिनाथ का, छठा पद्म प्रभ का, सातवां सुपार्श्वनाथ
यह जीव सिद्धावस्था में न तो क्षुद्र भव ग्रहणकार रूप में रहता है। का, आठवां चन्द्र प्रभ का, नबवां पुष्पदन्त का, दसवां शीतलनाथ का, ग्यारहवां मोर न लोक पुरणाकार रूप में किन्तु किञ्चिदून चरम शरीर के आकार में श्रेयांसनाथ का, बारहवां वा मुपूज्य का, तेरहवां विमलनाथ का, चौदहवां अनन्त रहता है वही जिन बिम्ब का रूप है और बह जहां पर जाकर विराजमान होता नाथ का, पंद्रहां धर्मनाथ का. सोलहवां शान्ति नाथ का, सत्रहवां कुन्युनाथ है वह सिद्ध स्वान ही वस्तुतः जिनालय है। उसी बिद्धालय का प्रतीक यह का, अठारह बां मरनाथ का, उन्नीसवां मल्लिनाथ का, बीसवां मुनि सुव्रतका, हमारा अाजकल का जिनमन्दिर है और उम मन्दिर में विराजमान जो जिन | इक्कीसवां नमिनाथ का, बाईगवां नेमिनाथ का, तेईसवां पार्श्वनाथ का और विम्ब है वह सिद्ध स्वरूप है तथा वसा ही वस्तुतः हमारा यात्मा भी है ॥३०॥ चौबीसवां अंक धो बर्द्धमान भगवान का है। ये ऋषभादि वद्धमानांत मंक
अति सिद्ध आदि नबपद की प्राप्ति एक जिनेश्वर भगवान विम्ब से। सो सब वर्तमान काल के अंक हैं जोकि चौबीस हैं। और भी चौबीस अंक ही होती है । अथवा समस्त मद्धम भी प्रसिद्ध होता है और सम्पूर्ण लोक इस विप हर काग्य में आने वाले हैं ।३७ से ५५ तक ।। का परिज्ञान होता है ॥३१॥
अब भूतकाल के चौबीस तीर्थंकरों का नाम बतलाते समय प्रतिलोम एक जिनेश्वर बिम्ब के दर्शन से सम्पूर्ण दिव्य ध्वनि का अर्थ प्राप्त क्रम में कहने पर चोदीमयां भगवान शान्ति हैं. तेइसवां अतिक्रान्त वाइसवा होता है ॥३२॥
धौभद्र इक्कीमा श्रीशुद्धमती, बोसयं ज्ञानमति, उन्नीसवां कृष्णमति, इस संसार में रस सिद्धि ही सम्पूर्ण सिद्ध रूप है और वही नवकार मन्त्र अठारहवां यशोधर, सत्रहवां विमल बाहन, मोलहवां परमेश्वर, पन्द्रहवां का अर्थ है तो भी परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो नवकार मन्त्र का अर्थ आत्म- उत्साह, तेरहवां शिवगए, बारहवां कुसुमाञ्जलि, ग्यारहवां सिन्ध, दसवां सिद्धि है और वह जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन से होती है ॥३३॥ सन्मति, नौवां प्रांगर, आठवां उद्धर, सातवां अमलप्रभ, छठवां सुदत, पांचवां
यही विषय रूप विष का नाश करके सुख उत्पन्न करनेवाला नवमांक 1 श्रीघर, चौथा विमलप्रभ, तीसरा साघु, दूसरा सागर और पहिला निर्वाण इस
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११३
सिरि मूवजय
सर्वाण सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
रीति से चौबीस तीर्थंकर इस भरत क्षेत्र में हुए हैं तथा होते रहेंगे। अबतक और मागामी काल में समस्त कर्मों को नष्ट करके पाप भी उन तीर्थंकरों के भूत तथा वर्तमान भगवानों का कयन हुआ ऐसा कहने वाला यह भूदलय ग्रन्थ । समान निरजन बन जायें, इस बात को बताने के लिए भावी तीर्थकरों का है । ५६.७१ तक।
निर्देश किया हुआ है। - अब तक मन्मथ को जीतकर अशरीरी होने वाले भूतकालीन भगवान ३४३ =8 तथा वर्तमान कालीन भगवानों का कथन हा। अब मन्मथ को जीतकर २४४३ = ७२ अशरीरी बननेवाले अागामी कालीन चौबोस तीर्थंकरों का कथन कर देने से ये तीन चौबीसी के मिलकर बहत्तर तीर्थकर हुये जो कि एक माला के नवमांक पूर्ण हो जाता है ! ७॥
मरिणयों के समान हैं। इनको यदि चौदह गुण स्थानों के अंकों से गुणा कर लिया पहिला महापद्म, दूसरा सूरदेव, तीसरा सुपाव, चौथा स्वयंप्रभ, जाय तो एक हजार पाठ हो जाते हैं, यही एक हजार आठ श्री भगवान के चरणों पांचवां सर्वात्मभूत, छठा देव पुत्र, सातवां उदक, आठवां श्रीकद, नवमां के नीचे आने वाले कमल के दल, होते हैं । इस १००८ को भी जोड़ दें तो नव प्रोष्ठिल, दशवां जयकीर्ति, ग्यारहवां मुनि सुद्रत, बारहवां अर, तेरहवां पुष्पदंत, हो जाता है । भगवान जब बिहार करते हैं और डग भरते हैं तो हरेक टम के चौदहवा निकषाय, पन्द्रहवा विपुल, सोलहवां निर्मल. सतरहवां चित्रगुप्त, १ नोचे २२५ कमल होते हैं उन दो सौ पच्चीस कमलों के पत्तों को मिलाकर कुल अठारहवां समाधिगुप्त, उन्नीसवां स्वयम्भू, बोसवां अनिवृत, इक्कीसवां विजय १२२५४१००८-२२६८०० पत्ते हो जाते हैं । ६.६ से १०० तक। बाईसवां विमल, तेईसवां देवपाल, चौबीसवां अनन्त बीयं, ये भविष्यत काल में
उपयुक्त दो लास छब्बीस हजार पाठ सौ दल भगवान के प्रत्येक ही होने वाले चौबीस तीर्थकर हैं। ७३ से ५६ तक।
चरण के नीचे होते हैं जो कि दूसरा चरण रखने के क्षरा तक सब घूम जावे ... ये सब तीर्थ धर कुसुम वाण कामदेव का नाश करने वाले होते हैं ।७।।हैं। जब भगवान दूसरा रखते हैं उसके नीचे भी इतने ही कमल और इतने पत्ते
उपयुक्त तीन काल के तोर्यकरों को मिलाकर वहत्तर संख्या होती है।होते हैं अतः उन दोनों को परस्पर गुरणा करने पर लब्धांक ५१४३८२४०००० जिसको कि जोड़ने पर (७+२=8) नव बन जाता है ।।६०11
माये इन सब को परस्पर जोड़ देने पर भी नव हो पाता है । इस प्रकार गुणाजिस काल में तोयंकर विद्यमान रहते हैं उसको महापवित्र काल कार करते चले जावें उतना हो अतिशय भगवान का उत्तरोत्तर बढ़ता चला समझना चाहिए । उन तीर्थङ्करों का यशोगान करनेवाला यह भूवलय काव्य है। जाता है तथा उनके भक्त भव्य पुरुषों का पुण्य भी बढ़ता जाता है। इसलिए . नवमांक मणित पद्धति से उपलब्ध होने के कारण इस काव्य को भी भव्य जीयो ! इस भूवलय की पद्धति के अनुसार भगवान के चरण कमली नवमांक कहते हैं।
1 को गुणा करते हुये तुम लोग गणित शास्त्र में प्रवीण हो जाबो । नव का अंक विषमांक है जो कि तीन को परस्पर मुणा करने पर जिस प्रकार रसमणि के सम्पर्क से हरेक चौज पवित्र बन जाती है उसी आता है। तीन का अंक भी विषमाकं है जो कि तीनों कालों का द्योतक है एवं प्रकार इस गरिगत पद्धति का जान हो जाने से यह जीव भी परमपावन सिद्ध रूप विषमांक से उत्पन्न होने के कारण इस भूवलय काव्य को विषमांक काव्य भी हो जाता है ।।१०१॥ कहते हैं ।।६१-६५।।
यह गणित शास्त्र जीवों की सम्पूर्ण प्राशायों को पूर्ण करने वाला प्रत्येक प्राणी को अपने पूर्वोपाजित कर्मों का ज्ञान कराने के लिए भूत- है ॥१२॥ काल चौबीसी बतलाई गई है तथा उन कर्मों को किस उद्योग से नष्ट करता यह गणित शास्त्र दुष्ट कर्मों को महाराशि को नष्ट करने वाला है, यह बतलाने के लिए वर्तमान तीर्थंकरों का नाम निर्देश किया गया है। है॥१०३।।
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२१४
सिरि भूवलय
उत्तमार्थ को सपने
।। १०७ ।।
अन्तरात्मा को परमात्मा बनाने जाने वाला है ।। १०४ ।। है ॥१०५॥ ज्ञान की राशि को बढ़ाने वाला है ।। १०६ ।। श्री सिद्ध पद का कारण भूत है पुष्पपुञ्जको बटोर कर इकट्ठा करने वाला है ।। १०६ ।। ईशत्व प्राप्त करा देने वाला है ।। १०६ ।। ईष श्राभार नाम की आठवीं भूमि जो सिद्ध शिला है वहां पर पहुंचा देने वाला है। क्योंकि आठवें चन्द्रप्रभ भगवान के चरण कमलों को स्मरण करके प्रारम्भ किया हुया यह भूवलय है ।। ११० ।
यह महा शास्त्र गणित की महाराशि को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम बना देने वाला है ।। १११३
इस शास्त्र के द्वारा महाराशि को श्रल्पाति स्वल्प रूप में लाने पर भी उसमें कोई वाधा नहीं प्राती ।। ११२ ।।
यह नाश को जीतने वाला है इसलिए प्रविनश्वर रूप है ।१११३ ।। यही औषध रूप में परिणमन करने वाला है ।। ११४॥
यह शास्त्र औषघ के समान प्रारम्भ काल में कुछ कटु प्रतीत होने पर भी अन्त में अमृतमय है ।। ११५ ।।
सिद्ध की आत्मा में जिस प्रकार अवगाहन शक्ति है जिस से कि एक सिद्धात्मा
में अनन्त सिद्धात्मायें विराजमान हो रहती हैं उसी प्रकार इस में भी अनेक भाषाओं में होकर आने वाले अनेक विषयों को की अवगाहन शक्ति है ।१११६ ॥
सिद्ध भगवान के समान यह शास्त्र भी अग्ररुलघु गुण वाला है ।। ११७।। अतः यह शास्त्र सब जीवों को अच्छी से अच्छी दशा पर पहुँचा देने वाला है ||११८ ||
उस महान् अपूर्व शक्ति का अनुभव करा देने वाला यह काव्य है ।। ११६।। यह श्री शक्ति को बढ़ाने वाला है अर्थात् अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग लक्ष्मी को प्राप्त करा देने वाला यह आद्यकवलय है ॥१२०॥
इत्यादि विशेषण वाक्यों से विभूषित यह महा काव्य है ॥ १२१ ॥ .
भूवलय शास्त्र समाविष्ट करने
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली
भगवान की बाणों को सुनने वाले भव्य जीवों ने तात्कालिक परिस्थिति को लेकर जो साठ हजार प्रश्न किये थे। जिनमें कि प्रायः सभी विषयों की बात थी, उन प्रश्नों का उत्तर जो अत्यन्त मृदुल और मधुर भाषा में श्री गौतम गणधर ने दिया था । वह चौंसठ अंकाक्षरों के बानवें वर्ग स्थानान्तर्गत जिन वाणी में था । उसी को श्री गौतम गणधर के बाद में कुमुदेन्दु प्राचार्य तक होने वाले प्रत्येक बुद्ध महत्रियों ने छः हजार सूत्रों में उपसंहृत करके रखा था जोकि गहन था उसी विषय को सरल करते हुये श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने कन्नड भाषात्मक छह लाख सांगत्य छन्दों में वर्णित किया है। जो कि मृदुता ललयात्मक होने से श्रोताओं के लिये हृदयग्राही वन गया है, वही भूवलय है। जो पूर्व महर्षियों के द्वारा छः हसूत्रों में बद्ध हुआ था वह नौ श्रागम द्रव्य शास्त्र था। उसका अध्ययन करते हुए तत्पर्याय रूप से परिणत होकर कुमुदेन्दु आचार्य ने उसी के भाव छः लाख सांगत्य छन्दों में वृद्ध किया । इसलिए इस भूवलय ग्रन्थ का नाम श्री आगम है जिसका कि यह सातवां "उ" नाम "का अध्याय है ।। १२५ ।।
आगामी काल में यह भूवलय ग्रन्थ सदा बना रहेगा ।। १२६॥
इस भूवलय की रीति से बाहर का बना हुआ जो शास्त्र है वह आगम नहीं होगा ।। १२७ ।।
यह द्रव्यागम शास्त्र भाव, काल, अन्तर (अनन्त), तद्वितिरिक्त क्षेत्र स्पर्शन, और अल्पबहुत्व इन अनुयोग द्वारा में बटा हुआ है। १२७-१३४ तक बन्द पाहुड के आगम अबन्ध पाहुड का विषय लिखा हुआ है ।। १३५॥ अन्य पाहुड को श्री प्रागम संख्याङ्क कहते हैं ॥१३६॥
भगवान के श्री मुख से निष्पन्न हुआ यह भूवलय नामक श्री प्रागम है || १३७॥
इसीलिए इस भुवलय को आगम ग्रन्थ कहते हैं ॥१३८॥ अष्टमहाप्रातिहार्य अर्थात :
1
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अशोकवृक्षः सरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च । भाभंडलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिमेश्वराणि ॥ प्रशोकवृक्ष देवताओं के द्वारा भगवान के ऊपर पुष्प की वर्षा होना, दिव्य
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सिरि भूवलय
११५.
वृक्षोंके १८००० जाति के पुष्पों की वर्षा होती है और इससे सकल रोग निवारण रूप दिव्यौषधि बनती है, इससे खेचरत्व सिद्धि, जल गमन, दुलेहि सुवर्ण सिद्धि इत्यादि क्रियाओं को बतलाने वाले भूवलय के चतुखंड रूपी प्राणवाय नामक . विभाग में वर्णित है । इसे पुष्पायुर्वेद भी कहते हैं ७१८ भाषात्मक दिव्यध्वनि, अक्षर रूपी चार होने पर भी चतुर्मुख दीख पड़ने वाला सिंहासन, ज्ञानज्योति को फैलानेवाला भामंडल, प्रचार करनेवाली दुन्दुभि, भगवान के ऊपर रहकर तीनों लोकों के स्वामित्व को दिखाने वाला छत्रत्रय "ये आठ प्रकार की भगवान की संपदायें समस्त जीवों को हित करने वाली हैं। प्रश्न - यह कैसे ?
उत्तर - कुमुदेन्दु ग्राचार्य कहते हैं कि प्राकृत में अष्टमहाप्राप्ति हार्यो को पारि कहते हैं उनमें सर्व प्रथम अशोक वृक्ष प्रातिहार्य है जोकि जनता के शोक का अपहरण करनेवाला है। उस वृक्ष का विवरण यों है -
ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन जिन वृक्षों के मूल भाग में केवल ज्ञान प्राप्त हुआ उसको अशोक वृक्ष समझना चाहिए ॥१३॥
न्यबोध १, सप्तपर्णं २, शाल ३ सरल ४ प्रियङ्ग ( स्वेता ) ५, प्रियङ्ग (रक्त) ६।१४
शिरीस ७, श्रीनाग ८ अक्ष ६, धूलि १० पलाश ११ । ११४१ | पाटल १२, जामून १३, दपि १४, नन्दी १५, तिलक श्वेताम्र १७, कलि १८, चम्पा १६, वकुल २०
१६ | ॥१४२॥ मेप ग २१ ।।१४३ ।।
धूलि (लाल ) २२, शाल २३, धव २४, ये चौबीस क्रमशः अशोक वृक्ष हैं। इन वृक्षों के फूलों की भावना देकर अग्नि पुट करने पर पारा सिद्ध रसायन रूप मारिए वन जाती है || १४४ ॥
ये सब वृक्ष रसमणि के लिए उपयोगी होने के कारण माङ्गलिक होने से इन्हीं वृक्षों के पत्तों की बन्दन वार बनाई जाती है ।११४५||
उस वन्दन वार के बीच बीच में उस रस मरिण का बना हुआ घण्टा लगा रहता हूँ ।। १४६ ।
यह वन्दनमाला देखने में प्रत्यन्त सुन्दर मन मोहक हुमा करती है । १४७ |
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली
इस बन्दन माला की छटा एक अनुपम रमणीय हुया करती है जिसके प्रत्येक पक्ष में से राग की परम्परा प्रगट होती रहती है । १४८- १४९ यह अशोक वृक्ष अधिक मात्रा में फल और पुष्पों से व्याप्त हुआ करता है । १५० ६
अगर रससिद्ध करना हो तो इन वृक्षों के क्षुद्र पुष्प न लेकर विशाल प्रफुल्लित पुष्प लेना चाहिए । १५१ ।
और उसी को फिर यदि रस मरिण बनाना हो तो इन्हीं वृक्षों के क्षुद्र (मञ्जरी रूप ) फूल लेना चाहिए ॥१५२॥
सबसे पहलान्यग्रोध नाम का अशोक वृक्ष है। उसके फूल को यशस्वतीदेवी अपनी चोटी में धारण करती रहती थीं । १५३३
इसी प्रकार प्रथम कामदेव बाहुबलि भी कुसुमबाण प्रयोग के समय इसी फूल को काम में लेते थे । १५४ |
इसीलिए सभी महात्माओं ने इस फूल को कामितफल देने वाला मानकर अपनाया है ।।१५५||
इस फूल के उपयोग से भव्यों को जो सम्पदा प्राप्त होती है वह वृक्ष की बेल के समान उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है । १५६।
जिस किसी पुरुष ने विष पान किया हो तो उसकी बाधा को दूर करने के लिए इस फूल को प्रौषधि रूप में देना । १५७१
श्री भरत चक्रवर्ती की पत्नी कुसुमाजी देवी अपने सब अलंकार इसी पुष्प द्वारा बनाती थीं । १५८
पारा को धनरूप बनाना हो तो इस पुष्प को काम में लेना । १५६ | जिस प्रकार भगवान का अशोक वृक्ष अनेक शाखा प्रति शाखाओं को लिए हुए होता है उसी प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ भी अनेक भाषा तथा उपभाषाओं को लिए हुए है । १६० ।
भगवान के जो अशोक वृक्ष बतलाये गये हैं वे सब अपने प्रत्येक भाग उत्पादक माने गये हुए हैं। इस प्रकार श्रवरण सिद्धि के लिए भी परम सहायक
में नवरङ्ग मय होते हैं जोकि नवरस के के महत्व को रखने वाला प्रशोक वृक्ष
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सिरि भुषालय
सार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-किसी
होता है । और अपने अपने तीर्थकर के शरीर से बारह गुणा समुन्नत होता । में आते हैं तो उस स का दर्शन करते हो उनका हृदय रूपी कमल प्रफुल्लित है ।१६१०
हो उठता है । और अपनी शक्ति की प्रबलता पर गर्व रखने वाले राजा महानिर्मल तीर्थ तथा मङ्गल स्वरूप रहने वाले इन अशोक वृक्षों का राजा लोग जब इस सिंह के दर्शन करते हैं तो सरल होकर नतमस्तक ही वर्णन करें तो कहां तक करें ।
रहते हैं ।१६६ से १७० तक । जो अशोक वृक्ष सौ धर्मेन्द्र के उद्यान में गुप्त रूप से विद्यमान है और उपयुक्त सिंह शरीर को शौर्यवृत्ति के धारक तथा अहिंसादि महावतों जो समवशरण रचना के समय में भगवान के पीछे में हुमा करता है उसके अक्ष पापालक श्री दिगम्बर जैन परमपि लोग ही इस मङ्गल प्रभूत की वृक्ष की बात यहां पर नहीं है परन्तु भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे केवल भवमांक पद्धांत को पूरी तौर से जान सकते हैं । प्राभूत का ही प्राकृत भाषा ज्ञान पाया उसकी बात यहां पर की गई है। १६२ यहां तक अशोक वृक्ष में पाहुर हो जाता है। दिगम्बर महर्षि लोग जिस आसन से बैठकर इस मङ्गल का वर्णन समाप्त हुमा
प्राभूत को लिखते हैं या इसका उपदेश करते हैं उस आसन को ही वीरासन वरदहस्त के समानभगवान परहन्त के मस्तक पर जो छत्रत्रय होता है वह समझना चाहिए । इसी बीरासन का दूसरा नाम श्री पद्धति है। इस प्रासन : मोतियों की लूम से युक्त होता है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मानों तारामों से के द्वारा ही मङ्गल प्राभूत की झांकी होती है। तथा यह घासन ही भगवान मण्डित पूर्ण चन्द्र मण्डल ही हो। १६३ ।
के रूप को स्पष्ट कर दिखलाने वाला है। इस आसन से मुमि लोग जब भगवान के सिंहासन प्रातिहार्य में जो सिंह होता है वह यद्यपि एक मुख उपदेश करते हैं तो वह उपदेश दीपक के प्रकाश की भांति अपने आपको फैलाता वाला होता है फिर भी नार मुख वाला दीख पड़ता है, क्योंकि वह स्फटिकमणि है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में हो यापनीय संघ नाम का एक मुनि संघ.था। निर्मित होता है। एवं बह सिंहासन भगवान के नय और प्रमाणमय सन्मार्ग जो द्राविड देश में विचरण करता था उस संघ में इस वीरासन की बड़ी महिमा का प्रतीक रूप से प्रतीत होता है।
थी। उन लोगों की मान्यता थी कि इस वीरासन से अशान्ति मिटकर शान्ति उस सिंह के ऊपर एक हजार पाठ दलका कमल होता है जिसकी होती है । तथा यह आसन भारत वर्ष की कोति को बढ़ाने वाला है। यह लाल परछाई उस स्फटिकमणिमय सिंह में झलकतो रहती है। इसीलिए दर्शकों । भूवलय ग्रन्थ भी श्री पद अर्थात् भगवान के चरण कमल की गणित पद्धति से को उसके रत्नमय होने में सन्देह नहीं रहता जहां पर कमल की परछाई बना हुआ है । जिस गरिणत पद्धति को जान लेने पर श्वेत लोह से चान्दी बनाने नहीं रहतो वहां पर सिंह सफेद रहता है ।१६४।।
की विधि भी भारतियों को प्राप्त हो जाती है ।१७१ से १८२ तक। . बारह सभाके बहिर्भाग की ओर जो प्राकार है उसमें जो गोपुर द्वार होते भगवान के दिव्य स्फटिक मय सिंहासन से कुछ दूरी पर हाथ जोड़े हैं वहां से लेकर सिंहासन प्रातिहार्य नक एक रेखा कल्पित करके उस रेखा को हुए प्रफुल्लित मुस्ल होकर वलयाकार रूप से देव लोग खड़े रहते हैं बोकि अर्द्धच्छेद शलाका रूप से उतनी बार काटना जितने कि इस मङ्गल प्राभृत में गम्भीर दुन्दुभिनाद करते रहते हैं सो सब आम जनता को मानो ऐसा कहते हैं अंकाक्षर हैं । मङ्गल प्राभूत में २०७३६०० इतने अक्षर हैं ।१६५॥
कि दौड़कर आयो भगवान के दर्शन करो। भगवान के पीछे में जो अशोक यद्यपि सिंह का मुख देखने में कर भयावना हुआ करता है किन्तु वृक्ष होता है उसके फूलों की बरसा होती रहती है एक बार में अठारह हजार भगवान के आसन रूप जो सिंह होता है वह लोगों को भय उत्पन्न नहीं करता। फूल बरसते हैं एवं बार-चार बरसते रहते हैं। भगवान के परमौदारिक शरीर प्रत्युत शौर्यप्रदर्शित करता है हिंसा को रोककर बल पूर्वक अहिंसा को अस्पष्ट में से जो कुण्डलाकार दिव्य अखण्ड ज्योति निकलती रहती है उसको भामण्डल करने वाला होता है । अनती लोग जब क्रूरता धारण कर लेते हैं तथा समवशरण कहते हैं । उसके प्रागे करोड़ों सूर्यो की ज्योति भी मात खा जाती है। उस ,
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होकर
भामण्डल को मानुमण्डल भी कहा जा सकता है। इस भामण्डल का तेज सूर्य के तेज के समान आंखों को अखरने वाला न चन्द्रमा की ज्योति के समान प्रसन्नता देनेवाला होता है। उपर्युक्त अशोक वृक्ष के फूलों की जो वृष्टि होती है वह इस भामण्डल के दिव्य तेज में होकर प्राती है। अतएव दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता है मानो ये फूल देवलोक से ही बरस रहे हों । भगवान के दोनों बगलों में चमर दुरते रहते हैं जोकि दोनों बगलों को मिला कर चौंसठ होते हैं और पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति बाले या शंख के समान घबल कान्ति बाले होते हैं। भगवान के चमर भी चौंसठ होते हैं तो अक्षरों का रङ्ग भी श्वेत माना हुआ है। अक्षर चौंसठ इस प्रकार हैं कि अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ ये नौ स्वर हैं। जो कि हस्व दोघं और प्लुत के भेद से सत्ताईस हो जाते हैं। कवर्गादि पांच के पच्चीस अक्षर है य र ल व श ष स ह ये प्राठ हैं ( अं अः कप,००,००००००० ) ये चार योग वाह अक्षर हैं १८६ से १५९ तक |
इन चौंसठ अक्षरों का लिपि रूप कैसा है ? यह प्रश्न हुआ ।९६०। इसका उत्तर ऊपर पहले आा चुका है ।१३१।
अकार से लेकर योग बार पर्यन्त चौंसठ अक्षरों का एक प्रक्षर (समूह) बन गया वही चामर का रूप है। इस प्रकार पाठ प्रातिहार्यो का वन हुआ। यह सब नत्रमांक बन्धन से बद्ध हुमा मङ्गल वस्तु रूप है। जिसका कि यहाँ वर्णन है इसलिए इस भूवलय के पहले विभाग का नाम मङ्गल प्राभृत है । मङ्गल काव्य बनाने के लिए कवि लोगों को यहां सब प्रकार की सामग्री प्राप्त हो जायेगी । १९२ से २०० तक ।
शिव पद को प्राप्त किये हुये श्रीचन्द्र प्रभ जिन भगवान का यह प्रक है | २०११
१प्रसिद्ध कटक भाषा के व्याकरण के यादि रचियता श्री नागवर्म दिगम्बर की इच्छा होती है तो नाभि मण्डल पर से दाव उत्पन्न होकर प्राण वान के अनुकूल पवन निम् जीवनिष्टरिम् कहते पांगिन प्रोल नाभि पोगेदु पट्ट, गु शब्द
सिद्धि मंच, बँगलौर - दिल्ली
नवमांक से सिद्ध किया हुआ
सिद्धांक है | २०२
यह सिद्ध परमेष्ठी का श्रङ्ग होने से इच्छित वस्तु को देने वाला
है | २०३
इस ग्रन्थ के अध्ययन करने से गणित पद्धति के द्वारा मुणाकार करने से रस सिद्धि होकर सांसारिक तृप्ति तथा श्रात्म योग प्राप्त होकर पारलौकिक सुख सिद्धि प्राप्त होती है | २०४ |
जैनियों के लिए तो भगवान का चौंसठ चामरों का दर्शन होने के साथसाथ ही चौंसठ अक्षरों का ज्ञान हो जाता है।
विशेष विवेचन
आचाराङ्गादि द्वादश अङ्ग और उत्पादादि चीदह पूर्व तथा पर सेनाचार्य तक कम होते हुए माया हुआ कर्म प्रकृति प्रामृत शास्त्र एवं गुणवरादि द्वारा बनाया हुआ कषाय पाहुड आदि महा ग्रन्थ, कुन्दुकुन्दु के द्वारा बनाये हुए समय सारादि चौरासी पाहुड ग्रन्थ और तत्वार्थ सूत्रादि सभी शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करना एक प्रसम्भव-सी बात है परन्तु कुमुदेन्दु प्राचार्यः कहते हैं कि चौंसठ अक्षरों को जानकर उनके असंयोगी द्विसंयोगो इत्यादि चतुः ष्टि संयोगी पर्यन्त करले तो परिपूर्ण द्वादशांग वाणी को जानकर सहज में हो सकता है जिसमें कि समस्त विश्वभर के शास्त्र समाविष्ट हो रहे हैं। तथा संसार में अनेक भाषायें प्रचलित हैं उनकी लिपियां भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं एक भाषा के जानकार को दूसरी भाषा तथा उसकी लिपि का बोध भी नहीं होता है परन्तु इम भूवलय की पद्धति के अनुसार श्रङ्ग लिपि से लिखने पर हर भाषा के जानकार के लिए वह एक ही लेख पर्याप्त हो जाता है मित्रfree लिखने की जरूरत नहीं पड़ती। मतलब यह है कि दुनिया भर में जितनी पाठशालायें है उनमें यदि भूवलय की ग्रङ्क लिपि पढ़ाना शुरू कर दी जाये तो
जैनाचार्य ने अपने दन्दम्बुधि नामक ग्रन्थ में ऐसा लिखा है कि जब मानव को बोलने संयोग मे तुरई की आवाज के समान प्रवाह रूप होकर निकलता है उसका वा श्वेत होता है। देखोदवण्ण श्वेतं ।
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सर्वार्थ सिद्धि संघ, बेंगलोर-दिल्सी फिर उनको भिन्न-भिन्न लिपियां पढ़ने को कोई प्रावश्यकता नहीं रह जातो । एक साथ रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारी कृपा से बने हुए इस भूवलय अन्य में ।२०५॥
भी नवमांक पद्धति के द्वारा तोन काल और तीन लोक के समस्त विषय यह भूवलय ग्रन्थ नवकार मन्त्र स्प मङ्गल पर्याय से बनाया हुआ। समाविष्ट है इसीलिए बह पाहुड ग्रन्थ है ।२१२। है।२०६।
इस अध्याय में श्रेणि वद्ध काव्य में ८०१६ पाठ हजार उन्नीस अक्षरांक इस भूबलय के अध्ययन करने से संसार का नाश होकर सिद्धता प्राप्त है। अब इसी माला के अन्तर काव्य के पत्रों में १३१३१ तेरह हजार एक सौ हो जाती है।२०७१
इकतीस अक्षर है। इन सब अक्षरों से निर्मित किया हा यह भूवलय काव्य . इस भूवलय ग्रन्थ के जो अंक हैं वे सब नवमन्मथ यानी आदि कामदेव । चिरस्थायी हो ।२१३॥ "श्री बाहुबली स्वामी के द्वारा प्रकट किये हुए हैं।२०८।.. ...
उ.८०१६+अन्तर १३१३१=२११५० = [] तथा उन्हीं अडाक्षरों को भरत चक्रवर्ती ने सर्व प्रथम लिपि रूप में !
अथवा अवतरित किया था वह लिपि ब्राह्मी लिपि यी, जोकि कर्माष्टक भाषा रूप। भ-उ१०,५५, ८८+२११५० = १,२६,७३८ थी ।२०६॥
इस प्रध्याय के प्रथम श्लोक के प्रावक्षर से प्रारम्भ करके क्रमशः नाजवान बनन रूप काया कल्प करन वाला महापाथ उपयुक्त 1 ऊपर से नीचे तक पढ़ते आयें तो जो प्राकृत इलोक निकलता है उसका अर्थ चौबीस तीर्थंकरों के दीक्षा कल्याणक के वृक्षों के रस से बनती है ( जिसकी
हा कहते हैं-(उपपाद मारणान्तिक इत्यादि)। विधि भूवलय के चौथे खण्ड प्राणावाय पूर्व में बतलाई गई है ) परन्तु इस
उपपाद और मारणान्तिक समुद्धात मैं परिणित रस तथा लोकपूरण सनाली में होने वाले समस्त संसारी भव्य जीवों का काया कल्प करने वाला
। भव्य जाबा का काया कल्प करन वाला। समुद्घात को प्राप्त केवली का पाश्रय करके सारा लोक ही सनालो है। एक सम्यक्त्व रूप महौषधि रस है। मङ्गल पर्याय रूप से उस सम्यक्त्व रूप विविधित भव के प्रथम समय में होनेवाली पर्याय की प्राप्ति को महौषधि रस को प्रदान करने वाला यह भूबलय ग्रन्थ हैं।२१०।
। उपपाद कहते हैं । वर्तमान पर्याय सम्बन्धी प्रायु के अन्तम हुर्त में जीव के प्रदेशों . श्रीचन्द्रप्रभ भगवान ने समांक तथा विषमांक को एक कर दिखलाने के प्रागामी पर्याय के उत्पत्ति स्थान तक फैल जाने को मारणान्तिक समुद्घात कतिया प्रङ्क और अक्षर को भी एक कर दिखलाने को पद्धति वतलाई जोकि कहते हैं। (ति.द्वि. अः८) इसो अध्याय के श्लोकों के भट्ठाईसवें प्रक्षर पद्धति विश्वभरके लिए शुभ धोठ और वरप्रद है तथा सर्व कलामय है ऐसा को क्रमशः ऊपर से नीचे तक लेकर लिखें तो इसी ग्रन्थ के अध्याय के अन्त परमोत्तम उपदेश करनेवाले उन चन्द्रप्रभ भगवान को नमस्कार करते हुए तक पाकर जो संस्कृत गद्य अचूरा रह गया था वहां से चानू होता है सोकुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि हे भगवान हम सबको पाप रक्षा करें।२११। 'ग्रन्य--कर्ता श्री सर्वजदेवास्तदुत्तर अन्य कर्तारह गणधर देवाह प्रति
अब कुमुदेन्दु प्राचार्य उसी चन्द्रप्रभ भगवान को हो जयध्वनि रूप इस गणधर देवाह, अर्थात् इस भूवलय नाम के अन्य के सर्व प्रथम मूल भूत कर्ता भूवलय अतज्ञान को नमस्कार करते हुए कहते है कि जिन वाणी माता श्री सर्वज्ञ भगवान हैं उसके बाहु में इसको गणधर देव गौतमादि ने फिर उनको हमें नाश न होने वाले अक्षरांक को दिया जिसको कि साधन स्वरूप इष्यि प्रति गणधरों ने प्राप्त किया था। लकर हम यह सिद्ध प्राप्त कर सकेंगे । सिद्धावस्था में जिस प्रकार अनन्त गुण ! . इति सप्तमो 'उ' नामक अध्याय समाप्त हुमा।. ...
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आठवां अध्याय * नविल्लदे सिद्धवाद सिम्हासन । तानदु जिननेरि गल् । ते* नम घेम्बाग मूरने प्रतिहार्य। दानम्म बळकेयन्कमळम् ॥१॥ एक बवु अष्टम सप्त पन पन्तम । ननु जर्स नये या म॥ सवरण द्वितीय एकांक शून्यद । नवकार सिम्हासनव ॥२॥ प* द सिद्धियागलु वरुवष्टु शन्केगे। प्रोदगे उत्तर काव्य स गळलि ॥ मुदखीव प्रोमदने शन्केय पेछुव । पद पूर्वपक्ष सिद्धांत ॥३॥ माटद सिम्हासन शब्द ओमद अरोळ् । कूटद सिम्ह आसवम् व* कूटव बिट्याग प्रोमदने सिम्हद । कूट सिद्धान्तद पान्के | ख ररु बेच्चुव जीव सहितद सिम्हवो । गुरु वर्धमान वाहन च* प्रा॥ मरद सिम्हवो जीव रहितद सिम्हवो । अरहंत नेरिद सिम्ह ॥५॥ म् नुजरेरुव सिम्हासनदि बन्दिह सिम्ह । घन आति सिम्हवो ना* न।। वनदोळु चलिप सिम्हवो अल्लयो एम्ब। घनशन्केयागे भूवलय ॥६॥
मुनिगळ शन्के गुत्तरतु ॥७॥ तनगे बन्द पार भन्केगळ ॥८॥ धनवादुसर सिद्धाविन्तु ॥६॥ तनि शन्केगे जीव रहित ॥१०॥ एमुव शब्दवे काण्ब दृष्टि ॥११॥ धन प्रातिहार्य मूरक ॥१२॥ घन सिम्हबदु शुद्ध स्फटिक ॥१३॥ मरिणविन्द रचितवागिहुदु ॥१४॥ चिनुमयनेरिव सिम्ह ॥१५॥ कोनेय काटक सिम्ह ॥१६॥ जिन मुनियन्ते सुशांत ॥१७॥ धन मुनिगळ शूर वृत्ति ॥१८॥ अनुभवबाटद सिम्ह ॥१॥ कोनेय भवान्तर सिम्ह ॥२०॥ घनद पुराकृत सिम्ह ॥२१॥ जिन वर्धमानरु सिमह ॥२२॥
घनद सिम्हासन वलय ॥२३॥ व वनिय निज सिम्ह नाल्मोगवागिह । नव सिम्हमुख उद्दव नु* अवभरिसलु आदिनाथ जिनेन्द्रर । नव दोहदष्टिह अळते ॥२४॥ न व पाचपद्मद केळगिह सिम्हद । विविधदुत्सेधवदनुम् सा प्रवरयरेते आदिनाथरिग एनूरु । नवयनुवष्टिह मळत ॥२५॥ उरु रण्डएरेन्नुब जयघंटे नादद । घन शम्वदनुभववस र* जिननत्म अजितनाना रिगेनाल्करे तुरु। एनुव धतुविनष्टु सिम्ह ॥२६॥ प्रार दामेले शम्भवरिगे नाल्न ऊर । मोदद अभिनन्दनर ।। पाद मा टदसिम्ह मूरुनूर यवत्तु । नाध सुमुतिगे सूरु : ॥२७॥
ऐदने जिनगइन्नूररेयु ॥२॥ मोद सुपार्श्व इन्नूर ॥२६॥ मोक्देन्टके नूरबत्ग्रम् ॥३०॥ प्राद अोमबत्त के नूर ॥३॥ मोद शीतलगे तोश्बत्तु ।।३२॥ आदि अनन्त ऐवत्तु ।।३३॥ श्रीद हाएरडे इप्पत्तु ॥३४॥ मोद विमल अरबत्तु ॥३॥ प्रादि अनन्त ऐवत्तु ॥३६॥ अादि धर्मवुनलवत् ऐदु ॥३७॥ श्री दिव्य शांति नल्वत्तु ॥३८॥ पाद कुन्थुबु मूवत्ऐदु ॥३६॥ आदाग अरवु मूवत्तु ॥४०॥ श्रीद मल्लियु इप्पत्ऐड ॥४१॥ प्रादि इप्पत्तु इप्प्रत्तु ॥४२॥ मोदद नमि हदिनं दु ॥४३॥ प्रादि नेमिय अंक हत्तु ॥४४॥ श्रीधव पार्थव प्रोन्यत्तु ॥४५॥ प्रायन्त वीरांक एम् ॥४६॥ प्रादि इप्पत्एरळ् धनुष ।।४७॥
नेद अंक इगळेल्ल इनितु ॥४८॥ मोददतिमंगळ मोळवु ॥४६॥ साधित सिम्ह भूवलय ॥५०॥ को ष्टक बन्धाकदोळु कूडिदक्षर । दाशमिक क्रम गणित ॥ साझ ष्टम निर्मल स्फटिकद बण्णाद । भीष्टद सिम्ह वसंगळ ॥५॥ डिल गम गरिणतदे तेगेयालादी एन्दु । भगवन्त पुष्पदन्ता * य । सोगसित्र कुन्दपुष्पद बण्ण एरडके । मिगिलाद सिम्हशरीर ॥५२॥ ति* रेयेल्लि हरितवर्णपाधव सुपार्शव । हरवर्ण नोल यस सुव्रत । बरुवुदिदे नेमि पद्मप्रभ मत्लु । वरवासु पूज्यनें केम्पु ॥५३॥ या शदेन्दु सिम्ह बण्ण बिळिदु हळदि । वशनोलकेम्पु इन्त् प्रा गे। ऋषि हदिनारर सिम्हगळ् चिन्नद । रसद स्फटिकद वर्णगळ ॥५४॥ मक हबीर देवन सिम्हासन चिन्न । महादि वृषभ जिनम् :चा । मिह सिम्हवदनोडे चिनद नाडाद । इहके नन्दियु लोक, पूज्य ॥१५॥
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सरि भूवलय
सर्वाप सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली ... महदादि गान्गेय पूज्य ॥५६: महावीर नगुलशन ॥ महति महावीर नन्दि ॥५॥ इहलोकदादिय गिरिय ॥५६॥ सुहमांक गणितदबेट्ट ॥६॥ महसीदु महाव्रत भरत ॥६१॥ वहिसिदणुक्त नन्दि ॥६२॥ सहनेय गुरुगळ बेट्ट ।।६३॥ सहचर मूरारु पूरु १६४॥ महनीय गुरुगरण भरत ॥६५॥ महिय गारसरगरिगत ॥६६॥ गहन विद्ययेगळाळ गिरियु॥६॥ गहगहिसुव नगु भरित ॥६॥ अहमीन्द्र स्वर्गवी भरत ।।६९॥ इह कल्पवृक्षद भरत ॥७०॥ महिय कल्वप्पु कोवळला ॥७॥....
महवीर तलेकाच गंग ।।७२॥ महदादि शिवभद्र भरत ॥७३॥ महिमेय मंग भूबलय ॥७४।।। ए* छु कमल मुन्देछु कमल हिन्दे । सालु मूवत्रएरड अन्क ।। पाल * कूडिसल कालूनूरु । श्री लालित्यद कवल ॥७॥ क रुणेयन धवलवर्णन पादळिह। परमात्म पादव य* दे ॥ तिरविहनाल्कंकवेरसिप्तिम्हद मुख । भरतखंडद शुभ चिन्हे ७६ क विदिह मुरुगपक्षि मानव वर्गव । अवधरिसुत शान्तद श्री । अवतारवो इदु धोरश्री एन्वेम्बा सुविवेकि भरत चक्ररांक।७७॥ यो र जिनेन्दरन बाहनवी सिम्ह । मूरने पडिहारबदु ।। सार श् री* वीरश्री सारस्वत धीर । रारयकेयदनद सिम्ह ॥ ll स* मचतुरस्र सम्स्थान सम्हननद । विमल वयभवविह कु* न्द।। श्रमहरबरगद धवल मंगल भद्र । गमकदशिव मुद्रे सिम्ह ।।७।।
क्रमवन्क वेरडन्क सिम्ह ॥८॥ अमलात्म हर शम्भु सिमह ।।१॥ नमि से सौभाग्यद सिमह ॥८२॥ समवसरण्दन सिमह ॥३॥ क्रम नाल्कुचरण एन्टक ८४॥ गमक केसर सिह नाल्कु ।।८॥ विमल सिमहद प्रतिहार्य ।।६॥ सम विषमान्कदे शून्य ॥७॥ गमक लक्षणद अहिम्से ।।८८॥ श्रम हर पाहुड ग्रन्य ॥६॥ समद नाल्मोगदादि सिमह ॥१०॥ क्रमद महाव्रत सिमह ॥६... क्रम सिमहकोडित तपन ॥१२॥ श्रमहर गजवन क्रीडे ॥६३॥ नमिसिदरगणुव्रत शुद्धि ॥६४॥ शरमद महावत शुद्धि ॥६५॥
विमलान्क काव्य भूधलय ॥६६॥ ल क्षरण जारदे सिमहगळ् बाळुव । तक्षणवेने आगाग ॥ लक्षा न* क मोरिव वरुषगळेष्टन्क वीक्षितियोळगे वाळवुवु ॥७॥
* डिमेयायुविन श्री महावीर देव । नडिय सिम्हासनदल्लि ॥ ओ द* गिद सिम्हवायुपु हत्तु वरुषवु । विडदे समवसरणदलि ॥६॥ खा ति के यगर पाय जिनेन्द्र । ख्यातिय सिमहद अयु ॥ पूत कु* शल वर्षगळ अरवत् अोमबत्तु । नूतन मासगल एन्दु ॥६ ॥ पक्ष भदिह नेमि स्वामिय सिम्हदायुधु । शुभवर्ष एनरक्के न दे। शुभदऐवत्मारुदिन गळू कडिमेयु । बिभुविन सिम्ह बाबु।।१०० मक रळिशी नमि देवर सिमहदायुवु । एरडूवरे साथिरके ।। बर द प्रोमबत्तु वर्षगळनक कडिमेयु । सिरि सुव्रतर सिरहदायु ॥१०॥ परिदेळूबरे साविरतु ॥१०२।। सिरि मल्लि जिन सिमहदायु ।।१०३॥ बरे ऐनाल्केन्टसोन्ने सोन्ने ॥१०४॥ अरद्विसोन्ने नवेन्दउ नाल्कु ॥१०॥ सिरि कुन्यरळमूरेळ् मूर्नाल्कु ॥१०६॥ वरशान्तेरळ्नाल्नवेन्ट् नाल्कु ॥१०७॥ धर्म नबन्नाल्कु नाल्केरडु ।।१०।। धर्ममरंकवु बिडियारु ॥१०॥ सिरि अनन्तवेन्टोमवत्त ॥११०।। वरुष सुन्दे नव नाल्केळु ३११२॥ गुरु विमल वेळोमबत्तुगलु ।।११२॥ बरे नाल्कन् कनु नाल्कु ओम्दु ॥११३।। वर वासुपूज्यरय्दु नव ॥११४॥ बरे मूरु ऐदन्क वरुष ॥११॥ सिरि रेयान्सेन्टु नवगळ् ॥११६॥ बरे नाल्कन्कवु सोन्ने एरडुः ॥११७॥ सिरि शोतल पूर्व अंग ॥११८।। बरलोम्बत्तुगळयद् मूरेन्दु ॥११६॥ वर वेलु नवबु नाल्कुगळ ॥१२०॥ बरे मुन्दे मूरेन्दु वरुष ॥१२॥ गुरु पुष्पदन्तर पूर्व ।।१२२॥ धरुष प्रोम्बत्तुगळ् ऐदु ॥१२३॥ गुरु बवरन्क पूर्वान्ग ॥१२४॥ अरुह, प्रोमदे नव मूर मूरेन्टु ॥१२५॥ वरुषवार्नवनाळू मुटु ॥१२६॥ वर चन्द्रप्रभ रोम्बत्तुगळु ॥१२७॥ सरि पूर्वेगळू मन्दना ॥१२॥ सरि एल सिडियन्करवार ॥१२॥
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१२१ - सिरि भूवजय
सर्वार्थसिद्धि एक, वैगलोर-दिल्ली बरे मूर अोमबत्तु मूरेन्टु ॥१३०॥ वषद अय्दोमबत्तुगळ ॥१३१॥ बरेबुदु मूरु मत्तेन्टम् ॥१३२॥ सरि मास मुक्कालु वरुष ॥१३३॥ विरुवुद् प्रा सिम्हवायु ॥१३४॥ वरदु सुपार्शव पूर्वेगळ ॥१३५॥ बरुवुवु नवदन्क ऐदु ॥१३६॥ अरि मुन्दे पूर्वान्ग एळम् ॥१३७॥ बरे नव एळ मूरोम्बत् ॥१३८॥ सरि मुरु एन्टुगळक ॥१३६॥ बरि अन्यविनइतागे मरुव ॥१४०५ बरे प्रोमदु नाल्नव नरेन्टु ॥१४॥ वरुषगळनकवष्टिहुदु ॥१४२॥ गुरु पद्म प्रभर पूर्वेगळ ॥१४३॥ बरे अोमबत्तुगळ नदु सल ॥१४४॥ इरे इन्तु पूर्वाना दंक ॥१४॥ मुरेन्टु मूरोम्बत् मूरेन्दु ।।१४६॥ बरखुदेम्भत् नाल्कु लक्ष ।।१४७॥ दिरविनोळोम्दून वरुष ॥१४८॥ वर सुमति नव वयदपूर्व ॥१४॥ अरि पूर्वागदविडिएळ ॥१५०॥ बरे प्रायन्त वेम्ब्त्तु मूर ॥१५१॥ सरिम ध्य नत्र नवम ॥१५२॥ परि वर्ष विडियनक एळ ॥१५॥ पुरु सोन्ने एन्टोम्बत् नवच ॥१५४॥ अरि मत्ते नव मूरु एन्टम् ॥१५॥ सर अभिनन्दन पूर्वे ॥१५६॥ बरुव पूर्वेगळ प्रोमबत् ऐदु ।।१५७॥ अरि अंग नाल्नव मूह एंटु ॥१५८॥ बरुषादि एरडेन्ट प्रोम्बत्तु ॥१५६।। बरे तोम्बत् प्रोम्बत् मरेन्टु ॥१६०।। वर शम्भव नववयदु ॥१६१॥ वर पूरबगळ मुन्दे अंक ॥१६२॥ बरलादु देम भत्नाल्लक्ष ॥१६३॥ दिरविनोळ ऐदन्क ऊन ॥१६४।। वरुषवे म भत्नाल्कु लक्ष ॥१६॥ दिरविगे हदिनाल्कु ऊन ॥१६६॥ एरडने अजितर पूर्वे ॥१६७॥ सरियाद् प्रोमबत्तुगळ् ऐदु ॥१६८।। पर अंगवेम्भत्नाललक्ष ॥१६॥ दरविनोळे रडक ऊन ॥१७०॥ बरुषगळेम्भनाल लक्ष ॥१७१॥ दिरबिनोळून हन्नेरडु ॥१७२॥ पुरुदेव पूर्व लक्षपळ्गे ॥१७॥ सिरियोम्दु ऊनबादक ॥१७४॥ वरुषवेम्भनाल्कु लक्ष ॥१७॥ दिरविनोळ् साविर खन ॥१७६॥ इरब सिम्हगळ् अायुविनितु॥१७७॥ भरत खण्डद सिम्हवायु ॥१७॥ सन सिम्हगटार 11९५६॥ सिरियू पश्चादानु पूर्वी ॥१८०॥ इरु वष्ट महाप्रातिहार्य ॥१८॥ दिरविनोळ् पडिहार मूरु ॥१२॥ बरुवन्क सिम्हलांछन ॥१८३॥ गुरु बोरनाथ भूवलय ॥१८४॥ गुरु मुनि सुव्रत नमिय ॥१८॥ वर सिम्हदुपदेश बेरडु ॥१८६॥ परम्परे सिम्ह भूवलय ।।१८७॥
(पश्चादानु पूर्विय महावीर भगवान वाहन का सिम्ह और सिम्हासन के तीसरे प्रातिहार्यके सिमहको जिन्दे वरुष (१०) वश,) (पाच नाथके ३ मे प्रातिहार्य को सिम्हन आयु वरुष ६६८, इसी तरह पाये भी गिनती कर लेनी चाहिए)
: वा* सव निर्मित समवसरण बाळ्व । लेतिन कालदन्कगळम् ।। प्रा* सरेयष्टिह भरत खण्डद सिम्ह । दाशेय प्रातिहायक ॥१८॥ सबै म नाल्कु पादमळादर एन्टिह । कर्म सिम्हव कायवकव चा* विमल ज्ञानवृषभादितीर्थकयक्ष । रमल यक्षियर रक्षितवु ॥१८॥
* गुटरणवाद्य गोवदन चक्रेश्वरि । घन महायक्ष रोहिणी * पा । मरिगत्रिमुखनुप्रज्ज्ञातियक्षेश्वर । जिनयक्षिवज्रभृखलेयु॥१०॥ टि* तुम्बुर बज्रांकुश राग । मुद मातंग यक्षांक ॥ सद य अनातन पत्नि अप्रति चक्र शि। ठिद विजय पुरुषदत्ते ॥१९॥ २% व अजित मनोवेगे ब्रह्मनु काळि । सवरण ब्रह्म श्वरर् प्रादा नव ज्वालामालिनि देवियु हल्तक । इविकुमार महाकाळि ॥१२॥ च, रितेय षण्मुखम् गरि हन्नेरडंक । नव पातालरवर न यक्षा प्रवन गान्धारियु किन्नर वइरोटि। नवकिम्पुरुष सोलसे ॥१९॥ सी व गारुड मानसि देवि हदिनारु । नव गन्धर्य यक्षेश ॥ नव या महा मानसि देबिहदिनेल । सवरण कुबेर देवि जया ॥१९॥ हमें रुषद वरुणनु विजया देवो । सिरि भकुटि अपराजितेयु ॥ वर * हा गोमेध बहुरूपिरिण देवि । सिरि पार्शव कुछमाण्डिनियु ॥१९॥ स रण मातंग पद्मावति देवियु । वर गुह्यक सिद्धायिनियु ॥ ना रक तिरियु गतिगे सल्लद इव । सार भव्यर जीव देवर ॥१६॥ SHRS विरदेन्टु बलगळ तावरेयनु । कावुत तलेयोळू हात्त ॥ तानु ईल. नाल्मोग सिम्हरूपव काव्य । पावन यक्ष पक्षियह ॥१७॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिदि संघ, मंगलोर-बिल्ली दवन यक्ष यक्षियरु ॥१६॥ बेविन हूवनित्तवह ॥१६॥ तावरे हूविन रसदे ॥२०॥ ई विश्व रसव कायदवा ॥२०॥ जोवकोटिगळ काय्दवरु।२०२॥ कावरु अणुव्रत पळनु ॥२०३॥ तावु बेट्टगळ तावरेय ॥२०४॥ ईवरु नेलद तावरेय ॥२०॥ श्रीबोर जलद तावरेय ॥२०६॥ ई विध मूरु तावरेय ॥२०७काविनोळ रसमरिणसिद्धि।।२०।। गोवरु हुबिन वरव ॥२०६।। कावर हवेप्पत्तेरडम् ॥२१०॥ तावु सिमहगळ लेक्कलि ॥२१॥ कापरु भरतार्य भुविय ॥२१२॥ कावरु महातिगळनु ॥२१॥ श्री वीर विक्रम बलरु ॥२१४॥ जीव हिमसेयनु निस्लिपरु ॥२१॥ कावरहिम्हिसेय बलदि ।।२१६॥ साबु दर्शनिकरागिरुत ॥२१७॥ फावर प्रतिकादि नेलेय।।२१८॥ श्री बोरवाणि सेवकरु ॥२१६॥ तावरे दलगनोलिहरु ॥२२०॥ देव बैंक्रियकषि धररु ॥२२१॥ कावरु प्रौदारिकर ॥२२२॥ देव देवियर तिवरु ॥२२३॥ पावन धर्म होतबर ॥२२४॥ नोवुगळळलनिल्लिपरु ॥२२५।। श्री वीर देव पूजकरु ॥२२६।। ताधु सिद्धरनु सेविसलि ॥२२७॥ श्री धीरगणितव कायद॥२२॥ दव देवियर भवलय ॥२६॥
श्री वीर सिद्ध भूवलय ॥२३०॥ इस रुख श्री समवसरण नाल्मोग सिम्ह । अरुहन पाद कमल श री ।। सरद नालियहोत्तुतिरुगुत बरुतिर्प । सिरिय देवागम पुष्पा२३१॥ गि* डवु अशोकवु पोडविय भव्यर : सगरवनु बधिसिरे श् री* जडद देहद रोग अातंक बाधिक्य । मडिय सायुगळनु केडिसि ॥२३२॥ दा नगळन्नेल ज्ञानदाळडगि । आनन्दवनेल्ल तरिसि ।। शाने पु* व्यवनोव पुष्पवृष्टियनीडु । वा नम्र प्रातिहाकि ॥२३३॥ लक मणवाद चामर अरबत्नाल्कु । सदर अरवलाए । क्षयवरदंक नवम दिव्य ध्वनि ! रक्षिपुन प्रोम् मोमबत्तुगळ ॥२३४।।
तक्षण कर्म विनाश ॥२३५॥ सिक्षिप हन्नेरडंग ॥२३६।। हकवेळ मूवत् एरडम् ॥२३७।। प्रकटवादेरडु काल्तूरु ॥२३॥ ईक्षिप भामन्डलांक ।।२३९॥ लक्षद दुन्दुभिनार ॥२४०11 रक्षयद्वादश गणवे ॥२४१॥ अक्षरदंक हन्नेरडु ॥२४२॥ अक्षर वेद हन्नेरडु ॥२४३॥ लक्षिप प्रातिहार्याष्ट ॥२४४॥ अक्षरदष्टु मंगलव ॥२४॥ शिक्षण काव्यांक वलय ॥२४६।। श्रीक्षण मना प्राभृतवु ॥२४७॥ अक्षरदरक सान्गत्य ॥२४८॥ कुक्षि मोक्षद सिद्ध बंध ॥२४६॥ अक्षय पद प्रातिहार्य ॥२५०।
शिक्षण लब्धान्क शून्य ।।२५१॥ अक्करदन्क भूवलय ॥२५२।। शिक्षण ग्रन्थ भूवलय ॥२५३।। * रितव हरिसुव प्रष्ट मन्गल द्रव्य । धेरसि प्राभूत पर दवदनु ।। परमात्म पादद्वयद एन्टक्षर बरेदिह पाहु ग्रन्थ २५४।। तिक रेय जमबू द्वीपद् एरड्डु चन्द्रादित्य । रिहवष्ट रूप द* अमल।। सरसिजाक्षरकाच्यगुरुगळऐवर दिव्या करयुगवानांक प्रन्या २५॥ भाक्ष रत वेशदमोघ वर्षषनराज्य । सारस्वतवेमबन्ग ।। सारा न क गरिएत दोळक्षर सक्कद । नूरु साबिर लक्ष कोटि ॥२५६।। या हातिराप्नसहाम्सिएन्द[अष्टम मुक्काल। सारविकेरडेऊन।स् तर अन्तर हदिनेछु साविरगळ्गे। सार[नेर नाल्बत्नाकुम्मनम् ।।२५७।।
८ने ऊ ६७४८+ अन्तर १६६५६=२५७०४ -१८=k अथवा असे 'ॐ' तक १,२६,७३८+ऊ २५७०४-.१,५२,४४२। ऊपर से नीचे तक प्रथमाक्षार पढ़ते पाने से प्राकृत गाथा बन जाती है वह इस प्रकार है ऊरएपमारणंबंड कोडितियं एक बोसलक्खाणं । बासट्टचेसहस्साइगिवालदुति भाया 1॥७॥ अगर बीच में से लेकर पढ़े तो-क्रमशः ऊपर से नीचे सक पढ़ने पर इस प्रकार संस्कृत निकलती है.उनको रचनानुसार लेकर, प्राचार्य श्री कुमव कुम्व प्राचार्यावि बामनाय से श्री पुष्पदंत...
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आठवां अध्याय
अब इस अध्याय में सिंहासन 'नाम के प्रातिहार्य का 'विशेष' व्याख्यान , थे वह सिंह है ? अथवा सर्व साधारण जिस पर बैठते हैं वह सिंह है ? अथवा के उपयोग में मानेवाले अतों का वर्णन किया जा रहा है। नवम अङ्क जिस | सजातीय विजातीय एक वरात्मक अनेक वर्णात्मक विभिन्न वनों में नाना प्रकार प्रकार परिपूर्णाङ्क है उसी प्रकार भगवान का सिंहासन भी परिपूर्ण महिमा से निवास करते हैं वह सिंह हैं क्या? या इन सभी से एक निराले प्रकार वाला होता है। उस पर जबकि भगवान विराजमान है। अतएव भब्ध जल का सिंह है? कौन सा सिंह ! इन सब शमानों का उत्तर नीचे दिया जाता तेनमः कहते हैं जो कि तीसरा प्रातिहार्य है।
है।४-६-७ । श्री जिनभगवानसिंहासन पर विराजमान रहते हैं प्रतएव यह सिंहासन। ऊपर छह तरह की शंका है। भी भव्य जीवों का कल्याण करने वाला होता है । जिनेन्द्र भगवान का होना तो उसके उत्तर में भाचार्य महाराज कहते हैं कि यह निर्जीव सिंह है। फिर बहत मोटी बात है बल्कि जिन भगवान की प्रतिमा भी जिस सिंहासन पर भी दर्शक लोगों के अन्तरङ्ग में जिस जिस प्रकार का कषायावेश होता है उसी विराजमान हो जाती है तो उस सिंहासन की महिमा अपूर्व बन जाती है। यदि रूप में उसका दर्शन होता है। -१०-११ । स्वयं श्री जिन भगवान या उनकी प्रतिमा ये दोनों भी न हों तो अपने अन्तरङ्ग । वह सिंह शुद्ध स्फटिक 'मणिका' बना हुआ है। में ही भाव रुपी सिंहासन पर भगवान को विराजमान करके गणित से गुणा करते उस पर भगवान विराजमान होते हैं। १३ से १४ तक हुये उस काल की महिमा को प्राप्त कर लेना । १।।
जिस सिंहासन पर भगवान विराजमान होते हैं वह सिंह भी कर्माटक है नवम, अष्टम, सप्तम, षष्ठ, पञ्चम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीत, प्रथम और कौ का नष्ट करने वाला है और जब भगवान उस सिंहासन पर से उतर शून्य इस रीति से नवकार सिंहासन है।२।
कर चौदहवें गुण स्थान में पहुंच जाते हैं तब भगवान की कर्माटक (सर्वजीवों के इस प्रकार नवकार सिंहासन को सिद्धि के विषय में अनेक तरह की । कर्माष्टक को नष्ट कर देने वालो) भाषा रूपी दिव्यध्वनि भी बन्द हो जाती है। शंकायें उत्पन्न होती हैं। उन सब में पहली जो शङ्का है उसको हम यहां पर। यह भगवान के आसन रूप में आया हुआ सिंह मुनि के समान शान्त दीख पड़ता पूर्व पक्ष रूप में लिखते हैं। और उसका सिद्धान्त मार्ग से उत्तर देते हैं जो कि है। १५ से १७। भव्य जीवों के लिये सन्तोष जनक है। ३।।
यहां पर सिंह को प्रासन रूप में क्यों लिया? इसका उत्तर यह कि सिंहासन यह समासान्त 'शब्द है जो कि सिंह और आसन इन दो वाब्दों :
दिगम्बर जैन मुनि लोगसिंह के समान शूर वीरता पूर्वक क्षुषातृषादि वाईस परीसे बना हुआ है। उनमें से अगर आसन शब्द को हटा दिया जाय तो सिर्फ !
षहों का सामना करते हैं और उन पर विजय पाते हैं। १८ । सिंह रह जाता है यही वाद विवाद का विषय है । ४ ।
योगी लोग अपने मात्मानुभव के समय में इस सिंह के द्वारा क्रीड़ा किया
करते हैं । १६ । सिंह जो कि बन में विचरण करता है जिसके कन्धे पर सटा की छटा ।'
संसार का अन्त करनेवाले चरम जन्म में इस सिंह को प्राप्ति होतो रहती है जिसे देखते ही मानव भयभीत हो जाता है क्या यहां पर वही सिंह है? अथवा वर्द्धमान जिनेन्द्र का जो लाम्छन ( चिन्ह ) रूप है वह सिंह है ! या अनादिकाल से आज तक के भव्यों को यह सिंह अन्तिम भव में ही मिलता लेप्य कर्मात्मक (चित्र) सिंह है ! अथवा अरहन्त भगवान् जिस पर विराजमान आया है और आगे अनन्त काल तक होने वाले भव्य जीवों को भी अन्तिम
शून्य सिंहासन, दन्त सिंहासन, रत्न सिंहसन, शारदासिंहासन इत्यादि नामों से गुरू पीठ या राज पीठ भाज भी दक्षिण में महिशूर (मैसूर) में क्रमशः चित्र वर्ग, दिल्मो, मारभूषनरसिंह राव मूत, पचणवेश गोल पोर मनेरौं मावि स्थानों में मौजूद है।
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- सिरि मधलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ रंगलौर-विक्सी जन्म में ही इसकी उपलिब्ध होगी । २१ ।
श्री धर्मनाथ भगवान के सिंह को ऊँचाई ४५ धनुष प्रमाण है । ३७ । . वर्द्धमान जिन भगवान भी एक प्रकार से सिंह हैं । २२ ।
श्री दिव्य शांतिनाथ भगवान के सिंह की ऊँचाई ४० धनुष प्रमारण इस सिंहासन प्रातिहार्य से वेष्टित हुआ यह भूवलय ग्रन्थ है। २३।। है। ३८। . अंब इस सिंह की ऊंचाई आदि के बारे में बतलाते हैं।
श्री कुंथुनाथ भगवान के सिंह को ऊँचाई ३५ घनुष प्रमाण है । ३६ । भगवान समवशरण में एक मुख होकर भी चार मुसा वाले दीख पड़ते
श्री अर्हनाथ भगवान के सिंह की ऊँचाई ३० घनुप प्रमाण है । ४०।। हैं उसी प्रकार यह प्रासन रूप सिंह भी एक होकर भी चार चार मुंह दीखा श्री मल्लिनाथ भगवान के सिंह की ऊंचाई २५ धनुष प्रमाण करता है। इस सिंह की ऊँचाई भगवान के शरीर प्रमाण होती है। २४ ।।
आदिनाथ भगवान के चरण कमलों के नीचे रहने वाले सिंह की ऊँचाई श्री मुनिसुव्रत तीर्थकर के सिंह की ऊंचाई २० धनुप प्रमाण है । ४२ । पांच सौ धनुष की थी । २५ ॥
श्री नमिनाथ भगवान के सिंह की ऊँचाई १५ धनुष प्रमाण है । ४३। घण्टा के बजाने से जो टन टन नाद होता है उसको परस्पर में गुणाकार श्री नेमिनाथ भगवान के सिंह की ऊंचाई १० धनुष प्रमाण है। ४४॥ करते जाने से जो गुणनफरन पाता है वही श्री अजितनाथ भगवान के साढ़े चार
श्री पाश्र्वनाथ भगवान के सिंह को ऊँचाई ६ हाथ प्रमाण है। ४५/ सो (४५०) धनुष सिह का प्रमाण है । २६ ।
अन्तिम तीर्घकर श्री महावीर भगवान के सिंह की ऊंचाई ७ हाथ तत्पचात् श्री संभवनाथ भगवान का ४०० धनुष श्री अभिनन्दन का प्रमाण ह। १६ । साढ़े तीन सौ (३५०) वनुष तथा श्री सुमतिनाथ भगवान् का ३०० धनुष सिंह, उपयुक्त २४ तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान से का प्रमाण है। २७ ।
लेकर २२ व तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान पर्यन्त धनुष की ऊँचाई है । ४७ । थो पद्मप्रभ भगवान् का २५० धनुषप्रमाण सिंह की ऊँचाई है । २८।।
उपर्युक सभी घङ्क गुणाकार से प्राप्त हुये हैं । ४८ । श्री सुपापर्वनाथ भगवान का दो गौ ( २०० ) धनुष ऊँचा सिंह का
श्री पार्श्वनाथ भगवान तथा महावीर भगवान के सिंह की ऊँचाई का प्रमाण है । २६
प्रमाण धनुष न होकर केवल हाय ही है । ४६ । आठवें श्री चन्द्र प्रभु भगवान के सिंह की ऊंचाई १५० धनुष प्रमाण
इस अंक को साघन करने वाला भूवलय ग्रन्थ है। ५० ।
प्रागे भूवलय के कोष्ठक बंधांक में मिलने वाले अक्षर को दाशमिक .नौवें श्री पुष्पदन्त भगवान के सिंह की ऊँचाई १०० धनुष प्रमाए।
(दशम) क्रम से यदि गणित द्वारा निकालें तो पाठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु है।३१)
पर्यन्त जो सिंह का वर्णन किया गया है बह निर्मल शुभ्र स्फटिक मणि के समान श्री शीतलनाथ भगवान के सिंह की ऊँचाई १० धनुष प्रमाण है । ३२।। है । इस प्रकार
है। इस प्रकार इस स्फटिक मरिणमय वर्ण के सिंह का ध्यान करने से ध्याता श्री.श्रेयांसनाय भगवान के सिंह की ऊँचाई घनष प्रमाण है। 301 को अभीष्ट फल की प्राप्ति हाता है। ५१ ।। श्रो वासुपूज्य भगवान के सिंह की ऊँचाई ७० धनुष प्रमाण है । ३४। इसी गरिएत को आगे बढ़ाते जाने से भगवान पुष्पदन्तादि दो तीर्थकर श्री विमलनाथ भगवान के सिंह की ऊँचाई ६० धनुष प्रमाण है ।३५श के सिंह लांछन का वर्ण कुन्द पुष्प के समान है ५२ । श्री अनन्त नाथ भगवान के सिंह की ऊंचाई ५० धनुष प्रमाण है ।३।। श्री सुपार्श्वनाथ तथा पाश्वनाथ भगवान के सिंह का वर्ण हरित है, श्री
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सिरि भूवलय
मर्वार्थ सिद्धि संप मैगनौर-दिल्ली सुत्रत तीर्थकर के सिंह का वर्ण नील है तथा श्री नेमिनाथ, पद्मप्रभु और वासु- इस पर्वत पर रहने वाले जैन मुनियों के पास सभी धर्मवाले पाकर पूज्य इन तीनों तीर्थंकरों के सिंह का वर्ण रक्त है । ५३ ।
धर्म के विषय में पूछताछ करते थे और समाधान से सन्तुष्ट हो जाते थे इसलिए पाठ तीर्थंकरों के सिंहों का वर्ण श्वेत, पीत, नील तथा रक्त वर्ष का , इसको तीन सौ सठ धर्मों का सहचरगिरि भी कहते हैं 1६४४ है किन्तु शेष सोलह तीर्थंकरों के सिंहों का वर्ग स्वर्ण रम तथा स्फटिक मरिण मुनियों के नाना गरा गच्छों की उत्पत्ति भी इसी पर्वत पर हुई थी के समान है ।५४॥
इस लिये इस गिरि का नाम गुरु गण भरत गिरि भी है ।६५। महावीर भगवान का सिंहासन स्वर्ण मय तथा प्रादि तीर्थकर श्री आदि- जिन गङ्ग वंशी राजाओं का वर्णन ऋग्वेद में पाता है वे सब राजा नाथ भगवान का नन्दी पर्वत पर स्थित मिहासन स्वर्ण मय है। क्योंकि यह । जैन धर्म के पालने वाले थे तथा गणित शास्त्र के विशेषज्ञ थे। उन सब राजायों स्वाभाविक ही है, कारण यह स्वर्ण उत्पति का ही देश है। यह नन्दी पर्वत की राजधानी भी इस पर्वत के प्रदेश में हो परम्परा से होती रही थी इसलिए अनादि काल से लोक पूज्य है ।५.५।।
। इस का गंग राजानों के गणित का मिरि भी कहते हैं।६६। गंग वंशीय राजा इस अनादि कालीन पर्वत को पूज्य मानते थे ।५६।। विद्याघरों को भांति इस पर्वत पर अनेक मान्त्रिकों ने विद्यायें सिद्ध की
महावीर भगवान के निकट नाथ वंशीय कुछ राजा दक्षिण देश में आकर थी इसलिए इसको गहन विद्याओं का गिरि भी कहते हैं । ६७। नन्दी पर्वत के निकट निवास करते थे वे "नन्द पुद" कुलवाले कहलाते थे।५७।। इस पर्वत के पाठ शिखर बहुत ऊंचे ऊंचे हैं। इसलिए इसको अष्टापद
महावीर भगवान के कुल में मेव्य होने के कारण इस नन्दीगिरि को महति । भी कहते हैं । इस पर्वत पर से नदी भी निकल कर बहती है तथा इस पर्वत महावीर नन्दी कहते हैं ।५८
पर अनेक प्रकार की जड़ी बूटी भी हैं जिनको देखकर लोगों का मन प्रसन्न अनेक जैन मुनियों का निवास स्थान होने से इस पर्वत को इह लोक का हो जाता है और हंसी आने लगती है । इसलिए इस पर्वत का नाम 'हंसो पर्वत मादि गिरि भी कहते हैं । ५६॥
भी है ।। अनेक सूक्ष्म गणित शास्त्रज दिगम्बर जैन मुनि यहां निवास करते थे जिस प्रकार सभी अहमिन्द्र एक सरीने सुखी होते हैं उसी प्रकार इस इसलिये इस गिरि का 'सुहमांक गणित का गिरि' भी नाम है 1६०। पर्वत पर रहने वाले लोग भी सुखी होते हैं। इसलिए इसको भूलोक का
इस पर्वत पर निवास करने वाले ब्राह्मण क्षत्रिय महर्षि लोग उग्र-उग्र तपस्या | अहमिन्द्र स्वर्ग भी कहते हैं ।६६। करने वाले हो गये हैं जिनको घोराति घोर उपसर्म आये हैं फिर भी क्षत्रियत्व कल्प वृक्ष कहां हैं ऐसा प्रश्न होने पर लोग कहा करते थे कि इस नन्दी के तेज को रखने वाले उन महर्षियों ने उन उपद्रवों का सहर्ष सामना किया गिरि पर है इसलिए इसका नाम 'कल्पवृक्षाचल' भी है 1७०) था और उन पर विजय पाई थी। इसलिए इसको महाबत भरतगिरि भी कहते कल्वप्यूतीर्य, कावलाला और तालेकाया यह सब नंदी गिरि पर राज्य हैं यहां पर भरत के माने शिरोमणि के हैं । ६२।।
करने वाले गंग राजाओं की राजधानी भी थी ।७१-७२। इन महपियों को सिहनिःक्रीहितादिसरीखी तपस्या को देखकर आश्चर्य विशेष विवेचन-जहां पर जगदाश्चर्यकारी श्री बाहुबली की प्रसिद्ध चकित होकर अनेक अव्रती लोग भी अणुव्रतादि स्वीकार करते थे इसलिये इस मूर्ति है जिसको भाज धवण वेलगोल कहा जा रहा है उस क्षेत्र को पहले कल्वपर्वत को अणुव्रतनन्दी भी कहते हैं।
प्युतीर्थ कहते थे वह प्रदेश भी मंग राजामों की अघोनता में था जो कि नान्दी इस पर्वत पर रहने वाले मुनि लोग अनुपम क्षमाशील हो गये हैं इसलिये। गिरि से एक सौ तीस मील पर है और नन्दी गिरि से तीस मील की दूरी पर इस पर्वत को 'सहन करने वाले गुरुओं का गिरि' भी कहते हैं ।६३१
एक कोवलाला नाम तीर्थ था जिस को आज 'कोलार कहते हैं जिस पर सोने
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ वालोर-विस्ती
की खानि है तथा नन्दी गिरि से हेढ़ सौ मील दर पर ताले का नाम का गांव पूर्व गंग वंश के राज्य काल में भी यह चतुर्मुखी सिंह भारत का राज्य चिन्ह है जो कि पूर्व में इन गंग राजामों की राजधानी था। इसके तालेकाडू के आस- रहा है । यह सिंह ध्वज का लांछन चिन्ह चौबीसों तीर्षकरों के समवशरण में पास में मलपूर नाम का एक पहाड़ है जिस पर पूज्यपादाचार्य के आदेश से रहने वाला होने के कारण अथवा प्रत्येक तीर्थकर के समय में होनेवाले सिंह इन्हीं गंग राजाओं के द्वारा बनाया हुआ विशाल जिन मन्दिर है तथा पद्मावती की आयु, मुख, प्रमाण, देह प्रमाण आदि का विवरण इस भूवलय अन्य के की मूर्ति भी है जिस मूर्ति की बड़ो महिमा है। जैन हो नहीं अजैन लोग अपना इसी अध्याय में आने वाला है । अतः प्रमाणित होता है कि यह चतुर्मुखी सिंह इच्छित पदार्थ पाने की इच्छा से उसको उपासना किया करते हैं और यथोचित का चिन्ह बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा है। फल पाकर संतुष्ट होते हैं । इसी नन्दी गिरि से पांच मील दूर पर यलब नामक इस मन्दिर के ऊपरी भाग में मृग, पक्षी, मानव आदि के सुन्दर चित्र एक गांव है जो कि पूर्व जमाने में एक प्रसिद्ध नगर के रूप में था। वहीं पर बनाए हुए थे। उन सब में वीर थी का घोतक यह सिंहासन था। यह सब कुमुदेन्दु भाचार्य रहते थे। यलव के मागे भू लगाकर उसे प्रतिलोम रूप पढ़ने । भरत चक्रवर्ती का चलाया हुमा चकांक क्रम था ७७ से भूवलय हो जाता है।
यह सिंह बीर जिनेन्द्र का वाहन (पगचिन्ह) था और प्रातिहार्य भी यह नान्दी गिरि प्राचीन काल से श्री वृषभनाथ के समय से बहत बड़ा था। जैन धर्म, क्षत्रिय धर्म, शौर्य श्री, सारस्वत श्री इन सब विद्याओं का पुण्य क्षेत्र माना गया है ।७३।
प्रतीक यह सिंह था ।७८) महावीर भगवान का सिंहासन सोने का बना हुआ था और महद आदि यह सिंह समचतुरस्र संस्थान और उत्तम संहनन से युक्त रचना से ऋषम जिनेन्द्र को प्रतिमा के नीचे रहने वाले सिंहासन का सिंह भी सोने का बना हुआ था, एवं मंगलरूप था, विमल था, वैभव से युक्त था, भद्रस्वरूप पा ही है। क्योंकि इस पर्वत के नीचे सोने की खान पाई जाने से मंगल ख्य बतलाने तथा भगवान के चरणों में रहने से इस सिंह को शिव मुद्रा भी कहते हैं।७ वाला सोने की वस्तु बनाने में क्या आश्चर्य है । इस पर्वत में ही भूवलय ग्रन्थ ऋषभ प्रादि तीर्थंकरों से क्रमागत सिंह की आयु और ऊंचाई, चौड़ाई को आचार्य कुमुदेन्दु ने लिखा है ।७४।
सब घटती गई है। अन्यत्र ईश्वर इत्यादि का वाहन भी सिंह प्रतीक दीख . भगवान के चरणों के नीचे रहने वाले सिंह के ऊपर के कमलों की पड़ता है।८०-८१। बत्तीस लाइनें हैं जिनमें एक-एक लाइन में सात-सात कमल हैं। (३२४७= भगवान के इन सिंहों को नमस्कार करने से सौमाम्य की प्राप्ति होती २२४) कमल हुए। भगवान के नीचे रहने वाले एक कमल को मिलाकर २२५ है । कमल हो जाते हैं। उन कमलों का श्राकार स्वर्ण से बनाकर नन्दी पर्वत के
सब सिहों में समवशरण के अम भाग में रहने वाले सिंह को ही पग्रभाग में बनाये हुए विशाल मंदिर में गंग राजा शिवमार ने रखा था ।७५ लेना ।३।
दया धर्म रूपी धवल वर्ण भगवान का पादद्वय कमल के ऊपर एक सिंह के चार पैर होते हैं। अब यहां चारों तरफ प्राउ चरण दीन विराजमान था । वहाँ सिंह का मुख एक होते हुए भी चारों तरफ चार मुख पड़ते है ।८४॥ दीखते थे, क्योंकि यह चतुमुंखी सिंह के मुख का चिन्ह गंग राजा का राज्य प्रत्येक सिंह के मुख पर केश विशालता से दीख पड़ते है। चिन्ह अर्थात् भरत खण्ड का शुभ चिन्ह था ।७६।
इस सिंह को इतना प्राधान्य क्यों दिया गया? इसका उत्तर यह है कि विवेचन--माज के भारत का जो राज्य-चिन्ह चौमुखी सिंह है वह । भगवान के ८ प्रातिहार्यो में एक प्रातिहार्य होने से इसका महत्व इतना हुआ। अशोक चक्रवर्ती का राज्य चिन्ह था, ऐसी मान्यता प्रचलित है। अशोक से भी। एक सिंह होते हुए भी चार दीख पड़ने से गणित शास्त्र के क्रमानुसार
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सिरि भवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली समांक को विषमांक से भाग देने से शून्य आ जाता है।८७)
इस गजेन्द्रनिष्क्रीड़ित महातप को करने वाले महात्माओं के महाव्रतों नाट्य शास्त्र के अभिनय के लक्षण में इस सिंह का भाव प्रकट करें तो में अपूर्व शुद्धि भी प्राप्त हो जाती है ।१५॥ अहिंसा का भाव पैदा होता है ।
ऐसा कहने वाला यह निर्मलांक महाकाव्य भूवलय है । पाहुट ग्रन्थों में इस सिंह प्रातिहार्य को श्रमहारक लांछन माना गया मध्य सिहनिष्क्रीडित एक से पाठ मंक तक का प्रस्तार बनाना चाहिये।
उसके शिखर पर अन्त में (मध्य में) नौ का मंक मा जाना चाहिये और जघन्य चारों ओर रहने वाले सिंह के मुख समान होते हैं ।
निष्क्रीडित के समान यहां भी दो दो अक्षर की अपेक्षा से एक एक उपवास का सिंह के समीप महावनियों के बैठने के कारण इस सिंह का भी महाव्रती
अंक घटाना बढ़ाना चाहिये । इस रीति से इस मध्य सिंहनिष्क्रीडित में जितनी सिंह नाम पाया है ।।
अंकों की संख्या हो उतने तो उपवास समझने चाहिये और जितने स्थान हों समवशरण में सिंहासन के पास महाव्रती बैठकर जो सिह निष्कोडित,
उतनी पारणा जाननी चाहिये अर्थात् तप करते हैं उसी के कारण इस को सिंह निष्क्रीड़ित कहते हैं । इसका नाम गज अग्रकीड़े अथवा गजेन्द्र-निष्क्रीड़त तप भी है १६३। ।
१२१३२४३५४६५७६८७८९ इस सिंह प्रातिहार्य को यदि नमस्कार करें तो अणुव्रत की सिद्धि हो । जाती है ।
८७-६७५६४५३४२३१२१ सिंहनिष्क्रीडित व्रत जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार का है। उनमें जघन्य सिहनिष्कोडित इस प्रकार है। एक ऐसा प्रस्तार बनाके कि अन्त में (मध्य में) उसमें पांच का अंक आ जाय और पहिले के अंकों में दो दो अंकों की सहायता से एक एक अंक बढ़ता जाय और घटता जाय इस रीति से जितने इस जघन्य सिहनिष्क्रीडित में अंकों के जोड़ने पर संख्या सिद्ध हो उतने तो उपवास समझना चाहिये और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिए अर्थात् इस प्रस्तार का
१२१३२४३५४५५४५३४२३१२१
यह आकार है। यहां पर पहिले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक. पारणा करनी चाहिये । पश्चात् दो में से एक उपवास का अंक घट जाने से एक उपवास एक पारणा, दो में एक उपवास का अंक बढ़ जाने से तीन उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवास का अंक घट जाने से दो उपचास एक पारण, तीन में एक उपदास का अंक बढ़ जाने से चार उपवास एक पारणा, चार में से एक उपवास का अङ्क घट जाने से तीन उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अङ्क बढ़ जाने से पांच उपवास एक पारणा, पांच में से एक उपवास का अंक घटा देने पर चार उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पांच उपवास एक पारणा होती है। यहां पर अन्त में पांच का अंक मा जाने से पूर्वाद्ध समाप्त हुआ। आगे उल्टी संख्या से पहिले पांच उपवास एक पारणा करनी चाहिए । पश्चात् पांच में से एक उपवास का भंक घटा देने पर चार उपवास एक पारणा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पांच उपवास एक पारणा, चार में से एक उपवास का अंक घटा देने पर तीन उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवास का अंक घटा वेने पर दो उपवास एक पारणा, दो में से एक उपवास का अंक बढ़ा देने से तीन उप-.. वास एक पारणा, दो में से एक उपवास का अंक घटा देने पर एक उपवास एक पारणा, पश्चात् दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा करनी चाहिये । इस जघन्य सिंहनिष्क्रीडित में अंकों की संख्या साठ है। इसलिए साठ उपवास होते हैं और स्थान बीस हैं, इसलिये पारणा बोस होती है। यह दिदि अस्सी ८० दिन में जाकर समाप्त होती है।
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सिरि भूवहाय
१२८
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इसके प्रस्तार का आकार इस प्रकार है। यहां पर भी पहिले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा करनी चाहिए। पश्चात् दो में से एक उपवास का अंक घटा देने पर एक उपवास एक पारणा, दो में एक उपवास का अंक जोड़ देने पर तीन उपवास एक पारणा, तीन में से एक का अंक घटा देने पर दो उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर चार उपदास एक पारणा होती है। इसी प्रकार जघन्य सिंहनिष्क्रीडित के समान आगे भी समझ लेना चाहिये। इसमें अंकों की संख्या एक सौ तिरपन है । इसलिए एक सौ तिरपन तो उपवास होते हैं और स्थान तैंतीस हैं। इसलिये तैंतीस पारणा होती है । इसलिये यह मध्य मिनिष्क्रीडित व्रत एक सौ छियासी दिन में समाप्त होता है ।
उत्तम सिंहनिष्कीडित एक से पन्द्रह ग्रंक तक का प्रस्तार बनाना चाहिये । उसके शिखर पर अन्त में (मध्य में) सोलह का अंक या जाना चाहिये और उपर्युक्त सिहनिकीडितों के समान यहां पर भी दो दो अक्षरों की अपेक्षा से एक एक उपवास का अंक घटा बढ़ा लेना चाहिये । इस रीति से जोड़ने पर जितनी इसमें अंकों की संख्या सिद्ध हो उतने तो उपवास समझने चाहिये और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिये । इसके प्रस्तार का आकार १२१३२४३५४६५७६६७३१०६ ११ १० १२ ११ १३ १२ १४ १३ १५ १४ १५ १६ १५ १४ १५ १३ १४ १२ १३
११ १२ १० ११ १०८६७८६७५६४५३४२३१२१ इस प्रकार है । यहां पर भी पहिले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा करनी चाहिये । पश्चात् दो में से एक उपवास का अङ्क घटा देने पर एक उपवास एक पारणा, दो में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर तीन उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवास का अंक घटा देने पर दो उपवास एक पारणा, तीन में एक उपवास का अंक मिला देने से चार उपवास एक पारणा, चार में से एक उपवास का अंक घटा देने पर तीन उपवास एक पारा, चार में एक उपवास का अंक बढ़ा देने से पांच उपवास एक पारणा, पांच में से एक उपवास का अंक घटा देने से चार उपवास एक पारणा, पांच में एक उपवास का अंक जोड़ देने से उपवास एक पाररणा, छे में से
सर्वार्थ सिद्धि संघ मसौर-दिल्ली
एक उपवास का अंक घटा देने पर पांच उपवास एक पारणा, खै में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर सात उपवास एक पारणा, सातमें से एक उपवास का अंक घटा देने पर है उपवास एक पारणा, सात में एक उपवास का अंक मिला देने से आठ उपवास एक पारणा, आठ में से एक उपवास का अंक घटा देने पर सात उपवास एक पारखा, आठ में एक उपवास का अंक मिला देने पर नो उपवास एक पारणा, नी में से एक उपवास का अंक घटा देने पर आठ उपवास एक पारणा, नौ में एक उपवास का अंक जोड़ देने पर दश उपवास एक पारणा, दश में से एक उपवास का अंक घटा देने पर नौ उपवास एक पारणा, दश में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर ग्यारह उपवास एक पारणा, ग्यारह में से एक उपवास का अंक घटा देने पर दश उपवास एक पारणा, ग्यारह में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर बारह उपवास एक पारणा, बारह में एक उपवास का अंक मिला देने पर तेरह उपवास एक पारणा, तेरह में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर चौदह उपवास एक पारणा, चौदह में से एक उपवास का अंक घटा देने पर तेरह उपवास एक पारणा, चौदह में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पन्द्रह उपवास एक पारणा, पन्द्रह में से एक उपवास का अंक घटा देने पर चौदह उपवास एक पाररणा, पुनः पन्द्रह उपवास एक पारणा और सोलह उपवास एक पारणा, सोलह में से एक उपवास का अंक घटा देने से पन्द्रह उपवास एक धारणा, पन्द्रह में से एक उपवास का अंक घटा देने पर चौदह उपवास एक पारणा, चौदह में एक उपवास का अंक बढ़ा देने पर पन्द्रह उपवास एक पाररणा, चौदह में से एक उपवास का अंक घटा देने से तेरह उपवास एक पारणा, इत्यादि रीति से यागे भी समझना चाहिये । इस रीति से इस उत्तम सिहनिष्क्रीडित व्रत में प्रकों को मिलकर संख्या चारसो छियानवे है। इसलिए इतने तो इसमें उपवास होते है धीर स्थान इकसठ हैं इसलिये इकसठ पारणा होती है । यह व्रत पांच सौ सत्तावन दिन में समाप्त होता है ।
ग्रन्थकार ने तीनों प्रकार के सिंहनिष्क्रीडित व्रतों की संख्या और पारणा गिनकर बतलाने की यह सरल रीति बतलाई है। जघन्यसिह निष्क्रीडित व्रत में साथ उपवास और पारणा बतलाई है एवं उसका प्रस्तार पांच अंक तक
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१२॥
सिरि भूवलय
सर्वाप सिद्धि संघ बैंगलोर-विल्ली रखकर उनका आपस में जोड़ दें और जोड़ने पर जो संख्या आवे उसका चार छियानबे उपवास और पारणा इकसठ कही हैं। इसका प्रस्तार सोलह के अंक को से गुणा करदें, इस रीति से गुणा करने पर जो संख्या सिद्ध हो उतने तो उप-1 अधिक रखकर पंद्रह तक बतला पाये हैं। वहां पर भी एक से लेकर पंद्रह तक वास और जितने स्थान हो उतनो पारणा समझनी चाहिए अर्थात् इस जघन्यकी संख्या का प्रापस में जोड़ देने पर जितनी संख्या आवे उसका चार से गुणा सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत में एक से पांच तक की संख्या जोड़ने पर १५ होते हैं और करे और गणित मच्या में जो सोलह का अंक अधिक बतला माये हैं उसे बोड़ पंद्रह का चार से गुणा करने पर साठ होते हैं। इसलिए इतने तो उपवास है द और जोड़ गरणा करने पर जितनी संख्या निकले उतने इस व्रत में उपवास
और स्थान बोस होते हैं इसलिए पारणा बीस है। मध्य सिहनिष्त्रीडित में समझने चाहिए और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिए अर्थात् तिरेपन उपवास और तेतीस पारणा बतला पाये हैं और नौ के अंक को शिखर एक से पंद्रह तक जोड़ने पर एकसोबोस होते हैं। एकसौबीस का चार से गुणा पर रखकर पाठ अंक तक का प्रस्तार बतला पाये हैं । वहां पर एक से लेकर पाठ करने पर (१२०x४:४८०) चारसी अस्सी होते हैं और इनमें जो सोलह तक संख्या रखकर आपस में जोड़ दें और जोड़ने पर जितनी संख्या आवे उसका ! अधिक बतला पाये हैं उन्हें मिला देने से चारसौ छियानबे हो जाते हैं। सो चार से गुणा करें तत्पश्चात् गुणित संख्या में जो नौ गिरकर बलला बारसौ छियानवे तो इस व्रत में उपवास होते हैं और स्थान इकसठ है इसलिये पाये हैं उसे जोड़ दें इस रीति से जितनी संख्या सिद्धहो उतने इस मध्यसिंहनिष्को-1 पारणा इकसठ होती हैं। इस क्रम से जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट सिहनिष्क्रीडित डितमें उपवास हैं और जितने स्थान हैं उतनी पारणा है अर्थात् एक से पाठ की उपवास और पारणाओं की संख्या जाननी चाहिए । जो मनुष्य इस परमतक को संख्या का जोड़ देने पर छत्तीस होते हैं 1 छत्तीस का चार से गुणा पावन सिहनिष्क्रीडित व्रत का प्राचरण करता है उसे वजवृषभ नाराचसंहनन करने पर एकसौ चौबालिस होते हैं और उसमें मी जोड़ देने पर एकसी तिरपनाको प्राप्ति होती है, अनन्त पराक्रम का धारक हो, सिंह के समान वह निर्भय हो जाते हैं। इसलिए इस व्रत में एकसौ तिरेपन तो उपवास होते हैं और स्थान हो जाता है और शीघ्र ही उसे अणिमा महिमा आदि ऋद्धियों को भी प्राप्ति तैतीस हैं इसलिए तेतीस पारणा होती है। उत्तम सिंहनिष्क्रीडित में चारसी हो जाती है।
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ना अध्याय
ॐ काव्यदतिशय ज्ञान साम्राज्य । शरीकर वय्भव भद्र ॥ भू* फरवाद भूवलय सिद्धान्तके । ऊ काव्यवादियोळ् नमिपे ॥१॥ व शवा लोक अलोक भूवलयद । तरस नालियोळहोरगिरुख ॥ यश त* नियाद ज्ञानद धनवदनाळव । रसवे मन्गळद पाभरुतये ॥२॥ म नदि प्रकाशवाय सूर्यनो एमब । जिनदेवनन्तरदन ब बनुभव तावरेयग्र सिमहद अगर । बतुमेट्टबिरुव नाल्वेरळ ॥३॥ व तियोळु निदिह अथवा कुळितिर्य । स्थितिय दरत्यरिय शिक्षा के प्रतिक्षा मबननालकर काव्यदा हितदक्षरदनक ई॥४॥ र* सिकद बेवरिल्ल निजदेह निर्मल । होसदेहरक्त बिळिया सु* तसमाचक्त्र वषभ नाराचद। यशदादि समहननात्ग ॥५॥
वश सम चतुरस्रवेनिप ॥६॥ असमान देह समस्थान ॥ यात्रनुपमरूप कादति ॥ रसग्रन्थ सम्पगेयन्व ॥६॥ यशद साबिरदेन्टु चिन्ह ॥१०॥ यश बल वीर्य अनन्त ॥११॥ हस गित मधुर भाषरणतु ॥१२॥ दशभेदतु स्वाभाविक ॥१३।। वशथिवु जननातिशयवु ॥१४॥ रसद हत्त अन्कद चिन्हे ॥१५॥ विषहरदमरुत शरोर ॥१६॥ कुसुमदग्रद जिन देह ॥१७॥ ऋषिगळाराधिप देह ॥१८॥ जसवे महोन्नत देह ॥१६॥ रससिद्धि गादिय देह ॥२०॥ विशमसमान कद बेह ॥२॥
कुशदग्र बुद्धिधिदेह ॥२२॥ रसरवन मूरात्म देह ॥२३॥ उसहादि महावीर देह ॥२४॥ यशविह काव्य भूवलय ॥२५॥ भू वलयवनेलल नालकु विशेगळलि । काबुत नूरु योजनद । ठाय रा* मुभिक्षतेयनउन्टु माडुत । ताउ आकाशदे गमन ॥२६॥ वर रे हिस्सेय अभाव उण्णद लिस्बन्थ । परिपरियुपसर्ग धरिस॥ रिरुवनाल्दिशेमुखनेरळबीळदलिह। परियन्दरेप्पेयनोट ॥२७॥ ल- कक्स विड्येमळेल्लर ईश्नत्व । रकषिप उगुर कोळविह।। रक्षिसि कूरलु समनागिरपुदु । रक्षेय हदिनेन्टु भावे ॥२॥
र शद सिपियन्क कषुदर एछन अनक । वश समज्ञरिजीव प्रा वाय।। यशचनकाक्षर अक्ष भाषामय । बशभष्यपुपदेशवीबार॥ मानद अस्खलित सधभावद अनुपम । चनधिघोषद दिव्य त * प्राद। जिनरदिव्यध्वनिमूस्सन्जयेबर्प । धनझोम्चतमुहरतपळ॥३०॥
सनिस तुटियळाटलि ॥३१॥ जनिसे सललुगळाट रहित ॥३सा धन तालु पोष्ट बेकिल्ल ॥३३॥ जनकेल्ल प्रोम्वे समयदि ॥३४॥ जिनतुपदेशवागुयुदु ॥३५॥ धन प्रोमदु योजन हरिदुम् ॥३६॥ गणधर परशनेगुत्तरदे ॥३७॥ जिनवारिण बेकागे बहुदु ॥३॥ मनुज चक्रियप्रश्नेयन्ते ॥३६॥ जिनवारिण युत्तर बहुदु ॥४०॥ कोनेमोदलननु तुळुवुदु ॥४१॥ धनद्रव्य प्रारम पेळूवुः ॥४२॥ धन तत्व एकर कथन ॥४३॥ दनुभव नववस्तु कथन ॥४४॥ तनि ऐद यास्थिकायगळम् ॥४५॥ धन हेतुळिम पेन्दु ॥४६॥
जिन विव्यध्वनि सार ॥४७॥ कोनेय प्रमारण भूवलय ॥४८॥ तिक रेयोळाश्चर्यद हतप्रोमद् अतिशय वेरसिद जिन देव य शदा परियुकेवलज्ञानवागतुबरुबुदु । प्रहगे पातिब कवदि ven य वेय काळिन अष्टकर्मवु निलदिरे । सवेयदलिह अनुभव म । अवतारदनिशयहोमवर् अम्बके । सघि धातिक्षयातिशय ॥५॥ र सदात्मनेनुबरहनत पप प्राप्त । यदिव्यात् मनन न* तावश गुरणसमधनाद तेजोनिधि । रससिद्धिगादिय वस्तु ॥११॥ ए वकार मन्तरद मुरुमूरलोम्बत्त । रवरलि गुणाकार च क षु। विवरदद्षटिभेदमळनुतिळिविह । नवकारवतिशय वस्तु ॥५२॥
३४३ = E जवननोडिप दिव्य चक्षु ॥५३॥ नवकारकादिय वस्तु ॥५४॥ सुविशाल जगद साम्राज्य ॥५॥ - नवनबोदित दिव्य ज्योति ॥५६॥ कविगे सिक्कद दिव्य रूप ॥७॥ अवयव सुपवित्र पूतम् ॥५॥
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सिरिमूवलय
घे
जयम्जन हररपद रूप सुविशाल दिव्यवय् भवतु ॥ ६०॥ गवसरिपगेयळिव बेह ॥ ६१ ॥ सविवचनाम् रुत शरधि नवपद भक्तिय शुद्धि ॥ ६३ ॥ नवपद भकूतिय सिद्धि ॥ ६४ ॥ नवपद ज्ञानद शक्ति ॥ ६५ ॥ नवदम्क सिद्धि चारित्र्य ॥ ६६॥ अवसर्पिणियादि रूपु ॥६७॥ अवसर्पिषिय भव्यानुक ||६८ || नवबेरडने भागदनुक ॥६६॥ भवहर सिद्ध भूवलय ॥७०॥ सुरतर्ह्रादमूर् अतिशय काव्यदे । सिरि जिन महिमेगळर षु तिरुवल्लिमोडलिगेसन्ख्यातयोजन। दिरुवचनगळ व रुक्षदोळ ॥७१॥ * रुशिसयल एलेयु हुनु हरणगळ् । बरुबुवसमयदोळा ना* परियतिशय श्रमदु मरमुळ्ळिल्लद । धरेपोळ चलिसुव पवन ॥ ७२ ॥ होक्कन्ते सुखदायक। एनेम्बे एरडनेय महा || ताना * तवायु परिवुदु सूरने । तानुययुरव बिट्टु जौवर् ॥१७३॥ रग व नवोदित दिव्य प्रेम दिद्विरुवरु नवरत्न केत्तिद * सेय ॥ सुविशाल दर्पणदन्ते होळेवनेल । दवनियु नालुकनेयनक ॥७४॥ ववनिय समवसरण ॥७५॥ कविगे नाल्कनेयतिशय ॥ ७६ ॥ नवरनुकरणने लेकट्टु ॥७७॥ दवनमोल्लेय चित्रदच्चु ॥७८॥ सवि गन्ध माधव हूव ॥७६॥ नवगन्ध माधव बळ ॥८०॥ सुविशाल चित्रवल्लियदु ॥८१॥ नव सम्पगे पडियच्चु ॥ ८२ ॥ नव गन्धराज बळिगळ ॥८३॥ अवयव कमल जातिगळ् ॥ ८४ ॥ गमखि वित्खच्छु ८५॥ काकतुरि झलि ॥ ८६ ॥ विविध चेनगरजिल बेला ॥८७॥ नवमालती मुडिवाळ ॥८८॥ नव पगडेय बधूक ॥८६॥ छवि ताळेयवतार चित्र ॥६०॥ भूविय पादरिय नामद हू ॥ ६१ ॥ दवनिय रेखेयन्तिदु ॥ ६२ ॥ दवनिय काव्य सूवलय १६३॥ * व सुगन्धव पत्नीरिन मळेयनु । अवनिगे सुरिसृत सवन ॥ सू* विजलवष्टिय देवेन्द्र नाग्नेथिस् । भुविगे सुरिव मेघकुवर ॥६४॥ म* यु ऐदागे देवरु विकरियेयिद । फल भानमुख शालि ।। ति ळियाद पयतु हरडुवुद प्रारग्रन्क । विविधजेवरनित्य सख्य ॥१५॥ मु* रेयवारद एक देवविक्रियेविन्द । सर तर पिन बुझाय शव प्रारनिगेबीसुवुनानक केरे भावि सिरिशुद्ध जलपूर्णनयम ६६ सि# डिलु कार्मो डउल्कापातविल्ल | विडियाद आकाशदशम ॥ वड ति यागिरे सर्व जीव रोगादि । भिडेयिल्लविहु हनुमुटु ॥६७॥ फडेगळ्ळि लद निरामयरु ॥ १०० ॥ गडिंगळाळदु बालुवर ॥ १०१ ॥ प्रोडवेगळळिवरु जनरु ।। १०४ ॥ कडवनु कळेदु कोळ्ळुवरु ॥ १०५ ॥ तोडरुगळळिवरु जनः || १०८|| तडेगळिल्लबे सखबिहरु ।। १०६ ॥ नडे मुडियलिबु बाळूवर ।। ११२|| पडिगळ बाधेयल्लि ॥११३॥ यडरळिविहरु नोडल ||११६ ॥ षडक्षरवलिन भूवलय ॥११७॥ व्* श्रम्भरिसिद्ध धर्म चक्रवुनाल्कु ॥ भ्रानन्ददिम् मक्षेन्द्ररुगळ ।। ११८ ॥ * चियदुहनएरड् अनुकतु तानु सुबत्एरळ् विशेयोळ् ॥ ११६॥ * रधि ॥ विरचितपादपोठवुदिनात्कवु । सरिपूजेदस्तु हुमेयु ॥ १२०॥
afar दाटिहरु हरपवलि ॥ ६८ ॥ जडतेयनळिदिहल्लि ॥६९॥ मुख बाधेयळिविहरेल्ल ।। १०२ ।। एडरुगळळिवरु एल्ल ॥ १०३ ॥ जडतेयनळिवु बाळुवरु ॥ १०६ || झडतय नळियदिहसूल ॥ १०७॥ सङगरयेनिल्लवलि ॥११०॥ कुडुकेगळलिदिहरळ लि ॥ १११ ॥ बढत नवे निळ्ळवल ॥ ११४॥ मडिगळिळ लदे बालुवरु ॥ ११५ ॥ ॐ* नवळिव तेजवतिशय रत्न । काणुव बेळकिनुज्वलक्ष | तारण स्पा* रणाविधवलनकारव धरिसिह । जानपदब तेरदिन्द ॥ प्रानद * रविद एळेळ, पन्वतिये हृदिमूह । बरे स्वर्ण कमलव मु* न पावपीठ पूजाद्रव्य एरळ् पोगे जिनर मृवत्नात्कु शु
भ
द । घनवादतिशयगळनेल्ल पेळ व । विनयावतारि मानिह ॥ १२१ ॥ सनुनय वादियारिहनु ॥ १२४ ॥ जिन मार्गलक्षण धर्म ॥ १२५ ॥
जन भूतलदोळगिल्ल ॥१२२॥ जनर भूतलदोळेल्लिहरू ॥ १२३॥
१३१
॥५६॥
||६२ ॥
म सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि बैंगलोर बिल्ली
से
॥ १४४ ॥
जनर कन्टक हरणान्क ॥ १२६ ॥ घन भद्र मन्गल रूप ॥१२७॥ जिन शिव भद्र कटलास ॥ १२८ ॥ जिन विष्णु भवन वय्कुन्ठ ॥ १२६ ॥ विनय सत्यव ब्रम्हलोक ॥। १३०॥ जनतेय सर्वार्थ सिद्धि ॥१३१॥ जनरिगे सर्वान्क सिद्धि ॥१३२॥ इन चन्द्र कोटिय किरण || १३३॥ कनक रत्नगळ मेल्कट्टु ।। १३४ ।। घन रस सिद्धिय मरियु || १३५|| कुनय विनाशक मयुि ॥ १३६ ॥ केनेवालन्तिह शुद्ध स्वर्ण ॥। १३७ ।। कोनेगात्म सिद्धिय नेनु ॥ १३८ ॥ तनय तनुजेयर त्याग ||१३|| बनुज किन्नर शिल्प काव्य ॥। १४० ।। धनपुण्यभवन भूवलय ॥ १४१ ॥ भ* वनामर व्यन्तरद ज्योतिष्कर । नव नव कल्पद सिरि बी रथन भक्तरु जयध्वनियिन्द पाडुव सुविशाल कलरवरुतिय ॥ १४२ ॥ * रवमन्गलद प्रास्तव महा काव्य । सरणियो सिरि वो * सेन।। गुरुगळमतिज्ञानदरिविगे सिलुकिह । श्ररहंतकेवलज्ञान ॥१४३॥ ब* शवागे नवत्नात्षउगळतिशय । ऋषि मार्ग धर्मव धरि असद्दुरुशवाद त्रयुलोकाग्र सिद्धियु वशवागलेमगेम्ब ज्ञान ज# निसलु सिरि वीरसेनर शिष्यन । धनबादकाव्यद कथेय ॥ जि न* श्रसेन गुरुगळ तनुविन जन्मद । घनपुण्यवर्धन वस्तु सगा गा जनपदवेल्लदरोळु धर्म । तातु क्षोरियसि मर्पाग ॥ तान् श्र* ल्लि मान्यखेटद दोरे जिन भक्त । तानु अमोघवर्षांक रंग व पद भक्तियिम् जन पदवेल्लवु । तब निधियागिसिर्दाग मु* अवर भव्यत्वद प्रासन्नतेयिन्द । नवदन्क मूर्तियादन्ते सविवर मतिज्ञान धरतु ॥। १४६ ।। अवनिय ज्ञान सम्प्राप्ति ॥ १४६ ॥ भुवियतिशयद सन्भाग्य ॥ १५० ॥ नवविध ब्रह्मवनरिव ॥ १५१ ॥ अवर पालिसुव सद्गुरुन ।। १५२ ।। सुविशाल कीतिय देह ॥१५३॥ नवनवोदित शुद्ध जयद ।। १५४। श्रवतारदाशा वसविय ।। १५५।। भुवि कीतियह सेनगरादि ॥ १५६ ।। अवतरि सिदज्ञातयम्शि ।। १५७ ।। अवन गोत्रवदु सद्धर्म ॥ १५८॥ अवन सूत्रवु श्री व्रुषभ ॥१५६॥ अवनेल्ल त्यजसिद सेन ॥ १६२॥ अयन शाखेयु द्रव्यान्ग ॥ १६० ।। अवन वम्शबदु इक्ष्वाकु नव गरण गच्छ सारि ॥ १६३॥ नव भारतवोळु हरिसि सविय कर्नाटक दोरेगे ॥ १६५ ॥ विवरदोळ् कर्मव पेद ॥१६६॥ rator काव्य भूवलय * विगळ् ऐतु सन्जनिसिद राजने । सधबल आदिम् बरु दो नत्ववळित जनतेय पालिप । भूद्भुत वर्धमानान् ॥ श्रान व शवादतिशय धवल भूवलयद । यशवागे ऐदने अंक ॥ रस महिय मेल्बन्कव वशगेय्द राजनु । वहिसिद दक्षिरगद् भ
॥१६१॥ ॥ १६४॥ ॥१६७॥
या
वि
कहिय हिम्सेनोडि सि ॥ १७३ ॥ इह सौख्य करवाद ख्याति ॥ १७६॥
भुवन विवख्यात भूवलय ॥ १६८ ॥ स्पदवागे एरडने जयधवलाकद । वदिंगे मरते महा धवल ॥ १६६ ॥ * जनतेय जयशोल धवलद । शाने पदवियदु नात्कु ॥ १७० ॥ स्मयवाद विजयश्वलविन्तु । यशद भूवलयद भरत ॥ १७१ ॥ * त ॥ सिहिय खण्डदकर्माटकचक्रिय । महिये मण्डलनेसरान्तु ॥ १७२ ॥ हिसिदणुव्रत ख्याति ॥ १७५ ॥ गहनद् श्रहिम्सेय मेरेसि महियतिशय स्वर्गदेसरिम् ॥ १७८ ॥ छह खण्ड वंशशास्त्र ख्याति नहि नहि रूपनेनुवन्ते ॥ १५१ ॥ विहरिसुतिरुव सद्धर्म ॥१६४॥ सहकार धर्म साम्राज्य गुहेय तपश्चर्य सिद्ध
॥ १८७॥ 1122011
१३२
इहवे स्वर्गवो एम्ब तेरदिम् ।। १७६ ।। वहिति अमोघवर्षप मह विश्व कर्नाटकव दहिसुत कर्माष्टकव सिहिय अहम् सेय राज इह्वेल्ल सौभाग्य रूप
||१८२ ॥ ॥ १८५ ॥ इह पर सुखद सर्वस्व ||१८८ || महावीर धर्म मान्गल्य
॥ १७४॥१
॥ १७७॥ ॥१८०॥
॥१८३॥
1125811
॥१८६॥
॥ १४५ ॥
॥ १४६ ॥
॥ १४७॥
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सिरि भूवलय
॥१९१॥ सुह शिव भद्र वग्भाळ ।। १६२ ॥
।। १६४।।
कुहक विनाशक राज्य महावीर नडियिट्ट राज्य वो* दिनोळन्सरमुहूर्ताद सिद्धान्त दादि अन्त्यवनेल चूक रितेय सान्गत्यवेने मुनि नायर । गुरुपरम्परेय विरचि छाॐ येयोळ् श्राचार्यनुसुरिद वायि । दायवनरियुत नानु || प्राय मिश्र गिलादतिशयदेऴ्नूर हदिनेन्दु । अगणितदक्षर भाषे ॥ शुॐ गणादि पद्धति सोगसिनि रचिसिहे मिगुव भाषेयु होरगिल्ल ॥१६८॥
चित्त ॥ साधिपराज प्रमोघवर्षन गुरु । साधितश्रम सिद्ध काव्य ॥ १६५ ॥ त सिरि वीरसेन सम्पादित सद्ग्रन्थ विरचितवाचक काव्य ॥१९६॥ मुन्गल पाहूडद क्रमान्कद । दायवि कुमुदेन्दु मुनि
१७
सोगसाथ कर्मादादि जगदोळिन्निल्लद भाषे सोगदीव श्री चक्रबन्ध दिगिलळिदिह स्वर्ग बन्ध भिगवु मानवनध्प भंग युग परिवर्तनदन्ग
सुगुरण सम्पूर्णानन्य भाषे गणित जीवर भाषे बगे बगेयतिशय बन्ध अगणित गणित अनन्त खगबु स्वंरंगके पोप भंग
ति रेय जीबरनेल्ल पालिप जिन लो कद त्रस नालियोळगिह जीवर यश कर्मदुदयच तन्दीव जिन विषहर गारुड मरिय उ सह सेनरनु तोरुवुदु
१३३
॥१९६॥ || २०२ ||
॥२०५॥ ॥ २०८ ॥
॥२११॥
सर्वार्थ सिद्धि सँघ बेंगलौर - विल्ली महा सिद्ध काव्य भूवलय ॥ १६३॥
कसद कर्मद तोलगिपुडु ॥ २२४॥ वशदात्म सिद्धि भूवलय ।।२२७ ।।
॥ २००॥ || २०३ || || २०६ ॥ ॥ २०६॥ ॥ २१२ ॥
।।२१४ ।।
॥ २१७॥
धर्म । नर पालिसुबुद्ए न * दे ॥ गुरु धर्मदाचारवनु भीरदिह राज । धरेय पाळिवुदेनरिवे ॥ २१५ ॥ साकुव जैन धर्म विइदु ॥ शो करवेने सर्व लक्षण परिपूर्ण । नाक मोक्षव नीयुवुदु ॥ २१६ ॥ धर्म। रसेगे सौभाग्यवनित् ता यशकाय जोवर शोकव हरिसुत । रससिद्धियन्तागिपुदु ॥२१८॥ विशेयन्तवदनु काणि ॥ २२० ॥ ॥२२२॥ कुसुमायुध तापहरनु सुषम कालवनु तोरुवदु
प्रसद्रुश ज्ञान साम्राज्य
॥२१६॥ असमान सान्गत्य बहुदु ॥२२२॥ विसमान्कनु भागिपुदु ॥२२५॥
व
घा#
बगेयतिशय शुद्ध काव्य ॥ २०२॥ बिगिविह सदरियन्क ॥ २०४॥ मुरुम पक्षि भाषेय भन्ग ॥ २०७॥ जगवेल्ल बिगिदिह् भन्ग || २१० | जगवेल्ल सिद्ध भूवलय ॥२९३॥
॥२२३॥ ॥ २२६ ॥
॥ २२८ ॥
भू*# तबल्याचार्य नवन भूवलयद् । श्रख्यातिय वैभव भव र नूतन प्राक्तन वेरडर सन्धिय ख्यातिय सारुव सूत्र व र भूतबलि नामवबनतिशेयवेन् । दोरेवान अतिशयवेनु ॥ ह ल वरण वारिधियदु बळसुत बन्दिरे । सविय श्वर्धमान पुर । सा
॥२२६॥
॥ २३० ॥
श्रवरोळु मागधवन्ते ॥२३१॥ सवि विसिनोरिन बुग्गे ॥२३२॥ * शदु भारत त्रिकळिन्गवेनिसिद । रसेयेल्ल कन्नाडद म नद 'श्रू' काव्यदोळेन्दु नाल्कोळिन् । टेनुवाग बन्दन्कव
रुष वर्धनवाद भारत देशद । गुरु परम्परेथाद राज्य विर पुरद नाडाद सौराष्ट्रब। ई विश्व कर्माट देश अवितिहुददरोळु रसवु ॥ २३३ ॥ प्रचरुपयोग मुन्वे ॥ २३४ ॥ वशगेम्दन्तर हबिनदु साविर । विशेगे नूररवत्तंन्टून ॥ २३५॥ जिनरूपिनाशेय कोनेगे श्रोम्बत्तन्क । एनुवष्टु ( जिनर भूवलय) महाप्रातिहार्य ॥ २३६॥ अथवा अगं, ५२, ४४२+२३,५८०१,७६, ०२२ ।
ऊ ८, ७४८+ अन्तर १४, ८३२=२३,५५० ।
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नौवां अध्याय
'ऊ' तो नवम् अक है। इसमें अतिशय ज्ञान भरा होने से ज्ञान साम्राज्य - काव्य भी कहते हैं । अनेक वैभवों को मङ्गलरूप से प्राप्त करने वाला पृथ्वी रूप पर्याय धारण करनेवाला और प्रात्मा का स्वरूप दिखाने वाले इस भूवलय के सिद्धान्त काव्य का आदि में नमस्कार करता हूं ॥१॥ 'भूवलय' के दो अर्थ हैं एक समस्त पृथ्वी और दूसरा आत्मा । समस्त पृथ्वी को भूलोक कहते हैं। लोक के बाहर अलोक को भी पृथ्वी ही कहते हैं । यह लोक असनाली के अन्दर और बाहर रहता है। उन सबको जाननेवाला ज्ञान ही है। आत्मा ज्ञान धनस्वरूप है। ज्ञान का रस ही मंगल प्राभृत रूपी इस भूवलय का प्रथम खण्ड है || २ ||
सूर्य तो बाहर प्रकाश करता है और मन के अन्दर जो प्रकाश होता है वह ज्ञान सूर्य है । उम ज्ञान सूर्य में जिनेन्द्र देव की स्थापना करनी चाहिए। जैसे जिनेन्द्र देव सभवारण मे सिंहासन के ऊपर रहने वाले १००८ दल वाले कमल के ऊपर चार अंगुल अधर में स्पर्श नहीं करते हुए कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ अथवा मल्यंकासन में बैठा हुआ ऐसे जिनेन्द्र देव की मन में स्थापना करनी चाहिए । जब जिनेन्द्र देव जी की स्थापना मन में होती है उस समय उनका पवित्र ज्ञान भी हमारे अज्ञान तिमिर को नष्ट करता रहता है। उस जिनेन्द्र भगवान में ३४ अतिशय रहते हैं । भ्रष्टमहाप्रातिहार्य के स्वरूप को पहले कह चुके हैं । श्रव ३४ अतिषय का वर्णन करने वाला यह "क" अध्याय है । ३-४|
कमोंदय से दुर्गन्धरूपी पसीना शरीर से निकलता है। घातिया कर्मक्षय में यह पसीना माना भगवान का बन्द गया । इसलिए भगवान का परमोदारिक दिव्य शरीर निर्मल है। उस परमोदारिक शरीर में बहने वाला रक्त हमारे शरीर की भांति लाल नहीं है बल्कि उस रक्त का रङ्ग सफेद है। यह शुक्ल ध्यान की अन्तिम दिशा का द्योतक है। हड्डी की रचना में अनेक नमूने हैं। सबसे पहले की उत्तम हड्डी की रचना को वच्चवृषभ नाराचसंहनन कहते हैं । जोड़, आदि वज्र से बने रहने के कारण इसको वस्त्रवृषभनाराच संहनन
कहते हैं। यह वजवृपभ नाराच संहनन उसो भव में मोक्ष को जाने वाले धारणी का होता है अन्य को नहीं किसी तो तलवार से आघात करने पर भी यह वचवृषभ नाराच संहनन से बना शरीर नष्ट नहीं होता है । दृष्टांत के लिए भगवान बाहुबली देव का शरीर लीजिए। जब भरत चक्रवर्ती ने अद्भुत शक्ति मान चक्र रत्न को रणभूमि में भगवान बाहुबलि पर छोड़ा तो वह चक्र कुछ नहीं कर सका, क्योंकि बाहुबलि जो का शरीर वज्रवृषभ नाराच संहनन से बनाया हुआ था। यहां अतिशय जन्म से ही था ॥ ५ ॥
संस्थान अर्थात् शरीर को रचना को कहते हैं। संस्थान भी विभिन्न हैं। इनमें प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान है। शिल्प शास्त्रानुसार समस्त लक्षण से परिपूर्ण अङ्ग रचना को समचतुरस्र संस्थान कहते हैं, अर्थात् प्रत्येक अङ्ग को लम्बाई चौड़ाई की समानता होने को समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। इसके हटान्त' के लिएदक्षिण में श्रवण बेलगोल में रहने वाली बाहुबलि स्वामी की विशालकाय मूर्ति ही है। ऐसा शिल्पशास्त्र से बना हुआ होने से भगवान का रूप वर्णमातीत है और अतिशय कांति वाला है। उनकी नाक चम्पे के पुष्प के समान है। श्रीमद् स्वस्तिका नन्द्यावर्ता आदि १००८ शुभ चिन्ह भगवान के शरीर में दीख पड़ते हैं। और भगवान में अनन्त बल तथा बीर्य रहता है। अनन्त बल अर्थात् चौदह रज्जु परिमित जगत को आगे पीछे हिलाने को शक्ति रहती है। लेकिन हिलाते नहीं । हिलाते रहें तो भगवान बच्चे के खेल खेलते हैं ऐसा कहने लगें १६ से ११ तक।
भगवान हमारी तरह मुँह खोलकर जीभ हिलाते हुए दांतों का सहारा लिए वचन प्रयोग नहीं करते हैं। अपने सर्वांग से ही ये भाषण करते हैं। वह वचन बहुत सुन्दर होते हैं। जितनी बात करनी चाहिए उतनी ही करते हैं अधिक नहीं। वह भाषा मधुर होता है। यह दस मेद - ( १ ) पसीना नहीं रहना [२] रक्त सफेद होना (३) वज्रवृषभ नाराच संहनन [४] समचतुरस्र संस्थान, [५] अनुपम रूप [६] चम्पा पुष्प के समान नासिका [७] १००८ शुभ चिन्ह, (८) अनन्त बल [C] अनन्त वीर्यं [१०] मधुर भाषण भगवान में जन्म सिद्ध हैं तथा स्वाभाविक हैं। इसको जननातिशय कहते हैं ।
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१३४
सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली इन दस प्रतिश्यों को ध्यान में रखते हुए भगवान के दर्शनकरना भगवान के संसारी जीवों के मन को आकर्षित करने की शक्ति तथा, समुद्र की जन्मातिशय का दर्शन करना है। भाव शुद्धि से यदि दर्शन करें तो शरीर लहरों में उठने वाले शब्द के समान भगवान की निकलने वाली दिव्य ध्वनि है। में रहने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं । १००८ पंखुड़ियों के अग्रभाग में रहने । यह दिव्यध्वनि प्रानः, मध्यान, शाम को इस प्रकार तीन संध्या समय में निकलती वाले जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से अपने शरीर में भी वह स्थिति प्राप्त हैं। और यह दिव्यध्वनि । महूर्त प्रमाण तक रहती है । इसके अतिरिक्त यदि होतो है । महर्षि इस प्रकार दस अतिशयों से युक्त जिनेन्द्र भगवान की उपासना कोई भव्य पुण्यात्मा जोब प्रश्न पूछता है तो उनके प्रश्न के अनुकूल ध्वनि करते हैं। शरीर की ऊंचाई की अपेक्षा न रखते हुए महिमा की अपेक्षा से निकलती है ।३०। महोन्नत शरीर वाले भगवान की पूजा करते हैं। जब इस रीति से जिनेन्द्र संसारी जोवों की जब ध्वनि निकलती है तब तो होठ के सहारे भगवान को अपने मन में धारण करके प्रसन्नता से व्यावहारिक कार्य करें तो निकलती है। परन्त भगवान को दिव्य भवनि इन्द्रियादि होंठ से रहित निकलती कार्य की सिद्धि होती है । इतना ही नहीं बल्कि पारा [एक धातु | की सिदिहै।३१॥ भी हो जाती है। भगवान के शरीर की इस दस विधि अतिशय को गुगगन क्रम भगवान की दिव्यध्वनि दांत से रहित होकर निकलती है ।३२१ से तम और विपमांक को लेकर गिनती करते जायं तो परमोत्कृष्ट (Higher भगवान की दिव्य ध्वनि तालू से रहित होकर निकलती है।३३। Mathe matics) गणित शास्त्र का ज्ञान भी हो जाता है उपरोक्त रीति से । अनेक भव्य जीवों को एक समय में ही जिनेन्द्र देव सभी को एक साथ भगवान की पाराधना कर तो बुद्धि ऋद्धि को कुशाग्रता भी प्राप्त होती है। पदेशापान कराते ३४.३५॥ । ६ से २२ तक ।
एक योजन को दूरो पर बैठे हुए समस्त जीवों को भगवान की दिव्य अध्यात्म रस परिपूर्ण रलत्रयात्मक यह देह है ॥२३॥
वाणी सुनाई देती है।३६।। यही वृषभादि महावीर पर्यन्त तीर्थकरों को देह है ।२४।
शेष समय में गणधर देव के प्रश्न के अनुसार उत्तर रूप दिव्य ध्यान ऐसा विशालकाय यह भूवलय ग्रन्थ है ।२५।
निकलती है ।३७४ एकसो योजन तक सुभिक्ष होकर उतने हो क्षेत्र में होनेवाले जीवों की इस प्रकार से भगवान की अमृतमय वाणी जब चाहें तब भब्य जीवों रक्षा होती है। भगवान का समवशरण आकाश में प्रवर गमन करता है। को सुनाई देती है।३।
। मानव में जो इन्द्र के समान चक्रवर्ती हैं उन चक्रवर्ती के प्रश्न के अनुसार हिंसा का प्रभाव, भोजन नहीं करना, उपसर्ग नहीं होना, एक मुख होकर उत्तर मिल जाता है ।३६-४०। भो चार मुख दीखना, आंखों की पलक नहीं लगना १२७/
पादि से लेकर अन्त तक समस्त विषयों को कहनेवाली यह दिव्य समस्त विद्या के अधिपति, नाखून नहीं बढ़ना, बाल जैसा का वैसा ही ध्वनि है।४ रहना अर्थात् बढ़ना नहीं तथा अठारह महाभाषा ये भगवान के होती है ।२८
जीव, पदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये ६ द्रव्य है। ये ६ द्रव्य इसके अतिरिक्त सातसो छोटो भाषायें और सइनी जीवों के प्रकों से जिस जगह रहते हैं उसको लोक कहते हैं । दिव्य ध्वनि इन सम्पूर्ण ६ ग्यों के मिथित पक्ष भाषायें और भव्यजनों सम्पूर्ण जोवों को उन्हीं के हितार्थ विविध स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन करती है ।४२॥ भाषामों में एक साथ उपदेश देने की शक्ति भगवान में विद्यमान रहती है ।REE जीव, अजीव, माधव, बंध, संवर, निर्जरा और मोदा ये सात तत्त्व है।
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१३६
सिरि अवक्षय
सर्वार्थ सिद्धि मप बैंगलोर-दिल्ली
भगवान की दिव्य वारणी इन सात तत्वों का वर्णन करती हैं ।४३।
अर्थात् अरहंत सिद्धादि नव पद का अतिशय वस्तु रूप यह भूवलय ग्रन्थ है ।५२। सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को मिलाने से तत्त्व होते हैं । भगवान ३४३ = १ यह अतिशय से युक्त दिव्य चक्षु का प्रभा से बम धर्मराज की दिव्य वाणी उन । तत्त्वों का वर्णन करती है।४।
(मृत्यु) भाग जाता है ।५३। जीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश ये पांच पंचास्त काय का भी वर्णन यह वस्तु नामक ज्ञान चक्षु अरहंत सिद्धादि नवकार मन्त्र का प्रादि करती है।४५॥
मन्त्र है।५४१ इन सबको प्रमाण रूप से बतलाने के समय सुन्दर, २ मार्मिक तत्व का ज्ञानियों के अन्तर्गत ज्ञानरूपी विश्व का साम्राज्य यह भूवलय है।५५ वर्णन करती है ।४६॥
ज्ञानियों के ज्ञान में झलकने वाली नव नवोदित दिव्य ज्योति रूप यह जिनेन्द्र भगवान को दिव्य ध्वनि से ही यह दिव्य वाणी निकलती है। महा काव्य है।५६। अन्य के सहारे से नहीं ।४७१
कवियों की कल्पना में न मानेवाला दिब्य रूप यह काव्य है।५७। यह दिव्य वाणी भगवान जिनेन्द्र देव की वाली द्वारा निकलने के कारण ! इस ग्रन्थ का सर्वावयव अर्थात् सभी भाषायों का ग्रन्ध परम पवित्र अन्तिम प्रमाण रूप भूवलय शास्त्र है।४।
है।५८। उपयुक्त समस्त दम अविराम दुनिया को आश्चर्य चकित करने यह सभी भाषाओं का ग्रन्थ संसारापहरण का मुन्य मार्ग है ।५६॥ वाली हैं। परहंत भगवान को घाति कर्मके (ज्ञानावर्णीय, दर्शनावर्गीय, मोहनी, । समवशरणादि महावैभव को दिखनाने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ।६० अन्तराय) नाश होने से केवल ज्ञान की उत्पत्ति होती है और केवल ज्ञानके साथ यह भवलय ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों के समान निराकरण है।६। । ही इन दस अतिशयों के उत्पन्न होने से इसका नाम पाति क्षय और जाति क्षय यह काव्य मिष्ट बचन रूपी जल बिन्दु से भरा हुपा शान का सागर भी है ४६
जो क्षेत्र में भी कर्म रह गये तो यह अतिशय आत्मा को नहीं मिलता।। यह काव्य नब पद भक्ति को शुद्ध करनेवाला है 1६३। ये आठ कर्म निर्मूल करने के मार्ग हैं और इसलिए इसका नाम धाति क्षय, और
यह भूवलय ग्रन्य नव पद भक्ति द्वारा प्राप्त होने वाले फल को देने जाति क्षय पड़ा ।५०
वाला हैं ।६४ जीव को जब अरहंत पद प्राप्त होता है तब अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन,
नव पद के ज्ञान से समस्त भूवलय का ज्ञान या जाता है ।६॥ अनन्त वीर्य, अनन्त सूख इत्यादि अनन्त गुण प्राप्त हो जाते हैं। उन अनन्त । नव अंक को सम्पूर्ण सिद्धि ही चारित्र की सिद्धि है।६६। गुणों से, प्रात्मा करोड़ों चन्द्र सूर्य प्रकाश जैसा तेजोनिधि हो जाता है। ऐसे यह भूवलय ग्रन्थ अवसर्पिणी काल के समस्त विषयों को दिखाता अरहंत भगवान की पूजा करते हये पारा की सिद्धि करने का प्रयत्न करना है। श्रेयस्कर है ।५१॥
यह काव्य अवसर्पिणी काल का सर्वोत्कृष्ट भव्यांक रूपी है।६८। नवकार मंत्र के आदिमें तीन अंक हैं, तोन को तीन मे गुरणा कर दिये इम काव्य के अध्ययन से गणित शास्त्र का मर्म मालूम होकर अङ्क तो विश्व का समस्त अङ्क मी आ जाता है । नौ का परिजान ही दिव्य चक्षु है, असे विभाजित हो जाता है 1६६। और नौ अङ्क का विवरण करने से ही विश्व का समस्त दृष्टि भेद अर्थात् तीन इस रीति से समस्त विद्याओं को प्रदान करके अन्त में भव विनाश सौ श्रेषठ धर्म का और उनमें रहने वाले भेद और अभेद का ज्ञान हो जाता है। करके सिद्धि पद को देने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ७०।
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सिरि भूषजय
सार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-पिल्ली देव गण भगवान् के १३ प्रतिशयों को करते हैं । उसमें पहले के मति- इसी प्रकार गन्ध माभव ( गन्ध मादन ) पुष्प भी उस पुष्प वाटिका शय संख्यात योजन तक रहने वाले सभी जंगली वृक्षों में पसे, पुष्प, फल आदि में रहता है 1७६ एक ही समय में लग जाते हैं और उतनी दूर तक एक भी कांटा तथा करण मात्र! इसी भांति नव जात गंध माधय लता भी वहां रहती है 1000 रेत का संचार न हो, ऐसी हवा चलने लगती है।
वहां पर मुविशाल रूप से फैली हुई चित्रवल्ली नामक वेला भी कामधेन के द्वारा अपने घर के प्रांगन में अनेक सामान को प्राप्ति तथा । रहती है ।१॥ पवन कुमार द्वारा चलने वाली अत्यन्त सुखकारक और मानन्ददायक हवा का
विवेचन:-श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने इस चित्रवल्ली नामक लता का चालना दूसरा अतिशय है।
वर्णन श्री भुवलयान्तर्गत चतुर्थ खण्ड में विस्तृत रूप से किया है और उसके . समवसरण में सिह, हाथी, गाय, पक्षी, सर्प इत्यादि ने अपने परस्पर र संस्कृत विभाग में पाया है किको छोड़कर जैसे एक ही जगह में रहते हैं वैसे अपने कुटुम्ब इत्यादिक जन वैर-1
नमः श्री वर्षमानाय विश्व विद्याऽवभासिने। रहित आपस में प्रेम से अपने-अपने स्थान में रहना तीसरा अतिशय है।
चित्रवल्ली कयाख्यानं पूज्यपादेन भासितम ।। जैसे विवाह मंडप के बीच वर वधू को बिगने के लिए नव रत्न से
विश्व विद्या के प्रकाशक श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार करके श्री -निमित वैदिका तैयार की जाती है उसी तरह स्फटिक मरिण के प्रकाश के समान
पूज्य पाद स्वामी ने चित्रबल्ली का व्याख्यान किया है। श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने चमकने वाली यह भूमि चौथा अतिशय है । समवपारण में रहने वाला यह चौथा
सूचित किया है कि इसी प्रकार मंगल प्राभूत के समस्त विषयों को सभी जगह प्रतिशय कवि लोगों के द्वारा भी अवर्णनीय है 1७१-७६।
जानना चाहिये। उम भूमि के अतिशय को पांच पांच हाथ के नौ पार्ट के विभाग तक!
समवशरण के अन्तर्गत पुष्प वाटिका भित्ती के ऊपर चम्पा पुष्प का किया गया है।
भी वर्णन किया गया है।
नोट-इस चम्पक पुष्प के विषय में श्री समन्तभद्राचार्य ने बड़े सुन्दर ' अन्तर श्लोक का विवेचन--उपयुक्त भागों का विवेचन शिल्पशास्त्र
ढंग से वर्णन किया है ।। 'और ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्ध रखता है। शिल्प शास्त्र के विद्वानों का कथन
इसी प्रकार गन्धराज [ सुगन्ध राज ] का मेला भी वहां चित्रित है कि ऊपर के नियम से ही मठ, मन्दिर तथा महल मकान आदि बनाना चाहिये; क्योंकि यदि ऐसा न होकर कदाचित् अग्नि कोड़ में मकान एक इंच।
कमल पुष्प के जल कमल, थल कमल आदि अनेक भेद हैं। उन भी शास्त्रोक्त नियम से अधिक हो जाय तो गृह एवं गृह स्वामी दोनों के लिए
। सबका चित्र समवशरण में चित्रित है।४1 अनिष्ट होता है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्रानुसार भली भांति शोधकर भवन
वहां पर समस्त पुष्पों की कली चित्रित रहती है।८५॥ निर्माण किया जाय तब तो ठीक है किन्तु यदि ऐसा न करके सूर्य चन्द्रादि नव
कामकस्तूरी की टोकरी भी वहां बनी रहती है। ग्रहों के विपरीत स्थान में बनाया जाय तो वह भी महान कष्टदायक होता
उस वाटिका में कर्नेल के श्वेत और रक्त वर्ण के पुष्प बने रहते है !७७।
वन वाटिका में दवन, जुही, मालती (मोल्ले) आदि सुगंधित पुष्पों के वहां पर नव मालती और मुड़िवाल भी भित्तिका में चित्रित हैं 11 2. समूह रहते हैं ।७८)
पाशा खेल में प्रयुक्त बन्धूक, ताड़ वृक्ष के चित्र तथा केतकी पुष्म,
44
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१३८
सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संप बंगलोर-दिल्ली भूपादरी आदि पुष्पों का समूह पृथ्वी के ऊपर अक्ष रेखा के समान प्रतीत होता है समवशरण में सभी जीव मृत्यु की बाधा से रहित रहते हैं ।१०। है। इस समवशरण का वर्णन करने वाला यह भूबलय है ।८६-६३
सांसारिक जीवों को चलते, फिरते उठते बैठते आदि प्रकार के कारणों विवेचन-भूवलय के चतुर्थ खण्ड में श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने श्री समन्त से कष्ट मालुम पड़ता है परन्त रामवशरण के अन्दर आने से सभी कष्टों से भद्राचार्य के श्लोकों द्वारा केवड़ा पुष्प का विशेष महत्व दिखलाया है। उन । जीव रहित हो जाता है ।१०३। श्लोकों का वर्णन निम्न प्रकार से है
बहुत से व्यक्तियों में समवशरण को देखते ही वैराग्य उत्पन्न हो जाता "कुप्या तं भरिताय केतकिसुमुकषोन्मुखे कुजरम ।
है और वैराग्य पैदा होते ही वे लोग दीक्षा ले लेते हैं ।१०४ । चक्र हस्तपुटे समन्त विधिना सिधूर चन्द्रामये ।
। संसार में रहते हुए कई जोव अनादि काल के कर्म रूपी धन को अपना इत्यादि रूप से रहने पर विज्ञान सिद्धि के लिए यह ग्रन्य अत्यन्त उपयोगी समझ करके उसी में रत रहते हैं परन्तु वे जीव समवशरण के अन्दर पाते है। अत: इन श्लोकों का विशेष लक्ष्य से अध्ययन करना चाहिए। नित्य नये- ही उस कर्म रूपी धन से विरक्त हो गये ।१०५॥ नये सुगंधित गुलाब जल की जो वृष्टि श्री जिनेन्द्रदेव के ऊपर अभिषेक रूप से
समवशरण में रहनेवाले जीवों को पालस्य नहीं रहता है ।१०६) होती है वह सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देवों द्वारा होती है। ६४
समवशरण में रहनेवाले जोव राग द्वेष से रहित रहते हैं ।१०७१ यह जलवृष्टि पांचवां अतिशय है। इसे देव अपनी वैक्रियिक शक्ति समवशरण में रहनेवाले जीवों के मार्ग में किसी भी प्रकार की अड़चनें द्वारा बनाते हैं, फल भार से नम्रीभत शाली [जड़हन] की पतली तथा हरे रंग नहीं पड़ती हैं।१०८। की जड़ पृथ्वी पर उगना छठवां अतिशय है । विविध जीवों को सदा सौख्य देना
वहां रहनेवाले जीवों को सर्वदा सूख ही मालूम पड़ता है ।१०६। सातवां अतिशय है ।
वहां रहनेवाले जीवों को किसी भी कार्य में प्रस्तुरता इत्यादि नहीं देवगण अपनी वित्रिया शक्ति से चारों और ठण्डी वायु फैला देते हैं।। रहतीं 1११०॥ यह माठवां अतिशय है। तालाब तथा कुयें में शुद्ध जल पूर्ण होना नौवां वहां रहनेवाले जीवों को सताना दुःख इत्यादि किसी भी प्रकार की. अतिशय है । ६
बाधायें नहीं रहती हैं 1१११ आकाश प्रदेश में बिजली [ सिडलु ] काले बादल उल्कापात प्रादि समवशरण में रहनेवाले जीवों को धर्मानुराम के अतिरिक्त अन्य मालोचना न पड़ना १०वां अतिशय है। सभी जीव रोग रहित रहें, यह ११वां अतिशय नहीं रहती है ।११२॥ है 1९७
हम बहुत ऊपर यागये हैं नीचे किस प्रकार से उतरें इस प्रकार समवशरण के चलने के समय में सभी जीव हर्षित रहते हैं 184) की आलोचना भी जीवों को नहीं रहती ।११३३
समवशरण के बिहार के समय में सभी जीव अपनी आलस्य को त्याग वहां रहने वाले जीवों को दरिद्रता का भय नहीं रहता है ।११४॥ कर प्रश्न चित्त से रहते हैं ।६६)
हम स्नानादि से पवित्र है । और वह स्नानादि से रहित है इस प्रकार रोगादि बाधाओं से रहित होकर सभी जीव मुखपूर्वक रहते हैं ।१०।।की शंकायें मन के अन्दर नहीं पैदा होती हैं ।११५॥
समवशरण में पाते ही सभी जीव माया मोह इत्यादि सांसारिक बहुत वर्णन करने की आवश्यकता नहीं बहां पर सभी जीव सुख ममता से विरक्त हो जाते हैं और उनको समवशरण के प्रति आस्था हो जाती। पूर्वक रहते हैं ।११६।
६अक्षर अर्थात् ६ प्रकार के द्रव्यों का वर्णन इस भूवलय में है ।११७॥
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१३४
सिरि मूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलौर-दिल्ली कान्ति कम न होनेवाला अतिशय प्रकाशमान रल रचित चार! यह समवशरण जनता का सर्वाथ सिद्धि साधक होने से सर्वाष स्वर्म धर्म चक्र को यक्षदेव मानन्द से धारणा किये रहते हैं ।११॥
। भी यही है ।१३॥ नाना प्रकार के प्रानुषणों से सुसज्जित सांगत्य नामक छन्द जिस जनता को सब अंक के दिखलानेवाला होने के कारण यह समवशरण प्रकार सुशोभित होता है उसी प्रकार धर्म चक्र बारहवां अतिशय है और ३२१ सर्वात सिद्धि भो है ।१३२॥ दिशाओं में अर्थात् एक एक दिशा में सात-सात पंक्ति रूप रहनेवाला स्वर्ण समवशरण में कोटि चन्द्र और कोटि सूर्य का प्रकाश भी रहता है। कमल तेरहवां अतिशय है। पौर भगवान के बाद पीठ में रक्खी हुई पूजन
१३३३ की सामग्री पूर्णिमा के समान सफेद वसा वाला चौदहवां अतिशय है ।११६-१
स्वर्ण में रत्न मन्हित होकर तोरण में विराजमान रहता है ।१३४॥ १२०॥
उन तोरणों में पारा को सिद्ध करके बनाया हुआ मणि भो लटका हमा पाद पीठ में रहनेवाली पूजन की सामग्री और उपकरण इन दोनों को रहता है ।१३।।
जिस प्रकार समस्त दुर्गुणों को विनाश करनेवाला रत्नत्रय है इसी घटा देने से चौतीस शुभ अतिशय हो जाता है । इन सब अतिशयों का वर्णन
प्रकार रसमरिण भी जनता के दरिद्रता को नाश कर देती है।१३६। करनेवाला विनयावतारी अर्थात् विद्वान् कौन है ।१२१॥
स्वर्ण तो हल्दी के रंग के समान रहता है उस वर्ण को दूध के समान इस प्रकार का वर्णन करनेवाले कवि लोग इस पृथ्वी पर कहीं भी ।
मा। सफेद बनानेवाला यह पारा का मणि है ।१३७। नहीं है ।१२।
विवेचन:- इसी भूवलय में पाने वाले श्री संमतभद्र प्राचार्य के वचनों इस प्रकार का व्यक्ति पृथ्वी पर कहो है बसानो ।१२३॥
को देखिये। यदि नये मार्ग का ज्ञाता हो तो उनसे भी पूरा बन नहीं हो सकता स्वर्णश्वेतसुघामृतार्थ लिखितिं नानार्थरत्ना कर्म । अर्थात् सफेद स्वर्स है। १२४॥
बनाने की विधि अनादि काल से जैनाचार्य को मालूम थी। अाज कल इसको जिनेन्द्र भगवान का बताया हुमा मार्ग धर्म को लक्षण देनेवाला
पलाटिनम् कहते हैं और वह पल्टी पलाटिनम् बहुमूल्य है। है ।१२५॥
अन्तिम में प्रात्मसिद्धि को प्राप्त करनेवाला यह समवशरण भूमि यह भूवलय का जो अंक है वह अंक प्राणी के कष्ट को दूर करने । है ॥१३॥ वाला है ।१२६॥
लड़के लड़कियों को अर्थात् समस्त बन्धु बान्धवों को त्याग कराने वाला यह अंक भद्र स्वरूप है और मंगल रूप है ।१२७४
। यह काव्य है ।।१३६॥ जिनेन्द्र भगवान को शिव शब्द से भी कहने से यह समवशरण कैलाश राक्षस और किन्नर इत्यादि देव लोगों ने इस समवशरण को बनाने भी है। १२॥
की विद्या को सीखा है। उस विद्या को बतलाने वाला यह भूबलय काव्य जिनेन्द्र भगवान को विष्णु कहते हैं इसलिए समवशरण वैकुठ भी । है ।।१४०॥ है।१२।
इस प्रकार भव्य जीवों के पुण्य से बनाया हुआ महल रूपी यह भूवलय इसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान को ब्रह्मा भी कहते हैं इसलिए यह समवशरण । ग्रन्थ है ॥१४॥ सत्य सोक भी है ।१३००
भवनवासी, व्यन्तरवासी, भवनामर, व्यन्तरामर, ज्योतिषक और स्वर्ग
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सिरि भूगलय
सर्षि सिद्धि संभ बैंगलोर-दिल्ली लोक के सभी देव अर्थात् श्री-महाबीर भगवान के भक जन कलकलाहट के साथ | कुमुदेन्दु आचार्य का समय ७५३ वर्ष नहीं बल्कि ६८० वर्ष है। जै जै शब्द का गाना गाते हैं ।।१४२॥
दूसरे शिवमार के पास प्रमोघ वर्ष नामक पदवी थी। उसे राष्ट्रकूट सम्पत्ति युक्त मंगलप्राभृत्तं महाकाव्य के रास्ते से श्री गुरु वीरसेन नृपतुज ने युद्ध में पराजित करके कारागार में डाल दिया था। चाहे वे वहीं पर याचार्य के मतिज्ञान में मिले हुए अरहंत भगवान का केवल-ज्ञान ही यह भूवलय ही मर गये हों पर ऐसी विकट परिस्थिति में भूवलय जैसे महान ग्रत्य का प्रन्थ है ॥१४॥
उपदेश वे कैसे दे सकते थे? कदापि नहीं। किन्तु प्रथम शिवमार ने सम्पूर्ण अमर कहे हुये ३४ प्रतिशय यदि अपने वश में हो जाये तो ऋषियों के भरत खण्ड को अपने स्वाधीन करके हिमवान पर्वत के ऊपर अपना विजय-ध्वज मार्ग से धर्म धारण हो जाता है। तत्पश्चात् असहा ज्ञान विकसित होकर फहराया था इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रथम शिवमार ही श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य आत्मा को मोक्ष सिद्धि हो जाने के समान भाव बढ़ जाता है ॥१४४॥ के शिष्य थे।
' ऐसा ज्ञान बढ़ जाने के बाद हमें (कुमुदेन्दु मुनि को) अर्थात् श्री वीर- अभिप्राय यह निकला कि कुमुदेन्दु आचार्य का समय प्रथम शिवमार का सेनाचार्य के शिष्य को भूवलय जैसे महान् अद्भुत काव्य की कथा विरचित्तथा , न कि द्वितीय का । इस विषय में इतिहास वेत्तानों को मंत्रणा से मैसूर करने की शक्ति उत्पन्न हो गई और श्री जिन सेनाचार्य का ज्ञान सहायक हुमा।विश्व विद्यालय के अन्तर्गत की गई वार्तालाप का विवरण संक्षेप से यहां इसीलिए इस भुवलय काव्य की रचना में हमारा अपूर्व पुथ्य वर्धन हुआ। इस दिया गया है। नाम वस्तु है ॥१४॥
प्राचार्य कुमुदेन्दु द्वारा विरचित थी भूवलयइस भारत के कोने २ में धर्म की अवनति दशा में श्री जिनेन्द्रदेव का
ऐतिहासज्ञों का कथन है कि १५-७-५७ को एक बातचीत में बाइस भक्त मान्यखेट का राजा श्री जिनदेव का भक्त अमोघवर्ष नामक राजा चांसलर डा० के० बी० पुटप्पा ने उनसे यह भाव प्रकट किया कि यदि कुमुदेन्दु ने.॥१४६॥
विरचित श्री भूवलय का संक्षिप्त विवरण ३६ देशों के विद्वान और विद्यार्थियों नव पद भक्ति प्रदान करके समस्त जनता को धर्म में श्रद्धा उत्पन्न ! की विश्व विद्यालय सेवा समाज में, जो कि २५-७-५६ को मैसूर में होने वाली कराके धर्म की स्थापना की। उन समस्त धार्मिक प्रजामों में भव्य जीव और थो, प्रस्तुत किया जाय तो अधिक उचित हो। भव्यों में ग्रासन्न भव्य अपने भव्यत्व लक्षण को प्रकट करते हुये नवमांक सिदि। जब श्री भूबलय के कुछ हस्तलेख और छपे हुए लेख भारत के राष्ट्रपति हमें प्राप्त हो गई, ऐसा जानकर बड़े मानन्द के साथ रहने लगे ॥१४७॥ डा. राजेन्द्र प्रसाद जी को दिखाए गए तो उन्होंने अचानक इसे विश्व का
विवेचन--कन्नड़ भाषा में प्रकट हुये भुवलय ग्रन्थ के उपोद्धात में राष्ट्र-१ पाठवा आश्चर्य बताया और एक वाद-विवाद के समय डा० पुटप्पा ने कहा कि कूट राजा नृपतुङ्ग को प्रमोघवर्ष मानकर उपोद्घात कर्ता ने श्री कुमुदेन्दु । श्री भूवलय ग्रन्थ को विश्व का प्रथम प्राश्चर्य भी कह सकते हैं। प्राचार्य के समय की ८ वीं शताब्दी के अन्तिम भाग अर्थात् कृशताब्द ७८३१ लेकिन दुर्भाग्य का विषय है कि इतना प्राश्चर्य जनक ग्रन्य मैसूर माना है। अब उन्हीं महाशय ने इस नवम अध्याय का अथवा ४० अध्याय से । रियासत तथा इसके बाहर के बहुत कम विद्वान तथा अन्वेषणकारी ही जानते ऊपर के विषयों का अध्ययन करते हुए कुमुदेन्दु प्राचार्य नृपतुङ्ग के गुरु नहीं, है जो कि अभी भी इसके पाश्चर्य से पूर्ण परिचित न होते हुए अपना मार्ग बल्कि गंग वंश के राजा प्रथम शिवमार गुरु थे। उस शिवमार ने हैदराबाद । खोजने की कोशिश में हैं । के मड़खेड़ नहीं, मैसूर प्रांत के बैंगलोर से ३० मील दूरी पर मण्ये नामक ग्राम। आज विश्व के अनेकों विद्वान महत्वपूर्ण प्रयत्नों द्वारा विभिन्न नवीनमें राज्य किया। उनका समय कृस्ताब्द लगभग ६८० वर्ष था। इसलिये श्री ! तात्रों की खोज में लगे हुए हैं। अत: यह अत्यन्त भावश्यक हो जाता है कि
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खिर भूषलाय
सर्वार्थ सिद्धि संप बंगलौर-दिल्ली भाषाओं के जन्म और विकास पर भी ध्यान दिया जाय । हमारा प्राचीन साहित्य, सके हैं कि वह कौनसा अमोघवर्ष था जिसे गोबिन्दा राजा का पुत्र मानकर विज्ञान, आयुर्वेद, दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, गणित आदि यदि पुनः प्रकाश में भूवलय अन्य' पढ़ाया गया था। लाए जाएँ तो मानव जाति की अधिक उन्नति और उद्धार हो।
यह एक मान्य ऐतिहासिक सत्य है कि प्रथम शिविमार जोकि सत्यप्रिय ऐसा कहा जाता है कि यो कुमुदेन्दु जी बेंगलोर से ३८ मील दूर नन्ची भी पुकारा जाता था और नवकामा ने ई० सन् ६७६ से ई० सन् ७२६ तक पर्वत के समीप 'येलेवाली' के निवासी थे और भूवलय प्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से राज्य किया था। वणित है कि श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य राष्ट्र कूट के राजा अमोघ वर्ष और शिवमार
वीरसेन ने अपने धवल ग्रन्थ को विक्रमी राज्य (अट्टाठीसाम्मी शिष्य गंग राजा के धर्म प्रचारकों के गुरु थे।
३ विक्रम राय) के ३८ वें साल में समाप्त किया और यह विक्रम राय वही है जो श्री भूवनय ८ - १२६, ९ - १४६
कि मंग राजा विक्रम था। और सभी इतिहासज्ञों ने इसको भी सत्य-रूप ही ८- ६६, और ७२
मान लिया है कि विक्रम राजा ६०८ ई० में गद्दी पर बैठा था। और यह भी वरिणत है कि प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ "धवल" के लेखक थी। कनाड़ी भाषा का शब्द "अट्टावीसाम्मी" कुछ विद्वानों द्वारा "पट्टाटीवीरसेन जी भूवलय के रचयिता थी कुमुदेन्दु जी के गुरु थे। ध्यानपूर्वक मना। साम्मी" मी पढ़ा गया है। के पश्चात् इस बात की जांच की गई है कि वीरसेन के धवल ग्रन्थ की समाप्ति 1 श्री विक्रम राजा ई० सन् ६०८ में राजगद्दी पर बैठा था और यदि ई० के ४४ वर्ष पश्चात् उनके शिष्य कुमुदेन्दु जी ने अपना स्मरणीय अन्य धो । सन् ६०८ में २८ साल जोड़ दिए तो "धवल पन्य" की पूर्ति का समय सन् भूवलय को लिखकर समाप्त किया था।
६३६ पड़ता है। नक्षत्र स्थिति जो कि "धवल" की पूर्ति के दिन वणित की गई लेकिन विद्वानों में घवल ग्रन्थ की समाप्ति और कुमुदेन्दु जी के जीवन । थी वह कार्तिक सुदी योदशी एक मम्बत् ५५८ को सिद्ध करने से ठीक ई० काल तथा भूवलय की समाप्ति के समय के विषय में पर्याप्त अन्तर है। अत: । सन् ६३६ ठहरता है। समय को ध्यान में रखते हुए उनके विचारों में काफी विवाद है।
। कुछ विद्वान सोचते हैं कि "श्री भूवलय" का समय ७ वीं शताब्दी के प्रो० हीरालाल जैन और डा. एस. श्री कन्था का विचार है कि धवल मंतिम चौथाई में होगा जबकि दूसरे विद्वान कहते हैं कि इसका समय दसवीं पर्व अन्य ई० सम् ५१६ के लगभग समाप्त हो गया होगा, जबकि जे० पी० जैन शताब्दी होगा, कुछ अन्य विद्वानों का कथन है कि 'श्री भूवलय ग्रन्थ' का समय कहते हैं कि धवल प्रथ ई. सन ७८0 के लगभग समाप्त हुमा मा तथा अन्य संगथ्या पीरियड में अर्थात् १२ वी या १३ वीं शताब्दी रहा होगा। क्योंकि विद्वानों का कथन है कि घवल ६३६ ई० में समाप्त हुआ था।
। कुमुवेन्दु द्वारा रचित "श्री भूवलय ग्रन्थ" संगत्या छंद में ही लिखा हुआ है। समंगद (Samengada) शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रकूट। और कुछ यहां तक भी कहते हैं कि यह अन्य अभी थोड़े ही समय का पुराना है राजवंश ई० सन् ७५३ में राज्य कर रहा था ।
पषिक नहीं क्योंकि थी भूबलय की भाषा आधुनिक कन्नड़ भाषा से मिलती तृतीय राष्ट्रकूट राजा गोबिन्दा जो कि सर्वस्या अमोषण का पिता था | जुलती है। ई. सन ८१२ के अपने एक शिलालेख में लिखता है । डेम्टोदुर्गा भी प्रमोष नाम ! समय की कमी के कारण अधिक विस्तार में न जाकर मैं इसी बात पर से पुकारा जाता था और इस शिलालेख के समय सर्वस्या अमोघवर्ष एक जोर देना चाहता हूं कि संगच्या छंद वारहवों और इसकी बाद की शताब्दी का बालक ही था इसलिए विद्वान निश्चित रूप से इस विषय का ज्ञान नहीं कर नहीं है जैसा कि कुछ व्यक्ति गलती से सोचते हैं।
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सिरि भूवलय..
जिनसेन (Jinasene ) अपने महापुराण में कहते हैंयमि समम् तलम् रारांसु साँगत्य एव सगतिहि ॥ वह यह भी कहते हैं कि संगध्या एक बहुत पुराना छंद था जिसका प्रयोग उनसे पहले होने वाले भी बहुत से बड़े बड़े कवियों ने किया था समय जिनसेन के महापुराण का नवीं शताब्दी का प्रथम चौथाई भाग है ।
त
और आधुनिक कन्नड़ भाषा का प्रयोग इस ग्रन्थ को अपनो प्राचीनता से नहीं हटा सकता क्योंकि श्राधुनिक कन्नड़ भाषा की तरह की ही भाषा निम्नलिखित शिलालेखों में मिलती है
(१) भूविक्रम का बीडारपुर शिलालेख ।
(२) नीति मार्ग का नरसापुर ग्रन्थ । श्रतः पाठकों को इस ग्रन्थ की पौराणिकता पर विश्वास करना ही पड़ेगा ।
इस ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता के समय के विषय में जो विवाद है उसका प्रधान कारण चार प्रमोघवर्षों का होना है। डेन्टोदुर्गा भी अमोघवर्षं ही पुकारा जाता था । और शिवमार जोकि कुमुदेन्दु जी से सम्बन्धित था वह पहला शिवमार ही है द्वितीय नहीं ।
अब ग्रन्थ को ही लीजिए । कुमुदेन्दु जी ने कन्नड़ भाषा के ६४ वर्ण बताए हैं जिनमें ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भी मिले हुए हैं और अपना गणित विभाग तथा पूर्ण ग्रन्य कन्नड़, प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, तामिल, तेलगू आदि भाषाओं में लिखा।
डा० एस० श्रीकान्त जी कहते हैं कि यदि भूवलय के प्रकाशित भाग ( चैप्टर १-३३ ) का संतोषजनक अध्ययन किया जाए तो निम्नलिखित बातें इस ग्रन्थ से पता लगती हैं
(१) कनाड़ो भाषा ओर उसके साहित्य का ज्ञान कराने के लिये यह ग्रन्थ प्राचीन ग्रन्थों में से एक है तथा अन्य अनेकों विद्वानों के ग्रन्थों के विषय मैं भी, जो कि क्रिश्चियन शताब्दी के प्रारम्भ में हो लिखे गये थे, ज्ञान प्राप्त होता है । उदाहरण के लिये यदि यह ग्रन्थ पूर्ण प्रकाशित हो जाये तो चूड़ामस्ति जैसे प्राचीन विद्वानों के ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।
(२) संस्कृत, प्राकृत, तामिल और तेलगू भाषा के इतिहास के लिये
सर्वार्थ सिद्धि संध वेगलोर-दिल्ली
यह हमारी आंखें खोलने वाला ग्रन्थ है ।
(३) हमारे भारतीय दर्शन और धर्म तथा विशेष तौर से जैन धर्म को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए यह अपूर्व ग्रन्थ है, इससे प्राप्त सिद्धान्त आज मी हमारे विचारों को विशुद्ध कर हमें सद्मार्ग पर ला सकते हैं । (४) कर्नाटक और भारत के राजनैतिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ एक नवीन सामग्री प्रदान करता है । क्योंकि इसमें राष्ट्रकद के राजा अमोघवर्ष और गंग राजा संगीत शिवमार के विषय में वर्णन है ।
(५) भारतीय गणित शास्त्र के इतिहास के लिए यह ग्रन्थ विशेष महत्व रखता है । वोरसेन जी की 'धवल ग्रन्थ' की टीका के आधार पर जो आजकल जैन गरिणत शास्त्र योर ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया गया है, उससे पता लगता है कि अधिक पहले नहीं तो नवीं शताब्दी में हो भारतीयों ने गति के अनेकों तरीके स्थानांक मूल्य (Place value) जोड़ के तरीके, समयोग भंग, विभाजन के विशेष तरीके, परिवर्तन के नियम, ज्यामिति और रेखा गरिणत के नियम (Geometrical and mensuration formulas ) अनंतांक गणित विधि (Theouries of Infinily ) प्रथम समयोग, द्वितीय समयोग श्रादि (The value of Permutation and combinatio) को भी जानते थे । कुमुदेन्दु जी का ग्रन्थ 'भूवलय' वीरसेन जी के ग्रन्थ से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण और आगे है । इस ग्रन्थ के लिए गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है ।
(६) हिन्दुओं के स्पष्ट विज्ञान के लिए भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्णं सहायता देता है क्योंकि इसमें अणु विज्ञान (Physics), रसायन शास्त्र (Chemistry ), जीव-विद्या (Biology), औषध शास्त्र ( प्राराध्य और आयुर्वेद), भूगर्भ शास्त्र ( Geology ), ज्योतिष शास्त्र ( Astronomy ) इत्यादि का वर्णन है ।
(७) भारतोय कला का इतिहास भी यह ग्रन्थ बतलाता है क्योंकि यह भारतीय मूर्तिकला, चित्र कला तथा (loonography) के लिए एक अपूर्व साघन है।
(८) रामायण, महाभारत और भगवद्गीता के दोहों की भोर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जोकि इस प्रकार से गुंथे हुए हैं कि मह पहचानना कठिन हो जाता है कि इसमें धाधुनिक व्यक्तियों ने कितने नए क्षेपक
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सिरि भूवलय
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(झूठे पद अपनी तरफ से मिलाना) मिलाए हैं। कुमुदेन्दु जी के मतानुसार इस ग्रन्थ में लगभग एक से ८ या १० गीता के पद हैं जिनको पांच भाषाओं में समझ सकते हैं । नेमो तीर्थंकर के गोमट्ट को अनादि गोता, कृष्ण की गीता, म्यास की गीता जोकि अपने मौलिक रूप में व्याख्यान के नाम से महाभारत में पाई जाती है और कन्नड़ भाषा में कुमुदेन्दु जी की गीता है। इस ग्रन्थ में गीता की पैशाची भाषा में भी प्रालोचना मिलती है और बाल्मीकी राम के मौलिक पद भी इसमें पाए जाते हैं। भागे ऋगवेद के तीन पद ( एक गायत्री मन्त्र से प्रारम्भ, तथा दो अन्य) भी इस ग्रन्थ के अध्यायों में पाये बाते हैं । भारतीय सभ्यता को पढ़ने और पहचाने के लिए ये तीन पद ही ऋगवेद के प्रमुख है ।
( ९ ) भारतीय सभ्यता के अध्ययन के लिए इस मनोरंजक ज्ञान के अतिरिक्त भूवलय में कुछ निम्नलिखित जैन ग्रन्थों के शुद्ध पद मिलते हैंभूतबाली का सूत्र, उमास्वामी, समन्त भद्र का मंदहस्थी महाभाष्य, देवगामा स्तोत्र, रत्नकरंड श्रावकाचार, भरत स्वयंभू स्तोत्र, चूडामणी, समयसार, कुन्दकुन्द का प्रवचन सार, सर्वार्थ सिद्धि पूज्यपाद का हितोपदेश, उर्गदित्या का कल्याणकरिका, प्राकेवरी स्तोत्र, मंत्रवम्भर स्तोत्र, ऋषिमंडल, कुछ तांत्रिक अंग और अंग बाहिरा कानून, कुछ पारिभाषिक ग्रन्थ जैसे सूर्य प्रान्नेपति, त्रिलोक "प्राग्नेपति, अम्बू द्वीप प्राग्नेपति श्रादि ।
(१०) यह ग्रन्थ १८ बड़ी भाषाएँ और ७०० छोटी-छोटी भाषाओं को निहित किये हुये है । इस ग्रन्थ में जो भाषाएँ हैं उनमें कुछ प्राकृत संस्कृत, द्रविड, प्रांध्र, महाराष्ट्र, मलाया, गुजराती, हम्मीरा, तिब्बती, यवन, बोलिदी, 'ब्राह्मी, खरोष्टी, अपभ्रंश, पेशाची, अरिस्ता, अर्धमागधी टर्की, संघव, देवनागरी, पारसी आदि हैं। जितना यह ग्रन्थ छपा है उसमें से संस्कृत, विभिन्न प्राकृत, कनड़, तामिल, तेलगू को बड़ी श्रासानी से पहचाना जा सकता है। यदि इस विषय पर अनेकों विद्वान गंभीर अध्ययन करें तो इससे और भी अनेकों भाषाएँ और उनके शब्द प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए भाषा विज्ञान के विषय में भी यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है ।
सर्वाध सिद्धि संघ चैपलौर - दिल्ली
सौभाग्य से इस सम्पूर्ण ग्रन्थ को माइक्रो फिल्म ( Micro Filmed ) कर लिया है और यह नई दिल्ली के राष्ट्रीय ग्रन्थ रक्षा गृह में राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद जी के अधिकार में रखा हुआ है। और इसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियां भी राष्ट्रकूट राजकुमार मल्लिका के नेतृत्व और सहायता से की गई थीं अब वे छानबीन द्वारा सिद्ध की जाएंगी। बड़े-बड़े विद्वान और मुनि इस हस्तलिखित प्रतियों की ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं।
इस ग्रन्थ में कुछ इस प्रकार की विद्या भी है जिससे कुछ ऐसे नम्बरों का पता लगता है जिनको कि यदि अक्षरों में लिखा जाए तो वह प्रश्न हो उस का उत्तर बन जाता है। किसी प्रश्न का उसके उत्तर में बदल जाना गणित शास्त्र का ही नियम है जोकि अभी पूर्ण रूप से विदित नहीं हुआ है। एक बार ओटी (Outy) के कोफोप्लेटर के किए गए प्रश्न के उत्तरमें ३०० ब्राह्मी पटपदी कविता बन गई थी।
मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जोकि अपने भूत और भविष्य के विषय में सोचता ही रहता है । अपने हृदय में यदि वह कोई इच्छा न रखे तो उसका जीवन शून्य ही माना जाता है। लेकिन व्यक्ति जो कुछ भी अच्छा या बुरा सोचता है । यह उन सभी को कार्य रूप में परिणित नहीं कर सकता। और न ही वह इतना पराधीन भी है कि वह अपने विषय में सोच भी न सके। जिनका कुछ ऐसे नियम कर्म, ईश्वर के नाम पर बने है मनुष्य पालन करता है ।
यदि 'श्री भुवलय' को व्यक्ति ठीक समझले और कुछ पाना चाहे तो मनुष्य की कल्पना, ज्ञान बढ़ना जरूरी है। 'भूवलय' ज्ञान का भंडार है ।
कुछ समय पहले मैंने यह ग्रन्थ शिक्षामंत्री श्री ए० जी० रामचन्द्र राव को दिखाया व बताया था ! उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता और सरकारी कार्य की सहायता शीघ्रातिशोध देने का वचन दिया था ।
अन्त में, यदि मैसूर के रायल हाउस को पूर्ण सहायता भी मिलती रहे तो यह कन्नड़ ग्रन्थ ( कुमुदेन्दु जौ का भूवलय) राष्ट्र के लाभ के लिए छप सकेगा ।
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सिरि भूवनय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली भौम सत संत
। प्राचार्य बन गये तब उन्होंने वंश, गोत्रसूत्र, शाखा प्रादि सभी को त्याग दिया। इस शिवमार का सैगोट्ट शिषमार नाम मी का। कागड़ी भाला में।
१६२१ सैगोट्ट शब्द का अर्थ कथा के श्रवण में केवल हाँ हाँ की स्वीकृति देना है। अहंदल्याचार्य के समय में जैसे गणगच्छ का बिभाग हुमा तो इसी किन्तु कुमुदेन्दु आचार्य अपने शिष्य शिवमार सैमोट्टा को जब भूवलय की क्या रोति से श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी गणगच्छ की स्थापना की थी।१६३।। सुनाते रहे और शिवमार आदि से लेकर अन्त तक मछि भाव से कथा सुनते इस गणगच्छ को ६ भाग में विभाजित हुए भारतवर्ष में सेनगण के रहे, तब उन्हें मतिज्ञान की सिद्धि हुई ॥१४॥
HE गुरु पीठ को स्थापित करके अखिल भारत में सर्वधर्म समन्वय ने दिगम्बर जैन मति ज्ञान प्राप्त हो जाने से पृथ्वी के सम्पूर्ण ज्ञान शिवमार को प्राप्त / धर्म को स्थिर रक्खा। हो मवे ॥१४॥
विवेचनः-आचार्य कुमुदेन्दु के समय में हमारा भारतवर्ष नो भागों ऐसे मान की प्राप्ति तत्कालीन भारतीयों के सौभाग्य का प्रतीक में विभक्त था । जिस प्रकार राज्य नौ भागों में विभाजित या उसी प्रकार था ॥१५॥
धर्म राज्य अर्थात् गुरुपीठ भी नौ भागों में स्थापित हुधा वा । अब इन पुरु नवविध व्रह अर्थात् पंचपरमेष्ठी अक्षर और मछु रेखा वर्ण का संपूर्ण पीठों में कोल्हापूर कांचीवर पेतांबड ये ही तीन गहियां चल रही हैं । रत्नगिरि ज्ञान प्राप्त हो गया, ऐसे शिवमार की रक्षा करके सद्गुरु अर्थात् कुमुदेन्दु भाचार्य । दिल्ली इत्यादि का गुरुपीठ नामशेष हो गया है। की कीर्ति बढ़ गई ॥१५१-१५२॥
कुमुदेन्दु प्राचार्य और उनके शिष्य शिवमार के राज्य काल में सारे कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि यह कीर्ति ही हमारा पारीर है ॥१५॥
| भारत सन्त में कर्नाटक भाषा राज्य थी। कर्नाटक भाषा में ही भूवलय ग्रन्थ इस कीर्ति से शिवमार को जो विशुस प्राप्त हुआ वह नव नवोदित
लिखा गया है। उस कर्नाटक राजा का कर्म बिस्तार पूर्वक कर्म सिद्धांत का था ॥१५४।।
कुमदेन्दु भाचार्य ने दिया ।१६५-१६६। वह कीर्ति दसों दिशाओं में वस्त्र के समान फैल गई, अर्थात् कु. ।
उनको पाया हुआ यह भूवलय नामक ग्रन्थ है ।१६७। दिगम्बराचार्य पाशवसनी थे ॥१५॥
इस प्रकार से यह भूवलय ग्रन्थ विश्व में बिस्त्यात हो गया ।१६। भूवलय विख्यात कीति वाले सेड़गण नामक गुरुपीठि के प्राचार्य
उस कर्माटक चक्रवर्ती सैगोट्ट शिवमार को पांच पदवी प्राप्त हुई थीं। ये ॥१५॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य का जन्म जातवंश में अर्थात् महावीर भगवान का वंश
पहले का पद धवल, दूसरा पद जयधवल, तीसरा महाधवल इसी रीति से बढ़ते था ॥१५७।।
हुए ॥१६॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य का गोत्र सदमप्रकीर्णक था॥१५॥
जनता की दीनवृत्ति को नाश करके कीर्ति लक्ष्मी और शील को षषल उनका सूत्र श्री वृषा सूत्र था ।१५६।
रूप में बढ़ाते हुए पानेवाला अतिशय धवलापर नामधेय भूवलय रूपी चौथा और प्राचार्य की शाखा द्रव्यांग वेद की थी॥१६॥
विविध भांति विस्मय कारक शब्दों से परिपूर्ण पांचवां विजय पवल है। उनका वंश इक्ष्वाकु वंशान्तर्गत ज्ञात वश था ।१६११
ये पांचों धवल भी भूबलय गपी भरतखण्ड सागर को वृद्धिङ्गत करने-:. श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जब दिगम्बर मुद्रा धारण करके सेनगण के । वाले पांच पद है । अर्थात् संगोट्ट शिवमार नृप को राज्योभ्युदय काल में -
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सिरि मुखमय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली धवल, २--जयधवल, ३-महाधवल, ४-अतिशय धवल (भूवलय) और पांचवां । सबको सिखा दिया था ।१७४। विजय पवल रूपी पांच पदवियां प्राप्त हुई थीं ॥१७०-१७१।।
जब अहिंसा धर्म की ख्याति बढ़ गई तब अणुव्रत का पालन करनेवाले इस प्रकार भरतमही को जीत करके संगोट्ट शिवमार दक्षिण भरत भी बढ़ गये ।१७५॥ खण्ड में राज्य करता था । ३ कर्माटक चक्री उनका नाम पड़ा अर्थात् सस यह ख्याति सबको सुख कर है ।१७६। समय सारे भरत खण्ड में कानड़ी भाषा ही राज्य भाषा थी। उनके राज्य का भरत खण्ड की ख्याति ही यह ६ खण्ड शास्त्र रूपी भूवलय की ख्याति दूसरा नाम मण्डल भी था ॥१७२॥
है।१७७। हिंसामयी धर्म सब को दःख देनेवाला है इसलिए वह अप्रिय है। इस
जब इस भूवलय शास्त्र की ख्याति बढ़ गई तब यह भरत खन्ड इस प्रकार का उपदेश देते हए उस चक्री ने राज्य दण्ड और धर्म दण्ड से हिंसा को लोक का स्वर्ग कहलाया। पोर यह प्रथम अमोघवर्ष राजा इस भलोक स्वर्ग का भना दिया ।१७३।
अधिपति कहलाया। इस प्रकार से राज्य करनेवाला अभी तक नहीं हुआ और अहिंसा धर्म अत्यन्त गहन है । इस प्रकार के गहन धर्म को चक्री ने नागे ही होगा इस प्रकार से सभी जनता कहने लगी। १७८ से १८१ लक।
नोट:-एक समय में संगोट्ट शिवमार चक्री अपने राजसी वैभवों के साथ हाथी के ऊपर बैठकर जा रहे थे। उस समय वृष्टि होने के कारण सारी पृथ्वी पंकमयी थी । दूर से देखने पर श्री प्राचार्य कुमुदेन्दु अपने गुरु और शिष्यों के साथ अपनी ओर विहार करते हुए देखकर अपनी सारी सेना रोक दिये तथा स्वयं हाथी से उतरकर पादमार्ग से श्री गुरु के सन्मुख जाकर गुरुओं की बन्दना को । तत्पश्चात् शिवमार सैगोट्ट चको ने जो अपने मस्तक में अमूल्य जवाहरात से जड़ित किरीट बांध रखा था, वह गुरु देव के चरण कमलों में गिर पड़ा। किरीट के गिरते ही उसमें से अमूल्य नायक मणि (तत्कालीन विख्यात मरिण) गुरु के चरण समीप कीचड़ में सन गई और उसकी देदीप्यमान कान्ति मलिन हो गई। गुरुदेव ने अपने शिष्य को शुभाशीर्वाद देकर प्रस्थान करा दिया। इधर शिवमार परम सन्तुष्ट होकर गजारूढ़ हो राजसभा में जाकर सिंहासन पर आसीन हो गया। इससे पहले राजसभा में बैठकर सभा सदों के समक्ष वार्तालाप करते समय तथा अपने मस्तक को इधर उधर फेरते समय किरीट में जड़ित उपयुक्त अमूल्य रल को कान्ति सभी सभासदों को चकाचौंध कर देती यो किन्तु आज उसकी चमक कीचड़ लगजाने के कारण नहीं दीख पड़ी । सभासदों ने मन्त्री से इङ्गित किया कि किरीट में लगे हए कीचड़ को वस्त्र से साफ करदो। यह सुनते ही मन्त्री कीचड़ को वस्त्र से स्वच्छ करने के लिए राजा के निकट खड़ा हो गया । वार्तालाप करने में मग्न राजा की दृष्टि समीपस्थ मन्त्री के ऊपर सहसा जैसे ही पड़ी वैसे ही राजा ने विस्मित होकर पूछा कि तुम यहां क्यों खड़े हो ? मन्त्री ने उत्तर दिया कि मापके किरीट में लगे हुए कीचड़ को साफ करने के लिए मैं खड़ा हुँ । राजा ने मंत्री से कहा कि गुरु की अहेतुकी कृपा से प्राप्त चरम रज को हम कदापि नहीं पोंछने देंगे। क्योंकि इसे हम सदा काल अपने मस्तक पर धारण करना चाहते हैं। राजा की अपूर्व गुरुभक्ति को देखकर सभी सभासद पाश्चर्य चकित हो गये। जब एक साधारण शिष्य को गुरुभक्ति का माहात्म्य इतना बड़ा विलक्षण था तब उनके पूज्य गुरुदेव की महिमा कैसी होगी?
उत्तर---राज्य शासन करते समय शिवमार राजा को जो उपयुक धवल जय धवलादि पांच उपाधियां प्राप्त थीं उन्हीं उपाधियों के नाम से अपने शिष्य शिवमार राजा का नाम अमर रखने के लिए गुरुदेव ने स्वविरचित पांच ग्रन्थों का नामकरण धवल जयधवलादि रूप से हो किया। इन दोनों गुरु शिष्यों की महिमा अपूर्व मौर अलभ्य है।
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सिरि मूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगसोर-विल्ली ज्ञानवर्ण आदि पाठ कर्मों को दहन करते हुए.मात्म कल्याण कराने कानडी भाषा में चरित मामक छन्द को सांगत्य कहते हैं। सांगत्य वाला यह भरत खण्ड है ।१५।
अर्थात् दिगम्बर मुनि राजों का समूह ऐसा अर्थ होता है उन गुरु परम्परा से कर्नाटक अर्थात् पाठ कर्म के उदय से जगत के समस्त जीव कर्म में पाये हुए अर्थात् श्री बीरसेनाचार्य द्वारा सम्पादन किये हुए सद्ग्रन्थ को फंसे हुए है । इसलिए कानड़ी भाषा ही सभी जाबो को भाषा है । उदाहरण
ले र रचना किये हुए इस भूवलय काव्य को बाचक काव्य भी कहा जाता लिए सर्व भाषामय काव्य भूवलय ही साक्षी है ।१८३।
है ११६६! इस भारत वर्ष में सद्धर्म का प्रचार बहुत बढ़ जाने से सभी जनों में
I हमारे (कुमदेन्दु आचार्य के) गुरु श्री बीरसेन स्वामी ने छाया रूप से धार्मिक चर्चा चलती थी ।१४।
हमें उपदेश दिया उस गुरु का अमृत रूपी बाणो को गणित शास्त्र के सांचे में राज्य को अहिंसा धर्म से पालन करनेवाला चक्रवर्ती राजा राज्य करे।
ढाल कर प्राचीन काल से आये हुए पद्धति के अनुसार मङ्गल प्राभूत के फर्मातो उनके शासनकाल में स्वभाव से ही अहिंसा धर्म का प्रचार रहता है ।१८ !
सुसार गुणाके सांचा में ढालकर हम (कुमदेन्दु प्राचार्य) ने अत्यन्त उन्नत अहिंसा धर्म ही इस लोक और परलोक के सुख का कारण है और
दशा को पहुंचे हुए सात सौ अट्ठारह असंख्यात अक्षरात्मक भाषा युक्त रीति
से इस ग्रन्थ को बनाया 1 इस अन्य की पद्धति बहुत सुन्दर शब्द गंगा से सुख का बर्वस्व सार है।१५६।
लिखा है, अक्षर गंगा से नहीं। इसलिए सभी भाषायें इसके अन्दर प्रागई परस्पर प्रेम से यदि जीवन निर्वाह करना होतो परस्पर में सहकार!
हैं । इस ग्रन्य के बाहर कोई भी भाषा नहीं है ।१९७-१९८० हो मुख्य कारण है और वही वर्म का साम्राज्य है ।१८७१
अत्यन्त सुन्दर रचना से युक्त कर्नाटक भाषा यह आदि काव्य है|१९l इस लोक में सभी को शौभाग्य देनेवाला यह अहिंसा धर्म हैं ।१८।। महावीर भगवान ने इस धर्म को मङ्गल स्वरूप से दान दिया है। .
यह काव्य अंग ज्ञान द्वारा निकलने के कारण समस्त भाषा से भरा हुपा है। अंक लिपि सौंदरी देवी का है। उस अंक लिपि द्वारा हम बांधकर
इस प्रन्य की रचना किये हैं । यह हृदय का प्रतिश्य थानन्द दायक काव्य है। गुफा में रहते हुए तपस्या द्वारा सिद्ध किया हुआ अहिंसा धर्म है ।१६०
इस काव्य के बाहर कोई भी भाषा नहीं है। अगणित जीव राशि प्रादि की हिंसा को बिनाश करके अहिंसा की स्थापना करके सन्मार्ग बतलाने
सभी पापा इसके अन्दर विद्यमान है। मंक अधि-देवता के गणित पाचा यह राधा का राजमार कर्म है ।१९१॥
द्वारा यह काव्य बांधा हुआ है 1२०० से २०४॥ सुख सिपभद्र इत्यादि सभी शब्द मङ्गल वाचक है । यह सब इस
पह काव्य अनेक चक्र बन्धों से वंधित है ।२०५। राज्य में फैला हुआ था ।१६२१
अनेक प्रकार का जो भी चक्र बन्ध है वह सब इस भूवलय में उपलब्ध महानभानों को पैदा करनेवाला अर्थात् उन सभी का वर्णन करनेवाला हो जाता यह भूवलय ग्रन्थ है ।१९३।
गणित में अनेक भङ्ग (गणित का नियम) होते हैं उनमें यदि मृग, महावीर जिनेन्द्र जी इस राज्य में बिहार किये थे 1१६४।
पक्षी की भाषा निकालनी हो तो इसी गरिएत भङ्ग से निकालनी चाहिए ।२०७॥ सिद्धान्त को पढ़ते हुए अन्तर्मुहूर्त में सिद्धान्त के मादि मन्त को साध्य उस भङ्ग का नाम स्वर्ग बन्ध चक्रवन्ध भी है 1२०॥ करनेवाले राजा ममोघव के गुरु (प्राचार्य कुमुदेन्दु) के परिश्रम से सिद्ध गणित में [१] अगरिगत (२) गणित (३) अनन्त इस प्रकार से किया हुमा यह भूवलय काव्य है ।१९।
भनेक भेद होते हैं ।२०६॥
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सिरि मृषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इन तीनों विधि और विधान द्वारा सारे विश्व को इस अन्य में बांध ऋषभसेन प्राचार्य से लेकर वर्तमान काल तक तीन कम नौ करोड़ दिया है ।२१०॥
मुनियों के सब ज्ञान का सांगत्य (अर्थात् भूवलय का छन्द है) से शुरू मृग अर्थात् तियच जीव किस प्रकार से मालूम होते हैं उस विधि को। है।२२२।। बतलाया गया है ।२११।।
यह धर्म अनादि काल से पाये हुए मदनोन्माद का नाश करनेवाला है। पक्षी जाति किस प्रकार से स्वर्ग में जाती है इस विधि को भी इस ग्रन्थ
।२२३। में बतलाया गया है ।२१२१
इस काव्य रूपी ज्ञान के हो जाने पर दुर्मल स्पी कर्म को नष्ट कर इस भूषलय में विश्व का सारा विषय उसके अन्दर भरा हुमा है।२१३ देता है ।२२४१
इस भवलय काव्य में यदि काल के दृष्टिकोण से देखा जाय तो यून तीन, पांच, सात और नौ यह विषय अंक है । सामान्य से २ अंक से परिवर्तन की विधि भी इसके अन्दर विद्यमान है ।२१४॥
पर्याद समान अङ्क से भाग नहीं होता है इस भवलय ग्रन्थ के ज्ञान से विषम सम्पूर्ण जीवों की रक्षा करनेवाला यह जैन धर्म क्या मानव की रक्षापङ्कसम अङ्क से भाग होते हुए पन्त में शून्य पाता है।२२॥ नहीं कर सकता है अर्यात अवश्य कर सकता है। इसी प्रकार गुरु के कहे हए
इस अंक के ज्ञान से सूक्ष्म काल अर्थात् भोग भोगी काल की सम्पदा को धर्म का पाचरण करने से राजा शिवमार द्वारा पृथ्वी की रक्षा करने में क्या दिखाता है 1२२६॥ पाश्चर्य है ।२१॥
इस प्रकार समस्त ज्ञान को दिखाते हुए अन्त में आत्म सिद्धि को प्रदान - इस तृष्णादि में सम्पूर्ण जोव भरे हुए हैं। इन सब जीवों की रक्षा करनेवाला यह भूवलय ग्रन्थ है ।२२७१ करनेवाला यह जैन धर्म शुभकर है सर्व लक्षणों से परिपूर्ण है और स्वयं या श्री धरसेनाचार्य के शिष्य भूतवल्य प्राचार्य ने द्रव्य प्रमाण अनुवाम शास्त्र मोक्ष की इच्छा करनेवाले को इच्छा पूर्ण करता है ।२१६३ ।।
से अंक लिपि को लेकर भूवलय ग्रन्थ की रचना की थी। यह भूवलय ग्रन्थ सम्पूर्ण जीवों को यश कर्म उदय को लाकर देनेवाला यह जैन धर्म । उस काल में विशेष विख्यात और वैभव से परिपूर्ण था । नूतन प्राक्तन जीव निर्वाह करनेवाले मनुष्य को सौभाग्य किस तरह देता है इसका
इन दोनों कालों के समस्त ज्ञान को संक्षेप करके सूत्र रूप से भूवलप ग्रन्थ की समाधान करते हुए प्राचार्य जी कहते हैं कि यशकायी जीवों के दुःस को दूर। रचना की थी। इस भूवलय ग्रन्य के अन्तर्गत समस्त ज्ञान भण्डार विद्यमान करने के लिए पारा सिद्धि के उपाय को बताया है ।२१७॥
है ।२२८। यह जैन धर्म विष से व्याप्त मानव को गारुणमणि के समान विष से।
श्री भूतवली आचार्य का अतिशय क्या है ? तो हर्षवद्धन उत्पन्न करने रहित करनेवाला है ।२१।।
वाला इस भारत देश का जो गुरु परम्परा से राज्य की स्थापना हुई है यही जैन धर्म के अन्दर अपरिमित ज्ञान साम्राज्य भरा हुमा है।२१॥ सका प्रतिक्षय है ।२२६॥
दश दिशामों का अंत नहीं दिखाई पड़ता इस भूवलय रूपी जान के यह भारत लवण देश से घिरा हुआ है और इसी भारत देश के अंतर्गत अध्ययन से अपना जान दिशा के अंत तक पहुंचाता है ।२२०॥
एक बदमान नामक नगर था । उस वद्धं मान नगर के अन्तर्गत एक हजार यह धर्म हुडावसपिणीकाल का अादि ऋषभसेन प्राचार्य के ज्ञान को नगर थे । उस देश को सौराष्ट्र कहते थे और सौराष्ट्र देश को काटक (कर्नाटक) दिखाता है ।२२१॥
देश कहते थे।२३०॥
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सिरि भूवल्लय
सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली उस देश में मागध देश के समान कई जगह उष्ण जल का झरना ।
अथवा निकलता था। उसके समीप कहीं कहीं पर रमकूप (पारा कुआं) भी निकलते प्र से लेकर ऊ पर्यन्त थे। उसके उपयोग को प्रागे करेंगे । २३१ से १२३४॥
१, ५२, ४४२+२३, ५८०-१, ७६, ०२२ सौराष्ट्र देश का पहले का नाम निकलिग था। भारत का त्रितलि इस अध्याय को उपयुक्त, कथनानुसार यदि अपर से नीचे तक पढ़ते नाम इसलिए पड़ा क्योंकि भारत के तीन ओर समुद्र है यह भूमि सफनड़ देश ! जाएं तो जो प्राकृत काव्य निकलकर पा जाता है उसका अर्थ इस प्रकार है:थी इस अध्याय के अन्तर्काव्य में १५६ हजार में १६८ अक्षर कम थे ॥२३॥ इस परम पावन भूवलय ग्रन्थ को हम त्रिकरण शुद्धि पूर्वक नमस्कार
इस भूवलय के प्लुत नामक नववें अध्याय के श्रेणी काव्य में पाठ करते हैं । यह भूवलय अन्य भव्य जीवों के प्रज्ञानान्धकार को नाश करने के हजार सात सौ पड़तालिस (८७४८) अंकाक्षर है । इसका स्वाध्याय करतेवाले लिए दीपक के समान है। इस दीपक रूपी ज्योति का प्राश्रय लेकर चलनेवाले भव्य जीव श्री जिनेन्द्र देव के स्वरूप को प्राप्त करने की कामना करते हैं। भव्य जीवों के कल्याणार्थ हम त्रिलोक सार रूप भूवलय ग्रन्थ को कहते हैं। उस कामना को पूर्ण करने वाला ६ अंक है । अर्थात् श्रेणी काव्य के ८७४८ । इस अध्याय का स्वाध्याय यदि मध्य भाग से किया जाय तो संस्कृत अंक प्राडा जोड़ देने से पा जाता है। यह वां अंक श्री जिनेन्द्र देव के भाषा इस प्रकार निकलकर या जाती है:द्वारा प्रतिपादित भूवलय की गणित पद्धति है । और यही अष्टम महाप्रातिहार्य भूतलि, गुराधर, आर्य मंक्ष, नागहस्ती, यतिवृषम, वोरसेनाभ्याम् वैभव भी है ।२३६।
विसकतम् श्री धोतारः सावधा। इन प्राचार्यों द्वारा विरचित अन्य को प्राप इति नवमोऽध्यायः
लोग सावधान पूर्वक श्रवण करें। ऊ ८७४८+अन्तर १४८३२-२३५८०
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दसवां अध्याय
ऋ* दूधि सिद्धिगळनु होन्दसि कोडुवंक । सिद्धिय सर्वज्ञ न* वन शुद्ध केवलज्ञानदतिशय धवलदे । सिद्धवागिरुव भूवलय || १ || सि* रि वीरसेन भट्टारकरूपदेश । गुरु वर्धमान श्री मुखवे । त रतर वागि बन्दरुयुदनेल्लव । विरचिसि कुमुदेन्दु गुरु ॥२॥ श्रो* दिसिवेनु कर्माटव जनरिगे। श्री दिव्य वाशिय क्रमवे। श्री द या धर्म समन्वय गणितद । मोवद कथेयनालिपुवु ॥३॥ नादिय कथेयनालिदु ||५|| वेद हन्एरडनालिपु ॥६॥ इ दिनवादिय काव्य ॥७॥ वेदागम पूर्व सूत्र ॥६॥ वेदव हृदिनाकु पूर्व || १०|| श्री दिव्य करण सूत्रांक ॥। ११॥ साधिक वय्भव बंध ॥ १३॥ प्रनिध्यात्मव बन्ध ॥ १४ ॥ श्री धन घी धन रिद्धि ।। १५ ।। नोव्थ सिद्धि ||१६|| प्रदिनो वृषघ रिद्धि ॥ १७॥ कादियिम् वर्णमालान्क || १८ || कादिधिम् नवमात्क बंघ ॥ १६॥ for नवमाकवंग || २० || पादियिम् नवमान्क भंग ॥ २१॥ याद्यष्टरळ कुल भंग ||२२|| सायन्त अं अः कः पः द ॥२३॥ मोइत्ते स्वरद ||२४|| श्रोदिन अरवत्नात्क अन्क ||२५|| साधित सिद्ध भूवलय ॥२६॥ सु* रनर नागेन्द्र तिरियन्च नारक । ररियुवेऴ्तूर् एम्ब शुॐ ॥
प्रादिय कथेय नालिषु ॥ ४ ॥ ॥ सादि श्रनन्तद ग्रन्थ ॥८॥ श्रादिगनादि वस्तु || १२ ||
वरभाषें हविनेन्ट बेरसिनाम् बरेदिहे । गुरु बोर सेन सम्मतदिम् ॥२७॥
॥३०॥
百悅
* मनिसि प्रखत्नात् अक्षर सम्योग । विमल भंगांक रा रुधि ।। क्रमविह अपुनरुक्तान्कद प्रक्षर । विमल गुणाकार मग्गि॥ २८ ॥ गि* fse तुम्बिoad लोमांक पद्धति । पोडवियोळतिशुद्भव ए* रग ।। गडियोळगवनुम् प्रतिलोमदन्कबिम् । बिडिसलु बहुवेल्ल भाषे ॥२६॥ र भाषेगळेल्ल समयोग बागलु। सरस शब्दागम छुट्टि । सर व दुमालेयादतिशय हारव । सरस्वति कोरळ आभरण परि परि यद कुसुम ||३१|| अरहन्त वारिणय महिमा ||३२|| सरळवागिह कर्नाटकद ||३३|| गुरु परम्परेय सूत्रान्क ||३५|| परमात्म नोरेद रहस्य ||३६|| वर कुसुमाक्षर दनक ॥३७॥ गरुडगमन रिद्धि गमन ॥३६॥ शरीर सन्दर्पद प्रक्ष ||४०|| विरचित कुमुदेन्दु काव्य ||४१॥ गुरुगळ वाक्य भूयलय ॥४३॥
परम व विध्यांक पूर्ण ॥ ३४ ॥ सरळवादरु प्रउड विषय ॥ ३८ ॥ धरवत् नात्क क्षरदन्
।। ४२ ।।
ह* रुष वर्धनवा जीव राशिय काव्य । सरुवान्क सरुवाक्षर न श्रम् । वरेयदे वरुव रेखांक समृद्धिय । परमारुतव रचनेयिम् ||४४||
गुरु गुपाद टुन्डाद लिपिय कर्नाटक । दनुपम र ळ कुळवेरसि ।। मोक्ष मार्गोपदेशकबाद एलोम्वेन्द्र । साक्षर अक्षरद् रक्षोगादिय वस्तु ॥४७॥ अक्षयानन्त सुवस्तु ॥ ४८ ॥ शिक्षण प्ररवत् नात्क अंग || ५१|| सूक्ष्मांकदनुपम भंग ॥ ५२ ॥ लक्ष कोटिगळ इलोकांक ||५५|| nare fuge गरिणत || ५६॥ लक्षरण पाहुडद ॥५६॥ बोक्षावसन त्याग ॥६०॥ अक्षर बन्बव मनेगऴ् ॥ ६३ ॥ चक्षुवन् मोलनवन्क ॥ ६४॥ कुषस्यस हार पदक ॥६७॥ यक्ष प्रकर्ष भूवलय ॥६८॥
* श्रनुजर देवर जीवराशिय शब्द । धनुपम प्राक्रुत दूरविड || ४५ || * हिन ॥ रक्षेय जगव समस्त भाषेगळिह शिक्षेये भव्यर वस्तु ||४६ ॥ अक्षर एरडने भन ॥ ४६ ॥ श्राक्षर वादि त्रिभंग ॥५०॥ अक्षय सुखद सुरूप ॥५३॥ शिक्षेयनादिय वस्तु ॥ ५४ ॥ कुक्षियो हुगिविरुवक ||५७|| कक्ष खगोळ मंगलव ॥ ५८ ॥ तीक्षण वाग्वारगवे मृदुल ॥ ६१ कक्षपुटवे चक्र भंष ॥६२॥ चक्षु प्रचक्षु सज्ञान ||६५|| मक्ष सकाकारण बर ।।६६॥
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मा मनि सलिन्तु ई सर्वविषयगळ । करम मार्ग गणितदेसर मं* विमल विहारदे प्र चरिसुव मुनिगळ गमकदतुल कलेयन्क ॥६६॥ व* शवागदेल्लरिग ई कालदोळगेम्ब । अस्दश ज्ञानद् साम ग तय । विषहर 'सर्व भाषाम ई करमाट । बसमान दिव्य सूत्रार्थ ॥७॥ य* वेय काळिन क्षेत्रदळतेयोळ जोविप। सविवरानन्त जीध ल* क् ॥ सुविस्पात काट देशप्रदेश । सविवर कर्नाटकबु ॥७॥ ग* गित शास्त्र बदेल्ल मुगिदरु मिक्कुव । गरिपतव नणु, म गेषु । जलवे सनवानदासम त्यातद । गुणितदेकेडिसुवक्रमवु।७२। व र विश्वकाव्यदोळडगिर्प कारण। सरणियन रितब शु भर द॥ गुरुवर वोरसेनर शिष्य कुमुदेन्दु । गुरु विरचितदादि काव्य ॥७३॥
* दक्षयवेन्तो अन्तु बन्दक्षर । निर्वाहदोळनग गळ ।। सर्वब अनुलोम् प्रतिलोम हारद । सर्वांक मंगल विषय ।।७४॥ खो* डिकर्मबगेल्व हाडनुम् हा डद । रूढियम् हळेय कम्नङ वाक | गाढ प्रगाड समरूढियज्ञानद । कूड यतिशय बत्र ॥७॥
हाडलु सुलभवादनग ॥७॥ नोडलु मेच्चुव गणित 15७॥ जोडियन कद कूटदद्ग ॥७॥ कुडुच पुण्यानुग भंग ॥७॥ कूडुवागले बंद लब्ध ॥५०॥ गूढ रहस्यद अंग ॥१॥ मूढ प्रउदरिग प्रोम्दे भंग ॥८२॥ गाढ रहस्य कर्माग।।८३॥ मोडि बरलु पुण्यदंग ।।१४॥ बारे ढिय कळेव भानांग ॥५॥ गाढ श्री गुणकार भंग ।।८६।। माडिद पूजान्ग भंग ॥७॥ रूढियिम् बंद पुण्यान्ग ॥८८।। प्रौडिनोल हाडुब अन्ग ॥८६॥ काडिन तपदे बन्दनग ॥१०॥ तौडिनोळ गणिपन्तरग॥६॥ ताडनवळिव दिव्यानग 11६२॥ माडिद पुण्याग गरिएत ॥६॥ रूढियागमद सूक्ष्मानग ॥४॥ याडिल्लदणु महा भंग ॥५॥
गाढ भक्तिय भव्य रन्ग ॥६६॥ कूलिंद भव्य भूवलय ॥७॥ य* शकीरति नाम करमोदयवळिदस । यशद दिध्यात्म निम्ब न द ॥ असमान द्रव्यागमद पाहडदनग । कुसुम वर्णाक्षर माले | पी लमहानोलनामद ऋविगळ। सालिनिम्धन दिहरिणत।। बोलेय वो र जिनेन्द्रन वाणिय । सालिनिम् बंदिह गरिणत En ल* क्षमएनर्ध चक्रीश्वर नवनग । लकमान्कदक्ष रोश चनवा। लक्षमवभादिगुणिसुतगरिणसिहा लक्षयांक दनुबंधकाव्य ॥१०॥ म् नुमथन नुपमदेह सम्स्थानद । घन बन्ध समहननव मंतनवकारद सिद्धरतिशय सम्पद । देरणेकेय सौन्दर काव्य ॥११॥
जिन चन्द्रप्रभरनग धवल ।।१०२१ मुनिसुदरतरन्क कमल | १०|| जिन मुनिमालेय कमल ॥१०४॥ धनरत्नत्रय दिव्य धवल ॥१०॥ जिन माले मुनिमालेयन्क ।।१०६॥ गणित दोळकपर ब्रह्म ॥१०॥ अनुभव गोचर गरिणत ॥१०८॥ जिनमतवर्धन धवल ॥१०॥ तनगे प्रात्मध्यान धवल ॥११०। कुनय विधूर साम्राज्य 11१११३ कनकव धवलगेयवनक ।।११२।। तनुमन वचन शुद्ध धन ॥११॥ विनुतद लौकिक गणित ॥११४॥ जिनर केवल ज्ञान गणित।।११५॥ थणथणवेने श्वेतस्वर्ण ॥११६॥ चणक प्रमाणवे मेरु ॥११७॥ जण जण होळे व दिव्यांक ।।११।। पण वळिविह सद्गणित ॥११॥ गुण स्थानदनुभव गणित ।।१२०॥ जिनर अयोगद गणित॥१२१ ।
सतुमत काव्य भूबलय ॥१२२॥ म रळि मागंणस्थानदनुभव योगद । मर जीवरसमास दरि ग वरुषव समयय कलपव समयव । वह समयदोळनन्तानक ॥१२३॥ हर रडुत तनुगुत बेरेयुत हरियुत । सरुव पुद्गल होन्दि सर लं* बरुत होगुत निळ्व जोवराशिगळनक । करगदे तोरुवनन्त ॥१२४॥
पी चातिनीच जीवनद जीबरनेल्ला पाचेगे सागिप दिया। राचमं भ* दुर् मनगलद पाहुड काव्य । ईचेगाचेगे अन्तरदिम् ॥१२॥ लोकदोळगे भद्रवागिसि पिडिदिदु । लोकदके बधिसि ग* ॥री करवागिरिसिप कल्याणद । शोकापहरणद अनक ॥१२६॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि ' बेलौर-दिल्ली नाकाग्र श्री सिद्ध काव्य ॥ १२७॥ व्याकुल हरि सिद्ध काव्य ।। १२८ ॥ श्राकाररहित दिव्यान्ग ।। १२६ ।। एकाग्र ध्यान सम्प्राप्त ।। १३० ।। श्रीकार वरजित शब्द ।। १३१॥ श्रोमकार गोचर वस्तु ॥१३२॥ ह, रोम् कार दाराध्य वस्तु ॥१३३॥ ह् रूम्कार दतिशय वस्तू ॥ १३४ ॥ हमकार राराध्य सज्ञा ।। १३४ ॥ हरीमकार गोचर वस्तु।। १३६ ।। ह रोम्कार पूजित गर्भ ॥१३७॥ श्रमकार दतिशय वस्तु। ११३८ ।।
शमका विरहित भूवलय ।। १४१ ।। सबै श्री समवसरण भूमियतिशय जवम्जव सम्हार भूमी ।। १४२ ।। गबदु | परमात्म सिद्धिय कारणुगमन व सिरिवर्धमान वाक्यांक॥ १४३ ॥ चरियद चारित्र्य लब्धि कारणवागे । अरहन्त भाषित वाक्य || १४४ ॥ तुव ॥ वंशवाद भव्यर सम्सारदन्त्यवु । जसदन्ते बन्दोदगेवुदु ॥ १४५॥ षदने लेवनेयद तोहव । पावन मंगल काव्य ।। १४६ ॥
१५० ॥
।। १६५।।
ह, रम्कार राराध्य सवज्ञ ॥१३६॥ ह रह कार गोचर वस्तु ॥१४०॥ * वकार मन्त्रदोळादिय अरहन्त । शिव पद कय्लास गिरि वा व र भद्र कारणवदनु मंगलवेन्दु । गुरु परम्परेय अ नु ॐ र सुर तिरियन्च नारकि जोवर । परि परि सम्यक्त्वद गौ उ सह तीर्थन् करवाति इप्पत्नात्कु । यश धर्थ तोवर तक दी व सागर गिरिगुहे कन्दरवा । ठाविनोळिव निवारण | भूवि मोॐ श्री वीरवाणि श्रोम्कार ।। १४७।। कावन सम्हार नेलवु ॥ १४८ ॥ श्रा विश्व काव्यांग धर्म ॥ १४६॥ ई विदद्य अरवत् नात्क् अंक ॥ वविध्य कर्म निर्जरेय ॥ १५१ ॥ श्री विषय पुण्य बन्धकर ।। १५२ || पावन शिव भट्टर विश्व ।। १५३ ।। ई विश्व वय्भवद् अंक ॥। १५४ ॥ काय पुण्याकुर व्रुक्ष ।। १५५ ।। देवर देवन क्षेत्र ॥ १५६ ॥ ई विश्वदर्शन ज्ञान ॥ १५७॥ एवेळवेनतिशय विदरोळ् ॥ १५८ ॥ श्री वीरनुपदेशदनुक ।। १५६ ।। विश्वदचिन चित्र ।। १६०१ कावनेरिव दिव्य भूमी || १६१|| श्री विश्व काव्य भूवलय ॥ १६२॥ कोटा कोटि सागर गळनळे युवा । पाटिय कर्म सिद्धांत || दादव ग खिसुव विधिय दुरव्यागम भाटान्क वयुभववमल ।। १६३॥ * Ferfare शभ्द हुट्टे जडव । क्रमवल्लवदर ए रगी केयु ॥ विमलजीवद्रवदिम्बवद्रव्यवे । श्रमलशब्दाग मबरियम् ॥१६४॥ ई* गहिन्दर नादिय मुन्दरा तागुवनदत कालवनु ॥ श्री गुरु मं गल पाहुडविम् पेद | रागविराग सद्ग्रन्थम् श्रो कारदो विन्दुवदनु कूडिललन्त। ताकिदवर ओम् श्रवगं श्रीकर सुखकर लोक मंगल कर। दाकार शब्द साम्राज्य ।। १६६ ॥ वयाकुल हरदन्क भंग ।। १६७ || साकारदतिशयवन्ग ॥१६८ श्राकार रहित दाकार आकारवदे निराकार ।। १७० ।। एक द्वित्रिचतु भंग ॥ १७१ ॥ आकडे ऐदारु भंग ॥ १७२ ॥ ज्योयो एळेनटु भंग ॥ १७३॥ साकु भाषे एकतर् हदिनेन्दु ॥ १७४॥ 'ओ' कार' अक्षर कळेय ।। १७५ ।। लोकद भाषेगळ् बबु || १७६|| श्री फारववु दुद्वि संयोग ।। १७७ ।। कलु मूरु अक्षरवम् ॥१७८॥ आकार प्रारु भनुगविदे ॥ १७६ ॥ हाकलु नाल्कु भन्गदोळ ॥१८०॥ जोकेयो हविनारु भन्ग ।। १८१ ॥ बेका ऐदु अवम् ॥१८२॥ श्राकार इप्पत्ऐद् श्रन्ग ॥१८३॥ एक मालेयोलारक्षरद ।। १८४ ॥ श्री कारद एप्पत् एरडु ।। १६५ ।। हाकलु एलु अक्षरव ।। १८६ ॥ साकार तुरिष्यत् अन्ग ॥ १८७॥ बेका एन्दु अक्षरच ॥१८८॥ साकलु एरिप्पत्तु ॥ १६६॥ ताकुव भाषे भूवलय ॥१०॥ * ळियुबुदादि अन्त्यदेर अक्षरगळ बळि सावु लं भाषे। बळिसार्दक्षुल्लक एल्नुररभाषे बळेसिरिमहाहदिनेन्टम् १९१ वदन्कवने रडकवत् श्राणिसे । सवियादि देव मानवरू ।। सवए कं दब महाभाषेगळ् पुट्टलु । भुविय समस्त मातृगळ ॥१४२॥ मिश्र वग्वारिण सरस्वति रूपिन । सर्वज्ज्ञ वाणियोम्दानि ॥ सार् द द्रव्यागम, श्री जिनवासिय । निर्वाहवतिशय पाठ ॥ १६३ ॥
॥१६६॥
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रस
सारपान
समाप सिाब सय बगलारसदना गिरि गहे कन्दरवोळगे होकगे निन्छ । अरहन्त वारिणय बळि कु* सर मालेपोळगेल्ल भाषेय बलेसुव । गुरु परमपरे यादि भंग ॥१९४॥ रिक षि वर्धमानर मुखदनगवेन्देने । होसेवेल्ल मेयइन्द् वा होरटु। रस वस्तु पाहुड मंगल रूपद । असदश वयभवभाष ॥१६॥
वशाव दिव्याक्षरानक ॥१९६॥ रिषिवम्बा दादिय भाई ॥१९७॥ कसिय द्रव्यागम भाषे ॥१९॥ विष वाक्य सम्हार भाषे ॥१६६ वशवागलात्म ससिद्धि ॥२०॥ विषयाशा हरण दिव्यांग।।२०१॥ रसद् अरवत् नाल्कु भंक ॥२०२॥ यशवेरळ प्रन्गय बरेह ॥२०३॥ रस वस्तु त्याग घोंग॥२०४॥ यशदंक भन्ग भूवलय ॥२०५॥ रस सिद्धियाविय भन्ग ॥२०६॥ यशस्वति पुत्रियरन्गम् ॥२०७।।
रस रेखेयतिशय काव्य ॥२०॥ रिण ज तत्व एकर भाजितदिम् बन्द ! अजनादि देवन बारिण। बिज दर वय विजय धवलवन्क राशिया जसिद अतिशय धवल ॥२०॥ बस रदवाद एळनूर हदिनेन्दु भाषेय । सरमालेयागलुम् विद् या सरणियोळ मूरुनूररवतन ग्रंकवे। परितरलागिरमतवम् ॥२१०॥ बुळिव धवलवु महा धबलांकद । बळिसार लेरडे भाषे ॥ कळे जोश व धर्मोस्तु मन्गलम् काव्ययु । बळिक श्री जय धवलांग ॥२१॥ क्षेत्र वागम स्तोत्रवादि महोन्नत । पाबन पाहुड प्रन्थ ॥ तीवे व र्पागम वेल्लवु तुम बिह । श्री विजयद भूयलय ॥२१२॥
पावन महासिदध काव्य ॥२१३॥ देवन बचन सिद्धान्त ॥२१४॥ शरो वीर वचन साम राज्य ॥२१॥ श्री वनवासिय काव्य ॥२१६।। देव जिनेन्दर वचन ॥२१७॥ देवरष्टम जिन काव्य ॥२१॥ देव शान्तोशन मार्ग ॥२१॥ देव प्रादोशन चरण ॥२२०॥ काब दोर्वलिय सौन्दर्य ॥२२॥ श्री विश्व सिद्धांत बचन।।२२२॥ वेयवारिणय दिव्य भाव।।२२३॥ भाव प्रमारगद काव्य ॥२२४॥ देवन भाव प्रमाण ॥२२५।। पावन तोर्पद गरिणत ॥२२६॥ ई वनवासद तीर्थ ॥२२७॥ भावद भल्लातकारि ॥२२॥ श्री विश्व भयषज्य ग्रन्थ ॥२२॥ पाय फर्मोवय नाश ॥२३०॥
साविर रोग विनाश ॥२३॥ शी वर सौभाग्य मंग ॥२३२॥ देवन वचन भूवलय ॥२३३।। व शबहुद् इल्लि शरी स्वसमय सारव । रसिकात्म ट्रष्य ध* रोस्तु ।। वशवाद घ्यात्मद सारसर्वस्ववे। रसद मंगल पाहुउवु ।२३४॥ न* बदन्कदिन बन्द कर्माक परिणतरे । अवतरिसिरुव घ * माक्ष॥रव ग्रंकद ध्यान स्वसमय काव्यदा सवियिह भद्र मंगलवु।२३५॥ दे* व जिनेन्द्रन वाणिय प्राभूत। दाविश्व काव्य दर्शन मो* कक्षावनि गोयपुव नेराद मार्गद। ई विश्व दतिशय धवल ॥२३६॥ पर बिहार दतिशय वेन्टन्क वागलु । गुडियतिशय काव्य सद स* द वडगुडिदागिल्लि बहवंक क्यभव। मरुडनञग धवल शुभ्रांक 1॥२३७॥ व वएसदतिशय महनीय वारिणय । सविय लाग्छनदुदयन तु विवरदजगोसाञग मिदु मधुरतेयिह । सबिवर दिव्य मन्गलवु ॥२३॥
रुशिसे 'ऋ' अक्षर हत्तन्तर। दिरुवनकववरलि बश्व ॥ में रकतवयदोम्बत् एल ऐग्रोम्दु । सरि गूडिसल 'ऋ' भूवलय ॥२३६॥ एक रिसि वरुवनकवा मूलदक्षर । वारयकेयतिशयमद् अन्न गट सेरलेन्ट नाल्केळु एन्टाद काव्यदु । दारते परसुव (दारतेये बर्ष)
भअग ।।२४०॥ ऋ+८७४+अन्तर १५,७६५ - २४,५४३ अथवा प्र- ग, १७६,०२२+२४,५४३-२,००,५६५ ।
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दसवां अध्याय
घवल, जयषवल, विजय पवल, महाधवल इन चारों घबलों में रहने भगवान् की उपयुक्त वाणी अग्रयणीयादि चौदह पूर्व भी है ।१०. वाले प्रतिक्षय को अपने अन्दर समावेश करने वाला यह भूवलय सर्वज्ञ नौ अंक को घुमाकर सकलांगम निकालने की विधि को श्री दिव्य देव के शुद्ध केवल ज्ञान रूपी अतिशय के द्वारा निकलकर आया हुआ है। केवल । कर्णांक सुत्र कहते हैं ।११।। ज्ञान में जगत के सम्पूर्ण ऋद्धि और सिद्धि इन दोनों को अपने अन्दर जैसे वह चौदह पूर्व में अनेक वस्तुयें हैं और वे सभी प्रादि व अनादि दोनों समावेषा कर लिया है उसी प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ भी अपने अन्दर विश्व के प्रकार की हैं। अतः यह भूवलय वस्तु भो है ।१२। सम्पूर्ण पदार्थ को अन्दर कर लिया है।
द्वादशांग वाणी का बन्धपाहुड भी एक भेद है । और बन्ध में सादिजैसे थी भगवान महावीर के श्री मुख कमल से अर्थात् सर्वांग से तरह बन्ध, अनादि बन्ध, ध्रव बन्ध, प्रधव बन्ध, क्षुल्लक बन्ध, महा बन्ध, इत्यादि तरह की माई हुई सर्व भाषानों को श्री वीरसेन प्राचार्य ने संझप में उपदेश ! विविध भांति के भेद हैं। उपर्युक्त सभी बन्ध इस भूवलय में विद्यमान हैं।१३। किया था उन सबको मैं श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने सुनकर इन सब विषयों को भूवलय! जो महात्मा बोग में मग्न हो जाते हैं उसे आध्यात्मिक बन्ध कहते अन्य के नाम से रचना की ।
है।।१४१ श्री दिव्य ध्वनि के क्रम से आये हुए विषय को गा धर्म के सा
श्री धन प्रांत समवशरण रूपी बहिरङ्ग लक्ष्मी और धन अर्थात् समन्वय करके समस्त कर्नाटक देशीय जनता को एक प्रकार की विचित्र गरिरात । केवलज्ञान ये दोनों ऋद्धियाँ सलिष्ट है।१५॥ कथा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने जो बतलाया है उसे हे भव्य जीवात्मन् ! तुम !
'
औषधिऋद्धि के अंतर्गत मल्लौषधि जल्लोषधि इत्यादि पाठ प्रकार सावधान होकर श्रवण करो।३।
की ऋद्धियाँ होती हैं। वे सभी ऋद्धियां इस भूवलय के अध्ययन से सिद्ध हो आदि तीर्थंकर श्री वृषभ देव से लेकर आज तक चलाये गये समस्त !
जाती हैं। इन सबको पढ़ने के लिये क अक्षर की वर्णमाला से प्रारम्भ करना कथाओं को हे भश्य जीव ! तुम सुनो।४।
। चाहिये ।१६-१७-१८। इतना ही नहीं बल्कि इससे बहुत पहले यानी अनादि काल से प्रचलित
कादिसे नवमा बन्ध, टादि से नवमाङ्कबंग, पादि से नवमाङ्क भंग, की गई कथा को हे भव्य जीव तुम ! सुनो।
। याद्यष्टरलकुल भंग, साद्यन्त से ........: और २७ स्वर से भङ्गाङ्क, . हे भव्य जीव ! तुम प्राचारांगादि द्वादशांग वाणी को सावधानतया
वर्णमालाडू, तथा बन्धाङ्क इत्यादि अनेक गणित कला से सभी वेद को ग्रहण सुनो।६।
यह भूवलय काव्य अनादि कालीन है, किन्तु ऐसा होने पर भी गणित करना चाहिये । अथवा ६४ अक्षराङ्क के गुणाकार से भी वेद को ले सकते हैं। के द्वारा गुणाकार करके इसकी रचना वर्तमान काल में भी कर सकते है. अतः। एसे गणित से सिद्ध किया हुधा यह भूवलय ग्रन्य है। यह माधुनिक भी है 1७1
।१६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६ । अनन्त के प्रनाद्यनन्त, साधनन्त, सादिसान्त, साद्यनन्त इत्यादिक भेद देव, मानव, नागेन्द्र, पशु, पक्षी, इत्यादि तिर्यञ्च समस्त नारकी हैं। उन मेदों में से यह भूवलय सिद्धान्त अन्य साद्यनन्त है।
जीवों की भाषा ७०० ओर महाभापा १८ हैं। इन दोनों को परस्पर में मिला भगवान जिनेन्द्र देव की वाणी, वेद, पागम, पूर्व तथा सूत्र इत्यादिक कर इस भूवलय ग्रन्थ की रचना हमने (कुमुदेन्दु मुनि ने) की है । इस रचना विनिध मेदों से युक्त है और वह सब इस भूबलय में गर्मित है ।।
की शुभ सम्मति हमें पूज्य पाद श्री वीरसेनाचार्य गुरुदेव से उपलब्ध हुई है ।२७।
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली
हमने ६४ अक्षरों के संयोग से वृद्धि करते हुये अपुनरुक्ताक्षराव रोति । १४ अक्षरांकमय इस भूवलय में है।४।। 'से गुणाकार करके इस भूवलय ग्रन्थ की रचना की है ।२८।।
। इस प्रकार विविध भांति के सौंदर्य से सुशोभित श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जिस प्रकार षड़ द्रव्य इस संसार में एक के ऊपर दूसरा कूट कूटकर विरचित यह भूवल काव्य है ।४१।। भरा हुआ है उसी प्रकार ६४ अक्षरों के अन्तर्गत अनुलोम क्रम अनादिकाल से दिगम्बर जैन साधुओं ने इन्हों ६४ अक्षरों के द्वारा हो से समस्त भाषायें भरी हुई हैं। संसार में यह पद्धति अद्भुत तथा परम द्वादशाङ्ग वारगी को निकाला था ।४२२ विशुद्ध है । इस भरे हुए अनुलोम क्रम को प्रति लोभ क्रम से विभाजित करने ।
इस प्रकार समस्त गुरुओं का वाक्य रूप यह भूवलय है ॥४३॥ पर संसार की समस्त भाषायें स्वयमेव प्राकार प्रकट हो जाती है ।२६।
किन्तु उन सबको दुःखों से छुड़ाकर सुखमय बनाने के लिए सर्वांक - इसी प्रकार समस्त भाषानों का परस्पर में संयोग होने से सरस ।
सरस अर्थात् ६ तथा सर्वाक्षर अर्थात् ६४ अक्षर हैं । क्षर का अर्थ नाशवान है, किन्तु शब्दागम की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् ममस्त भाषाये परस्पर में गुथी हुई।
१ जो नाश न हो उसे अक्षर कहते हैं । और एक एक अक्षरों की महिमा अनन्त सुन्दर माला के प्रमान सुशोभित हो जाती हैं और वह माला सरस्वती देवी
गुरण सहित है। इन ६४ अक्षरों का उपदेश देकर कल्याण का मार्ग दिखलाना का कंठाभरण रूप हो जाती है।३०॥
महत्व पूर्ण विषय है। इतना महत्वपुर्ण अक्षर अंक के साथ सम्मिलित होकर उस माला में विविध भांति के पुष्प गुथे रहते हैं। उसी प्रकार इस
जब परम सुक्ष्म बन जाता है तो उसकी महिमा और भी अधिक बढ़ बातो भूवलय ग्रन्थ में भी ६४ अक्षरांक रूपी सुन्दर २ कुसुम हैं।३१॥
है । इसके अतिरिक्त है अंक सूक्ष्म होने पर भी गरिणत द्वारा गुरणाकार करने । यह भूवलय रूपी माला अहंत भगवान् की वाणी को अद्भुत् महिमा
से जब अत्यन्त विशाल बन जाता है तब उसकी महानता जानने के लिए है ।३२।
रेखागम का पाठय लेना पड़ता है। अंकों को रेखा द्वारा जब काटा जाता है यह भूवलय समस्त कर्मबद्ध जीवों की भाषा होने पर भी अर्थात्
तब यह भूबलय परमामृत नाम से सम्बोधित किया जाता है ।४४॥ कर्माटक भाषा की रचना सहित होते हुए भी बहुत सरल है।३३। यह भूवलय परमोत्कृष्ट विविधांक से परिपूर्ण है।३४॥
र ल कूल ये कर्णाटक भाषा में प्रसिद्ध विषय हैं । यह लिपि अत्यन्त यह वृषभ सेनादि सन गण की गुरुपरम्पराओं का सूत्रांक है।३५॥
गोल व मृदुल है । अतः मानद, देव तथा समस्त जीवराशियों का शब्द संग्रह अर्हन्त भगवान् की अवस्था में जो प्राभ्यन्तरिक योग था वह रहस्यमय ।
करने में समर्थ है । वह अनुपम भापा प्राकृत और द्रविड़ है ।४५॥ था, किन्तु उसका भी स्पष्टी करण इस भूवलय शास्त्र ने कर दिया ।३६॥
भाषात्मक तथा अक्षरात्मक भगवान् को दिव्य वाणी रूपी ७१८ । जिस प्रकार पुष्प गोलाकार व सुन्दर वर्ण का रहता है उसी प्रकार भाषाय संसार के समस्त जीबों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देनेवाली हैं। और ६४ प्रक्षरांक सहित यह कर्माटक भाया गोलाकार तथा परम सुन्दर है 1३७।
अखिल विनय की रक्षा करती हुई भव्य जीवों को शिक्षा देनेवाली हैं ।४६। इस भूवलय का सांगत्य नामक छन्द अत्यन्त सरल होने पर भी प्रौढ़
यह भगवद् वाणी समस्त जीवों की रक्षा के लिए आदि बस्तु है। विषय गभित है।३।
।४७ अाकाश में गरुह पक्षी के समान गमन (उडान) करना एक प्रकार यह अक्षयानन्तात्मक वस्तु है ।४८ की ऋद्धि है किन्तु वह भो इस भूवलय में गर्भित है ॥३६॥
यह था अक्षर का द्वितीय भंग है।४।। कामदेव के शरीर में जितना अनुपम सौंदर्य रहता है उतना ही सौंदर्य यह आ २ (प्लुन) अक्षर का तृतीय भंग है ।५०।
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१४
सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेलौर-दिल्ली इस रीति से भंग करते हुए ६४ अक्षर तक शिक्षण देनेवाला यह गणित तैयार हो जाता है। इसी प्रकार बारम्बार करते जाने से अनेक कक्षापुट निकपते का अंग ज्ञान है अर्थात् द्रव्य प्रमाणानुगम द्वार है ।५१॥
रहते हैं ।६२। यह सूक्ष्मांकरूपी अनुपम भंग है । ५२॥
इन्हीं कक्षों में जगत् के रक्षक अक्षर बन्धों में समस्त भाषायें निकलकर यह अक्षय सुख को प्रदान करनेवाला गणित का रूप है।५३
या जाती हैं । ६३॥ इसी प्रकार यह अनादि काल से शिक्षा देनवाला गरिगत शास्त्र है।५४. यह कक्ष पुटाङ्कन पढ़नेवालों के चक्षु को उन्मीलन करके केवल
यह लाख लाख तथा करोड़ करोड़ संख्या को सुक्ष्म में दिखानेवाला क मात्र से ही समस्त शास्त्रों का ज्ञान करा देता है ।६४।। अंक है ।५५॥
शास्त्रों में दर्शन और ज्ञान दोनों समान माने गये हैं। दर्शन में चक्षु दिगम्बर जैन मुनि अहिंसा का साधन भूत अपने बगल में जो पोछी दर्शन व यचक्षु दर्शन दो भेद है। इन दोनों दर्शनों का ज्ञान इस कक्षपुट से हो रखते हैं उसके प्रत्यन्त मूक्ष्म रोम की गणना करने से द्वादशांग वाणी मालूम। जाता है।६५० हो जाती है ।५६॥
यह कक्षपुट विविध विद्याओं से पूरित होने के कारण यक्षों द्वारा संरक्षित विवेचन-श्री भूवलपमेयम स ४. मोर नागान है।६६। सिद्ध का विषय आया है । उन्होंने अपने गुरु देव श्री पूज्यपाद प्राचार्य जी से यह कक्षपुट भूवलय ग्रन्थ के अध्येता के वक्ष : स्थल का हारपदक है कक्षपुट नामक रसायन शास्त्र का अध्ययन करके रसमणि सिद्ध किया था। अथवा भूवलय रूपी माला के मध्य एक प्रधान मरिण है ।६७। उस मणि से उन्होंने गगनगामिनी, जलगामिनी तथा स्वर्गवाद इत्यादि
यह भूवलय ग्रन्थ जिस पक्ष में व्याख्यान होता है उसे पराकाष्ठा पर महाविद्या का प्रयोग बतलाकर संसार को प्राश्चर्य चकित कर दिया था। और पहुंचाने वाला होता है ।६। इसी १८ महाविद्या के नाम से ५८ कक्षपूट नामक ग्रन्थ की रनना की थी।
उपर्युक्त समस्त विषयों को ध्यान में रखते हुए कमागत गरिणत मार्ग यह समस्त ग्रन्थ "हक" पाहुड से सम्बन्धित होने के कारण भूवलय के चतुर्थ-से दिगम्बर जैन मुनि अपने विहार काल में भी शिष्यों को सिखा सकते हैं 1६६। खएट प्राणावामपूर्व विभाग में मिल जायगा।
1 इस समय यह अद्भुत विषय सामान्य जनों के ज्ञान में नहीं आ सकता। . ये समस्त विद्याय दिगम्बर जैन मुनियों के हृदयङ्गत हैं ।५७। यह सांगत्य नामक छन्द असदृश ज्ञान को अपने अन्दर समा लेने की क्षमता
यह समस्त कक्षपुट मंगल प्राभूत से प्रकट होने के कारण खगोल विज्ञान रखता है । और सर्वभाषामयी कर्माटभाषात्मक है। इसलिए यह दिव्य सूत्रार्थ सहित है ।५८०
भी कहलाता है ।७०) यह पाहुड ग्रन्थ अङ्ग ज्ञान से सम्बन्ध रखता है ।।६।
यव (जौ) के खेत में रहकर अनन्तानन्त सूक्ष्म कायिक जीव अपना जो व्यक्ति दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब अपने समस्त जीवन निर्वाह करते हैं। इस रीति से सुविख्यात कर्माट देश एक प्रदेश वस्त्रों को त्यान देता है तब उसे इस कक्षपुट का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।६० होता हुआ भी समस्त कर्माष्टक अर्थात् समस्त विश्व की कर्माष्टक भाषा को
इस कमपुट को यदि व्याख्या करने बैठे तो वाक्य तीक्ष्ण रूप से निकलता । अपने अन्दर समाविष्ट करता है ।७१। है, पर ऐसा होने पर भी वह मृदुल रहता है ६१॥
गणित शास्त्र का अन्त नहीं है। किन्तु उन सबको अणुरूप में बनाकर भूबलय को यदि अक्षर रूप में बना लिया जाय तो चतुर्थ खण्ड में एक समय में असंख्यात गुणित क्रम से कर्म को नाश करनेवाली विधि को वह कक्ष पुष्ट निकलता है। उसी कक्षपुट को चक्रवन्ध करने से एक दूसरा कक्षपुट ! बतलाता है ।७२।
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सिरि मूवलय
सर्वार्थ सिवि संघ बेगलोर-दिल्ली
यह गणित शास्त्र इस विश्व व्यापक भूवलय काव्य के अन्तर्गत है। महांक राशि को श्रेणी कहते हैं। उन श्रेणियों को छोटे अंक से अतः गुरु श्रेष्ठ श्री वीरसेनाचार्य का शिष्य में (कुमुदेन्दु मुनि) इस गणित / घटाकर भाग देने की विधि भी इस भूवलय में बतलाई गई है। • शास्त्रमय मूवलय काव्य की रचना करता हूं ।७३।
इसके साथ साथ इसमें महान् अंकों को महान अंकों द्वारा गुणाकार जिस प्रकार कर्मों का क्षय होता है उसी प्रकार अक्षरों की वृद्धि होती करने का भंग भी है ।८६। रहती है । वृद्धिंगत उन समस्त अक्षरों को गणित शास्त्र में ना करके रानुलोम बहुत दिनों से श्री जिनेन्द्र देव की, की हुई पूजा का फल कितना है? प्रतिलोम भागाहार द्वारा मंगल प्रामृत नामक एक खण्ड बना दिया ।७४। वह सब गगित द्वारा मालूम किया जा सकता है 1८७
दुष्कर्मों का कथनाक प्राचीन कन्नडभाषा में रूढ़ि के अनुसार वर्णन ऐसी गणना करते हुए वर्तमान काल में भी पूजा करने का पुण्यबन्ध किया गया था। वह गाढ़ प्रगाढ़ शब्द समूहों से रचित होने के कारण कठिन हो जाता है । था। किन्तु भगवान् जिनेन्द्र देव की दिव्य वाणी ममस्त जीवों को समान रूप संगीत शास्त्र के घंटावाद्य नामक नाद में भी इस भूवलय कागान कर से कल्याणकारी उपदेश प्रदान करती है । इस उद्देश्य से इसे अतिशय बन्ध। सकते हैं ।८।। रूप में बांधकर मत्यन्त सरल बना दिया ७५।
दिगम्बर जैन मुनि, जंगलों में तपस्या करते समय इन समस्त विद्यानों ऐसा सुगम हो जाने के कारण सर्व साधारण जन इस समय इस भवलय को सिद्ध किये हैं 1801 का स्तुति पाठ सुमधुर शब्दों में प्रसन्नता पूर्वक गान करते रहते हैं ।७६।
धान के ऊपर का मोटा छिलका निकाल देने के बाद चावल के ऊपर मूवलयान्तर्गत इस अद्भुत गणित शास्त्र को देखकर विद्वज्जन पाश्चर्य एक हल्का बारीक छिलका रहता है। उस बारीक छिलके को कूटने से जो चकित हो जाते है ।७७।
सूक्ष्म कण तैयार होते हैं उन करणों की गणना करके दिगम्बर जैन मुनि यह गरिंगत शास्त्र युगल जोड़ियों के समूह से बनाया गया है ।७ अपने कर्म कणों को भी जान लेते हैं ।।१ ।।
इन युगलों को जब परस्पर में जोड़ते जाते हैं तब अपने पुण्याङ्ग का। यह भूवलयान्तर्गत गरिणत शास्त्र अन्य गणितों से अकाट्य है ।१२। भंग भी निकलकर या जाता है ।७९।
इस गणित मे किये हुए पुण्य कर्मों की गणना भी कर सकते हैं।९३। जोड़ने के समय में ही लब्धांक पा जाता है 1000
यह परम्परागत रूढ़ि के पागम से पाया हुआ सूक्ष्मांक गणित है ।९४। यह परिणत शास्त्र द्वादशांग वाणी को निकालने के लिए गूढ़ रहस्यमय । यह परमाणु भंग भी है और वृहद् ब्रह्मान्ड भंग भी। इसलिए इसकी
समानता अन्य कोई गरिगत नहीं कर सकता ।५। सांगत्य नामक सुलभ छन्द होने के कारण यह भूवलय मूढ और प्रौढ़ : परम प्रगाढ़ भक्ति से अध्ययन करनेवाले भव्य भक्तों के अंतरंग में दोनों के लिए सुगम है 1८२॥
झलकने वाला यह गणित शास्त्र है।९६! यह भूवलय प्रगाढ़ रहस्यों से समन्वित होने पर भी अत्यन्त सरल पुण्योपार्जनार्थ एकत्रित होकर परस्पर में चर्चा करनेवाला यह भूवलय है ।।
ग्रन्थ है 181 सुन्दर शब्दों में गान किये जाते हुए इस भूवलय ग्रन्थ को अत्यन्त I नामकर्म में अनेक उत्तर प्रकृतियां हैं। उनमें एक यश कीर्ति नामक उत्कण्ठा से श्रवण करने के लिए दौड़कर आये हुए श्रोतागण पुण्यबन्ध कर । प्रकृति भी है। उस प्रकृति का उदय यदि जीव में हो जाय तो सर्वत्र प्रशंसा लेते हैं 100
हो जाती है। सामान्य जीव प्रशंसा प्राप्त हो जाने से गवित हो जाते हैं; किन्तु
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सिरि भूषलय
सप सिद्धि संप बैंगलौर-दिल्ली जो महापुरुष समुद्र के समान गम्भीर रहते हैं उन्हीं महात्माओं की कृपा से इस संसार में काले लोहे को विज्ञशा अथवा विद्या के बल से सोना असमान द्रव्यागम पाहुड ग्रन्थ कुसुम- वर्णाक्षर माला से विरचित है। बनाया जा सकता है; पर इस भूवलय में उस स्वर्ण को धवल वर्ण बना सकते
___ इस गणित शास्त्र से १२ अंग शास्त्र को निकालकर रामचन्द्र के है ।११॥ काल से नील और महानील नामक ऋषि ने इस भूवलय नामक ग्रन्थ को रचना ! यह तन, मन बचन शुद्ध धन है ।११३। की तो उसो पति के प्रमाथी महावीर सावान् को वाणी के प्रवाह यह समस्त संसार के द्वारा पूजनीय लौकिक गणित है ।११४॥ से इस भूवलय शास्त्र का गणित उपलब्ध हुया IEI
यह भगवान जिनेश्वर के केवल ज्ञान से निकला हुया भूवलय है ।११५॥ लक्ष्मण पर्द्धचक्रो थे। उनके द्वारा छोड़ा गया वारा बड़े वेग से जाता यह संतप्त स्वर्ण के समान चमकनेवाला है ।११६! था। उस वेग की तीव्रतर गति को भाव से गुणा करके आये हुए गुणनफल के चने के बराबर सुमेरु पर्वत है ।११७।। साथ मिला हपा यह भूवलय काव्य का गणित है । इसलिए इसकानाम अनुबन्ध अत्यन्त तेजस्वी किरणों से दीप्तिमान यह दिव्याङ्ग है ।११। काव्य भी है ।१०।
मलिनता से रहित परम निर्मल यह गणित शास्त्र है।११९॥ मन्मय का शरीर अनुपम था । संस्थान और संहननबन्ध भी उत्तम यह गुण स्थान के अनुभव द्वारा आया हुमा गरिणत है 1१२०॥ था तथा नवकार मन्त्र के समान वह पूर्णता को प्राप्त कर लिया था। इन
यह भगवान् जिनेन्द्र देव का प्रयोगरूप गरिणत है ।१२१५ सबका और सिद्ध परमेष्ठी के आठ मुख्य गुस्सा रूप अतिशय सम्पदा की गणना यह भूबलय शास्त्र समस्त जीवों के लिए सन्मति रूप है ।१२२॥ करते हुए लिखित काव्य होने से इसे सुन्दर काव्य भी कहते हैं ।१०१॥
गति, जाति प्रादि १४ मार्गणा स्थान अनुभव करने के योग में एकेन्द्रिश्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र देव का शरीर धवल वर्ण होने से यह भूवलय। बादि १४ जीव सभासों का ज्ञान पैदा होता है और ज्ञान के पैदा होने के समय ग्रन्थ भी धवल है। अथवा इस भूवलय ग्रन्थ से घबल ग्रन्थ भी निकलता है इस में काल गणना रूप ज्ञान आवश्यक है । वह इस प्रकार है कि जैसे एक वर्ष में अपेक्षा से भी यह धवल है ।१०।
1१२ माह होते हैं, १ माह में ३० दिन होते हैं, १ दिन में २४ घंटे होते हैं, १ घंटे मुनि सुग्रत जिनेन्द्र के समय में पद्मपुराण प्रचलित हुआ इसलिये यह । में ६० मिनट होते हैं और १ मिनट में ६० सैकण्ड होते हैं उसी प्रकार सर्वज्ञ भूवलय ग्रन्थ पद्मपुराण कहलाता है ।१०३।
देव ने जैसा देखा है वैसे ही काल के सर्व जघन्य अंश तक अभिन्न रूप से चले तीनों काल में ७२ जिनेन्द्र देव, अनेक केवली भगवान् तथा तीन कम । जाने पर सबसे छोटा काल मिल जाता है। ऐसे काल को एक समय कहते है। ६ करोड़ पाचार्य होते हैं । उन सबका माला रूप कथन इस प्रथमानुयोग में, जिम प्रकार १ वर्ष का काल ऊपर बतलाया गया है उसी प्रकार उत्सपिणी और है और वह प्रथमानुयोग इसी भूवलय में गभित है ।१०४१
अवसर्पिणी दोनों को समय रूप से बना लेना चाहिये। इतने महान् अंक में रत्नत्रयात्मक धर्म शुद्ध धवल है। गणित शास्त्र से ही जिन माला और सबसे छोटे एक समये को यदि मिला लिया जाय तो उसमें अनन्ताय मिल जाता मुनिमाला दोनों को ग्रहण कर सकते हैं। गणित से ही अक्षर ब्रह्म का स्वरूप । है ।१२३।। निकलता है और यह गणित कठिन न होकर अनुभव गोचर है । यह धवल रूप . छिपे हुए अंक को प्रकट करते समय, स्थापित करते समय, परस्पर में, जिन धर्म वृद्धिंगत बस्तु है । इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रात्मध्यान की सिद्धि मिलाते समय तथा प्रवाहित होते समय पुद्गल द्रव्य सहज में आकर काल प्राप्त होती है । एकान्त हठको दुर्नय कहते हैं। उस दुर्नयको दूर करके अनेकान्त । द्रब्य को पकड़ लेता है । उस प्रदेश में माते जाते और खड़े होते हुये अनन्त साम्राज्य को लाने वाला यह ग्रन्थ है ।१०५ से १११ तक ।
जीव राशि का भंक मिल जाता है ।१२४॥
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सिरि भूवलव
सर्वार्थ सिद्धि संप बैंगलोर-दिल्ली
एक प्रदेश में काल, जीव और पुदगल द्रब्य जब आकर मिल जाते हैं। नर, सुर तिर्यञ्च तथा नारकी जीवों को विविष भांति से सम्यक्त्व तब अनन्ताङ्क मिल जाते हैं। उन नीचातिनीच योनि में जीनेवाले जीवों को प्राप्त होता है। और उस सम्यक्त्व के प्रभाव से गोचरी वृत्ति द्वारा माहार बाहर जाकर भव्य जीवों को मंगल पाहुड काव्य के अन्दर लाकर, स्थित ग्रहण करने वाले दिगम्बर मुनियों को चारित्र लब्धि प्राप्त होने का कारण हो करके ।१२५॥
। जाता है, ऐसा थी जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित वचन है ।१४। लोक में भद्र पूर्वक रक्षा करके गुरण स्थान मार्ग से बद्ध करके पांचों यह वाक्य श्री ऋषभ तीर्थकरादि २४ तीर्थकरों के धर्म तीर्थ में प्रवाहित कल्याणों की महिमा दिलाकर ऊपर चढ़ाते हुये लोकान अर्थात् सिद्ध लोक में होता हुघा पाया तत्व है और यह तत्व जिन भव्य जीवों के वश में हो जाता है स्थिर करते हुये शोकापहरण करने वाला यह अंक है ।१२६।
उनके संसार का शीघ्र ही अन्त हो जाता है 1१४५॥ नाकाग्र अर्थात् लोक के अग्रभाग का सिद्ध रूपी काव्य है ।१२७।
द्वीप, सागर, गिरि, गुफा तथा जल गिरने के झरने प्रादि स्थानों में समस्त व्याकुलता को नाश करनेवाला यह काव्य है ।१०८।
जो निर्वाण भुमि है, वह मोक्ष गृह की नींव है, उस नींव को बतलाने वाला यह पाकार रहित दिव्यांक काव्य है ।१२।।
यह परम मंगल भूवलय काव्य है ।१४६॥ यह एकाग्र ध्यान को प्राप्त कर देने वाला काव्य है ।१३०।
वीर वाणी मोंकार स्वरूप है । उस ओंकार से प्राया हुआ यह भूवलय यह प्रोकार वजित शब्द है ।१३१॥
काव्य है ।१४७ यह ओंकार गोचर वस्तु है ।१३२।
दिगम्बर योगिराजों ने उपर्युक्त तपोभूमियों में ही काम राज का संहार यह ह्रींकार के द्वारा पाराध्य वस्तु है ।१३३॥
किया है ।१४। यह ह्रोंकार के द्वारा पूजित गर्भ है ।१३४।
उपर्यु त तपोभूमियों तथा दिगम्बर महामुनियों के कथन करने का धर्म यह हलुकार के द्वारा आराध्य संशा है ।१३५।
ही विश्व काव्यांग रचना का धर्म है ।१४६।
उस काव्य रचना की विद्या ६४ अक्षरों को घुमाना ही है ।१५०। हुँकार गोचर वस्तु है ।१३६।
इस क्रिया के द्वारा कर्मों की निर्जरा भी होती है ।१५१॥ ह्रोंकार पूजित गर्भ है ।१३७। यह ह्रोंकार अतिशय वस्तु है ।१३८१
यह थी विद्या पुण्यबन्ध की इच्छा करनेवालों को पुण्यबन्ध करा सकती
है।१५२। यह हकार आराध्य सर्वज्ञ है ।१३६
इस परम पावनी विद्या के साधकों को अखिल विश्व भंगलमय दृष्टियह हःकार गोचर वस्तु है । १४०)
गोचर होता है ।१५३॥ इस प्रकार मंत्राक्षरांक युक्त होने से यह भूवलय का रहित है ।१४१॥
यह मंगलमय ६४ अंक विश्व का वैभव है ।१५४। नवकार मंत्र के प्रादि में अरहन्त शिवपद कैलाश गिरि है, उनका
जिस प्रकार एक छोटे से चोज का अंकुर कालान्तर में महान वृक्ष बन निवास स्थान अतिशय श्री समवशरण भूमि है तथा जन्म और मरण का नाशक
जाता है उसी प्रकार यह पुण्यांकुर वृद्धिंगत होकर बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता संहार भूमि है ।१४२॥
है ॥१५॥ यह श्रेष्ठ भद्रकारण होने से मंगल मय है, गुरु परम्परागत अङ्ग ज्ञान यह मंगलमय क्षेत्र श्री जिनेन्द्रदेव भगवान का है ।१५६ है, परमात्म सिद्धि के गमन में कारण भूत होने से यह भूवलय श्री वर्धमान इस क्षेत्र का ज्ञान अर्थात् विश्व दर्शन से समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता भयवान का वाक्यालू है।१४।।
है।१५७।
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१५०
सिरि भुवझाय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेलोर-दिली इस भूवलय सिद्धान्त ग्रन्थ में रहनेवाले अतिशयों का कयन वर्णनातीत : साकार रूपी अतिशय अङ्ग ज्ञान है।१६८ । है ।१५८।
यह अंग ज्ञान अथवा शब्दागम आकार रहित होने पर भी साकार यह थी जिनेन्द्रदेव के उपदेश का अंक है ११५६।
है।१६। यह अंक विश्व के किनारे लिखित चित्र रूप है अर्थात् सिद्ध भगवान । जो साकार है वही निराकार है ।१७०। का स्वरूप दिखलाने वाला है ।१६०१
इन अंकों को लाने के लिए एक, द्वि, त्रि चतुर भंगकरना चाहिए ।१७१ यह थी बाहुबली भगवान के द्वारा बिहार किया गया ग्रंक क्षेत्र। इसी प्रकार पांच व छः का भी भंग करना चाहिए।१७२। है ।१६१॥
प्रयत्नों द्वारा सात व आठ भङ्ग करना चाहिए।१७३। इसलिए यह भूवलय काव्य विश्व काव्य है ।१६२१
इसी प्रकार उपयुक्त भंगों में से यदि अन्तिम का दो निकाल दिया ऊपर द्वितीय अध्याय में जो अंक लिखे गये हैं उन अंकों से समस्त । जाय तो ७१८ भाषायें आ जाती हैं 1१७४। कर्मों की गणना नहीं हो सकती । उन समस्त क्मों को यदि गणना करनी हो । "ओ" और "अ" इन दो अक्षरों को निकाल देना चाहिए ।१७५३ तो १०००००००००००००० सागरोपम गरिणत से गिनती करनी होगी या
संसार की समस्त भाषायें आ जाती हैं ।१७६। इससे भी बढ़कर होगी। इन कर्मो को गणना करनेवाले शास्त्र को कर्म । श्री कार द्विसंयोग में गर्भित है ।१७७। सिद्धांत कहते हैं। यह सिद्धांत भूवलय के द्रव्य प्रमाणानुग में विस्तृत रूप से यहां से यदि आगे बढ़े तो ३ अक्षरों का भंग आता है ।१७८) मिलता है। वहां पर महांक की गणना करनेवाली विधि को देख लेना ।१६३॥ श्राकार का ६ भंग है। उन भंगों को ४ भंग में मिलाना चाहिए। अन्य ग्रन्थों में जो डमरू बजाने मात्र से शब्द ब्रह्म को उत्पत्ति बतलाई
१७६-१८०१ गई है, वह गलत है। क्योंकि उमरू जड़ है और जड़ से उत्पन्न हुमा शब्द ब्रह्म आगे १६ भंग लेना ।१८१॥ नहीं हो सकता । इतना ही नहीं उसमें गणित भी नहीं है और जब गणित नहीं और ५ अक्षरों का भंग आता है ।१८२१ है तब गिनती प्रामाणिक नहीं हो सकती यहां पर प्रमारए शब्द का अर्थ प्रकर्ष
पुनः २५ अंग आ जाता है ।१८३। मारण लिया गया है। शुद्ध जीव द्रव्य से पाया हुया शब्द ही निर्मल शब्दागम उपयुक्त समस्त प्रक्षरों को माला रूप में बनाना १८॥ बन जाता है। और वही भूबलय है ।१६४।।
तत्पश्चात् ७२ पा जाता है।१८॥ वर्तमान काल, व्यतीत अनादिकाल तथा आनेवाले अनन्त काल इन तीनों और ५ अक्षरों का भङ्ग निकलकर पा जाता है ।१८६। को सद्गुरुयों ने मंगल प्राभृत नामक भूबलय में कहा है। इसलिए यह भूवलय तदनन्तर १२० अंम आ जाता है ।१८७। काव्य राग और विराग दोनों को बतलानेवाला सग्रन्थ है ।१६५।।
और ८ अक्षरों का भंग बन जाता है ।१८८१ मो एक अक्षर है और बिन्दी एक अङ्घ है । इन दोनों को परस्पर में तब ७२० अङ्कमा जाता है ।१८६। मिला देते से समस्त सूवलय 'भों के अन्दर पा जाता है। इसका आकार शब्द, इसमें से यदि २ निकाल दें तो ७१८ भाषाओं का भूवलय ग्रन्थ प्रकट साम्राज्य है। इसलिए यह धोकर, सुखकर तथा समस्त संसार के लिए मंगल हो जाता है 1१६० कारी है ।१६६॥
वह इस प्रकार है:- इस अङ्क को भंग करते आने से सारी व्याकुलता नष्ट हो जाती है ।१६७। १४२४३४४४५४६-७२०-२७१।
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ देंगसोर-दिल्ली उपयुक्त ७२० संख्या में से यदि आदि और अन्त को २ संख्या निकाल : यह भूवलय ग्रन्थ अंक भंग से बनाया गया है ।२०५॥ दी जाय तो सर्व भाषा निकलकर आ जाती है। उसमें ७०० क्षुद्र भाषा तथा पारा सिद्धि के लिए यह आदिभंग है ।२०६१ १८ महाभाषा है 1१६१
यह यशस्वती देवी की पुत्री का हस्त स्वरूप है ।२०७१ प्रतिलोम क्रम से पाये अंक में अनुलोम क्रम से पाये हये अंक का। उस यशस्वती देवी की हथेली कोरेखा से रेखागम शास्त्र की रचना हुई भाग देने से मृदु तथा मधुर रूपी देव-मानवों की भाषा उत्पन्न हो जाती है। और वह शास्त्र भो इसी भूवलय में है।२०८। इसका नाम महाभाषा है। जब महाभाषा उत्पन्न हो जाती है तब संसार की सात तत्व के भागा हार से आये हुये आदि ब्रह्म वृषभ देव भगवान् समस्त भाषायें स्वयमेव बन जातो हैं ।१९२॥
के द्वारा प्राप्त यह भूवलय नाम की वाणी है। समस्त अंकाक्षर को अपने ये सभी भाषायें सर्वज्ञ वाणी में निकली हुई हैं। सर्वज्ञ वाणी अनादि । अन्दर समावेश कर लेने के कारण इसमें विजय घबल के अन्तर्गत अंक राशि कालीन होने से गी|ग्वाणी कहलाती है। यही साक्षात् सरस्वती का स्वरूप है ढेर देर रूप में छिपी हुई है। इसलिये इस भूवलय को अतिशय धवल कहा गया तथा सभी एक रूप होने से ओंकार रूप है। अपने प्रात्मा को ज्ञान ज्योति प्रकट है।२०६। होने के कारण जिनवाणी द्वारा पढ़ाया गया यही पाठ है ।१९३॥
इसमें ७१८ भाषायें माला के रूप में देखने में पाती हैं। वे सभी अतिगिरि, गुफा तथा कन्दरामों में ब्राह्याभ्यन्तर कायोत्सर्ग खड़े होते हये। शय विद्या के श्रेणी से मिली हुई हैं। ३६३ मतों का अंक के रूप से वर्णन किया योग में मग्न योगियों को यह अर्हन्त वाणी सुनाई पड़ती है। और ऐसा हो गया है ।२१०॥ जाने पर योगी जन अपने दिव्य ज्ञान द्वारा सभी भाषाओं को गणित से निकाला इस भूवलय में प्राने वाले धवल और महाधवल को यदि इसमें से निकाल लेते हैं। इसलिये इस भूवलय को गरु परापरागत काय्य कहते हैं
दिया जाय तो इसमें दो ही भापा देखने में बायेंगी। तो भी उसमें ७१८ भाषायें श्री वर्धमान जिनेन्द्र देव के मुख कमल अर्यात सर्वांग से प्रकटित मंगल- सम्मिलित हैं। मंगल पाहुड ऐसे इस भूवलय में जीव के समस्त गुण धर्म का प्राभूत रूप तथा असहश वैभव भाषा सहित है।१६५।
विवेचन किया गया है। इसलिये यहां इसमें से जय धवल प्रन्थ को भी निकाल इस काव्य को पढ़ने से दिव्य वाणी के प्रक्षराकु का ज्ञान हो जाता
सकते हैं 1२११॥
द्वादशांग बारणी में अनेक पाहृड ग्रन्थ है। और अनेक प्रागम प्रत्य हैं। यह भाषा ऋद्धि वंश की आदि भाषा है । १६७
उन सब को विजय घवल भूबलय ग्रन्थ से निकाल सकते हैं। और उसी विजय यह भाष, द्रव्यागम की भाषा है ।१६८।
धवल ग्रन्थ के विभाग में अत्यन्त मनोहर देवागम स्तोत्र निकल आता यह भाषा विष वाक्य अर्थात् दुर्वाक्य का संहार करने वाली है ।१६६। है ।२१२॥ इस भापा को वशीभूत करने से यात्म संमिद्धि प्राप्त हो जाती है ।२००। इमलिये यह भूवलय काव्य महाविद्ध काव्य है 1२१३। इस भाषा को सीखने से विषयों की प्राशा विनष्ट हो जाती है ।२०१॥ भगवान का वचन ही सिद्धान्त रूप होकर यहां आया है ।२१४॥ ६४ अक्षरों के भंग में ही ये समस्त भाषायं आ जाती हैं (२०२॥
श्री वीर जिनेन्द्र भगवान का वच्च ही साम्राज्य रूप है ।२१५१ . यह भाषा ब्राह्मी और सौन्दरी देवी की हथेली में लिखित लिपि रूप में। यह वनवामी देश में तप करने वाले दिगम्बर मुनियों का भूवलय है ।२०३।
नामक कान्य है।२१६॥ यह रस त्यागियों का धर्म स्वरूप है ।२०४६
विवेचनः--पादि पुराण में दंम सजा का वर्णन पाया है। उन्हीं के
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सिरि भूवनय
मर्षि सिदि संघ,बैगलोर-दिल्ली नाम से दंडकारण्य प्रचलित हुआ। वह राज्य कर्णाटक के दक्षिण भाग में है। इसमें जो प्रारणावाय ( आयुर्वेद ) विभाग है वह भल्लातकाद्रि अर्थात् प्राचार्य कुमुदेन्दु के समय में इसे वनवासी देश कहते थे। उस समय में चत्त गुरु सुगे" (मिलापता परमन मुनियों द्वारा लिखा गया है ।२२८) (चतुः स्थान) तथा वे दंडे (द्विपाद) इन दो नमूने का काव्य प्रचलित था । बे- इस विभाग में संसार की कल्याणकारी समस्त प्रौषधियाँ निकल कर दंडे काव्य का नमूना श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने १२ वें अध्याय के ३१ वें श्लोक में ! भा गई हैं ।२२६। निर्दिष्ट किया है पीर "चत्ताण" काव्य भी समस्त भूवलय का सांगत्य नामक इस अन्य के अध्ययन मात्र से पाप कर्मों द्वारा उत्पन्न सम्पूर्ण रोग छन्द है।
। नष्ट हो जाते हैं ।२३०॥ यह भूवलय श्री जिनेन्द्र देव का वचन है ।२१७।
इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से आगन्तुक सहस्रों व्याधियां विनष्ट हो जाती की पद्धति से देखा जाय तो यह भूवलय अष्टम जिनेन्द्र श्री । है । इस लिये यह महा सौभाग्यशाली ग्रन्थ है ।२३२१ चन्द्रप्रभ भगवान के द्वारा प्रतिपादित किया गया है ।२१॥
यह भूवलय भगवान् का वचन रूपी महान् अन्थ है ।२३३। इसी प्रकार यह भूवलय श्री शान्तिनाथ भगवान का मार्ग भी है ।२१।।
भूवलय की व्याख्या में ३ क्रम हैं १ ला स्वसयम वक्तव्यता, २ रा परविवेचन:-श्री शान्तिनाथ भगवान् अगणित पुण्य शाली हैं। श्री ऋषभ ।
समय वक्तव्यता तथा ३ रा तदुभय वक्तव्यता है। इन तीनों वक्तव्यों में प्रधान नाथ तीर्थकर भगवान भरत जी चक्रवर्ती तथा बाहुबली स्वामी कामदेव पद के !
स्व-समय है। सद्धर्म सागर में गोता लगाने वाले रसिक जनों के लिये यह परमाघारी थे। किन्तु श्री शान्तिनाथ भगवान् अकेले तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा कामदेव
नन्द दायक है। इस अध्याय में अध्यात्म सर्वस्व सार प्रोत-प्रोत भरा.हमा है। तीनों प्रकार के वैभवों से संयुक्त थे। अतः वे बहुत बड़े पुण्यात्मा कहलाते हैं।।
इसलिये यह मंगल प्राभृत नामक भूवलय का प्रथम भाग प्रसिद्ध है ।२३४॥ उनके द्वारा प्रतिपादित प्रशस्त मार्ग भी इस भूवलय के अन्तर्गत है।
विवेचन-यात्म-तत्त्व का विवेचन करना स्वसमय वक्तव्यता है, इसके यह "वेदंडे" काव्य श्री ऋषभनाथ भगवान के समय से पाया हया
अतिरिक्त बाह्य शरीरादि का विवेचन करना पर-समय वक्तव्यता है तथा दोनों है ।२२०
का साथ २ विवेचन करना तदुभय वक्तव्यता है। श्री बाहुबली स्वामी अत्यन्त सुन्दर थे। उसी प्रकार यह भूवलय काव्य
नौ अंक से आया हुआ अर्थात् कर्म सिद्धान्त गणित से अवतार लिया हुना भी परम सुन्दर है ।२२१॥
धर्माक्षर रूपी यह अंक ध्यान है। इसयिये यह भूवलय काव्य स्व समय रूप, इस भूबलय में विश्व का समरत सिद्धान्त भित है २२२।
भद्ररूप तथा मंगल स्वरूप है ।२३५॥ यह काव्य श्री जिनेन्द्रदेव की वाणी में विद्यमान समस्त भावों को प्रदान । करने वाला है 1२२३
यह भूवलय ग्रन्य श्री जिनेन्द्र देव की वाणी से निपन्न होने से प्राभूत तथा यह भूवलय भाव प्रमाण रूप काव्य है ।२२४।
विश्व काव्य है। इसका स्वाध्याय करने से मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है और यह श्री जिनेन्द्र देव का भाव प्रमाण है।२२५॥
मोक्ष के लिए सरल मार्ग होने से यह अतिशय धवलरूप है ।२३६।। समस्त विश्व के अन्दर जितने भी तीर्थ है उन सबका वर्णन इस काव्य जिस प्रकार श्री जिनेन्द्र देव के ८ प्रातिहार्य होते हैं उसी प्रकार नन्दी में दिया गया है ।२२५॥
। पर्वत भी ८ विभागों से विभक्त होने से अष्टापद पर्वत कहलाता है। अष्टम यह भूवलय काव्य वनवासी देश के तीर्थ मन्दी पर्वत पर लिखा, जिनेन्द्र देव श्री चन्द्रप्रभ का वैभव होने से यह अतिशय-धवल नामक शुभ्रांग गया ।२२७
है ।२३७।
।
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१६२
सिरि भवजय
श्री जिनेन्द्र देव के श्राराधक भक्त जन अर्थात् दिगम्बर जैन मुनि अपनी बुद्धि की विशेषता से विविधि भांति की युक्तियों से श्री बड़े सुन्दर ढंग से किया है। इसलिये समस्त भाषाओं से एवं मधुर है और मंगलकारी है | २३८३
भूवलय का व्याख्यान समन्विन भूवलय मृदु
यह दशवाँ अक्षर का अध्याय है । जिस प्रकार मरकतमणि अत्यन्त शुभ्र व दीप्तवान् होती है उसी प्रकार इस अध्याय के अन्तर काव्य में पांच, नौ सात, पांच और एक अर्थात् १, ५, ७, ६, ४, अक्षर रहने वाला ऋ भूवलय है ॥२३६॥
श्रेणीबद्ध काव्य में मूलाक्षर का अंक आठ, चार, सात और आठ अंक प्रमाण है । यही श्रेणीबद्ध काव्य का भंगांक हूँ १२४०| ऋ ८७,४८ + अन्तर १५७६५ = २४, ५४३
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली
अथवा
अ- १,७६, ०२२+२४, ५४३ = २,००,५६५ ।
सम्पूर्ण
ऊपर से नीचे तक यदि प्रथमाक्षर पढ़ते जायें तो प्राकृत भाषा निकलती है । उसका अर्थ इस प्रकार है:
ऋषिजनों में सुग्रीव, हनुमान, गवय, गवाक्ष, नील, महानील, इत्यादि EE कोटि जनों ने रंगीगिरि पर्वत पर निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया। उन सबको हम नमस्कार करेंगे ।
इसी प्रकार ऊपर से यदि नीचे तक २७ वां अक्षर पढ़ते जायें तो संस्कृत गद्य निकल प्राता है। वह इस प्रकार है:
नतया शृण्वन्तु --
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं भगवान् गौतमोगली । मंगलं कुन्दकुन्दाद्या जीव धर्मोऽस्तु मंग ॥
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यारा दसवाँ अध्याय
ऋपिअरूपियागिहव द्रव्यागम । दापद्धतियोळगंक ॥ ताप ले नक्षर दोळगे कूडिसुवक । शरी पर बयबु भुवलय ॥१॥ प्रा दिय अतिशय मंगल पर्याय । तादियनकावर कूट ।। नाद म* अदे जीवनरि वेन्नुतिह ज्ञान । साधने यध्यात्म योग ॥२॥ म नदथियिन्द मगल पर्यायवनोदे । जिन धर्म तत्व * लेल्ल ।। तनगे ताने तन्न निजबनु तोरिप । घनविद्यासाधने योग ॥३॥ मु नर किन्नर ज्योतिष्क लोकद । घनव श्री जिन देवालयद् ॥ ल* रणधव्य श्री जिन बिम्ब करुत्रिमा कृत्रि । मेनेसान्क गणनेयोळदिदु ॥४॥ दो* षविनाशन शरीश श्री मन्दर । देशन दरुशन माडि ॥ राशिय म्* पुरणयव रूपिनिम् गळिसुव । ईशर भजिसे मन्मलवु ॥५॥
श्री शन पुण्य सद्ग्रन्थ ॥६॥ राशिय पाप विनाश ॥७॥ ईशनु पेळिद ग्रन्थ ॥८॥ राशिय पुण्यद गरिणत ॥६॥ ईशन भक्तिय गणित ॥१०॥ दोष अष्टादश गरिएत ॥११॥ श्री शन सद्धरम गरिगत ।।१२।। राशिय पुण्यद गरिणत॥१३॥ ईशन ज्ञानद गणित ॥१४॥ दोष अष्टादश गुणित ॥१५॥ श्रीशन सद्धर्म गुरिगत॥१६॥ राशिय पुण्यद ज्ञान ॥१७।। ईशन चारित्र मरिणत ॥१८॥ दोष अष्टादशादरित ।।१६।। श्रीशन सधर्म जान ॥२०॥ कोशद ज्ञान विज्ञान ॥२१॥ ईशन चारित्र सार ॥२२॥ दोष अष्टादश रहित ॥२३॥ श्रोशन सब्बरम गुरिणत॥२४॥ आशेय भव्यर भक्ति ॥२५॥
ईशरिप्पत् नाल्बरन्क।।२६।। कोषद काव्य भूवलय ॥२७॥ दो षगलियो केम् बाशेपिहरेल्ल । राशेयम् गुरुतिस्इ हरु स* ॥ देश ज्ञानव सम्पूर्ण वागिसि कोन्ड । देप्तिय भाषांक काव्य ॥२८॥
* यदनक वेनदेने अरहन्त रादियिम् । नव तीर्थगळन द र* शनदि ।। अवनिय पूजेगे विनयोगबेन्मुद । शिव पवदन्तवेदरिया ॥२६॥ रिण* जदहत् अन्कवे साधित भव्य । बिजयांक वेन्दरि अ व नु ॥ भजिसुत बरुवाग नवपद सिद्धिथु । विजय भादुवुदेन अरिदे ॥३०॥ जय सिद्धियाद हतन्क महावत । दयतदे बंद सन् मार्ग ।। दये दानवेल्लव निरदित्तु भजकर गे । नय प्रमाणवतु तोरुवुदु॥३॥ णा पद सामान्य प्रस्थारदकव । ज्ञान साम्राज्य ध्वज न* व ॥ श्री नेमिनाथांक वेन्दरि परमात्म । अनन्द कल्याण करणा ॥३२॥
ज्ञान बरभवकर काव्य ॥३३॥ श्रीनिवासन दित्य काव्य ॥३४॥ प्रानन्ददायक काव्य ॥३५॥ ऊनवळिद दिव्य काव्य ॥३६॥ कारिणय भद्र मन्गलवु॥३७॥ ताल्लि कारिगप मन्त्र ॥३८॥ ताने शुद्धोपयोगांक ॥३६॥ आनन्द साम्राज्य गरिंगत ॥४०॥ कारिणप शिव सख्यभर ॥४१॥ तानल्लि कारिणप तन्त्र।।४२।। जोरिण पाहुडदानि ग्रन्थ ॥४३॥ आनन्द साम्राज्य गुरिणत॥४४॥ कारिणप सूक्ष्म विन्यास ॥४५॥ ताम्लि काणिप मूति।।४६।। क्षोणियनलेव सत्कीति ॥४७॥ प्रानन्द साम्राज्य ज्ञान ॥४॥ वान दयामय ग्रनथ ॥४६॥ मानबरेल्लर कोर ति ॥५०॥ जैनागमद इरश नषु ॥५१॥ क्षोणि जणानद रूप ॥५२॥
ताने तानाद भूवलय ॥५३॥ लावण्य लिपियनव वेन्तेम्ब ब्राह्मिगे। देवनु नन्नय म ग ॥ नाविल्लि अक्षर ब्राझियोळ् पळवु । देवाधिदेव वारिणयणु॥५४॥ उस ण ठरण वेननुत येळलागुव माता जिनवाणि प्रोवरिम्परिय ल* ।। धनवाद अक्षरदादिय 'म'क्षर । कोनेगे 'प' अक्षर बरलु ॥५॥ स* वक गगनेय नवपद भक्तियिम् । सवियक्षरद अब य% ववम्।। सबरपर्गेअरवत् नाल्कनकदिम्पेढुवा नवम बंघांक बंदरिया॥५६।। रिश षिगळ भावदि बख्यात्म योगदोळ् । वंशवप्प सिरि सम्पद व म ॥वशमोन्डु भ्राहिये परवत् नाल्क अंकद । यशव होन्मुस पुलियाgmate
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ताशम
1111 1111 . न वदंक बरवन्दवेन्येन्दु केळुव । युवति सवन्दरिगे स मस्त।। सवियंक प्रोमदेरळमूर्नाल्कयदारेलु। नवसृष्टिएन्ट प्रोम्बत्तुगळ्।५८ दा न माडिद देव तन एडग यिन । अनन्ददम्तान्गुलिय * तारणबनाकेय एडगय्य अम्रुतद । तरणदनगुलिय मुलदल ॥५६॥ ग मोकार मन्त्रद क्षरगळनाकेयु। गमनिसि च्चोस्तिर व* विमलांक रेखेय आदिमदन्त्यद । सम विषम स्थानगळनु ॥६॥
अमलद् अन्तरद रूपयतु ॥६॥ क्रम बंदगोळिप योगवनु ॥६२॥ सम विषमादि सर्ववतु ॥६॥ अमलद् अन्तरद रेखेयनु ॥६४॥ करम बद्धगोळिप भाववनु ॥६५॥ सम विषमांक भागवतु ॥६६॥ विमलद् अन्तरद सत्ववनु॥६७॥ क्रम बद्धगोळिप भागवतु ॥६॥ सम विषमांक लेक्कवनु ॥६॥ कमलद् अन्तरद सत्यवतु ॥७॥ क्रम बद्धगोळिप द्रव्यवनु।।७१॥ सम विषमांक गरिएतव ॥७२॥ गमकद् अन्तरद सत्ववनु ॥७३॥ क्रम बद्धगोळिप गमकवम् ॥७४॥ सम विषाक कूटवतु ॥७॥ यमकद् अन्तरद सत्ववतु॥७६॥ क्रम बद्धगोळिप शून्यवनम्॥७७॥ रस विषमांक लदबनु ॥७॥
श्रम हरद् अतिशयोकवतु॥७॥ करम बद्धगोळिप विद्येचनुम् ॥८॥ सम शून्य काव्य भूवलय ॥५॥ पर ददक्षरांकद भागव तस्वनक । विधवनु तिळियम्म स क ल।। विधद दव्यागम शरुतविद्ययनकद । पदवे मंगलद पाहुउनु ॥२॥ न* वपद बद्धवक्षर विद्ये बेकम्ब । निवगोग अतिशय क ल या ।। णव पेळ्व प्रागम कर्म सिद्धांतद। अवयव विदरोळ पेळवेबु।।८३॥ च* रितेयोळ बरेदिह सरस्वतियम्मन । परियनरितु साकल् या अरहन्त बिद्यद केवलज्ञानद । परियतिश यव केळम्म ॥४॥
करुणेयक्षरव केळम्म ॥६५॥ रिय गेल्लुतूद केळम्म ॥८६॥ परमन अतिशय वम्म ॥७॥ धरेय मंगल काव्यवम्म ॥५६॥ करुणेय क्षरदनकवम्म ॥८६॥ अरिय गेल्लुयुदे सिद्धांत ॥६॥ परमन अतिशय घवल ॥१॥ घरेय मंगलद पाहुडबु ।।१२॥ करुणेय साम्राराज्यवम्म॥॥ अरिय गेल्लुवुदे मंगलबु ॥१४॥ परमन भूवलयांक ॥६५ धरेय जीवर काव्यान्ग ॥६६॥ गुरुगळ साम्राज्य वम्म ॥१७॥ अरि गेल्दवरंक बम्म ९८R परमन गम्भीरदनक ॥६॥ घरेयं जीवर सौभाग्य ॥१०॥ अरहनत साम्राज्यवम्म ॥१०१॥ अरिय गेल्दवर कक्षरांक ॥१०२॥ परमन गम्भीर वचन ।।१०३॥ धरेय जोवर चारित्र ॥१०४॥ सरस्वती साम्राज्यवम्म।।१०।। अरिफ गेल्दवर सिद्धांत ॥१०॥ परमन गम्भीर दान ॥१०७॥ परमात्म सिद्ध भूबलय ॥१०॥
नरसुरबन्दय भूबलय ॥१०६॥ परमाप्त सिद्ध भूललय॥११०॥ गुरुगळन्गय्य भूबलय ॥१११॥ कोटि कोटाकोटि सागरवळतेया गूट शलाके सूचिगळ।। मेटियपद एॐ वकार मन्त्रदे बह । पाटियक्षरत लेक्कगळम् ॥११२॥
* कामरुदनगादि सर्व शब्दागम । दक्कदक्षरद अन् का दिन तक्करे रबागमवर गदागमकाव्या सिक्कदुकनवर्यदागमदि॥११३ डि नडीरदोळ बंद सर्व शब्दागम । अन्डदक्षरद् वश ॐ बत्रु ।। खन्डित वागु बुरि काल क्षेत्रद । पिण्डवु नित्य बाळुवुदु।।११४।। प्रो मकारदिम् बंद सर्व शब्दागम । दन्कदक्षरद् अन् क* नित्य।। शम्केगलेळळव परिहर माहुब। सम्कर दोष विरहित ॥११॥
ओम्कार भद्र स्वरूप ॥११६॥ प्रोमदनक प्रोम्दे अक्षरवु ॥११७॥ श्रोमदनु बिडिसुव परषु ॥११॥
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सिरि भूवलय
सविं सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली प्रोमदंक स्वर नव पदवु ॥११६५ ओम्कार भदर मंगलव ॥१२०॥ प्रोमदंक भन्ग अक्षरषु ॥१२१॥ अोम्दनु बिडिसुव अन्क ॥१२२॥ प्रोमदनक बदुवे वर्णगळु ॥१२३॥ ओम्कार सर्व मंगलवु ॥१२४॥ योमदनक वदु शुद्धाक्षरतु ॥१२५॥ प्रोमदनु बिडिसलु सर्व ॥१२६॥ प्रोमदनक वयोग वाह ॥१२७॥ प्रोमकार दिव्यनिनाद ॥१२॥ प्रोमदनक परमात्म वाणि।।१२६।। ओम्दनु भजिपनु योगि ॥१३०॥ प्रोमदनक अनाल्कमागि।।१३१॥ प्रोमकार ताने तानागि ॥१३२॥ प्रोमदनक सिद्ध स्वरूप ॥१३३॥ प्रोम्दतु सर्ववेन्दरिया ॥१३४॥ प्रोमदनकव इप्पत्तु बिडिय।।१३५॥ प्रोम्कारदन एरड्अन्ग ॥१३६।।
प्रोमदन्क भन्गव माडे ॥१३७॥ अोमददु तोम्बत् एरडन्क ॥१३८॥ प्रोम्दन्क भन्ग भूवलय ।।१३६॥ पा* पविनाशक पुण्य प्रकाशक । लोपविल्लद शुद्धरूप ॥ ताप म्* लिसि मोक्षव तोर्प प्रोमकार । श्री पद ओम बत्तरन्क ॥१४०॥
* शवागलके प्रोम कारव कूडलु । यशदादि हत्प्रनकवदनु । प्र* शमादि गुणठाणदतिशयदन्कनु । प्रोसरुत ज्ञानाक्षरांकम् ॥१४१५ प्रा* शेय अक अइउङ्गळ्ए ऐ ओ औ। राशियोम बत्त स्वर धा* || प्राशेयिम ह रस्व दीरघ प्लुत मूरिम । राशिय गुरगव् इप्पत्ए।१४२। गि रियरदन्दद प्रामाईग्ररी। सर ऊऊऋ ऋलू लू ।। वर एएऐऐ नं प्रो ो ो ौ । सवरगळे दीर्घ पलुतगळु ॥१४३॥ रि* द्धिय प्रोम्बत् उ स्वरगलु मूररिम् । शुद्धियिम गुउण्इ स लु बरव॥ मुदिन्इप्पत् एलुक खगघज ऐदु। शुद्ध चुछ ऐदु॥१४४॥
होदिसि ट् इदए गळ ॥१४५॥ सिद्धसि त् य द ध न वनु ।।१४६॥ शुद्धद प फ ब भ म ऐदु ॥१४७॥ रिद्धियोळ् गुणिस् इत्पतऐदु।।१४८॥ बद्धयर् ल व श ष सह व ॥१४६॥ सिद्धअंग काफः नाल्क्ग्र म॥१५०।। शुद्धध्यन्जन मूयत्नरम् ॥१५१॥ इद्द नाल्न योगवाहगळ ।१५२॥ होद्दलु मूवत्एळ अंक ॥१५३॥ बद्धवाद अरवत्नाल्कु ॥१५४॥ शुद्धदक्षरदंक गळनु ॥१५॥ उद्दव कूडलु हवतु ॥१५६॥ होदिसला हत्ते प्रोम्दु ॥१५७॥ शुद्ध १ दे श्रोम्दु अंक ॥१५८॥ शुद्धकि प्रोम्दे अक्षरवु ॥१५॥ रिद्धियोळ् प्रादिम भंग ॥१६०॥ बुद्धिगे सिलुकिहुद् अंग ॥१६१॥ सिद्धान्त सागरदंग ॥१६२॥ सिद्धर तोक्य भन्ग ॥१६३॥ शुद्धांक गुणकारद् अंग ।।१६४॥ रिद्धिय तोरव भनग ॥१६॥ सिद्ध सम्सिद्धद भन्ग ॥१६६॥ बुद्धि प्रकर्षाणु भंग ॥१६७॥ रिद्धि प्रकाश्दणु भंग ।।१६।।
सिदधत्व दर्वादि भंग ॥१६॥ सदलिदरे सिद्धरनग ।।१७०॥ शुद्ध साहित्य भूवलय ॥१७॥ व* शवाद कर्नाटक देन्टु भागद । रस भंगद् दक्षरद स र वा। रस भावपळनेल्लव । कूडलु बन्दु । वशव एनरह दिनेन्दुभाषे॥१७२॥ र* मगोयवादादिम भन्ग समयोग । दमलांक अान्दु अक्षर व ।क्रमदोळगोम्दरिम गुरिणस् अरयत्नाल्कु। विमलांक हुदवुअरिया।।१७३।। सि रिसिद्धम ई प्रोम्दम बरेदुकोनडदरोतु । अरहन्त शुद् घन रोड'वनु। सिरिअशरोररसिद्धर''प्रादिः सिरिपाइरियदोल'मा दि१७४ हक रडिद ई मुरु प्राप्रापा' अक्खवाबरेदुकूडलु 'मा'बहुदु।। वरध मा* चरणगादिय 'आ' बरे मुन्दे। बरेवुदु उवजयदादि ॥१७॥ रे* खेयो अन्तदे साधुगढ़ मउनिगळ । श्रीकरदादिम म' शरम रणांक ॥ साकल्यव कूडे ओमकारबप्पुदु । सौख्य सर्वद मात्र बहुदु ॥१७६।।
या कलनकद जीव शब्द ॥१७७॥ साकल्य भंगद मूल ॥१७॥ साकल्यव कूडे अोमदु ॥१७६।।
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पराकट परब्रह्म दनग ॥१८॥ प्राकलन कर जीव तत्व ॥१८१॥ साकल्य भंगद अंत ॥१८२॥ साकल्यव कूडे सर्व ॥१८३॥ प्राकटः परब्रह्म भंग ॥१८४॥ पाकर द्रध्यागमवु ॥१८॥ साकल्य भंगद मध्य ॥१८६॥ साकलयब कूडे मध्य ॥१८७।। प्राकट परब्रह्म भद्र ॥१८॥ प्राकरघा रव्य भावा ।। १८६॥ साकल्य अरयत्नाल्कु ॥१०॥ साकल्य शब्दागमद १६१।। पराकट परब्रह्म तत्व ॥१६२॥ साकल्यानकद कक मोत्त ॥१६॥ शाफट कर्म सम्हारि ।।१६४॥
साकलागम द्रव्य रूप ।।१६।। एकान्क सिद्ध भूवलय ॥१६॥ रिण* ज शब्दवादिय ओम्कार अोमवनु । विजय धवलवन्यागिसि जी* ॥विजयव होन्दिद परब्रह्म विन्तागे भजिय योगिगळनद बेरे ॥१९७॥
* शवाद् इप्पत् एळ स्वरदोलु 'ओ' बरे। हुसिय ऐदक्षर व* शद। रसकूटवेतके प्रो प्रोम्दु एननदे। ऋषिपळनकवेग्रो प्रोम्दंक ॥१९॥ वा* दिगळेल्लर वाददिमतागे। श्री दिव्यवारिणय मर्म।। दादिय म भेदिसि तिढ़िव सम्यग्ज्ञान साधनेय् अरवत्तारुक अन्क ॥१६॥ रण* बदनकवदतु ओमबतरनदु पेळुब । नव पद भक्तिय चि ज* य ।। दवनिय हतअलु अरवमाल्कन्का दबानयल्लनु प्रोम्दंक ॥२००।। ग* मनिसि नोडलन्द अक्षर प्रोम्दु । समदनक विडियागे ज य दे। क्रमद् ओमदु काटकद समन्वया अमम विस्मयद सामान्यः।२०१।। या वाग कर्म सामान्यव नोडेवेवो। पावाग एनटु रूपगि।। तावदु तुझ लियलु सम्स्यात । दा विश्वाननतान्क बहुदु ॥२०॥
दाविश्य घ्यापियागुबुदु ॥२०३॥ जीवर नन्तान्क गणित ॥२०४॥ सावु हुगळ अनन्त ॥२०॥ देवन अरिकेयनन्त ।।२०६॥ श्री वीरनरिकेय अन्क ॥२०७॥ जीवरनले सुव कर्म ॥२०॥ जीवराशिय काटकवु।।२०६॥ दा विश्व कर्मदनन्त ॥२१०॥ काववरारिल्लद अन्क ॥२१॥ जोवर नलेसुय अन्क ।।२१२॥ जोय राशिय गणितांक ॥२१३॥ पावन जोव घातांक ॥२१४॥ भावद कर्माक गरिणत ॥२१५॥ जोवर नलेसुब गरिणत ॥२१६॥ जीव जीवर गरिगतांक ।।२१७।। पाबन जीव ज्ञानांक ॥२१॥ तीवलक्षर अर्चनाल्कु ॥२१॥ तावल्लि प्रोम्दे प्रादनक ॥२२०॥
शो वीरवारिंग प्रोमबत्तु ॥२२१।। ई विश्व काव्य भूवलय ॥२२२॥ ण षपद भक्तिये अणुवतकादियु । अवरु श्री जिनवीक्षे बहि श* ए । नवदंक एंटरिम एलरिम । सब भाग 'सोन्ने काणुवरु ॥२२३॥ मो* हदंकवरेष्टु रागदनकवदेष्टु । साहसि वेषांकद् प्राळा । मोहवेषवळिदाग प्रात्मन । रूहिद ज्ञानक्वेष्दु ॥२२४॥ ते रस गुणठारगरिद प्रात्मन । सारौक दर्शमदंक ।। भार सॐ गुरुठाए सार चतुर्दश । वेरिनन्तांक ( सन्ख्यात ) वेष्टु ॥२२॥ सिक ववागलात्मनेरिद सिद्धलोकद । अवतारदादिम जीव ।। प्रव न ष्ट गुणगळ (अवनष्टु ज्ञानद) व्याप्ति एष्टेम बन्क दवनु (अतिशय
धवल ) सिद्ध भूवलय ॥२२६॥ मनसिज हरगनवु हदिनालकु साविर मुन्दए। तनि मनहत् प्रोम * वन अंत ॥ (एदु साविरदहत् प्रोम) प्रोन्बत् प्रोमदु सोन्नेयु ए'दु।।
तनुवेल्ल ओमद् 'ऋ' भूवलय ॥२२७॥ ऋ८,०१६ अन्तर १,४३१६=२२,३३६
अथवा अ-ऋ.२,००,५६५+ऋ२२,३३८२,२२,६०३
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ग्यारहवां अध्याय
यह मूवलय सिद्धान्त रूपी द्रव्यागम मो है और अरूपो द्रव्यागम भी। समस्त संसारी जोवों में बुधा-तृषा आदि अठारह दोष हैं। इन सबकी इसलिए इसकी रचना मंक पद्धति रूप से की गई है ऐसा होने से अक्षर में ग्रंक गणना करनेवाला यह गणिल शास्य है ।११। मिलाने की शक्ति उत्पन्न हुई। अंक और अक्षर दोनों भगवान के दो चरण श्री जिनेन्द्र देव ने धर्म के साथ सद्धर्म को जोड़कर उपदेश दिया है। स्वरूप हैं और वही यह भूवलय है ।।।
उस सद्धर्म के स्वरूप की गणना करनेवाला यह गणित शास्त्र है ।१२। श्री ऋषभनाथ भगवान के समय में सर्व प्रथम अतिशय मंगल पर्याप्त अगणित पुण्यराशि की भी गणना करनेवाला यह गरिणत शास्त्र रूप से पक और अक्षर का सम्मेलन हा । तत्पश्चात् दोनों के संघर्षण से है।१३।। जो नादब्रह्म (शब्द ब्रह्म) प्रकट हुआ वही जीव द्रव्य का ज्ञान है और सभी भगवान का केवल ज्ञान अनन्तानन्त है अर्थात् भगवान में अनन्तानन्त जोवों को इसी ज्ञान की साधना करनी चाहिए, क्योंकि यह दामातम गोग है जोबादि पदार्थों को देखने तथा जानने की अद्भुत शक्ति होती है । उन सबको
उस अंकाक्षरी विद्या को योगी जन प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं; किन्तु अलौकिक गणित से गिनने वाला यह गरिणत शास्त्र है ।१४॥ सामान्य जन भूवलय रूप उस ज्ञान निधि का स्वाध्याय करते हैं । तदनन्तर जैन । अठारह प्रकार के दोषों की गणना को गुणा करके सिखानेवाला यह धर्म का समस्त तत्त्व अपने अपने स्वरूप से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार गरिगत शास्त्र है।११ धन विद्या साधन रूप महायोग है ।३।
इसी प्रकार की जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये सद्धर्म को भी गुणा करके सुर, नर, किन्नर तथा ज्योतिष्क लोक के पन स्वरूप को, उस लोक में | सिखलानेवाला यह गरिएत है ।१६ रहनेवाले कृत्रिम-अकृत्रिम श्री जिनेन्द्र देव के देवालय तथा जिनबिम्ब इन सबको यह गरिणत शास्त्र स्वयमेव उपार्जन किये हुए पुण्य की गणना सिखाने अङ्क गणना से योगी जन यथावत देखकर ठीक ठीक जान सकते हैं ।४। ।वाला है ।१७। समस्त दोषों के नाशक विदेह क्षेत्र में रहनेवाले श्री सीमन्धर स्वामी का
भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित चारित्र की गणना करनेवाला दर्शन करके, अतिशय पुण्य कर्मराशि का संचय करके तथा निरन्तर श्री। यह गरिणत शास्त्र है ।१८। जिनेन्द्र देव का भजन करके योगी जन मंगल पर्याय रूप बन जाते हैं । । अठारह प्रकार के दोषों के विनाश होने से जो गुण उत्पन्न होता है
यह भूवलय ग्रन्थ भगवान के अतिशय पुण्य का गान करने वाला है ।६। उन सबकी गणना करनेवाला यह गरिणत शास्त्र है ।१९।
इस सिद्धान्त अन्य के स्वाध्याय से शनैः शनैः समस्त पापों का नाश हो। सद्धर्म पालने से जितने पात्मिक गुरमों की वृद्धि होती है उन सबका जाता है ।।
शान करानेवाला यह गणित शास्त्र है ।२०। इस सद्ग्रन्थ का उपदेश श्री जिनेन्द्र भगवान ने स्वयं अपने मुख कमल यह गणित शास्त्र समस्त ज्ञान-विज्ञान-मय शब्द कोष से परिपूर्ण से किया है ।
है ॥२१ भगवद्भक्ति से उपाजित हुई पुण्य राशि की गणना विधि को सिखलाने । यह गणित शास्त्र अंतरंग चारित्र को बतलानेवाला है ।२२। वाला यह गम्गत शास्त्र है।
यह चारित्र में आनेवाले दोषों को हटा देने वाला है ।२३॥ भगवान की भक्ति का जितना मंक है वह भी सिखानेवाला यह गणित यह भगवान के द्वारा प्रतिपादित सद्धर्म मार्ग में सभी को नागानेवाला
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संपबंगलौर-दिल्ली भक्ति की आशा रखकर भव्य जन गरिणत शास्त्र के ज्ञान को बढ़ा। समवशरण में भगवान को दिव्य ध्वनि से निकला हमा यह भूवलय लेते हैं । २५१
। काव्य श्री निवास काव्य है ।३४। चौबीस तीर्थंकरों के गुणगान करने से ही समस्त गरिणत शास्त्रों
यह काव्य सम्पूर्ण जगत के लिए यानन्ददायक है ।३५।। का शान हो जाता है ।२६।
इस दिव्य काव्य में किस विषय की कमी है ? अर्थात् किसी की नहीं ।३६। समस्त भाषाओं के समस्त शब्द कोष इस भवलय ग्रन्थ में उपलब्ध
समस्त मङ्गलरूप भद्रस्वरूप को, यह काव्य दिखाता है । ३७॥ हो जाते हैं ।२७
इस मंगल रूप काव्य मो अरहंताणं इत्यादि रूप समस्त मन्त्रों को समस्त दोषों को नाश करने की आशा रखनेवाले भव्य जनों की वांछा
दिखाता है।३८ को योगी जन इस गरिणत शास्त्र द्वारा जान लेते हैं। और एक देश ज्ञान को
इस ग्रन्थ के अध्ययन से योगियों को शुद्धोपयोग मिल जाता है ।३६। सम्पूर्ण बनाने का जो उपदेश देते हैं वह देशी भाषा में रहता है तथा वही यह
यह भूवलय शास्त्र गरिणत विद्या का आनन्द साम्राज्य है।४०। भूवलय ग्रन्थ है ॥२८॥
मोक्ष लक्ष्मी से उत्पन्न मंगलमय सौख्य को प्रदान करनेवाला यह भूवलय अर्हन्त भगवान से लेकर अंक पर्यन्त का अंक तीर्थ स्वरूप है।
काव्य है ।४१॥ उनके दर्शन करने से भव्य जीवों को गणित शास्त्र का विनियोग करने की।
। अनेक युक्ति से मुक्ति लक्ष्मी से प्राप्त होनेवाले सुख का दिखानेवाला विधि मालूम हो जाती है । उसके मालूम हो जाने पर मोक्ष पद प्राप्त करने का
यह काव्य है 1४२। सरल मार्ग भी मिल जाता है ।१६॥
सब शास्त्रों का आदि ग्रन्य योनिपाहुड़ है अर्थात् उत्पत्ति स्थान है। उन उत्तम क्षमादि दस धर्म को भव्य जनों का साधन करने का सत्य धर्म
सब उत्पत्ति स्थानों को दिखानेवाला यह ग्रन्थ है ।४३। है, वही पात्मा का विजयांकुर है । उन्हीं दस घों को ध्यान करते समय स्वयं अर्हतादि नौ पदों की सिद्धि प्राप्त करने में क्या पाश्चर्य है ।३०।
गणित की विधि में सबको क्लेश होता है, यह भूवलय का गणित
शास्त्र ऐसा न होकर आनन्ददायक है।४४। ऐसी विजय को प्राप्त करादेने वाला दस क्षमादि धर्म महानत से प्राप्त होता है । दया, दान इत्यादि सब यात्मिक गुरमों को प्राप्त कराकर नय और
नाट्य शास्त्र में पटविन्यास एक सूक्ष्म कला है, उस कलामय भाव को प्रमाण इन दोनों मार्म को बतलाता है ।३१।
गरिगत शास्त्र में बताने वाला अर्थात् परमात्मा में बतलानेवाला यह भूवलय सामान्य दृष्टि से देखा जाये तो जान एक है, विशेष रूप से देखा जाये।
ग्रन्थ है ।४५॥
गणित शास्त्र और अंक शास्त्र ये दोनों अलग अलग हैं, इन सबका तो पांच प्रकार का है, संख्यात स्वरूप तथा' असंख्यात स्वरूप भी है। इस रीति से ज्ञान को गणित विधि से प्रसारित कर पक रूप से बना ले तो ज्ञान।
स्वरूप दिखानेवाला यह ग्रन्थ है ।४६। साम्राज्य रूपी ध्वज हो जाता है। इस ध्वज को नमिनाथ जिनेन्द्र देव ने। समस्त पृथ्वी अर्थात् केवली समुद्रात गत भगवान के शरीर रूपी फहराया । इसलिए कल्याणकारी हया । इसका नाम आनन्ददायक करण सूत्र विश्व का नापन वाला यह भूवलय अन्य ह ॥४७॥ है । इस करण सूत्र को जिनेन्द्र भगवान ने सिखाया ।३२॥
इस भूवलय ग्रन्थ के अध्ययन करने से ज्ञान रूपो प्रानन्द साम्राज्य की यह भूवलय के ज्ञान के वैभव को बतानेवाला है।३३।
प्राप्ति हो जाती है।४।।
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सिरि भूवनय
मर्थ सिद्धि संघ बैंग रोग.किल दया धर्म के सूक्ष्मप्रतिसूक्ष्म. से लेकर बहद- पर्यन्त दान देने को हैं। उन समस्त सम्पदाओं को प्राप्त करके है बेटी ब्राह्मी देवी । ६४ मंक को अनन्त दान कहते हैं । उसे बतलानेवाला यह भूवलय है । ४६।
लेकर तुम सुखी हो जामो, ऐसा श्री दृषभनाथ भगवान ने अपनी पुत्री से उपदेख यह अनन्त दान समस्त मानवों की कीर्ति स्वरूप है ।५०।
रूप में कहा । स्नेह, पूर्ण पिता जो का शुभाशीर्वाद सुनकर ब्राह्मी देवो परम दान के स्वरूप को बतलानेवाला यह ग्रन्थ जैनागम का दर्शन शास्त्र प्रसन्न हुई ।५७। है।५।।
उपयुक्त ६ अंक किस प्रकार निकलकर आ जाता है, ऐसा अपने पूज्य इस पृथ्वी में रहनेवाली समस्त जनता को यह दान क्रमशःप्रानन्द प्रदान । पिता जी से कुमारी सुन्दरी देवी के प्रश्न करने पर उन्होंने उत्तर दिया कि करनेवाला है ।।
ये समस्त एक, दो, तीन, चार, पांच, छ, सात, पाठ और नौ इन अंकों को .. इस रीति से दानमार्ग को चलाने में यह भूवलय ग्रन्थ अद्भुत अचिन्दय
।५। है।५३)
____ दान किये हुए देव अपने दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल से श्री सुन्दरी विवेचनः
देवी के बायें हाथ की अमृतांगुली में 1५६ भूवलय के दानमार्ग प्रवर्तन का क्रम इस प्रकार है:
लिखे हुए अंकों द्वारा सुन्दरी देवी ने एमोकार मंत्र को जान लिया। १-आहार २-अभय ३-औषधि तथा ४-शास्त्र इन चारों को मुख्य बताया | उस विमलांक रेखा के आदि, अन्त और मध्य में रहनेवाले सम, विषम और है। इन चार प्रकार के दानों में ज्ञान दान की प्रधानता इस अध्याय में रहती है। । मध्यम स्थान को भी उसने अपनी सूक्ष्म बुद्धि द्वारा जान लिया । और ज्ञान अक्षर रूप रहता है। वे ज्ञानात्मक अक्षर यदि लिपि रूप से बन! इसी रीति से सुन्दरी देवी ने निर्मल आम्यन्तरिक स्वरूप को भी जान:: जाय तो उपदेश देने लायक बन जाता है । इसलिए लिपि की उत्पत्ति के क्रम ! लिया ।६१। को आचार्य बतला रहे हैं:
इन सभी को क्रम-बद्ध करनेवाला योग है और सुन्दरी देवी ने उसे भी ब्राह्मी देवी ने अपने पिता श्री आदिनाथ भगवान से पूछा कि हे पिता । जान लिया । ६२॥ जी! लावण्यरूपी अक्षर की लिपि कैसी रहती है ? ऐसा प्रश्न करने पर यह योग सम, विषम, उभय, तथा अनुभयादि विविध मेद से विद्यमान मगवान ने कहा कि सुनो वेटी! अब हम भगवान की दिव्य ध्वनि को रहता है ।६३। तुम्हारे नाम से अक्षर ब्राही में कहते हैं ।१४।
इसी रीति से निर्मल अन्तर को रेखा भी विद्यमान रहती है 1६४) दिव्य ध्वनि जय घंटे के नाद के समान निकलती है । वह सभी ॐ के ! अन्तर में रहने वाली सभी रेखानों को क्रम बद्ध करने के अनेक भाग अन्तर्गत है। इस दिव्य ध्वनि का प्राद्यक्षर "अ" से लेकर अन्तिम :: तक ६४ | रहते हैं ।६५॥ अक्षर हैं। १
सम विषमांक भावों को निकालनेवाला है ।६६। अंक की गणना करने से है (नव) पद भक्ति मिल जाती है । वहीं अत्यन्त निर्मल अंतर सत्य को बतलानेवाला है।६७। अक्षर का अवयव है । श्रावकों को ६४ अंक से उपदेश देनेवाला नवम बन्याए। कर्म बन्द को नाश करने के लिए भागांक को निकालने वाला है।६। जान लेना चाहिए ।५६॥
सम विषमांक गणित को बतलाने वाला है।६६। ऋषि गण जब ध्यान में मग्न रहते हैं तब योग की सिद्धि हो जाती हृदय कमल के अन्तर के सत्य को बतलाने वाला है ७० और योग की सिद्धि हो जाने पर संसार की समस्त सम्पदायें उपलब्ध हो जाती कर्मबन्ध को नाश करने के लिए यह द्वार है।७१
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१७०
सिरि भुवलय
सर्वाध सिद्धि संघ बैंगलोर-दिस्ती
सम विषमांक गणित के द्वारा निकालकर देने वाला है ।७२१
है बेटो ! यह करुणामय साम्राज्य है ।६३' गम्भीरता के साथ अन्तर सत्य को निकालकर देनेवाला है ।७३।
हे बेटो ! यह सम्पूर्ण शत्रु को नाश करनेवाला मंगल है।६४ : : कर्म नाश करने की युक्ति या तरीका बतलानेवाला है ।७४।
है बेटी ! यह परमात्मा का भूवलय अंक है ।१५॥ सम विषमांक कूट को बतलाने वाला है ।७५॥
हे बेटी ! सम्पूर्ण पृथ्वी के जीवों का काव्य है ।। यमक के अन्तर सत्य को बतलाने वाला है १७६।
हे बेटी ! यह गुरु का साम्राज्य है ।। कर्म बंध को नाश करनेवालो बिन्दी को निकालकर देनेवाला है ।७७। हे बेटी ! यह कर्म रूप शत्रु को जोते हुए महापुरुषों का अंका है। सम् विपाकलका को निगालने पाया है।
है बेटी ! यह परमात्मा का महान गम्भीर अंक है IEL : श्रम को नाश करनेवाला अतिशय अंकवाला है ।
हे बेटी ! यह सम्पूर्णपृथ्वी के ऊपर रहने वाले जीवों का सौभाग्य यह सम्पूर्ण कर्म को नाश करने वाली विद्या है ।८०)
है।१०० सम शून्य काव्य नामक यह भूवलय है ।।
हे बेटी ! यह अर्हत भगवान का साम्राज्य है !१०१॥ पदाक्षर अंक के भाव को लाने वाले अंकों की विवि को समझानेवाले हे बेटी ! यह शत्रु को जीतकर वश किया हुआ अंक है ।१५ तथा समस्त प्रकार के द्रव्यागम श्रुति विद्या अंक का यह अंक नामक हे बेटी ! यह भगवान के गम्भीर वचन हैं ।१०३। पद ही मंगल पाहुड है ।।
हे बेटी ! यह सम्पूर्ण पृथ्वी के जीवों के चारित्र की उत्पत्ति का समय नौ पद बद्ध अक्षर विद्या की इच्छा करनेवाले भव्य जीव को शीघ्र ही है।१०४॥ अतिशय कल्याण मार्ग को कहनेवाले प्रागम सिद्धान्त के अवयव में रहनेवाले हे बेटी ! यह सरस्वती देवी का साम्राज्य है ।१०५ .. . विषय को कहते हैं ।८३।
___ हे बेटी ! यह कर्म रूपी शत्रु को जीतेनेवाले महान पुरुषों का कियात चरित्र, में लिखा हुआ सरस्वती देवी के द्वारा वाणी को भगवान ने । है ।१०६। समझकर अर्हतदेव पर्याप उसी अक्षर को जो भगवान की केवल ध्वनि के द्वारा हे बेटी ! यह भगवान के द्वारा सम्पूर्ण जीवों को दिया हुमा गम्भीर निकला है उसो अतिशय अक्षर को हे बेटी ! तुझे मैं समझाऊंगा' तू ! सुन । दान है ।१०७।
1८४i
हे बेटी ! यह परमात्म नामक सिद्ध भूवलय है ।१०८ ! ... हे बेटी! ये करुणामय को उत्पन्न करनेवाले अक्षर हैं 11
हे बेटी ! यह देव और मनुष्य के द्वारा बन्दनीय भूवलय है । १०२ हे बेटी ! यह प्रक्षर शत्रु को नाश करने वाले हैं।०६।
हे बेटी ! यह परमात्म सिद्ध भूवलय है ।११०।। हे बेटो ! यह महंत भगवान का अतिशय है ।।
हे बेटी ! यह पंच गुरुओं का भूवलय है ।११।। हे बेटी ! यह पृथ्वी का मंगल रूप काव्य है ।।
हे बेटो ! यह करोड़ों कोडा कोडी सागर के प्रमाण इलाका, शुचि, है बेटी ! यह करुणामय अक्षर अंक है ।।
। उसकी लम्बाई, चौड़ाई, पद इत्यादि इस नवकार मंत्र से मानेवाले और अनेक हे वेटो ! यह शत्रु को जीतनेवाला सिद्धान्त है ।
। तरह के अक्षरों के गरिणत को तथा ढक्का, मृदंग मादि के झंकार शब्दादि हे बेटी ! यह परमात्मा का अतिशय धवलयश है 18१
| अक्षरों के अंक प्रादि तथा योग्य रेखागम, वर्णागम काव्य इत्यादि इस द्रव्यागम हे बेटी | यह पृथ्वी का मंगलमय पाहुए है ।।
1 से प्राप्त होते हैं ।११२-११३१
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१७१
सिरिमुषलय
सर्वोष सिरि संघ गतीलाली
भगवान की वाणी के द्वारा पाया हुआ सर्व शब्दागम अंक से निकल-1 एक अंक हो भूवलय है ११३६। कर पाये हुए अक्षर खंडित न होने वाले काल क्षेत्र के पिंडात्म हमेशा रहते । यह एक अंक पाप का नाशक, पुण्य का प्रकाशक, समस्त मल से रहित हैं, अर्थात् ये शब्द नित्य तया हमेशा जोवन्त है ।११४।
परम विशुद्ध तथा समस्त सांसारिक तापों को नाश करके अन्त में मोक्ष को ॐकार के द्वारा पाये हुए सभी शब्दागम के अक्षर अंक सर्वत्र बतलानेवाला ओंकार रूप श्री पद नौवां अंक है ।१४०1
. सम्पूर्ण शंकानों का परिहार करनेवाले शंका दोष रहित पक हैं ११॥
उसमें मोंकार मिलने से प्रादि के १० अंक को प्रशमादि गुण म्यान यह ओम्का अ शब्द भद्र स्वरूप है ।११६॥
अतिशय अंक उसमें से धीरे-धीरे ज्ञानाक्षर की उत्पत्ति होती है ।१४।। ओ३म् भो एक अक्षर है ।११७।।
आशा अंक-अ इ उ ऋ ल ए ए ऐ ओ औ इन राशियों के स्वरों सभी अक्षरों में एक ही रूप में रहनेवाले अक्षर हैं।११।
में उस आशा से ह्रस्व दीर्घ तथा प्लुत इन तीनों राशियों से गुणा करने पर ओ३म् एक अक्षर ही है स्वर नौ पद हैं।११६
गुणनफल २७ होता है ।१४२। यह ओमकार भद तथा मंगलमय है ।१२०1
पर्वत के अग्रभाग के समान मा, आ, ई, परी, क, भू, ऋ का यह ओ३म् एक अक्षर ही भंग अंक है ।१२१॥
ए-ए-ऐ-ऐ, प्रो-यो, यो-प्रो इन उपयुक्त स्वरों को क्रमशः दीर्घ इसमें से एक को छुड़ानेवाला अंक है ।१२।
१ २१ २, १ २ १ २ और प्लुत कहते हैं ।१४३। एक अंक का अवयव हो वह है ।१२३॥
इस वृद्धिगत ह स्वरों को ३ से गुणा करने पर पानेवाला गुणनफल यह ओंकार शब्द सर्व मंगलमय है ।१२४॥
२७ और क ख ग घ ङ् ये पांच तथा च छ ज म ज ये पांच, इन्ड ङ प्रोम् अंक हो शुद्धाक्षर है ।१२॥
रए इन पांचों को सिद्ध कर त य च न प फ ब म इन पांचों वर्गों को प्रोम् को तोड़ने से सभी आ जाते है ।१२६॥
परस्पर में गुणा करने से गुणनफल २५ आता है। पुन: बद्ध य, रल, व, ओम अंक ही योगवाह है । १२७/
स, ष, श, ह तथा सिद्ध किये हुए अं, मः , कः, फ: ये चार अंक १४ ओंकार ही दिव्यनाद है ।१२८)
से १५० तक। प्रोम् अंक ही परमात्म वाणी है ।१२६॥
शुद्ध व्यंजन ३३ हैं ॥१५॥ योगो जन एक ओं को हो भजते हैं ।१३०
ये चार अंक प्रयोगवाह हैं। इनको उपयुक्त व्यंजनों में मिलाने से एक अंक ही ६४ रूप होकर ॥१३॥
३७ अंक होता है १५२-१५३॥ अन्त में अपने आप ही ओंकार रूप हो जाता है ।१३२॥
बझाक्षर ६४ हैं ।१५४ एक मंक ही सिद्ध स्वरूप है ।१३३॥
शुद्धाक्षरांक को १५५। एक में ही सब कुछ है, ऐसा समझो ।१३४१
सोघे मिलाकर ६+४=१० होते हैं ।१५६। एक मंक हो २० अंक है । १३५॥
इस संयुक्त १० में से बिन्दी निकाल देने पर १ रह जाता है ।१५७। यह ओंकार दूसरा अंक है ।१३६॥
यही १० शुद्धांक है।१५। एक का भंग करने से ।१३७१
शुद्धांक १ ही अक्षर है ।१५। १२ पंक होता है ।१३१
वृद्धि में प्रावि भंग है ।१६०
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कार्य सिद्धि संघ बैगलोर-दिल्ली
सिरिअधलय
- यह बुद्धि के द्वारा उपलब्ध अंक है ।१६।
यह साकल्य भंग का अन्त है।१२। यह सिद्धांत सागर का अंग है ।१६२।
साकल्य मिलाने से सब है ।१८३॥ 'यह सिद्ध भगवान को दिलानेवाला भंग है।१६३१
यह पराकष्ट का भंग है । १८४ यह शुद्ध गुणाकार का अंग है ।१६४।
अन्त में सभी मिलकर यह द्रव्यागम है ।१८। यह ऋद्धि को दिखानेवाला भंग है ।१६५]
यह साफल्य भंग का मध्य है ।१८६। यंह सिद्धं संसिद्ध भंग है ।१६६।
यह साकल्य मिलने पर भी भव्य है ।१८७। यह बुद्धि को प्रकट करनेवाला अनुभंग है ।१६७।
यह पराकष्ट परब्रह्म भद्र है [१८
.... 'यह ऋद्धि को प्रकट करनेवाला अनुभंग है ।१६८५
यह आकार से द्रव्य भावं है । १८६। यह सिद्धत्व प्राप्त करने के लिए आदि भंग है १६६।
यह साफल्य ही ६४ है । १६०। इसको संपूर्ण मिटाने से सिद्ध भगवान का अंग रूप है । १७०।
यह साकल्य ही गब्दागम का ।१६१ यह शुद्ध साहित्य नामक भूवलय है ।१७१॥
पराकष्ठ परब्रह्म तन्य है ।१९। वश किये हुए कर्माटक के पाठ रसभंगों के सम्पर्श प्रक्षर रस भाव।।
यह.माकल्यांक चक्र का आदि हैं ।१९३ : . को मिलाने से प्राप्त यह ७१८ (सात सौ पठारह) भाषा है ।१७२१
. अत्यन्त सुन्दर रमणीय आदि के भंग संयोग अमल के १ अक्षर को।
यह साकल्य कर्म से हारी। १९४॥ क्रमशः यदि ७ से गुणा करते जायें तो ६४ विमलांकों को उत्पत्ति होती है,
यह सकलागम द्रव्य रूप है।१६५.
. ऐसा समझना चाहिए ।१७३।
पह. एकांक सिद्ध भूवलय है । १६६। श्री सिद्ध को लिखकर उसमें अरहन्न अ को श्री अशरीर सिद्ध भगवान प्रादि निज शब्द एक ओ३म्कार की विजय रूप है इस विजय को प्राप्त न और पाइरिया के पहले का अइन तीनों के पास, आ को पृथक पृथक किया परब्रह्म के समान अपने को मानकर अपने अन्दर ही अाराधन करनेवाले लिखकर एक में मिलाने से ग्रा होता है। यह श्रेष्ठ धर्माचरण के प्रादि से योगीअन्य अपने को बसुना २७ स्वरों में 'यो अनि से अन्य शेष पांच प्रकार मा पाता है। पुनः आगे उवज्झाया के आदि में उ पाता है। और अन्तिम के उ अन्य रसलट को आवश्यकता क्या है क्योंकि वह जो एक प्रकार है.मधी साधु मुनि के श्रीकार के आदि में मु और मू से म आता है । इन सभी को एक है और उसी का अंक अर्थात् जो पंच परमेष्ठी है वह भी उसी का रूप है परस्सर में मिलाने से प्रोम् वन जाता है । यहो ओंकार समस्त प्राणी मात्र ! और उसी का नाम प्रोम है जोकि एक अक्षर है । और प्रोम अक्षराही बस को सुख देनेवाला मन्त्र है। १७४-१७५-१७६।
विश्व में सम्पूर्ण प्राणियों को इष्ट को प्राप्त कराने वाला है ।१९७-१९८। ,, यह कलंक रहित जीव शब्द है ।१७ -
समस्तवादियों को पराजित करके भगवान की दिव्यबाणी केला ... यह साकल्य भंग का मूल है ।१७८
मर्म जाननेवाने सम्यग्ज्ञान के साधन यह ६४ चौसठ अंक हैं ।१९६- MEE यह साकल्य का संयोग होते ही एक है ।१७६। :: . . बंब अंक नौ रूप को कहनेवाला नवपद मक्ति की विजय पृथ्वी तलमें यह पराकाष्ठ परब्रह्म का अंक है ।१८०
प्राप्त होने से ६४ अंक इस सम्पूर्ण पृथ्वी में एक है १२०० • यह उस प्रकलंक जीव का तत्त्व है।१८१॥
अभेद दृष्टि से देखा जाय तो अंक का प्रक्षर एक है सम भेकको प्रसन
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सिरि मूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संप बेगचौरविल्लो
किया जाय तो भी एक है। यह कर्माटक कितने आश्चर्य का है? क्या यह । भेद की अपेक्षा से अक्षर पौंसठ हैं ।२१।। सामान्य है? अर्थात सामान्य नहीं है ।२०१॥
अमेद विवक्षा से एक अंक है ।२२०॥ कर्म सामान्य रूप से एक है, मूल प्रकृतियों के अनुसार ६ प्रकार का । श्री भगवान वीर को वाणो नौ अंक रूप है ।२२२ है। उत्तर भेदों के अनुसार कर्म संख्यात भेद वाला है। उन कर्मों को दबा यह विश्व काश्य नामक भूवलय है ।२२२॥ देनेवाले पारम-प्रयल भी उतने हैं । इन सबके बतलानेवाले विश्व के अंक निकल नवपद भक्ति ही प्रणुव्रत की प्रादि है और जीव जिन-दीक्षा धारण पाते हैं ।२०२।
करके नवांक को आठ से, सात से, दोसे, समभाग करने से शून्य रूप में दीखता वह विश्व का व्यापी होता है ।२०३।
है ।२२३॥ यही जीव का अनन्त गरिणत है ।२०४।
मोह के अक कितने हैं, राग के कितने हैं, ऐसा जानकर वह मोह यह जन्म और मरण का अनन्त है ।२०५।
देष को जब नष्ट कर डालता है तब निरञ्जन प्रमूर्तिक पात्मा का ज्ञानांक भगवान पईत देव के ज्ञान में आया हुआ यह अनन्त है ।२०६॥ कितना है, यह मालूम होता है ।२२४। श्रो वीर भगवान का जाना हुआ यह अंक है ।२०७॥
तेरहवें गुणस्थान में पहुंचा हुए आत्मा के सारे दर्शनांक. बारहवें जीवों को संसार में हलन-चलन करानेवाले कर्म हैं ।२०८-२०६। गुण स्थान का अंक प्रोर सार भूत चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त हुआ चौदहवां यही जीव राशि का कौट है ।२१०॥
महिना रुपात है ।२२५ बिना रक्षा के यह अंक है ।२११५
पुनः शिव पद को प्राप्त करके सिद्ध लोक में पहुंचा हा सिद्धलोक के जीव को संसार में भ्रमण करानेवाला यह अंक है ।२१२।
निवासी जीव और उनके पाठ गुण की व्याप्ति से पाये हुए अंक कितने हैं, यह जीव राशि के गणित का अंक है ।२१३॥
इस सम्पूर्ण विषय को बतलाने वाला यह अतिशय नामक धवल भूवलय पवित्र जीव को पात करनेवाला यह अंक है ।२१४॥
है। २२६ भाव काक रूप यह गणित है ।२१५॥
कामदेव का हन्ता आगे १४, ३१६ अन्तर के ८,०१६ सम्पूर्ण मिलने जीव को संसार में रुलाने वाला यह गणित है ।२१६।
से एक को बतलानेवाला यह भूवलय नामक ग्रन्थ है ।२२७। यह सम्पूर्ण जीवों का गणित है ।२१७।
ऋ, ८, ०१९+अंतर १,४३१६-२२,३३८, पवित्र जीव का ज्ञानांक है ।२१८१
अथवा अ-२,००,५६५+ऋ२२,३३८२,२२६०३।
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पाररूपा
पाप
ऋषिगळ् अध्यात्म योग साम्राज्यये । वशवाद श्री भद्ररा शिर ॥ रसवस्तुत्यागद सम यमदिम् बन्द । यशसिद्ध काव्य भूवलय ॥१॥ एस रिद ध्यानानियारयकेयोळु बन्द । शूर दिगम्बरर नव व* मूरु कुन्दिद कोटियक्षरदन्कद । सारात्म सिख भूवलय ॥२॥ व रद सम्हनन व्यवहार नयवाद । परिय निश्चय नय म दुवे ।। सर मागेर्दाग शुद्धत्व सिद्धिय । परमात्मनन्ग भूवलय ॥३॥ मा दिय सम्हननवु व्यवहारदासाधने निश्चय नयव ॥ साधिप स# वसमययदि मंगल काव्य । दोदिनिम् बन्द भूवलय ॥४॥ पर जन्मदान्तवाविय शुभ कर्म । विश्वष्टु सुखवनु तु मबि । सरुव पुण्योदय हदिनेन्दु श्रेणियु। बरबेकेन्देनुव भूवलय ॥५॥
उरदवरन्ग रक्षणयु ॥६॥ नजन्मदन्त्य शरीर ॥७॥ एरडने चरम शरीर ॥॥ बरगळ सम्बळ काव्य ॥ उरद सन्मौजिय बंध ॥१०॥ गरुव शरी गुरुवर काव्य ॥१२॥ परसराळिद गन्ग वमश ॥१२॥ रसोत्तिगेय वर मन्त्र ।।१३॥ एरडूवरेय द्वीपदन्द ॥१४॥ गुरुव गोटिंगरेल्लरन्द ॥१॥ अरमनेयो पूर्ण ग्रहबू ॥१६॥ न कुरिगळ अन्दळिद ॥१७॥ इरुवेगळन्टद सिहिषु ॥१॥ ब्रेयोदगलु यवनान्ग ॥१६॥ अरसुगळाळ्द कळवप्पु ॥२०॥ मरेतिह अध्यात्म राज्य ॥२१॥ अरवट्टिगेय तवरूर ॥२२॥ ददनादनुभव काव्य ॥२३॥
प्रबारणगळ तीक्षण मदुल ॥२४॥ अरमने गुरुमनेयोमदु ॥२५॥ इ* बुरिद्धि सिद्धिगे प्रादिनाथरु' पेळ्द । धव 'अजितर' गटुगे' स* वि।। नव वाहनगळु एत्तु प्रानेगळे 'मुनवकारस वृदिनिम् स्यादा॥२६॥ ए, वेल्हार 'द लागवति गायन सुपर पेळ बध र* उ॥ सावय सदिमतहहा[१] सर्वार्थसारावयवद धनवाब ॥२७॥ तर रतर 'मान गलिकद' सर्वकार्यद' । सरद 'पादियलि' सर्व व रु। अरुहरु कुदुरेय तन्दु सेविसुवरु । 'मरहन्त सर्व मशगलद' ॥२८॥ ई* तेरनाम 'मङगळमम[२] हाराडुब' ख्यातिय 'मनवअनु' नते ज* या नूतान् ‘कटिट्टरतेनेरदिकपियाख्यात 'लांछनथु' हारव'द ॥२६॥ रेश णुकादेविय' 'स्यावयादमुद्रयिम् तारादि'कट्टिदर् सार'। दाए ग* सर्व स्ववापिरिसि' [३] द अंक । क्षोणिय अतिशय धवल ॥३०॥
अणुवनु 'स्वस्ति श्रीम' न्तम ॥३॥ तत्निया 'द्राय राजगुरु' ॥३२॥ वनगे 'भूमण्डला थिपरु ॥३३॥ इनवम्शझा 'चार्यरु'ए ॥३४॥ नअनगे 'एकत्वभाव' नेय ॥३५॥ इणुकुब अणु'नाभावितरुम्॥३६॥ झन् 'उभयनम्' समग्ररुम श्री ॥३७॥ अनुदिन त्रिगुरित गुप्तरुमच॥३८॥ यअनुवन् 'तुकरिया रहित ॥३६॥ आनन्द 'रुम् पञ्च व्रत ॥४०॥ यअनुव 'समेतरुम् सप्त' ॥४१॥ र्ण 'तत्व सरोजिनी रा' ज ॥४२॥ अनु 'जहम् सरुम अष्टमद' द ॥४३॥ पनिय 'भंअनतम् नववि' ॥४४॥ ळनवि 'धमाल ब्रह्मचर्या ॥४५।। अनुव 'लन्कतरुम देश' बद ॥४६॥ गनवु 'धर्म समेतरुम द्वा' ॥४७॥ ननेव वशान्ग शात' धरर् ॥४॥
अनुव 'पारावाररुम' शो ॥४६॥ मन 'चतुर्दश पूर्वादिगळुम' ॥५०॥ प* व 'दीप्ति तेजव नात्म चक्रदोळ्' तानु । मिदु 'बेळगुव गुप्ति' ता* बम् ।। अदर 'त्रयव पालिसुतसुप्तवादात्मानुदित'तत्ववसुत्तुतलिह॥११॥ चु* रिते 'गुप्तिय चक्र कोकयहि [४]सिर्दाग। वर'गवराशिलेक्क' म* दा लिरुवु'दंकगळ तन्नोळगिट्टु'नव नमो दिरियिरि'दयमूवृदुगंध'॥५२॥
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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिद्धि] संघ गौर-दिल्ली
॥
•for लिम्ब 'सुविशालवह तावरेय मे । ट्ट्टे ळियुत बरत लिई * श्रद।। वलिय् 'उतवन्दवरंक वादियकमला' [५]ळेवाग' मरिणस्व रजत ' ॥ ५३ ॥ ममद 'पारद गंधकादिय क्षरण' निर्मल 'दोळु भस्म' वेद अॐ छ | धर्म 'यागिस्य' नूक 'गरगनेय हविना' धर्मा'युर्वेद विद्येगे,म' ॥५४॥ * 'रिपनव जलजब पंख' [६] म 'चित्तबोळेसे' दन'व सम्पू'द र सदा गुराद 'क्षरांकद श्रोतुगळोडने कू । डि' नचन्दर सुव' चित्र विये ।। ५५ ।। एनलु 'परम जिन समय' ॥ ५६ ॥ गरण 'वाधिवर्धनरवरु ॥ ५७॥ इन 'तर पिन सुधाकरम्' ।। ५८ ।। ट्रा 'प्रतिक्रमण शास्त्राद्यर्' ॥५६॥ प्रासदिरुष 'परीक्षितरु' ॥ ६०॥ उगवण' मतिज्ञान धररुम् ॥६१॥ दुरि से श्रारु मूर्डंगळम् ||६२|| सइनल इष्टार्थवरि ॥६३॥ मनद पा अक्षररुम् ॥६४॥ अणु 'पद समघात धररुम्' || ६५|| इणु 'प्रतिपत्यनाग धररुम् ॥ ६६ मुनद् 'अनुयोग श्रुतान्यर्' ॥६७॥ ओणि 'प्राभृतक प्राभृतकर्' || ६८ || ळूगरलु 'प्रावृतकांगर' ॥६६॥ आणिज 'वस्तु हत्तन्क पूर्वर्' ॥७०॥ ळ्या 'दश चोद्दश पूर्वर्' ॥ ७१ ॥ अनुयोग 'जीव समासर्' ॥ ७२ ॥ गुण 'समासवु हन्तिप्पत्तु' ॥७३॥ नराव 'आचार सूत्ररूतर् ॥७४॥ अणि 'स्थान समवायवररु' ।। ७५ ।। गुरणव 'व्याख्याप्रज्ञप्तर' ॥७६॥ उनद 'ज्ञात्रुकथा रूपर ॥७७॥ गुन 'उपासकाध्ययनांगर ॥७८॥ अणु श्रन्तद्दशधररुम् ॥७६॥ ट्न 'अनुत्तरोपपाद दशर् ||८०|| ष्ण ‘प्रश्न व्याकरण किग ' ॥ ८१ ॥ ऋणु महा 'विपाक सूत्रांग ॥ ८२ ॥ भाग्यवस 'य स्वस्तिक वाहनवेरि' । नोग 'दुत्तम पोरेघु' ।। सागलदेम्यम् [७]ण व पददंक वृद्धि' । नाग'यमहोदुब' सुविशा' ॥ ८३॥ * शदे 'लवहतम्बेळग चउतियचम्' । देसेविन् 'इनकिरणद् इ होस 'बेलळदु' प्रवहिपकाव्ययेन्न' य । जस [८] हरुषदोळे रडु' गळ ।। ६४ ।। * नम्र प्राणिगळोम् दागिये तेरदळु । घन करिमकरियदु तु तु* अ । जनर् 'ओरेय द्विधारेय स्याद्वादद' घनवाद' स्तरव परिय' ॥ ८५ ॥ * रिसि 'भाविसलद् भुतबल [8] मणिरत्नावर मालेबाहारादिय् अ ल । सर 'गळनी व रु'गरिणतद हत्तु 'सिरि'पृक्षगळु कषरणदोळुगे ॥ ८६ ॥ * यु 'कल्पदिन्बय् तन्' द' दोम्दादन्ते' सवि 'जिन रासन वद * ।। अव वृक्षकल्प' (१०) गळगळु गोचर सवि' बूत्तियोळा हाहारवनुस्' ॥६७॥ नव प्रथमानुयोग धर' ॥६०॥ अवरोळ 'पूर्वगतदलि' ॥६३॥ भव' प्रस्तिनास्ति ( प्रवाद) पूर्ववरु अविरल ग्रात्म प्रवाद' श्राव 'विद्यानुवाद पूर्वर्' राव "क्रिया विशालवर हव 'हत्तु हृदिनाकु एन्दु अयु 'मृवत् हदिनय्डु हत्तु श्रवरङग 'वस्तु भूवलयर'
॥६६॥
HESHI
॥६६॥
श्रवरु 'हन्नोम्दन्गु धररु ॥८८॥ इg 'पूर्वगत ळिगळु ॥ ६१ ॥ बुबु 'उत्पाद प्रशियद' ॥६४॥ युवेय 'ज्ञानप्रवादर ॥६७॥ य्वरु 'कर्म' प्रवाद धरर् ॥१००॥ ह य कल्याण वाददवर् ॥१०३॥ व 'लोकबिन्दुसार घवर् ॥१०६ ॥ श्रवु 'हदिनेन्दु हन्नेर' ॥१०६॥
व 'परिकर्म सूत्ररवरु 115811 दु 'दृष्टिवादनय्गळु ॥ ६२ ॥ अवर 'वोर्यानुवाद दलि' ।। ६५|| वचर सत्य प्रवादववु नव प्रत्याख्यान पूरम् ॥ १०१ ॥ तिविये 'प्राणावाय पूर्वे ॥ १०४॥ श्रावेल्ल 'हदिनात्कु पर्वर् ॥ १०७ ॥ मृदु हन्नेरड् हृदिनार् इप्पत्तु ॥ ११०॥ पवि 'अना विश्व वस्तुगळ ॥११३॥
तु आइन् इ नहु'।। सबदु व मुनिगंडभेरुण्ड'ई'। नव 'चिह्न स्याद्वादवत्प'(११)आ।.१.१५
१७५
im
'हवतु हत्तु हत्तुगळु' ॥ ११२ ॥ सु* श्रवणनुन् 'डु श्री चर्येबोळात्मन' । विवरद
॥१०२॥
॥ १०५ ॥ ॥ १०८ ॥ ।।१११||
॥११४॥
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इ% वु 'वशवल्लद मन कोणनन्तिा । ग'यनुवशगोळिसिद' ब * दुक।। सवणनु जिनमुद्रो।होसभूवलयदि'न्द । सवि लांछनबागलु'श्री ।।११।।
* श्शन वशवायतेम्मय सोम्मु (१२)लुएन्दु ।बरे दिवदिन्दवत् अ* रिसु।। बर'जिननाथनु, अवितु हन्दियवेषा परिसि अवनिगे काव्यगळ ॥११७। धक 'रभवनित्त सूकर'नव वाहन' सभव पोरेगेम्मम् [१३]य अ तक न ॥गर्भद 'गगनेयिल्लद द्रव्य शृतदक्ष' । गर्भ रांकद मणिगळं'नु ॥११॥ व* शव'रोमरोमदलि हेगोदु कोन्डिर् 'सम श्री करडिय अ' प्रा* तम।। यशवकु'लांछनक्षपदअमहिमेयमायश तोर्क[११]यक्षदेवरुगळ्॥११॥ र सब 'प्रायुध बच जिन धर्म' दक्षुण्ण' दिशेयलि 'सेवेगागि' भू उवि। गिसि हुदु' शिक्ष योदरक्षणयिस्व'। वश लांछन वन'यशदे ॥१२०॥
'प्राशेयादिय एरडरलि' ॥१२१॥ माशे 'अनपणीय वरुम्' ॥१२२॥ इसेव पूर्वेय हदिनाल्कम् ॥१२॥ हसनदरलि 'पूर्वान्त' ॥१२४॥ असमान 'अपरांतध्रुबरुम् ॥१२॥ म सक्ए' प्ररुव चवनलबषि'॥१२६॥ असदुश 'अद्रुव सम्प्ररणधि॥१२७॥ दुइशे 'अर्थ भौमावमाद्य ॥१२८॥ एसेये 'सर्वार्थ कल्पनिया' ॥१२६॥ एशे 'अतीत ज्ञानवरर' ॥१३०॥ प्सरिसिद् 'अनागत सिद्ध ॥१३१॥ 'उसह सिद्धम् उपाध्याय' ॥१३२॥ लुसरिसि 'इनितेल्लयुगळम् ॥१३३॥ प्रोसेयिसिदरु 'सेनगरगरु' ।।१३४॥ 'दशधर्मद् अचार ग्रन्थ' ॥१३५।। प्रसिहर 'जिन समाहितर' ॥१३६॥ यशद 'भुवलय धवलरु' ॥१३७॥ अस् 'महाधवळ प्ररूपर् ॥१३॥ लसदृश 'जय धवलवरु' ॥१३६॥ असम विजय धवलवरु' ॥१४०॥ वशद 'सिद्धांत पञ्चधर ॥१४१॥
'उसह सेनर वमश घयलर' ॥१४२। भ्सव पूजितर भूवलय ॥१४३॥ कर वचद 'रक्षणे ईउदु सहसा'(१५)कवि'तुष मष बोधदिन्द'। नव अ 'असि आ उ सावनु वशगोळिसिद'।प्रवर वेगवनु'यशदोळ ॥१४४॥ ऊ रुत'तोरुव हरिण लांछन वत्' । 'सारि हेसरिसे बह पुण्य 'अ' वा 'सार सफल(१६)रसयुतवा गिरुवु देल्लादारियलि ह'सोप्पुगळनु'।१४५।।
* ळिसुत्त 'तिन्दु हसनल्लदाडुमुव । 'यश यनु' बिसुड्उ अटगरम्हसदन'तेपापहरणमाळप होसटगर्'एसेयलु'हदिनेळरंक' (१७)॥१४६॥ ए, रिसि 'गगनवेल्लब सुत्ति बगेयोळ' । गारा' गडगिद् अगणित' न* 'सारद 'शब्दराशियदुम सोगसाद' । नेरद 'गमल भूवलय' ॥१४७।। हो* दिव्य 'नन्यावर्त हगलिनन्ति'। रोदिनधि 'रलेन अन् तु वेदित 'हृदय' (१८)दे धारणाशियोळेळ'। साधने बल बास्देव' ॥१४॥
उदित 'पारगद राद्धांतर्' ॥१४६।। धवश 'सकल शास्त्रगळम् ॥१५०॥ नवद 'सम्पन्नरम सकल ॥१५॥ वेदो 'विमल केवल गारणा ॥१५२॥ अदरअ 'धीश्वर रुम श्री ॥१५३॥ एघर 'त्रिलोक स्वामि दया' ॥१५४॥ अबु 'मूल धर्मदोळ' दित ॥१५५॥ रदरु पविष्ट त्रिलोक' ॥१५६॥ आदर 'सार लग्धि' गर्छ ॥१५७॥ कदिर 'सार चारित्र सार' ॥१५॥ एदुह चतुष्टयनाळोळ ॥१५६॥ ग्दरोळ 'गाद रावक र ॥१६॥ इवर 'आचार मोवलाद' ॥१६॥ दरे 'सन्धानि लोकानि' ॥१६॥ स्दवधि 'सूर्य प्रज्ञप्ति' ११६३।। इदु 'युक्ति युक्ति प्रागमरु' ॥१६४॥ द 'परमागमवाद' ॥१६॥ प्रदरलि 'तीर्थकरान्त' ॥१६६॥ र्व 'सन्तति मूल प्रकृति' ॥१६७॥ तदिगे 'उत्तरोत्तर प्रकृति' ॥१६॥ नद 'वरनतप्प सज्जनरु' ॥१६॥
अदुवे 'मय भारत सम्ज एन'॥१७०॥ सदृश 'अन्य भूबलयर' ॥१७१॥ पर रद 'सारात्म' तु 'नवमांक चक्रि'यु । बरे 'सार मंगल पूऊ' भू प्रायरवर्ण कुम्भवाहनननु नेरदि। परिदु'तुतिसे वाहन मा[१९]॥१७२।। एक रिणव पदवेल्लगे भद्रकवच'। वर 'वन्तु सदेयद चिर बरेद क 'प्पहमेय्य' सुविशालबाना । मेरेव 'य लांछन'कवि' ॥१७॥
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सिरि मुबलव
सरि सिद्धि संभ, देलौर-दिल्ली को हति'भवतेयम् कलिसु[२०] व राज्य'। सार'द षट्खण्डव'नु त ऐ॥ परम्दु'पोरेवाहन राज्य मुक्तिगे। बारि 'हन्नोन्वनेय'नेले ॥१७४॥ व ब 'राज्यवनाळ्ब चक्रियु पूजिसि' । सबि'दन्त'राज्य वाहन प्रनीधिव'लोत्पलकु[२१]ळ'कोटिलेक्कदोलिप्पानववु'अन्ताविकाव्यवसा१७५ हर वधे'मीटुब तन्तियनाद'दाटवु। मोदगि बन्द श्री शंख'। पद गर भवाहनवेम'गाटविशरुत' । सबब 'ध नितत सर'[२२] सति ॥१७६।।
प्रदरलि'तर्क व्याकरणर्' ॥१७७॥ र्द छन्दस्सु निघन्टु ॥१७॥ प्राद अलंकार काव्य धरर्' ॥१७॥ क्दसिन 'नाटकाष्टांग ॥१०॥ , प्रदरिणत गरिएत ज्योतिष्कर'॥१८शावगिद'सकल शास्त्रगळ॥१८२॥ अदर विद्यादि सम्पन्नर ॥१८३॥ वियन्ते 'महानुभावर'॥१४॥:. अदरलि'लोकत्रयापर्' ॥१५॥ द्धि'गारवद विरोधर'॥१८६॥ अदे सकल महीमण्डलार्यर् ॥१७॥ धिय'ताकिक चक्रवति॥१८॥ प्रदे'सद्विद्या चतुमुखरु' ॥१८॥ उद'षट्तर्क विनोदर' ॥१०॥ नव'नव्यामिकव वाडिपर' ॥१९१॥ प्रदरलि'वशेषिकवम् ॥१२॥
सदिय 'भाष्य प्रभाकररु' ॥१६३॥ प्रदे 'मीमाम्सक विद्याधर ॥१६४॥ कद् 'सामुद्रिकर भूवलयर'॥१६॥ कळ 'रुणेयोळय्बर मन्तरद' सरणिमिम् । अरुहन 'महिमेयिम्' रणा रणा ॥'धरणेन्द्र पद्मयरागि'ताव परितन्द'वराहावु'वाहनगळ'लि॥१९६५ प* रिपरि चिन्हेयु धरेगे विस्मयकर । वरिग[२३ नेम् अन्यसिस ह* पीठ। वरिद'नेरिद महवीर'जिननायक'हरिव'रवाहनब'जन' ॥१६॥ पेश 'रेल्ल राज्य चिन्हेगे वीररसबेन्दु'। हारि 'मनेय मेल्एर' दो सार इदहरित्व[२४] पश्नमगळे रडुनरिप्प'सार'तम्बरचक्र प॥१९॥ प्रा 'गळ नाल्फु'म 'सेरिसुत' पद्मगोम्भय' सागे । 'नूरास्तुनाल्' षा का ईगल'कने पद्मविष ठरपाद'विराग विजय[२५] उत्पल'।१६॥ ह* र'पुष पवाहन देव' श्री 'नमिजिन' । गुरुविनुत्पत्ति' यह ह सिरि'कालव चिन्हें सत्पथवनु तोरिगुरुवे 'नम्मस् पालिसेम्बे' ॥२०॥ उ* सरि चित्पथ मार्गकदिसला(२६) मनु' । विष'मथनथ्य' नअम प* दनुवृषभ तीर्थकर जिनमुद्रयो तप विश गय्दजिनवृक्षवदन'म्॥२०१॥
* रपटरण होळेव अशोकेय रूपेन्तुव । घनवटवृक्षबद्म' र लिगुरगदरिग[२७]म् श्री मनसिजमदनवनद'अजित जिनेश्वर'।२०२ टश बणेय तनुभारव तपकोडिजि । नव'नाद एळेले बाळे'य' बन या 'गिउडि 'एन्नुवशोकेयु'। नव'ताम् स्वच्छ [२८] गरभव ॥२०३।। यक शदन्तिम देहव शाल्मलि'वर' । वश 'वृक्षद डियोळु बई' न दु॥ वाट्ट परमात्म शम्भव जिनरिगा' यश'वृक्षवें' सुरवन्ध ॥२०४॥
: प्राशायुर्वेद विधिज्ञर् ॥२०॥ 'दशधर्म योगसार धरर् ॥२०६॥ रसवाद दतिशय भद्रर् ॥२०७॥ पास हदिनेन्टु दर्शनरु ॥२०॥ .. त्स स्थावरजीवहितवर॥२०६॥वश ब्रह्म विद्या ळषरगण॥२१०॥ अशा भूवलय दिग्भ्रर॥२१॥ तसजीवगरगनेय चतुर ॥२१२॥: :
रेसेवर स्वच्छाभिप्राय॥२१शायश राज्य चक्रवतिगळ ॥२१४॥मासे शब्दव विद्यागमरु ॥२१॥ प्सरिप कन्नाडिनोडेयर्॥२१६॥ छशतद सूत्रांगधररु ॥२१७॥ नसनसेयळिद सिद्धान्त।।२१।। पिसरणतेयळिव कन्नडिग ॥२१॥ कसबरनाडिनोळ्चलिप॥२२०॥
तसयिद्य यतिशय कुशल।।२२।। स्सदक गणनेय कुशल॥२२२॥पुष्पगच्छदलि भूबलयर्॥२२३॥ को टिय 'वृक्षवदण्ण' (२६) ने नरवन्ध'। साटियळिद अभिनन् तु* साटिये 'अभिनन्दन मत्तु सुमतियु। पेटेय 'सरल प्रियन्गु ॥२२४॥ मुक गरिणत वृक्षगळवु 'मरदडियोळु'। सोग 'तपगेय्द वृक् ना* गा। अगषगळे'घरणिगे सन्तोषाबगेहित कारि[३०]दर्शन वोळ्॥२२॥ इक बर् 'अगात्मनिरव कन्डिरदर' । सदिवर 'दर्शनोत्पत् शंझ सव तिय वृक्ष' हर्षद कुटकि शिरीष । नव गळे रडम् 'स्पर्शव शो ॥२२६।। एक केय नरह(३१)प्रात्म प्रकाशन पानव 'प्रभ जिन,रात्म' तिळियोसिब'सुपाय जिनेन्द्र'स्वात्मसिद्धिनागासवि वक्षषद मूलदि प्रात्म२२७ इस रे 'चन्द्रप्रभ सुगुरिण'(३२)वशगरदात्मन' । सिरि 'पुष्पदन्त' एक इक्षणवा वर वृक्ष'होस अक्षवेनेनागभरिणयुमरे हस बेल्लवत्त बदू ॥२२॥
अतर श्लोक को तीन लाईन यहाँ होनी थीं परन्तु यहां चार लाईन होने से प्रथम अक्षर सर्प की गति से पढ़ने से नहीं निकल सकता है । पाठक लोग जैन तीन लाईन बनाकर पड़ने से पहला पुन : पढ़ सकता है इस ग्रंथ में यही एक अद्भुत कला है।
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सिरि भुवलय
सय सिद्धि संघ, बंगलोरनीवल्मी पर मदली वृक्षवडियलिहरसही कन तल जिननज्जा'३३ व ट द ।। जिन'तपगेम्दु मुत्तुगवेने तुमुर। वन गिडदपवर्ग दडियिम् ॥२२॥ बुक दुरि 'पोब'म्'तपसिगळ ग्रगण्यरु' । सदय 'श्रेयामसरु' भ तुझ ला मुददि तपसिवशोकवदज्ज'३४मलपिसिद्धीषि'बेहव तेन्दु वृक्षा२३० दुक रियदि बिटु'द'अपवर्गवम् वासु' । सिरि पूज्यर् 'सुपवित्र' जिनसासिरिय पाटलि जम्बूक वितपिसिवाबरवे विमलनाथ नव'३५सा२३१॥ एक निरिमनसिजनम गेहानन्त'श। गोद धर्म स्वामि' युक्त तक पाळिय'कोनेगे अश्वत्थवु वधिमा साल'नुवाद पर्ण दगि' ॥२३२॥
लुळिगि'डवष्टिबिन्दयदि' ।।२३३।। कोलु तात जिनराद'सुप' २३४॥ यल वित्रद महो३६ अरहम ॥२३५॥ एलेयु'तराद शान्तियु' का॥२३६।रगलु'कुन्यु देवरु सुरुचि' ॥२३७॥ वलको 'रनन्दियु तिलक' ॥२३॥ ट्ल 'सरदियवृक्ष मूल' ॥२३६।। यल दलि तपवगेय् दरहन्' ॥२४०॥ अलि'तरागिश्व जसा ३७ वर्' ॥२४॥
बलदर शनदोळगनरि' ॥२४२॥ ऊलित श्री अर मल्लि' ॥२४३॥ मल्लात काद्रि भूवसय ॥२४४।। वक्षा शवशिसिदात्म पक्षगळु स्पर्श'। हस'मणियतेर मानु शालि ॥ वश'कम्केलिय हर्षव वृक्षग la'श'हहो ३५ परणियोळ मुनिसु'॥२४५।। अ निस 'व्रत नमि देवरु अरहन्त । गुण 'राद वृक्ष गळ्म्' सक्ष बोस'वरेये चम्पक धकुलमळेम्बेर । ई रणव 'म् परमात्मर बर' २४६॥ न. 'क्षवहह. ३६ समवसरणवनु नेमि'। अक्षर तोयंकरर' नस सक्ष विमल मेषभृत (गिडव) विमलरमे' रक्षे योळूर जन्तदि कम्॥९४७।। देश 'वल्यहोन्दिदरममधीमन् नेमि'। तावु जिनरा४०सीमेय'म नु!| नोवळिव श्री पार्शव तोयशनु'। पादेय 'रामरणीयकवा' ॥२४८||
बवन्द दार'मा मरव' ॥२४६।। लयर डिय सुवर्ण भना' ॥२५० गवरा'चल' शीमेगे सम' ॥२५॥ नव'मेदवरव ४१ महवीरदेवनु।२५२। मवतारे'शालोर्दोरुहद' ॥२५॥ ववएसददि बहळ कर्म ।।२५४॥ म बनेल्ल केडिसि' वहिसिद' ।।२५|| वावे'पावा पुखेद र ॥२५॥ व शोजेयु सिहियागि' ॥२७॥ प्रविहुदल्लि जप्त ४२ यक्षराक्ष॥२५८॥ रव 'स घ्यन्सरर शोकवने'।२५।। वबने रूल'साक्षात् प्रागि' २६०॥ गेवे निल्लिस बरक्षेय म' ॥२६॥ शदेय रगळेल्लवनु प्रशो॥२६२॥ क प्रवेन्दी विससिलि रुव' ॥२६॥ तिविध माहि'४३ यु'रसयुतवा' ॥२६४॥ कविरल वृक्षवि माले २१॥ वन गळ'होस घन्टेगळ' ॥२६॥ तबिद'लन्काररसयुक्कि' ॥२६७॥ बबुबहब फलावळि बग्गि' ॥२६॥ रिषिहरसमान विभव नो॥२६॥ गेव'उमम ४४ सोरुव गन्ध'।२७०॥ रव'द भारद ब्लूडनुभूरि' ॥२७॥ बत् 'यभवद शाखेगळे ॥२७२॥ अनु'बारियोळेल्ल भव्य' ॥२७३।। बुबु प्रात्मरशोकबु हारें ॥२७४॥ सघनोरोगिगळ'म् मावे ॥२७॥
रवहरम ४५ तरगळु इप्पा२७६॥ वतु'मास्कर हमम् परमा' ॥३७७॥ ख ममात्म बग्द्य शास्त्रबलि'बरेदिह हदि'। गमनेन्दु सा सुविरजाति ।समगेपरममंगलकाहुन्ड'४वह तीक्षणासम बागिह त्याद्वा ॥२७॥ म* न'द बुद्धि यंतोष्णतेयेष्टेम् बुदनु'घन'तीक्षणवाग' चिs रितो॥धन 'पुष्यायुरवेददरकषणे । समायोदगुबुदेनन् [४७] चाब२७। पर नु'लेक्कवनु नोद्धिदर बरु वोम्बत्तु। जिन'श्रीवीर जिनन' र# 'भूब'। तनु'लय' साबिर एरर इंन्नरस्वत्' एने 'मक्षर' ईवाग सरि ॥२०॥ हर रियहुदरिग'४६ अन्तर मूरोम्बत् प्रोमबत्। बरे ऐवप्रोन्द म काव्या। बरेऐतुमरोम्बत् सोने योमदे अंक । सिरि'गुरु' वीरसेम धवलयारम। ___ समस्त ऋ अक्षरांक १०९३५+ समस्त अन्तराक्षरांक १५,६६३२६,६२८+समस्त अन्तरान्तर २२५०%२६,१७५
अथवा अ-ऋ२,२२,६०३+३२६,१७२-२५२,०५१
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बारहवां अध्याय
बारहवां प्रदार तीसरा '' है, इस अध्याय का नाम 'ऋ' अध्याय है। विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, उत्सर्ग और ध्यान ये छह प्रकार के अंतरंग तप है इसमें पच्चीसवें श्लोक तक विशेष विवेचन करेंगे। २६ वें श्लोक से अन्तर । इन दोनों को मिलाकर बारह तप होते हैं । इन तरों की सामर्थ्य से प्राप्त हुमा काव्य निकल कर पाता है, उस काव्य को अलग निकाल कर लिख लिया जाय । यह यश-सिद्ध भूवलय काव्य है ।। तो भी उसमें पुनः दूसरा काव्य देखने में आता है। इस गद्य में सबसे पहले वह इस अढाई द्वीप में तीन कम नौ करोड़ दूरवीर दिगम्बर महा मुनियों दिया जाता है । इस गद्य में इस तरह का विषय है कि गुजरात प्रान्त में श्री के अन्तरंग को ध्यानाग्नि के द्वारा उत्पन्न यह सारात्म नामक भूवलय अन्य है। नेमिनाथ तीर्थकर और कृष्ण जी एक जगह रहते थे। गुजरात प्रान्त में एक! इन तीन कम । करोड़ मुनियों की संख्या इस ग्रन्थ में [सत्तादी अहंता छाम्मर समय नेमिनाथ और कृष्ण दोनों गुजराती में बातचीत करते थे। उस समय ! मज्जा अर्थात् प्रारम्भ में सात, अंत में पाठ और बीच में 2 बार मौ हो, गुबराती घोर संस्कृत प्राकृत दोनों मिश्र भाषा मोवूद थी, ऐसा मालूम पड़ता। अर्थात् आठ करोड १६६६६६९७ इस प्रकार बताई गई है। है। उसमें से कुछ विषय यहां नीचे उद्धृत किया जाता है -
उत्तम संहनम वालों को जो व्यवहार धर्म को परिपाटी है बह ग्यवहार १रिषहादिपम् चिण्हम्, गोवदि, गय, तुरग, बागरा कोकम्, पउपयम्, नय है पोर तदभव मोक्षगामी के चरम-शरीरी व्यक्तियों ने जो अपनी रचसनदवतम् अवससी, मयर, सो सतीया।
मय हड्डियों के बल से खत्रु का नाश करके प्राप्त की हुई जो शुद्धाम सिद्धि गन्म, महिस, बरहह,हो, साहो वज्जएहिरिण भग़लाय, तगर कुसुमाय, परमात्म अंग है उस अंग का नाम ही भूवलय है । कलसा, कुम्मुप्पल, सख पहिसिम्हा ॥
पून: इसमें यह बताया है कि यादि का संहनन व्यवहार नय तथा अर्थ-वृषभादि २४ चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह वृषभ हाथी, घोड़ा, ! निश्चय नय का साधन है। निश्चय साधन से साध्य किया हुआ मो मंगल काव्य बन्दर, कोकिल, पक्षी, पद्म, नंद्यावर्त, अर्द्धचन्द्र, मगर, सो द्वतीय (वृक्ष) भेट! पढ़ने में पाया है वह भूवनय ग्रन्थ है।४।। पक्षी, भैष, सुबर, हंस, बच्च, हरिण, मेढा, कमल पुष्प, कलश, । इस उत्तम नर जन्म के प्रादि और अन्त के जितने, शुभकर्म है मामी. मछली, शंख सर्प पीर सिंह। इन चिन्हों के विषय में जैन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न । जब तक वह पुण्य कर्म मनुष्य के साथ रहने वाला है उतने में ही उनके परिपूर्ण मत मालुम पड़ते हैं । इसके विषय में आगे चलकर लिखेंगे और १३ वें अध्याय । सुख को एकत्र कर देने वाली तथा उस सुखके साथ साथ मोक्ष पद को प्रास्त्र से बहुत प्राचीन काल के दिगम्बर जैनचार्यों की परम्परा से पट्टावली के करा देने वाली ये अठारह वेरिगया है। उस श्रेणी के अनुसार प्रात्म खिद्धिको विषय में यहां एक गद्य अन्तर पद्यों से बहते हुए १४ वें अध्याय के १३० वें प्राप्त करा देने वाला यह भूवनय ग्रन्थ है। पद्य तक चला जाता है । कानड़ी में कर्णाटक पंप कवि के पहले चत्ताना अर्थात इन असरह अशियों को मान पर हे नोने तक और नीचे के मर चतुर्थ स्थान (यह भूदलय के काव्य के सांगत्य नाम का छन्द है) और बिजड़े तक पढ़ जाना पोर नीचे से उमर पाते प्रामे में अठारह श्रेणियों के स्थान अर्थात् दो स्थान नामक काव्य लोक-प्रसिद्ध थे। उस बेजड़ नामक काव्य को मिझते हैं। विस तरह भूवमय में प्रवरह श्रेणी पढ़ने में प्रत्यक्ष मासूम झेजा -.. यहां उद्धृत करते हैं।
है इसी तरह भूवनब अन्य पढ़ने वालों का राजाधिराम, मंडलीक इत्यादि इस मध्याय में मुनियों के संयम का वर्सन किया गया है। ऋषियों के बर्ती और वीर्यकर की महाहवेशिमा मखर रूप से मिल जाती हैं १५० अध्यात्म योग साम्राज्य के वशीभूत जो अनशन अवमोदर्य, द्रतपरिसंच्यान, रस। इस मार्ग से चलने वाले भव्य जीवों को रक्षा करने वाला यह भूवलय परिमाग, विविध पस्यासन पोर कायक्लेश ये छह बहिरंग वप पोर प्रायश्विस 1 सिवान्त है।६।
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सिरि पलय .....
सार्थसिटि संघ, पंगलोर-विली इस संसार का अन्त करने के लिए अन्तिम मनुष्य जन्म को देने वाला ! लिये एक बड़े पहाड़ को शिला पर एक भगवान के आकार को रेखाएं खींची। जमवलय है ।।
बे रेखायें बाहुबली की मूर्ति के समान दिखने लगीं। तब रामचन्द्र जी ने उसी .... दूसरा जन्म ही अंतिम शरीर है ।।
1 मूर्ति की ग्राकार रेखा को मूर्ति मान कर दर्शन कर भोजन किया । उस पत्थर जैसे नौकर को अपने स्वामी द्वारा महीने में वेतन मिलता है उसी पर रेखा से मूर्ति बनने के कारण उसका नाम 'कल्लु बप्पु रक्खा था ।२० प्रकार यह भूवलय ग्रन्य समय समय पर मनुष्य को पुण्य बंध प्राप्त कराने इस अध्यात्म-राज्य के नाम को कुमुदेन्दु प्राचार्य की उपस्थिति में वाला है ।
प्रर्थात् उन्हीं के समय में लोग भूल गये थे।२१॥ ... गर्भाधान तथा जन्म से मरण तक सोलह संस्कार होते हैं, उसमें मौंजी-1 . जिस समय प्रतिवर्ष यात्रा को जाते थे, उस समय सम्पूर्ण राज्य में बंधन अर्थात् व्रत संस्कार विधि इत्यादि उत्तम संस्कार हैं। इन विधियों का सम्पूर्ण जनता को रास्ते में शर्बत, पानी को पिलाने के लिए मार्ग में प्याक का उपदेश करने वाले गुरुयों के द्वारा चलाया हुआ यह भुवलय है ।११॥
प्रबन्ध कर दिया था ।२।। . इन अठारह श्रेरिंगयों को साधन किये हुए गंग वंश के राजाओं के काव्य बाण का अग्न भाग बहुत तीक्ष्ण होता है। उसी प्रकार लक्ष्मण के . हैं । इस गंग वंश के साथी राजा लोग प्रतिदिन भूवलय का अध्ययन करते थे। बाण की तीक्ष्ण अग्र नोक से अब अत्यन्त सुन्दर रूपसे दर्शन होने वाले भव्य यह काव्य उनके लिये मंत्र के समान था ।५३॥
तथा अत्यन्त सुन्दर और मनोज्ञ बाहुबली की मूर्ति बन गई ।२४१... .. भूवलय का चक्र बंध ढाई द्वीप के समान है।१४।
ऐसा महत्वशाली कार्य राज महल तथा गुरु का मठ ये दोनों एक रूप यहां पराक्रमशाली 'गोट्टिग' दूसरा नाम शिवमार चक्रवर्ती थे। यह होकर कार्य करें तो महत्वशाली कार्य होता है, अन्यथा नहीं। कुमुदेन्दु प्राचार्य शिवमार सम्यक्त्व शिरोमरिण 'जक्की लक्की ग्रो' के साथ इस भूवलय को।के अन्यत्र भी कहा है किप्राचार्य कुमुदेन्दु से हमेशा सुना करते थे।
.. . तिरेय जोवरनेल्ल पालिप जिन धर्म नरर पालिसुव बेनरिख। कर्णाटक भाषा में राज महल को 'प्ररयने असे कहते हैं। प्ररयने गुरु धर्म दाचार वनुमरिदिह राज्य नरर पालिसु बदरिदे ॥ अथवा प्रयाघर ऐसा अर्थ होता है, जब इस राज महल में गुरु का मठ बन जाता।
1. अर्थ:-समस्त पृथ्वी मंडल के सब जीवों की रक्षा करने वाला प्रेम है, तब पूर्ण गृह बन जाता है।१६
धर्म मनुष्यों की रक्षा करे उसमें क्या आश्चर्य है ? इसी तरह गुरु की जो पाशा .... इस शब्दार्थ को अज्ञानी लोग नहीं जानते ।१७
को पात से ना न
को पालन करने वाले राजा अपने राज्य का पालन - करने में समर्थ हो तो ? - भूवलय में जो ज्ञान है, वह बहुत मधुर तथा मनोहर है। मधुर अर्थात् । श्या आश्चर्य है ? मोठे रस के लिये अनेक चीटियां उसके चारों ओर चाटने के लिये जुट जाती इस बात को अपने ध्यान में रखते हुए राजमहल और गुरु का पाश्रम हैं। परन्तु इस ज्ञान रूपी मीठे को कोई भी खाने के लिए [समाप्त करने के एक हाँ था ऐसा कहा । लिए] नहीं जुटता ।
ईहाः अर्थात् ऊपर कहे हुए जो विषय है उनको ऋषि सिद्धि के लिए भूवलय के मध्य यन करने वाले को वृद्धावस्था पाने पर मी तरुए। भगवान ऋषभदेव द्वारा कहा हुअा मुख्य सिंहासन अथवा वाहन बैल व हाथी यह अवस्था ही दिखाई देती है। गंग वंश के राजा के साथ प्राचार्य कुमुदेन्दु का संघ नवकार शब्द के स्यात चिन्हित है अर्थात् ।२६। कलवप्पु तीर्थ अर्थात् अवरण वेलगुल क्षेत्र में दर्शन के लिए गया था। पुरातन लांछन के समान रहनेवाली पवित्र शुद्धता को इस वर्तमान का कहा समय में लक्ष्मण ने गदा दंड के द्वारा अपनेभाई श्री रामचन्द्र जी के दर्शन के । हुआ अर्थात् इस लांछन का कहा हुआ इस भगवान की महिमा को कहां तक
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सिरि भूषलय . . ..
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली वर्णन करें। सर्वार्थ सारमय पदार्थ का साध्य कर देनेवाले अदि अनेक प्रकार (श्लोक नं० ३१ से ५० तक में सेनगण गुरु-परम्परा का वर्णन पाया के वैभव को प्राप्त कर देनेवाले, तथा धावकों को यह सारी बस्तु अत्यन्त है। इस विषय का प्रतिपादन व विवेचन पर किया जा चुका है)। उपयोगी तथा प्रदान कर देने वाले हैं ।२७
अपने को जब उत्तम पद की प्राप्ति होती है । उस समय मानव के इस प्रकार इन दोनों इलोकों का अर्थ कहा गया। इन्हीं दोनों श्लोकों। हृदय रूपी चक्र में चमकने वाले उज्ज्वल ज्योति को कोमल करके त्रिशुप्ति को पहचानने के लिए अर्थ विराम डालकर कोष्ठक में बन्द किया है । श्लोक 1 से अपने अन्दर ही अपने प्रात्मा (हृदय चक्र) को बांधना उस समय प्रात्मा अपने में जहां प्रग्रेजो का प्रक डाला है वहां एक श्लोक का अर्थ निकलता है। वहाँ अन्तरंग के समस्त गुणों में घूमता रहता है। उस समय अनेक तत्व अपने से आगे दूसरा अर्थ निकलता है। इसी प्रकार प्रत्येक दलोक का अर्थ निकालना । भीतर ही दीखते हैं। उस समय वह आत्मा एक तत्व को देखकर आनन्दित होते चाहिए और आगे भी इसी प्रकार से प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक श्लोक में हुए दूसरे तत्व में और इसी तरह अनेक तत्व में घूमता रहता है । इसी को मिलेगा।
स्वजेय में परजेय को देखना कहते हैं। [यह अत्यन्त सुन्दर अध्यात्म-विषय प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में उस कार्य के गौरव के अनुसार भिन्न-भिन्न है ] । मंगल वस्तु को लाने की परिपाटी है। अहंत देव ने समस्त मंगल कार्यों को इस अध्यात्म का अत्यन्त मादक सुगन्ध नवनवोदित, अर्थात् "नयी-नयी दो भागों में विभाजित किया है-१ लौकिक मंगल २ अलोकिक मंगल । उत्पन्न हुई गंध" जैसे नव अंक अपने अन्दर समावेश कर लिए हैं उसी प्रकार - अलौकिक मंगल की विवेचना मागे चलकर करेंगे लौकिक मंगल में श्वेत । इसके भीतर नये नयेवर्ण रूपी चौंसठ अक्षर निकलते हुए तथा न्यूनाधिक होते घोड़े को लाकर देखना चाहिए ।२।।
हुए राशि में सभी अंकों में घूमने का चरित्र अर्थात बंधन रूप है।५। ". श्वेत घोडे से भी अधिक वेग से भागनेवाले उस मन को अमंगल जैसा कमल के ऊपर के सूक्ष्म भाग को स्पर्श करते हुए नीचे उतर कर आने माना जाता है। उस अमंगल रूप मन को मंगल रूप में परिवर्तन करने के लिए वाले, भ्रमर के समान उसी में घूमते समय रत्न, सोना, चांदी का रंग दीखने अत्यन्त वेग से दौड़नेवाले को, अत्यन्त मत्त होकर कूदने वाले चंचल बन्दर को लगता है।५३। खड़ा कर देखने से अपने चंचल मन को एकाग्र चित्त बनाने के निमित्त इन। इस मर्म को समझकर पारा और गंधक के गरिएत क्रमानुसार भस्म दोनों के मंगल में लाने का यही प्रयोजन है ।२६1
करके धर्मार्थ रूप में इसका उपयोग करना यही पुष्पायुर्वेद का मर्म है ।५४) । रेणुका देवी अर्थात् श्री परशुराम की माता स्या द्वाद मुद्रा से अपने मम। जलज अर्थात् जल कमल की एक-एक पंखुड़ी को को स्पर्श करके कमल को बांधती थी । जिस समय उनके पति उनके ऊपर कब हुए थे उस समय रूप बन गया, उसी प्रकार द्रव्य मन भी है । द्रव्य मन अनेक विषयों से भिन्नरेणुका देबो ने अपने मन को एकानु करके यह चिन्तन किया कि मेरा आत्मा। भिन्न होने पर भी एक ही है । उसको एकत्रित करके, जैसे प्रक्षर को मात्रा ही मेरा सर्वस्व है यही मेरा सहायक है, उसी समय उनके पुत्र परशुराम के और अंक मिलाकर जैसे काव्य रूप बना देते हैं उसी प्रकार द्रव्य मन को भी परशु के प्राघात से उनका प्राणान्न हुया और उन्होंने उत्तम शुभ गति को बांध दे तो चन्द्रमा के समान वह भीतर का मांस पिण्ड धवल-रूप दीखता है। प्राप्त किया । अर्थात् देवगति प्राप्त की।
इसका नाम चित्र विद्या है ।५५॥ ( यह प्रसंग अन्य वैदिक ग्रन्थ में नहीं है)
(श्लोक नं०५६ से श्लोक नं०८२ तक सेनगरण का वर्णन पाता है) इस प्रकार अनेक विशेष विषयों को प्रतिपादन करने वाला यह अति- है जैसे नव अंक अपने अन्दर ही वृद्धि को प्राप्त करता है उसी पर संरक्षित शब भूवलय ग्रन्थ है।३०॥
३ भी होता है। इसी तरह होने के कारण ही नव पद भाग्य-दहाली कहलाता है,
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१२ ।
सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिस्ती
और यह स्वस्तिक रूप भी है । यदि यह सिद्ध हो जाय तो सदैन अपनी रक्षा । भवलय से ही इसका अर्थ ठीक होता है । २४ भगवान के चिन्ह को लिया भाव कर लेता है ।८३।
! तो भगवान महावीर का चिन्ह 'सिंह' है इसलिए चौबीस लेना, इस श्लोक को व्यवहार और निश्चय यह दोनों नय मिश्रित होकर एक ही काव्य में बता दिया । शातिनाथ भगवान का चिन्ह हरिण होने से गंधक १६ है । शीतल प्रवाह रूप होकर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले चतुर्थी के चन्द्रमा की किरणों के १ भगवान का चिन्ह 'वृक्ष' होने से नवसार दस तोला है। इस गणित का समान, साथ साथ प्रवाह रूप में आगे बढ़ता जाता है।४।
। नाम 'हरशंकर गरिणत' है। ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य ने कहा है ।। मन और प्राण दोनों एक समान रहनेवाले को करिमकर स्वरूप कहते । [श्लोक नं० ८८ से श्लोक नं० ११४ तक ऊपर कहे अनुसार वर्णन हैं । अर्थात् हाथो और मगर के समान रहनेवाल को कहते है। मन और प्राण किया जा चुका है। ] दोनों एक रूप में होकर रहनेवाले द्विधारा शस्त्र के समान स्याद्वाद रूप में दीक्ष दिगम्बर जैनाचार्यों ने बहिरंग में गोचरी वृत्ति पुद्गलमय अन्न ग्रहण पड़ता है। इस प्रकार यह जिनेन्द्र भगवान की बाणी में दीख पड़ता है। । करते हैं। और अंतरंग में अपनी श्रीचर्या अर्थात् अपनी ज्ञानचर्या में ज्ञान रूपी
"करो कथंचित् मकरी कथंचित, प्रख्यापयजन कथचिदुतिम्" अर्थाद । अन्न को ग्रहण करने हैं। इसी तरह गडवेस्क' अर्थात् दो सिखाना पक्षी भी एक तरफ हाथी का मुंह और दूसरी तरफ देखा जाय तो मगर का मुह, इसी ग्रहण करता है। [इस पक्षी का चिन्ह मैसूर राज्य का प्रचलित राज्य चिन्ह का नाम 'कथंचित्' है। यह "कथंचित्" वाक्य जिनेन्द्र भगवान् का वाक्य है)।१५।। है ।२५
३ गोचरी मौर श्री चर्य ये जिनके वंश नहीं है उनका मन भैस के समान कल्प वृक्ष एक क्षण में जैसे दस प्रकार की वस्तु को एक साथ ही देते । सूस्त रहता है। उस सुस्त भाव को बतलाने के लिये भंस के चित्र को लांछन है उसी प्रकार पारा और गंधक से बनी हुई रस रूपी बनोषधि अनेक फल । म्प में बताया गया है ।११६॥ एक ही साथ देती है। वैसे ही द्रव्य मन को वद्ध रूप कर दिया जाय तो एक क्षण हमारे अंतरंग में प्रगट हुई दर्शन शक्ति को लेकर और शास्त्र रूप में में अनेक विद्याओं को साध्य कर देने योग्य बन जाता है । इसी प्रक्षर से सभी । बनाकर लिखने का जो कार्य है, यह कार्य जिनके अन्दर जिनेन्द्र भगवान होने विद्यानों को निकालकर ले सकते हैं । गोचर वृत्ति से आहार को लेकर अन्त में की शक्ति प्रगट हुई है केवल वे ही इस शास्त्र की रचना कर सकते हैं, अन्य भुनि देह च्युत होकर स्वर्ग में अपने कंठ से निकले हुए अमृतमय से प्राप्त होकर कोई नहीं। इस बात को बतलाने के लिये सूभर के चिन्ह को यहां दिखाया घायु के अवसान में वहां से च्युत होकर इस भरत खंड में प्रार्यकुल में जन्म है।११७ सिया, । उन लोगों (महात्मानों) न इन कल्प विद्याओं को २४ भगवान जिस जिनेन्द्र देव ने शूकर चिन्ह को प्राप्त किया है, यदि उस चिन्ह के वाहन (चिन्हों) का गुण करते हुए आये हुये लब्धांक से अक्षर बनाकर की महिमा को यत्नाचार पूर्वक समझ लें तो वह हमारी रक्षा करके अनेक इस विद्या को प्राप्त कर स्वपर हित का साधन कर लेता है।
प्रकार की विद्यानों को प्राप्त करा देता है। द्रव्य सूत्र के अक्षर किसी कल्पयहां ऊपर भूवलय के चतुर्थ खंड में प्राये प्राण वायु पूर्व के प्रसंग को। सूत्र से आये हुए नहीं हैं, ये तो अनन्त रागियों से निकले हैं। प्रत्येक आकाश उद्धत करते हैं।
प्रदेया में अमूर्त और रत्नराशि के समान रहने वाले काल द्रव्य असंख्यात हैं। "सूतं केसरगंधकं मृगनवा सारद म मदितम्" ।
उस पसंख्यात राशि के प्रत्येक कालाशु में अनादि कालोन कथन है धौर अनन्त अर्थात् पारा २४, सोला, गंधक १६ तोला, नवसार १० तोला इस काल तक ऐसा हो चलता रहेगा । अब एक कालाणु में इतनी शक्ति है तो उन प्रकार इसका मर्य होता है। इसका अर्थ कोई वैध ठीक नहीं कर सकता । सब शक्तियों को दर्शन करने की शक्ति श्री जिनेन्द्र देव हमें प्रदान करें।
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१५२
सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिवि संघ मंगलौर-दिल्ली रोछ ने अपने शरीर में जिस प्रकार अपने शरीर में सम्पूर्ण बालों को। उसो प्रकार इस जीव को पाप को छोड़कर पुण्य को ग्रहण करना चाहिए।१४६॥ ग्रंय लिया है उसी प्रकार सम्पूर्ण द्रव्य सूत्र के अक्षरों को कालाणु ने अपने पह भूवलय रूपी ममस्त अक्षर द्रव्यगमन की राशि लोकाकाश के संपूर्ण में समावेश कर लिया है। इस बात को सूचित करने के लिए रीछ के लांछन । प्रदेश में व्याप्त है। जिस प्रकार वह व्याप्त हुआ है उसी प्रकार यह जीवात्मा (चिन्ह) को योगी जन ने शास्त्र में अंकित किया है। उस प्रकित चिन्ह की देवगणं को भी ज्ञान से जो-जो अक्षर जहाँ-जहा है वहां वहां ज्ञान के द्वारा पहुंच कर पूजा करते हैं ।११६॥
समझ लेना चाहिए। उसी प्रकार भूवलय चक्र के प्रत्येक प्रकोष्ठ में रहने जगत में बच्च अत्यन्त बलशाली है। इसमें पारा मिला कर भस्म किए वाले प्रत्येक का रहने वाले समस्त विषयों को सर्श करते हुए भस्म को शस्त्र के ऊपर लेप किया जाय तो वह शस्त्र सम्पूर्ण आयुषों । हुये भिन्न-भिन्न रस का पास्वादन कराता है ।१४५। की जीत लेता है। उसी प्रकार जेन धर्म हम सम्पूर्ण सूक्ष्म विचारों का शिक्षण बारागसी अर्थात् बनारस में वासुदेव ने नन्द्यावर्त गणित से उपरोक्त देते हुए भव्य जीवों की रक्षा करने वाला है। इस विषय को बताने के लिए शब्द राशि को समझ लिया था और अन्य दिव्य साधन को भी साध लिया वच लांछन अंकित किया है ।१२०
था ११४८ नोट:-लोक नं० १२१ से श्लोक नं० १४३ तक अयं लिखा जा चुका
। नोट--श्लोक नं० १४६ से १७१ तक को व्याख्या की जा चुकी है। है। मूखं से मूर्स अर्थात् अक्षर शून्य को भी जिसको "प सि र उ सा" का।
नवमांक चक्र में समस्त मंगल प्राभत चौदह पूर्व बड़ा है। उपमा से उच्चारण करना नहीं आता है ऐसे मनुष्यों को भी तुष्माष इस मंत्र को देकर
३ देखा जाए तो विचित्र चौंसठ वर्ष रूपी कुभ में समस्त द्वादशांग रूपी अमृत भरा अति वेग से उनकी ज्ञान शक्ति बढ़ाने वाला एक मात्र जैन धर्म हो है। इसी
है। संसारी जीवों का सम्पूर्ण दशा उस कुंभ के द्वारा जानी जा सकती है । इस प्रकार सम्पूर्ण जीवों को इसकी शक्ति के अनुसार उपदेश देकर उनके ज्ञान को प्रकार करने की शक्ति जिनमें नहीं है वे इस कुभ की पूजा करें।१७२।। बढ़ा देता है।
कुभ भरे हुए समस्त अक्षर नव पदों के अन्तर्गत हैं। प्रहत सिद्ध प्रादि तुरुभाष, कहने का अभिप्राय यह है कि 'तुषा' ऊपर का छिलका है और
नव पद ही रक्षक रूप भद्र कवच है। वह भद्र कवच कभी नाश नहीं होने 'माष' भीतर की उड़द की दाल है। छिलका अलग है और उसके भीतर की ।
३ वाला है। इस बात को सूचित करने के लिये हो कछुए का लांछन [चिन्ह] दाल अलग है। उसी प्रकार शरीर अलग है और प्रात्मा अलग है। यह उप-
विजनों की रचना के लिए महत्व पर्या वस्त है ।१७॥ देश अज्ञानियों के लिए एक महत्व पूर्ण उपदेश है ।१४४। संसारी जीवों के लिए अत्यन्त शील गति से पुण्य बन्ध होना अनिवार्य
राज्य में पहले फैली हुए कीर्ति ही राज्य को भद्रता को सूचित करती है। इस हेतु को बतलाने के लिए हरिए' लांछन (चिन्ह) अंकित किया गया
है। उसी तरह जब जीवों को व्रत प्राप्त होता है तो उस समय ११ प्रतिमा है। जंगल के रास्ते में पेड़ से गिरे हुए कच्चे पत्ते के रस के द्वारा अत्यन्त
अर्थात् श्रावकों के ११ बजे अर्थात् धावक धर्म रूपी राज प्राप्त होता है । जब वेग से दौड़ने वाले चंचल पारे को बांध दिया जाता है। उसी तीन बेग से शरीर श्रावक
श्रावक लोग अपने व्रत में भद्र रूप रहते हैं, वही मोक्ष महल में चढ़ने की प्रथम के रोग नाश के निमित्त को बतलाने के लिए प्रारोग्य को शीघानियाँध बढाने सोपान है। यहां से जीव का स्थानादि पटखंड आगम रूपी सिद्धान्त राज अर्थात के लिए यहाँ 'पादरस' का प्रयोग बतलाया गया है ।१४५॥
1 महावत में समावेश हो जाता है ।१७४! सत्रहवें भंग के गणित में मेंढ़ा का दृष्टान्त दिया गया है। वह मेंढ़ा सभी कुमुदेन्दु आचार्य के शिष्य, समस्त मारतवर्ष के चक्रवर्ती ने इसे भूवलय प्रकार के पत्ते को खाकर केवल बकरी के न खाने वाली वस्तु को छोड़ देता है। के प्रतर्गत षटखंड मागम को लेकर करोड़ों की गिनती से गिनते हुए निकाला
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१८४ .
. .. ..: . सिरिमबजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ नगलौर-पिल्ली था । उसका आदि अन्त का रूप काव्यमय था । अर्थात् पहले श्लोक का अंताक्षर परमेष्ठि नमस्कार मंत्र को सुनकर शरीर की वेदना को भूलकर समाधिस्थ ही श्लोक का प्रथम बन जाता था ।१७५॥
हुमा उन दोनों जीवों को सद्गति होने में कौनसा आश्चर्य है ? अर्थात् आश्चर्य सरस्वती देवी अपनी उंगलियों से वीणा पर जो टंकार का मधुर नाद नहीं हैं। . करती है उस नाद से निकले हुए शब्द रूपी भूवलयों से धुतज्ञान को लेकर कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अज्ञानी जीवों के कल्याण के लिए केवल असि शिवमार चक्रवर्ती ने पढ़ाया था ।१६।।
मा उ सा मन्त्र का ही प्रयोग करके अत्यन्त मूर्ख तथा निरक्षर भद्र जैसे - नोट-१७६ श्लोक से १६५ श्लोक का विवेचन हो चुका।
जीवों को भी आयु के अवसान काल में इन तुष माष या पंच परमेष्ठी महा एक मदारी एक स्थान पर बैठा हुआ था। उसने भंग पोकर अग्नि को मन्त्र को उन जोवों को देकर अंतिम समय समाधि स्थिरता कराके नीचे फेंक दिया। वह अपनी पोटली में नाग नागिन दो सर्प लिये बैठा था। भंग मूर्ख को ज्ञानी बनाकर देव गति प्राप्त करा दिया. यह कितने उपकार की बात पीकर फेंकी हुई अग्नि उस पोटली में जाकर गिर पड़ी और अन्दर ही अन्दरं । है ! क्या जनागम का महत्व कम है ? अति नहीं । सुलग गई। तब उस पोटली में रखे हुए नाग नागिन प्राण को न छोड़ते हुए । पार्श्वनाथ भगवान को कम के द्वारा अब उपसर्ग हुआ तब मातंग दोनों आपस में लिपटे हुए ऊपर उठकर खड़े होते हुए अग्नि को जलन के कारण सिद्धदाथिनो इत्यादि देव, देवियाँ उस उपसग को दूर करने के लिये क्यों नहीं तड़प रहे थे। उस समय उसी मार्ग में आने वाले पहले भव के पार्शवनाथ भग- पाए और धरणेन्द्र पद्मावती क्यों पाए ? इस प्रश्न का उत्तर ऊपर के विषयों वान अपने पूर्व भव में यतिरूप में जब मा रहे थे तब इन दोनों नाग-1 से हल हो चुका है ।१६६।। नागिनियों के मरण समय को देखकर तुरन्त ही वहां पहुंच गए और इनको पंच महावीर भगवान के हमारे हृदय में रहने के कारण हमारा मन सिंह परमेष्ठियों के नवकार मंत्र को सुना दिया। कभी किसी भव में न सुने हये परम के समान पराक्रमी हो गया है इसीलिये हम वीर भगवान के अनुयायी या भक्त पवित्र इस मन्त्र के शब्द को सुनकर वे दोनों नाग नागिन एकाग्र चित्त से स्थिरता , ऐसा लोग कहते हैं। अपने हृदय रूपी सिंह को महावीर भगवान को सिंहके साथ कपर देखते हुएखड़े हुए। तब पाकाचा मार्ग से घरगेन्द्र और पद्मावती
। वाहन कर समर्पण करने के बाद शूर बीर लोग अन्य देवों को क्यों नमस्कार का विमान जा रहा था। वह विमान अत्यन्त वैभव के साथ जा रहा था। उस करेंगे? कभी नहीं इसीलिये भगवान के सिंहासन का चिन्ह वीरों का चिन्ह महिमा की इच्छा रखते हुए निदान बन्धकर उत्तम सूख की प्राप्ति करने के मार्ग । है ।१६७।। को छोड़कर भुवन लोक में जाकर घरगेन्द्र पद्मावती हुए। यहां कई लोग शंका राज चिन्ह को वीर रस प्रधान होने के कारण आज कल भो अपने करते है कि इस मन्त्र के मन्त्रण से पाम टूटकर गिर जाता है क्या? और महल के ऊपर दोर तथा सिंह के ध्वजा लगाते हैं। इसी कारण से मन रूपी बहुत से लोग वाद-विवाद करते हैं । किन्तु यह बात ठीक नहीं है कि-तत्वार्थ सिंहासन से २२५ कमलों को चक्र रूप बना कर वर्णन किया है ।१९८१ सूत्र में उमा स्वामी आचार्य ने "ध्यानमन्त्रमुहूर्तात् एकाग्र चिन्तानिरोध ध्यान" चार मुख रूप में रहनेवाले सिंह के सिर पर आये हुये १०० कमलों अर्थात् एक वस्तु पर अंतर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनट तक ध्यान रह सकता है। के ऊपर संचरण करने वाले भगवन्त के चरण कमल राग विजय के कारण अगर मनुष्य अपने ध्यान को अंतर्मुहुर्त काल नक स्थिर होकर करता है तो उत्पल पुष्प अर्थात कमल पुष्प के समान दिखता है ।१६८। वह उतने समय में केवल ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अब विचार करो कि शरीर तीर्थंकर के रहने का समय हो मंगलमय होता है। क्यों कि उनके जन्म को में कैसे छोडू ऐसा मन में प्रातरौद्र कर भरे हुए जीव को दुख में प्राप्त होने की लोग प्रतीक्षा करते रहते हैं । जन्म होने के पश्चात उनके होने वाले होना तथा नीच गति में जाकर उत्पन्न होना स्वभाविक है। इसी तरह पंच अन्य तीन कल्याणक अर्थात तप, ज्ञान तथा मोक्ष मिलकर पंच कल्याणक होते
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सिरि भूवलय
सार्थ सिबि संघ बैंगलौर-दिल्ली हैं। इसी प्रकार नेमिनाथ भगवान के समय का कथन यहां पाया है। इस जाता है और वहां की मिट्टी विषमय बन जाती है ।२२५॥ वर्णन को सुनकर हम अपनी शक्ति के अनुसार उनकी भक्ति करें ।१६६-२००। दोनों नौ-नौ को मिलाने से १८ होता है। कुटकी और शिरीश अर्थात्
ऋषभदेव भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे खड़े होकर तप किया था उस / शोसम इन दोनों वृक्षों की मिट्टी से लेप करने से मनुष्य निराकुल हो जाते हैं। वृक्ष का नाम जिन बृक्ष है ।२०१।
पद्म प्रभु और सुपार्श्वनाथ भगवान ने जिस नाग वृक्ष के नीचे मात्मसिद्धि जिस प्रकार बट वृक्ष अपनी शरण में प्रानेवाले सम्पूर्ण जीवों को को प्राप्त की थी उस वृक्ष के गर्भ में रहने वालो मिट्टी को कुछ रोग को अपनी छाया से शीतल कर प्राश्रय प्रदान करता है उसी प्रकार उसी वृक्ष के निवृत्ति के लिए संजीवनी प्रोषध रूप में उपयोग किया जाता है। नीचे जिनेन्द्र भगवान ने अपनी कामाग्नि को शान्त कर कर्म को निर्जरा करके
।२२६। और ।२२७१ आत्म रूपी शान्त छाया को प्राप्त किया, इसलिये इसको जिन वृक्ष एवं प्रशोक वेलपत्र और नागफण हन दोनों वृक्षों के गर्भ में रहने वाली मिट्टी को वृक्ष भी कहते हैं 1२०२॥
भिन्न-भिन्न रोगों के लिए दिव्य औषध रूप में परिवर्तित करते हैं। उसको यह शरीर रहल के समान प्राधार भूत है । उसको अश्या में उपयोग । चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त जिनेन्द्र भगवान के शिक्षण से अर्थात् गणित के द्वारा कर जैसे नई मात्मा को प्राप्त कर शोक रहित होता है, उसी प्रकार अत्यन्त : समझना चाहिए ।२२८) कोमल सात पत्ते वाले केले के वृक्ष के नीचे तप करके सिद्धि प्राप्त करने के सम्बर वृक्ष अर्थात् बोड़ो बांधने के पत्तों का वृक्ष और पलाश का वृक्ष कारण उसका नाम अशोक वृक्ष पड़ा । तब उनका नरभब फलीभूत हुआ।२०३1 इन दोनों की मिट्टी भी उपरोक्त विधि के अनुसार निकाल लेनी चाहिए। इस
शालमली वृक्ष के नीचे संभव नाथ तीर्थंकर ने तपस्या की थी इसलिये! को विधि शीतलनाथ भगवान के कहे के अनुसार समझनी चाहिए ।२२६॥ इसको भी अशोक वृक्ष कहते हैं। यह अशोक वृक्ष देवतागों के द्वारा भो ।
इसी प्रकार तेन्दु वृक्ष और इस वृक्ष के नीचे गिरे हुए पत्तों को मिलाने बंदनीय है ।२०४॥
से महापौषधि बनती है। इसकी विधि श्री श्रेयांसनाथ तीर्थकर के गणित से नोट-श्लोक नं० २०५ से लेकर इलोक नं. २२३ इलोकों तक विवेचन ।
। जाननी चाहिए २३० हो चुका है। सूखा हुमा सरल [षदारू] करोड़ों वृक्षों के गरिणत और उनके गुणों
इसी प्रकार पाटली वृक्ष और जम्बू वृक्ष इन दोनों की मिट्टी से पौषधि को जिन्होंने बताया है उन अभिनन्दन और सुमतिनाथ भगवान को नमस्कार
बनाने की रीति को वासुपूज्य पौर विमलनाथ तीर्थंकर के गणित से जाननो करते हैं।२२४०
चाहिए ।२३१॥ जिस वृक्ष के पोल अर्थात् तने में सर्प रहता है उस वृक्ष को नामवृक्ष अश्वत्य और दधिपणं इन दोनों वृक्षों के गर्भ से मिट्टी को प्राप्त करने कहते हैं। उस झाड़ को काटते समय नीचे के हिस्से मात्र का काटकर जब की विधि को अनन्तनाय और धर्मनाथ तीर्थंकर भगवान के परिणत से जाननी उसमें सर्प दिखाई पड़ जाय तव उम वृक्ष को काटना बंद कर देना चाहिए। चाहिये ।२३२१ अगले दिन जब यह सर्प निकलकर दूसरी झाड़ी में चला जाए तब उस वृक्ष नन्दी और तिलक इन दोनों वृक्ष की मिट्टी को निकालने की विधि को काट देना चाहिए । जहाँ पेड़ के पोल में सर्प रहता है उसके सिर के भाग शांतिनाथ और कुथनाय भगवान के गरिणतों से समझनी चाहिए। की मिट्टी बहुत नरम होती है । बह मिट्टी अनेक दवाइयों के काम में भाती है। प्राम, ककेली इन दोनों वृक्षों के गर्भ में रहने वाली मिट्टी को विधि पदि सर्प को इस प्रकार न हटाया जाय तो वह रूपं वहीं घोट करके मर को मुनिसुव्रत और नमिनाथ तीर्थंकर के गणित से समझनी चाहिए।
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सिर मुलच
मेष शृङ्ग वृक्ष के गर्भ से प्राप्त मिट्टी से आकाश गमन की सिद्धि होती है । इस विधि को नमिनाथ श्रीर नेमिनाथ तीर्थंकरों के गपितों से समझ लेनी चाहिए । २३३ ।२३४२३५२३६२३७/२३८/२३६२४० २४११२४२ २४३२४४/२४५२४६२४७।२४८
सम्मेद पर्वत पर रहने वाले अनेक प्रकार के अशोक वृक्षों को पार्श्वनाथ तीर्थंकर के गरिणतों से समझना चाहिए ।
are वृक्ष की जड़ से सुवर्ण अर्थात् सोना बन जाता है। इस विधि को पार्श्वनाथ भगवान् के गरिएतों से समझनी चाहिए। इस विधि को न जानने वाले सील और गड़रिये लोग अपने मेड़िये के पाँवों में लोहे की नाल बांधकर सुब भद्र कूट के पास भेज देते थे। उस जड़ के ऊपर मेड़िये के पांव पड़ने से लोहे की नाल के स्पर्श से पांव में बंधी हुई नाल सोने की बन जाती थी।
同
रात में जब भेड़िये घर आते थे तब उनके पांवों में जड़ी हुई नाल को निकाल लेते थे धीर उसको बेचकर अपने जीवन का निर्वाह कर लेते थे । इसी स्वर्णभद्र कूट से पार्श्वनाथ भगवान मोक्ष गए थे इससे इसका नाम सुवर्णं भद्र कूट पड़ा है । इसलिए इसका नाम सार्थक है ।
शालोव वृक्ष से महाऔषधि बन जाती है। इस विधि को श्री महावीर भगवान के गणितों से समझनी चाहिए ।
यक्ष - राक्षस और व्यन्तरों के समस्त शोक की निवारण करने के कारण इन सबको अशोक वृक्ष के नाम से पुकारते हैं । मक्ष-राक्षसों के पास विद्या श्रादि का बल होता पर परन्तु आजकल के मनुष्यों को ऋद्धि-सिद्धि विद्यादि प्राप्त होती असाध्य है । इस कारण कुमुदेन्दु आचार्य ने चौबीस तीर्थंकरों के भगवा ७२ तीर्थंकरों के लांखनों से और तपस्या किये हुए वृक्षों से आरोग्यता आकाश - गमन, लोहादिक को परिवर्तन करने वाले और सुवर्णमय रूप मंत्र ( मशीनरी) इत्यादि को पारे के रससे साधन करनेवाले अनेक रसों की विधि को महां बताया है।
परमात्म जिनेन्द्र भगवान ने वैद्यक शास्त्र में अठारह हजार मंगल तथा हो पुष्पों को तीक्ष्ण स्याद्वाद बुद्धि से अपने गणित के द्वारा निकालने की
सर्वार्थसिद्धि यंत्र बंगलौर-दिल्ली
विधि बतलाई है | २७८
मन तथा बुद्धि की तीक्ष्णता के कितने अंग है ? इस बात को तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा ही गणितों से गुणा करने से पुष्पायुर्वेद का गणितांक देखने में श्री सकता है । २७६१
यदि अनुलोम क्रम को देखा जाए तो इस गुणाकार का पता लग जायगा । उसको यदि माड़े से जोड़ दिया जाय तो नौ-नौ मा जायगा । यह वीर भगवान के कथनानुसार २२५० वर्ग में आता है। इसी विधि के अनुसार यदि कोई गणित देखा जाय तो नौ ही आता है किन्तु उन समी को यहां नहीं लेना चाहिए केवल २६५० ( दो हजार नौ सौ पचास ) के गणित में ही इसे मानना चाहिए | २६०|
इस अध्याय के २५१ श्लोकों में १५९९३ अक्षरांक १०६३५ कुल २६६२८ इस प्रकार अंकाक्षर प्राते हैं। श्री वीरसेन प्राचार्य द्वारा पहले उपदेश किया गया यह भूवलय ग्रन्थ है। आगे अतरंग में आने वाले ४८ "ऋद्धि-सिद्ध आदि नाथरू" नाम के श्लोक के प्राकृत और संस्कृत मात्र अर्थ यहां दिया जाता है।
आगे चलकर समयानुसार प्राकृत भगवद्गीता लिखी जायगी। इसके आगे हम पुनः बारहवें अध्याय के अंतरंग चौबीसवें श्लोक से लेकर २८१ श्लोक तक श्रेणीबद्ध वाक्य से पढ़ते जाएँ तो अन्दर ही अन्दर जैसे कुए के अन्दर से पानी निरन्तर निकालते रहने पर भी पानी कम न होकर बढ़ता रहता है उसी प्रकार भूवलय रूपी कूप में अक्षर रूपी जल न रहने पर भी अंक रूपी जल (२७x २७ = ७२९) निकालकर यदि बाहर रख दिया जाय तो उससे २४ वां श्लोक रूपी जलकरण उपलब्ध हो जाता है। वह इस प्रकार है:
इन रिद्धि सिद्धि 'आदिनाथ' पैलद । धर्मं अजितर गड्गे सार्व ॥ नववाहनगल ए आनेगलुम | नवकार हिनिस्याद्वा ॥
इस श्लोक में "इवु" "पैलदघव" "रावितववाहनगलु" "नवकारस" इन अक्षरों को छोड़कर शेष अक्षरों के अतिरिक्त श्लोक बनते जाते हैं। वह इस प्रकार हैं :
रिद्धि सिद्धि आदिनाथ प्रजितर । गगे एतु आनेगल ||
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सिरि भूषलव
सवार्थ सिबि संघ गलौर-वित्ती मुधिनिस्याद्वा.........॥
जब मन की चंचलता रुक जाती है तब आत्म ज्योति का ज्ञान विकइसो रीति से २७वें श्लोक से लेने पर भी यह श्लोक पूर्ण हो जाता है। सित होने लगता है। और उस विकसित ज्ञान ज्योति को पुनः २ प्रात्मंचक दनांघनदन्ति ।
घुमाने से काय गुप्ति, वचन गुप्ति तथा मनः गुप्ति की प्राप्ति होती है। तब मुधिय पेलबुदिन्तहहा ॥
आत्मा के अन्दर संकोच-विस्तार करने की शक्ति बन्द हो जाती है । ससे गुप्त छोड़े हुए "ई" यह प्रक्षर प्राकृत भाषा और "स" अक्षर-भाषा को। कहते हैं । उस अवस्था को शब्द द्वारा बतलाने के लिए श्री कुमुवेन्दु प्राचार्य जाएगा। इस गिनती से चार काव्य बन गये ।
ने चक्रवाक पक्षी का लांश्चन लिया है। यह उपयुक्त उदाहरण ठीक ही है, रिद्धि सिद्धि में रहनेवाला प्राद्यक्षर "रि" के अतिरिक्त यदि पढ़े तो। क्योंकि भूवलय चक्रबन्ध से ही बन्धा हुआ है ।४१ रिसहादीणं चिराहम" इत्यादि रूप एक अलग भाषा का काव्य निकल इस भूवलय ग्रन्थ की, महान अंक राशि से परिपूर्ण होने पर भी यदि आता है जो ऊपर लिखा जा चुका है। यह श्लोक मूल भूवलय से नहीं पढ़ा । सभी संख्यामों को चक्र में मिला दिया जाय सो, केवल नौ (९) के अन्दर ही जा सकता, किन्तु यदि वहां से निकालकर पड़ा जाय तो पढ़ सकते हैं, यह । गणना कर सकते हैं । इसी रीति से प्रत्येक जोब अनन्त ज्ञान से संयुक्त होने चमत्कारिक बात है अर्थात् अद्भुत लीलामयी भगवद्वारणी हैं।
पर के अन्दर ही गभित हो जाता है । वह ९ का अंक एक स्थान में ही अब ऋद्धि सिद्धिगे श्लोक से लेकर ४८ श्लोक पर्यन्त अर्थ लिखेंगे- रहनेवाला है। इसी प्रकार अनन्त गुण भी एक ही जीव में समाविष्ट हो सकते
भूवलय में बुद्धिरिद्धि, बलरिद्धि, औषधिरिद्धि इत्यादि अनेक ऋद्धियों। हैं। जिस तरह सूर्योदय होने पर प्रसार किया हुआ कमल अपनी सुगन्धि को का कथन है। उन सब ऋद्धि की प्राप्ति के लिए अर्थात् सिद्धि के लिए भी फैलाता है पर रात्रि में सभी को समेट कर अपने अंदर गभित कर लेता है, आदिनाथ भगवान और श्री अजितनाथ भगवान को आदि में नमस्कार करना| उसी प्रकार प्राप्त को हुई आत्म ज्योति को अपने अंतर्गत करके और भी चाहिए, उनके वाहन वैल और हाथो से स्यावाद का चिन्ह अंकित होता है। अधिक शक्ति बढ़ाकर बाहर फैलाने का जो आध्यात्मिक तेज वृद्धिंगत हो जाता ऐसा ग्रन्थकार ने कहा है ।।
है उसे शब्द और चिढूप से बतलाने के लिए पाचार्य धीमे जल कमल और अपना अभीष्ट स्वार्य सांधन करना है अर्थात् सूबलय के ६४ अक्षरों अंक का चिन्ह लिया है ।। का ज्ञान प्राप्त करता है । इन ६४ अक्षरों का यदि साधन करना हो तो सर्व रत्न, स्वर्ण, चाँदी, पारा और गन्ध इत्यादि कर लोह तथा पाषाण प्रथम मंगलाचरण होना अनिवार्य है । मंगलाचरण में लौकिक और अलौकिक को क्षण मात्र में भस्म करने की विधि इस भूवलय में-पुष्पायुर्वेद रूपी चौथे दो भेद है । लौकिक मंगल में श्वेतछत्र, बालकन्या, दवेत अश्व, श्वेत सषर्प, खंड में बतलामी गई है। वहां इसी जलकमल और नवमांक गणित को उपयोगी पूर्ण कुम्भ इत्यादि दोष रहित वस्तुएं हैं । अब सर्वमंगल के आदि में श्वेत अश्व बतलाया गया है । को खड़ा करना अभीष्ट है ।।
गुप्तित्रय में रहनेवाली आत्मा का चित्त में सम्पूर्ण अक्षरात्मक ६४ मनुष्य का मन चंचल मर्कट के समान एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष, शाला ! ध्वनि को एकमात्र में समावेश करने को विज्ञानमयी विद्या की सिद्धि को देने से शाखा तथा बाली से डालो पर निरन्तर दौड़ता रहता है। उसको बाँधकर वाले श्रो सुपाश्वमाय तीर्षकर है। उनका वाहन स्वस्तिक है। इस महान रखना तथा मकंट को बांधना दोनों समान हैं । चंचल मन स्वावादस्पी बागे। विद्या को शब्द रूप से दिखलाने के लिए प्राचार्य ने स्वस्तिक का चिन्ह उपयुक से ही बांधा जा सकता है। उसके चिन्ह को दिखाने के लिए प्राचार्य ने मर्कट बताया है।७।। का उदाहरण दिया है ।।
___का अंक महंत सिद्धादि र पद से अंकित है । वह पति के होने पर
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चिरि भूक्षय
सर्वार्थ सिटि संघ बंगलौर-दिल्ली भी केवल ९ ही रहता है । जैसे ६x२=१८ तथा ६४३-२७ होने पर भी खालेने के अनन्तर गाय के खाने के लिए भाग न रहकर केवल गधे के खाने इन दो संख्यामों को पृथक पृथक (+१-१२+७=) जोड़ने पर केवल ! के योग्य ही रहता है उसी प्रकार अणुबती के आहार ग्रहण करलेने के पश्चात् ए ही होगा। इसका उदाहरण ऊपर भी दिया जा चुका है। संख्या में से शेषान्न मुनिजनों के उपयुक्त न रहकर केवल प्रवतियों के लिए ही रहता है। पहले का १ निकालकर यदि दो को १ मानकर गिनती करें तो पाठवीं संख्या जिस प्रकार गघा फसल को उखाड़कर समूल खा जाता है और उसके बन जाती है इसीलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने गणना करने के समय में आठवें । खाने के बाद किसी भी जानवर के खाने लायक नहीं रह जाता उसी प्रकार चन्द्रप्रभ भगवान को प्रादि में लिया है। चन्द्रमा शीतल प्रकाश को प्रकाशित अवती के भोजन कर लेने के पश्चात् शेषान्न किसी त्यागी के योग्य नहीं रह करता है और वह शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से बढ़ता जाता है । इसी प्रकार योगी । जाता । इन तीन लक्षणों को क्रमशः गोचरी, अश्वचरी तथा गधाचरी की शान-किरण भी ८ और ६ इन दोनों अंकों से अर्थात् सम-विषाक से । कहते हैं प्रवाहित होती रहती है । इस शीतल ज्ञान-गंगा प्रवाह को शब्द रूप में दिखाने मुनिजन आहार ग्रहण करते समय अपना लक्ष्य दो प्रकार से रखते के लिए श्री प्राचार्य जी ने चन्द्रमा का चिन्ह उदाहरण रूप में लिया है।
1 । एक तो शरीर के लिए चावल-रोटी प्रादि जड़ान्न ग्रहण करना और दूसरा - इस जान-गंगा के प्रवाह में डूबकर यदि पाध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त । स्वारमा के लिए ज्ञानान्न । करना हो तो स्वाद्वाद का अवलम्बन लेना चाहिए । स्याद्वाद रूपी शास्त्र द्विधार यद्यपि उपयुक्त दो प्रकार के आहारों को मुनिजन ग्रहण करते हैं से युक्त है। अर्थात् उस तलवार को १ फल के ऊपर यदि प्रहार करें तो वह । तथापि शरीर के लिए जड़ान को अपेक्षा नहीं रखते। क्योंकि मुनिजनों की स्वपक्ष और परपक्ष दोनों को काटता है । इस तथ्य को शब्द रूप में बतलाने भावना सदा इस प्रकार बनी रहती है कि जब वमन किया हुआ भोजन कुला के लिए प्राचार्य ने करी मकरी का उदाहरण लिया है । कहा भी है कि:- भी नहीं खाता तब कल के त्याग किए गए पाहार को हम रुचि के साथ कैसे
___“करी कथंचिन्मकरी कथंचित्प्रख्यापयज्जैन कथंचिदुक्तिम्" इसका ग्रहण करें ? अत: वे आहार ग्रहण करने पर भी अरचि के साथ करते हैं । इसे मर्थ ऊपर या चुका है 18
1 गोचरी और श्रीचरी दोनों वृत्ति कहते हैं। स्वर्ग लोकस्थ कल्पवृक्ष से पाकर भूवला शास्त्र का १० वां अंक १ इस विषय को बतलाने के लिए प्राचार्य ने गएडमेरुण्ड पक्षी का चिन्ह बनकर मणि रल माला प्रांहार आदि ईप्सित पदार्थों को प्रदान करता है। लिया है ।११॥ इस बात को शब्द रूप देने के लिए प्राचार्य ने १० कल्प वृक्षों का चिन्ह रूप यह मन द्रव्य मन और भाव-मन दो प्रकार का है 1-एक प्रकार का में लिया है । अर्थान् वृक्ष का चिन्ह १०वें तीर्थकर का है ।१०।
मन लगातार विषय से विषयान्तर तक चंचल मर्कट के समान दौड़ लगाता दिगम्बर जैन मुनि गोचरी वृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं। याहार रहता है और दूसरा सुसुप्त होकर काहिल भंसे के समान स्थिर होकर पड़ा लेने के गोचरी, अश्वचरी, गर्घपचरी (गधाचरी) ऐसे तीन भेद हैं । जिस प्रकार रहता है । इस विषय को बतलाने के लिए प्राचार्य श्री ने भैसे का चिन्ह लिया गाय फसल को नष्ट न करके केवल किनारे से खाकर अपनी क्षुधा शान्न करने है। इन दोनों क्रियाओं से, अर्थात विपय से विषयान्तर तक जाना या सुप्त के बाद भी अन्य जीव जन्तुओं के खाने के लिए रख छोड़ती है उसी प्रकार रह जाना, पात्मा का कल्याण नहीं हो सकता क्योंकि ये दोनों प्रात्मा के लक्षण ३६ ओर २८ मूल गुरगधारी महावतो प्राचार्य तथा मुनिजन गोचरी वृत्ति से नहीं हैं। प्रात्मा का लक्षण सदा ज्ञानदर्शन में लीन रहना हो है ।१२।। पल्प माहार ग्रहण करके पाहार देनेवालों के लिए भी रख छोड़ते हैं।
जिनेन्द्रदेव जब स्वर्ग से च्युत होकर मातृगर्भ में अवतरित होते हैं. ::: जिस तरह प्रश्व फसल के अर्घभाग को खा लेता है, किन्तु उसके ! तब हाथी के आकार से मातमुख द्वारा प्रवेश करके मार्ग में तिष्ठते हैं।'
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सिरि भुषलय
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जिनेन्द्रदेव ही सर्व संसार के काव्य हैं। वैदिक धर्म के अंतर्गत भी मुद्रित वेद में ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि पाताल में छिपे हुए भूवलय रूपों वेद को विष्णु रूपी शूकर ने निकाला था । इस दृष्टि से वैदिक धर्म में शुकर का महत्वपूर्ण स्थान है | |१३|
भूवलय में ६४ अक्षर रूपी प्रसंख्यात अक्षर हैं और उतने ही श्रंक हैं। उसको बढ़ाने से संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त ऐसे तीन रूप बन जाते हैं । किन्तु यदि उसे घटाया जाय तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होजाता है अर्थात बिन्दीरूप हो जाता है। लोक में यदि एकीकरण न हो तो यह सुविधा नहीं मिल सकती अर्थात् न तो अनन्त ही हो सकता और न बिन्दी ही । रीछ ( भालू) के शरीर मैं अनेक रोम रहते हैं । किन्तु उन सभी रोमों का सम्बन्ध प्रत्येक रोम से रहता है अर्थात् एक रोमका दूसरे रोम से प्रभेद सम्बन्ध है । इसीलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने उपयुक्त विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए भालू का लांछन दिया है ११४ | यक्ष देवों का श्रायुध वज्र है और वह जैन धर्म की रक्षा करनेवाला सुदृढ़ शस्त्र है। ऐसा होने से शिक्षण के साथ-साथ रक्षण करता है । इस विषय को दिखाने के लिए श्राचार्य श्री ने वज्र का लांछन दिया है ।१५। तुष-माष कहने में यसि या उसा मंत्र का वेग से उच्चारण हो जाता है। इस चिन्ह को दिखाने के लिए आचार्य श्री ने हरिण का लांखन दिया है |१६|
सभी पुण्य को अपनाकर केवल १ पाप को त्याग करने को शिक्षा को बतलाने के लिए प्राचार्य श्री ने यहां बकरी का दृष्टान्त दिया है। क्योंकि बकरी समस्त हरे पत्तों को खाकर १ पत्ते को त्याग देती है ।१७। शब्दराशि समस्त लोकाकाश में फैली रहती है। इतना महत्व होने पर भी १ जीव के हृदयान्तराल में ज्ञान रूप से स्थित रहता है। इस महत्व को बतलाने के लिए नन्द्यावर्त का लांछन दिया गया है |१६|
सातवें बलवासुदेव वनारसी में ग्रात्म तत्व का चिन्तवन करते समय नवमांक चक्रवर्ती के साथ अपनी दिग्विजय के समय में मंगल निमित्त पूर्ण कुम्भ की स्थापना की थी । पवित्र गंगाजल से भरा हुआ उस पवित्र कुम्भ से मंगल होने में आश्चर्य क्या ? अर्थात् आश्चर्य नहीं है। इस विषय को सूचित करने के लिए कुमुदेन्दु भाचार्य ने कुम्भ वाहन को लिया है। १६
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
महंत सिद्धादि नौ पद को हमेशा अपने वालों को वह भद्र कवचरूप होकर रक्षा करता है। उस विषय को बतलाने के लिए कछुआ का चिन्ह दिया है इस कछुवे का वर्णन कवि के लिए महत्व का विषय है | २० |
समवशरण में सिंहासन के ऊपर जल कमल रहता है। तीर्थंकर चक्रवर्ती राज्य करते समय नील कमल वाहन के ऊपर स्थित थे। इसलिए यहां नोलोपल चिन्ह को दिया गया है | २१|
भूवलय में प्रानेवाले अन्तादि ( अन्ताक्षरी अर्थात् जिसका अन्तिम अक्षर ही अगले पच का प्रारंभिक अक्षर होता है) काव्य है। ऐसे श्लोक भूवलय में एक करोड़ से अधिक आते हैं। गायन कला में परम प्रवोरा गायक वीणा की केवल चार तंत्रियों से जिस प्रकार सुमधुर विविध भांति को करोड़ों रागरागनियों को उत्पन्न करके सर्वजन को मुग्ध करता है उसी प्रकार भूवलय केबल ६ अंकों में से ही विविध भाषाओं के करोड़ों श्लोकों की रचना करता है । इसलिए यह ६४ ध्वनिशास्त्र है। इसको बतलाने के लिए प्राचार्य ने श का चिन्ह दिया है | २२
भूवलय काव्य में अनेक बन्ध हैं। इसके अनेक बन्धों में एक नागबन्ध भी है। एक लाइन में खण्ड किये हुये तोन २ खण्ड श्लोकों को प्रन्तर कहते है। उन खण्ड श्लोकों का आद्यअक्षर लेकर यदि लिखते चले जायें तो उससे जो काव्य प्रस्तुत होता है उसे नागबन्ध कहते हैं। इस बन्ध द्वारा गत कालीन नष्ट हुये जैन वैदिक तथा इतर अनेकों ग्रन्थ निकल पाते हैं। इसे दिखलाने के लिये सर्पलांखन दिया है | २३ |
बोर रस प्रदर्शन के लिये सिंह का चिन्ह सर्वोत्कृष्ट माना गया है । शूर वीर दो प्रकार के होते हैं । १ राजा और दूसरा दिगम्बर मुनि इन दोनों के बहुत बड़े पराक्रमी शत्रु हुआ करते हैं। राजा को किसी अन्य राजा के चढ़ाई करने वाले बाह्य शत्रु तथा दिगम्बर मुनि के ज्ञानावरण आदि आठ अन्तरंग कर्म शत्रु लगे रहते हैं । श्रन्तरंग और बहिरंग दोनों शत्रुओं को सदा पराजित करने की जरूरत है। इन्हीं आवश्यकताओं को दिखाने के लिए धाचार्य ने सिंह लांछन दिया है | २४|
प्रथम अध्याय में भगवान् के चरण कमल की गणना में जो २२५ ( दो सौ पच्चीस ) संख्या का एक कमल चक्र बताया गया था उसे यदि चार से
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सिर भूवनय
वारसा0-rimar गुणा करें तो कुल ६०० कमल चक्र हो जाते है। इस ९०० को कमल चक्ररूपो समवशरण की रचना में मेष शृङ्ग वृक्ष का उपयोग बतलाया है । यह बनावें और उन्हीं चक्रों से भगवान् के चरण कमलों की गिनती करें तो लब्धांक 1 भो अशोक वृक्ष है 1४०1 से यह अध्याय निकल कर पा जायगा। इसे पदम-विष्टर विजय काव्य कहते! दास वृक्ष को भी अशोक वृक्ष के नाम से पुकारा जाता है।४१॥ हैं।२५॥
पालोवीरू अर्थात् शाल्मली वृक्ष श्री अशोक वृक्ष है ।४। श्री नमि जिनेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर अपनी माता के गर्भ में भाने के देव मनुष्य इत्यादि जीव राशि के सम्पूर्ण रोग को नाश करने वाले समय में उत्पल पुष्प के रूप में रहे थे। ऐसी भावना भाते हये यदि उस पुष्प । ये सभी वृक्ष चौबीस तीर्थंकरों के तपोभूमि के वृक्ष थे 1४३। को पूजा करें तो स्वर्गादि सुखों को प्राप्ति हो जाती है ।२६।।
इन वृक्षों को ध्वजा घंटादि से अलंकर करते हुए यक्ष देवगण बीबीस मादि मन्मय के पिता श्री ऋषभ तोर्थकर ने वट वृक्ष के नीचे तपस्या तीर्थकरों के स्मरण में पूजा करते हैं ।४४) की। इस कारण उसे जिन वृक्ष और शोक निवारक अर्थात् अशोक वृक्ष भी। इन वृक्ष के पुष्प जब खिल जाते हैं तब उसमें से निकलने वाला सुगष कहते हैं ।२७
की वायुका दारीर से स्पर्श होते ही शरीर के सभी बाह्य रोग नष्ट होते है। सप्तच्छद अर्थात् ७.७ पत्तों वाला सुन्दर वृक्ष भी कल्प वृक्ष है। सगंध के संघने से मनके रोग का नाश होता है। ऐसे होने से इस फूलों की इस वृक्ष के नीचे श्री मजित तीर्थंकर ने तप किया था। इसलिये यह भी अशोकपीस कर निकले हए. पारे के रस से बनाये हुया रस मणि के उपभोग वृक्ष है।२८॥
से प्राकाश गमन अर्थात् खेचर नामक ऋद्धि प्राप्त होने में क्या आश्चर्य है? शाल्मलि (सेमर) वृक्ष के नीचे थी संभवनाथ ने तप धारण किया।२६
मर्शद कुछ भी गाड्चर्ग नहीं है ।४५ सरल-देवदार और प्रियंगु इन दोनों वृक्षों के नीचे अभिनन्दन व सुमति
इन चौबीस को परमात्म रूप वैद्यक शास्त्र में और भी अनेक प्रकार के तोथैकर ने तपस्या की थी, इस कारण यह भी अशोक वृक्ष कहलाता है।३०। अर्थात अठारह हजार प्रकारके वृक्षों की जाति बतायी गयी है । इस मंगलप्राभूत
सम्यग्दर्शन शास्त्र से भात्मा को पहचान कराने वाला सम्यग्ज्ञान उन अध्ययन से गणित शास्त्र के मर्म को जानने वाले ही निकाल सकते हैं ।४६।। दोनों का स्वरूप दिखलाने के लिये कुटकी और सिरीश का चिन्ह बतलाया
स्यावाद रूपी तलवार की धार तीक्ष्ण है। इसी तरह के तीन बुद्धिमान गया है। इसे भी अशोक वृक्ष कहते हैं । ३१)
जन बहुत सूक्ष्म विवेचन करके इस भूवलय से पुष्पायुर्वेद गरिएत निकाल नागतृक्ष भी अशोक वृक्ष है। चन्द्र प्रभु जिनेन्द्रदेव ने इसी नाग वृक्ष के ने नोचे तपस्या करके प्रात्म-कल्याण किया है ।३२१
जिस संख्या को देखें उससे ही माता है, यह महावीर भगवान इसी रीति से नागफरिए और कपित्थ (कथ ) ये दोनों भी कल्प वृक्ष का वाक्य है।
इस अध्याय में २२५० अक्षर हैं। पलाश अर्थात् तुम्बुर वुझ भी अशोक वृक्ष है ।३४॥
संस्कृत के अर्थ को लिखते हैं:तेन्दु वृक्ष पाटलि, जम्बू (जामुन) भो अशोक वृक्ष है ।३५१
समस्त मत गण परहित में रत हों। सम्पूर्ण दोष नाश हो। समस्त अश्वत्थ और दधिपणं भो अशोक वृक्ष है ।३६॥
शासन को जीतने वाला जैन शासन जयवंत हो। नन्दी और तिलक भी अशोक वृक्ष है ।३७।
श्रीमत्परम गंभीरस्याहादामोघ लाञ्छनम् । पाम और ककेलि ये दोनों वक्ष भो अशोक वृक्ष हैं ।३८।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जैन शासन । चंपक (चंपा) और बकुल भो अशोक वृक्ष हैं ।३।।
बारवां अध्याय पूर्ण हुमा: ।
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स्याद्वाद
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तेरहवां अध्याय
सङ्क्र
डवेश 'साधुगळिहरेरइ' । पाडिन 'वरे द्वोषदि' सा ॥ कूडि धू* वयु 'साविसुतिहरुम् मोक्क्ष' । रूडिय 'वनु'' काव्यदलि ॥ १ ॥ डगमग 'आदियनादिय कालविम्' । दोगे 'दिह सर्वं साधुगळि | 'ग बु श्रसरिगगेयागे 'नमवेम्बू ओम् [१] घरिसल' प्रगणिता 'नन्त ज्ञानादि। २ व शद ' स्वरूपव परिशुद्धात्म रू' । वशरू 'पवनु वरस *' हसद 'साधुगळ साधिसुतिरुय' तिशय वेस 'रु परमन तम्मात्म ॥ ३ ॥ * 'नोमि [२] यमिगळिवरु महाव्रतगळय् । दनु होन्दि कर्म ' ला स' दोळ' | मिनुगुतमुनि गुप्तित्रयवस मनागिन' मुनि' उप 'क्रम' वासकाव्य रस 'वि पेळिद गमकदोळिरु साधु' । वर गळ्व' [३] 'नवगळेरड' * तु|| सर सायिर जाति शीलव' द 'नवर 'तर 'भेदगळ ल्ल वरितु ॥ ५॥ श्रा* वतु 'सुविशुद्धवावेम् भत्नात्कु' । काविन् 'लक्षगळ्वेम् भा’* पावक'अयनु अत्तर गुगळत् यो' [४]शित 'तिळिदु पालिसुवर्॥६॥ 'हू, प्रविन भववरिषयरु' || ८ || 'अवरभिप्रायवे शब्द ॥६॥ एवे तब विद्याधामहं ११॥ प्रागलु 'सिद्धान्तिगळु' ॥१२॥ ' व् आवानलकर्म श्र वनरु' ॥१४|| अवरु 'भेदाभेद नयरु ॥१५॥ 'श्रवरष्टान्गनिमित्त' कुशलर् ॥ १७॥ श्रावाद 'स्तम् भनवरितर् ॥ १६॥ य्वरु 'आकर्षण निपुणर् ॥२०॥ प्रधर् 'उच्छाटन बलरु' ॥२१॥ ईवर 'सिद्ध सिद्धार्थ ||२३|| 'प्यनदन्तिह चक्र बन्धर्' ||२४|| स्व 'वन चक्ररवर्तिगळु ' ॥ २६ ॥ भावाग' तपोवन वाळूवर' ।। २७ 'स्थाविर सेन भूवलय ॥२६॥
आवाग 'दर्शनवरिदर् ॥७॥ ॥ 'स् श्राविनो कल्पवरि ॥१०॥ प्रबु 'गञच मिथ्यात्व ध्वस्तर् ॥ १३ ॥ 'वघरेलुनयदे प्रवीणर् ' ॥१६॥ प्रवर 'मोहन वशिकरणार् ॥ १६ ॥ बृदल 'सकल मन्त्र साध्यर् ||२२|| 'ईव गुरदे प्रति प्राज्ञर् ॥२५॥ 'थ्यावर जीव रक्षकरु' ॥२८॥
प रिव प्रयदनेपरमेष्टिगळिळपोळा गि' रिसि' दु समाधियोऴ् न र* गा ॥नर 'गात्मसिरियेम्बाहारव कोम्बबाल' र 'शालिगलुसाघुगलका '५ |३०|
र
ज्ञान साधने योळातुमध्यान पिडदिह । ज्ञानवन्तरु सिम्ह ती जु# 'ळि 'उज्ञानाविशक्तियोळ् 'वि' रतरक्' [६] उस वळि 'नानाविधवाव' सु* * रनु श्रन्नवतिम् वानेयन्तानन्द । 'सिरि स्वाभिमानिग्रऴ्ष [७] प गोवागम 'रत्रिनन्ते, 'प्रा 'दिनवेल्ल' रूया 'गळिसिव शुरु अब न ववरु 'तपोराज्यदवरु' ||३५|| नवमानक पद यतिनिलयर् ||३८||
॥ श्रारातिया' दन्ते शाने पराक्रम' । ज्ञानस 'बुळ्ळ सम्यमिगळ ||३१|| मुळिगे॥ यलि 'आहारविट्टरु तानुगम्भीर। दो ळिदु' र 'जानेग वर विसल ॥ ३२ ॥ ॥ सर' दिनवेल्ल तिन्दन्नवरात्रिका ल'रिय बिमन विदुमेल' प्रा।। ३३ । का' वा 'क्षरगळ मनसिद्ध रात्रियोऴ्' श्री वाणि 'मेलुवर (दशक्ति ॥३० अवरतिशय राजराज ॥ ३६॥ क्विदवर् तपचक्रधररु ॥३७॥ दवल्लि गुरुकुल चन्द्रर् ॥३६॥
वि गुरुकुल समुद्धरणर् ॥ ४० ॥ ॥४२॥
षव मध्यान्ह कळ, पवषर् योवनाळि भाषा भाषितरु टवणेयो हितव पेळ वरु ववरु श्री वृषभसेनार्य
रर् इन्द्र प्रस्य गद्यर् एवबोळ कविय मनिप यदेयष्टु कर्मविळ लवसु ॥५०॥ ळवरादि चतुराशीतियक
ळवळद सिमूहासनवर्गे ॥४३॥ ॥ ४५ ॥ ववरु चातुर्वर्ण प्रियरु ॥४६॥ भूवलयके ज्ञानि घ्रर् ॥४६॥ यवररजिके सवनुवरि ब्राम्ह ॥५२॥
॥ ४१
॥४४॥
॥
॥४७॥
॥ ४८ ॥ ॥५१॥
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सिरि पतव
साहिदि संप बैंगीर-दिल्ली वृषभ पशवरियर् ॥५३॥ कावर् तोस्वत् मोबद सहसर ॥५४॥ स रि 'योळोम्दे दारियोळ्' बह 'वेगदि' वर 'व्यक्यवागोड्उपन' पर रर'माब'वर' व्यक्तित्वके तन्दन्ते । सरलवादव्यतिळिवर॥५५॥ स* नवर् 'उसाघुगळ अ[९] सद्रुश 'क्रूणेय' । धन धरपो एन्दे' र ख* ॥ तनदे 'ननुब हसुबदु गरियने मेयु' । वेनु 'वतेरवि परमादन' ॥५६॥ भु कृतिय अन्न 'वगोचरिवदतियित्' । व्यक्तदिन 'दुडि ह न गु'खु' ।। शक्तर् 'निरेह वतिगळम् [१०] तिरेयोळु'। व्यतित्व
तडेयि ळळडे' ह ।।५७ कुल नयवहरिदाडुववरणाळियन्। ते निस्सन्ग वेरसुत चरि ट् ॥ युविन सुवेकानग विहारिगळ गुरु'।मुनि गळयदनेयसादुगळ अब[११]॥५८।। मा* नव'भिक षुळिवरु सकळ तत्व । छ यान'गळनुसाक्षात् ध् प्र* रिसि । तान प्रागिबेळगुव अक्षरज्ञानिगळ्'ातानुमादित्यनन्दादिर ॥५६॥ रो पविलळदेर कषिप तेजोमूरति' । आमे यवर [१२]उ'रमेयमननु म* ॥ ई लुततिह सागरनन्ते गम्भोर'द् । ईसुवरसमरदोळ करम'।६०||
धमभन्ग 'ऐवर अञ्ग ॥६१॥ दइसेरादि 'केसरिसेनर' ॥६२॥ सिसिद्धरु 'चारसेन गुरु ॥६३॥ हसमन 'वज्र चामररु ॥६४॥ नुसुळद 'बजरसेनगुरु' ॥६५॥ वशगुप्त 'पादत्त सेनर' ॥६६॥ मसकद 'जळज सेनगुरु' ॥६॥ नसेयळिविह 'बत्तसेनर्' ॥६॥ वेसेव 'विदर्भ सेनवर' ॥६॥ तस रकष 'नागसेनगरु' ॥७॥ रातिगे 'कुन्थुसुनगुरु' ७१॥ ससहर 'धर्म सेनवह ॥७२॥ इषिमद्दर सेनगुरु' ध३॥ पसरिप 'जयसेनगुरु ॥४॥ सदब सधर्म सेन ॥७॥ गसदृश चकर बनध गुरु ॥७६॥ यशद 'स्त्रयभूसेनर् ॥७॥ मसकविजइ 'कुम्भसेनर' ॥७॥ न्सहर 'विज्ञासेनवरू' ॥७९॥ मेसेयरु भल्लि सेनगुरु' ॥५०॥ हिसिहिग्गदिह 'सोमसेनर ॥१॥ मस 'वरदत्त मुनीन्द्रर' ॥२॥ एसेव 'स्वयम् परभारतिषु' ॥३॥ नुसिर 'इन्दरभूति विपरवर ॥४॥ वशदनादिय 'गुरुवम्श' ॥८॥ दृशधर्मधर 'सेनवरश' ॥८॥ नसहरर 'प्रोमदारय दोमदु ॥७॥
एसेयुव 'सेन भूवलयर ॥८॥ त* नुदिन कर्म 'व गेवर समतेयो' । 'धन 'मन्दराचळरस' च* ॥जनुमते उपसर ग वमरळ कप्प रागिन चन्द्विहरुम[१३]माह।।६।। हे 'ध 'ननाद चन्द्रमनन्ते शान तिय' । माध् 'रूहनु सार व' वर तु* द्याधन चन्द्रम'ख रु साहस व्रत। धोधन गळमणिय नुप्य' ॥६॥ व* रिसुत रूहिन मरिण गळनतिहर ह[१४]
अ क्षरवेने नाशवळि' चि* दरिदकपरवेम्ब परिशुद्ध केवल'। वर'झान दिरवमु सहने ॥१॥ प्र वनि यो विरुव भूमियतेर अखिव । नव समतेयोलोरेवर म[२५] नि* अवमिवाडिह 'मएरिणनिम् गेवळाप्रवुमनेकट्टे प्रदरोळवा ॥२॥ गि जवि वासिप हाधिनन्तेसदनवनितार' जरुफटिळलि' के वानिजद्'येमुदविल्लदे वासिपरब (१६)राजसुत'तिरेयोळगिद्दा ३॥ सा तिरेय मुदलिह सुरुचिरवाका श' त'वन्ते पोरेववरारि॥ म ति हति'ललद निरालम्बर सहबरु' । सतत निरलेपकरया' (१७)॥१४॥
* व सार्व कालदोळु मोक्षदन्वेषण'नव'दोषियोळिरुव सा ला ॥सवणसा 'धुगळु निर्वाएपदन साधि । मुवमत बाळुवरवरस ॥४॥ घोर रणहित सर व साधुनळिगे' । वारियो नमि' सह(१)धर्म मास 'वासातकर्मभूसियोळि ह शार महामूरुकालदोळ निर मल'VIN६॥
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सिरि भूषालय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैगनौर-दिल्ली
रिणरयहोगा 'वायुभूति' ॥७॥ दारिजपद 'अनि भूति' ॥६॥ ररसे 'सुधर्मसेनगुरु' | | वीरन् 'पार्यसेदगुरु' ॥१०॥ हर 'मुनडिपुतारवयगुरु' ॥१०१॥ न श्रेष ट 'मयतरेह सेनर' ॥१०२॥ नर 'प्रकम्पनसेनगुरु' ॥१०३॥ मरवेबळिद 'अन्धरगुरु' ॥१०४॥ निरयके होगद 'प्रचलरु' ॥१०॥ हरूष 'प्रभाव सेनगुरु' ॥१०६॥ विरचिसिबरु पाहुउवम्' ॥१०७॥ तिरेय 'केवलव रषिसलु' ॥१०८।। शारदोळकक्षरब कटटुबरु ॥१०॥ यरडने गणधररवरु ॥११०॥ बरदन्क भञ गान्क वेवर् ॥११॥ इरद महाभाषेयरिद ॥११२॥ कार्य कारणद सम्बन्धर् ॥११३॥ गिरयद ज्ञ्यान वेळ्दवर ॥११४॥ भोरण बेद अन्य धरर ॥११५॥ मरदोळ हितब माधिपह ॥११६॥ दारणाशियलि वादिपर ॥११७॥
हर शिव शकर गणितर् ॥११॥ विरचित कव्य भूवलयर् ॥११६।। बा* लव'पद्धतियाद भूवलयद्म' । पालिन्न'कर्म भूमिय प्र' र घर पालिसिर(१६)वर'ई'शुद्ध चयतन्य' द विलसित लक्षण परम् ॥१२०॥ हके रुष निजात्म तत्वचि' य 'परम'रु । बरद सम्यग्दर्शान' वर ॥सर'द वर्तनेयिर्प परमात्म दर्शना । वरदा'चारन् (२०) हवरिण ॥१२१ । तक रिण सि कोळ ळ तलिरियवर्गवेललव' । गुण अवरु तम्मा' लोउलि विनुता'त्मनोळ तन्दु समतेयोळविकार'जिन'दानन्द मयरागि'॥१२२॥ तक मगल्लि सुविशालवह तन्नन्दव'कर'मा[२१]सर्व साधुउनु' की प्रालिसिर । बमल भेद ज्ञानदिन्दलि सध' शासमल रागादिगळेम्य ॥१२३॥ र वर 'गर्वद परभाव सम्भन्ध'बे। सवि'वळिसुवसर''ब रु ॥ अवरक्रियेयु सम्यग्ज्ञानम[२२] मनसिज । सवन'मदनरी निश्च'॥१२४॥ प्रय बनि यजमान दनुभवदोळगाचरि। प'व'चिनुमयतत्वा त* निया। नवद'भयास ज्ञानाचारकोनेयादि'सिनियरियाचार प्रा[२३]'तानु'॥१२॥
प्रवनरिविह सेनगणरु' ॥१२६॥ गबनिये 'तानेम्ब गुरुगळ्' ॥१२७॥ नवदन्क भुवलयवेळदर् ॥१२८।। 'भवदन्त्यभवन तोर्दवरु ॥१२६॥ लवदनक 'नाल्कुमागलरु' ॥१३०॥ गवियुकयलासदोळ् वषभम् ॥१३१॥ मवरोळ् अजितरु सम्मेद ॥१३२॥ एवेळ वे शम्भव अलि ॥१३३॥ लावभिनमादनरल्ले ॥१३४॥ कवि बन्दद्यसुमतियर् अल्ले ॥१३५॥ सवरण पद्मपरभरल्ले ॥१३६॥ टेवु सिरिसुपार्शवरु प्रर्लल ॥१३७॥ नव चन्द्रप्रभ पुष्पदन्तर् ॥१३॥ वदे शीतलुर रोयामसर् ॥१३६॥ नव चम्पेयोळ वासुपूज्यर् ॥१४०॥ एवेयरर नदिय मध्यवलि ॥१४१॥ यवेयमुच्चद विमलरल्ले ॥१४२॥ सोवुख्य अनन्त धर्म जिनर् ।।१४३॥ नव शान्ति कुन्थु पररल्ले ॥१४४॥ नेव मललि मुनिसुव्रतर्लल ॥१४५॥ रब नमि सम्मेब नेमि ॥१४६।।
ट्वरूरल्य पावान्तवीरर ॥१४७॥ निव स्थर्ण भवदोळ पार श्वर ॥१४॥ कुछ विवन्द्ययरिवरु 'शुद्धात्म भावनेयिन्द । अवनिय तोरेयु नि* रतियासवियागिइटिसिदाद स्वाभावि।'क'ब'दरीनिकेतनदति'यम्।।१४।। सो विद सुखहनुभूतियु ताने स। तीवि'सम्यक्त्वचारिरि हर पादन दन् (२४)मर्मद सम्यक चारित्र' । तीदिर 'दोळगे निरमलव' ॥१५॥ ए गवरतनयिह'तिह'व कर्मव हरिप । नगदे निश्चय चारित् शुक वायोगेवराकार धर्मवपरिपालिसवउ'[२५]अगणित'वारिज प्रारमा १५१५
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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि सब देखोर-दिस्ती ई सुत पत्रदोळिरुव नोरिनकरण' । प्राशा वारिजवो वर्यि'स्इ घे* ॥ राशिइर पन्ते सारात्मदरुयदोळिर्दु लिसिनिम्'परदरवय दारय।।१५२॥ मोर रणिकेय निरोधिस्वस्(२६)सर्वस'राराजि मस्त इच्छेग' ष ॥ सागर 'ळनिरोधदि निर्वहिसुत' । सेर 'लात्मननु सर्वव निजा'॥१५३॥
उरद 'उत्तम भावनेयनुष्ठा ॥१५४॥ छ र नव निरर्वहिसवुदे ॥१५५॥ पोरयष'म(२७)संयुतयह ॥१५६॥ दर 'उत्तम तपदलि' ॥१५७॥ कर वशर्वति गोळिसुत' ॥१५॥ करुणेय 'मनब असश' ॥१५॥ लारप 'वागिरिसिरपु' ॥१६०॥ सर 'देनिश्चय दसमान ॥१६१॥ सर 'तपदाचार(२८)वरवर ॥१६२।। डेर 'शनचारवाद नाल्कु' ॥१६३॥ कूर 'गळोळु मरसदेशकति' ॥१६४॥ तरि 'योळ भजियपरमात्म' ॥१६॥ तरदे 'परियनाराधिसुत्रु' ॥१६६॥ मरे'दु ताने परिशुद्ध' ॥१६७५ वरवोऱ्याचार (२९) भूरि' ॥१६८।। रर 'वयुभवयुतवागि' ॥१६६॥ ळ 'रुवी अयदु चारित्रा' ॥१७०॥ कर 'राधनेगळनु सार ॥१७१३ टर 'पशचाचार वेनुव ॥१७२।। दोरेव सिद्घान्द भूरि ॥१७३॥ रर 'वयभवद भूवलयद ॥१७॥ वदवे 'तेरिन कलश ॥१७॥ दर 'विद्दनते तम्मात्म ॥११॥ र 'नसार रत्नत्रयात्म ॥१७७॥ एर 'कद कारण समय ॥१७८॥ नर 'सारव बलदिनद ॥१७६।। पर 'लिसेरिसबुद् निश्च ॥१८॥
रियार(३१) षुट्टु भदसिव' ॥११॥ इरुवुदे 'सोक्खमनालय' ॥१२॥ उ* सिहटिप निश्चयवदनु हुदृढिसे । वश कार्यन्नु समय, भुवि ॥ रस दसार हटि बहदु समाधियया(३२)या,धर्म साम्राज्यदरी।।१८३॥ जा यावीतरागद निर्मलात्मन समा, पयोधियोळ कर्म सम्हः व* ॥ नय 'प्राख माडुते निदिर्य शर्म परु' । स्वयम् सर्वसाधुगति' 'पात।।१४।। जल य के सम्सारदाशेयु बिद्धभव्यपू । त'यवर पूण्य पादग' ना ॥ सय' ' र 'नोतिमार्गदनिर्भरभक्ति' । यिमनोन मातु मनसु का ॥१८॥ नी वियवत्य(३४)नमिसु स्मरिसु कोन्डाडुस्तोत्रव'दोळ एम्ब' न ते क्रमानव भूवलय पेळ वुदु श्रमविल्लदे' सवि सिद्धान्त मार्यवहोन्। १८६। तुझ न दे निमगे तप्पदु मुकतिपन ज[३५]तीर्थम् क'नन 'ररन्ते' ताक्ष मदन्ला । मनिहनु स्वार्थबागलु शुद्धज्यानवे । ने व्यर्यदज्ञानवकेडिसे। १८७। एक रि रत्नत्रय तीर्थ ननय अन्त सा रनगत[३६]तिळिपादन म त ॥ सार चतुष्टय रूपनु वलित पम् । नारा 'चम' भावयुतनु' ॥१६॥
एर 'कलि सप्त भय विप' ॥१६॥ ग 'मुक्त स वरपनु चलुव ॥१०॥ ळरव 'अखम्डस्वरूपदे [३७] ॥१६॥ योर नित्यनिजानन्दयक' ॥१२॥ गरुव 'चिद्रूपम सत्य' ॥१९३॥ दोरेव परात्पर सुखद' ॥१४॥ मळि 'स ततुत्यरु सर्व साधु' ॥१६॥ सरुव 'गलेन्दरियुत प्र ॥१६॥ विरल 'तबन्त भक्ति नमि' ॥१९॥ दर पे हम्(३८)रुषिगळन वर' ॥१८॥ खुरवर 'पदप्रापतियाग' १६ कर 'विर लेन्दसमान' ॥२०॥ लरयव 'भक्तियिम् भजसे ॥२०१शा परडु 'पशबहुवेलुलरगे ॥२०२॥ हरु 'सविकल्परूपद सु' ॥२०३।। वरद 'समाधि य सिद्धि' ॥२०४॥ धरि 'साधनस (३९)करुणेय' ॥२०॥ धनरसे 'गुरुगळय्वर' २०६।। हर व भक्तियिम् बरुवकष' ॥२०७॥ गरि 'रानक काययक्नु विर' ॥२०॥ नचिसि 'पराकतसमसवुर' ॥२०॥ सर त कनड वोळ वेरसि' ॥२१०॥ मरे 'पद्धत्तिगर्नयबया(४०) ॥२१॥ करपात्रवनन भूवलय ॥२१२॥
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सिरि भुवलय
सर्वार्थ सिसि संघ मेंगलोर-दिल्ली
सर र तिरेयोळगिरव समसत वसतु' । सरि पेळवलरहन्त' नवरदावर'रादियाददंदुपरमेष्ठिगळखोल्लिापरियपदधतियोळ विरचिा२१३॥ * तिशय सिहरबलतिदति (४१)नया यादिल । क्षतिबरणग्रन्थव अनोळमोन । डुति'प्राय हन्नेरडु म' साविरद । हित शरेयो मार्ग श
लोकगळिम्॥२१॥ तर निया'द कहिद रेय ऐवरकाव्य' । बम वय ४२) पारेष्ट ज म पागणसि विसिदरष्टुसत्फलवोव सा। र'न'सर्वस्ववी ऐटु' २१॥ तक बगे सेरिदरहवसिद्धराचार्यपाठक' धवरु'साररुस आ साधु अवरु गळर'(४३)सुतप्पदेभूवलयकमादि'वयद मंगल विपतनालवर्'२१६
दुवसिर् 'ममन्तर प्रोप्पुब' दु ॥२१॥ रवतु 'पचकार' वरिया ॥२१॥ व 'सि पाउ सा मन्त्र ॥२१॥ यवे 'विप्प साल कक्षर काव्य' ॥२२॥ एब मा (४४)साविरदेन्दु' ॥२२१॥ रुव 'नामगळनु कूड ॥२२२॥ अावा 'लु पावनबाद' ॥२२३॥ नव 'मोस्बत्तु सावाग' ॥३२४॥ नेवदे 'जीवर कावुदेन्नु' ॥२२॥ यु 'व काव्य श्री वीर पळद' २२६॥ सोबरट्ट भूवलमम' (४५) ग ॥२२७॥ टुब 'घरे योळी अोमवतु ॥२२॥ ऐवह 'गळ विस्तरिस' ॥२२॥ लायाग 'लु बरुवनक' ॥२३०॥ नववु 'नूर हनतेरउ परि' ॥२३॥ कवि 'शुद्ध बद्र मत्ते कूड' ॥२३२॥ मनिर'लु नाल् कु बरधर्म ॥२३३॥ तव'शास्तबिम्परि'(४६) ॥२३४॥ लब नालक होसेयलु नपर्दे' ॥२३५॥ नवतेय होस शास्तरविदतन् ॥२३६॥ नूवन् 'दु कोट्ट भूवलय' ॥२३७॥ काब 'द होस पद्धतिगे' ॥२३॥ डुबिन्'रगुवेति [४७ हर्षवर्ध' ॥२३॥ रविवार 'नमप्प काग्य ॥२४॥ बोववतु 'मोमबत्ताह' नळ ॥२४१॥ ळवर स्पर्शदोळोदेरड्एमब' ॥२४२॥ गेवि'स्पर्शमरिणगळयबोदोम् ।।२४३॥
मव 'बत् अन्क के हरुष' ॥२४४॥ रव'दोळे गुवेनिन्दुम् (४८)नास ॥२४५॥ विगळन्कद भरी भूवलय ॥४४६।। स पार्थ सिद्धियोळ हमी वर देवरु । निहिसुतलिह हे म* मे ॥ धर्मवयमवदतिशयददीर्घायुवु। निर्मल भक्तरिगहदु ।२४७। प्र वरोळ गरसु आळगळेम्ब भेदवम् । कविमळु कापबुदशक य* अ॥ अवरनतेकरमाटवेशभाषेयजन । दघरेललशाश्षद सुखचि ।२४८। यशकीरतियल्लद यशकीर्ति नामद । हेसरिन कोद अय् अ व वशगेयवजनपदविल्लवीनाडिनोळाकुसुमायुधनाळ नेलदोळ् ।२४।। सि* रबोळु परिसिर्द मकुटदोळ केत्तिर्द । वररत्नयुति ह* रिसि ॥ गुरुविनचरणधू लियहोत्तमोधात्क । दोरेय राज्यद'ळ'भूवलया२५० द* रियन्तर नाल्केन्टोम्बत् ऐदोमदु । सरियन्कदक्षर् प्र इळ से ॥ गुरुवेळ एळ नालकोमबतड इन्तागे । कहनाडजनतेय काव्य ॥२५॥ घा रिणियोळ हदिभूरनेअन्क ळ'। सेरिसेनमालवत एन्ट् अम् । शूर दिगम्बररक्षमषद (
प र्षद) (नन्त भूवलय 'ळ' ॥२५२।। ६,४७७+अन्तर १५,६८४+अन्तरान्तर २१६६ = २,२६३० अथवा प्र-ऋ-२,५२,०८१+ळ २७,६३० = २,७६,७११
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तेरहवां अध्याय
भारतवर्ष अढाई द्वीप में है। इस प्रदेश में जितने भी साधु गण हैं। वे उस कठोर तपस्या को सरलता से सिद्ध कर लेते हैं। +६=१८००० वे सभी मोक्षमार्ग के माधन में संलग्न रहते हैं । भारत के मध्य प्रदेश में 'लाड" [अठारह हजार] प्रकार के शील को धारण करके तथा उसके अाभ्यन्तर भेद नामक एक देश है । उस देश में साधु परमेष्ठी मागमानुसार अतिशय तपस्या को भी जानकर परिशुद्ध रूप से निरतिचार पूर्वक पालन करनेवाले अपने करके ऋद्धि के द्वारा अपने प्रात्मिक बल की वृद्धि करते रहते हैं। उन समस्त शिष्यों को भी इसी प्रकार शील को रक्षा करने के लिए सदा उपदेश देते साधुनों का कथन इस तेरहवें अध्याय में करेंगे, ऐसा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य प्रतिज्ञा करते है ।
अठारह हजार शीलों के अन्तर्गत चौरासी लाख भेद हो जाते हैं । प्रकाशमान पात्मज्योति के प्रभाव से आदिकाल अर्थात् ऋषभनाथ भगवान् । उनको उत्तरगुण कहते हैं। इनमें एक गुण भी कम न हो, इस प्रकार पालन से अथवा अनादिकाल अर्थात् ऋषभनाथ भगवान से भी बहुत पहले से इन ! करनेवाले को साधुपरमेष्ठी कहते हैं १६॥ समस्त साधुओं ने (तीन कम नौ करोड़ मुनियों ने) इस शरीर रूपी कारागृह ! ये साधु समस्त दर्शन शास्त्रों के प्रकाण्ड के होते हैं 1७1 से पारम-ज्योति को प्रगट करके मोक्ष पद को प्राप्त किया है। अतः उन सभी । ये साधु सर्प के भव भवान्तरों को अपनो शानयाक्ति के द्वारा जान लेते को हमारा नमस्कार है। क्योंकि इस प्रकार नमस्कार करने पर से गणित है (वर्ष-बाब्द से समस्त तिर्यंच प्राणियों को ग्रहण किया गया है) 101 में न पानेवाले अनन्तज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है ।
उनके मन में जो अनायास ही शब्द उत्पन्न होते हैं वही शब्द शास्त्रों विवेचन:-मूल भूवलय के उपयुक्त दो कानड़ो श्लोकों में से साधुगलि. का मूल हो जाता है ।। हरेरडूवरेतीपदि इत्यादि रूप और एक कानड़ी पद्य निकलता है। उन ४८
ग्राम के वृक्ष में जो फूल (बौर ) द्वारा रासायनिक क्रिया से गगनगाकानड़ी पद्यों के मिल जाने से एक यूसरा और अध्याय बन जाता है। वह मिनी विद्या सिद्ध होती है उस विद्या के ये साजन पूर्णरूप से जाता है। उस अध्याय अन्य स्थान में दिया गया है। उस अध्याय में अनेक भापायें निकलती ।
। विद्या का नाम अनल्पकल्प है ।१०।। हैं । किन्तु उन भाषामों को यहां नहीं दिया है। यही क्रम अगले प्रध्यायों में
में साधु नो () अंकापी भूबलय विद्या के पूर्ण-ज्ञाता हैं, अतः इनकी भी चालू रहेगा।
अगाध महिमा का वर्णन किस प्रकार किया जाय।१११ वे साघु जन अपने आत्मस्वरूप में रत रहकर परिशुद्धात्म-स्वरूप
इन साधुओं का प्रत्येक शब्द सिद्धान्त से परिपूर्ण रहता है। अर्थात् को साधन करते हुए सर्व साधु अर्थात् पांचव परमेष्ठी होकर परम अतिशय रूप
इनके प्रत्येक वचन सिद्धान्त के कथानक ही होते हैं ।१२। से परमात्मा के सदृश होने को सद्भावना सदा करते रहते हैं ।।
। वे साधु पंचमहावतों को निर्दोष रूप से पालन करते हुए क्रमानुगत
इनके एक ही शब्द के केबल श्रवण मात्र से मिथ्यात्वकर्मों का नाश प्राग्मिकोन्नति मार्ग में सदा अग्रसर रहते हैं। मन, बचन और काय गुप्तियों, हो जाता है, तो उनका पूर्ण उपदेश सूनने से क्या होगा के घारक होते हुए उपवास अर्थात् मात्मा के समीप में वास करते रहते हैं। उनके दर्शन मात्र करने से कर्मरूपी समस्त बनों का नाश हो जाता साघुओं के गुणों के कमन करनेवाली विधि को उपक्रम काब्य कहते हैं। यही है ।१४। श्री भूवलय का उपक्रमाधिकार है ।४।
भेद और प्रभेदरूपो दो प्रकार के नय होते है। उन दोनों नयों में में उनके तपश्चरण को देखकर सब पाश्चर्यचकित हो जाते हैं, किन्तु | साधुपरमेष्ठी निष्णात है।१५।
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सिरि भूरा
सर्वार्थ सिद्धि संच बैंगलोर पिल्ली ये साधु नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, पाब्द, समभिरूट पोर एवंभूत ।। मतः वे पात्मिक बलशाली थे । इन मुनियों को जंगल में पानेवाले राजाइन सात नयों में परम प्रवीण हैं।१६।
घिराज बड़ी भक्तिभाव से पाहार देते थे। अतः ये आत्मिक बल के साथ ये साघु ज्योतिष विद्या के अष्टांगनिमित्तहान में प्रत्यन्त कुशल होते शारीरिकादि से भी बलशाली ये 1३०
अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग ज्ञान से विभूषित होते हुये ये महात्मा प्रात्मये साधु वादी-प्रतिवादी को विद्या को स्तम्भन करने में बहुत चतुर है । ध्यान से कदापि नहीं विचलित होते थे। ऐसे ज्ञानी साधु परमेष्ठी उस जंगल में अथवा भूत प्रेतादि ग्रहमणों को भी स्तम्भन करने वाले हैं 1१८॥
सिंहतीर्थ नामक पवित्र स्थान में तपस्या करते थे। इन पंचपरमेष्ठियों "की इन साघुषों ने मोहन, बशीकरण आदि विद्यामों में अत्यन्त प्रवीणता! माज्ञा पाते ही जंगल में रहने वाले सभी साधु घनघोर तप करने के लिये तयार प्राप्त की है अथवा बन्ध करनेवाले को मोहन करके अपनी ओर आकर्षित हो जाते थे और उस तप को करके प्रखर ज्ञान को प्राप्त कर लेते थे। इस करके उन्हें अपना शिष्य बनाने में भी ये निपुण हैं ।१६।।
प्रकार समस्त तपस्वी उस सिंहतोयं तपोभूमि में अत्यन्त धन घोर तप करके ग्रहादि को आकर्षण करने में भी ये अत्यन्त निपुण हैं ।२०।
। अपने प्रात्मबल को बढ़ाने बाले थे ।३१। और ग्रहादि का उच्चाटन करने में भी ये अत्यन्त समर्थ हैं ।२१॥
ऐसे उत्कृष्ट ज्ञानादि शक्तियों के धारी होने पर भी वे साघु ज्ञान मद और समस्त मन्त्रों को साध्य करने में ये अत्यन्त निपुण हैं ।२२।
1से नर्वथा रहित रहते थे। ऐसे परमेष्ठियों के कर-पात्र में दिए हुए पाहार को समस्त अर्थ को सिद्ध करनेवाले इस साधु परमेष्ठी को सिद्ध भगवान
देखकर वे इस प्रकार विचार करके ग्रहण करते थे कि यह सात्विक माहार भी कहते हैं ।२३।
निर्मल ज्ञान की उन्नति करने वाला नहीं है, यह केवल जड़ शरीर को ही अवलय में जैसा चक्रबन्ध है उसो रीति से आत्मिकगुणों के चक्ररूपी पुष्टि करने वाला है और पात्मा के द्वारा उत्पन्न हुआ शानामृत ब्राह्मण भन्न बन्ध में पवन के समान घूमने वाला है ।२४॥
आत्मा को पुष्टि करने वाला है। जड़ शरीर और पात्मा को भिन्न रूप ये साधु दान देने में अत्यन्त प्राज्ञ हैं और संसार में सभी लोगों के द्वारा
समझकर पुद्गल अन्न पुद्गल को पात्म स्वरूप से उत्पन्न अन्न प्रात्मा को
समझकर पुद्गल अन्न पुद्गल 'दान दिलाने में बड़े बिलक्षण हैं 1२५॥
अर्पण करने वाले महापुरुषों को आहार देने का शुभ-समागम अत्यन्त पुण्योदय
1 से ही प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं ।३। जंगलों में समस्त जीबों के बीच चक्रवर्ती सिंह है और उसमें रहने वाले
जिस प्रकार गजराज बड़े गौरव के साथ दिए हुए भोजन को गोरता सपस्वी जन उस सिंह से भी पूज्य है। किन्तु सिंह और उन समस्त साधुनों से।
पूर्वक ग्रहण करता है उसी प्रकार ये साधु गंभीर मुद्रा से खड़े होकर प्रात्मोन्नति भी सेव्य ये पंचपरमेष्ठी हैं ।२६॥
1 के लिए पाहार ग्रहण करते हैं, आहार के लोभसे नहीं । इसीलिए रात्रि में पान ये साध गण सर्वदा तपोवन रूपी साम्राज्य का पालन करने वाले हैं। करने पर उनकी प्राध्यात्मिकता अदभुत रूप से चमकने लगती है।३३। अर्थात् स्थावर आदि समस्त जीवों की रक्षा करने वाले हैं।२१-२८
I नी पागम निक्षेप दृष्टि से ये साधु परमेष्ठी ऋषभ के समान भद्रतापूर्वक हजारा वषा से हजारा मुान इस भूवलय अन्य का उपदण दत हय इस मन से द्वादशाङ्ग श्रुत का चितन करने लगते हैं। तब अक्षर ज्ञान उत्लन्न हो जाता लिखते आये हैं ।
है। प्रक्षर के प्रथं का वर्णन पहले किया जा चुका है। प्रतः वही अक्षर ज्ञान उसो जंगल में ये साप जन मनुष्य तिर्यञ्च और देवों को उपदेश देते रात्रि के समय उन साधनों के हृदय-कमल में अनक्षर रूप बन जाता है ।३४१ हुये अपने प्रात्मावलोकन में लीन रहते थे और ज्ञान दर्शनादि अनान गुणों। इस तपस्या में निश्चल भाव से ये माधु परमेष्ठो रत रहने के कारण का उपयोग रूपी पाहार पात्मा को देते हुये जंगलों में विचरण किया करते ' तपो राज्य के स्वामी कहलाते हैं ।२५॥
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१६
सिरि मूक्लय
सर्वार्थसिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली त्रु परमेष्ठी अतिशय गुरगों के राजराजेश्वर हैं ।३६१
___ इन याचार्यों के साथ वार्तालाप करते समय इनके पास बैठे हए अन्य विस प्रकार पट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने पर चक्रवर्ती पद चक्री को। कविगण भो वीतराग से प्रभावित हो जाते थे और उस प्रभाव को देखकर ये प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जीव स्थानादि षट्खण्ड अपने मस्तिष्क में सारण प्राचार्य इसे विशेष रूप मे गौरव प्रदान करते थे।४५॥ करने के कारण और तपीराज्य में परमोत्कृष्ट होने से चक्रवर्ती कहलाते। इन महात्मानों ने ब्रह्मक्षवियादि चारों वर्गों के हितार्थ अपनी अनुपम हैं।३७
क्रियापों से संस्कार किया था ।४६। इन साधु परमेष्ठियों में नवमांक पा से सिद्ध की हई द्वादशांग वाणी। ये मुनिराज एक ही समय में उपदेश भी देते थे और शास्त्र लेखन अर्थात् भूवलय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।३८॥
कार्य भी करते थे।४७।। ये साधु परमेष्ठी समस्त गुरुकुल के अजानाम्धकार को नाश करने वाले यव मात्र भी कर्म का वंध ये नहीं करते थे।४। चन्द्रमा के समान हैं ।३।।
ये साधु समस्त विश्व को शान्ति प्रदान करने वाले थे। अर्थात् समस्त इस गुल्लुस में जो कविगण रहते है उनका उद्धार करने वाले साधा भूमंडल को सुख-शान्ति देने वाले थे।४।। परमेष्ठी है ।४।।
इन मुनिराजों के प्रादि पुरुष श्री वृषभदेव तीर्थकर के प्रथम गलघर इन मुस्कुलों में सिंहासन पर विराजमान होकर राजाधिराजों से सेव्य । श्री वृषभसेनाचार्य थे ।५०। मलेक मुष विद्यमान थे। वह इन्द्रप्रस्य से लेकर महाराष्ट्र तामिल और वृषभसेनाचार्य से लेकर चौराशी गणधर इन सा परमेष्ठियों के कर्णाटक देश में प्रख्यात अनेक गुरुपीठों को स्थापित किया था । इस गुरुकूल के प्रादि पुरुष थे ।५१॥ मुनि संघ में समस्त भव्य जीव समावेश होकर अपने जीवन को फलीभूत बनाने
। चतुः संघ में ऋषि, आर्यिका, श्रावक और थाविका ये चार प्रकार के के लिए यात्म-साधन का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे।
भेद होते हैं। उन वृषभसेनाचार्य के समय में सौन्दरी देवी और ब्राह्मी देवी के इसलिए इन्हें देश-देशों से पाये हुए श्रीमान् नथा धीमान सभी व्यक्तियों दोनों पार्यिकायें यों। इन्हीं दोनों त्यागी देवियों का सर्व प्रथम स्थान स्वामी मे मयाह कल वृक्ष अर्थात् अन्न दान देनेवाले कल्प वृक्ष से नामाभिधान । महिलाओं में था ।५२स किया था।४१॥
इन दोनों प्रादि देवियों ने सर्व प्रथम श्री भूवलय का पाख्यान प्रादि देहली रावधानी को पहले इन्द्र प्रस्थ कहते थे। आकाश गमन ऋद्धि से तीर्थकर श्री ग्रादि प्रभू ले भरत चक्रवर्ती तथा गोम्मट देव के साथ सुना का। पाकर इस सेन गरण वाले मुनियों द्वारा जैन धर्म को प्रभाबना होतो यो ।४। यद्यपि यह बात हम ऊपर कह चुके हैं, तथापि प्रसंगवश यहां हमने इंगित कर
प्राचीन कालीन चक्रवत्तियों का रामिहामन नवरत्नों से निर्मित था। दिया ।५३, और उन चक्रवतियों ने इन परम पूज्य मुनीश्वरों को प्रवाल मरिण का सिंहासन! इन्हीं ब्राझी पौर सुन्दरो देवी से लेकर प्राचार्य श्री कुमुदेन्दु पर्यन्त बनवा कर प्रदान किया था और वे सदा जम सिंहासन को नमस्कार किया FREERE गणनीय प्रायिकायें बों ।५४। करते थे।४३॥
यह सब चतुःसंघ सरल रेखा अर्थात् महावत के मार्ग से हो विचरण इन मुनिराजों की ख्याति सुनकर ग्रीक देशीय जनता पाकर इनके | करता हा संयम पूर्वक नियत विहार करता था। इनके साथ चलने वाले धर्मोपदेश का श्रवण, पूजन प्रादि करते थे अतः ये यवनी भाषा में वार्तालाप बहुत बड़े-बड़े मालिशाली व्यक्ति भी पीछे पड़ जाते थे। उन साधुओं को गति करते हुए अनेक यावनो अन्यों की रचना भी करते थे।
1 इतने वेग से होती थी कि मृग और हरिण को चाल भी इनके सामने फीको
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सिरि मृगनय
सर्यि सिद्धि संच बैंगलोल विम्ली प्रतीत होती थी। इतने वेग से गमन करने पर भी वे जरा भी थकित न होकर १ ला आहार, वस्त्र तथा वसतिका मादि के याचक और दूसरा मान श्रावकों को मार्ग में चलते २ उपदेशामृत भी पिलाते जाते थे।५५॥
पिपासु । ज्ञान पिपासु भिक्षु समस्त तत्त्वों की कामना करते हुये गुरु के उपदेश से इन माधु परमेष्ठियों के असहश करुणा होती है। इनका दयाभाव । अथवा अपने शुभ ब शुद्ध ध्यान से अभीष्ट पद प्राप्त कर लेते हैं। मानवों तक ही सीमित नहीं बल्कि ममस्त जीव मात्र से रहता है। ये पूर्यो- इन तस्वान्वेषी साधुओं के मात्मिक ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान पाजित तप के प्रभाव से दया घन बन गये। धन का अर्थ समस्त आत्म प्रदेशों । अत्यन्त प्रतिभा शालो होता है। और जब ये महात्मा ध्यान में मग्न हो जाते में दया भाव अखंड रूप से व्याप्त हो जाना है। जिस प्रकार गाय फसल को।हैं तब इनकी आत्मा के अन्दर ज्ञान की किरणें घवल रूप से झलकने लगती समूल नष्ट न करके केवल छाल को खाकर सन्तुष्ट हो जाती है तथा उसके हैं।५६। बदले में अत्यन्त मधुर, पौष्टिक एवं समस्त जन कल्याणकारी पय प्रदान करती। ये साय शिष्यों की रक्षा करते समय किसी प्रकार का रंचमात्र भो रोष है उसी प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक धावकों के द्वारा दिये गये नीरस माहार नहीं करते । इनका स्वरूप सदा तेज पुज से पूरित रहा करता है। जिस प्रकार को साधु जन ग्रहण करके सन्तुष्ट हो जाते हैं तथा उसके बदले उन्हें ज्ञानामृत । सागर समस्त पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर रक्षा करता रहता है उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है जो कि स्व-पर कल्याणकारी होता है ।५६।
ये साधु परमेष्ठी समस्त शिष्य वर्गों को अपने ज्ञान रूपी दुर्ग के द्वारा सुरक्षित इस संसार में प्राय: सभी लोग एकान्त में भोजन ग्रहण करते हैं किन्तु रखकर आत्मोन्नति के मार्ग को प्रतीक्षा करते रहते हैं। और ऐसा करते हुये साधुषों के लिये अपने मात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई एकान्त स्थान कहीं भी भी अनादि कालीन अपनी आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों के साथ सामना करके नहीं है। अत: वे गोचरी वृति से सर्व समक्ष प्राहार ग्रहण करते हैं। इस विजय प्राप्त करते रहते हैं।६०॥ प्रकार का ग्रहण किया हुमा माहार निरीह वृत्ति कहलाता है। इन साधुजनों पांचो परमेष्ठियों में ये साधु परमेष्ठी पांचवें हैं। प्राचार्य कुमुदेन्दु ने को प्राभ्वन्तरिक ज्ञानामृत आहार परम प्रिय होने के कारण पोद्गलिक जडान वषभ सेनादि ८४ के बाद गौतम गणधर तक और उनके समय से अपने समय माहार ग्रहण करते समय यह पता ही नहीं चलता कि "हम पाहार ग्रहण तक सभी प्राचार्यों ने भूवलय के अंग ज्ञान की पद्धति किन २ प्राचार्यों में थी कर रहे हैं।" क्योंकि इनका लक्ष्य केवल प्रात्मा की ओर ही प्रतिक्षण रहा 1 इत्यादि का निरूपण करते हुये दूसरा नाम केदारीसेन तोसरा नाम चारसेन करता है। ध्यानाध्ययन में किसी प्रकार की कोई वाघा न हो, इस कारण आदि क्रम से बज्रचामर, वनसेन, बज्जचामर, वां ग्रदत्तसेन, जलसेन, ये मुनिराज प्रमाण से कम अर्थात् अर्द्ध पेट अवमौदर्य वृत्ति से आहार ग्रहण 1 दत्तसेन, विदर्भ सेन नागसेन, कुन्थुसेन धर्मसेन, मन्दर सेन, जै सेन सद्धर्म सेन, करके तपोवन को गमन कर जाते हैं ।५७1
चक्रबंध, स्वयंभू सेन, कुभसेन, विशाल सेन, मल्लि सेन, सोमसेन, वरवत्त .. ये साघु जन कुनय (दुर्नय) का छेदन-भेदन (नाश) करके अनेकान्तवाद । मुनीन्द्र, स्वयं प्रभारती, इन्द्रभूति, विप्रवर, गुरुवंश, सेनवंश इत्यादि १५६१ धर्म का प्रचार करते हुये किसी का माधय न लेकर पवन के समान स्वच्छन्द मुनीश्वर सेनगण में भूवलय के ज्ञाता साघु-परमेष्ठी थे। ६१ से लेकर ८८ होकर अकेले विहार करते रहते हैं। अनेकान्त धर्म का अर्थ अखिल विश्व । तक श्लोक पूर्ण हया। कल्याणकारी धर्म है। एसा सदुपदेश देने वाले इन साधु परमेष्ठियों को पांचवां विवेचन:-यह आचार्य परम्परा मूलसंघ के प्राचार्यों की होती हुई इतिपरमेष्ठी कहते हैं।५।
हास से पूर्व काल से लेकर आई हुई मालूम पड़तो है। इस सम्बन्ध में हम ये साधु परमेष्ठी मानव रूपी भिक्षु हैं । भिक्षु शब्द के दो भेद हैं:- अन्वेषण करते हुये महान् महान् इतिहासज्ञों से वार्तालाप किये । तो उस वार्ता
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बिरि भवाय
सपा सिदिसंबगौरविल्या
लाप का भाव यह निकला कि ये १५६१ मुनि प्राचार्य कुमुदेन्दु के ही सम- दीप्तिमान नब रत्नों को एक ही प्राभरण में यदि जड़ दिया जाय तो कालीन महा मेधावी, प्राचार्य के ही शिष्य थे। इन सब के साथ प्राचार्य कुमु-1 उनकी पृथक पृथक प्रभा एकत्रित होकर अनुपम प्रकाश देतो है इसी प्रकार ज्ञान देन्दु विहार करके मार्ग में समस्त आचार्यों को मरिणत पद्धति मिसलाते हुये की विभिन्न किरणों को श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के १५६१ शिष्यों ने ग्रहण किया समस्त भूवलय ग्रन्थ की रचना चक्रबंध क्रमानुसार सभी भाचार्यों सं करवाये। और कुमुदेन्दु प्राचार्य ने उन ज्ञान किरणों कोएकत्रित करके इस भूबलय सिद्धान्त १६२४६४=१०३६८ अर्थात् श्रीमद् भगवद गीता के १६२ लोक लो भवनय । अन्य का रूप दिया जिसमें कि विश्व का समस्त ज्ञान निहित है। . . . के ६४ अक्षरों से गुणा कर दिया जाय तो एक भाषा अर्थात् गीर्वाण भाषा ! में ऋग्वेद बन जाता है। इस प्रकार की विधि से प्राचार्य श्री कुमुदेन्दु ने अपने ! केवल ज्ञान अक्षर (अविनश्वर) है सी प्रकार भूवलय का अंकात्मक जान अक्षर एक शिष्य को उपदेश दिया। तो उस मेधावी शिष्य ने एक ही रात्रि में उप-11विनावर युक्त अका का रचना चक्रवध रूप में करक दिखा दिया। इसी गति से दूसर। जिस प्रकार भूमि के अन्तरंग बहिरंग रूप में पदार्थों को धारण करने कंप शिष्य को १९२४५४ वही १०३६% अंकों का उपदेश देकर कहा कि अच्छा
। सहन शक्ति विद्यमान है उसी प्रकार मुनियों के अन्तरंग-बहिरंग समता भावों में सुम अपनी बुद्धि के अनुसार बनायो। गुरु देव की आज्ञा पाते ही दूसरे शिष्य
अनुपम सहनशक्ति विद्यमान रहती है । उस परम समतामय मुनिराजों के द्वारा ने भी फल स्वरूप श्री वेद व्यार, महर्षि निरचित महाभारत अर्थात् वयाख्यान इस भूवलय की रचना हुई है ।।२।। तथा उसके अन्तर्गत पांच भाषानों में श्री मदभगवद् गीता के अंकों को चक्र-1
। जिस प्रकार अनियत घूमने फिरने वाला सर्प यदि किसी के घर में पा बंच रूप में शीघ्र ही बनाकर श्री गुरु के सम्मुख लाकर प्रस्तुत किया। इसी
जावे तो उसके विषमय दन्त उखाड़ देने पर बह किसी को कुछ भी बाधा रीति से १५६१ महामेधावी मुनि शिष्यों को रचना के लिये दे देने से सभी
नहीं दे पाता उसी प्रकार अनियत स्थान और बसितका में विहार करने वाले ऋषियों ने एक ही दिन में महान अद्भुत भूवलय ग्रन्थ को विरचित करके गुरु
योगी जन विषय-वासनामों के विष को दूर कर देने के कारण किसी भी प्राणी को प्रदान कर दिया । तब कुमुदेन्दु मुनि ने समस्त मेधाबी महर्षियों की वाक
के लिए अहित कारक नहीं होते।६३। प्यक्ति को एकत्रित करके अपने दिव्य ज्ञान से अन्नमुहूर्त में इग भूवलय ग्रन्थ की ! रचना की। वह चक्रबन्ध १६००० संख्या परिमित है।
जिस प्रकार भूमि को छिन्न-भिन्न करने पर भी भूमिगत पाकाश छिन्न
भिन्न नहीं हुआ करता उसी प्रकार साधु गण शरीर के छिन्न-भिन्न होने पर अपने अपने कर्मानुसार मानव पर्याय प्राप्त होती है ऐसा सोचकर तपो
भी अपने अनुपम समता मय भावों में स्वावलम्बन रूप से अपने गुणों द्वारा बन में तपस्या करते समय मुनिराज मेरु पर्वत के समान अकम्प (निश्चल) रहते
पाना को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखते हैं। ऐसे मुनिराजों के द्वारा इस भूवलय है। तथा अपने पात्मिक गुरणों को विकसित करते हुये मोहकर्म को जीत लेते।
का निर्माण हुा ।१४। हैं. 1 जिस प्रकार गत्रि में चन्द्रमा अपनी शीतल चांदनी के द्वारा स्वयं
I वे मुनिराज सदा सर्वदा केवल मोक्ष मार्ग के अन्वेषण में हो तत्पर रहते प्रशान्त रहकर समस्त जीवों के संताप को हर लेता है उसी प्रकार साधु जन
हैं। तपस्या में शालवृक्ष के समान कायोत्सर्ग में खड़े होकर वे मुनिराज निश्चल सिंह विक्रीडितादि महान महान यतों द्वारा स्वयं प्रशान्त रहकर अन्य जीवों का भाव से तप करत ह । भी शान्ति प्रदान करते हैं। अतः उनकी बुद्धि रूपी संपत्ति सदा चमकती। ऐसे साधु परमेष्ठी इस कर्म भूमि में रहने पर भी संपूर्ण कर्मों से रहित पही है 101
होते हैं। और मार्ग में बिहार करते समय राजा-रंक के द्वारा नमस्कार किये
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करते ।..
सिरि मृवलय
सार्थ सिद्धि संघ बैगलोर-दिल्या जाने पर समदर्शी होने के कारण किसी के साथ लेश मात्र भी राग द्वेष नहीं! इस रीति से बनारस में वाद-विवाद करते रहने से जैनियों के पाठव तीर्थंकर
चन्द्रप्रभु तथा चौबों के चन्द्रशेखर भगवान एक ही होने से "हरशिवशंकर उत्कृष्ट कुल में उत्पन्न हुये साधु जन वर्णनातीत है। अत: उन्हें ऊँच गरिएत" ऐसी उपाधि इन मुनीश्वरों को उपलब्ध हुई थी। इसी गणित शास्त्र नीच कुल के चाहे जो भी नमस्कार करें उन सबको दे समान समझते थे। इसके द्वारा मुबलय ग्रन्थ की रचना तथा स्वाध्याय करने के कारण इन्हें "भुवलयर" प्रकार तीनों कालों में इन साधुनों का चरित्र परम निर्मल रहता है।६ नाम से भी पुकारते थे।६७ से १६६ तक श्लोक पूर्ण हुमा ।
इनके अतिरिक्त और भो अनेक साधु श्री कुमुदेन्दु मुनि के संघ में थे। भवलय की रचना में "पाहुड" वस्तु “पद्धति" इत्यादि अनेक उदाहरण वे भी सेनगण के अन्तर्गत ही थे। ये सभी मुनि नरकादि वर्गतियों का नाश हैं। ये कर्मभूमि के अर्द्ध प्रदेश में रहनेवाले जीवों को उपदेश देने के लिए सांगत्य करनेवाले थे। इनका वर्णन निम्न प्रकार है:
नामक छन्द में पद्धति ग्रन्थ की रचना करते थे। उस पन्थ में विविध वायुभूति कमल पुष्प के समान सुशोभित चरण हैं जिसके ऐसे अग्नि भाषाओं में शुद्ध चैतन्य विलसित लक्षण स्वरूप परमात्मा का ही वणन पर्थात् भूति, भूमि को छोड़कर अधर मार्ग गामी सुधर्म सेन, वीरता के साथ तप करने
। अध्यात्म विषय ही प्रधान था ।१२०॥ बाले मार्य सेन, गणनायक मुडी पुत्र, मानव कल के उसारक मैत्रेय सेन नरों। वे महात्मा सदा परमात्मा के समान सन्तोष धारण करके प्रारमतत्त्व में श्रेष्ठ प्रकम्पन सेन, स्मरण शक्ति के धारक अन्न सेन गुरु, नरकादि दुःखों । रुचि से परिपूर्णं रहते हैं और सम्यग्दर्शन का प्रचार करते हुए दर्शनाचार से से मुक्त अचल-सेन, शिष्यों को सदा हषित करने वाले प्रभाव सेन मुनि इन 1 सुशोभित रहते है ११२१॥ 'समस्त मुनियों ने पाहुड ग्रन्थ की रचना की है।
उन महर्षियों के मन में कदाचित् किसी प्रकार की यदि कामना उत्पन्न - प्रश्न-पादृष्ट ग्रन्थ की रचना क्यों की गई ?
हो जाती थी तो वे तत्काल ही उसे शमन करके उस कामना के विषय को उत्तर-केवल ज्ञान तथा मोक्ष मार्ग को सुरक्षित रखने के लिये इस जन्म पर्यन्त के लिए त्याग देते थे और अपने चित्त को एकान करके समताभाव पाहुड ग्रन्थ की रचना की गई। इन मुनियों के बाग्बाण से ही शब्दों को रचना पूर्वक आत्मतत्त्व में मग्न होकर प्रानन्दमय हो जाया करते थे ।१२२। हो जाती थी । अतः जनता इन्हें दूसरे गणधर के नाम से संबोधित करती थी। तब उन महात्माओं का विश्व व्यापक ज्ञान प्रात्मोन्नति के साथ साथ
उस उस काल के धारणा शक्ति के अनुसार गणित पद्धति के द्वारा । अलोकाकाश पर्यन्त फैलता जाता था। और प्रकाश के फैल जाने पर भेद अङ्गज्ञान से वेद को लेकर वे साधु ग्रन्थों की रचना करते थे । अर्थात् मन्त्र । विज्ञान स्वयमेव झलकने लगता था । तथा शुभाशुभ रागाद समस्त विकल्प
कालीन महाभाषानों के वे साध जन ज्ञाता थे और कार्य परभावों से मुक्त हो जाता था 1१२३। कारण का सम्बन्ध भलीभांति जानते थे । मरक गति से आये हुए समस्त जीवों जब प्रात्मा के साथ परभाव का सम्बन्ध उत्पन्न होता है तब संसार को ज्ञान प्रदान करते हुए वे मुनिराज पुनः नरक बन्ध करने से बचा लेते थे। बन्ध का कारण बन जाता है । किन्तु अपने निज स्वभाव में रहनेवाले उपयुक्त दे समस्त मुनिराज चारों वेद तथा द्वादशांग वाणी के पूर्ण ज्ञाता थे तथा प्रायु। साधुओं के ऊपर लेशमात्र भी परभाव नहीं पड़ता था। संघ में रहनेवाले समस्त के अवसान काल में स्व-पर हित करनेवाले थे। उस प्राचीन समय से बनारससाधु सरल, समदर्शी एवं वीतरागता पूर्ण थे। अतः परस्पर में माध्यात्मिक नगर में वाद-विवाद करके यथार्थ तत्व निर्णय करने के लिए एक सभा की। रस का हो लेन-देन था व्यावहारिक नहीं । सभी साधु निश्चय नय के पाराषक स्थापना की गई थी। उस सभा में इन्हीं सुनीश्वरों ने जाकर शास्त्रार्थ करके थे,१२४॥ आत्मसिद्धि द्वारा प्रकाश डालकर मानवों को कल्याण का मार्ग निर्दिष्ट किया था। कदाचित् इस पृथ्वी सम्बन्धी वार्तालाप करने का अवसर यदि आक
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२०२ - सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली स्मिक रूप से पा जाता था तो वे साधुजन तेरहवें गृणस्थान के अन्त में पाने- श्री अजितनाथ भगवान ने इस भरतखंड में अवतार लेकर धर्म का उत्थान वाले चार केवली समुद्घातों का पृथ्वी सम्बन्धो पात्म प्रदेश को ही विचारते किया तथा सम्मेद मिरव से मुक्ति पद प्राप्त कर लिया ।१३। हुए इस पृथ्वी में रहनेवाली पौद्गलिक शक्ति का चिन्तवन करते हुए पात्मा एक तीर्थकर में लेकर दूसरे तीर्थकर तक अर्थात् श्री मम्भव, श्री का अवलोकन करते रहते थे। अतः सदाकाल संघ सुरक्षित रूप से बिहार अभिनन्दन, श्री सुमिति, श्री पद्मप्रभ श्री सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ थो पुष्पदन्त, श्री करता था । इसका नाम ज्ञानाचार या १२५॥
शीतल, थी यांस, इन सभी तथंकरों ने श्री सम्मेदशिखर पर्वत से मुक्ति प्राप्त समवशरण में लक्ष्मी मण्डप (गन्ध कुटो ) होती है। उसमें भगवान ।
को थी। इनमें से पाठवें तीर्थंकर श्रा चन्द्रप्रभु भगवान श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के विराजमान होते हैं। उसके समीप चारों और बारह कोष्ठक (कोठे) होते इष्ट देव थे, क्योंकि यह पाठवां अंक ६४ अक्षरों का मुल है।१३३ से लेकर हैं, जिनमें से पहले कोष्ठक में मुनिराज विराजमान रहते हैं। इसी के अनुसार १३६ तक। परम्परा से लक्ष्मी सेन गण नाम प्रचलित हुपा । अतः उपयुक्त समस्त प्राचार्य चम्पापुर नगर में श्री वासुपूज्य तीर्थकर नदी के ऊपर अधर [यवान लक्ष्मीसेन गावाले मुनिराज कहलाते हैं । १२६।।
भाग ] से मुक्ति पधारे ।१४०-१४१॥ गौतमादि गणधरों से लेकर उपयुक्त सभी प्राचार्य दिव्य ध्वनि से। तत्पश्चात् श्री सम्मेदशिखर पर्वत के ऊपर श्री विमलनाथ, श्री अनन्त मुने हुए समस्त द्वादशांग रचना के क्रम को नौ (8) अंकों के अन्दर गभित नाप, यो धर्मनाथ, श्री शान्तिनाय, श्री कुन्थुनाव, श्री अर्हनाथ, श्री मल्लिनाथ करनेवाली विद्या में परम प्रवीण थे अर्थात् भूवलय सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञानी । मुनि सुवतनाथ, श्री नमिनाथ इन सभी तीर्थकरों ने श्री सम्मेदशिखर गिरि से. थे।१२७-१२८॥
मुक्तिपद प्राप्त की थी । और श्री नेमिनाथ भगवान ने ।१४२-१४६। अनादिकाल से लेकर उन प्राचार्यों तक समस्त जीवों के समस्त भवों ऊर्जयन्त गिरि [गिरिनार-जनामदी. पावापर सरोवर के मध्य भाग को जानकर आगामी काल में कौन-कौन से जीव मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे यह ! से श्री महावीर भगवान् तथा श्री सम्मेद शिखर जी के स्वर्ण भद्र टोक से श्री भी बतलाकर वे प्राचार्य सभी का उद्धार करते थे ।१२।।
पाथर्वनाथ भगवान मुक्त हुए थे ।१४७-१४८। ये साधु परमेष्ठी अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म इन। विवेचन-श्री पार्श्वनाथ का नाम पहले पाकर श्री महावीर भगवान चारों के मंगलस्वरूप है। इसका प्राकृत रूप इस प्रकार है-"अरहन्त मंगवं. 1 का नाम बाद में माना चाहिए था पर ऊपर विपरीत क्रम क्यों दिया गया? सिद्धमंगल, साहुमंगलं, केवलीपष्लत्तो धम्मोमंगलम्' |१३०॥
इस प्रश्न का अगले वंड में स्पष्टीकरण करते हुए श्री कुमुदेन्दु पाचार्य विवेचन-प्रद श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जा उपयुक्त साधु परमेष्ठियों को । लिखते हैं कि श्री सम्मेदशिखरजी का स्वणभद्र कूट [भगवान् पार्श्वनाथ का चौबीस तीर्थकरों का स्वरूप मानकर २४ नोकरों का निरूपण करते हुए मुक्त स्थान सबसे अधिक उन्नन है मन एव वहां पहुंचकर दर्शन करना बहुत उनके निर्वाण पद प्राप्त स्थानों का वर्णन करते हैं।
कठिन है। [ इस समय तो चढ़ने के लिए सीढ़ियां बन जाने के काररप मर्म.. कैसासगिरि से श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर मुक्ति पद प्राप्त किए भगवान् । कुछ सुगम बन गया है किन्तु प्राचीन काल में सीढ़ियों के प्रभाव से वहां मे श्री ऋषभदेव सर्व प्रथम तीर्थकर तथा भूवलय ग्रन्थ के प्रादि सृष्टि पहुंचना अत्यन्त कठिन था] उस कूट के ऊपर पहले लोहे को सुवर्ण रूप में कन्थे ।१३॥
परिणत कर देनेवाली जड़ी-बूटियां होती थीं, अतः सुवर्ण के अभिलायो बकरी इसके बाद दूसरे तीर्थकर के अन्तराल काल में धर्म धीरे घटता चला। पालनेवाले गणेरिये बकरियों के खुरों में लोहे की खर चढ़ाकर इसी कूट के या । और एक बार पूर्ण रूप से नष्ट सा हो गया था । तब दूसरे तोयंकर उपर उन्हें चरने के लिए भेज दिया करते थे जिससे कि वे घास-पत्ती वरती
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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिदि संघ बैंगलोर-दिल्ली घरती उन जड़ी बूटियों पर जब अपनी खुर रखती थीं तब उनके लोहे के तुर इस तरह पात्म भावना में ही लीन होते हुए तीर्थकर परमदेव नवमांक सोने के बन जाया करते थे। इस कारण इस कूट का नाम स्वणं भद्र प्रख्यात । महिमा के साथ जगत के तीनों लोकों का पूर्ण रूप से निर्वाह करते हुए तथा हमा पीर इसी कारण भगवान पाश्वनाथ का नाम ग्रन्थकार मे अन्त में प्रात्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप को भीतर मे उमड़कर बाहर आनेके समान तपस्या दिया है।
को करते हुए और उसी तरह भव्य जनों को भी प्राचरण करने का उपदेश इन सभी तीर्थकरों ने शुद्धात्म भावना से इस पृथ्वी और शरीर के मोह तथा आदेश करते हुए उत्तम तप में सभो भब्य जीवों को तृप्त करते हुए जगत को छोड़कर निवृत्ति मार्गको अंगीकार करके उस मध्धाश्म के प्रानन्द से उत्पन्न । को आश्चर्य चकित करते हुए उनके मनको विशाल करते हुए सम्पूर्ण जोव हए स्वाभाविक प्रात्मिक ऐश्वर्य के समान रहनेवाले मोक्ष पद को प्राप्त किया। समान हैं. ऐसी प्रेरणा करते हए प्राचार सार में कहे हए तपश्चर्या के मर्म का है । अतः इन तीर्घकरों को जगत के सभी कवि नमस्कार करते हैं ।१४६।
अनुग्रह कराते हुए ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, और तपाचारादि इन पांच ये जिस सुख के अनुभव में रहते हैं वही सुख सम्यक्त्व चारित्र प्राचार को जनता में स्थापना कराते हा सामायिक प्रति क्रमणादि क्रियाओं कहलाता है। उस पवित्र चारित्र के मर्म को अपने अन्दर पूर्णतया भरे रहने को करते समय शक्ति को न छिपाते हए पाचरण करना चाहिए । इस प्रकार के कारण उनको परम शुद्ध निर्मल जीव द्रव्य कहते हैं। इस तरह निर्मल । उपदेश करती हुए तीनों संध्याकाल में देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिकसंववर्तना में रहनेवाले तीर्थकर भगवान के निश्चय चारित्र में लीन होने के कारण सरादिक केसमय में अहंत सिद्ध चौबीस तीर्थकरादि गुणों के समान अपने मात्मा शेष बचे हए अधाति कर्म स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। हमारे समान उन लोगों के अन्दर अनरल परास्तव, वस्तु स्तब, रूपस्तव इत्यादि गुरखों की
करने की जरूरत नहीं पड़ती और न उन्हें हमारे समान भावना करने का उपदेश देते हैं । १५४ से १६६ तक। किसी व्यबहार धर्म को पालन करने की आवश्यकता रहती। इसलिए वे पर वस्तु को भूलकर समस्त शुद्ध जीव के समान मेरी प्रात्मा इसी समवशरण में सिंहासन पर रहनेवाले कमल पुष्प को स्पर्श न करते हुए चार तरह परिशुद्ध है. ऐसी भावना करते हुए निश्चय चारित्र में अपनी शक्ति को अंगुल अघर रहते हैं ।१५०-१५१॥
1 वैभवशाली समझकर महान वैभव संपन्न पांच चारित्र पाराधना अर्थात् सिद्धांत जैसे कमल पत्र के ऊपर रहनेवाली पानी की बूद कमल पत्र को स्पर्श मार्ग के अदभुत और अनुपम जानाराधना दर्शनाराधना चारित्राराधना, तपानहीं करती तथा पानी में तैरती हुई मछली के समान कमल पत्र के ऊपर पड़ी । राधना, और बीयाराधनादि का अत्यन्त वर्णन के साथ उपदेश करते हुए रथ हुई पानी की दूदें तैरती रहती है उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान भी समव- के कलश के समान रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप के निश्चय स्थान अर्थात् सिद्धात्म सरणादि पर द्रव्य में मोहित न होते हुए अपने सारभूत आत्म द्रव्य में ही लीन स्वरूप नाम के एक ही सांचे में ढले हुए शुद्ध सोने की प्रतिमा के समान स्वसमय रहते हैं । समवसरण में देव मानवादि समस्त भव्य जीव राशि विद्यमान होने ! सार के बल से निश्चय नयाबलंबन रूप शुद्ध जीब बन जाता है । तब उनको पर भी वे परस्पर में अभिमान तथा रागद्वेष न करते हुए स्वपर कल्याण की चिरंजीवि, भत्र, शिव, सौख्य, शिव, मंग पीर मंगल स्वरूप कहते हैं। १७२ साधना में मग्न रहते हैं।१५२॥
से १८२ तक। क्रमवर्ती शान को निरोध करते हुए अक्रम अर्थात् अनक्षरान्मक नवजात बच्चे के स्वास चलते रहे तो वह जिन्दा रहेगा ऐसा कहने के सभी की इच्छाओं को एकीकरण करके सम्पूर्ण ज्ञान को एक साथ निर्वाह करते अनुसार सम्यक्त्व के प्रभिमुख जोव को मोक्ष में जाकर जन्म लिया, ऐसा हुए तोकर परमदेव समस्त संसारी भव्य जीवों को अपने अमृतमय बाणी के समझना चाहिए । तब वह जीवात्मा स्वयं स्वयंभू अर्यात् स्वतन्त्र होता है, ऐसा द्वारा उद्धार करते हैं। इस क्रम से समस्तजीव एक साथ अपने अपने अनाचनतं समझना चाहिए। तब करनेवाले जितने भी कार्य हैं वे सभी विज्ञान मय होते स्वरूप को जानकर छोड़ देते हैं ।१५३॥
हैं और समस्त पृथ्वी के सार को समझकर ग्रहण कर लेता है। वह संसार
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२०४ .. सिरिभवल्य
सर्वार्थ सिखि संच बैंगलौर-दिल्ली के सुख को अनुभव करने पर भो आत्म समाधि में लीन होकर धर्म साम्राज्य , में यदि एक बार जोव गोते लगा ले तो वह शीघ्रातिशीघ्र संसार सागर से 'का प्रधिपति होता है ।१८३)
पार हो जाता है । वह तीथे अन्यान्य क्रोधादिरूप तरङ्गों से बचाकर अनन्त वीतरागत्व का निश्चय भाव में परिणाम करनेवाले वे साधु परमेष्ठी चतुष्टयरूप आत्मिक संपत्ति को प्राप्त करने वाला बज्र वृषभनाराव-संहवन मात्मसमाधि रूपी समुद्र में तैरते हुए समस्त कर्मों को नावा करते हए. सम्पूर्ण शरीर की प्राप्ति कराके उस जन्म में मुक्ति स्थान में पहुंचा देता है, ऐमा श्री नयोंके विषयों को जानते हुए अपने प्रास्मा में लीन रहनेवाले आत्मा में तीनों । साघु परमेष्ठी उपदेश देते हैं ॥१८॥ काल में संसार में महोन्नत स्थान को प्राप्त होते हैं । ऐसे योगिराज हमेशा । पे साधु परमेष्ठी इहलोक, परलोक, अत्रण, अगुप्ति, प्रागन्तुक आदि जयवंत रहें ।१४।
सात भयों से मुक्त होने के कारण परम पराक्रमी होते हैं। इस प्रकार सात - आसन्न भव्य को उत्पन्न शुद्धात्म प्राप्ति की होनेवाली प्राशा उनके जय | भयों मे रहित रहने के कारण उन साधु परमेष्ठियों का मुख-कमल के कारण होती है हमारे विजय को देखकर भी तू संसार की विषयवासनाओं को प्रसन्नता से परिपूर्ण रहता है। मोक्ष स्थान में सदा प्रसन्नता-पूर्वक नहीं छोड़ता ? परम पवित्र सर्वमाधु परमेष्ठियों के पवित्र पुण्य चरणों में अपने रहना हो जीव का नैसर्गिक स्वभाव है । संसारावस्था में रहने वाले सभी उपयोग को लगाकर अगर तू पूजा करते तो तुम्हें उन समस्त याचरणों का जीवों के शारीर में खंड २ रूप से शरीर के अन्दर छिद्र रहते हैं। पर मुक्कामार्ग तथा निर्भर भक्ति पा जाती। इसलिए पाप मन वचन और काय मे पंचवस्था में ऐसा नहीं रहता। क्योंकि वहां पर जीव अखंड घनस्वरूप में रहता परमेष्ठियों के पवित्र चरणों की निर्भर भक्ति से आराधना करो।१५] है। किसी के सम्पर्क में न रहने से प्रखंड स्वरूप रहना शुद्ध वस्तु का स्वभाव
समस्त द्वादशांग वाणी के मर्म को जानकर उस मार्ग से तू श्रम रहित । ही है । मुक्ति में सदा काल जीव मात्मा से उत्पन्न हुये ग्रानन्द में तल्लीन रहता चलते हुए पाने से पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करना, स्तुति करना, स्मरण है। वे महापराक्रमी सिद्ध जीव चैतन्यस्वरूप से रहते हैं और सत्य स्वरूप है। करना, इत्यादि ऋभ को कहे जाने बाने नवमांक गणित से बद्ध होकर हने । उस दुर्लभ सुख में रहने वाले सिद्ध परमेष्ठियों को सर्वसाब परमेष्ठो अपना वाले को श्री भूवलय से आप समझकर उस मार्ग की प्राप्ति कर लो ११८६। सर्वस्व मानकर सदा काल यानी यविरत्न रूप से भक्ति पूर्वक मनन करते है। - मोक्ष दूसरे के वास्ते नहीं है इसलिए वह अन्य किसी दूसरे के द्वारा ये ऋषिगण उन सिद्ध परमेष्ठियों के पद प्राप्ति के निमित त्रिकाल असाधारण प्राप्त नहीं हो सकता । तीर्थकर भगवान भी अपने हाथ से पकड़कर अपने भक्ति करते रहने से वह पद प्राप्त कर लेते हैं। साथ मोक्ष को ले जानेवाले नहीं हैं।
इस संसार में वे साधुगण सविकल्प रूप से दीख पड़ने पर भी अपनी वे भी हमारे समान कटिन तपश्चर्या करके अपने कर्मों की निर्जरा । आत्मसमाधि सिद्धि का महान् साधन संचय करते हैं। वह सामग्री परम दया, करके मोक्ष की प्राप्ति कर लिए हैं। इसी तरह हम लोगों को भी अपने सत्य आदि वास्तविक मामग्री है। उन सामग्रियों से जब प्रन्य रचना करने के स्वार्थ को सिद्ध कर लेना चाहिये । स्वार्थ का अर्थ अन्य जनों के द्वारा अनुभव लिये बैठ जाते हैं तब प्रात्मस्वरूप तथा अखिल विश्व के समस्त पदार्थ स्फटिक करने वाली वस्तु की अपेक्षा करके अनुभव करना है। यह स्वार्थ वैमा नहीं है। के समान झलकने लगते हैं। इस काल में बी घरसेन प्राचार्य ने पांच परमेष्ठियों क्योंकि इससे किसी को किचिद् मात्र भी हानि नहीं पहुंचती । मोक्ष सुख का की भक्ति से निकल कर आने वाले प्रक्षरों घोर अंकों से जिस काव्य की रचना स्वार्थ सिद्ध करने का हक सभी को है। समस्त अज्ञानताओं को नष्ट करके । को है वह प्राकृत, संस्कृत तथा कन्नड इन तीनों भाषाओं मिश्रित अईभाषा हितरूप में तल्लीन होना शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति है ।१८७।
कहलाती है। इस रीति से उन्होंने जो साढ़े तीन (३३) भाषा की रचना की .... सम्पग्दर्शन शान चारित्र रूपी निर्मल जल ही तीर्थ है और उस तीर्थ है वह "पति" नामक छन्द कहलाता है। इस प्रकार रचा हुमा ग्रन्थ भी इस
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मषि सिदि संघ, बी-णिती भूवलय में गभित है। दिशारूपी बस्त्र और करपात्र पाहार ग्रहण करने वाले इस भूवलय के अन्तर्गत पंच परमेष्ठि का बोल्लि सूत्र संक्षेप रूप में भी साधुनों द्वारा अनादि काल से संपादन किया हुमा ग्रन्थसार इस भूवलय में निकलेगा और विस्तार रूप में भी निकलेगा। इस मंगल प्रामृत नामक अन्य में गभित है। उसमें से एक ग्रन्थ का नाम "पंच परमेष्ठी बोल्लि" है। यहां तक जो २४ (चौबीस) तीर्थकरों का बएन है वही पंचपरमेष्ठी अर्थात् अर्हसिद्धा१८६ से लेकर २१२ श्लोक तक पूर्ण हुआ।
पार्योपाध्याय सर्व साधु का गुण वर्णनात्मक है । और दही पंचपरमेष्ठियों के विवेचन-माजकल "पंच परमेष्ठी बोल्लि" नामक कानड़ी भाषा में बोल्लि का विषय है ।२१६॥ जो अन्य मिल रहा है वह प्राचीन कर्णाटक भाषामें होने पर भी दशवीं शताब्दी। सूत्र रूप में जो पंचपरमेष्ठी का बोल्लि है वह बीजाक्षररूप होने से से पीछे का है, प्राकृत भाषा में मंगलाचरण के प्रथम श्लोक को देखकर अजन । मन्त्र रूप है और मन्त्राक्षर तो बोबाक्षर बनते ही हैं। चक अक्षर में अनन्त गुण विद्वान इस भूबलय ग्रन्थ को दशवी शताब्दी के बाद का कहते हैं। है। इसलिये उस अक्षर को केवल ज्ञान कहते हैं। भारतीय संस्कृति में नम: किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि भूवलय सिद्धान्त रचित पांच परमेष्ठियों। शिवाय तथा असि पा उ सा ये दोनों पंचाक्षर बीज मन्त्र हैं। बुद्धि ऋद्धि के का 'बोल्लि' नामक पद्धति ग्रन्थ साढ़े तीन भाषा में होने से श्री पाठ भेद हैं। उनमें एक बीज बुद्धि नामक महान् अतिशय-पालिनी बुद्धि भो कुसुदन्दु आचार्य के पूर्व किसी महान् प्राचार्य द्वारा रचित है। उसका स्पष्टी-है। द्वादशांग वाणी के असंख्यात अक्षरों में से केवल एक हो अक्षर का नाम करण अगले श्लोक में किया गया है । इस पृथ्वी में रहने वाली समस्त वस्तुओं। कहने से समस्त द्वादशांग, (ग्यारह मंग तथा चौहद पूर्व आदि)का ज्ञान हो जाना का अर्थात् जीवादि षड् द्रव्यों का कथन सर्व प्रथम भगवान् की वाणो से । बीज बुद्धि नामक ऋद्धि है। ऋद्धि का अर्थ आध्यात्मिक ऐश्वर्य है। चौदह निष्पन्न हुआ है। उस कथन को लेकर पूर्वाचार्यों ने अपने अद्भुत ज्ञान से पूर्वो में अग्रायणी नामक एक पूर्व है। उसका नाम वैदिक सम्प्रदायान्तर्गत "पंच परमेष्ठो बोल्लि" पद्धति नामक ग्रन्थ को रचना को है। वह अन्य । ऋग्वेदादि ग्रन्थों में भी दिया गया है, किन्तु वह नष्ट हो गया है, ऐसी वैदिकों अहंत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुनों के यश का गुणगान करने के कारण पद्धति की मान्यता है । नामक छन्द से प्रख्यात था ।२१३३
उस अग्रायणी पूर्व से 'पंचपरमेष्ठी बोल्लि' नामक १२ हजार लोक उस पंच परमेष्ठी को बोल्लि में अनेक प्रकार के न्याय प्रन्य, लक्षण परिमित एक कनड़ी ग्रन्थ निकलता है। उस ग्रन्थ में पंचपरमेष्ठियों का समस्त ग्रन्थ इत्यादि विविध भांति के प्रतिवाय संपन्न ग्रन्य बारह हजार कानड़ी श्लोकगुण वर्णन है, मृत्यु के समय भो यदि उन गुणों का स्मरण किया जावे तो और कई हजार श्लोक के अन्य ग्रन्थ समिलित हैं । ये सभो अन्य भूवलय के प्रात्म-शुद्धि होती है। तया भगवान के १००८ नाम भी उसमें अन्तर्गत हैं समान ही सातिशय निष्पन्न हुये हैं ।२१४॥
उस १००८ को जोड़ देने से (१++ +5-९) ६ नौ पा जाता इस प्रकार नवमांक बद्ध क्रमानुसार बंधे हुए सभी को नय मार्ग । है । नव पद आ जाने से यह ग्रन्थ भगवान महावीर की वाणी के अनुसार बतलाने-वाले इस पांच परमेष्ठियों के गुरणमान रूप काव्य को भक्ति-भाव से वादशांग के अन्तर्गत है । २१७ से २२६ तक। जितना ही अधिक स्वाध्याय करें उतना ही अधिक उनका प्रात्मा गुणवान बन सौराष्ट्र में श्री भूतबलो प्राचार्य ने सबसे पहले नवम अंक पद्धति जायगा और परम्प ग मे अभ्युदय सौरूप १८ तथा नय श्रेषस समस्त सुख विना से 'पञ्च परमेष्ठि वोल्लि' ग्रन्थ रचना को थी उस ग्रन्थ को गणित पद्धति द्वारा इच्छा के ही स्वयमेव मिल जायगा । इस प्रकार उत्कृष्ट फल प्रदान करने वाला निकालने को विधि ११२ के वर्गमूल से मिलती है। ११२ को आड़े रूप से समस्त संसार का सार स्वरूप भूवलयान्तर्गत यह पंच परमेष्ठो का बोल्लि रूप जोड़ने पर (१+१+२%D४) ४ आता है, उस चार अंक का अभिप्राय जिन मन्थ है ।२१५॥
। वागी, जिनधर्म, जिनमैत्य और चैत्यालय है । उस ४ अंक को पंच परमेष्ठी के
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... साम सिदिसम, शारदल्ली
५ अंक से जोड़ने पर (४+५= 1) अंक पा जाता है जोकि नवपद (पंच । सदा सर्वदा इस सिद्धान्त शास्त्र का उपदेश सुनते समय वह सम्यक्त्व शिरोमणि परमेष्ठी जिन वाणी ग्रादि । देवता ) का सूचक है। .
हुँकार साय सुर हुए अत्यंत पुण्य होते में इस कारण से उन्हें 'शैगोट्ट' अर्थात् .. प्राचार्य कुमुदेन्दु सूचित करते हैं कि उनके समय में 'पंच परमेठडी सुननेवाला विशेषण दिया गया था। उपर्युक्त शैगोट्ट शब्द कर्णाटक भाषा में है बोल्सि' ग्रन्थ लुप्त था, वह अब गरिगत पद्धति से प्राप्त हो गया है हमने इसका दूसरा नाम 'गोट्टिका' भी था इसका अर्थ श्री जिनेन्द्र भगवान को वारणी उसको 'पद्धति' नाम दिया है । 'पद्धति' चौदह पूर्वो के अन्तर्भूत है अत: हम को सुननेवाला है । कर्नाटक भाषा में श्री जिमेन्द्र देव को "गोरख, गरुव,". उस पद्धति नामक ग्रन्थ को नमस्कार करते हैं । यह कविजनों के लिए महान ! इत्यादि अनेक नामों से पुकारते थे। आजकल भी ईश्वर को वैदिक सम्प्रदाय अद्भुत विषय है अतः प्रत्येक विद्वान को इसका अध्ययन करना चाहिए ।२२७ में 'गोरव" कहने की प्रथा प्रचलित है। इनकी राजधानी नन्दोदुर्ग, के निकट से २४७ तक।
1 "मरणे" नामक एक ग्राम है जोकि पहले राजधानी थी। आधुनिक ऐतिहासिक अब श्री कुमुदेन्दु आचार्य इस तेरहवें अध्याय को संक्षिप्त करते हुए कहते। विद्वान "मगर" नामक ग्राम को "मान्य खेट" नाम से मानकर हैदराबाद के हैं-इस भूवलय के इसअध्याय का अध्ययन करनेवाले भव्यजन सर्वार्थ सिद्धि अन्तर्गत समझते हैं। इसी के निकट "शीतकरलु" नामक एक बहुत प्राचीन विमान में प्रहमिन्द्रों के साथ ३३ सागरोपम दीर्घ सुखमय जोवन व्यतीत करते । ग्राम है । जिसमें गंग राजा के द्वारा अनेक शिल्प कलामों से निर्मित एक जिन हैं ।२४८1
मन्दिर है। प्राचीन काल में जो "म" नाम था वह छोटा-सा , देहात बन . सर्वार्थसिद्धि में इन्द्र सेवक, आदि का भेदभाव नहीं है, यहां के देव गया है। अपनी प्राय पर्यन्त निरन्तर सुख अनुभव करते हैं। उस सर्वार्थ सिद्धि के समान एक बार महान वैभवशाली "प्रथम गोटिग शिवभार" जब हाथी के कगर कर्माट [कर्नाटक] भाषा तथा जनपदवासी जनता सुखी है । इस देश में हजारों बैठकर पा रहा था तब उसने एक हजार पांच सौ (१५००) शिष्यों के साथ दिसम्बर मुनियों का विहार तथा सिद्धान्त प्रचार होने से इस देशवासी यश-अर्थात् संघ सहित दूर से आते हुए श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य को देखा। उस समय कीर्ति माम कर्म का बन्ध किया करते हैं, अयश:कोति प्रकृति का बन्ध किसी। वर्षा होने के कारण पृथ्वी पर कीचड़ हो गई थी। प्रतः “गोद्रिग शिवमार" के नहीं होता । प्राचीन समय में श्री बाहुबली ने यहां राज्य शासन किया था। हाथो से शोघ्र उतर कर नंगे पैरों से प्राचार्य थो के दर्शनार्थ उनके चरण समीप
२४९-२५०1 1 जाकर। . .. अपने मस्तक में कोहेनूर के यमान अमूल्य रत्न जड़ित किरीट को उसने मुनिराज के चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार किया. धारण किये हुए प्रमोघवर्ष चक्रवर्ती ने गुरु श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के चरणरज वैसे ही उसके मस्तक में धारण किये हुए रत्न जडित किरीट में मुनिराजः को अपने मस्तक पर चारण किया था। इनके शासनकाल में इस भूवलय के पैरों की धूलि लग गई जिससे कि रत्न का प्रकाश फीका पड़ गया । कुमुदेन्दु ग्रन्थ की रचना हुई थी ।२५१५
। प्राचार्य श्री. तो अपने संघ सहित विहार कर गये और राजा लौटकर अपनी, विवेचन-क्रिश्चन शक ६८० के लगभग समस्त भरतखण्ड को. जीतकर | राज सभा में जाकर सिंहासन पर विराजमान हो गया : नित्य प्रति राजसभा. हिमवान् पर्वत में कराटक राज्य चिन्ह की ध्वजा को राजा अमोघवर्ष ने में बैठते समय मस्तक में लगी हुई रत्न की प्रभा चमकती थी, किन्तु प्राज. फहरापा था। उसी समय में इस सूवलय ग्रन्थ की रचना हुई थी. इस प्रसंग धूलि लगने के कारण उसकी चमक न दीख पड़ी। तब सभसदों ने मन्त्री को में उनको धवन, जयघवल, विजय धवल, महाधवल ओर अतिशयधवल की। इशारा किया कि राजा के मस्सक में लगे हुए मुकुट के रत्न पर धूलि लगी विस्वावसी प्रदान की गई थी। गंग वंश के प्रथम शिवमार नामक यह धर्मात्मा है अत: उसे कपड़े से साफ करदो। तब मन्त्री राजा के पीछे खड़ा होकर उसे..
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साफ करने का मौका देखने लगा । अकस्मात् राजा की दृष्टि मन्त्री के ऊपर पड़ी तब उन्होंने पूछा कि तुम यहाँ क्यों खड़े हो ? मन्त्री ने उत्तर दिया कि आपके किरीट में लगी हुई धूलि को साफ करने के लिए खड़ा हूँ जिससे कि रत्न की चमक दीख पड़े । राजा ने उत्तर में कहा कि हम अपने श्री गुरु के चरण रज को कदापि नहीं हटाने देंगे, क्योंकि यह रत्न से भी अधिक मूल्यवान है । इसलिए मैंने अपने गुरु की धूल को जान बूझकर रखलिया है। इस प्रकार कहते हुए उस किरीट पर लगी हुई धूलि को हाथ लगाकर अपनी आंखों में लगा लिया। गुरु देव के प्रति राजा की भक्ति तथा उसकी महिमा अनुपम अद्भुत थी। उस गुरु की दृष्टि भी तो देखिये कि वे अपने शिष्य "गोद्र शिवमार" को कोति संसार में फैलाने तथा चिरस्थायी रखने के उद्देश्य से आई हुई पांचों विरुदावलियों के नाम से धवल, जयबवल, महाघवल, विजयघवल, तथा अतिशय घवल श्री सूवलय का नाम रख दिया । यह गुरु की अत्यन्त कृपा है, ऐसे गुरु शिष्य का शुभ समागम महान पुण्य से प्राप्त होता है ।
रूप
इस तेरहवें अध्याय के अन्तर काव्य में १५६८४ अक्षर हैं और श्रेणीवद्ध काव्य में ९४७७ अक्षर हैं। ये सब कर्नाटक देशीय जनता के महान् पुण्योदय से प्राप्त हुए हैं । २५२ ।
इस तेरहवें अध्याय के अन्तरान्तर काव्य में इसके अतिरिक्त ४८ श्लोक और निकल प्राते हैं। शूरवीर वृत्ति से तप करनेवाले दिगम्बर जैन मुनि "अक्ष" प्रकार से जिस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं और उस समय प्रक्षय रूप पंचाश्चर्य वृष्टि होती है उसी प्रकार इसके अन्तरान्तर काव्य में इसके अलावा एक और अध्याय निकल आ जाता है, जिसमें किं २१६६ प्रक्षसंक हैं । इस रीति से कवल एक ही प्रध्याय में ३ अध्याय बन जाते हैं । २५२ ।
विवेचनः -- दिगम्बर जैन मुनि गोचरीवृत्ति, भ्रामरी वृत्ति तथा क्षक्ष इन तीन वृत्तियों से आहार ग्रहण करते हैं। इनमें से गोधरी वृत्ति का विवेचन पहले कर चुके हैं। पर शेष दो वृत्तियों का विवरण नीचे दिया जाता है ।
भ्रामरी वृत्ति:- जिस प्रकार भ्रमर कमल पुष्प के ऊपर बैठ कर उसमें
सर्वार्थ सिद्धि संभ बैंगलौर-दिल्ली
किसी प्रकार को हानि न करके रस को चूसता है और कमल ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है उसी प्रकार दिगम्बर जैन साधु श्रावकों को किसी प्रकार का भी कष्ट न हो, इस अभिप्राय से शान्त भाव- पूर्वक प्रहार ग्रहण किया करते हैं । इसे भ्रामरी वृत्ति कहते हैं ।
क्षावृत्तिः - तेलरहित धुरेवाली बैलगाड़ी को गति सुचारु रूपसे नहीं चलतो तथा कभी २ उसके टूट जाने का भी प्रसंग श्रा जाता है, अतः उसको ठीक तरह से चलाने के लिये जिस प्रकार तेल दिया जाता है उसी प्रकार साबु जन शरीर का पालन-पोषण करने के लिये नहीं, बल्कि ध्यान, अध्ययन तथा तप के साधन-भूत शरीर को केवल रक्षा मात्र के उद्देश्य से अल्पाहार ग्रहण करते हैं । इस वृत्ति से प्रहार ग्रहण करना अक्षमक्ष वृत्ति कहलाती है ।
इस काव्य के अन्तर्गत २४७ २४६, २४४ और २४४, २४३, २४२ इस क्रमानुसार तीन २ श्लोकों को प्रत्येक में यदि पढ़ते जायें तो इसी भूवलय के प्रथम अध्याय के ६ वें श्लोकके दूसरे चरण से प्रथमाक्षर को लेकर क्रमानुसार "मदोलगेर कानूरु" इत्यादि रूप काव्य दुबारा उपलब्ध हो जाता है । यह विषय पुनरुक्त तथा अक्षय काव्य है । यदि इस ग्रन्थ का कोई पत्र नष्ट हो जाय तो नागवद्ध प्रणाली से पढ़ने पर पूर्ण हो जाता है। लु ६४७७+ अन्तर १५६८४ + प्रन्तरान्तर २१६६२७६३० अथवा से ऋतक २५२००१+ ल २७६३०=२७६७११ अक्षरांक होते हैं ।
इस अध्याय के प्राद्यअक्षरसे प्राकृत भाषा निकल आती है। जिसका अर्थ इस प्रकार है
भारत देश में लाड नामक देश है, लाड शब्द भाषा वाचक भी है और देशवाचक भी है। लाढ भाषा अनेक जातीया है, उस लाड देश में श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्यन शंभुकुमार, अनिरुद्ध इत्यादि ७२ करोड़ मुनि लोग दीक्षा लेकर कर्जयन्तके शिखर प्रर्थात् पर्वत पर तप करते हुए एक-एक समयमें सात सौ-सात सौ मुनि गरण ने कर्म को क्षय करके सिद्ध पद प्राप्त किया इस तेरहवें अध्याय के २७ वें श्लोक से लेकर ऊपर से नीचे तक पढ़ते जाय तो संस्कृत लोक निकलता है उस श्लोक का अर्थ निम्न प्रकार है:- ...
अर्थ- इस सिद्धांत ग्रन्थ को धवल, जय घवल, विजय धवल, महा
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सर्व सिसिस'च वेगलौर दिल्ली धवल और प्रतिशप धवल, इन पांच खण्डों के रूप में विभाग किया गया है। लांगूलचालन मघश्चरणावघात, भूमोनिपत्य वदनोदरदर्शनं च। यह भारतो भारत माता की शुचि और निर्मल कोति रूप है । इन पांच खण्डों से या पिण्डदस्य कहते गजपुंगवस्त, घोरविलोकयति चाटुशनश्च भुक्त। पाने वाला ज्ञान रूपी किरण विश्व के समस्त पदार्थों को अर्थात् षट् द्रव्य को।
विवेल्लतिवन्नवराशिकालदि । मनविट्ट मेल्थ यत्तिनन्ते ।। नि:क रूप से असे भूब का किरणों में अर्थात् प्रकाश में रक्खे हुए पदार्थ स्पष्ट । रूप से देखने में प्राते हैं, उसी तरह समस्त भुबलय से पदार्थ स्पष्ट रूप से देखते
. विमवेल्लाळसिद श्रुतदंकाक्षरगळ । मनसिटु रात्रियोगानेसुवर ॥६॥ में आते हैं। इसलिये इन पांच धवल रूप भूवलयग्रन्थ को मैं नमस्कार करता है। शक्तियोळोंदे दारियोळ वेगदि । व्यक्तवागोडव मृगव ।।
मंतरधिकार:-नीचे दिये जाने वाले 'साधुगलिहरेरडु वदे द्वोपदि साधि व्यक्तित्वकेपदन्ते सरलवाद । व्यक्तिवागळिथर साधुपम ॥ सुतिहरु मोक्ष वनु" इत्यादि रूप श्लोक के अध्याय में 'साधयन्ति शानादिशक्ति-करपोय वरवो ए'वैन्तुब हसुवदु । गरियनेमेयुवतेरदि ।। भिर्मोक्षमिति' इत्यादि रूप श्लोक और अन्तिम अक्षर से प्रोमित्येक्षरं ब्रह्म परमान्नव गोरि त्तियि डिल्य नीरिहयवृसिगळम् ।।१०Fइत्यादि रूप भगवद् गीता के श्लोक निकलते हैं। इस अध्याय को यहां क्रम मे तिरियोळ तडेयिल्लदे हरिदाव । बरगायिन्ते निस्सग। दिया गया है।
घेरसुतचेरिसुवेकांगविहारिगळ् । गुरुगळंदने यसाधुगळप्रब् ॥११॥ साघुगळिहरेरडूवरेद्वीपदि । माधिसुतिहरुममोक्षवतु ॥
विभिक्षुगळिवरुसकल तत्वगळनु । साक्षात्तागि बेळगु ।। प्रावियनादिय कालदिविहसर्व । साधुगळिगे नमनमो ॥१॥ ___अक्षर ज्ञानिगळादित्यु नंदादि । रक्षिप ततो मूर्तियवर् ।१२। . . परिसलनंत ज्ञानादि स्वरूपव। परिशुद्धात्मरूपवनु ।
रमेय सुत्तिह सागरदन्ते गंभीर । समरदोळ् कर्मवगेल्यर् ।। . वरसर्व साधुगळ् साधिसुतिरुवर । परमन तम्मात्मनोमि ।।२।। । सरतेयोळ मंदराचलबन्ते उपसर्ग । बररलकंपरगिहरुम् ।१३। यमिगळिवबन्दु महाव्रतगळयदनुहोंदि । क्रमबोळि सर्वसाधु गल्ता। ३ मोहननाद चंद्रमनन्ते शान्तिय । कहनु सर्व चन्द्रमरु ।।
समनागिउपवासदिपेळ्द । गमकदोलिहरुसाधु गळ्द ॥३॥ साहसवतगळ मरिणयनु धरसुत । रुहिन मरिणगळंतिहह, ।१४।.... नवगळे रडर साविर जातिशीलब । नवर भेदगळेल्लयरितु ।।
क्षरवेनेनाशवदळिरक्षरखेंब । परिशुद्ध केवल ज्ञान ॥ सुविशुद्धवाभत्नाल्कुलक्षमळेम्ब प्रबनुउत्तर गुणगळन् यो ॥४॥
दिरुवनुसहनेयोळिरुव भूमियतेर । अरिवसमतेयोलोरेवर्थ ॥१५॥ तिकिटु पालिसुव रेंटनेपरमेष्ठिग । कियोळ गिदुसमाधि । मिदुमाडिमन्निनि गेहलुमनेक? । अदरोळ्यासिपहाविनन्ते ॥
योळगात्म सिरिया बसाहारवकोंब । बलशालिगळ साधुगळका ॥५।।। सदनबनितरू कहिरलल्लिये । मुदविल्लदे वासिपरुव ॥१६॥ ज्ञान साधनेयोळात्मध्यानविदह । ज्ञानवन्तर सिंहदन्ते ॥ तिरियोळगिद्दरु तिरुहमुह दळिह । सुरचिरदाकाशदन्ते ।।
शाने पराक्रम बुळ्ळ संयमिगळु । ज्ञानावि शक्तियोळ रतरक् ॥६॥ । पोरेवपरारिल्लब । निरालंबह सरवहनिलेप करया ॥१७॥ नानाविधवाद पाहार विट्टरु । तानुगंभीरवोळिद्द ॥
सर्वकालबोळु मोक्षदन्वेषण । दूवियोळिरुव साधुगळु ॥ शाने गौरविसल अन्नवर्तिवानयत् । तानन्दवाभिमानिगळव ॥७॥ निर्वाणपववसाधिसुत बाळुवर्व । सर्वसाधु गळ्गेमिह ॥१८॥
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मिरि मनालय
सार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ला घम व सारुत कम भूमियोळिह । शर्म रु मूरुकालदोळ ॥
तेरिन कलशविहन्ते तम्मात्मन । साररत्नत्रयात्मकद ॥ निर्मलपद्धति याद भूवलयद । कर्म भूमियद्ध पालिसिर १६॥ ___ कारण समयसारव बलदिदलि । सेरिसुवुदु निश्चयप्र॥३१॥ पर शुद्ध चतन्य विलसितलक्षण । परम निजात्म तत्वरुचि ।। सुटु भशिव सोक्ख मंगलवबु । हुट्टिपनिश्चयवदनु ॥ परम सम्यग्दर्शन दवर्तनीयर्प । परमात्म वर्शन चारन ।२०।
हुट्टिसे कार्य समयद सारदु । हुटिट वहुदुसमाधिवया ॥३२॥ हबनिसि कोळ्ळुतलिद्रिय वर्गवेळ्ळवा । अबरु तम्मोळ तंदु ॥ धर्म साम्राज्यद थो वीतरागद । निर्मलात्मन समाधियोळ ।
समतेयोळ अविकार दानंद मयरगर्ग। सुविशाल वाहतनंदधमा॥२१॥ कर्म संहारव माहुतेनिदिर्प शर्मर सर्वसाधुगळू ॥३३॥ सर्व साध भेद ज्ञान दिदलि । सर्व रागादि गळेव ।
यातके संसारदाशेय बिडुभव्य । पूतर पुण्य पादगळ ॥ गवर्व परभाव संबंधयोळिसुव । सबरे किये सम्यग्ज्ञानं ।२२।
नीति मार्गद निर्भर भक्ति यिनोनु । मातुमनसुकायदत्य ॥३४॥ मनसिज मर्दनरी निश्चय ज्ञान । दनुभवदोळगाचपं ॥
नमिसु स्मरिसु कोंडाडु स्तोत्र दोलेब । क्रमव भूवलय पेळ बदु । चिनुमय तत्ववभ्यास ज्ञानाचार । कोनेयादियारेवाचार ॥२३॥
श्रमबिल्लदे सिद्धांतव मार्गवहोंदे । निनो तप्पदु मुक्ति पवज ।३५ तानु शुद्धात्म भावयिंद हुट्टिसि । दानन्द स्वभाविकद ।।
तीर्थकररंते नन्नात्मनिहनु । स्वार्यवागलु शद्ध ज्ञान ।। __ श्रोनिकेतनंदति सुखदनुभूतियु । ताने सम्यक नवचारित्रन् ॥२४॥ ___ व्यर्थद ज्ञानव केडिसि रत्नत्रय । तीर्थनन्य अंतरंगत् ॥३६॥ मर्मद समय चारित्र दोळगे। निमंलववर्तनविरुव ॥
लिळियादनन्त चतुष्टय रूपनु । बनित पंचम भाव युतनु । कम व हरिपनिश्चय चारित्रराचार । धर्म वपरिपालिसुवज ।२५॥
कलिसप्त भयविर्षमुक्त स्वरूपनु । चलुव प्रखंड स्वरूपदे ॥३७॥ बारिज पत्र दोळिरुव नीरिन करण। वारिज दोळ यतिपन्ते ।। नित्य निजानंबैक चिद्रूपतु । सत्य परात्पर सुखरु । सारात्म व्रव्य दोळिदु पर द्रव्य । दारंकेयनिरोधि सुतुस ॥२६॥
सत्या सर्व साधुगळे दरियुत । अत्यंत भििय नमिपे ॥३॥ सर्व समस्त इच्चेगळ निरोधदि । निहिसुतलात्ममनु ॥
रषिगळ नवर पद प्राप्तीयागले । ससमान भक्तियि जिसे ॥ सर्वनिजात्म भावनेयनुष्ठानव । निर्बहिसुषदे तपम ॥२७
वशबहुदल्लगे सविकल्परूपद । सुसाधि सिद्ध साधनस ॥३६॥ रसयुत दह उत्तम तल्लि । वशति गोळिसत मनद ।।
करणोय गुरुगळं घर पद भक्तियि । बरु प्रक्षरांक काव्यवनु । असदृश यागिरिरांसपुंदे निश्चय । इसमान तपदाचार ॥२८॥
विरचिसि प्राकृत संस्कृत कन्नड । वेरसि पद्धति पन्थवया ॥४०॥ वरदर्शनाचार वादनाल्कुगलोळ । मरसद शक्तियोळ भजिप ।। तिरियोळगिल्व समस्त वस्तुव पेळ व, । अरहन्तरादियानंदु ।।
परमात्म परियनाराधिसुवुदु ताने । परिशुद्धवीर्याचारन ॥२६॥ परमेष्ठिगळबोल्लिय पद्धतियो । विरचिसिहरु बोल्लियति ४११ भूरि वैभवयुतवागिर वो ऐदु । चारित्राराधनेगळनु ।
न्यायादि सक्षरण ग्रन्यवनोळगोन्डु । प्रायहन्नेरडु साविरद ।। सार पंचाचार वेनुवसिद्धांतद । भूरि वेभवद भूवलयद् ॥३०॥ श्रेयोमार्ग इसोक गळिग्द कट्टिए । श्रेय ऐवर काव्यवप ॥४२॥
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खिर मूषजय
सर्वार्थ सिवि संघ बैंगलोर-दिल्ली यारेष्टु जपसिदरष्टु सत्फलवोध । सारसर्वस्व वि ऐतु ॥
ज्ञान-अमृत मन्त्रका ही भोजन करते हैं ऐसा समझना चाहिए। प्रात्मसमाधिमें लीन सेरिदहत्सिद्धाचार्य पाठक । सारर सनसाघु गळर ॥४३॥ ३ रहने वाले उन साघु परमेष्ठियों पर चाहे जैसे भयानक कष्टदायक उपसम पावें तपदे भूतलग वोगादि मंगल ! हापनाल्वर मन्त्र ॥
किन्तु वे प्रा:म-पान से व्युत (स्खलित) नहीं होते, यात्म-ध्यान में लगे रहते वापुवपंचाक्षर असि प्रा इ सा । विप्पसालक्षर काव्यवमा ॥४४॥
हैं। जिस तरह सिंह भयानक बाधाएं पाने पर भी पीछे नहीं हटता, आगे हो
बढ़ता जाता है, इसी तरह वे सिंह-दृत्ति बाले साधु विघ्न-बाधाओं के द्वारा साविरदेंटु नामगळनु कूडलु । पावन बाद बोम्बत्तु ।।
प्रात्म-ध्यान से पाछे न हटकर आगे बढ़ते जाते हैं ।।३-४-५-६।। साबाग जीवर कावुदेन्नुव काव्य। श्री वीर पेळ व भूवलयम् ॥४॥
अर्थ-जिस तरह गौरवशाली स्वाभिमानी गजराज (हाथी) के सामने धरियो कोम्बत्तुगंळ विस्तरिसलु । बरु कनू रुहन्नरडु ।।
। यदि चावलों का ढेर, गुड़ की भेली तथा नारियल की कच्ची गिरीखाने के लिये परिशुद्ध बदमत्त कूडळु नाल्कु । वरधर्म शास्त्र विम्ब ग्रहगळ ॥४६॥ । रख दी जाये तो वह लोलुपी होकर उसे खाता नहीं, गम्भीर मुद्रा में खड़ा वशवाद पंचाक्षर दोळगी नाल्कु । होसेयलु नब देवतेया॥
रहता है, जब उसका स्वामी उसके दाँत, सूड तथा मस्तक पर प्रेम का हाय होसशास्त्र विदतदु कोट्ट भूवलयद । होस पद्धितिगेरगुवेति ॥४७॥ फेरकर थपथपी देता है, भोजन करने की प्रेरणा करता है तब वह बड़ी गंभीरता हर्ष वर्द्धनमय काव्य प्रोम्बत्तारु । स्पर्श नोळोंन्देर डेम्ब ।।। के साथ भोजन करता है। उसी प्रकार गौरवशाली स्वाभिमानी साघु लोलुपता स्पर्शमरिण गळं दाबोम्बत्तंकके । हर्पदोळरगुबेनिन्दुम् ॥४॥ से भोजन नहीं करते, वे बड़ी नि:स्पृहता के साथ मक्ति सहित ठीक विधि मिलने
अर्थ-मध्य लोक के अन्तर्गत ढाई द्वीप में मक्ति मार्ग की साधना करने पर शुद्ध पाहार ग्रहण करते हैं ॥७॥ वाले प्रात्मकल्याण में निरत जो नोन कम नौ करोड़ मुनिगण अनादि
यानी-कुत्ता अपने भोजनदातर के सामन आकर पूछ हिलाता है, अपने (परम्परा) काल से बिहार करते है उनको में मन बचन काय की शुद्धि के परा का पटकता है, जमान पर लट कर अपना पट मार मुख दिखलाता है, साथ नमस्कार करता है ।
ऐसी चाटुकारी (चापलूमो) करने पर उसको भोजन मिलता है किन्तु हाथी ऐसी अर्थ-अपने ज्ञानादि अनन्त गुणों को भूलकर तथा शरीर आदि पर-1 चापलूसी करक भाजन नहा करता वह तो धार होकर देखता है पार अपने द्रव्य को अपना मानकर यह प्रात्मा यनादि काल में मंसार में भ्रमण कर रहा। स्वामी द्वारा चादकारी किये जाने पर भोजन करता है। है। जब इन प्रात्माके मासन्न भव्यता-प्रगट होती है तब यह अपने हृदय में प्रथम महानती साधु भो भोजन के लिये लोलुपता प्रगट नहीं करते, न किसी श्री जिनेन्द्र देव को स्थापित कर लेता है ।।
से भोजन मांगते हैं, न खाने के लिये कुछ संकेत करते हैं, उन्हें तो जब कोई प्रयं-संचमो साधु पांच महाव्रत तथा तीन गुप्तियों को समान रूप स व्यक्ति भक्ति तथा श्रद्धा के साथ भोजन करने की प्रार्थना करता है तब वे पालन करते है. उपवास यानी प्रात्मा के समीप रहने के उपक्रम के मार्ग से बड़ी नि:स्पृहता धौर गम्भीरता के साथ अपनी विधि के अनुसार भोजन (उपेत्य वसति, इति उपवासः) कहे हुए विधान के क्रम से साधु १८ हजार करते हैं। प्रकार के शीलों तया ८४ लाख उतर गुणों को समझकर पालन करते हैं। वे मर्थ-जिस तरह गाय दिन में बन में जाकर घास चरतो है, और रात को पांचवें परमेष्ठो साथ हमारे (साधारण जनता के) देखने में तो पृथ्वी पर चलते घर पाकर बैठकर जुगाली (चरी हुई धाम का रोंय) करतो है, इसी प्रकार हैं, बैठते है, भोजन करते हैं, परन्तु यथार्थ में दे चलते हुए बैठते हुए तथा भोजन साधु दिन में जो शास्त्र पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं, रात्रि के समय उस ज्ञान करते हुए भी ग्रामसमाधि में लोन रहते हैं। वे अन्न का भोजन करते हुये भो । का खूब मनन करते हैं, उस ज्ञान अमृत का भात्म-ध्यान द्वारा पान करते हैं।
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सवाय सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली अर्य-जिस तरह भोला हिरण अपने पराक्रम और वेग से दौड़ता है करके अविनाशी बनाने वाले हैं । इन ६४ अक्षरों से भूवलय का निर्माण हुन उसी तरह साधु भी मन वचन काय की सग्लना के साथ विचरण करते है।। है। इस भूवलय से जान प्राप्त करके साधु परमेष्ठी अपने उपदेश द्वारा समस्त जिस तरह हरे भरे खेत जिस में कि गेहूं, प्रादि अन्न अपने बालि [मुट्ट] जोवों का कर्ममार हलका करते हैं ॥१५॥ से बाहर नहीं पा पाये. है कोई ना छोड़ दी जावं तो वह उस धान्य को बालि विवेचन-भूवलय के इस तीसरे अध्याय के प्रथम लोक से १५ वे (मुड़े) का हानि न पहुंचाना हई, कयद उन ना की घास को खाती है, इसी , श्लोक तक के अन्तिम अक्षरों को मिलाकर प्रचलित भाव गीता के ८ वें प्रकार साधु गोचरी नि ने, भोजन करने वाले बाता को रंच मात्र भी कष्ट । अध्याय के १३वें श्लोक का 'प्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म' यह चरण निकल पाता है। या हानि न पहुंचाते हए सादा नीरस शुद्ध भोजन करके अपना उदर पूर्ण तथ। इसके मागे १६वें श्लोक से २६ श्लोकों के प्रन्तिम अक्षरों को मिलाकरते है 118।।
कर गीता के उक्त चरण से प्रागे का द्वितीय चरण "व्याहरन्माममुस्मरन्" अर्थ-इस अनन्त याकाश में जिस प्रकार वायु अपने साथ अन्य किसी निकल पाता है। इसी प्रकार प्रागे भी भगवद्गीता के श्लोक निकलते हैं। भी पदार्थ को लेकर सर्वत्र घूमती है, उसी प्रकार साधु निःसंग होकर मयंत्र ! उस गीता के अन्तर्गत 'ऋषि मंडल' स्तोत्र निकलता है। उस गीता के श्लोकों बिहार करते है ॥१॥
के अन्तिम अक्षरों को एकत्र किया जाये तो 'तत्वार्थसूत्र' के सूत्र बन जाते है। प्रयं-प्राचार्य उपाध्याय साधु परमेष्ठी अपने दिव्य ज्ञान से विलोकवर्ती 1 अर्थ-जिस तरह दौमक अपने मुख में मिट्टी के क्रण ले लेकर बांबी त्रिकालीन पदार्थों को जानकर समस्त जी को सूर्य के समान प्रकाशित करते तयार करती है, पर उस बांबी में प्राकर मपं रहने लगता है फिर कुछ समय हुए वितरण किया करते ॥१२॥
के बाद वह सर्प उस बांबी से मोह छोड़ कर वहां से निकल अन्यत्र रहने लगता अर्थ-जिस तरह समुद्र पृथ्वी को घेर कर सुरक्षित रखता है इसी तरह है। इसी प्रकार साधु गृहस्थों द्वारा बनवाई गई अनियत वसत्तिका (मठ-धर्मअपने हितमय उपदेश से गंसारी जो बों को घेर कर माघु उनकी रक्षा करते हुए शाला) में प्राकर कुछ समय के लिए ठहर जाते है और कुछ समय पीछे उस स्वयं कम सयों के नाय युद्ध करके कर्मो पर विजय प्राप्त करते हैं। जिस वसतिका से निकलकर निर्मोह रूप से अन्यत्र बिहार कर जाते हैं 1१६। जगार ममेर पर्वत चपात नथा झावान (भयानक पाँधी) से चलायमान न अर्थ-जिस प्रकार पृथ्वी के ऊपर का प्राकाश दूर से (क्षितिज पर) . होकर निदत्रन रहता है उसी तरह माधु महान भयानक उपद्रवों के प्रा जाने पृथ्वी को छूता हुघा-सा दिखाई देता है किन्तु वास्तव में आकाश पुथ्वी आदि पर भी प्राने मामध्यान में चलायमान न होकर प्रचल बने रहते हैं ॥१३॥ किसी पदार्थ को छता नहीं है, निलेप निराधार रहता है। इसी प्रकार साक्ष
अर्थ-जिस तरह यो म ऋतु में भयानक नोक्षण गर्मी से सन्तप्त मनुष्य अपनी पात्मा में निमग्न रहते हैं, संसार के किसी पदार्थ का स्पर्श नहीं करते, को राधि का पूर्ण नन्दमा शान्ति प्रदान करता है. इसी प्रकार संसार दुख मे याकाश के समान निलेप, निरावनम्ब रहते हैं ।१७। मन्तप्त नारी जोयों का मानु सम्मेष्ठी याने जितमिन प्रिय उपदेश से शान्ति । अर्थ-साधु परमेष्ठी को सदा मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा रहता प्रदान करते हैं। ये माबु अपन हृदय में मम्वन्दर्शन, जान, चारित्र रूपी नवय है और वे सदा मोक्ष की साधना में लगे रहते है। उन साधू परमेष्ठी को को माला धारण करते है और वे रत्नत्रय का हो अपना भार समझते हैं मानो हमारा नमस्कार है।१। शरीर प्रादि पर-पदार्थों पर ममता नहीं करत ।।१४॥
अर्थ- साधु द्विज वर्ण के होते हैं, कर्मभूमि में बिहार करते है.. अर्थ-'सर' का अर्थ 'विनाश' है, अतः "अक्षर" का अर्थ "अविनाशो" | दुर्गुणों से अछूते यानी निर्मल रहते हैं तथा कर्मभूमि की जनता को पद्धति है। केवल ज्ञान अबिनाशी है अत: उसे 'अक्षर' भी कहते हैं। बहिरंग में जो । अन्य भूबलय का उपदेश देते रहते हैं ॥१६॥ 'इ' प्रादि ६४ प्रक्षर है वे भी जगतवर्ती समस्त जीवों को कर्मभार से हलका । प्रयं-ये साधु श्रेष्ठ होने से 'परमेष्ठी' कहलाते हैं, विशुद्ध चतन्य ज्योति
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सिरि भूवजय
सपाय सिद्धि संच बेगलोर-विली को प्रज्वलित करते हैं, अपने पारमतत्व में ही रुचि करते हैं. इस पात्मतत्व । परम तप समझनेवाले साधु परमेष्ठी हैं ।२७। रुचि को ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है । सम्यग्दर्शन को निर्मल रीति से पाचरण अर्थ-पात्मा के उत्तम गुण उत्तम तप से प्रगट होते है। आध्यात्मिक करला दर्शनाचार है।गा परमेडी र दा दर्शगातार में रत रखते हैं ॥२०॥ गुण जैसे-जैसे प्रगट होते जाते हैं, तैसे-तैसे चित्त प्रानन्द से भरता जाता है।
अर्थ-पांचों इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वेष भावना को । उस मानन्द को बढ़ाते जाना ही बेष्ठ तपाचार है ।२८। स्यागकर साघु परमेष्ठी इन्द्रियों को प्रात्म-मुख करलेते हैं तथा समस्त पदार्थों में पर्य-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार तथा तयाचार इन चारों समता भाव रखते हैं। वे किसी भी प्रकार का विकार नहीं माने देते। प्रानन्द पाराधनाओं में रत रहनेवाले, पात्म-आराधक साधु को प्रात्म दृढ़ता को से सदा आत्म-आराधना में लगे रहते हैं ।२१॥
परिशुद्ध वीर्याचार कहते हैं ।२।। अर्थ-वे साधु अपने भेद विज्ञान द्वारा प्रात्मा को शरीर से भिन्न पर्य परम वैभवशाली चारित्राचार को ही विद्वान लोग 'पंचाचार' अनुभव करते हैं। तया ऐसा समझते हैं कि राग द्वेष से उत्पन्न कर्म द्वारा । कहते हैं । उस पंचाचार का प्रतिपादन करनेवाला यह भूवलय है ।३०। शारीर बना है और यह पर भाव का सम्बन्ध कराने वाला है । ऐसा समझकर अर्थ-जिस प्रकार मंदिर के शिखर पर तोन कलश होते हैं उसी प्रकार दे शरीर से ममता छोड़कर आत्मा में ही रुचि करते हैं ।२२।
प्रात्मा के शिखर पर रत्नत्रय रूप तीन कलश हैं इसी को कारण समयसार प्रयं-मन्मथ (कामदेव का मथन करनेवाले साए परमेष्ठी मंतरंग। कहा गया है। इसी कारण समयसार से निश्चय समयसार प्राप्त होता है। तथा बहिरंग का मर्म समझते हैं और बहिरंग पदार्थों को हेय (स्यागने योग्य) निश्चय समयसार का ही दूसरा शुद्ध पास्मा है, ऐसा समझना चाहिए ।३१॥ समझकर अपने चित्स्वरूप आत्मा को ही अपना समझते है । इस प्रकार ज्ञाना- अर्थ-मुष्ठु, भद्र, शिव, सौख्य ये मंगल के पर्यायवाची नाम हैं । उस चार के परिपालक साधु परमेष्ठी हैं ।२३।।
मंगल को उत्तम करने का निश्चय आत्मा में उत्पन्न होना ही कार्य समय सार अर्थ-अपने आत्म-अनुभव से प्राप्त हुए अनुपम सुख को प्राप्त करने । है और वहो कार्य समय सार साधु परमेष्ठी की परम समाधि को देने वाला वाले साधु पृथ्वी भादि पदार्थों से मोह ममता नहीं करते । इस निवृत्ति से । है ।३२॥ उत्पन्न हुया आनन्द अनुभव के साथ 'मैं मुक्त है ऐसा अनुभव करते हैं। उस अयं धर्म साम्राज्य, वीतरगता तथा निर्मल समाधि में एवं कर्मों का साधु की शुद्ध प्रवृत्ति ही समयकचारित्र है, ऐसा समझना चाहिए ।२४ विनाश करने के लिए तत्पर हुए श्रमण को ही साधु परमेष्ठो कहते है।३३॥
मर्य-इसी निर्मल सम्यक् चारित्र का प्राचरण करनेवाले, तथा कर्मों। अर्थ-हे भव्य जीब ! संसार से तुझे क्या प्रयोजन है, इसे छोड़। का नाश करने की शक्ति रखनेवाले, निश्चय चारित्र को ही धर्म समझने वाले दू पवित्र साधु परमेष्ठो के चरणों का मन बचन काय से सेवन कर। इसी साथ् परमेष्ठी क्या इस जगत में धन्य नहीं हैं ? अर्थात् वे धन्य हैं ।२५ से तुझे अविनायी सुख अनन्त काल के लिए प्राप्त होगा ।३४॥
मर्थ-जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बून्दें कमल अर्य-हे भव्य जीव ! तू साधु परमेष्ठी को नमस्कार कर उनको हृदय के पत्ते को न छकर इधर-उधर होती रहती हैं। इसी तरह साधु संसार में में रखकर स्मरण कर, उनकी स्तुति कर, तथा उनकी प्रशंसा कर । इस प्रकार विचरण करते हुए भी समस्त बाह्य पदार्थों से निर्सप रहकर स्व-मात्मा में । क्रम को बतलानेवाले भूवलय सिद्धान्त के प्रतिपादित मार्ग को यदि तू ब्रहण निमग्न रहते हैं ।२६
। करेगा तो तुझसे मुक्ति पद दूर नहीं है ।३५॥ अर्थ-समस्त इच्छात्रों को रोककर प्रात्माधीन करनेवाले, और अपने अर्थ-हे भव्य जीव ! जिस तरह प्रहंत तीर्थर का परिणुद्ध मान आत्मा को परमात्मा स्वरूप भावना करनेवाले तथा उसी के अनुष्ठान को हो । दर्शन स्वरूप आत्मा है वैसा ही पारमा मेरा मो है। वह परिणुस जान व्यर्थ
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सिरि मूवनय
सधि सिद्धि संघ देगलोरलदल्ल
अन्नान को दूर करनेवाला है । अतः सम्यग्दर्शन शान चारित्र रूप मेरा आत्मा। तथा सर्वसाधू के मिलाने से उभयानुपूर्वी कयन प्रकट हो पाता है । हो तीर्थ है और वही अंतरंग सार है ।३६।
वर्ग-इसे निगम पूर्वक यदि गुणा करके देखा जाय तो मूवलय के अर्थ-जिस तरह कीचड़ मिट्टी आदि से रहित जल निर्मल होता है। प्रादि में मंगल रूप २४ तीर्थङ्करों के मन्त्र असि मा उ सा इस पंचाक्षर में उसो तरह मेरा आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य गभित हैं। इस प्रकार पंक्तियों द्वारा अक्षरों से परिपूर्ण काव्य हो पंच परमेष्ठी स्वरूप निर्मल (कर्म मल रहित) है। वही पंचम गति रूप है और वही आत्मा का "वोल्लि" है।४४१ स्वरूप सप्त भयों का विनाश करके अखण्ड अक्षय मोर मुख को देने वाला मर्य-भगवान के १००८ नामों को यदि पाड़ा करके परस्पर में है ।३७
मिला दिया जाय तो अंक पाता है और वही मंक संसार में जन्म-मरण अर्थ-नित्य, निजानन्द, चित्स्वरूप मोक्ष सुक्ष को प्राप्ति में जो सदा करनेवाले जीवों को संसार सागर से पार लगाकर अभीष्ट स्थान में पहुंचा देने रत रहते हैं 'तुम इसी सुख को पाराधना करों इस प्रकार भव्य जीवों को। वाला है, यह भूबलय का कथन है ।४५ जो सदा प्रेरणा करते रहते हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी का ही तुम सदा ध्यान करो,
अर्थ-इस प्रपंच में अंक रूपी विस्तृत काव्य को श्री भगवान आराधना करो और पूजा करो (३८।
महादीर स्वामी के कथनानुसार यदि गरिणत को दृष्टि से देखा जाय अर्थात अर्थ-वेही महषि हैं, उनके पद हमको प्राप्त हो।' ऐसी भक्ति ।
१०००+६=११२ हो जाता है और इसी ११२ को सीधा करके पदि षोड़े भावना से प्राराधना करनेवाले पाराधक को सबिकल्प समाधि की सिद्धि तो इस योग से प्राप्त ४ अंकों में से हो जाता है। इन्हीं चारों के आधार होती है ।३६)
पर क्रमशः १ धर्म, २रा शास्त्र३रा महविम्ब और ४ था देवालय है। इस अर्थ-दया धर्म के उपदेशक तथा संस्थापक पंच परमेष्ठी की भक्ति ।
दृष्टि से अंक को विभक्त किया मया है।४६ से आनेवाले प्रक्षर-पक काज्य को प्राकृत संस्कृत कानदी में गभित यह भूवलय । उपर्युक्त पंचाक्षर का अर्थ पंच परमेष्ठी वाचक है । और उस पंच अन्य है। यही मूबलय दयामय रूप है ।४०
परमेष्ठी में ऊपर के ४ को मिला देने से देवता हो जाते हैं। इस तरह क्रम अर्थ-इस संसार में रहनेवाले समस्त वस्तुमों को कहनेवाले प्रहंतादि।
से अंक के साथ है. बतायों के स्वरूप को बतलाने वाले इस भूवलय अर्थात् पंच परमेष्ठियों के बोल्लि नामक प्रत्य की रचना श्री भूवलय पति के क्रमानु
पंच परमेष्ठी के नूतन "बोल्लि" पद्धति को में नमस्कार करता हूँ ४७। सार अतिशय रूप में पूर्वाचार्य ने की है। उस ग्रन्थ में न्याय लक्षणादि ग्रन्थों । अर्थ-हर्ष वर्दन नामक काव्य में ६६१२ अंक हैं। स्पर्श मरिण के को गर्मित करके उसे सातिशय बनाया गया है। उस अन्य में १२००० श्लोक समान इन्हीं मंकों को यदि पाड़ा मिला दिया जाए तो सब अंक को मैं सहर्ष हैं । वे श्लोक परम्परा से अभ्युदय कारक तया निः यस मोक्ष मार्ग की चरम । मन, वचन काय पूर्वक नमस्कार करता हूँ और पंच परमेष्ठो प्रादि सर्व साधुनों सीमा तक पहुंचाने वाले हैं। उसमें केवल पंच परमेष्ठियों के ही विषय हैं । ४२ को में नमस्कार करता हूँ।
अर्थ-इस काव्य की मारावना या इसका स्वाध्याय जितने भो भव्य दे सर्व सा किस प्रकार हैं ? तो "साधयन्ति ज्ञानादि याक्तिभिर्मोक्ष" जीव करेंगे उन सबको यह उत्तमोत्तम फल प्रदान करनेवाला है। इसलिए । इति साधवः । समतां वा सर्वमूतेष, ध्यायन्तीति निरुक्ति न्यायादिति साधवः । सार गभित उपयुक पंच परमेष्ठियों के अंको में पुनः पहत सिद्धाचार्य उपाध्याप।
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चौदहवां अध्याय
* सवर काव्यदनन्त तीर्थन कर । हरस वल्लद् अ ' स वरखु । सुस वरविदनन्त गरगनेय अतिशय । द स वरदग भूवलय ।। वि* 'नमि नेमियुपार्वाजनरत्नतरयर'इगे। धनभक्तिय 'उ' इ* ति विमल' ॥ तनि वकुलशरुन गदारुकमदवक्ष' । धन 'मूलदोळ'
सिभमदामि ॥२॥ स 'तपगेदिद'स'करमदभूवलयके । हितदिनमिपमो[१]मन द* प्रोष' ।। युत' के सिद्धान्तदशास्त्रवुतनुविनें' : हित प्राणावायवनारयु ॥३॥ न* 'दनुपम वचनद दोषके शब्दय । 'तद रधन सिद्धान्त अ' धा र ॥ अदन 'वनरुहिम्(२)शरीवर्धमानजि विव'नेन्द्रन'बामनाजुरुषः ॥४॥ तु* सवारिणयसेविसिगवतमऋषियु' । यशव भूवलयादिसिद्धान्' ना॥ सूसतगळयदकेकावेम्बहनएरङ् । मसमा नगअ[३] वनु' तिरहयसब ॥४॥
दाशर 'वृषभसेन' वरये ॥६॥ गपशवरिण 'बरामहि सदनदरियता ॥७॥ असुवनु 'मोक्षशेळतो न्' ॥ रसवसतु ग्रनथदोळ' दयेय ॥६॥ तिसहसर 'सूत्ररातकम् अरु, पि ॥१०॥ गुसुगुट टु वनगवन् अरितु' ॥११॥ दशधदादियवरनक ॥१२॥ केसरिल्लदतिशय पन्नीर ॥१३॥ पोसदउपवासद करमा । ॥१४॥ नशळिदिह 'यश' आणि ॥१५॥ मुसल 'ब मुटटदयश' स
॥१६॥ कुसुळदे 'पाळ डग्रनयन् ॥१७॥ लस 'दरव्यवनेलल वरिग ।।१८।। गसवरिण 'परिणयोगद्दार' म ॥१६॥ सरुदारु 'द्रवयानक' ॥२०॥ मसबूश 'गणितवनध' वय ॥२१।। कसवळिसुत बाळव' अनक' क् ॥२२॥ यशवेलल 'बळ तिरुव' तत् ॥२३॥ 'भूसुरराधिप' यशवा ॥२४॥ 'वश वर 'तिया बदनका फ ॥२५॥ लशवनकदोळु 'बनद्' फला ॥२६॥
'यशदनक बेरडागुव' नि ॥२७॥ वज्ञवद 'तिशयद विद्या' अच ॥२८॥ काशाच्यापिय 'यलयानक' ॥२६॥ जि* तवनु 'पेळेमुन्दकेशरतकैवलि । शत 'गजिनवारिणय अनु' म नुतवा 'हदिनाल कु घन पूर्वेगळलि' हिदि 'कटिरिसिरदा' रतेय ॥३०॥ ग* व'पूर वेयोळ जनर'वर जीवनकौम्दु । सवि पूर वे[४] र म'द का* ळ ॥ रवणीयवादोम्दुपराणावायद' सदिकरमदोळ 'धौविनुनो ॥३१॥ व* नुबनुहदिभूरुकोटिय क्रमवादसि । धनराधानतलेककद'लि * जिन पददलिशरमहारियायुर्वेद । वन (५)धर्मसाम्राज्यमन्यम् ॥३२॥ रिश व घीय 'वादोवेददनकवु कर्म' । सद्यय 'जाड्यगळ कोललु, त* 'वु ॥ दु' ददद 'निर्मलबइ मध्यम्मद' । सद् दिदलि' तारचहि ॥३३॥ * ररोळ्'शरभरुगुरिसिदक्षरदश् [६] अ । वर'मालेय सोननेग' ना ॥ सरळारम्कदहिन्देप्तालिनोळ्नालनालकम् । देरडम्मेले सोनुनेगुसो'
॥३४॥ दा र 'नने एन्टेरडयदु नूलन्ते बन्। दार'दरडोनदेरड् आ७] द अ॥ शारदे नालग्गेलोपहचचुवाकर्ष। नूरा 'ह' पायारिद्न्इ ॥३॥
(२१२५२८००२५४४००००००-प्रा.दअन्क) कर पात्र दान याम्स् अर ॥३६॥ यनवन्द्य शरी बरमहवत्त ॥३७॥ . ... विरेदान सुरोन्दर सेन ॥३८॥ भरळलु इन्दर नक्ष तया ॥३६॥ लारन्क पन सेनवनी
॥४०॥
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सिरि भूक्षय
नश्रेष्ट महेन्द्र सुरमे गिरियग्रब पुनर्नस्थ रद्द विशाखदत्त सुरुचि बेरे महालित नन्दि सम
॥४१॥ ||४४ ॥
यस सोमसेनणुसुरती नेरेयोपुष्यमित्र भूपर् भारतजयदत्तसवर्णिः
॥४७॥
सोरमेय्य सोमसेनन् रुथा सेरेयवि सन्वर करुनि दोरे धन्य सेन सुरनुत हषभर ध बत्त ॥५२॥ ।। ५४ ।। सरुवरियुपत्नालकु दात ॥५५॥
11.PH सा
नुरद सुमित्र धर्ममितरम् ॥५०॥ वरसेन वन्य सेन गणभु ॥५३॥ मरेय सुकूळर सरनुत् श्र* दु‘वय्यसालन्कसरदपादरसपो' । कद लागदनतद' श्र* रद ॥ विध'हूविनिन्दरेदागलीले यिनदिषटु' । विध' इदर गळुन् ( ८ ) मतनश्शा । ५६ । म न यशवागिश्रोन्दरोळोनद के रे। 'नल 'देहो सपुटदो भ' न ॥ राशिस' नरशकावयभूवलय' (६) 'नित्य' । श्रशेध व बनविते' ते सु* 'रसदरक्ष' एकाव्यदोळे न दुभे । व'रव' जमष्टधा सूत्र । य र बवा 'गलु पुष्पद रसदिन दहो स व सिद्धरसवादनत ' ॥ स् प्रवतु श्रादिमनु 'भरत' म् ॥ ६१ ॥ अवरोळु सवि'मित्रभाव' म् ॥ ६४ ॥ ववरोळ 'दान्धवीर्य, धना ॥६७॥ कविवन्द्य' सीम्प्रन्ध र 'वर् ॥७०॥ भवने स्वयम् भू' भूभुजम् ॥७३॥ पाचन प्उन्डरीका' यस ॥७६॥ ळ्वरोळुमिरि 'नारायण' उम् ॥७६॥
घनिर 'समवागि कुसुमायुर् वेदद महि । मे' न 'यसारुवनस' सियस ॥५७॥ ॥ लेसिन 'तुवीर्यरक्षणेभाळ पद्यवरान' ईशन 'कद सिद्धरापम्न || ५६|| र बजरिद्धियक्ष्यपुराणरक्षणेय 'र'ल [१०]रसपवक्वा' वास्म् ॥५६॥ वराने 'होस वय्य दानद फलदिन्दा' सवना'त् मगेहोस' तिन शाम् ॥६०॥ उवश्रोत्रु सिरि 'सत्य भूयाव' म् ॥६२॥ ववएस ' सत्य वीर्य' नउम् का ॥६३॥ त्वनुम् ई सिरि 'मित्रवई' ॥६५॥ लुव वश 'धर्मवीर्य' वना ॥ ६६ ॥ नव श्रोतर श्रव 'मघव वीर्यम् ॥ ६८ ॥ गेविवर 'वोद्ध वीर्य आ' तुक ॥ ६६ ॥ श्रप्रश्ररोह 'त्रिपिष्ट' सधर्म ॥७१॥ विविधभ्यक्ति 'द्विपिष्ट्य' वनगा ।।७२ ॥ लावण्य 'पुरुष श्रोत्तम' नत् ॥७४॥ गवरोळ, 'पुरुषवर्थ' वया ॥७५॥ लिबियर 'द्मत्त ' श्रयतुम् ॥७७॥ गवियोग 'कुन्नालय' सरस ॥७८॥ चवन 'सुभ् श्रम्' 'अजितन्ज्यधत् ||८०|| लव रोळ्उ 'उग्ररस एस्' बघा कविवन्द्य श्र 'शरिणकश्चन रप म् ||८३ ||
॥८१॥
मथविव' अज्इत्यस्एन' अस ॥८२॥ घ* र'देहप्राप्तबागुवद्ध' (११) तु श्वळिधू । सरितवागिह मुनिदेह ' ॥ सि र 'दळिनस्पर्शन वागेहाळाद' । नरनिगे 'मह महा' तत्क ॥ ६४॥ * वेद' व्याधियरिद्धिगे' सवि 'हेळव' । सवि 'रामबधर्धिम्' (१२) * । अवर् 'तम्मवाधिय 'सवि' एन्जलुगुळलु' कविद्' उम्मुवसेचनेय ॥ ८५ ॥ # वर्'यिन्दनस्मव्याधिगळेल्लउपशम' व 'वपुदु' नव दा 'हेम्मे ॥ नव 'क्ष वेळव्क्षधर धियर' [१३] ल्लिनुगुवं । बेरिनिम्हदुव मल' यो ॥ ८६ ॥ इ* नि 'दिन्द कोनेगालद रोगबडगे 'श्री । 'जिन मुनिगळ रिद्धियद न्* घन 'भल्भोषवि' रिद्धि ' एनुव राना म'न' को विदा (१४) लीले' व्॥८७॥ दा* रियिम् किविदनतनासिककर रिंगन' । सारमेय 'मालेगळिम् बन तु ॥ सोरि' दमलदिम 'हाळागेसकलरो' 1 गारागे 'गदरिद्धियुन्टु' इ॥८८॥ आरमरु बेश 'काल' र वश) दु ||८|| रडु एन्व्ऐने 'पाश्वद्वय' ह ॥६०॥ वर होळयुप्रदले 'प्रश्इ' प ॥११॥
सर्वार्थ सिद्धि संच बेंगलौर-दिल्ली
॥ ४२ ॥ ||४५||
॥४८॥
॥४३॥
॥४६॥
॥४६॥
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२१६
सिरि मुखक्षय
पार्थ सिद्धि संभ मनोर-क्तिी
वर 'शीतलर्ड' 'माळ अब प्र' स ॥२॥ यर 'देश' वास्पू ज्य' अर् ॥३॥ द्र 'विमलानन्त् ' समय ॥१४॥ रुरु '
धम्र मल्लि नम् इन्क ॥६५॥ ह.अरु 'म् उनिसुव्रत्म' अवेर ॥६६॥ मूरु एळूजन अर'मन गनरम 18RI लररु 'बीररु नेम रि 'विदेह अ' वफ 180 यरु 'शान ति कुन थउ पर अ' वल ॥६६मरर 'कुरुशान्गमरण' रह मत् ॥१०॥ वर 'देश' दउत्तरय 'स् भरया ॥१०१॥ मूरि 'वलय अवर पर इग ॥१०२॥ तिरुगविह प्रभूवमलयअनु'म ॥१०॥ वरुशिसल मा 'देशपद्म' प ॥१०४॥ भरत वेशव सिरियन बघरा ॥१०॥ फनाड अतिशयद् कुरु हु ॥१०॥
'परषदकरिण' यदुसरस् ॥१०७॥ वर 'वयाग्यवुसतत् ॥१०८॥ 'नरर सद्भाग्य भूवलया' ॥१०॥ पर बर् प्रागेपेळूमलषधर्षिय सम' (१५) सवियव 'लालित्यत्व अगे । सवि'काव्यनाजयिन दलि'बरुवन ते । अदु 'सालादमल
मृतरादि ग् ॥११॥ उ* ग् ‘अळपालेल्ल दिव्यवषधवप्पवे । गल'बहेलुच्चे विष्टा' प ॥ 'बग'धर्धिनम् (१६)आगे'तनुविनस्पर्शदगाळि । युगुळि
__ 'सोकलु' अ 'तनुविन न ॥११॥ ब* सिद'व्याधिगलेल लकोनेयामिनीरोग'। दनुवागुवरिद्धिय ज' र। ह 'नन सर्वक्षधर घि सना' [१७] यु 'मनवसोम कि । '
न 'कालकूटवम इतवम् ॥११२॥ प्रदु 'वप्प जिनमपदन्तिर प रिद्धि मु-। नि' द 'यमुखवसार द' सिविष' ।। बदु वम रुतवदागे तनुप्रास्याविषर घिय । सि' (१८)
दबर नेरदद्ष्ट् ' वि ॥११ कुर विदई बोळलुविषव' द 'म रुस सार' । स 'बागुव रिविधियदु सेरिन् सचिय् 'अ मुनियवृष्टियुविष बम रुतसा । खेदष्टिविषधि ३॥
भ' [१५] वनच् ॥११४।। इदु'चित्रविचत्रवावषधरुधिगळ्' । इद 'एन्दुहवरके घरि 'बन्दु' । अदुसारिरुवचित्रबल्लियेमोदलाद' । अदर 'मूलिकेगळम
स्' पक् ।।११।। देदकल, अमकतवदुविष ॥११६॥ मदबळियुव सोपिनरुणा' ॥११॥ रिद्धिगे बरुबदु सरह ॥११॥ गदुकिन तिरुळवु 'केपळक' ॥११॥ प्रोदळ 'मावलदगिड' ॥१२०॥ वदन रसके वममुगुम् ॥१२१॥ रदरलि 'बन्त दुरमल' न ॥१२२॥ रोधन 'कर्णकुन्डल बज् ॥१२३॥ 'उददन्क गणवे' य सकदश् ॥१२४॥ 'नूलिसुव हवनरे' ए ॥१२॥ 'ठददक्षर' गुणवरिय ॥१२६॥ उदय के तिरुगुव पदुम' ॥१२७॥ रद 'रेलेयद हविनरस्' ॥१२८॥ 'पद्मावति दैविय अणिमा' ॥१२६॥ ददनक 'रसमरिण' यदुभि ॥१०॥ इबरलि 'देवेन्द्र यति' हि ॥१३॥ सब "जिनववत गैयदनुपा ॥१३२॥ प्रादर 'लकिय मर' पा ॥१३३॥ गवहर 'सर्वसार' वद ॥१३४॥ इदरिदद 'रससिद्धि बुवस ॥१३५॥ यदु 'प्रारणावाय रस' मा
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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलौर-दिल्ली
विध 'वयवववन्गकोविद' न ।१३७॥ 'सदनद त्यागिगळ्गवनि' ॥१३॥ ल* दद 'रिसि ग्रन्धके तनु ताम् (२०)तन्क्षण । हदिनेन्दुस्मा र इरश्लोक' ॥ स 'द सूतर वयद्यान्कनकमवि 'दि चित्रि ।
सि' ह हदिनेन्टु साविर' व ॥१३६॥ ए* रिसिजातियउत्ततमहविनिम'सारसगो[२१]रसवनु है' ॥ पारद अहूविनिम् मर्दिसि पुट' । दारय 'विद्ध 'होस रस' र ॥१४॥ स* वरणनु 'घुटि केय कटि' द 'रससिद्धि' । रवि 'यामसिद्धान्त' द क षा । खरसायनहोसकल पसूत्रवयद्यवद् [२२] सुवशगोलि
_ सिदश्री' शयति ॥१४॥ आ नुव समनतमद्राचार्यऋषियुपा' । रणवणावायदिन्न स्शी । लण्येन्दु होसेदकाव्यवुचरकादिगाळ'रिणय रियासद्श'तु ॥१४२॥ स्वरण वयद्यागमक(२३)ल्लितायुर्वेद' । सवन'वेल्लवु'सदि प्रोक्ष दु। अबु 'हुट्टितिल लिन्दइळे यवरेल ल'हासविविल लिन दबळे सुतम् ।१४३॥
दवषभाजितानन्तकु ॥१४४।। नव अभिनन्दन एल्ल ॥१४॥ केववर अयोध्या पुरक् ॥१४६॥ तव शम्भव शरावसतियष॥१४७॥ रविनीतापुर सुमतिपय ॥१४८॥ बुद्ध पद्मग्रम पुरसुक ॥१४६।। दव कवशभिय पुररु ।।१५०॥ वव पाश्व सुपाश्व रविता॥१५॥णु वाराणशि एन्देने काशिम्॥१५२।। पवि चन्द्रप्रभ चन्द्र पूरदो।।१५३॥ वय सिरि पुष्पदन्त जिनष।।१५४॥ नष पद काकन्दिपुरम् ॥१५॥ नव शीतल भविळा पुरप्॥१५६॥ व श्रेयाम्स सिम्हपुर ॥१५७॥ उवासुपूज्य चम्पापुरप।।१५८।। केविमल काल्य पुरश् ॥१५६॥ अव धर्म रत्नपुर वय ॥१६०॥ देव शांति कुन्यु अर वरदद।।१६।। . प्राबरु हसृतिनापुर सदभि।१६२॥ ब्य मल्लि नमि मिथिलेयवर्॥१६३॥ रव मुनिसुव्रत कुशाग्र पुरज॥१६॥
ह.वनवे नाम द्वारावति एन ।।१६५॥ अववीर कुण्डलपुर पा ॥१६६॥ मवरेल्ल जन्म भूवलय प्रा॥१६७।। अ बरोळ जीव हिम्सेय सेरिसि तन्दा ख' व 'कर काव्यके धिह का' ना* नव 'स(२४)लेलेयायुर्वेद शब्दव'। सिव भगवन्त सालिनिस्'न।।१६८ म नवप्राणाबाय शोलवेन्दर जीव' । वनु 'रक्षेयेन्दोरेदिरे' दुॐ मा। नवनद पालिस बेडवे दयेने (२५)। नवम 'कलित जीवर'१६॥ मे* लेन्दु 'कायब कलियदवर कोल्व । बलवन्त चरकन' वयद् य मतम्। सोले 'अमगेलुतलहिम्सायुर्वेदव'। साएम रक्षिय बलभद१७०॥
* नद'प्राणावायबदि[२६]यावरजीयार नव'कोलुवुदरिन्दलेतमानि तु 'वु पापय होन्दुवरेम बावीर। जिन 'बारिणय नेनेयवे'तान् ॥१७॥ एॐ रिद 'हिमसेयभावनेगिहृदु धिह । कारने[२७] करुणेय सर्व अ' * ॥ नेरिद 'जोवर मेलिरबेकु दो। बा रेयुवुदागषध ५ इंप्रा१७२॥
उरुहि कर्म 'वमश' दोरेवश ॥१७३॥ दर श्रेष्ट 'प्रोमदेरळमूर' व ॥१७४॥ वर'नाल्कयदार एन्ट प्रोम्बत्॥१७॥ तर 'हत्तु हन् प्रोम् हन्एरळ 'शु ॥१७६।। दर 'हदिमूर हदिनाल्कवरा ॥१७७॥ धारे 'हत् प्रोवत् इप्पत् प्रोम्दन् ।।१७।। नराज वमश इक्ष्वाकु स ॥१७६। सिरि पावर सुपाव उग्रउर ॥१०॥ धर्म शान्तियु कुन्युमरह ॥१८॥ वशिसे 'कुरुवम् शववर' ॥१८२॥ मरळि इप्पत् अन्क वरव ।।१८३॥ विरचित हरिवमश हरुशन्न ॥१४॥ हरु वर्धमान रिश्य च ॥१८॥ अरहन्त नाथ वम्शजय म॥१८६॥ ग्रसुगळलि नेमि हरिव ॥१७॥ लरयदा कूडलयदु वर स् ॥१८॥ भ्रतव राजवम्श ए ॥१८६॥ उरिद धर्म पालिपन ॥१०॥ वर राज जिनवम्श बरस य् ॥१६॥ परउर अवसर्पिण हुन्ड्यो ॥१६२॥ वर वउषभादि वीरांतर् ॥१३॥
कारण कार्य भूवलयर् उ ॥१४॥ ॐ रवरिम् 'इरुवेन्दु सिद्ध समन्त भद्' । रह 'रायन चरि त रण ॥ के रगि 'नमिसिबरहुदि (२८) ख्याति पूजा ला। भ' र
'दायिम् चरका' भ ॥१९॥ इ दिदि नूतन प्रन्य कर्तारर् प्रीतियिम् । विधि 'हिम्सेय पोरे' स* 'यलु'तर रसविद्येयातकेसिद्धियागुवपदव'नम[२६ नतमस्तक'यो। १९६॥ रिश रण'वागि गिडदोनुकुळितिर्द नुतमू। लिणे केगळ हूँवम हतिस' न् विनद 'लहिम्सेय व्रतदोन्दिगे दिव्य । गुरगदक्षिय सिधौषध'।१९७ . मिराज नितरोतागोतमोलकाता Tanasifamw--.---.'.'...
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पर सुमित्र विजय ज्येव ॥२१६
पप रसद वि 'जयवाग कर लि जर् 'यम मु
मा
पार गबु हा
ह- रुष 'दायुर्वेद जल[३१]पूर्वारजित'। वरद'त्पीडन रोग'ातख. नवेल्लव सार्वजनिकरेल्ल । क' र 'ळेवु निवारण सुखव" इ॥१६६।। रे* गि 'साघिसेरेन्दु पेळदम सार्वन्गे' । बेमादि 'सुखसिद्धिय हो ज'[३२]वेगदि जयिसिरि कर्महिम्सेय नग मार्गादजय' वरेता॥२००।
घगुरगर तन्दे' ये वरद् अवन् ।।२०१॥ गुमिसे 'नाभिराज वास ।।२०२॥ यगरिसे 'जितशत नुपम ॥२०॥ मगुळलु शीरवि जित् प्रार् ई॥२०४॥ सिगुरि 'सम्बरर 'मेघरथर्ष' ॥२०५॥ वग धारणर 'सुपत्इष्ठ' ॥२०६।। सगुरु 'सेन सुग्रीव अ' कन्य ॥२०७॥ दम 'वस्वरय विमलवाहनर'स ॥२०६॥ बगेवरु 'वासु उज्य' रुसक् ।।२०६।। मग त वर्म'सिरियर अह प्रा२१.०।। अधरव 'सिम्हसेन' वरन् अच् ॥२११॥ द्ग 'भानु विश्वन' स्एनवन् ।।२१२॥ सगधरर 'शूरसेनन' बत् ॥२१३॥ अगुरु 'सुवर्शन' विधयए ॥२१४॥ दगरुयु सिरि 'कुमभवन' यय॥२१॥ वगरण 'सुमित्र विजयन' बनस् ॥२१६॥ र्ग 'समुद्र विजय राज' वरन्प्र॥२१७॥ लग 'विश्वसेन सिद्धार्थ अ॥२१॥
एगरिपर् 'पितृकुल' रुज्येव ॥२१६॥ गगनबोळ निलुव 'भूवलय प्रा' ॥२२०॥ रिण* ज सिधियप्पुदु रसद वि 'जयवागे । धिज 'देह मोहमस* का भजसम्भाग्यदजयलाभहूदेल्ल'। सजससाम[३३] यज्ञदपशुहिम २२१ व र 'से अज्ञ रायुर्वेद अज्ञर मारिय । बर 'लि' जर् 'यम सुज" इ रुमा।। प'र'वन्दरिटुत्यागवमाद्धि'नरनोसरियो अज्ञतेयमपरिह ब॥२२२।। वा रिकुम(३४)पाप पुण्यगळ विवेचने'। वारि यिन्दिर पापप्रमत्रा' प्रापार र्गबु हिम्सेघेन्दु' रे 'प्रापत्तुम'सेरलु'बहुदेन्दु विटु'न।२२३॥
* बद् अ 'अहिमसेय शो पद्धतियवम् । यवनम(३५) वेवर' म घा* व।। सिव'गुरु शात्र'व'शरणेन्दु नबुत'सविय नोवुगकलिय'कुचू ।२२४ ग* म 'लु बरलु नावु पुष्पायुर्वेद' द । स 'मर्व पेळि सावुह उ' न सम 'ट्ट डगुव तेरच [३६]नमतवरेल्लरगे'।गम कलिसुवे वदरिम'च२२५ य* श द सम्मोददिदलि बन्दु हेम्मेय' । रस 'स्वर्णवादम' व 'र' लुह सबादवनेममिसब्स्यवसाधिसिपिस'रिमो[३७ भारतदेव-२२६ प्रा शद भाग्यव अहिमसेय सारुव'। ईशन्न हूपिनवव्या प्रोड प्रा' सार समग्रहब द 'नु शो पूज्यपा। दा सा'चार्यरसार' बस् ।२२७
प्रशर ताथियो 'मरुवम् थि ॥२२॥ दश 'विजया' के सुषेणा' न्ता ॥२२॥ शेयोळोमदेरळ मूरु अन्क अन् ॥२३०॥ इ 'सिद्धार्था' मङगला देविनन ॥२३॥ नव 'सुषोमा परुट्वि' नाल्कयदहो ।।२३२॥ गयदारेळेन्दु लक्ष्मरणध ॥२३३॥ रस 'जयरामा सुनन्दात् ॥२३४॥ आशा 'नन्दा विजयामम् अ ॥२३५।। नष अोमबत हत्तु हन् अोमदम् ॥२३६॥ यश द्वादश 'जयश्यामह' ॥२३७॥ मश हदिमूरन्क विहवद ॥२३॥ मश 'लकमिमति सुनभा' पा ॥२३६॥ डश चतुरदश हरपरिणमे प॥२४०॥ अशद 'ऐरा सिरिकान्त देविम् ॥२४॥ से हदिनार हदिमेळ अन्क ॥२४२॥ एसे 'मित्रसेन जावति'यर् ॥२४३॥ रस 'सोमा वरपिला' विन्तु ॥२४४॥ पशे शिव ब्रामहिला' अमम ॥२४॥
पसे 'प्रिय.कारिण दिनेन्टादिव ॥२४६॥ इ सिरिम्पत् नालुकु भूवलय ॥२४७॥ ए* व 'कल्याण कारक वर[३८]षिदुगत'। अबुषिधु सम्राध्धन सू' नो* कवइ 'त्रद हदवनरितु भूबल । ' वरन्फ ॥२४८।।
* स 'दारियमसिद्धरस दिनदोदगिसिहोस'काव्य कविनि[३६]तरु' व रस'बदु मङ्गलमयसिद्धरस कान्य। हुसियद अरहनागमासि ॥२४६।। म् रथ बरेदका [व्यव] केळि हिम्सेय' । सर्वथा 'त्यजिसिदि' न ता ।।पर्वव सरुवसम्पदवेल्लतरुव(४०) निर्मल मनवचनवुता ॥२५॥ प्रोम् 'काय त्रिकरण(मर्म शुद्धिय जिनवयन्य'। शम्कादि 'नेन्दुव च् 'राहम्मम् 'कोनेगिप्पत्एळन् कविरुब'श्रीनिम्म भूवलयकेधन' व२५१ तर नुमन वचन शुद्धिगळ भक्ति यिनदेना । जिनगे 'रगुबेनु (४१) चि* रका। लनमस्कारदे बरुब कय्युगिदिह। मनथियतिशय बंसया॥२५२। ए* नेस्बे चरकमहषिय हिमसेय। सानुरापदिनिय प्रारिसिह। जारस र* अमोघवर्षान्कन सळयोछु । क्षोरिणय सर्वच मतदिम ॥२५॥ सिक पारवतोशन गरिणतदे बह बयय । दनियोळ् पेळुव अङ्ग दविवरसमन्वयअन्तरोन्दोनबत। सविमूरपदोन्दु अक्षरय।२५४ म रललु हत्तुसाविरदिन नूरारु[एरळनुरारु]बरुवनक विदो ई'लू' म सरुवज्ञनेरिदहदिनाल्सुगुणस्थानापरहंत[गुरुपरनपरेयाद''अन्दबभूवलयद समस्त 'ळ' अक्षरांक १०,२०६+ समस्त अन्तराक्षरांक १५,३६०+समत्त अन्तरांतर १,८२७ = २७४२३
अथश अ- २,७९,७११+ ळु २७,४२३=३,०७,१३४
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चौदहवां अध्याय
स्वर अक्षरों में कु १४ वां अक्षर है । इसी अक्षर का नाम प्राचार्य सक्रम से निर्मोही होकर निर्मल तपस्या करनेवालों को इस भूवलय ने इस १४ वें अध्याय को दिया है , १४ वें तीर्थंकर श्री अनन्तनाय भगवान । ग्रन्य में छिपी हुई अनेक अद्भुन विद्यानों की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए हैं। वे अनन्त फल को देने वाले होने के कारण अतिशय धवल रूप भूवलय। मूवलय सिद्धान्त अन्य को सभी को भक्ति भाव से नमस्कार करना चाहिए। ग्रन्थ में स्वर अक्षर के दीपक को १४ मानकर अंग ज्ञान को अनन्त रूप गणित ! मन में जब विकल्प उत्पन्न होते हैं तब सिद्धांत शास्त्रों का यथार्थ रूप से अर्थ से लेकर गणना करते हुए ग्रन्थ को रचना की गई है। इन्हीं अनन्तनाथ भगवान नहीं हो पाता । मन की स्थिरता तभी प्राप्त होता है कि जब प्राणाबाय पूर्वक को वैदिकों ने अनन्त पद्म नाम भो कहा है। वह अनन्तपदन नाम श्री कृष्ण ज्ञान से शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है और तभी तपस्या करने की भी अनुरूप पर्यायसे जन्म लेकर कुरुक्षेत्र में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने के इच्छुक । कूलता रहती है। इसीलिए आर्यजन त्रिकरण शुद्धि को सबसे पहले प्राप्त कर अर्जुन को कर्तव्य कर्म का बोध, करानेवाली गीता का उपदेश भूवलय के ढंग लेते थे।३। से दिया था। उसका नाम श्री मद्भगवद् गीता पांच भाषाओं में अन्यत्र अलभ्य विवेचन:-इस तीसरे श्लोक के मध्य में अन्तरान्तर का एक श्लोक काव्य इसो अध्याय के अन्तरान्तर श्लोक में गनमः श्री वर्धमानाय” इत्यादि रूप समाप्त होता है। उसके अन्त में "नमिप ओ" शब्द है। जिसका अर्थ कानड़ो कानडी श्लोक के अन्तिम दो अक्षरों से निकल आता है। इस अध्याय के अन्त । भाषा में नमस्कार करेंगे ऐसा होता है । अन्तिमाक्षर प्रो भगवद्गीता के में बसा है उसी प्रकार से हम प्रतिपादन करेंगे। वहां "प्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म" ! प्रोमित्येकाक्षर का प्रयमाक्षर हो जाता है। वही प्रो अक्षर ऋग्वेद का गायत्री से लेकर भगवद्गीता प्रारम्भ होगी। माजकल प्रचलित भगवद्गीता से परे । मन्त्र रूप में रहनेबाले 'प्रोतत्सवितुर्वरेण्यं के लिए प्रथमाक्षर हो जाता है। इसो पौर विशिष्ट कला से निष्पन्न वह संस्कृत साहित्य अपूर्व है ।।
प्रकार मागे भी अनेक भाषाओं में कभी आदि में व कभी अन्त में प्रो मिलेगा; यह भगवद गीता पांच भाषाओं में है। पहले की पुरु गीता है। पुरुजिन पर वह हमें ज्ञात नहीं है। इस पद्धति से तीन आनुपर्वी को ग्रहण करना। पर्यात ऋषभदेव के समय में उनकी दोनों रानियों के दो भाइयों का नाम: इसका विवरण इस प्रकार है:विनमि पौर नमिनाथ था। उन दोनों राजाओं ने अयोध्या के पाववर्ती नगरों पहले-पहले अक्षर या ग्रंक को लेकर पाये-आगे बढ़ना प्रानुपूर्वी (पूर्व में राज्य किया था। उनके राज्य शासन काल में विज्ञान की सिद्धि के लिए अनु इति अनुपूर्व, अनुपूर्वस्य भावः प्रानुपूर्वी ) है । जिसका अभिप्राय 'क्रमशः बकुल ( सुमन ) श्रृंग देवदारु इत्यादि वृक्षों का उपयोग किया जाता था। प्रवृत्ति' है। वे दोनों राजा विविध भांति को विद्याओं में प्रवीण होने के कारण विद्याधर
आनुपूर्वी के तीन भेद हैं पूर्वानुपूर्वी, २-पश्चादानुपूर्वी, १-पत्रस्वरूप ही थे। और विविध विद्यानों को सिद्ध करने के लिए इन्हीं वृक्षों के तत्रानुपूर्वी । जो बांयी ओर से प्रारम्भ होकर दाहिनी ओर क्रम चलता है वह फूलों के रस से रसायन तैयार कर लेते थे। इसी के दूसरे कानड़ी श्लोक के पूर्वानुपूर्वी है जैसे कि अक्षरों के लिखने की पद्धति है। अथवा १-२-३-४-५ अन्तिम में "इन्द्रियाणां हिवरता' नामक संस्कृत श्लोक के अन्त में मिवा- आदि अंकों को कम से लिखा जाना जो क्रम दाहिनो मोर से प्रारम्भ होकर म्भास" है। इस वैज्ञानिक महत्व को रखनेवाले से बढ़कर अपूर्व पूर्व ग्रन्थों के 1 बांयी पोर उलटा चलता है जिसको वामगति भी कहते हैं, वह पश्चादानुपूर्वी मिलने से यह अनन्त गुस्सात्मक काव्य है। इस कारण श्री अनन्तनाथ भगवान है, जैसे कि गणित में इकाई दहाई सैकड़ा हजार प्रादि लिखने की पद्धति है का स्मरण किया गया है ।।
। इसी कारण कहा गया है 'मानां वामतोगतिः' यानी-अंकों को पति प्रक्षरों
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२२०
सिरि भूषजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली
से उलटी है। जहां कहां से क्रम प्रारम्भ करके मागे बढ़ना यत्रतत्रानुपूर्वी है ठीक भी है । जो विषय स्वयं समझ में न पावे वह गलत मालूम होना स्वाजसे ४,१,३,२ यादि ।
भाविक ही होता है । केवल एक ही भाषा में शुद्ध रूप से यदि वाक्य रचना माधुनिक गणित पद्धति केवल पश्चादानुपूर्वी से प्रचलित है । अत: वह करली जाय तो भी उस भाषा में रहनेवाले श्री वर्धमान जिनेन्द्र देव के केवल अधूरा है, यदि तोनों भानुपूर्तियों को लेकर बह प्रवृत्त होता तो पूर्ण बन जाता। ज्ञान में भलकनेवाली समस्त भाषानों को एक साथ शुद्ध वाक्य रचना करनेवाले श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भूवलय सिद्धान्य में तोनों पानुपवियों को अपनाया है। जीव इस काल में नहीं है। और इस अवसपिणी काल में आगे भी नहीं होंगे, इसी कारण उन्होंने भूवलय द्वारा संसार के समस्त विषय और समस्त भाषामों। ऐसा प्रतीत होता है ।। को उसमें गर्भित कर दिया है ।
भगवान महावीर के दिव्य वाणी में इस प्रकार मलको हुई दिव्यध्वनि पूर्वानुपूर्वी पद्धति से भूवलय में जैन सिद्धान्त प्रगट होता है, पश्चा-१ को चौथे मनः पर्ययज्ञानधारी ऋग्वेदादिचतुर्वेद पारङ्गत ब्रह्मज्ञान के सोमातीत दानुपूर्वी से भूवलय में जनेतर मान्यता वाले ग्रन्थ प्रगट होते हैं। यत्रतत्रानुपूर्वी पदों में विराजित बाह्मणोत्तमों ने अवधारण करके भूवलय नामक अंगज्ञान को से भूवलय में अनेक विभिन्न विषय प्रगट होते हैं।
ग्रन्थों में गुथित किया । अर्थात् सर्वभाषामपी, सर्वविषयमयी तथा सर्व कलाकिसी भी विषयका विवेचन करने के लिए प्रथम ही अक्षर पद्धति का। मयी इन तीनों रहस्यमयी विद्याओं को भेद विज्ञान रूप महान गुणों से युक्त प्राश्रय लिया जाता है किन्तु अक्षर पद्धति से विशाल विवरण पूर्ण तरह से होकर सिद्धान्त ग्रन्थों में गुचित कर दिया । उसका विस्तार रूप कंचन प्रगट नहीं हो पाता, तब अंक पद्धति का सहारा लेना पड़ता है। मंकों द्वारा ही यह भूवलय सिद्धान्त अन्य है । अक्षरों की अपेक्षा बहुत अधिक विषय प्रगट किया जा सकता है। परन्तु जब विवेचन:-श्री भगवद्गीता में अनादि कालीन समस्त भगवद्वाणी को
और भी अधिक विशाल विषय को अंक बललाने में असमर्थ हो जाते हैं तब मिला देने की असाधारण शक्ति विद्यमान है। गौतमऋषि वैदिक सम्प्रदाय के रेखा पद्धति का आश्रय लेना पड़ता है।
प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण वृषभसेन गणधर से लेकर अपने समय तक भूवलय में तीनों पद्धतियों को अपनाया गया है इसी कारण भूवलय । समस्त भमवद्वाणी रूप पुरुगीता, नेमिगीता, कृष्णगीता (भगवद्गीता) और द्वारा समस्त विषय प्रगट हो जाता है।
1 महावीर गीता इन चार गीतामों की रचना की थी और भविष्य वाणी रूपो महान मेधावी विद्वान रेखा-पद्धति से विषय विवेचन कर सकते हैं। आचार्य श्री कुमुदेन्दु की गीता का भी वर्णन संक्षेप रूप से किया था। उसके उससे कम बुद्धिमान विद्वान अंकों द्वारा विवेचन करते हैं । उसमे भी कम प्रति- उदाहरण को इसी अध्याय के कानड़ी मूल श्लोकों के अन्तिम अक्षर से देख भाशाली विद्वान अक्षरों के द्वारा ही विषय विवेचन कर सकते हैं। इसी क्रम सकते हैं । ऋषभमेन गाधर ने भी इसी क्रम से अतीतकालीन समस्त भगवद् से वर्गों से भी केवल ज्ञान के समस्त विषयों के ज्ञाता महात्मा थे। वह अवधि । वाणी की रचना को थी और उसी वाणो को श्री आदिनाथ स्वामी ने ग्राही ज्ञान का विषय है। आगे इन सभी विषयों को श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य विस्तृत । देवी के नाम से अक्षर रूप तथा सुन्दरी देवी के नाम से अंक रूप प्रकट किया रूप से बतलायेंगे ।३। ।
इसका जोकि विवेचन पहले कर चुके हैं इस समय भूवलय में दृष्टिगोचर हो संसार में रहनेवाले सभी जीवों के वचन में कुछ न कुछ दोष रहता। रहा है । इस प्रकार उपदेश करके वे सभी गणधर परमेष्ठी ने क्षणिक शरीर है। उस दोष को मिटाने के लिए विद्वज्जन शब्द शास्त्र की रचना करते हैं, ३ को त्यागकर चिरस्थायो शाश्वत सुख को प्राप्त कर लिया। इन सभी ग्रन्यों को किन्तु फिर भी उनको विद्वत्ता केवल एक ही भाषा के लिए सीमित रहती है ।। अंग ज्ञान परिपाटो से बस्तु नामक छन्द कहते हैं। ३००० सूबाहों के ज्ञाता वह निगुख भाषा दूसरे भाषायों के जानकारों को अशुद्ध सी मालूम पड़ती है। को विद्याधर चक्रवर्ती कहते हैं। उन समस्त गणघर परमेष्ठियों के वचन
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सिरि मूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ गतौर-दिल्ली मधुर, मिष्ट एवं सर्वजन हितकारी होते हैं । दयाधर्म का प्रचार ही इन समस्त लाने वाले ये मुनिराज हैं। उन्हीं के द्वारा विरचित यह भूवलय काव्य है। ग्रन्थों का उद्देश्य है तथा इसमें उत्तम क्षमा, मार्दव प्रार्जवादि दशधर्मो हो।
॥१३-२६॥ यतिशय वर्णन है।
६४ अक्षरों की जो वर्गित संवर्जित राशि आती है उन समस्त अंकों का जिस प्रकार अन्य जलों में कुछ न कुछ गर्दा (कीचड़) रहता है पर ज्ञान जिस महानुभाव को रहता है उन्हें श्रुत केवलो कहते हैं। और वैदिक सुगंवित जल में किसी भी प्रकार का किंचिद्मात्र भी गर्दा नहीं रहता, उसी प्रकार 1 मतानुयायी मंत्र-द्रष्टा कहते हैं। मंत्र-द्रष्टा वे ही होते हैं जो कि ११ मा अन्य धर्मों में कुछ न कुछ दुर्गुण पाये जाते है। परन्तु परमेष्ठी प्रतिपादित दश ! तथा १४ पूर्व से निष्पन्न समस्त बेद ज्ञान को मंक भाषा में निकालने में समर्थ घमों में किसी भी प्रकार की मलिनता नहीं पाई जाती ॥६ लेकर १३ श्लोक।। होते हैं। ऐसे समय मुनि श्री महावार भगवान से लेकर श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य
विवेचन:-इस अन्तर श्लोक के २६ वें श्लोक से लेकर ६ वें श्लोक पर्यन्त एक सौ (१००) थे। ये समस्त मुनि सदा स्व-पर कल्याण में संलग्न तक यदि पा जाये तो प्रथम अध्याय में कथित, कमलों का वर्णन पुन रुक्ति से रहते थे।।३ ॥ प्राता है। उसमें सात कमल पुष्पों से मुगन्धित जल (गुलाब जल) तैयार कर १४ पूर्वो में प्रथम के पूर्व को निकाल कर शेष ५ पूर्षों में विश्व लेते थे, ऐसा प्रर्य निष्पन्न होता है। यह काव्य रचना की अतिशय महिमा है। के समस्त जीवों के जीवन-निर्वाह करने के लिये वैद्यक, मंत्र, तन्त्र, यन्त्र, रस
दशधों को पालने वाले प्रोषधोपबासी मुनि होते हैं। उपवास शब्द वाद, ज्योतिष तथा काम शास्त्र आदि प्रकट होते हैं। उन सभी विद्यामों में का अर्थ-"उप समीपे बसतीत्युपवासः" अर्थात् प्रात्मा के समीप में वास करना । गूढातिगूढ़ रहस्य छिपा रहता है। उसमें रमणीय शरीर-विज्ञान को बतलाने उपवास है। और इसी प्रकार के उपवासी मुनिराज अविनाशी ग्रन्थों को। वाला, प्राणावाय (मायुर्वेद) एक महान शास्त्र निकलता है जो कि चौथे संद रचना करके शापयत् यश को प्राप्त कर लिया करते थे। वे महात्मा सदा । में विस्तार रूप वरिणत है ॥३१॥ अपने गुरु गरगघर परमेष्ठियों के साथ निर्भय विचरण करते रहते थे। इसी लिये। विवेचन-प्राणावाय पूर्व में १०००००० कानड़ी श्लोक हैं.। उन श्लोकों इन्ह कसा प्रकार के शस्त्रास्त्रा का प्रावश्यकता नहीं पड़ती थी। वे महात्मा में पृथक पृथक भाषा के भनेक लक्षकोटि श्लोक निकल कर मा जाते हैं। उसका पाहुड (प्राभूत) पन्ध की रचना करने में बड़े बुद्धिमान है । इतना ही नहीं, बल्कि ! अंक नीचे दिया गया है। बे अनियोग द्वार नामक ग्रन्थ की रचना करने में भी परम प्रवीण हैं। वे सूक्ष्मा-1 महा महिमावान आयुर्वेद शास्त्र भूवलय तृतीय पंड मूत्रावतार से भी तिसूक्ष्म ज्ञान में गम्य होने वाले जीवादि षद्रव्यों को गणित-बन्ध में बांधकर निकलकर पा जाता है। वह सूत्रावतार नामक तृतीय संड दूसरे तावतार अङ्गज्ञान में मिलाने वाले गरिणतागमज्ञ और अंक-शास्त्रज्ञ होते है। विविध खंड से भी निकल कर पा जाता है। वहश्रुतावतार नामक दूसरा खंड इस वस्तु अथवा शब्द को देख तथा जानकर उनकी वाह्याभ्यन्तरिक समस्त कलाग्यो । मंगल प्रामुत नामक प्रथम खंड के ५६ वें अध्याय के अन्तिम अक्षर से लेकर यदि को तत्काल ही व्याख्यान करने में कुशल होने से तत्तकालीन समस्त विद्वान् । ऊपर पढ़ते चले जाये तो यथावत् निकल कर पा जाता है। ब्राह्मण उनके यशों का गुणगान करते थे। यह अद्भुत ज्ञान साधारण जनता। यही क्रम आगे भी चालू रहेगा। अर्थात् पाँचवां खंड विजय धवल प्रत्य को सहज में नहीं मिल सकता। छोटे अंक को लेकर गुणाकार क्रिया से बड़ा । चौथे खण्ड के प्राणावाय पर्वक नामक खण्ड में यथा तथा निकल कर पा जाता अंक बनाने के बाद उन मत्रको अंक में एकत्रित करके उसके फलों को दिख- है। इसी क्रम से पागे चलकर यदि 8वें खण्ड तक पहुंच जायें तो अन्तिम . लाने वाला सबसे जघन्यांक २ है सर्वोत्कृष्टांक है तथा उसके अन्दर रहकर । मंगल प्राभुत रूप नववें खण्ड तक एक ऐसी चमत्कारिक काव्य रचना है जिससे प्रतशिय विद्या को प्रदान करने वाले अलोकाकाश पर्यन्त समस्त अंकों को बत- कि अष्ठ महाप्रातिहार्य वैभव से लेकर समस्त : खण्ड एक साथ सुगमता से
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सिरि भूवलय
सर्वाष सिबि संघ,बैंगलोर-दिल्ली
पड़ा जा सकता है जो कि कि धुतके.वलियों के साक्षात मूर्न स्वरूप है। पद का अर्थ दुरूह होने से इसे छोड़ देना पड़ा । अनादि सिद्धान्त पद के एक में .
हाथो के ऊपर रक्खी हुई अम्बारी को स्याही (इङ्क) से पूर्ण करके रहने वाले ग्यारह अंक प्रमाण अक्षरों के समूह को कौन ध्यान रखने में समर्थ हो उस स्याही से जितने प्रमाण में ग्रन्थ लिखा जा सकता है उसे प्राचीन काल में । सकता है ? अर्थात् इस काल में कोई भी नहीं क्योंकि यह श्रुतकेवली गम्य है। एक पूर्व कहा जाता था; आधुनिक वैज्ञानिकों के मन में यह बात नहीं पाती। ऋद्धिधारी मुनियों को इस क्रम प्राप्त वेद ज्ञान के अंक को प्रक्रमवर्ती यो। उनका तर्क था कि इतनी विशालता एक पूर्व की नहीं हो सकती; किन्तु 1 ज्ञान से समझ कर निर्मल रूप मध्यम ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उन्हीं मुनियों जब उनके सामने अद्भुत भूवजय शास्त्र तथा उसके अन्तर्गत प्रामाणिक गणित के द्वारा विरचित होने से यह भूवलय ग्रन्थराज महा महिमा संपन्न होकर शास्त्र प्रस्तुत हुया तब सभी को पूर्ण रूप से विश्वास हो गया और श्रद्धा पूर्वक पुण्य पुरुषों के दर्शन तथा स्वाध्याय के लिये प्रकट हुप्रा ॥३२-३३॥ लोग इसका स्वाध्याय करने लगे। इतना ही नहीं इसकी मान्यता इतनी अधिक ! विद्वानों ने माला के समान इन अंकों को गुणाकार करते हुये एक विशिष्ट बह गई है कि यह ग्रन्थराज राजभवन, राष्ट्रपति भवन तथा विश्व विद्यालयों । विधि से प्राणावाय पूर्व नामक ग्रन्थ से अंकों द्वारा अक्षरों को बनाकर दिव्यो(यूनिसिटीज) के सरस्वती भवनों (लाइब्रेरियों) में विराजमान होकर सभी वधियों को जान लिया था। वह समस्तांक छह वार शून्य और सरलमार्ग से को स्वाध्याय करने के लिए सरकार से मान्यता मिल गई है और भारत सरकार चार, चार, पाँच, दो बिन्दी, बिन्दी, पाठ, दो, पांच, दो एक, दो अर्थात् २१ की विधान सभा तथा मैसूर प्रान्त की विधान सभा में इसकी चर्चा बड़े जोरों हजार कोडा कोड़ी २५ कोटा कोटि, दो कोड़ा कोड़ी। से चल रही है।
आठ सौ करोड़ पच्चीस लाख कोड़ी चालीस कोड़ी अंक प्रमाण होता इस प्राणावाय पूर्व में १३००००००० (तेरह करोड़) पद हैं । और एक । है । उसको अंक संदृष्टि से दें तो २१२५२८००२५४४०००००० अंक प्रमाण पद में १६३४८३०७८८८ पक्षर होते हैं। १३००००००० को यदि उपयुका होता है। अकू से गुणा करें तो जितमा अंक प्रमाण होगा उतनी अंक प्रमाण प्राणाबाय प्राणावाय पूर्व द्वादशांग के अन्तर्गत एक पूर्व है जोकि उपयुक्त अंक पूर्व का पक होगा। यह सैद्धान्तिक गाना का क्रम है। भूवलय का क्रमांक प्रमाण अक्षरमय है, उसमें वैद्यक विषय विद्यमान है। चरक सुश्रुत वाग्भट्ट असाधा है, क्योंकि ३ प्रानुपूर्वियों को पृथक् पृथक गणना होने से अंक बढ़। को वृद्धत्रय कहते हैं वह वृद्धत्रय ग्रन्थ अथर्ववेद से प्रगट हुआ है, ऐसी वैदिक गया है। अर्थात् तेरह करोड़ तेरह करोड़ =जो अंक प्राता है उस अंक को। विद्वानों की मान्यता है। किन्तु यह बात ठीक प्रतीत नहीं होती क्योंकि उपयुक्त ग्यारह अंक ४ ग्यारह अंक=जो अंक प्राता है उसमे गुरणा करने से आने । अथर्ववेद छोटा है उसमें से वृद्धत्रय जैसे विशाल ग्रन्ध प्रगट नहीं हो सकते। वाला सम्घांक प्रमाण संपूर्ण आयुर्वेद शास्त्र बन जाता है।
किन्तु भूवलय ग्रन्थ का निर्माण ६४ अक्षरों को विविध रूप भंगों से ६२ मंक विवेचन:-पद पाब्द का अर्थ तीन प्रकार का है
प्रमाण अक्षरों से हुया है अतः भूवलय से सब भाषायें और सर्व विषय करोड़ों १-प्रर्यपद, २-प्रमाण पद और ३-मध्यम पद अथवा अनादि सिद्धान्त | श्लोकों में प्रगट होते हैं । इसलिए भ्रूवलय से समस्त वैद्यक विषय स्वतन्त्र रूप पद । अर्थ पद में केवल पर्याववोध यदि हो गया तो बस ठोक है। वहां पर से प्रगट होता है। उसका उदाहरण यह हैअन्य व्याकरण तथा गणितादि लक्षणों को प्रावश्यकता नहीं पड़ती। प्रमाण श्रीमद् भल्लातकाद्रिवसतिजिनमुनिसूतवादेरसाब्जम, पद में अनुष्टुप् प्रादि छंदों के एक चरण में पाठ आदि नियत अक्षर होते हैं।। 'अन्यार्थ' लाञ्छनाक्षं घटपुटरबनानागतातोतमूलम् । [भूवलय में इससे व्यतिरेक कम है ] सभी व्यावहारिक विद्वानों ने इन दोनों पदों देमंदुवर्णसूत्रागविधिगरिणतं सर्वलोकोपकारं, का प्रयोग व्यवहार में रखकर लोसरे को छोड़ दिया है क्योंकि अनादि सिद्धान्त ।
पञ्चास्यं लाजनाग्निभसितगुरपकरं भद्रसूरिः समन्तः ।
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सिरि भूषजय
सबचि सिद्धि संघ बेपतोर-दिल्ली
सुव्रती
यह वैद्यक विषयक इलोक पन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता, , जीवों के रोग निवारणार्थ वैद्यक शास्त्रों की रचना कैसे हो सकतो है ? केवल भूवलय ग्रन्थ में ही मिलता है।
जिन मुनियों ने जो ग्रन्थ रचना की है वह अंग परम्परा का अनुसरण यदि शारदा देवी साक्षात् प्रकट होकर अपने वरद हस्तों से स्वयं जिला करती हुई की है। अतः वैद्यक शास्त्रों का निर्माण करते हुए प्राचार्यों ने जिन का संस्कार करें तो उपयुक्त अंको का प्रामाणिक शास्त्र सिद्ध हो सकता है। प्रोषधियों के उपयोग को सूचना की है उसमें अहिंसा धर्म की प्रमुखता रखते करपात्र में पर्यात् मुनि प्रादि सत्पात्रों को बाहार पौष वादिक दान देनेवाले हुए वस्तुतत्व का निरूपण मात्र किया है। अतः उसमें कोई बाधा उपस्थित उत्तम दाताओं को यह प्रारणावाय पूर्व शास्त्र मालूम हो जाता है। इस काल नहीं होती। तक अर्थात् श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य तक जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है उनके
।
यह
यदि इस वैद्यक शास्त्र का निषेध किया होता तो १४ पूर्व में प्राणानाम निर्दिष्ट करेंगे।
वाय पूर्व को मंगवान जिनेन्द्र देव निरूपण ही नहीं करते। इस ग्रन्थ को किसी दानो बयांस ब्रह्मदत
मनुष्य ने तो लिखा नहीं। यह साक्षात जिनेन्द्र देव की वाणी से ही प्रकट .सुन्दर सेन
हुमा है। अतः इसका स्वरूप जैसा है वैसा लिखने में किसी प्रकार की बाधा नक्षत्राया पद्मसेन
नहीं है। भगवान जिनेन्द्र देव अपनी कल्पना से कुछ नहीं करते, किन्तु वस्तु का सोमसेन
जैसा स्वरूप है वैसा ही उन्होंने निरूपण किया । अतः इसमें किसी प्रकार की महेन्द्र सोमसेन
। कोई बाधा नहीं पाती आयुर्वेदिक में मनुष्यायुर्वेद, राक्षसायुवेद, पुष्यमित्र पुनर्वसु
तथा समस्त जीवायुर्वेद गभित है। राक्षसायुर्वेद में मद्य, मांस आदि अभक्ष्य सौन्दर जयदत्त
पदार्य मिश्रित हैं। जिनका सेवन करने वाले राक्षसों को सिद्ध शुद्ध पारा, विशाखदत धन्यसेन
स्वर्ण तथा लोहादिक भस्मों से तैयारकी गई सिद्धौषधियां लागू नहीं होती। सुमित्र धर्ममित्र
क्योंकि प्रशुद्ध परमाणुयों से रचित राक्षसों के अशुद्ध शरीर के लिए अशुद्ध महाजितनन्दि . वृषभवर्द्धनदत्त
औषधिया लाभदायक होती हैं। मांस, मदिरा, मनु, मल मूत्रादि के द्वारा तैयार दरसेन (धन्य सेन) सुकूल रस
की गई औषधियां अशुद्ध होती हैं। और ये अशुद्ध औषधियां अनादिकाल से बन्यसेन वर्द्धनदत्त .
यथावत् रूप से प्रचलन में आने के कारण अपने यथार्थ नामानुसार हैं। उनकी इन सभी राजाओं ने पाहार मादि ४ प्रकार के दान को सत्पात्रों को प्रयोग में लेना या न लेना बुद्धिमानों का कार्य है। देकर अतिशय पुण्म बंध करके तुष्टि, पुष्टि, श्रद्धा, भक्ति, अलुब्धता, शान्ति ! धर्म मार्ग में प्रवर्तन वृत्ति करनेवाले जोवों को हिंसादि पांचों पापों तथा अक्रोध इन सात गुणों से युक्त उतम दातूपद प्राप्त किया था १३६-५५॥ को त्याग देना चाहिए। अतः उनके लिए यह प्रशुद्ध पोषियाँ उपयुक्त नहीं
इसी भूवलय के चौथे खंड प्राणावाय पूर्व में १५००० फूलों से समस्त । होती। उनके लिए विशुद्ध रसायन मूक्ष्माति सूक्ष्म प्रमाश अर्थात् सुई के अन आयुर्वेदिक शास्त्रों की रचना इसलिए की गई कि वृक्षों की जड़, पत्ते, छिलका ! भाग प्रमाण मात्र भी सिद्धौषधियाँ कुष्ठ, क्षयादि असाध्य रोगों को समूल नष्ट तथा फलों के तोड़ने से एकेन्द्रिय जोवों का घात होता है। किन्तु महाबती 1 करके अमोघ फल देती है तथा वृद्ध मनुष्यों की काया पलट कर तरुण बनाने सुनिराज एकेन्द्रिय जोवों का भो वध नहीं करते । ऐसी अवस्था में व्याधिग्रस्त ! में पूर्ण सफल होती हैं इसका विस्तृत विवेचन प्रारणावाय पूर्वक नाम चतुर्थ
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सिरि भुवलय
मात्र सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली खंड में किया जायगा । उपयुक्त चौबीस दातारों ने माहार, औषधि, शास्त्र इस सुरमरक्षण काव्य में ऋद्धि, अय नाश, प्राण रक्षा, यश, (कान्ति).. अभय इन चार प्रकार के दान सत्पात्रों को देकर त्रिकालवी जोदों के कल्या- इस्तम्भन, पाचन आदि पाठ मूत्रों द्वारा औषधियों का वर्णन है । णार्य लोकोपकारो इस विशुद्ध आयुर्वेदिक शास्त्र को स्थायी रक्ता। उनका उस रत मरिण को सेवन करने मान से नवीन जन्म के समान नवीन , यह कार्य अत्यन्त श्लाघनीय है ।३६ ५५॥
कायाकल्प हो जाता है। तथा उस रस मरिण सेवन से प्रात्मा में अनेक कलायें उपर्युक्त प्राणावाय पूर्वक जो अंक हैं उतने ही अंक प्रमाण एक तोले । प्रगट होती हैं ।६० परिशुद्ध भस्म बनाये हुए पारे में छिद्र हो जाते हैं। छिद्र सहित बह पारा' इस रसमरिण को सबसे प्रथम भरत चक्रवर्तो ने सेवन किया ।६। परस्पर में पुन: नहीं मिलता 1 इसी पारे में यदि फूलों के रस से मर्दन करके इस पृथ्वा के वही पुरुषोत्तम थे।६२॥ अग्निपुट में पकाया जाय तो वह रत्न के समान प्रतिभाशाली विशुद्ध रसमणि वे हो सत्य वीर्य शाली थे ।६३। बन जाती है। उस मरिण को बज़ खेचरी धुटिका, रलत्रय औषधि, बसन्त
वे सदा शत्रु मित्र को समान समझते थे । ६४ ।।
इस कारण वे साम्राज्य ऐश्वर्य के अधिपति बन गये थे।६५४ . . कुसुमाकर इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं । इन मरिणयों को पृथक् पृथक रूप से यदि अपने हाथ में रखल तो आकाशगमनः जलगमन इत्यादि अनेक वे ही मर्मज्ञ तथा धर्मवीर थे।६६। सिद्धियां उपलब्ध हो जाती हैं। यह सब पुष्पों से बन जाता है न कि वृक्षों को। ये ही दानवीर थे १६७१ छाल आदि एकेन्द्रिय जीवों के घातक पदार्थो से १५६/
वे ही धर्म श्रोताओं में प्रमुख थे।६८.. - : विवेचन-माचार्य श्री कहते हैं कि जिस प्रकार भूवलय ग्रन्थ राज
वे ही शुरवीर योद्धा थे।६६। की रचना गरिरात शास्त्र की पद्धति से की गई है उसी प्रकार संयोग भंग से
वे कवियों द्वारा बन्दनीय तथा स्तुत्य (प्रशंसनीय) थे ७०।।
वे नवोन भर्म प्रिय श्रोता कहलाते थे।७१॥ (Permeetesletion and comlicacial ).
अनेक प्रकार की भक्तियों तथा बिनयों से युक्त थे.१७॥ वसन्त कुसुमाकरादि रसों के संयोग से विविध भांति की रासायनिक औषधियां प्राप्त की जा सकती है। जब केबल एक ही पौषधि में महान गुण
वे स्वयं-सम्राट कहलाते थे।७३। विद्यमान है तो संयोग भंग विधि से समस्त सिद्धौषधियों को एकत्रित करने पर।
वे लावण्य पुरुषोत्तम कहे जाते थे।७४ . कितना गुण होगा, सो वर्णनातीत है।
समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ शरीर धारक थे ७५३ ,
वे पावन पुण्डरीक ये ७६। १८ हजार पुष्पायुर्वेद के अनुसार कुल निकलने से पहले वृक्षों को कली
दान के प्रभाव मे नबीन फल प्राप्त करने वाले थे।७७५ तोड़कर उन कलियों का प्रकं पुथक् पृथक् निकाल कर पारे के साथ उस रस
इसी पकार योग धारण करने वा राजाला कुणाल था 1७८ .. में पुट देते थे, तब वह पाद रस कणि तैयार होता था ।५७।
ऐश्वर्य में नारायण के समान ये ७६। उस पुष्पायुर्वेद को औषधि राशियों को कहनेवाला यह भूवलय है।५८।
उस पौषधि के चबाने से सुभौम चक्रवर्तों के समान तेजस्वी हो जाते " उस पुष्पायुर्वेद के अनुसार तैयार की गई रस मणि सेवन करने से 10 वोर्य-स्तम्भन होता है, वृद्ध अवस्था यौवन पवस्था में परिणत हो आती है। उग्रता में वे भुजंग के समान थे। .उसके सेवन से यकाल मृत्यु नहीं होतो, शरीर मुड़ हो जाता है।५८
पृथ्वी का अज्ञान दूर करनेवाले ये 1८२ ... :...:...
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सिरि भूवलय
, सार्थ सिद्धि संघ मैंगसौर-दिल्ली
सातार
इस तरह भगवान महावीर के समवशरण राजा थेरिएक था ।३।।
धर्मदाय मल्लिनाथ ये तीर्थकर अंक है 18 ... ... ...... प्राप्त किया श्रेष्ठ मुनि का यह देह यानी इस मुनि का शरीर तप या संयम इसी अंक के मुनि सुव्रतनाथ हैं ।१६। के द्वारा तपते हुए धूलि से लिप्त हुये इस शरीर की पूलि को अपने शरीर से सात तीर्थकर अंग देश में अधिकतर बिहार करनेवाले हैं।९५! स्पर्श करने से रोम से जरित हया शरीर एक निरोग बनकर कामदेव के वीरनाथ और नेमिनाथ विदेह देश में 1851 समान तथा तरुण युवक के समान बन जाता है ।०४।
शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाच का कुरुजाङ्गल देश बलय विहार क्षेत्र अत्यन्त पुराने तथा असाध्य रोग के नाश करने के लिए अत्यन्त उत्तम -१००। मीठी राम वर्ण औषधि से युक्त ऋद्धि धारी मुनि के मुंह की लार तथा मूठन
समस्त तीर्थकरों का विहार क्षेत्र आर्यावर्त या भार्यवलय रहा है। .. को सेवन करने से तया यूक सेवन करने से संसारी सम्पूर्ण मानव प्राणी के सर्व-१
१०१-१०२॥ च्याधियां नाश होती हैं । उस मुनि को क्षल्ल अौषधि ऋद्धि कहते हैं।
इस प्रकार तीर्थंकरों के बिहार का यह (आर्यावर्त) भूवलय है ।१०३। जिस मुनि के शरीर के पसीना को हमारे दारीर को स्पर्श करने मात्र
एस व कसा तुघा महेश गुपक श्लोक (पय) है १०४.: से पुरानी व्याधियां का उपशम होकर नबीन कातिमाय सुन्दर काया बन जातो
यह भरत क्षत्र का वैभव है ।१०। . .... .... है तथा गर्व के साथ अपने को यह बतलाता है में काम देव हूँ अहंकार को
यह कुरु देश का प्रतिदाय रूप कुरु है ।१०६॥ उत्पन्न करने योग्य शरीर प्राप्त कर देने वाली यह सल्लोपघि ऋद्धि धारी
ये देश सरस है तथा पारस, पारा आदि को खानिवाले हैं।१०।। मुनि-के असीन का ही महत्व है ।८५८६।
ये देश महान पुरुषों के उत्पादक हैं तथा महान वैराग्य उत्पन्न कराकर ग्रादि से लेकर अन्त तक रोग को नाश करनेवाले, श्री जिन मुनि के
मुक्ति को प्राप्त करानेवाले हैं।१०८। ऋद्धि के शरीर की एक मल करग के अणु को लेकर अपने शरीर को लगाने
यह भूवलय मनुष्य के सौभाग्य को प्राप्त करानेवाला है |१६ मात्र से जो आदि अन्त का रोग नष्ट होता है ऐसे ऋद्धि को विद्वज्जन जल्लोषधि कहते हैं ।
जिन ऋषियों की जिह्वा (जीभ) पर आया हुआ कडवा, नीरस पदार्थ
भी मधुर (मीठा) रसमय परिणात हो जाता है, वह मघुस्रावी ऋद्धि है। उनके जिन यति के कान, अांख, नाक, दन्त के मल छूने मात्र से पारीर के !
शरीर का मल भी मधुर हो जाता है । ११०। .. ममस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, वह मलोषधि ऋद्धि है।
जिन ऋषियों का थूक, विष्ठा तथा मूत्र पृथ्वी पर पड़ा हमा सुख . वे साधु पुष्पदन्त भगवान को प्राप्त हुए हैं । - वे पार्श्वद्वय (सुपाश्वनाथ, पाश्र्वनाथ) को प्राप्त हुए हैं ।१०।
जाता है उस सूखे हुए मल मूत्र की बायु के छुने मात्र से अन्य जीवों के रोग ' वे मुरण की अपेक्षा गणनातीत-अनन्तनाथ को प्राप्त हुए है ।११।।
दूर हो जाते हैं, यह विडोषधि ऋद्धि है।१११॥ वे समस्त जीवों को संसार ताप से शीतल करनेवाले शातलनाय भगवान।
जिन ऋषियों के शरीर को छूकर बहने वाली वायु के स्पर्श मात्र से को प्राप्त हुए हैं १६२।
समस्त मानव पशु पक्षियों के समस्त रोग दूर हो जाते हैं, तया कालकूट विष समस्त विश्व से पूज्य वासुपूज्य भगवान हैं ।६३।
का प्रभाव भी नष्ट हो जाता है वह जलौषधि है।११२
. . .. वे विमलनाथ अनन्तनाथ को प्राप्त हुए हैं।४।
जिन ऋषियों के मुख से निकली हुई लार के द्वारा रोगियों का विष दर
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सिरि भूषनध
समर्षि सिधि संघ, बैंगलोर-विलो झे जावे यह प्रास्यविष नामक ऋद्धि है ।११३।
है। इसका नाम प्राणावाय रस भी है। इसको विद्वान जानते हैं । यह त्यागियों जिन मुनियों की दृष्टि (देखने) द्वारा दूसरों का विष दूर हो जावे वह। के पाश्रम से प्रगट हुमा है ।१३०.१३८ . दृष्टि विव ऋद्धि है ।१४
इस प्रकार १८ हजार श्लोकों द्वारा इस भूवलय में १८ हजार पुष्पों ऐसे ऋद्धिधारक मुनि जिस जनमें रहते हैं उनके प्रभाव से उस बनकी वन-1 के प्रभाव को प्रगट करवाले पुष्पायुर्वेद की रचना हुई है ।१३॥ स्पतियों ( वृक्ष, बेल, पौधे प्रादि ) के फल फुल, पत्ते, जड़, छाल आदि भी अठारह हजार जाति के उत्तम फूलों से निचोड़ कर निकले हुए पुष्प महान गुणकारी एवं रोगनाशक हो जाते हैं।११५॥
रसको पारद के पुष्पों से मर्दन करके पुट में रखकर नवीन रस की पुटिका उन बतस्पतियों के स्पर्श हो जाने से विष भी अमृत हो जाता है ।११६।। को बांधकर उस पुट को पकाने के बाद रस सिद्धि तैयार होती है। तब यही
श्रीजिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार उन वृक्षों के पत्र मद ( नशा रसायन नवीन कल्पसूत्र बंद्यांग अर्थात् माधुर्वेद कहलाता है ।१४०-१४१॥ मूर्खा) दूर करने वाले होते हैं 1११७।
___ यह आयुर्वेद श्री समन्त भद्राचार्य ऋषि द्वारा वशीभूत किया गया ऋद्धियों के उपयोग में आने वाले सरल वृक्ष ।११८१
प्राणावाय पूर्व के द्वारा निकालकर विरचित किया हुया असदृश्य काव्य है। तिरुह वृक्ष मादल (बिजौरा), वृक्ष की कली के प्रकं से दांतों का । और यह काव्य चरकादिक की समझ में न आनेवाला है । अर्थात् यह असहश्य मल दूर हो जाता है ।११६-१२२।
काब्य है । इसको श्रवण वैद्यागम कहते हैं । यह श्रमण वैद्यागम अत्यन्त लक्षित इनके फूलों को कुण्डल की तरह कान में लगाने से कान बज समान । आयुर्वेद है और यह श्रवणों के द्वारा निर्माण होने से अत्यन्त रुचिकर है तथा हब बन जाते हैं।१२३।
संसार के प्राणिमात्र का उपाकारी और हित कारक है । इसलिए भव्य जीवों उन पुष्प को सूचने से नाक के रोग नष्ट हो जाते हैं।१२४ की रूचि पूर्वक पढ़कर के इस वैद्यांग प्रर्यात् कथित आयुर्वेद कृति के अनुसार उन पुष्पों में अनेक गुण हैं ।१२५॥
इस औषधि को अगर जीव ग्रहण करेंगे तो इह पर उभब लोक सुखदायक इन समस्त पुष्पों को जानना योग्य है ।१२६॥
प्रारम हित साधन करने योग्य निरोग शरीर बन जाता है ।१४२-१४३। । सूर्य के उदय होने पर खिलने वाला कमल उदय पद्म है ।१२७१
इसका स्पष्टी करण श्री कुमुदेंदु आचार्य ने स्वयं करते हुए लिखा है इत्यादिक पुष्प पद्मावती देवी को परिणमा है 1१२॥
कि इस प्रायुर्वेद का नाम अहिंसा आयुर्वेद है और इस अहिंसा पुष्पायुर्वेद की राजा जिनदत्त इन पुष्पों को पद्मावती देवी के सामने बड़ाता था।१२६ परिपाटी ऋषियों तथा श्री तीर्थकर भगवानों के द्वारा निर्मित होकर परम्परा
राजा जिनदत्त उन पुष्पों को पद्मावती देवी के शिर पर विराजमान से चलती आयी है। इस चौदहवें अध्याय में पुष्पायुर्वेद विधि को घरकादि भगवान पाश्र्वनाथ के चरणों पर चढ़ाता था। भगवान पार्श्वनाथ के चरणों ऋषि ने समझने वाले विधि को जिन दल राजा को श्री देवेन्द्रयति और अमोध के तथा पद्मावती देवी के शिर के स्पर्श से वे पुष्प प्रभावशाली हो जाते थे। वर्ष राजा को यो समस्त प्राचार्य ने साधन रूप में बताये गये पुष्पायुर्वेद विधि उन पुष्पों के रस से श्री देवेन्द्र यति ने महान चमत्कार दिखाया तथा वह रस ! का इस अध्याय में निरूपण किया गया है । देवेन्द्र यति ने राजा जिनदत्त को दिया। राजा जिनदत्त ने उस रस से अनुपम । अहिंसा मय आयुर्वेद के निर्माण कर्ता पुरुषों के उत्पत्ति स्थान तथा फल प्राप्त किया । उस रस को पैरों के तलुयों में लगाने से योजनों तक शोध ! उनके नगरों के नामचले जाने की शक्ति पा जाती थी। इसी कारण इसका नाम पाद रस ऋदि। ऋषभनाथ, अजितनाथ, अनन्तनाथ १४|
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सिरि भूक्तय
सर्वार्थ सिटि संघ, मंगलोरलदिल्ली अभिनन्दन इन चारों का जन्म स्थान अयोध्या नगरो है ।१४५-१४६। इस तरह मनादि काल की परम्परा से चले पाये हुए अहिंसामय प्राशम्भवनाथ का श्रावस्ती है1९४७।
युर्वेद में दुष्टों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस मायुर्वेद में जीव हिंसा सुमतिनाथ का विनिता पुरी है ।१४८६
1 की पुष्टि करके रचना किया है । अत: इन खलों के काव्य को धिक्कार है ।१६८। श्री पद्म प्रम भगवान का कौशाम्बो नगरी है ।१४६-१५०।
अत्यन्त सुन्दर इस अायुर्वेद शब्द का अर्थ मायु तथा शरीर मन वचन श्री भगवास पावना या शुपविनाय को जन्म भूमि वाराणसी
मोइन तीनों बलों को बढ़ाने वाला है। और यह आयुर्वेद शिव तथा क्रम बस है।१५१-१५२।
श्री चौबीस भगवान की परिपाटी से निकलकर मनके द्वारा उत्पन्न होकर पाया
हुआ प्राणवाय नामक शौलगुरण है । होल का अर्थ जीव है । यह जीव हमेशा श्री चन्द्रप्रभ भगवान को जन्म भूमि चन्द्रपुरी है ।१५३।
अपने स्वरूप से भिन्न होकर किसी पर पदार्थ रूप नहीं होता । जीव के अन्दर श्री पुष्पदन्त भगवान को जन्म भूमि काकंदी पुरी है १५४-१५५।
। आने वाले तथा जीव को घात करने वाले प्रशुद्ध परमाणुगों को दूर कर जीन शीतलनाथ भगवान की जन्म भूमि भद्रिला पुरी है ।१५६।
| के स्वरूप की रक्षा करना या अन्य आत्मघात करने वाले अशुभ परिणति से श्रेयांसनाथ भगवान की जन्म भूमि सिंहपुरी है ।१५७।
बघना इस शील मर्थात् जीवात्मा का स्वरूप ही शील है। श्री वासुपूजय भगवान की जन्म भूमि चम्पापुरी है ।१५८।
इस श्लोक में प्राणावाय शील का अर्थ जीव दया या जीव की रक्षा श्री विमलनाथ तीर्थकर की जन्म नगरी कौशलपुर है ।१५६॥
३ कर दिया है। जिस प्रायुर्वेद शास्त्र में जीव रक्षा की विधि न हो श्री धर्मनाथ भगवान को रत्नपुरी है ।१६०)
३ या जीव हिंसा की पुष्टि जिसमें हो वह मायुवद शास्त्र जीव की रक्षा किस श्री शान्ति, कुथुनाथ, और अरहनाथ की जन्म नगरी हस्तिनापुर है।
प्रकार कर सकता है ? मायुर्वेद शास्त्र का अर्थ सम्पूर्ण प्राणी पर दया करना १६१-१६२१
है यह दया धर्म मानव के द्वारा ही पाला जाता है। इसलिए इस मानव का धी मल्लिनाथ नमिनाथ को नगरो मिथिलापुरी है ।१६३।
कर्तव्य सम्पूर्ण प्राणो मात्र पर दया करना बतला दिया है। क्या प्रत्येक मानव श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर की जन्म नगरी कुशाग्र पुरो है ।१६४)
को दया धर्म का पालन नहीं करना चाहिए? अवश्य करना चाहिए । और श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की जन्म नगरी द्वारावती है ।१६५।
नौमांक अर्थात् नौ अंक ही जीव दया है और यही जीवका स्वरूप है ।१६९। श्री भगवान महावोर तो कर की जन्म नगरी कुण्डल पुर है १६६।
जिस मायुर्वेद में एक जीव को मार कर दूसरे जीव की रक्षा करने इन तथंकरों का जहां-जहां जन्म है उनका जन्म ही यह भूवलय अन्य वाले विधान का प्रतिपादन किया गया है तथा जिसमें चरक ऋषि के आयुर्वेद
अर्थात् वैद्यागम को खण्ड कर अहिंसा आयुर्वेद का प्रति पादन किया है वह मह सूवलय प्रन्थ सम्पूर्ण विश्व के प्राणी मात्र का हित करने वाला है। । अहिंसात्मक आयुर्वेद है ।१७। यह सूवलय सम्पूर्ण संयम तप शक्ति त्याग इत्यादि परिश्रम से चार धातिया । प्रारणावाय से स्थावरादि जीवों की हिंसा करने से ही आयुर्वेद की कों के नष्ट होने के बाद श्री तोयंकर परम देवके मुखारबिंद से निकला हुआ है औषि तयार होती है अन्यथा नहीं क्योंकि जैन दर्शन में श्री भगवान महावीर है ।इस अहिंसामय भूवलय के अन्तर्गत निकले हुए अठारह हजार श्लोक ने सम्पूर्ण प्राणी मात्र की रक्षा करना प्रारणो मात्र का कर्तव्य बतलाया है। पुष्पायुर्वेद के हैं । और यह आयुर्वेद सम्पूर्ण जीव की रक्षा करने के लिए दया ! परन्तु आयुर्वेद की रचना प्रारणावाय के बिना अर्थात् प्राणी के वायु को घात अहित है।
किये बिना इस प्राणावाम पंचागम की दवाई तैयार नहीं होती । इसलिए
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सिरि भूषलय
सवार्य सिकि संच बेगलोर-बिल्ली इस प्राणादाय आयुर्वेद को प्रौषधि तैयार करने के लिए जोवरक्षा करना बहुत 1 को जड़ आदि को यहां ग्रहण नहीं किया गया है। रसायन औषधि का विधान अनिवार्य है। क्योंकि इसमें पाप का बंध नहीं होता। परन्तु अपनो कल्पना के केवल पुष्पों से ही होता है । इसलिए केवल पुष्पों का ही यहां वर्णन किया द्वारा कल्पित हिंसामय ग्रन्थ को रचना करके कर राक्षस के समान प्रकृति के गया है। मनुष्यों ने इस ग्रन्य की रचना करके प्रचलित किया है।
प्राणवायु के बारे में कहा भी है कि. इस तरह हिंसामय ग्रन्थ की रचना करने का कारण यह हुमा कि ।
"प्राणपानस्समानस्य दानव्यानस्सभानगः" भगवान महावीर स्वामी को अहिंसामय वारणी को तथा हिंसा और अहिंसा के इत्यादि दश वायु को सहायता लेनी पड़ती है। किन्तु जिनेन्द्र भगवान भाव को ठोक न समझने के कारण तथा इनको भावना पहले से ही हिंसामय ! को वाणी में प्राण आदि वायु की जरूरत नहीं पड़ती अनेक वस्तुओं से मिश्रित होने के समान तीन चढ़ी हुई थी। इसलिए इन दुष्ट तथा कर परिणाम के 1 होने पर भी उनकी वाणी का अर्थ स्पष्ट रीति से प्रतिपादित होता है। द्वारा विरचित इस पाप तथा हिंसामय अायुर्वेद ग्रन्थ को धिकार हो, ऐसा थी। इस प्रकार जो औषधि ऋद्धि है वह ऋद्धि जिस भव्य मानव को प्राप्त दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदेन्दु कहते हैं ।१७१।।
हुई है, उनको स्पर्श करने मात्र से परम्परा से आत्मा के साथ लगा हुपा कर्म सबसे पहले किसी भी मत का पागम, कास्त्र, घायुवद या प्राणावाय! वंश तत्काल नष्ट होता है ।१७३। इत्यादि जो भी शास्त्र हों उन सभी ग्रन्थों में सबसे पहले जीव दया अर्थात् इस ऋद्धि को प्राप्त किये हुए मानव में बेष्ठ १-२-३ ॥१७४। सम्पूर्ण जीवों के प्रति करुणा भाव अवश्य होना चाहिए क्योंकि यहां जीतों
४-५-६-८-६ १७ के प्रति बया या करुणा भावना निरूपण न हो वह कभी भी आयुर्वेद वद्यागम
१०-११-१२।१७६। नहीं कहा जा सकता । इसलिए सदा जीवों की रक्षा करने की भावना रखना
१३-१४-१९-२१ । ये राजबश तथा इक्ष्वाकु वंश के थे।। ७७-१७६। ही तप है और इसो के द्वारा रस ऋद्धि अर्थात् औषधि ऋद्धि की प्राप्ति होती
श्री पाश्च नाय और सुपार्श्वनाथ उग्र वंश के हैं। धर्म शान्ति नाप है।१७२-१७३।
और कु'घुनाथ अरहनाथ, ये कुरु वश के हैं ।१८०-१८१-१८२४ विशेषार्थ:-इस भगवान महावीर स्वामी के मुख से निकली हुई दिव्य I बीस तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ हरिवंश में हुए हैं । श्री बर्द्धमान ध्वनि के प्राणावाय पूर्व से निकलने के कारण इस सूचलय नामक ग्रन्थ में । नाथ वंश के है ।१८३ से १५६। किसी जीव की हिंसा नहीं है। महावीर भगवान से लेकर श्री कुमुदेन्दु आचार्य श्री नेमिनाथ हरिवंश के हैं 1१७ तक जितने भी यहां व्रतधारी दिगम्बर मुनि हो गये हैं वे सभी अनादि कालीन है ये पांचों वश हरिवंश ( इक्ष्वाकु वंश, कुरुवंश, हरिवंश, वंश, भगवान वीतराग की परम्परा से भगवान महावीर स्वामी के अनुशासन के और नाथ बश) भारत के प्रमुख राजवश हैं, इनमें धर्म परम्परा चली पाई अनुसार थे और भगवान महावीर से लेकर कुमुदेन्दु प्राचार्य तक जितने भी है और इस वश को दूसरों के ऊपर अच्छा प्रभाव रहा है ।१८८ से १९श व्रती दिगम्बर मुनि ये वे सभी भगवान महावीर के अनुयायी थे। इसीलिए । भगवान ग्रादिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक चले पाये हुए १६००० हजार जाति के पुष्पों से वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया गया था। हुएडाव-सर्पिणी काल में यह भूवलय ग्रन्थ कार्य कारण रूप है। यानीयहां पर यह प्रश्न उठता है कि वृक्ष की जड़, पत्ता और छाल इत्यादि न लेकर तीर्थंकर की वाणो कारण रूप और भूवलय कार्य रूप है ।१९२ से १९४१ केवल पुष्प को ही क्यों लिया ?
यह भूवलय अन्य किसी अल्पज्ञ का कल्पित नहीं है, बल्कि सबस उत्तर-रसायन औषधियां केवल पुष्पों से ही तैयार होती हैं । इसलिए वृक्ष तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि से इसका प्रादुर्भाव हुआ है। भगवान महावीर के
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सिरि भूवजय
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अनन्तर श्री समन्तभद्र, पूज्य पाद आदि याचार्यों की गुरु परम्परा द्वारा सुवलय ग्रन्थ का समस्त विषय श्री कुमुदेन्दु आचार्य तक चला आया है। ये समस्त श्राचार्य भगवान महावीर के अनुयायी थे। इन आचार्यों ने ग्रन्थ रचना किसी स्याति, लाभ, पूजा प्रादि की भावना से नहीं का इनका उद्देश्य स्व-पर-कल्याण तथा आध्यात्मिक विकास एवं प्रात्मा की सिद्धि हो रहा है | १६५ |
"श्री समन्तभद्र, श्री पूज्यपाद आदि आचार्यों ने जो लोक कल्याण के लिए रस-सिद्धि आदि का विज्ञान अपने मन्थों में किया, चरक आदि ने उनका यादर, आभार न मानते हुए अपनी ख्याति के लिए उप प्राचार्यो के ग्रन्थों का अनुकरण करके ग्रन्थ रचना की है । १६६।
. १८ हजार पुष्पों का रस निकालकर उसको पुट देवे फिर अन्य बर्तन में उसे रखकर उसका मुख बन्द कर देवे फिर उसे अग्नि पर चढ़ावे, तब वह नवीन रस सिद्ध होता है। इस रस सिद्धि के श्रनन्तर ही श्री समन्तभद्र, पूज्यपाद आचार्य ने वैद्यागम कल्प सूत्र की रचना की है। श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य कहते हैं कि श्री समन्तभद्र श्राचार्य ने प्रारणावाय द्वारा जो वैद्यागम कल्प सूत्र की रचना की थी वह अदृश्य होने के कारण रस सिद्धि विधान चरक श्रादि को प्राप्त नहीं हुआ तब उन चरक आदि परम्परागत रस विज्ञान को त्यागकर कल्पित रचना की तथा श्रायुर्वेद ग्रन्थ रचना चरक आदि से ही प्रारम्भ हुग्रा. ऐसी प्रसिद्ध कर दी और उस रसायन में जीव हिंसा का विधान किया ऐसे हिंसा विधान करने वालों को श्राचार्य धिक्कारते हैं प्रारणावाय यानी प्राणियों की प्राण रक्षा रूप प्रायुर्वेद तीर्थंकरों की वाणी से प्रगट हुआ है । चरक आदि ने अस जीवों की हिंसा द्वारा रस श्रौषधि विधान किया है उसे प्राणियों की प्राण रक्षा रूप प्राणावाय या आयुर्वेद कैसे माना जा सकता है ।१६७ | जन वृक्षों की कलियों ( फूल की अविकसित अवस्था ) को तोड़ कर अथवा वृक्ष से गिरी हुई कलियों को एकत्र करके जल में डालकर उन्हें खिलाते हैं, फिर उन कलियों का रस निकालकर उस रस से प्रतिशय प्रभावशाली रस औषधि तैयार होती है, जोकि इन्द्र को भी दुर्लभ है। गृहस्थ स्थावर जीव हिसा का त्याग नहीं है, अतः वह वृक्षों से फूल की कलियों को तोड़कर रसायन तैयार कर सकता है । दो इन्द्रिय आदि यस जीवों का संकल्प से घात करना गृहस्थ के लिए त्याज्य हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । १६८ ।
सर्वार्थ सिद्धिसंघ बेंगलौर-दिल्ली
उस रसायन की स्वल्पमात्रा भी सेवन करने से मनुष्य के महान तथा जो रोग नष्ट हो जाते हैं । स्वस्थ शरीर द्वारा मनुष्य तपश्चरण आदि करके स्वर्गादि के सांसारिक सुख प्राप्त कर लेता है और अन्त में अपने स्वस्थ शरीर द्वारा कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लिया करता है । १३३ ।
ऐसे प्रभावशाली जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट प्रायुर्वेद प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त करना चाहिए जिससे वह स्वपर कल्याण करके मनुष्य इस लोक परलोक में सुख प्राप्त कर सके। आयुर्वेद समस्त शारीरिक दोषों को नष्ट करके भौषaियों के गुणों से शारीरिक बल आदि गुण प्रगट करने वाला है ऐसे जयशील आयुर्वेद को सबसे प्रथम कर्म भूमि के प्रारम्भ में राजा नाभि राय के पुत्र भगवान ऋषभनाथ ने अपने पुत्रों को पढ़ाया था । २०० से २०२॥
प्रारणानुवाद पूर्व के रूप में भगवान आदिनाथ के बाद क्रमशः राजा जित शत्रु के पुत्र भगवान अजितनाथ ने राजा जितारि के पुत्र भगवान शम्भव नाथ ने राजा संवर के तनय भगवान अभिनन्दन ने राजा मेघप्रभ के पुत्र भगवान सुमतिनाथ ने, नृपतिघरण के पुत्र श्री पद्मप्रभ तीर्थंकर ने, सुप्रतिष्ठ राजा के पुत्र श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी ने राजा महासेन के पुत्र भगवान चन्द्रप्रभ ने, सुग्रीव राजा के पुत्र भगवान पुष्पदन्त ने, हड़रथ राजा के पुत्र श्री शीतलनाथ तीर्थंकर ने, विष्णुनरेन्द्र के पुत्र भगवान श्रेयांसनाथ ने वसुपूज्य राजा के पुत्र भगवान वासु पूज्य ने राजा कृतवर्मा के पुत्र भगवान विमलनाथ ने, श्री सिंहसेन के पुत्र भगवान अनन्तनाथ ने भानु राजा के आत्मज श्री धर्मनाथ तीर्थंकर ने राजा विश्वसेन के पुत्र भगवान शान्तिनाथ ने सूर्य सेन राजा के पुत्र भगवान कुन्थुनाथ ने राजा सुदर्शन के पुत्र भगवान अरनाथ ने, राजा कुम्भ के पुत्र भगवान मल्लिनाथ ने राजा सुमित्र के पुत्र श्री मुनि सुव्रत नाय तीर्थंकर ने, विजय नरेन्द्र के पुत्र भगवान नमिनाथ ने रजा समुद्र विजय के पुत्र भगवान नेमिनाथ दे, श्री भरवत राजा के पुत्र भगवान पाश्र्वनाथ ने और राजा सिद्धार्थ के पुत्र भगवान महावीर ने अर्हन्त पद पाकर उसी श्रायुर्वेद का उपदेश समवशरण द्वारा सूवलय ( भूमण्डल) में अपनी दिव्यध्वनि द्वारा दिया इस प्रकार इसको पितृ कुल भूवलय कहते हैं । २०३ से २२० तक।
पितृकुल परम्परा से चले आये प्रारणावाय श्रायुर्वेद से गर्मित सूवलय का स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति अपना शरीर निरोग करके परमार्थ को सिद्धि कर
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सिरे भूवक्षय
सर्वार्थ सिदि ग गौर-विमी नेते हैं। कर्म पहिंसा द्वारा सम्पन्न किये हुए रस का शरीर पर लेप करने से
श्री पूज्यपाद प्राचार्य ने प्रायुर्वेदिक अन्य कल्याणकारक द्वारा सिद्ध शरीर लोहे के समान दृढ़ हो जाता है। यदि उस रसमणि का लोहे से स्पर्श । रसायन को काव्य निबद्ध किया, उसी को मैंने (श्री कुमुदेन्दु ने) भूवलय के किया बावे तो लोहा सुवर्ण बन जाता है। श्री कुमदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि रूस में अंक निवड करके रोगमुक्ति का द्वार खोल दिया ।२४॥ रसमणि के सिद्ध हो जाने के समान प्राध्यात्मिक सिद्धि हो जाने पर पात्मा । यह सिद्ध रस काव्य मंगलमय रस को दिलानेवाला है। निसन्देह यह अजर-अमर बन जाता है ।२२।।
| भूवलय अर्हन्त भगवान का उपदिष्ट आगम है , इसको सुनो और हिंसा मार्ग श्री कुमदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि 'इसलिए अज्ञानी लोगों ने जो जीवों
(जीव हिंसा से औषध निर्माण) को त्याग दो ।२४६।२५०। की हिंसा द्वारा प्रौषधि तैयार करने का घायुवेद बताया है उसको त्यागकर मन वचन काय को शुद्धि पूर्वक भगवान के उपदिष्ट पुष्प आयुर्वेद को प्रज्ञान का परिहार करना चाहिए ।२२२॥
११८ हजार श्लोकों में रचना करके भूवलय में गभित किया है। १८००० में से ... पाप और पज्य का विवेचन अच्छी तरह जानकर हिंसामय पाप मार्ग तोन बन्यों को हटाकर शेष रहे 11+t ) को नवमांक में लाने पर का त्याग करके अर्हन्त भगवान द्वारा उपदिष्ट भूवलय के अनुसार अहिसा मामे उसे मन वचन काय रूप तोन के साथ गुणा करने पर (६४३-२७) २७ का अनुसरण करना चाहिए ।२२३॥
। के प्रमाण यह भुवलय ग्रन्थ है ॥२५॥ सत्यदेव गुरु शास्त्र ही इस जमत में शरण हैं ऐसी अटल श्रद्धा के साथ २७ घंकों में गर्मित इस भूवलय ग्रन्थ को मैं मनवचन काय की यदि मायुर्वेद को सीखना चाहोगे तो हम तुमको शीध पुष्प प्रायुब द का ज्ञान । त्रिकरण शुद्धि पूर्वक भक्ति से नमस्कार करता हूँ। चिरकालीन परम्परा से प्राप्त करा देंगे और तुम्हें उस पायर्वेद द्वारा नवीन जन्म प्राप्त के समान से चले आये हुए इस मूवलय अन्य को शुद्ध मन से बार-बार नमस्कार करता कर देंगे ।२२॥
हूँ।२५२। श्री पूच्य पाद आचार्य कहते हैं कि भारत देश की जनता को महिसा कितने पाश्चर्य की बात है कि परक ऋषि प्रणीत हिंसामय प्रायुर्वेद मय पुष्पायवंद सुनने का सौभाग्य मिला और मुझे जनता को मायुबद सुनाने का द्धिमान राजा अमोघ वर्ष की राजसभा में भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट का सौभाग्य पाप्त हुआ है ।२२६-२२७
अहिंसामय भायुर्वेद द्वारा परिहार करा दिया ।२५३। इस प्रकार जिन २४ तीर्थकरों को पितृपरम्परा से पायुर्वेद चला पाया।
शिवपार्वतीश गणित द्वारा कहा गया वैद्य भूमिका विवरण तथा है उन तीर्थदूरों को मात्र परमरा को अब बतलाते हैं । भगवान ऋषभनाथ
उसका समन्वय का अन्तर का एक, नौ अंक तथा तीन, पांच एक (३-५-१) की माता मरदेवी, अजितनाथ को माता विजया, शम्भवनाथ की माता सुषेणा,
अक्षर नाम का यह भूवलय ग्रन्थ है। अभिनन्दन की माता सिद्धार्था, सुमतिनाथ को माता पृथिवी, चन्द्रप्रभ की माता
जैसे नो १-छोटे अंक ३+५+१= पुनः १०२६ पानेवाली मक लक्ष्मण, पुष्पदन्त की माता रामा, शीतलनाथ की माता नन्दा, श्रेयांसनाथ की।
विद्या यह 'लु' अक्षर श्री सिद्धि भगवान द्वारा चढ़कर प्राप्त किया हया चौदह माता वेणुदेवी, वासुपूज्य की माता विजया, विमलनाथ को माता जयश्यामा, 1
गुरण स्थान नामक अरहन्त भगवान को परम्परा से चला पाया हुपाल' शब्द अनन्तनाथ की माता सर्वयशा, धर्मनाथ की माता सुव्रत, शांतिनाथ की माता ।
है।२५४-२५॥ ऐरा, कुन्युनाथ की माता लक्ष्मीमती ( श्रीमती), अरहन्तनाथ की माता मित्रा ! समस्त 'लु' अक्षरांक १०, २०६+समस्त मक्षरांक १५, ३९०+समस्त मल्लिनाथ की माता प्रभावती, मुनिसुव्रतनाथ की माता पदमा, नमिनाथ को । अन्तरान्तर, २७ २७, ४२३ अथवा प्र-२, ७६, ७११+'लु' माता बप्रिला, नेमिनाय को माता शिवादेवी, पार्श्वनाथ की माता बमिला !
२७, ४२३:३०, ७,६३४ । (बामा) पौर भगवान महावीर की माता प्रियकारिणी है।२४७)
इति चौदहवां 'लु' मध्याय
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संड दूसरा
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2-1-5
43 1 4443 1 1 145 145 1 1 1 15959 1 56 155 1 22 4451 45
42 42 42 43 47 53 524 1 | 53 435443 1 1 42 2854 1 42 4759 30 16 13 1 जैन सिद्धान्त श्री 24 154 187 13 73 4 156 14754 1 28 13 56 3 1 1 3 30 18 1 4 भूवलय श्रुतावतार 42 14751 54 1 54 35 58 543 7 116 54 1 18 47 42 52 153 156 47 56 9
43 1 1 1 53 1 54 28 54 60 54 48 45 54 53 7 1 56 54 45 43 47 1 160 51 ! 52 43 56 16 53 1 1 1 48 1 58 1 1 1654597 3 7 1 53 52 7 7 45 1 43 157 1 56 55 56 7 437 48 56 13 1 13 42 52 54 1353 1 7 54 1 7 56 54 1357 | 11630345945 156 22 । । । 48565554 15359 18 1 1 45 454535343056 47 460 145 48 52 46 1 1 1 1 45 15654 35 309 5654 17 4554 1 4347 142452 3 45456454443 154 1648 45 1 42 30742 47 1
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4 1 51 48 16 4 30 24 7 38 47 16 47 4 45 1 46 52 7 42 52 56 47 1 59 1 45 3 52 16 16 56 1 1 53 59 1 1 1 54 18 55 54 46 1 54 3 4 47 56 45 56 1 60 4 56 13 1 47 30 13 3 56 60 1 1 45 4 24 16 42 6 53 3 1 | 153 4 439 1 1 47 1 ! 38 42 1 1 47 56 1 13 48 4 60 42 3 55 45 47 30 1 47 । 54 47 16 459 53 54 । 43 55 1 57 43 22 4 59 52 45 54 55359347 1 30 1 45335 1 1 1 48 3 54 28 1 54 45 56 । 18 4 6 16 16 37 56 4 59 43 45 7
1 5247 45 1 54 1 42 56 1 1 18 47 56 54 47 7 43 1 1 56 59 1 1 28 45 4525413 30 3 30 42 42 52 47 45 1 1 48 4 547 46 47 1 4 53 3 4 4 47 1 7 1847 5347 1 17 42 1 152 47 1647 1594 55 6042 4 5356 43 1 54 45 48 1 54 1 30 45 353 45 16 1 13 42 54 4 56 55 4 3 42 ३ 30 47 45 1 1
SARWARTHA SIDDHI SANGHA, BANGALORE-DELHI
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los
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4 16 3 3 1 147 1 1 56 45 1 3 57 53 1 3 59 1 1 1 1 54 52 1 4 S4 53 43 56 53 58 1 54 54 577 56 56 31 471 18 7 54 54 53 735 56 59 1 43
SARWARTHA SIDDHI SANGHA, BANGALORE-DELHI.
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SARVA
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SANGHA, BANGALORE-DELHI
14.
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