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- सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली मनुष्य को रात्रि को गन्न और पानी का त्याग कर देना चाहिए।
१ १२०७५१७६४२५७३४६८७५७३२४१०२२६४७२८८४६३७४६७२६७५५ऊपर के कहे हुए जो चारित्र की हानि या नाश करने का साधन हैं ६२३४३७८४२६०७१३६१२०७५१७६४२५७३४६८७५७३२४१०२३६४७-" उन सबको त्याग कर जब अणुव्रती तथा क्रम से महाव्रती बनता है तभी शुद्ध २८५४६३७४६७२६७५५६२३७८४२६७१३६१२०७०००१४२००००००००चारित्र को प्राप्त कर सकता है।
०००००००००००००००००७४६७२६७५५६०३००००००००० यह जितने शुद्ध चारित्र केबल महापती मुनि हो पालन कर सकता है। यह शुद्ध चिन्ह दिये मये हैं वे सभी अंक ६ पाना चाहिए था परन्तु यहाँ ६ नहीं चारित्र निरतिचार अठारह हजार शीलों के नथा चौरासी लाख उत्तर गुणों के पाया है। पालने से होता है। इस चारित्र के अंक भंग को निकालने की विधि को ऊपर अर्थ-प्रतिलोम और अनुलोम ६ से भाग देते समय जो गलती कहे हुए गरिणत से लिया है।
पाती है उस गलती को बतलाने के लिए जितनी गलती पायी है उतने अंक यदि पात्मतत्व की दृष्टि से देखा जाय तो समस्त भूवलय स्वरूप। नीचे यह (०००) चिन्ह दिया गया है। इस गलती को जान बूझकर ही हमने अर्थात् केवलो समुद् घात, लोक पूरण समुद्घात रूप आत्मतत्व व्यवहार और डाला है और प्राचार्य ने इसको ऊपर छोड़ दिया है। क्योंकि यदि ऐसे गलत निश्चय दो विभाग से होता है । इसी तरह ऊपर कहा हुअा भागाहार लब्धांक अंक को नहीं रखते तो संस्कृत भगवद्गीता नहीं निकल सकती थी और न को भी दो भाग करने से ६४ शेष रह जाता है, ऐसा कुमुदेंदु आचार्य कहते हैं। प्राकृत भगवद् गीता हो । इसीलिए इस अक्षर को बतलाने के लिए जैन ऋग्वेद प्रतिलोम से लिखा हुआ "रुदळिरते" प्रतिलोम से पढ़ते जाय तो ।
के समान महर्षि के द्वारा रचित अनादि कालीन ३६३ मत जैन ऋग्वेद में "तेरळिदर" एस तरह शब्द बन जाता है। यह "हदळिरते" शब्द किस !
नहीं निकलते । अनादि ऋग्वेद के सम्बन्धी १० मंडल के प्रष्टक ८८८८-' भाषा का है सो हमें पता नहीं लगा। जो ऊपर लब्धाङ्क आया है बह ६४ है,
1 ८८८८ अर्थात् श्री नेमि गोता के प्रथम अध्याय का ७ वां सूत्रउसको आधा किया जाय तो ? ६८ होता है। इसकी विधि इस तरह है:-
"सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शनकालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च" ... २३४५७४७३७५६४६५००००००००००० इससे इसका निष्कर्ष यह! इस सूत्र के अनुसार आठ अनुयोग द्वारा ऋग्वेद नहीं आता था। वही, निकला कि अनेकांत दृष्टि से देखा जाय तो ६४ से ६८ भाग होता है ऐसा । ऋग्वेद अनादि कालीन गणित को नहीं मिलता था। जैन पद्धति के वाल्मीकि । प्राचार्य ने बतलाया है।
ऋषि ने रामायण के अंक के पन्त में स्तवनिधिव्रह्म देव की स्तुति के द्वारा इसका आचार्यों ने भंगांक ऐसा कहा है। गणित विधि बहुत गहन पहले होने वाले प्राजकल के वैदिकों में प्रचलित रहने वाले, साम्य वेद के होने के कारण पुनरुक्ति दोष नहीं पाता । महान मेधावी तपस्वी हैं वे इसे पूर्वाचिका और उत्तराचिका नामक महान भाग नहीं निकल सकता था। मोर: पुनरुक्त न मानकर जो रस इस गरिणत से पाता है उस रस को पास्थादन पूर्वाचिका के अर्थ के अन्दर ही उत्तर अचिका मिलकर हमारे गणित पद्धति के :करते हुए आनन्द की लहर में मग्न हो जाते हैं।
अनुसार सांगत्य कानडी पद्य के अनुसार नहीं पा सकता था। उसके ६५ पद्य, प्रतिलोम को अनुलोम से भाम देते समय लब्धांक के इसी विधि में के १ अध्याय में प्रत्येक श्लोक में ६५ अध्याय होकर ६५ सांगत्य पद्य में पुनः अन्तिम भागांक में जो गलती है उस गलती को ऊपर के कोष्ठक में देख लेना । ६५ सांगत्य पद पाड़ा और सीधा मिलाकर १०० श्लोक वाल्मीकि रामायण ... ऊपर के लब्धांक गणित के अन्त में सभी शून्य ही पाना चाहिए था परन्तु 1 के अन्तर्गत देखने में नहीं पा सकता था। नहीं पाया, अक ही भा गया है।
रामायण के बालकांड, अयोध्या कांड और अरण्य कांड ये तीनों काट।