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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
आया है, बस व्याख्यान से इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि ६ को पांच से । कुमुदेन्दु आचार्य ऐसे गृहस्थ श्रावक के बारे में कहते हैं किभाग देने से शून्य आ गया है। पाश्चात्य गणितज्ञ लोगों के मत से तो ५ से। ये लोग गधे के समान खाना खाते हैं। उसी प्रकार आजकल के गृहस्थ रहते हैं विभक्त नहीं होता है और समांक से विषमांक का कभी भाग नहीं होता है। जब खेत में किसान बीज बो देता है तब शुरू में धान का अंकुर उत्पन्न होकर ऐसा कहने का उन लोगों का अभिप्राय है। उस अभिप्राय का निरसन करने | ऊपर पाना प्रारम्भ होता है । तब उस समय कदाचित गवा पाकर उसको खाने के लिए इतना बड़ा विस्तार के साथ लिखा हुआ भगवान महावीर को अगाध ! लगे तो सबसे पहले उसका मुंह धान की जड़ तक धुसकर जड़ सहित उखाड़ लेता महिलाओंसे अनेकांतदृष्टि से देखा जाय तो विषमांक हुमा । को समांक दो चार है और उसके साथ मिट्टी का ढेर भी पाता है। उस समय में गया अपने मुंह पाठ और विषमांक तीन-पांच-सात, से भी नौ विभक्त होकर शून्य आता है। में लेकर घास को खाने लगता है तब मिट्टी भी उसके साथ जाती है । जब मिट्टी गणितज्ञ विद्वानों को इस विषय पर कहीं वर्षों तक बैठकर खोज करनी चाहिए। साथ जाती है तब केवल बीच में से खाकर दोनों तरफ छोड़ देता है । तब दोनों जसे हमने अर्थात् जैनियों ने माना है उसी तरह जाना जाय तो आनन्द तथा तरफ छोड़े हुए को कोई ग्रहण नहीं कर सकता और दोनों तरफ से भ्रष्ट होता है। प्रशंसनीय माना जायेगा।
उसी तरह अवती अपात्र मनुष्य आप जो खाते हैं वह खाना अणुव्रती या महाव्रती रलत्रय में चारित्र तीसरा है, अनियत वसतिका और अनियत विहार नहीं खा सकते हैं । इसलिए उनका खान पान हेय माना गया है। ऐसा माहार अर्थात् कुमुदेन्दु प्राचार्य के और उनके महान् विद्वान मुान शिष्य तथा उनके खाने से कुष्ठादिक अनेक रोग होते हैं जैसे कहा भी है किअन्य चतुः संघ के मुनि जनों के लिए खास नियत वास करने के लिए घर नहीं मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । था। अर्थात् वसतिका इत्यादि कोई स्थान नहीं है । और उनको किसी गाँव या
कुरुते मक्षिका बान्ति कुष्ठ रोगं च कोकिलः। किसी अन्य स्थान में पहुंचने की भी कोई निश्चित योजना नहीं थी। उनके लिए
कण्टको दारखण्डञ्च वितनोति गलन्यथाम्। ... नियमित रूप नहीं है। वे हमेशा गोचरी वृत्ति अर्थात् जिस प्रकार गाय या मैस घास या रोटी देने वाले से राग द्वेष न करके चुपचाप पाहार
व्यञ्जनांतनिपतितस्तालु विति. वृश्चिकः ।। खाती है उसी तरह दिगम्बर साघु किसी खास व्यक्ति के या अन्य काला या
भोजन के समय त्रौंटी अगर पेट में चली जाय तो बुद्धि नष्ट होती है, जू गोरा व्यक्ति को ख्याल या अपेक्षा न करके केवल उनके द्वारा शुद्ध आहार ।
पेट में चली जाय जलोदर रोग उत्पन्न होता है, मक्खी पेट में चली जाय तो राग द्वेष भाव से रहित लेते हैं।
बमन अर्थात् उलटी करा देता है, मकडी पेट में चली जाय तो कुष्ठ रोग
होता है। कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि
छोटे कांटे या छोटे तिनके इत्यादि पेट में चले जायं तो कंठ में अनेक ___ गृहस्थ धर्म में अवती, अणुवती तथा महाव्रती इस तरह पात्र के तीन भेद ।
। रोग उत्पन्न होते हैं। बतलाते हैं पहले अवती में पात्रापात्र दोनों हैं । प्रसयंमी अपात्र में शुद्धाशुद्ध के
इसी तरह मार्कडेय ऋषि ने भी कहा है कि:--- विचार से रहित होकर भक्ष्य और अभक्ष्य का कोई नियम नहीं रहता है, और । पशु के समान उनके खान पान का हिसाब रहता है। वैसे आज कल के लोग।
प्रस्तंगते विवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । ग्राहार विहार का कोई विचार न करके एक दूसरे की मूठन को भी नहीं छोड़ते
अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ॥ .. . हैं और न उसको अगुव मानते हैं और न इनको रात और दिन का ख्याल पाना मार्कडेय ऋषि ने सूस्ति होने के बाद अन्न ग्रहण करना मांस के है। यही चिन्ह अपात्र अविरत मिथ्यादृष्टि का है।
समान तथा जलपान करना घिर के समान कहा है । इसलिए उत्तम बुद्धिमान