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________________ सिरि भूवलय सौर्य सिद्धि संक गनोलपत्नी देखने में नहीं पा सकने थे। इसके अलावा और भी कितनी अद्भुत साहित्य को महान् २ गलती होती हैं । भोग का विरोध करने पले योग को योग का कला को हम गणित के द्वारा नहीं छुड़ा सकते और जैसे कितने ही रस-भरिता विरोध करने वाले भोग को समान करके ॥ २६ ।। काव्य (साहित्य) के नष्ट होकर गिर जाने से यहां हमने गलत संख्या को रखा प्रति दिन बढ़ाई जाने वाली अतिशय आशा रूपो अनि ज्वाला दिया है। इसका उत्तर आगे दिया गया है। की शक्ति को दवाकर उसके बदले में उपमा रहित योगाग्नि रूपी पदाला १७६ श्लोक के नीचे दिये गये प्रतिलोम१७१६५४३६६४६०२११६०- को बढ़ाते हुए कर्म को नाश करने से सिद्ध हुआ गणित का पांच अंक योगी २२८६७११८८४६२०८८२२३४६५७०६७६०७७०७५६५३६९३७०४३५४-१लोगों के लिए पञ्च अग्नि के समान है।। २७ ।। ६३१६६६३३३१२०००००००००००० हैं। आगे उस जगह पर २६ अंक। ये पञ्चाग्नि रूपी रत्न ही पाँच प्रकार की इन्द्रिया हैं ॥२८॥ स्वच्छ चन्द्रमा की चांदनी के समान निकलकर आते हैं। यहां तक २४ श्लोक। जिस कार्य को सिद्धि के लिए मनुष्य पर्याय को हमने प्राप्त किया उस पूर्ण हुए। पर्याय से अद्भुत लाभ होने वाले कार्य को सतत करते रहने से कर्म का बंधनहीं अब प्राचार्य कुमुन्देदु ने स्याद्वाद का अवलम्बन करके गणित के बारे में होता परन्तु छोटे छोटे सांसारिक कार्यो के करने से कर्म का बंध होता है मानन्द दायक उत्तर देते हुए कहा कि कोई गलती नहीं है । क्योंकि जिस गलती २९-३०॥ से महत्व का कार्य साधन होता है ऐसी गलती को गलती नहीं माना जा सकता इस गणित की जो मनुष्य हमेशा भावना करता है उनके हृदय में दिगम्बर जिस छोटी गलती से ही महान् मलती होतो है उसी को गलती माना जाता है। मुद्रा या भगवान जिनेश्वर की भावना हमेशा पूर्ण रूप से भरी रहती है ॥३०॥ परत यहां ऐसा नहीं है यह मंगल प्रामृत है, अतः यहाँ अमंगल रूप गलती नहीं। तर्क में न आने वाले और स्वात्म-चितकर में ही देखने का पानेसले इस आनी चाहिए ऐसे यदि सम प्रश्न करोगे तो ऊपर के कोष्ठक में दिए हये (४६६१) पाँच अंक की महिमा केवल अनभव-गम्य है॥३२॥ इत्यादि रूप से ऊपर से नीचे उतरते हुए लब्धांक को देखो उसमें किसी प्रकार तीसरा दीक्षा कल्याण होने के बाद छमस्थ अवस्था में मारे गये फिरवर को गलती नहीं दीखती । गलती के बदले में अतिशय महिमा के (१) अंक को को यह भक्ति है ॥ ३३ ॥ उत्पत्ति होती है यदि उसका आधा किया गया तो '६८' पाकर '' नामक यह जो पांच अंक बह जैन दिगम्बर मुनियों को देखने में माया ५ अंकों से भाग हो गया । यह अतिशय धवल को महिमा नहीं है क्या? ऐसा । हा है ॥ ३४॥ कुमुदेन्दु आचार्य भूवलय ग्रन्थ में लिखते हैं । इस प्रकार २५ श्लोक तक पूर्ण । ख्याति को प्राप्त हुआ यह अक विज्ञान है ॥ ३५ ॥ यह छोटे छोटे बालकों से भी महान् सौभाग्य को प्राप्त कर देने मन्मय का बाण सोधा नहीं है वह तो टेड़ा है मन्मथ का पुष्प वाण वाला है।। ३६ ॥ स्त्री और पुरुष के ऊपर छोड़ाजाय तो तीर जैसे हृदय में घुसकर बार बार वेदना जिनेन्द्र देव ने गणित के इस अंक के ऊपर हो गमत किया है बाहर उत्पन्न करता है उसी तरह मन्मथ के वारण भी स्को पुरुष के हृदय में घुस । क्षेत्र भी है।। ३७ ।। कर हमेशा भोग की तीव्र वेदना उत्पन्न कर देते हैं। जिस तरह पुरुष मृदु। बड़े २ कर्म रूपी शत्रु का नाश करने काला पात्मस्वस्प नानक होने पर भी पुरुष या स्त्री को अपनी सुबन्धि से बार बार सुगन्धित करता है । हयभूवलय है ।। ३८ ॥ उसी तरह मन्मथ का वाण मृदु होने पर भी स्त्री या पुरुष के भोगने की। श्री भगवान महावीर स्वामी की वृद्धि समान यह अध्यात्मवेदना को उत्पन्न कर देता है। इसी तरह छोटी छोटी गलती से अनेक प्रकार साम्राज्य है ।। ३६ ॥
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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