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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली मन रूपी सिंह के ऊपर आकाश गंगा के समान अधर भाग में स्थित उस साधु को घर तया बन का रहस्य अच्छी तरह ज्ञात (मालूस) कमल है ॥ ४० ॥ २८ से लेकर ४० तक अन्तर पत्र को नीचे दिया जाएगा ! होता है ॥५३।। यह प्रत्येक चौथे चरण का प्रक्षर है। इसमे पहले २७ इलोकों के पहले तीन वह योगी व्यानो साधु जिनेन्द्र भगवान के समान अपना उपयोग शुद्ध चरणों को मिलाकर पढ़ लेना चाहिए ।
रखने में लगा रहता है, अतः वह अन्य साघुओं के समान शुद्ध उपयोगी होता अर्थ:-जैसे उत्तम संहनन वालों का शरीर है। वैसे इम काव्य को रचना । है ३५४||
विवेचन-शारीरिक संगठन के लिए हड्डियों का महत्वपूर्ण स्थान है, इस काल के पृथ्वी के भव्य जीवों के भाव में करुणा अर्थात् दया के इस हड़ियों के संगठन को 'संहनन' कहते है। संहनन के ६ भेद है-१-वन अप्रतिम रूप अर्थात केवली समुद्घात को बतलाने वाला यह काव्य है पौरपंच ऋषभ नाराच (वन के समान न टूट सकने वाली हड्डियों का जोड़ और वन परमेष्टियों का यह दिव्यरूपी चरण भूवलय काव्य है और ऊपर का आया हुआ । मरीखी हड्डी की संधियों में कीली), २ वय नाराच (वज सरीखी हडियां हों पांच का चिन्ह है ।। ४३ ॥
जोड़ बच समान न हो), ३ नाराच (हड्डियां अपने जोड़ों तथा संघियों में जंगल में तप करके बात्म-योग द्वारा अपने शरीर को कहा करते समय श्री। कोल सहित हो) ४ मद्ध नाराच (हड्डियां पाधी कीलित हो) ५ कीलक जिला जिनेन्द्र देव का अंतिम रूप ही मनमें धारण करना सर्व साधु का अन्तिम रूप है।
कीलों से मिली हो), ६ असंप्राप्ता सृपाटिका (सांप की हड्डियों की तरह शरीर अर्थात् अरह त सिद्ध आचार्य पीर उपाध्याय ये चार और जिन धर्म जिनागम, 1 का हाडमा बिना जा रहा, कवल नसा स वषा हुइ हा)। जिन बिब तथा जिन मंदिर, इन दोनों चार नाम नकों को मिलाने वाला बीच का समुद्घात-मूल पारीर को न छोड़ते हुए प्रात्मा के कुछ प्रदेषों का पांच अंक है। यदि चारों ओर देखा जाय तो पांच ही अंक है। इस रीति से होदारीर से बाहर निकलना समुद्घात है, उसके ७ भेद हैकाव्य की रचना हुई है । यही सायु समाधि है।
१ कषाय, २ वेदना, ३ विक्रिया, ४ पाहारक, ५ तंजस, ६ मारणान्तिक इसके आगे ४३ से ५५ इलोक तक के अन्तर पद्यों में देख लें। । और ७ केवल समुद्घात । अर्थ:-इन पाँच को संख्यात से ४३ असंख्यात से 11 ४४ 11 तक और !
इस प्रकार विविधि विषयों का प्रतिपादन करने वाला यह भूवलय सिद्धांत बहत बड़े अनन्त पक से अर्थात् इन तीनों से पांच को जानना चाहिए ॥ ४५ ॥
ग्रन्थ है ।।५५ । यह जिनेन्द्र भगवान का ही स्वरूप दिखाया गया है ।। ४६ ॥
पूर्व काल में बांधे गये कर्मों का जितना हो वमन (निर्जरा या क्षय) वह साधु मन वचन से अतीत यानी अगोचर है ॥४७॥
किया जाय उतना ही आत्मिक गुणों का विकास होता है और जब पात्मिक वह माधु दुष्ट कर्मों को भस्म करने के लिए दावानल के समान है।४८
गुणों का विकास होता है तब संगीत कला में परम प्रवीण गायकों की गान ऐसा ज्ञानी ध्यानी साघु ही वास्तविक योगी है ॥४॥
कला के समान उपदेश देने की शक्ति बढ़ जाती है ।।१६।। ऐसा ही यामी साधु प्राचार्य पद के योग्य माना गया है ।१५०॥
तब हृदय में नित्य नवीन ज्ञान रस को धारा प्रवाहित होती है। जैसे ऐसा साधु ही परम विशुद्ध मुक्ति के सुख को प्राप्त कर लेता है ॥५१॥ रात्रि में पढ़ा हुआ पाठ दिन में स्मरण हो जाता है । उसी प्रकार योगी को
बह योगी दिन प्रतिदिन अपने आध्यात्मिक गुणों में निरन्तर वृद्धि करता। रात्रि समय का ज्ञान-चिन्तवन दिनमें उपस्थित हो जाता है। ऐसे ज्ञानी साधु जाता है ॥५२॥
पाठक यानी उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं १५७१