SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरिमूवलच 2 10 सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली उपाध्याय परमेष्ठी कहलाने वाले एक ही व्यक्ति अवस्था के भेद से । कारण तीव्र गति से गमन करता है। उसी प्रकार तीव्र प्रगति से जो आचारक्रमशः श्रात्मिक योग में बैठ जाने पर साधु परमेष्ठो, अठारह हजार शील व ५ सार के अगणित आचार को स्वयं आचरण करते हैं और अन्य भव्य जीवों आचार के पालन करने के समय में आचार्य परमेष्ठी, चारों घातियाँ कर्मों का क्षय को आचरण कराते हैं वे आचार्य होते हैं ||७५ ।। कर लेने के पश्चात् ग्ररहन्त परमेष्ठी तथा चारों अघातिया कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद प्राप्त कर लेने के पश्चात् सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं । उस आध्यात्मिक ज्ञान को अपने वश में करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी ४० है उस ज्ञानरूपी श्रमृत रस को अपने मधुर उपदेश द्वारा भव्य जीवों को पिलाने वाले प्राचार्य परमेष्ठी हैं ||२६|| ऐसे आचार्य परमेष्ठी समस्त जीवों को ज्ञान उपदेश देते हुए पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं || ६० वे समस्त इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ।। ६१॥ सम्पूर्ण जीवों के लिए नई नई कला को उत्पन्न करने वाला भूवलय है ॥६२॥ सम्पूर्ण श्रसत्य के त्यागी महात्मा होते हैं || ६३ ॥ वे महान मनुष्यों के अग्रगण्य होते हैं ।। ६४ ।। सम्पूर्ण विषयों को बटोर कर बतलाने वाला द्वादशांग है ||६|| अनुपम समता को कहने वाले हैं ||६६ ॥ नये नये मार्दव आर्जव गुण को उत्पन्न करने वाले हैं ||६७ || सम्पूर्ण ऋषियों में अग्रगण्य हैं ||६६ || नये नये उपदेश देने वाले प्राचार्य हैं ६६॥ पवित्र औषध ऋद्धि के धारक हैं ।। ७० । अनेक बुद्धि ऋद्धि तथा सिद्धि के धारक हैं ।। ७१ ॥ वृषभसेन प्राद्य गणधर के वंशज है || ७२ || श्री ऋषभदेव के समय से ॥७३॥ चलने वाले समस्त विषयों को जानने वाले दयालु होने से सम्पूर्ण हरितकाय के भक्षण के त्यागी हैं ||७४ || जिस प्रकार आकाश मार्ग से जाने वाला प्राणी श्रव्याहृतगति होने के विवेचन आकाश मार्ग से जाने वाले चारण ऋद्धि-धारी साधु विद्याधर या विमान जितने वेग से गमन करते हैं, उस वेग को अगणित विधि को भूवलय की गणित पद्धति से जाना जा सकता है। वह इस प्रकार है । गणित का सबसे जघन्य अंक २ दो माना गया है क्योंकि एक की एक से गुणा या भाग करने पर कुछ भी वृद्धि आदि नहीं होती । २ को यदि वर्ग किया जावे ( २x२= ४ ) तो ४ अ क आता है, चार को चार से एक बार वर्ग करने से (४ x ४ = १६) १६ होते हैं, यदि ४ को तीन बार रखकर गुणा किया जावे तो [४४४४४=६४] ६४ प्रांता है, यदि चार को चार बार गुणा किया जावे तो [४×××४४४=२५६] २५६ होता है । यदि ४ के वर्गित संगित अंकों के २५६ को इसी पद्धति से afia संगित किया जावे तो संवर्गित फल ६१७ अंक प्रमाण श्राता है जोकि प्रचलित गणित पद्धति के दस शंख के १९ अंक प्रमाण संख्या से बहुत बड़ी अक राशि होती है । दो के वर्ग ४ की संबंधित संख्या जब इतनी बड़ी होती है तो विचार कीजिये कि भूवलय में प्रतिपादित र अक की वर्गित संबंगित संख्या कितनी बड़ी होगी ? ऐसी गरिणत-पद्धति से आकाश में गमन करने की तीव्रतम प्रगति को भी जाना जा सकता है। नौ अंक के समान आचार्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थों के मर्म को दिखलाकर अपनी अपनो शक्ति के अनुसार गृहस्थों तथा मुनियों को आचार के पालन करने की प्रेरणा करता है ।। ७६ ।। धर्म साम्राज्य के सार्वभौमत्व को प्रगट करके आचार्य प्रक. के समान समस्त आचार धर्म को पालन करते हैं ||७७॥ इस संसार में उत्तम क्षमा आदि दशधर्मो का प्रचार करने वाले मुरु आचार्य महाराज हैं | तथा सिद्ध भगवान के सारतर आत्म-स्वरूप को बतलाने वाले श्राचार्य हैं ॥७८॥ 12
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy