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________________ सिरि भुवजय सार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली वाहुबलो ने अपनो तरुण अवस्था में इस भूवलय काव्य में गभित अन्तर ! जो इस अध्याय में श्रेणीबद्ध प्राकृत गाथा निकलती है उस गाथा को काव्य का परिज्ञान कर लिया था। ६.०२१ अथवा १२०६ यह अंक ६४ प्रदार । और उसका अर्थ यहाँ दिया जाता है । का ही भंग है, इससे अत्यन्त सुन्दर सरस काव्यागमरूप भूवलय निकल आता "ऊपर कहे हुए" अनुसार यह भूवलय ग्रन्थ आचार्य परम्परा से चला है। इस लिए इस अध्याय का नाम "ई" अध्याय लिखा है ॥१६॥ । आया है उन सब मुनियों की संख्या तीन कम नौ करोड़ कहते हैं। उनके द्वारा जगत के अग्र-भाग में सिद्ध समुदाय है । जोकि तीन लोक रूपी शरीर कहे हुए इस मूवलय अन्य को समस्त भव्य जीव अध्ययन करें, सुनें और मनन के मस्तक स्वरूप है। इसी प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ भी मस्तक के समान महत्व- करें। इसका भक्ति तथा त्रिकरण शुद्धि-पूर्वक अध्ययन करने से इस लोक मोर शाली है ॥२०॥ परलोक के सुख की प्राप्ति होती है अन्त में मोक्ष प्राप्त होती है। ___ जिन मार्ग का अतिशय मानकर स्वीकार करने से नव पद सिद्धि के मध्यम श्रेणी के संस्कृत काव्य का अर्थ:धन मर्म रूपी पांचवां अध्याय भूबलय नामक काव्य श्रेणी में ग्यारहवां चक्र यह भूवलय काव्य पढ़ने से समस्त कर्म रूपी कलंक नाश होकर है। इसके सब अक्षरांक ८०१६ है । २०१ योमार्ग की प्राप्ति होगी। सदा धर्म का सम्बन्ध तथा अभ्युदय को देने वाला पांचवें "ई" ८०१९॥+अन्तर २२००६-२००२५ यह काव्य है । एवं हमेशा भव्य जीवों को प्रतिबोध करने वाला यह भूवलय अथवा अ-ई ६४, ८२७+-ई २०, ०२५ = १४, ८५, २ । काव्य है। - -
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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