________________
सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
--
उन प्रकों में प्रतिलोम प्रक को स्थापित करना, उसके ऊपर अनुलोम ! तत्पश्चात् देवों द्वारा वन्दनीय श्रो अभिनन्दननाय तीर्थकर ने इसे प्रक को स्थापित करना ॥१६॥
। बतलाया ॥१८४|| उन दोनों को जोड़ देने पर नौ बार १-१ तथा एक विन्दी पाती। देव, मनुष्यों द्वारा पूज्य श्री सुमतिनाथ ने इसे कहा ॥१८५।। है॥१७॥
तत्पश्चात् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र ने इसको बतलाया ॥१८६।। इस रीति से नवकार मंत्र एक ही है ॥१७॥
श्री सुपार्श्व नाथ तीर्थकर धर्म प्रचार करके अन्त में शेष कर्म क्षय करके दिगम्बर मुनियों का धर्मांक १ है ॥१७२।।
मोक्ष चले गये । नारकी जीव इनकी वाणी को स्मरण करते हैं ॥१७॥ इस रीति से मृदु-काव्य रूप यह भूवलय ग्रन्थ है ।।१७३॥
चन्द्रप्रभतीर्थकर की दिव्य ध्वनि सुनकर उन्हें 'चन्द्रशेखर' अथवा 'शिव, अनुलोम १२३४५६७८६
गुरु लिंग' इत्यादि नामों से पूजते हैं ॥१८॥ प्रतिलोम ६८७६५४३२१
इसी प्रकार पुष्पदन्त और शीतलनाथ भगवान का उपदेश क्रम समझना १११११११११०
चाहिए ॥१६॥
श्री पाश तीर्थंकर का भी यही क्रम है ॥१६॥ इस रीति से जो १० अंक प्राये वह दस धर्म का रूप है इसलिए वह !
श्री वासुपूज्य का क्रम भी यही है ।।१६१ परिपूर्णाक में गभित है। वह कैसे ? समाधान-बिन्दीको छोड़ देने से
श्री अरहनाथ तीर्थकर, विमलनाथ, और अनन्तनाथ का भी यही क्रम रह गया । इस प्रकार परिपूर्णांक ० से बना यह भुवलय ग्रन्थ है 11१७४। ।
रहा ।।२६२॥ शेष ७०० भाषाएँ अंकों द्वारा लिखे हुए होने के कारण अनक्षरी
श्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ का क्रम भी इस तरह है ॥१६३॥ भाषाएँ हैं । द्रव्य प्रमाणानुगम के ज्ञाता दिगम्बर मुनि उन भाषाओं को जानते
श्री कुयुनाथ, अरनाथ और मल्लिनाथ तीर्थंकर का भी यही क्रम है। उनके ज्ञान को आगे दिखावेंगे । ऐसा प्रतिपादन करनेवाला यह कर्माटक। भूवलय हैं ।।१७।।
श्री मुनिसुव्रततीर्थङ्कर का क्रम भी इसी तरह था ॥१६शा बाहुबली, ब्राह्मी घोर सुन्दरी ने जो अपने पिता भगवान ऋषभनाथ से
श्री नमि और नेमिनाथ तीर्थङ्कर का क्रम भी इसी प्रकार समझना ६४ अक्षर तथा बिन्दी सहित ६ अंक सीखे थे, उसे अव बताने ॥१७॥ चाहिए ॥१६॥ उस सबको पहाड़े रूप गरिणत से जाना जा सकता है ।।१७७।।
और पाश्वनाथ तीर्थ ड्र तया श्री वर्द्धमान तीर्थङ्कर का क्रम भी इसी यह सव गुरु-परम्परा से आया हुआ गरिणत है ।।१७।।
प्रकार था ॥१७॥ पांच परमेष्ठियों से अर्थात् ५ से गुणा किया हुआ यह गरिएन अंक
इस प्रकार चौबीस तीयङ्करों ने भूवलय को रचना (अपनी दिव्य-ध्वनि है।।१७६॥
द्विारा ) की थी इसलिए यह भूवलय ग्रन्थ की परिपाटी प्रमाण रूप में अनादि सबसे पहले तीर्थंकरों ने इसे सिखाया ।।१८०॥
| काल से चली आई है ॥१६॥ सबसे पहले भगवान ऋषभनाथ ने इस गणित को सिखाया ।।१८१॥
अब इस पांचवें अध्याय को कुमुदंदु प्राचार्य संकेत रूप करते हुए अंक फिर भगवान अजितनाथ ने इसका प्रतिपादन किया ॥१८॥
से सम्पूर्ण विषयों को बतलाते हैं। इसी अंक से इस अध्याय के समस्त मंकका इसी प्रकार श्री सम्भवनाथ ने इसे सिद्ध किया ॥१३॥
। भी ज्ञान होता है। वह इस प्रकार है: