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बिरि भवाय
सपा सिदिसंबगौरविल्या
लाप का भाव यह निकला कि ये १५६१ मुनि प्राचार्य कुमुदेन्दु के ही सम- दीप्तिमान नब रत्नों को एक ही प्राभरण में यदि जड़ दिया जाय तो कालीन महा मेधावी, प्राचार्य के ही शिष्य थे। इन सब के साथ प्राचार्य कुमु-1 उनकी पृथक पृथक प्रभा एकत्रित होकर अनुपम प्रकाश देतो है इसी प्रकार ज्ञान देन्दु विहार करके मार्ग में समस्त आचार्यों को मरिणत पद्धति मिसलाते हुये की विभिन्न किरणों को श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के १५६१ शिष्यों ने ग्रहण किया समस्त भूवलय ग्रन्थ की रचना चक्रबंध क्रमानुसार सभी भाचार्यों सं करवाये। और कुमुदेन्दु प्राचार्य ने उन ज्ञान किरणों कोएकत्रित करके इस भूबलय सिद्धान्त १६२४६४=१०३६८ अर्थात् श्रीमद् भगवद गीता के १६२ लोक लो भवनय । अन्य का रूप दिया जिसमें कि विश्व का समस्त ज्ञान निहित है। . . . के ६४ अक्षरों से गुणा कर दिया जाय तो एक भाषा अर्थात् गीर्वाण भाषा ! में ऋग्वेद बन जाता है। इस प्रकार की विधि से प्राचार्य श्री कुमुदेन्दु ने अपने ! केवल ज्ञान अक्षर (अविनश्वर) है सी प्रकार भूवलय का अंकात्मक जान अक्षर एक शिष्य को उपदेश दिया। तो उस मेधावी शिष्य ने एक ही रात्रि में उप-11विनावर युक्त अका का रचना चक्रवध रूप में करक दिखा दिया। इसी गति से दूसर। जिस प्रकार भूमि के अन्तरंग बहिरंग रूप में पदार्थों को धारण करने कंप शिष्य को १९२४५४ वही १०३६% अंकों का उपदेश देकर कहा कि अच्छा
। सहन शक्ति विद्यमान है उसी प्रकार मुनियों के अन्तरंग-बहिरंग समता भावों में सुम अपनी बुद्धि के अनुसार बनायो। गुरु देव की आज्ञा पाते ही दूसरे शिष्य
अनुपम सहनशक्ति विद्यमान रहती है । उस परम समतामय मुनिराजों के द्वारा ने भी फल स्वरूप श्री वेद व्यार, महर्षि निरचित महाभारत अर्थात् वयाख्यान इस भूवलय की रचना हुई है ।।२।। तथा उसके अन्तर्गत पांच भाषानों में श्री मदभगवद् गीता के अंकों को चक्र-1
। जिस प्रकार अनियत घूमने फिरने वाला सर्प यदि किसी के घर में पा बंच रूप में शीघ्र ही बनाकर श्री गुरु के सम्मुख लाकर प्रस्तुत किया। इसी
जावे तो उसके विषमय दन्त उखाड़ देने पर बह किसी को कुछ भी बाधा रीति से १५६१ महामेधावी मुनि शिष्यों को रचना के लिये दे देने से सभी
नहीं दे पाता उसी प्रकार अनियत स्थान और बसितका में विहार करने वाले ऋषियों ने एक ही दिन में महान अद्भुत भूवलय ग्रन्थ को विरचित करके गुरु
योगी जन विषय-वासनामों के विष को दूर कर देने के कारण किसी भी प्राणी को प्रदान कर दिया । तब कुमुदेन्दु मुनि ने समस्त मेधाबी महर्षियों की वाक
के लिए अहित कारक नहीं होते।६३। प्यक्ति को एकत्रित करके अपने दिव्य ज्ञान से अन्नमुहूर्त में इग भूवलय ग्रन्थ की ! रचना की। वह चक्रबन्ध १६००० संख्या परिमित है।
जिस प्रकार भूमि को छिन्न-भिन्न करने पर भी भूमिगत पाकाश छिन्न
भिन्न नहीं हुआ करता उसी प्रकार साधु गण शरीर के छिन्न-भिन्न होने पर अपने अपने कर्मानुसार मानव पर्याय प्राप्त होती है ऐसा सोचकर तपो
भी अपने अनुपम समता मय भावों में स्वावलम्बन रूप से अपने गुणों द्वारा बन में तपस्या करते समय मुनिराज मेरु पर्वत के समान अकम्प (निश्चल) रहते
पाना को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखते हैं। ऐसे मुनिराजों के द्वारा इस भूवलय है। तथा अपने पात्मिक गुरणों को विकसित करते हुये मोहकर्म को जीत लेते।
का निर्माण हुा ।१४। हैं. 1 जिस प्रकार गत्रि में चन्द्रमा अपनी शीतल चांदनी के द्वारा स्वयं
I वे मुनिराज सदा सर्वदा केवल मोक्ष मार्ग के अन्वेषण में हो तत्पर रहते प्रशान्त रहकर समस्त जीवों के संताप को हर लेता है उसी प्रकार साधु जन
हैं। तपस्या में शालवृक्ष के समान कायोत्सर्ग में खड़े होकर वे मुनिराज निश्चल सिंह विक्रीडितादि महान महान यतों द्वारा स्वयं प्रशान्त रहकर अन्य जीवों का भाव से तप करत ह । भी शान्ति प्रदान करते हैं। अतः उनकी बुद्धि रूपी संपत्ति सदा चमकती। ऐसे साधु परमेष्ठी इस कर्म भूमि में रहने पर भी संपूर्ण कर्मों से रहित पही है 101
होते हैं। और मार्ग में बिहार करते समय राजा-रंक के द्वारा नमस्कार किये