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सिरि मृवलय
सार्थ सिद्धि संघ बैगलोर-दिल्या जाने पर समदर्शी होने के कारण किसी के साथ लेश मात्र भी राग द्वेष नहीं! इस रीति से बनारस में वाद-विवाद करते रहने से जैनियों के पाठव तीर्थंकर
चन्द्रप्रभु तथा चौबों के चन्द्रशेखर भगवान एक ही होने से "हरशिवशंकर उत्कृष्ट कुल में उत्पन्न हुये साधु जन वर्णनातीत है। अत: उन्हें ऊँच गरिएत" ऐसी उपाधि इन मुनीश्वरों को उपलब्ध हुई थी। इसी गणित शास्त्र नीच कुल के चाहे जो भी नमस्कार करें उन सबको दे समान समझते थे। इसके द्वारा मुबलय ग्रन्थ की रचना तथा स्वाध्याय करने के कारण इन्हें "भुवलयर" प्रकार तीनों कालों में इन साधुनों का चरित्र परम निर्मल रहता है।६ नाम से भी पुकारते थे।६७ से १६६ तक श्लोक पूर्ण हुमा ।
इनके अतिरिक्त और भो अनेक साधु श्री कुमुदेन्दु मुनि के संघ में थे। भवलय की रचना में "पाहुड" वस्तु “पद्धति" इत्यादि अनेक उदाहरण वे भी सेनगण के अन्तर्गत ही थे। ये सभी मुनि नरकादि वर्गतियों का नाश हैं। ये कर्मभूमि के अर्द्ध प्रदेश में रहनेवाले जीवों को उपदेश देने के लिए सांगत्य करनेवाले थे। इनका वर्णन निम्न प्रकार है:
नामक छन्द में पद्धति ग्रन्थ की रचना करते थे। उस पन्थ में विविध वायुभूति कमल पुष्प के समान सुशोभित चरण हैं जिसके ऐसे अग्नि भाषाओं में शुद्ध चैतन्य विलसित लक्षण स्वरूप परमात्मा का ही वणन पर्थात् भूति, भूमि को छोड़कर अधर मार्ग गामी सुधर्म सेन, वीरता के साथ तप करने
। अध्यात्म विषय ही प्रधान था ।१२०॥ बाले मार्य सेन, गणनायक मुडी पुत्र, मानव कल के उसारक मैत्रेय सेन नरों। वे महात्मा सदा परमात्मा के समान सन्तोष धारण करके प्रारमतत्त्व में श्रेष्ठ प्रकम्पन सेन, स्मरण शक्ति के धारक अन्न सेन गुरु, नरकादि दुःखों । रुचि से परिपूर्णं रहते हैं और सम्यग्दर्शन का प्रचार करते हुए दर्शनाचार से से मुक्त अचल-सेन, शिष्यों को सदा हषित करने वाले प्रभाव सेन मुनि इन 1 सुशोभित रहते है ११२१॥ 'समस्त मुनियों ने पाहुड ग्रन्थ की रचना की है।
उन महर्षियों के मन में कदाचित् किसी प्रकार की यदि कामना उत्पन्न - प्रश्न-पादृष्ट ग्रन्थ की रचना क्यों की गई ?
हो जाती थी तो वे तत्काल ही उसे शमन करके उस कामना के विषय को उत्तर-केवल ज्ञान तथा मोक्ष मार्ग को सुरक्षित रखने के लिये इस जन्म पर्यन्त के लिए त्याग देते थे और अपने चित्त को एकान करके समताभाव पाहुड ग्रन्थ की रचना की गई। इन मुनियों के बाग्बाण से ही शब्दों को रचना पूर्वक आत्मतत्त्व में मग्न होकर प्रानन्दमय हो जाया करते थे ।१२२। हो जाती थी । अतः जनता इन्हें दूसरे गणधर के नाम से संबोधित करती थी। तब उन महात्माओं का विश्व व्यापक ज्ञान प्रात्मोन्नति के साथ साथ
उस उस काल के धारणा शक्ति के अनुसार गणित पद्धति के द्वारा । अलोकाकाश पर्यन्त फैलता जाता था। और प्रकाश के फैल जाने पर भेद अङ्गज्ञान से वेद को लेकर वे साधु ग्रन्थों की रचना करते थे । अर्थात् मन्त्र । विज्ञान स्वयमेव झलकने लगता था । तथा शुभाशुभ रागाद समस्त विकल्प
कालीन महाभाषानों के वे साध जन ज्ञाता थे और कार्य परभावों से मुक्त हो जाता था 1१२३। कारण का सम्बन्ध भलीभांति जानते थे । मरक गति से आये हुए समस्त जीवों जब प्रात्मा के साथ परभाव का सम्बन्ध उत्पन्न होता है तब संसार को ज्ञान प्रदान करते हुए वे मुनिराज पुनः नरक बन्ध करने से बचा लेते थे। बन्ध का कारण बन जाता है । किन्तु अपने निज स्वभाव में रहनेवाले उपयुक्त दे समस्त मुनिराज चारों वेद तथा द्वादशांग वाणी के पूर्ण ज्ञाता थे तथा प्रायु। साधुओं के ऊपर लेशमात्र भी परभाव नहीं पड़ता था। संघ में रहनेवाले समस्त के अवसान काल में स्व-पर हित करनेवाले थे। उस प्राचीन समय से बनारससाधु सरल, समदर्शी एवं वीतरागता पूर्ण थे। अतः परस्पर में माध्यात्मिक नगर में वाद-विवाद करके यथार्थ तत्व निर्णय करने के लिए एक सभा की। रस का हो लेन-देन था व्यावहारिक नहीं । सभी साधु निश्चय नय के पाराषक स्थापना की गई थी। उस सभा में इन्हीं सुनीश्वरों ने जाकर शास्त्रार्थ करके थे,१२४॥ आत्मसिद्धि द्वारा प्रकाश डालकर मानवों को कल्याण का मार्ग निर्दिष्ट किया था। कदाचित् इस पृथ्वी सम्बन्धी वार्तालाप करने का अवसर यदि आक