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२०२ - सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली स्मिक रूप से पा जाता था तो वे साधुजन तेरहवें गृणस्थान के अन्त में पाने- श्री अजितनाथ भगवान ने इस भरतखंड में अवतार लेकर धर्म का उत्थान वाले चार केवली समुद्घातों का पृथ्वी सम्बन्धो पात्म प्रदेश को ही विचारते किया तथा सम्मेद मिरव से मुक्ति पद प्राप्त कर लिया ।१३। हुए इस पृथ्वी में रहनेवाली पौद्गलिक शक्ति का चिन्तवन करते हुए पात्मा एक तीर्थकर में लेकर दूसरे तीर्थकर तक अर्थात् श्री मम्भव, श्री का अवलोकन करते रहते थे। अतः सदाकाल संघ सुरक्षित रूप से बिहार अभिनन्दन, श्री सुमिति, श्री पद्मप्रभ श्री सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ थो पुष्पदन्त, श्री करता था । इसका नाम ज्ञानाचार या १२५॥
शीतल, थी यांस, इन सभी तथंकरों ने श्री सम्मेदशिखर पर्वत से मुक्ति प्राप्त समवशरण में लक्ष्मी मण्डप (गन्ध कुटो ) होती है। उसमें भगवान ।
को थी। इनमें से पाठवें तीर्थंकर श्रा चन्द्रप्रभु भगवान श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के विराजमान होते हैं। उसके समीप चारों और बारह कोष्ठक (कोठे) होते इष्ट देव थे, क्योंकि यह पाठवां अंक ६४ अक्षरों का मुल है।१३३ से लेकर हैं, जिनमें से पहले कोष्ठक में मुनिराज विराजमान रहते हैं। इसी के अनुसार १३६ तक। परम्परा से लक्ष्मी सेन गण नाम प्रचलित हुपा । अतः उपयुक्त समस्त प्राचार्य चम्पापुर नगर में श्री वासुपूज्य तीर्थकर नदी के ऊपर अधर [यवान लक्ष्मीसेन गावाले मुनिराज कहलाते हैं । १२६।।
भाग ] से मुक्ति पधारे ।१४०-१४१॥ गौतमादि गणधरों से लेकर उपयुक्त सभी प्राचार्य दिव्य ध्वनि से। तत्पश्चात् श्री सम्मेदशिखर पर्वत के ऊपर श्री विमलनाथ, श्री अनन्त मुने हुए समस्त द्वादशांग रचना के क्रम को नौ (8) अंकों के अन्दर गभित नाप, यो धर्मनाथ, श्री शान्तिनाय, श्री कुन्थुनाव, श्री अर्हनाथ, श्री मल्लिनाथ करनेवाली विद्या में परम प्रवीण थे अर्थात् भूवलय सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञानी । मुनि सुवतनाथ, श्री नमिनाथ इन सभी तीर्थकरों ने श्री सम्मेदशिखर गिरि से. थे।१२७-१२८॥
मुक्तिपद प्राप्त की थी । और श्री नेमिनाथ भगवान ने ।१४२-१४६। अनादिकाल से लेकर उन प्राचार्यों तक समस्त जीवों के समस्त भवों ऊर्जयन्त गिरि [गिरिनार-जनामदी. पावापर सरोवर के मध्य भाग को जानकर आगामी काल में कौन-कौन से जीव मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे यह ! से श्री महावीर भगवान् तथा श्री सम्मेद शिखर जी के स्वर्ण भद्र टोक से श्री भी बतलाकर वे प्राचार्य सभी का उद्धार करते थे ।१२।।
पाथर्वनाथ भगवान मुक्त हुए थे ।१४७-१४८। ये साधु परमेष्ठी अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म इन। विवेचन-श्री पार्श्वनाथ का नाम पहले पाकर श्री महावीर भगवान चारों के मंगलस्वरूप है। इसका प्राकृत रूप इस प्रकार है-"अरहन्त मंगवं. 1 का नाम बाद में माना चाहिए था पर ऊपर विपरीत क्रम क्यों दिया गया? सिद्धमंगल, साहुमंगलं, केवलीपष्लत्तो धम्मोमंगलम्' |१३०॥
इस प्रश्न का अगले वंड में स्पष्टीकरण करते हुए श्री कुमुदेन्दु पाचार्य विवेचन-प्रद श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जा उपयुक्त साधु परमेष्ठियों को । लिखते हैं कि श्री सम्मेदशिखरजी का स्वणभद्र कूट [भगवान् पार्श्वनाथ का चौबीस तीर्थकरों का स्वरूप मानकर २४ नोकरों का निरूपण करते हुए मुक्त स्थान सबसे अधिक उन्नन है मन एव वहां पहुंचकर दर्शन करना बहुत उनके निर्वाण पद प्राप्त स्थानों का वर्णन करते हैं।
कठिन है। [ इस समय तो चढ़ने के लिए सीढ़ियां बन जाने के काररप मर्म.. कैसासगिरि से श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर मुक्ति पद प्राप्त किए भगवान् । कुछ सुगम बन गया है किन्तु प्राचीन काल में सीढ़ियों के प्रभाव से वहां मे श्री ऋषभदेव सर्व प्रथम तीर्थकर तथा भूवलय ग्रन्थ के प्रादि सृष्टि पहुंचना अत्यन्त कठिन था] उस कूट के ऊपर पहले लोहे को सुवर्ण रूप में कन्थे ।१३॥
परिणत कर देनेवाली जड़ी-बूटियां होती थीं, अतः सुवर्ण के अभिलायो बकरी इसके बाद दूसरे तीर्थकर के अन्तराल काल में धर्म धीरे घटता चला। पालनेवाले गणेरिये बकरियों के खुरों में लोहे की खर चढ़ाकर इसी कूट के या । और एक बार पूर्ण रूप से नष्ट सा हो गया था । तब दूसरे तोयंकर उपर उन्हें चरने के लिए भेज दिया करते थे जिससे कि वे घास-पत्ती वरती