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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिदि संघ बैंगलोर-दिल्ली घरती उन जड़ी बूटियों पर जब अपनी खुर रखती थीं तब उनके लोहे के तुर इस तरह पात्म भावना में ही लीन होते हुए तीर्थकर परमदेव नवमांक सोने के बन जाया करते थे। इस कारण इस कूट का नाम स्वणं भद्र प्रख्यात । महिमा के साथ जगत के तीनों लोकों का पूर्ण रूप से निर्वाह करते हुए तथा हमा पीर इसी कारण भगवान पाश्वनाथ का नाम ग्रन्थकार मे अन्त में प्रात्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरूप को भीतर मे उमड़कर बाहर आनेके समान तपस्या दिया है।
को करते हुए और उसी तरह भव्य जनों को भी प्राचरण करने का उपदेश इन सभी तीर्थकरों ने शुद्धात्म भावना से इस पृथ्वी और शरीर के मोह तथा आदेश करते हुए उत्तम तप में सभो भब्य जीवों को तृप्त करते हुए जगत को छोड़कर निवृत्ति मार्गको अंगीकार करके उस मध्धाश्म के प्रानन्द से उत्पन्न । को आश्चर्य चकित करते हुए उनके मनको विशाल करते हुए सम्पूर्ण जोव हए स्वाभाविक प्रात्मिक ऐश्वर्य के समान रहनेवाले मोक्ष पद को प्राप्त किया। समान हैं. ऐसी प्रेरणा करते हए प्राचार सार में कहे हए तपश्चर्या के मर्म का है । अतः इन तीर्घकरों को जगत के सभी कवि नमस्कार करते हैं ।१४६।
अनुग्रह कराते हुए ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, और तपाचारादि इन पांच ये जिस सुख के अनुभव में रहते हैं वही सुख सम्यक्त्व चारित्र प्राचार को जनता में स्थापना कराते हा सामायिक प्रति क्रमणादि क्रियाओं कहलाता है। उस पवित्र चारित्र के मर्म को अपने अन्दर पूर्णतया भरे रहने को करते समय शक्ति को न छिपाते हए पाचरण करना चाहिए । इस प्रकार के कारण उनको परम शुद्ध निर्मल जीव द्रव्य कहते हैं। इस तरह निर्मल । उपदेश करती हुए तीनों संध्याकाल में देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिकसंववर्तना में रहनेवाले तीर्थकर भगवान के निश्चय चारित्र में लीन होने के कारण सरादिक केसमय में अहंत सिद्ध चौबीस तीर्थकरादि गुणों के समान अपने मात्मा शेष बचे हए अधाति कर्म स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। हमारे समान उन लोगों के अन्दर अनरल परास्तव, वस्तु स्तब, रूपस्तव इत्यादि गुरखों की
करने की जरूरत नहीं पड़ती और न उन्हें हमारे समान भावना करने का उपदेश देते हैं । १५४ से १६६ तक। किसी व्यबहार धर्म को पालन करने की आवश्यकता रहती। इसलिए वे पर वस्तु को भूलकर समस्त शुद्ध जीव के समान मेरी प्रात्मा इसी समवशरण में सिंहासन पर रहनेवाले कमल पुष्प को स्पर्श न करते हुए चार तरह परिशुद्ध है. ऐसी भावना करते हुए निश्चय चारित्र में अपनी शक्ति को अंगुल अघर रहते हैं ।१५०-१५१॥
1 वैभवशाली समझकर महान वैभव संपन्न पांच चारित्र पाराधना अर्थात् सिद्धांत जैसे कमल पत्र के ऊपर रहनेवाली पानी की बूद कमल पत्र को स्पर्श मार्ग के अदभुत और अनुपम जानाराधना दर्शनाराधना चारित्राराधना, तपानहीं करती तथा पानी में तैरती हुई मछली के समान कमल पत्र के ऊपर पड़ी । राधना, और बीयाराधनादि का अत्यन्त वर्णन के साथ उपदेश करते हुए रथ हुई पानी की दूदें तैरती रहती है उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान भी समव- के कलश के समान रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप के निश्चय स्थान अर्थात् सिद्धात्म सरणादि पर द्रव्य में मोहित न होते हुए अपने सारभूत आत्म द्रव्य में ही लीन स्वरूप नाम के एक ही सांचे में ढले हुए शुद्ध सोने की प्रतिमा के समान स्वसमय रहते हैं । समवसरण में देव मानवादि समस्त भव्य जीव राशि विद्यमान होने ! सार के बल से निश्चय नयाबलंबन रूप शुद्ध जीब बन जाता है । तब उनको पर भी वे परस्पर में अभिमान तथा रागद्वेष न करते हुए स्वपर कल्याण की चिरंजीवि, भत्र, शिव, सौख्य, शिव, मंग पीर मंगल स्वरूप कहते हैं। १७२ साधना में मग्न रहते हैं।१५२॥
से १८२ तक। क्रमवर्ती शान को निरोध करते हुए अक्रम अर्थात् अनक्षरान्मक नवजात बच्चे के स्वास चलते रहे तो वह जिन्दा रहेगा ऐसा कहने के सभी की इच्छाओं को एकीकरण करके सम्पूर्ण ज्ञान को एक साथ निर्वाह करते अनुसार सम्यक्त्व के प्रभिमुख जोव को मोक्ष में जाकर जन्म लिया, ऐसा हुए तोकर परमदेव समस्त संसारी भव्य जीवों को अपने अमृतमय बाणी के समझना चाहिए । तब वह जीवात्मा स्वयं स्वयंभू अर्यात् स्वतन्त्र होता है, ऐसा द्वारा उद्धार करते हैं। इस क्रम से समस्तजीव एक साथ अपने अपने अनाचनतं समझना चाहिए। तब करनेवाले जितने भी कार्य हैं वे सभी विज्ञान मय होते स्वरूप को जानकर छोड़ देते हैं ।१५३॥
हैं और समस्त पृथ्वी के सार को समझकर ग्रहण कर लेता है। वह संसार