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२०४ .. सिरिभवल्य
सर्वार्थ सिखि संच बैंगलौर-दिल्ली के सुख को अनुभव करने पर भो आत्म समाधि में लीन होकर धर्म साम्राज्य , में यदि एक बार जोव गोते लगा ले तो वह शीघ्रातिशीघ्र संसार सागर से 'का प्रधिपति होता है ।१८३)
पार हो जाता है । वह तीथे अन्यान्य क्रोधादिरूप तरङ्गों से बचाकर अनन्त वीतरागत्व का निश्चय भाव में परिणाम करनेवाले वे साधु परमेष्ठी चतुष्टयरूप आत्मिक संपत्ति को प्राप्त करने वाला बज्र वृषभनाराव-संहवन मात्मसमाधि रूपी समुद्र में तैरते हुए समस्त कर्मों को नावा करते हए. सम्पूर्ण शरीर की प्राप्ति कराके उस जन्म में मुक्ति स्थान में पहुंचा देता है, ऐमा श्री नयोंके विषयों को जानते हुए अपने प्रास्मा में लीन रहनेवाले आत्मा में तीनों । साघु परमेष्ठी उपदेश देते हैं ॥१८॥ काल में संसार में महोन्नत स्थान को प्राप्त होते हैं । ऐसे योगिराज हमेशा । पे साधु परमेष्ठी इहलोक, परलोक, अत्रण, अगुप्ति, प्रागन्तुक आदि जयवंत रहें ।१४।
सात भयों से मुक्त होने के कारण परम पराक्रमी होते हैं। इस प्रकार सात - आसन्न भव्य को उत्पन्न शुद्धात्म प्राप्ति की होनेवाली प्राशा उनके जय | भयों मे रहित रहने के कारण उन साधु परमेष्ठियों का मुख-कमल के कारण होती है हमारे विजय को देखकर भी तू संसार की विषयवासनाओं को प्रसन्नता से परिपूर्ण रहता है। मोक्ष स्थान में सदा प्रसन्नता-पूर्वक नहीं छोड़ता ? परम पवित्र सर्वमाधु परमेष्ठियों के पवित्र पुण्य चरणों में अपने रहना हो जीव का नैसर्गिक स्वभाव है । संसारावस्था में रहने वाले सभी उपयोग को लगाकर अगर तू पूजा करते तो तुम्हें उन समस्त याचरणों का जीवों के शारीर में खंड २ रूप से शरीर के अन्दर छिद्र रहते हैं। पर मुक्कामार्ग तथा निर्भर भक्ति पा जाती। इसलिए पाप मन वचन और काय मे पंचवस्था में ऐसा नहीं रहता। क्योंकि वहां पर जीव अखंड घनस्वरूप में रहता परमेष्ठियों के पवित्र चरणों की निर्भर भक्ति से आराधना करो।१५] है। किसी के सम्पर्क में न रहने से प्रखंड स्वरूप रहना शुद्ध वस्तु का स्वभाव
समस्त द्वादशांग वाणी के मर्म को जानकर उस मार्ग से तू श्रम रहित । ही है । मुक्ति में सदा काल जीव मात्मा से उत्पन्न हुये ग्रानन्द में तल्लीन रहता चलते हुए पाने से पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करना, स्तुति करना, स्मरण है। वे महापराक्रमी सिद्ध जीव चैतन्यस्वरूप से रहते हैं और सत्य स्वरूप है। करना, इत्यादि ऋभ को कहे जाने बाने नवमांक गणित से बद्ध होकर हने । उस दुर्लभ सुख में रहने वाले सिद्ध परमेष्ठियों को सर्वसाब परमेष्ठो अपना वाले को श्री भूवलय से आप समझकर उस मार्ग की प्राप्ति कर लो ११८६। सर्वस्व मानकर सदा काल यानी यविरत्न रूप से भक्ति पूर्वक मनन करते है। - मोक्ष दूसरे के वास्ते नहीं है इसलिए वह अन्य किसी दूसरे के द्वारा ये ऋषिगण उन सिद्ध परमेष्ठियों के पद प्राप्ति के निमित त्रिकाल असाधारण प्राप्त नहीं हो सकता । तीर्थकर भगवान भी अपने हाथ से पकड़कर अपने भक्ति करते रहने से वह पद प्राप्त कर लेते हैं। साथ मोक्ष को ले जानेवाले नहीं हैं।
इस संसार में वे साधुगण सविकल्प रूप से दीख पड़ने पर भी अपनी वे भी हमारे समान कटिन तपश्चर्या करके अपने कर्मों की निर्जरा । आत्मसमाधि सिद्धि का महान् साधन संचय करते हैं। वह सामग्री परम दया, करके मोक्ष की प्राप्ति कर लिए हैं। इसी तरह हम लोगों को भी अपने सत्य आदि वास्तविक मामग्री है। उन सामग्रियों से जब प्रन्य रचना करने के स्वार्थ को सिद्ध कर लेना चाहिये । स्वार्थ का अर्थ अन्य जनों के द्वारा अनुभव लिये बैठ जाते हैं तब प्रात्मस्वरूप तथा अखिल विश्व के समस्त पदार्थ स्फटिक करने वाली वस्तु की अपेक्षा करके अनुभव करना है। यह स्वार्थ वैमा नहीं है। के समान झलकने लगते हैं। इस काल में बी घरसेन प्राचार्य ने पांच परमेष्ठियों क्योंकि इससे किसी को किचिद् मात्र भी हानि नहीं पहुंचती । मोक्ष सुख का की भक्ति से निकल कर आने वाले प्रक्षरों घोर अंकों से जिस काव्य की रचना स्वार्थ सिद्ध करने का हक सभी को है। समस्त अज्ञानताओं को नष्ट करके । को है वह प्राकृत, संस्कृत तथा कन्नड इन तीनों भाषाओं मिश्रित अईभाषा हितरूप में तल्लीन होना शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति है ।१८७।
कहलाती है। इस रीति से उन्होंने जो साढ़े तीन (३३) भाषा की रचना की .... सम्पग्दर्शन शान चारित्र रूपी निर्मल जल ही तीर्थ है और उस तीर्थ है वह "पति" नामक छन्द कहलाता है। इस प्रकार रचा हुमा ग्रन्थ भी इस