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________________ सिरि भूषवाय मषि सिदि संघ, बी-णिती भूवलय में गभित है। दिशारूपी बस्त्र और करपात्र पाहार ग्रहण करने वाले इस भूवलय के अन्तर्गत पंच परमेष्ठि का बोल्लि सूत्र संक्षेप रूप में भी साधुनों द्वारा अनादि काल से संपादन किया हुमा ग्रन्थसार इस भूवलय में निकलेगा और विस्तार रूप में भी निकलेगा। इस मंगल प्रामृत नामक अन्य में गभित है। उसमें से एक ग्रन्थ का नाम "पंच परमेष्ठी बोल्लि" है। यहां तक जो २४ (चौबीस) तीर्थकरों का बएन है वही पंचपरमेष्ठी अर्थात् अर्हसिद्धा१८६ से लेकर २१२ श्लोक तक पूर्ण हुआ। पार्योपाध्याय सर्व साधु का गुण वर्णनात्मक है । और दही पंचपरमेष्ठियों के विवेचन-माजकल "पंच परमेष्ठी बोल्लि" नामक कानड़ी भाषा में बोल्लि का विषय है ।२१६॥ जो अन्य मिल रहा है वह प्राचीन कर्णाटक भाषामें होने पर भी दशवीं शताब्दी। सूत्र रूप में जो पंचपरमेष्ठी का बोल्लि है वह बीजाक्षररूप होने से से पीछे का है, प्राकृत भाषा में मंगलाचरण के प्रथम श्लोक को देखकर अजन । मन्त्र रूप है और मन्त्राक्षर तो बोबाक्षर बनते ही हैं। चक अक्षर में अनन्त गुण विद्वान इस भूबलय ग्रन्थ को दशवी शताब्दी के बाद का कहते हैं। है। इसलिये उस अक्षर को केवल ज्ञान कहते हैं। भारतीय संस्कृति में नम: किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि भूवलय सिद्धान्त रचित पांच परमेष्ठियों। शिवाय तथा असि पा उ सा ये दोनों पंचाक्षर बीज मन्त्र हैं। बुद्धि ऋद्धि के का 'बोल्लि' नामक पद्धति ग्रन्थ साढ़े तीन भाषा में होने से श्री पाठ भेद हैं। उनमें एक बीज बुद्धि नामक महान् अतिशय-पालिनी बुद्धि भो कुसुदन्दु आचार्य के पूर्व किसी महान् प्राचार्य द्वारा रचित है। उसका स्पष्टी-है। द्वादशांग वाणी के असंख्यात अक्षरों में से केवल एक हो अक्षर का नाम करण अगले श्लोक में किया गया है । इस पृथ्वी में रहने वाली समस्त वस्तुओं। कहने से समस्त द्वादशांग, (ग्यारह मंग तथा चौहद पूर्व आदि)का ज्ञान हो जाना का अर्थात् जीवादि षड् द्रव्यों का कथन सर्व प्रथम भगवान् की वाणो से । बीज बुद्धि नामक ऋद्धि है। ऋद्धि का अर्थ आध्यात्मिक ऐश्वर्य है। चौदह निष्पन्न हुआ है। उस कथन को लेकर पूर्वाचार्यों ने अपने अद्भुत ज्ञान से पूर्वो में अग्रायणी नामक एक पूर्व है। उसका नाम वैदिक सम्प्रदायान्तर्गत "पंच परमेष्ठो बोल्लि" पद्धति नामक ग्रन्थ को रचना को है। वह अन्य । ऋग्वेदादि ग्रन्थों में भी दिया गया है, किन्तु वह नष्ट हो गया है, ऐसी वैदिकों अहंत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुनों के यश का गुणगान करने के कारण पद्धति की मान्यता है । नामक छन्द से प्रख्यात था ।२१३३ उस अग्रायणी पूर्व से 'पंचपरमेष्ठी बोल्लि' नामक १२ हजार लोक उस पंच परमेष्ठी को बोल्लि में अनेक प्रकार के न्याय प्रन्य, लक्षण परिमित एक कनड़ी ग्रन्थ निकलता है। उस ग्रन्थ में पंचपरमेष्ठियों का समस्त ग्रन्थ इत्यादि विविध भांति के प्रतिवाय संपन्न ग्रन्य बारह हजार कानड़ी श्लोकगुण वर्णन है, मृत्यु के समय भो यदि उन गुणों का स्मरण किया जावे तो और कई हजार श्लोक के अन्य ग्रन्थ समिलित हैं । ये सभो अन्य भूवलय के प्रात्म-शुद्धि होती है। तया भगवान के १००८ नाम भी उसमें अन्तर्गत हैं समान ही सातिशय निष्पन्न हुये हैं ।२१४॥ उस १००८ को जोड़ देने से (१++ +5-९) ६ नौ पा जाता इस प्रकार नवमांक बद्ध क्रमानुसार बंधे हुए सभी को नय मार्ग । है । नव पद आ जाने से यह ग्रन्थ भगवान महावीर की वाणी के अनुसार बतलाने-वाले इस पांच परमेष्ठियों के गुरणमान रूप काव्य को भक्ति-भाव से वादशांग के अन्तर्गत है । २१७ से २२६ तक। जितना ही अधिक स्वाध्याय करें उतना ही अधिक उनका प्रात्मा गुणवान बन सौराष्ट्र में श्री भूतबलो प्राचार्य ने सबसे पहले नवम अंक पद्धति जायगा और परम्प ग मे अभ्युदय सौरूप १८ तथा नय श्रेषस समस्त सुख विना से 'पञ्च परमेष्ठि वोल्लि' ग्रन्थ रचना को थी उस ग्रन्थ को गणित पद्धति द्वारा इच्छा के ही स्वयमेव मिल जायगा । इस प्रकार उत्कृष्ट फल प्रदान करने वाला निकालने को विधि ११२ के वर्गमूल से मिलती है। ११२ को आड़े रूप से समस्त संसार का सार स्वरूप भूवलयान्तर्गत यह पंच परमेष्ठो का बोल्लि रूप जोड़ने पर (१+१+२%D४) ४ आता है, उस चार अंक का अभिप्राय जिन मन्थ है ।२१५॥ । वागी, जिनधर्म, जिनमैत्य और चैत्यालय है । उस ४ अंक को पंच परमेष्ठी के
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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