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सिरि भूषज्ञय..
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... साम सिदिसम, शारदल्ली
५ अंक से जोड़ने पर (४+५= 1) अंक पा जाता है जोकि नवपद (पंच । सदा सर्वदा इस सिद्धान्त शास्त्र का उपदेश सुनते समय वह सम्यक्त्व शिरोमणि परमेष्ठी जिन वाणी ग्रादि । देवता ) का सूचक है। .
हुँकार साय सुर हुए अत्यंत पुण्य होते में इस कारण से उन्हें 'शैगोट्ट' अर्थात् .. प्राचार्य कुमुदेन्दु सूचित करते हैं कि उनके समय में 'पंच परमेठडी सुननेवाला विशेषण दिया गया था। उपर्युक्त शैगोट्ट शब्द कर्णाटक भाषा में है बोल्सि' ग्रन्थ लुप्त था, वह अब गरिगत पद्धति से प्राप्त हो गया है हमने इसका दूसरा नाम 'गोट्टिका' भी था इसका अर्थ श्री जिनेन्द्र भगवान को वारणी उसको 'पद्धति' नाम दिया है । 'पद्धति' चौदह पूर्वो के अन्तर्भूत है अत: हम को सुननेवाला है । कर्नाटक भाषा में श्री जिमेन्द्र देव को "गोरख, गरुव,". उस पद्धति नामक ग्रन्थ को नमस्कार करते हैं । यह कविजनों के लिए महान ! इत्यादि अनेक नामों से पुकारते थे। आजकल भी ईश्वर को वैदिक सम्प्रदाय अद्भुत विषय है अतः प्रत्येक विद्वान को इसका अध्ययन करना चाहिए ।२२७ में 'गोरव" कहने की प्रथा प्रचलित है। इनकी राजधानी नन्दोदुर्ग, के निकट से २४७ तक।
1 "मरणे" नामक एक ग्राम है जोकि पहले राजधानी थी। आधुनिक ऐतिहासिक अब श्री कुमुदेन्दु आचार्य इस तेरहवें अध्याय को संक्षिप्त करते हुए कहते। विद्वान "मगर" नामक ग्राम को "मान्य खेट" नाम से मानकर हैदराबाद के हैं-इस भूवलय के इसअध्याय का अध्ययन करनेवाले भव्यजन सर्वार्थ सिद्धि अन्तर्गत समझते हैं। इसी के निकट "शीतकरलु" नामक एक बहुत प्राचीन विमान में प्रहमिन्द्रों के साथ ३३ सागरोपम दीर्घ सुखमय जोवन व्यतीत करते । ग्राम है । जिसमें गंग राजा के द्वारा अनेक शिल्प कलामों से निर्मित एक जिन हैं ।२४८1
मन्दिर है। प्राचीन काल में जो "म" नाम था वह छोटा-सा , देहात बन . सर्वार्थसिद्धि में इन्द्र सेवक, आदि का भेदभाव नहीं है, यहां के देव गया है। अपनी प्राय पर्यन्त निरन्तर सुख अनुभव करते हैं। उस सर्वार्थ सिद्धि के समान एक बार महान वैभवशाली "प्रथम गोटिग शिवभार" जब हाथी के कगर कर्माट [कर्नाटक] भाषा तथा जनपदवासी जनता सुखी है । इस देश में हजारों बैठकर पा रहा था तब उसने एक हजार पांच सौ (१५००) शिष्यों के साथ दिसम्बर मुनियों का विहार तथा सिद्धान्त प्रचार होने से इस देशवासी यश-अर्थात् संघ सहित दूर से आते हुए श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य को देखा। उस समय कीर्ति माम कर्म का बन्ध किया करते हैं, अयश:कोति प्रकृति का बन्ध किसी। वर्षा होने के कारण पृथ्वी पर कीचड़ हो गई थी। प्रतः “गोद्रिग शिवमार" के नहीं होता । प्राचीन समय में श्री बाहुबली ने यहां राज्य शासन किया था। हाथो से शोघ्र उतर कर नंगे पैरों से प्राचार्य थो के दर्शनार्थ उनके चरण समीप
२४९-२५०1 1 जाकर। . .. अपने मस्तक में कोहेनूर के यमान अमूल्य रत्न जड़ित किरीट को उसने मुनिराज के चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार किया. धारण किये हुए प्रमोघवर्ष चक्रवर्ती ने गुरु श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के चरणरज वैसे ही उसके मस्तक में धारण किये हुए रत्न जडित किरीट में मुनिराजः को अपने मस्तक पर चारण किया था। इनके शासनकाल में इस भूवलय के पैरों की धूलि लग गई जिससे कि रत्न का प्रकाश फीका पड़ गया । कुमुदेन्दु ग्रन्थ की रचना हुई थी ।२५१५
। प्राचार्य श्री. तो अपने संघ सहित विहार कर गये और राजा लौटकर अपनी, विवेचन-क्रिश्चन शक ६८० के लगभग समस्त भरतखण्ड को. जीतकर | राज सभा में जाकर सिंहासन पर विराजमान हो गया : नित्य प्रति राजसभा. हिमवान् पर्वत में कराटक राज्य चिन्ह की ध्वजा को राजा अमोघवर्ष ने में बैठते समय मस्तक में लगी हुई रत्न की प्रभा चमकती थी, किन्तु प्राज. फहरापा था। उसी समय में इस सूवलय ग्रन्थ की रचना हुई थी. इस प्रसंग धूलि लगने के कारण उसकी चमक न दीख पड़ी। तब सभसदों ने मन्त्री को में उनको धवन, जयघवल, विजय धवल, महाधवल ओर अतिशयधवल की। इशारा किया कि राजा के मस्सक में लगे हुए मुकुट के रत्न पर धूलि लगी विस्वावसी प्रदान की गई थी। गंग वंश के प्रथम शिवमार नामक यह धर्मात्मा है अत: उसे कपड़े से साफ करदो। तब मन्त्री राजा के पीछे खड़ा होकर उसे..