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सिरि भूवलय
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साफ करने का मौका देखने लगा । अकस्मात् राजा की दृष्टि मन्त्री के ऊपर पड़ी तब उन्होंने पूछा कि तुम यहाँ क्यों खड़े हो ? मन्त्री ने उत्तर दिया कि आपके किरीट में लगी हुई धूलि को साफ करने के लिए खड़ा हूँ जिससे कि रत्न की चमक दीख पड़े । राजा ने उत्तर में कहा कि हम अपने श्री गुरु के चरण रज को कदापि नहीं हटाने देंगे, क्योंकि यह रत्न से भी अधिक मूल्यवान है । इसलिए मैंने अपने गुरु की धूल को जान बूझकर रखलिया है। इस प्रकार कहते हुए उस किरीट पर लगी हुई धूलि को हाथ लगाकर अपनी आंखों में लगा लिया। गुरु देव के प्रति राजा की भक्ति तथा उसकी महिमा अनुपम अद्भुत थी। उस गुरु की दृष्टि भी तो देखिये कि वे अपने शिष्य "गोद्र शिवमार" को कोति संसार में फैलाने तथा चिरस्थायी रखने के उद्देश्य से आई हुई पांचों विरुदावलियों के नाम से धवल, जयबवल, महाघवल, विजयघवल, तथा अतिशय घवल श्री सूवलय का नाम रख दिया । यह गुरु की अत्यन्त कृपा है, ऐसे गुरु शिष्य का शुभ समागम महान पुण्य से प्राप्त होता है ।
रूप
इस तेरहवें अध्याय के अन्तर काव्य में १५६८४ अक्षर हैं और श्रेणीवद्ध काव्य में ९४७७ अक्षर हैं। ये सब कर्नाटक देशीय जनता के महान् पुण्योदय से प्राप्त हुए हैं । २५२ ।
इस तेरहवें अध्याय के अन्तरान्तर काव्य में इसके अतिरिक्त ४८ श्लोक और निकल प्राते हैं। शूरवीर वृत्ति से तप करनेवाले दिगम्बर जैन मुनि "अक्ष" प्रकार से जिस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं और उस समय प्रक्षय रूप पंचाश्चर्य वृष्टि होती है उसी प्रकार इसके अन्तरान्तर काव्य में इसके अलावा एक और अध्याय निकल आ जाता है, जिसमें किं २१६६ प्रक्षसंक हैं । इस रीति से कवल एक ही प्रध्याय में ३ अध्याय बन जाते हैं । २५२ ।
विवेचनः -- दिगम्बर जैन मुनि गोचरीवृत्ति, भ्रामरी वृत्ति तथा क्षक्ष इन तीन वृत्तियों से आहार ग्रहण करते हैं। इनमें से गोधरी वृत्ति का विवेचन पहले कर चुके हैं। पर शेष दो वृत्तियों का विवरण नीचे दिया जाता है ।
भ्रामरी वृत्ति:- जिस प्रकार भ्रमर कमल पुष्प के ऊपर बैठ कर उसमें
सर्वार्थ सिद्धि संभ बैंगलौर-दिल्ली
किसी प्रकार को हानि न करके रस को चूसता है और कमल ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है उसी प्रकार दिगम्बर जैन साधु श्रावकों को किसी प्रकार का भी कष्ट न हो, इस अभिप्राय से शान्त भाव- पूर्वक प्रहार ग्रहण किया करते हैं । इसे भ्रामरी वृत्ति कहते हैं ।
क्षावृत्तिः - तेलरहित धुरेवाली बैलगाड़ी को गति सुचारु रूपसे नहीं चलतो तथा कभी २ उसके टूट जाने का भी प्रसंग श्रा जाता है, अतः उसको ठीक तरह से चलाने के लिये जिस प्रकार तेल दिया जाता है उसी प्रकार साबु जन शरीर का पालन-पोषण करने के लिये नहीं, बल्कि ध्यान, अध्ययन तथा तप के साधन-भूत शरीर को केवल रक्षा मात्र के उद्देश्य से अल्पाहार ग्रहण करते हैं । इस वृत्ति से प्रहार ग्रहण करना अक्षमक्ष वृत्ति कहलाती है ।
इस काव्य के अन्तर्गत २४७ २४६, २४४ और २४४, २४३, २४२ इस क्रमानुसार तीन २ श्लोकों को प्रत्येक में यदि पढ़ते जायें तो इसी भूवलय के प्रथम अध्याय के ६ वें श्लोकके दूसरे चरण से प्रथमाक्षर को लेकर क्रमानुसार "मदोलगेर कानूरु" इत्यादि रूप काव्य दुबारा उपलब्ध हो जाता है । यह विषय पुनरुक्त तथा अक्षय काव्य है । यदि इस ग्रन्थ का कोई पत्र नष्ट हो जाय तो नागवद्ध प्रणाली से पढ़ने पर पूर्ण हो जाता है। लु ६४७७+ अन्तर १५६८४ + प्रन्तरान्तर २१६६२७६३० अथवा से ऋतक २५२००१+ ल २७६३०=२७६७११ अक्षरांक होते हैं ।
इस अध्याय के प्राद्यअक्षरसे प्राकृत भाषा निकल आती है। जिसका अर्थ इस प्रकार है
भारत देश में लाड नामक देश है, लाड शब्द भाषा वाचक भी है और देशवाचक भी है। लाढ भाषा अनेक जातीया है, उस लाड देश में श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्यन शंभुकुमार, अनिरुद्ध इत्यादि ७२ करोड़ मुनि लोग दीक्षा लेकर कर्जयन्तके शिखर प्रर्थात् पर्वत पर तप करते हुए एक-एक समयमें सात सौ-सात सौ मुनि गरण ने कर्म को क्षय करके सिद्ध पद प्राप्त किया इस तेरहवें अध्याय के २७ वें श्लोक से लेकर ऊपर से नीचे तक पढ़ते जाय तो संस्कृत लोक निकलता है उस श्लोक का अर्थ निम्न प्रकार है:- ...
अर्थ- इस सिद्धांत ग्रन्थ को धवल, जय घवल, विजय धवल, महा