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________________ भूवलय का परिचय इस प्रकार प्रथमाध्याय को समाप्त करके दूसरे अध्याय का प्रारम्भ श्री कुमुदेन्दु ग्राचार्य ने अपने भूवलय ग्रन्थ में पंच भाषा मयी गीता का । निम्नलिखित रूप से किया हैसमावेश किया है, उन्होंने गीता का प्रादुर्भाव श्लोकों के प्रथम अक्षर से ऊपर । 'अथव्यासमुनीन्द्रोपदिष्ट जयाख्यानान्तर्गत गीता द्वितीयोऽध्याय': नीचे की घोर लेजाते हुए किया है, जिसको प्रथम गाथा 'अटवियकम्मवियला' । इस गद्य से प्रारम्भ करके गोम्मदेश्वर द्वारा उपदिष्ट भरत चक्रवर्ती को तथा प्रादि है। तदन्तर अपनी नवमांक पद्धति के समान । भगवान नेमिनाथ द्वारा कथित कृष्ण को तथा उसी गीता को कृष्ण ने अर्जुन भूवलय सिद्धांतइयतेछु । तावेल्लवनु होंदिसिरुव ।। को संस्कृत भाषामें कहा गोम्मटेश्वर ने भरत को प्राकृत भाषा में पौर भगवान श्री वीरवारिणयोळ्बह"इ,' मंगलकाव्य । ई विश्वर्यलोकदलिनेमिनाथने कृष्ण को मागधी भाषा में कहा था। जिसका प्रारम्भिक पद्य इसमें चक्रवन्ध है, जिसमें कि २७ कोष्ठक हैं उन कोष्ठकों में से बीच । निम्नलिखित है। का अंक १' है जिसका कि संकेताक्षर 'न । 'य' से नीचे ( सब से । 'तिस्थरणबोधमायामे आदि नीचे) गिनने पर १५ आता है १५ में ५८ संख्या है जिसका कि संकेत प्रक्षर '' ('अ' अध्याय १६वीं श्रेणो) है उसके ऊपर के तिरछे कोटे में पाने पर ३८ संख्या है जिसका कि संकेताक्षर नेमिगीता में तत्वार्थ सूत्र, ऋषि मण्डल, ऋद्धि मन्त्र को अन्तर्भूत 'ट् है। उसके आगे के कोठे में '१' आता है जिसका संकेत अक्षर 'अ' है इन । कर भावान मॉमनायरा कृष्ण को उपदेश किया गया है। तीनों प्रक्षरों को मिलाने पर 'प्रष्ट' बन जाता है। एल्लरिगीरवते केळेदु श्रेणिक । गुल्लासदिदगौतमनु । . इस चक्र बन्ध को नीचे दिखाते है सल्लीलेबिदलि व्यासरुपेळिद । देल्लतीतरकथेय ॥१७-४४॥ यह प्रथम चक्र-वन्ध है इसके अनुसार आये हुए अंकों को अक्षर रूप! व्याससे लेकर गौतम गणघर द्वारा श्रेणिक को कही हुई कथा को प्राकरके पढ़ा जाता है। इस प्रकार कनड़ी श्लोक प्रगट होते हैं उन कनड़ी श्लोकों। चार्य कुमुदेन्दु कहते हैं । के पाय अक्षरों को नीचे को सोर पड़ने से 'प्रवियकम्मवियला आदि प्राकृत ऋषिगळेल्लरु एरगुवतेरदिदलि ! ऋषिरूप धर कुमुदु । । भाषा की गाथाएं प्रगट होती है। उस कानड़ो श्लोकों के मध्य में स्थित हसनादमनदिद मोघवर्षाकगे। हेसरिददु पेळेद श्रीगीतें। अक्षरों को नीचे को प्रोर पढ़ने से ओंकार 'बिन्दुसंयुक्त' प्रादि संस्कृत ॥१७-६४-१००॥ श्लोक प्रगट होता है जो कि भूवलय का मंगलाचरण है। इस प्रकार परम्परागत गोता को श्री कुमदेन्दु प्राचार्य ऋषि रूप या श्री कमुदेन्दु प्राचार्य ने भूत्रलय में जो गीना लिखी है वह उन्होंने कृपय रूप में अपने प्रापको अलंकृत करके अर्जुन रूप अमोघवर्ष राजा को प्राघुनिक महाभारतसे न लेकर उसमें प्राचीन 'भारत जयाख्यान' नामक काव्य गोता का उपदेश किया है। इस प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ विश्व का एक महान ग्रन्थ से ली है, ऐगा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने लिखा है। उस गीता को नबन्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसका विवरण श्री कुमुदेन्दु आचार्य स्वयं प्रगट करते हैंपद्धतिसे प्रगट किया है। प्राचीन नुन हए जयाथ्यान काम्य के भोतर पाये हए धर्मध्वजबदरोळ केत्तिदचक । निर्मल दष्टु हगळम ॥ , . गोता काव्यको उद्धृन किया है, उम गौना का अन्तिम श्लोक निम्नप्रकार है स्वम नदलगयवत्तोंदुसोन्नेयु । धर्म दकालुलक्षगळ । चिदानन्दघने कृष्णेनोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम् । पापाटियनकदोंळ ऐदुसाविर कूडे । श्री पादपद्म दंपदल ॥ वेदत्रयी परानन्वतत्त्वार्थऋषिमण्डलम् ।। सपि अरूपिया प्रोम दरोळ व । श्री पद्धतिय भूबलय ।।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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