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सुनय श्रेयसभसंख्यमश्नन्ति भद्रम् ।
शुभम् मंगलम् स्वस्तु चास्याह कयाचाह ॥ २०२॥
देवप्पाका हमें कोई विशेष परिचय प्राप्त नहीं है जिससे उनके विषयमें विचार किया जाय। देवप्पा ने ऊपर के पद्य में कुमुदेन्दु मुनि के विषय में ('थ लू व भू' य ल वलय') जो कुछ भी कहा है उससे ज्ञात होता है कि श्राचार्य कुमुदेन्दु बड़े भारी तेजस्वी महात्मा थे और उनका यह ग्रन्थ आदि मध्य और अन्तिम श्रेणी में विभक्त है, जो प्राकृत संस्कृत के महत्व को लिए हुए है। संस्कृत प्राकृत और कानड़ी, इन तीनों की श्रेणियों का यदि चिन्तन किया जाय तो ज्ञात होगा कि य ल व भू और यल वलय उनके नामहें जिनका उसमें कथन निहित है अथवा देवप्पा कुमुदेन्दु आचार्य के समय के नपादीक होने के कारण इनके माता पिता के नाम के साथ उन्हें जन्म स्थान का नाम भी ज्ञात था, ऐसा जान पड़ता है । देवप्पा के अनुसार अथवा कुमृदेन्दु के कहे अनुसार वह नंदिगिरि निश्चय से पर्वत के शिखर पर था ऐसा निश्चय किया जाता है। इस महात्मा के द्वारा कहे जाने वाले गाँव बेंगलूर ततः चिक्क वल्लापुर के मार्ग में होने वाले नंदी स्टेशन के नजदीक है। यही ग्राम और यही क्षेत्र कुमुदेन्दु की जन्मभूमि ज्ञात होती है। कुमुदेन्दु की जन्म भूमि के सम्बन्ध में और भी विचार किया जा रहा है।
• ग्रन्थ की उपलब्धि
संसार का दशव श्राश्वयं स्वरूप महान ग्रन्थ भूवलय ग्राज से लगभग २० वर्ष पहले पूज्य आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज ने बेंगलोर में श्री एलप्पा जी शास्त्री के घर पर आहार ग्रहण करने के अनन्तर देखा था, परन्तु अंक रूप में अंकित होने के कारण उस समय इस ग्रन्थ का विषय आचार्य श्री को ज्ञात न हो सका, अतः उस समय इस महान् ग्रन्थ का महत्व महाराज अनुभव न कर सके ।
श्री एलप्पा शास्त्री को यह ग्रन्थ अपने श्वशुरके घरसे प्राप्त हुआ था । उनके श्वशुर को यह ग्रन्थ कहाँ से किस प्रकार प्राप्त हुआ, यह बात मालूम न हो सकी ।
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भूवलय ग्रन्थ में एक कानड़ी पद्य आया है। उसके अनुसार सेठ श्रीषेण की पत्नी श्री मल्लिक ने श्रुत पंचमी व्रत के उद्यापन में धवल, जय घवल. महा धवल, प्रतिशय धवल तथा भूवलय ग्रन्थराज लिखाकर श्री माघनन्दि आचार्य को भेंट किये थे । धवल, जयधवल, महाधवल ग्रन्थ मुड़ बिद्री के सिद्धान्त वस्ति भण्डार में विद्यमान हैं। संभवतः भूवलय ग्रन्थ भी उसी सिद्धान्त वस्ति भएदार में विराजमान होगा। श्री एल्लप्पा शास्त्री के श्वशुर के घर पर यह ग्रन्थ किस तरह पहुंचा, यह रहस्य की बात अज्ञात है । अस्तु ।
श्री एल्सा शास्त्रीजी ने महान् परिश्रम करके अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा से भूवलय के अंकों का प्रक्षर रूप में परिवर्तित करके कानड़ी लिपिमें लिख डाला तब इस ग्रन्थ का महत्व जनता के सामने आया । यदि यह ग्रन्थ कानड़ी लिपि में ही रह जाता तो उसका परिचय दक्षिण प्रान्त में रहता, शेष समस्त भारत की जनता उससे अनभिज्ञ ही रह जाती। प्राचीन साहित्य के उद्धार में रुचि रखने वाले, अनेक प्राच्य ग्रन्थों को प्रकाश में लानेवाले, सतत ज्ञानोपयोगी, विद्यालंकार आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने श्री एलप्पा शास्त्री के सहयोग से इस भूवलय ग्रन्थ के प्रारम्भिक १४ अध्यायों का हिन्दी भाषा अतुवाद करके देवनागरी लिपि में प्रकाशित कराने की प्रेरणा की, उसके फलस्वरूप भूवलय के मंगल प्राभृत के १४ प्रध्याय जनता के समक्ष आये हैं ।.
इस महान अद्भुत ग्रन्थ को जब भारत के महामहिम राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी को श्री एल्लप्पाजी शास्त्री ने भेंट किया तो राष्ट्रपतिजी ने इस ग्रन्थ को सुरक्षित रखने के लिए भूत्रलय को राष्ट्रीय सम्पत्ति बना लिया । मैसूर राज्य की ओर से इस ग्रन्थ को इंग्लिश अंकों में परिवर्तित करने के लिये श्री एल्लप्पा जी शास्त्री को १२ हजार रुपये प्रदान किये गये । उस आर्थिक सहायता से इस ग्रन्थ का अंगरेजी अंकाकार निर्माण हो रहा है ।
जैन समाज तथा भारत देश के दुर्भाग्य से श्री एल्लप्पाजी शास्त्री का गत मास दिल्ली में शरीरान्त हो गया, अतः अब इस ग्रन्थ के अग्रिम भाग के प्रकाशन में बहुत भारी अड़चन आ गई है। यदि भारत सरकार का सहयोग पूज्य आचार्य श्री को मिल जावे तो इस ग्रन्थ का अग्रिम भाग प्रकाशन में था सकता है।
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