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________________ कुमुदेन्दु के शिष्य नृपनु जने अपने कविराजमार्ग में नया पूर्व कवि नांग ओदिनोळत मुहर्तदि सिद्धांत । दादि ग्रंतप बनेल्ल चित्त ।। अपनी कविता में चतन वेदंदा' नाम की पद्धति में रचना की है। कुमुदेन्दु ने साधिप राज अमोघ वर्षनगुरु । साधिपश्रमसिद्ध काव्य 18-१६५॥ अपने काव्य को 'चत्तन्न बेदंडा' पूर्वी का मार्ग में 17 बार गे पूर्वाचार्यों को समान इन्होंने ४६ मिनट में नाय को रचना की है, ऐसा बढ़ा दिया है। चत्तन्न को चार भाग में और वेदंड को १२ अध्याय १२ । उल्लेख किया गया है । यह सर्व भाषामयी, कान्य मुड़ और प्रौढ़ सभी लोगों अध्याय के अंत तक अन्तर्गत रूप दंढक रूप गद्य माहित्य में रचना करके ना। को लक्ष्य में रखकर सरल भाषा में रचा गया है। सात मो अठारह भाषाओं तुग के पहले कर्नाटक छन्द को दर्शाया है। कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अपने काव्य में को पाथ्य में निहित करते हुए कहीं-कहीं चक्रबद्ध और कहीं-कहीं चिन्हबद्ध काव्यों कहा है कि : से अलंकृत किया गया है पहले यह ग्रन्थ मूल कानडी भाषा में छपा है उसमें मुद्रित मिगिलादतिशय देनर हदिनँटु । अगणित दक्षरभाषे ।।-१९८। ग्रन्थ के पद्यों में श्रेणिबद्ध काव्य है। उस काव्य बंध में आने वाले कन्नड काव्य शगणादि पद्धति सोगसिम् रचिसिहे । मिगुबभाषेयु होरगिल्ल । 1 के प्रादि अक्षरों को ऊपर से लेकर नीचे पढ़ते जांय तो प्राकृत काव्य निकलता चरितेयसांगत्य वेने मुनि नायर । गुरु परंपरेय विरचिता-१६६। है और मध्य में २७ अक्षर बाद ऊपर से नीचे को पढ़ने पर संस्कृत काव्य चरितेय सांगत्य रागदोळगिसि । परतंव विषय गळेल्ला७१६२। निकलता है। इस तरह पद्यबद्ध रचना का अलग-प्रलग रीति से अध्ययन किया वशवागवेल्लगि कालदोळेव । असदृश ज्ञानद् सौगत्य । जाय तो अनेक बंध में अनेक भापा निकलतो हैं ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। उसहसेनर तोरवदु असमान। असमान सांगत्य बहुदुाह-१२३-१२२। बंधों के नाम यह काव्य 'चत्तन्न होने के कारण इसका विशेष निरूपण करने की। जरूरत नहीं रही । उसका उदाहरण थोड़ा-सा यहाँ दिया जाता है। चक्रबंध, हंसबंध, पद्म, शुद्ध, बवमांकबंध, वर पद्मबंध, महापद्म, स्वति श्री मदरामराज गुरू भूमंडलाचार्य एकत्वभावनाभावित उभय द्वीप सागर, पल्लव, अम्बुबंध, सरस, सलाक, श्रेणी, अंक, लोक, रोमकूप, काँच नय समग्ररु' गुप्तरू' चतुष्कषाय रहितरु' पंचव्रत समय तर सप्त तत्व सरो 1 मयूर, गोमातीतादि बंध, काम के पद्म बंध, नख, चक्रबंध, सोमातीत गरिणत बंध, इत्यादि बंधों से काव्य रचा गया है । यह काप आगे चलकर अंक बंध से जिनी राजहंसम् प्रष्टमद भजतलं, नव विधाबालब्रह्मचर्यालकृतरु-दशधर्म समेत निकल कर इसमें क्रम रो मभी विपय पल्यबिन हो सकेंगे। प्राचार्य कुमुदेन्दु की द्वादश द्वादशांग भुतरु पारावार चदंश पूर्वादिगुरुंरलं । इस प्रकार १२ और ३१ अध्याय से ५० श्रेणी में उसका। धार्मिक दृष्टि का इससे अधिक दिग्दर्शन कराने को जरूरत नहीं है । इस भूबलय विभाजन किया है। में वेदंड में-नर्क व्याकरण, छंद-निघंटु अलंकार कान्य घर, नाटकाष्टांग, भूषलय को काव्यवद्ध रचना गणित, ज्योतिष सकल शास्त्रीय विद्यादि सम्पन्न नदी के समान गम्भीर महाकुमुदेन्दु ने अपने काव्य को अक्षरों में नहीं लिखा है, किन्तु पूर्व में कहे । नुभाव, लोकत्रय में अयगर गारव बिरोध रहित, सकल महीमहलाचार्य हुए गोतम गणघर के मंगल प्राभृन के ममान इसी पाहड ग्रन्थ को प्राचार्य विश्व ताकिक चक्रवर्ती शत विया चनुमुंख, षट्टतर्क विनोदर, नैयायिक वावि, वंशेषिक सेन के लिखे हा के समान, इनके सभी साहित्य का प्राधार रखते हए कम्मर भाषा प्राभूतक, मीमांमक विद्याधर सामुद्रिक भवलय सम्पन्न । इन तरह वेवंड संस्कृत, प्राकृत में भूतबली प्राचार्य द्वारा लिखे हुए समान, मथवा नागार्जुन की गद्य में रचना की गई है। प्राचार्य द्वारा लिखे हुए कक्षपुट गरिणत के समान अंकों में गणित पद्धति से इस प्रकार कह कर अपने पौर अपनो विद्वत्ता के विषय में भी विवेचन गणना कर गुणन करके अंकों में लिखा है। 1 किया गया है। इस कारण लोक में उन्हें, समतावादी, सकलज्ञानकोविद रूप.
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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