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नवकार मंतर दोळादिय सिद्धांत । अवयव पूर्वेय प्रय।
साविर दोंदुवरे वर्षगळिच । श्री वीर देव निम्बद । बवतार दादिमद्' क्षरमङ्गल । नव प्रप्रमअप्रमअप्रत्र । पावन सिद्धांत चक्र श्वर रामि । केवलिगळ परंपरेयिम् ।। वशगोंड 'प्रादि मङ्गल प्राभृत' । रसद'प्र'अक्षरबदु तानु ।२-१३१।। हुविना युर्वेद दोळ महाव्रत मार्ग । काव्यवुसुखदायकवेन् । प्रष्ट कर्म गळम् निर्मूल माळप । शिष्टरोरेद पूर्वेकाव्य 1३-१५२। दाव्यक्तदभ्युदय वनयशरेयव । श्री व्यक्तबिंब सेबिसिद ।४।. तारुण्य होवि 'मङ्गल प्राभूत' दारदंददे नवनमन ।४.१३२॥
यह विश्व काव्य भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर प्राचार्य परम्परा परम मंगल प्राभूत दो अकंव। सरिगडि बरुव भावेगळम्।५-७६ द्वारा डेढ़ हजार वर्षों से बराबर चला आ रहा था ! उसी के आधारसे को गई कुमुवेश्य हदिलिपूर्ष श्री विध्यारह सूत्रांक |१०-१०.११ देन्दुको यह रचना विक्रम की नौवीं शताब्दी की मानने में कोई पापत्ति नहीं है। श्री गुरु 'भगल पाहुडदिम पेळ्छ। राग विराग साथ.१०-१०५
भूयलय के छंद रस वस्तु पाहुड मगलरूपद । असदृश वैभव भाषे ।१०-१६५।। कुमुदेन्दु प्राचार्य के समय में भारत में जो काव्य रचना होती थी उसमें
इस पाहुड ग्रन्थमें प्रागे भी कहा है। कि (१०-२१२) जिनेन्द्र वाणी के विभिन्न छन्दों का उपयोग किया जाता था। कुमुदेन्बुने, दक्षिण उत्तर श्रेणी की प्रामृत (१००-२३७) रसके मंगल प्राभृत मंगल पर्याय को पढ़कर (११-४३) मिलाकर अपने शिष्य अमोघ वर्ष के लिए अनेक उदाहरणों के साथ नयो और मंगल पाहुड (११-६२-६२) इत्यादि
पुरानी कानडी मिलाकर प्रौढ़ और मूर्खजनों के हित के लिए उक्त रचना की थी, तुसु वारिणय सेविसि गौतम ऋषियु । यशद भूवलयादि सिद्धांत ।
क्योंकि पूर्व समय में पुरानी कानड़ी का प्रचार उत्तर भारत के प्रायः सभी सुसत गळभरके काबेंच हन्नेरड्। ससमांगवतु तिरहस्तदा१४-५॥
स्थानों पर होता था, और दक्षिण में तो था ही। कुमुदेन्द आचार्य ने ग्रन्थ
रचना करते समय इस बात का ध्यान जरूर रक्खा था कि किसी को भी उससे इस प्रकार गौतम गणधर द्वाराही सबसे पहले यह भूवलय ग्रन्थ ५ भागों में द्वादशांग रूपसे रचना किया गया था और उसे 'मंगल पाहुड' के रूपमें उल्लेखित !
बाधा न पहुंचे । इसलिये सर्व भाषामय बनाने का प्रयत्ल किया है। अतएव
उभय कर्नाटक भाषाओं में ही सर्व भाषाओं के गर्भित करने का प्रयत्न किया भी किया था। इस कारण इस ग्रन्थ की रचना महावीर के निर्वाण से थोड़े समय ।
गया है। भूवलय के कानड़ी श्लोक के विषय में ग्रन्थकर्ता ने यह दर्शाया है बाद में ही हो गई थी। इस समय भगवान महावीर के निर्वाण समय को।
कि जनता के पाग्रह से उन्होंने कर्नाटक भाषा में रचने का प्रयत्न किया है और २४८४ वर्ष व्यतीत हो गए। महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष बाद विक्रम ।
उसे सुगम बनाने के लिये ताल चौर क्रम के साय सांगत्य छन्द में लिखा है संवत् शुरू हो जाता है । यद्यपि गौतम बुद्ध और भगवान महावीर समकालीन हैं, दोनों का उपदेश राजगृह में दा भिन्न स्थानों पर होता था, परन्तु वे अपने जीवन
1 तथा दलोक १२३-१२४ का उल्लेख किया है। में परस्पर मिले हों ऐमा एक भो प्रसंग परिजात नहीं है । और न उसका कोई
लिपियु कर्माटक वागलेवेकेंव । सुपवित्र दारिय तोरि। ... समुल्लेख ही मिलता है । परन्तु यह ठीक है कि महावीर का परिनिर्वाण
मपताळ लयमूडि 'दार साविर सूत्र' । दुपसवहार सूत्रबलि । गौतम बुद्ध से पूर्व हुपा था। इस चर्चा का प्रस्तुत विषय से काई विशेष सम्बन्ध वरद बागिसि अति सरल बनागि । गौतमरिद हरिसि । नहीं है, अतः यहां प्रकृत विषय में विचार किया जाता है-प्राचार्य कुमुदेन्दु ने सकिदरयत्नाल्कक्षरदिद । सारि श्लोक 'पारुलक्षगळोळ् ॥ भगवान महावीर के समय के सम्बन्ध में 'प्राणवायुपूर्व में निम्न प्रकार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने नस काब्य-ग्रन्धको ताल और लय से युक्त छह हजार सूत्रों उल्लेख किया है
तथा छह लाख श्लोकों में रचना की है ऐसा उन्होंने स्वयं उल्लेखित किया है।