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________________ सिरि भूषलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली बन जाती है ।अरहन्त अवस्था से जो सिद्ध दशा को प्राप्त होना है उसी का है। अर्थात् जिन विम्ब का दर्शन करने से सब तरह का सुख होता है ॥३४॥ नाम अवतार है। इस प्रकार से आत्मा जब सिद्धावस्था के अवतार को प्राप्त 1 उपर्युक्त सिद्धांक यानी सिद्ध दशा जो है वह अनुपम है इसकी बराबरी कर लेता है तो नवमांक के जो दो टुकड़े हैं वे स्वयं प्रापस में मिलकर शून्य करने वाली चोज दुनिया में कोई नहीं है ॥३॥ बन गये हों तादृश हो जाता है । जिम शून्य में सम्पुर्ण लोक समाविष्ट है ।२७४ काम देव को भी जिसने जीत लिया है ऐसा यह अङ्क है ॥३६॥ इस उपयुक्त दशा को प्राप्त हुआ आत्मा ही हरि, हर, जिन इत्यादि विवेचन-मब पागे जिस-जिस नाम पर जिन विम्ब होता है. उस सरस नामों से पुकारने योग्य बनता है क्योंकि इससे वह लोक के अग्रभाग में बात को बतलावेंगेमुक्ति साम्राज्य को प्राप्त कर लेता है ॥२८॥ यशस्वती देवो के पति और सुनन्दा देवी के पति श्री ऋषभदेव का जब जीव ने लोक पूरण समुद्घात किया था एवं लोक का मर्व स्वरूपबना । यश गाने बाला १ अङ्क है जो ऋषभदेव महर्षि हैं जिन्होंने सम्पूर्ण प्रजा को था तो तेरहवें गुण स्थान में मिथ्या स्थान में होनेवाला लब्ध्वपर्याप्त कर सजीवित रहने का उपाय बतलाया था श्री ऋषभनाथ के विम्ब दर्शन से निगोदिया जीव जो अदभव धारण करता है बहू जीव लोक का सर्व जघन्य । अमृत यानी मोक्ष की प्राप्ति होती है। रूप है और लोक पूरए समुद्घात दशा उसी का अन्तिम (उत्कृष्ट) रूप है। अजित नाथ भगवान का जो दूसरा अंक है वह भी असदृश्य है। जोकि तेरहवे गुण स्थान मय है। अब तक नवपद का जघन्य रूप तीन था। सम्भव नाथ भगवान का तीसरा अंक है जोकि दिव्यांक है। चौथा अंक जोकि साधु उपाध्याय योर आचार्य मय है वह नवमांक प्राद्यश है ।।२९॥ अभिनन्दन का, पांचवां सुमतिनाथ का, छठा पद्म प्रभ का, सातवां सुपार्श्वनाथ यह जीव सिद्धावस्था में न तो क्षुद्र भव ग्रहणकार रूप में रहता है। का, आठवां चन्द्र प्रभ का, नबवां पुष्पदन्त का, दसवां शीतलनाथ का, ग्यारहवां मोर न लोक पुरणाकार रूप में किन्तु किञ्चिदून चरम शरीर के आकार में श्रेयांसनाथ का, बारहवां वा मुपूज्य का, तेरहवां विमलनाथ का, चौदहवां अनन्त रहता है वही जिन बिम्ब का रूप है और बह जहां पर जाकर विराजमान होता नाथ का, पंद्रहां धर्मनाथ का. सोलहवां शान्ति नाथ का, सत्रहवां कुन्युनाथ है वह सिद्ध स्वान ही वस्तुतः जिनालय है। उसी बिद्धालय का प्रतीक यह का, अठारह बां मरनाथ का, उन्नीसवां मल्लिनाथ का, बीसवां मुनि सुव्रतका, हमारा अाजकल का जिनमन्दिर है और उम मन्दिर में विराजमान जो जिन | इक्कीसवां नमिनाथ का, बाईगवां नेमिनाथ का, तेईसवां पार्श्वनाथ का और विम्ब है वह सिद्ध स्वरूप है तथा वसा ही वस्तुतः हमारा यात्मा भी है ॥३०॥ चौबीसवां अंक धो बर्द्धमान भगवान का है। ये ऋषभादि वद्धमानांत मंक अति सिद्ध आदि नबपद की प्राप्ति एक जिनेश्वर भगवान विम्ब से। सो सब वर्तमान काल के अंक हैं जोकि चौबीस हैं। और भी चौबीस अंक ही होती है । अथवा समस्त मद्धम भी प्रसिद्ध होता है और सम्पूर्ण लोक इस विप हर काग्य में आने वाले हैं ।३७ से ५५ तक ।। का परिज्ञान होता है ॥३१॥ अब भूतकाल के चौबीस तीर्थंकरों का नाम बतलाते समय प्रतिलोम एक जिनेश्वर बिम्ब के दर्शन से सम्पूर्ण दिव्य ध्वनि का अर्थ प्राप्त क्रम में कहने पर चोदीमयां भगवान शान्ति हैं. तेइसवां अतिक्रान्त वाइसवा होता है ॥३२॥ धौभद्र इक्कीमा श्रीशुद्धमती, बोसयं ज्ञानमति, उन्नीसवां कृष्णमति, इस संसार में रस सिद्धि ही सम्पूर्ण सिद्ध रूप है और वही नवकार मन्त्र अठारहवां यशोधर, सत्रहवां विमल बाहन, मोलहवां परमेश्वर, पन्द्रहवां का अर्थ है तो भी परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो नवकार मन्त्र का अर्थ आत्म- उत्साह, तेरहवां शिवगए, बारहवां कुसुमाञ्जलि, ग्यारहवां सिन्ध, दसवां सिद्धि है और वह जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन से होती है ॥३३॥ सन्मति, नौवां प्रांगर, आठवां उद्धर, सातवां अमलप्रभ, छठवां सुदत, पांचवां यही विषय रूप विष का नाश करके सुख उत्पन्न करनेवाला नवमांक 1 श्रीघर, चौथा विमलप्रभ, तीसरा साघु, दूसरा सागर और पहिला निर्वाण इस
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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