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________________ सातवा अध्याय सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद जोव स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेने सबसे पहले आदिनाथ भगवान ने इस निलय को अपनाया था ॥१३॥ से पहले मारणांतिक रूप में अस नाली में नमन करते हैं। केवली भगवान के यह हर तथा शिव का भी मङ्गल वलय है ॥१४|| लोकपूरण समुद्घात का अवलम्दन पास इस समाली को ना सकते है ।।१॥ यह चित्र लिखने में नहीं आ सकता फिर भी सरल है ॥१॥ जिस समय के बली भगबान समुद्घात में स्थित होते हैं तब एक जीव यह निलय दया धर्म का फल सिद्धि रूप है ॥१६॥ के परमोत्कृष्ट विस्तृत प्रदेशों में प्रात्मरूप दिखाई देता है । एक जीव को अपेक्षा परिपूर्ण सुख को देनेवाला यादि वलय है ।॥१७॥ इससे अधिक विस्तृत जीव प्रदेश नहीं होते इसी को विराट रूप पुकारते हैं।। गुरु परम्परा का प्राशा बलय है ॥१८॥ "प्रदउ ल ए ऐ मो औ" इस स्वरों के उच्चारण समय में सम्पूर्ण भूवलय। धरसेन गुरु का भी ज्ञान निलय है ॥१४॥ का ज्ञान हो जाता है । इस बात का "3" अध्याय में उल्लेख न पाने पर भी परमात्म स्वरूप का निलय है ।।२०।। यहां लिखा है ॥२॥ पानेवाले काल का शान्ति निलय है ॥२॥ अभी तक प्रात्मा सिद्ध करने के लिए वाक् चातुर्य का प्रयोग करना पड़ता। सम्पूर्ण वस्तुओं को देखने वाला होने से बुद्ध कहलाने योग्य है ।।२२।। . था, पर अब वह वाक चातुर्य बन्द हो गया है । अब स्यावाद सेयात्मा को सिद्ध । यह मररण को न प्राप्त होने वाला शुद्ध जीव है ।।२३।। किया जाता है । यह मारमा प्रादि भी है और अनादि भी है ।।३।। इस परमात्मा से सिद्ध किया गया हुआ यह भूवलय है ॥२४॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों की सम्मिलित शक्ति को रत्नत्रय । विवेचन-लोक पूर्ण समुद्घात गत केवली भगवान के स्वरूप का वर्णन शक्ति या प्रात्म-पाक्ति कहते हैं। इन तीनों से उत्पन्न हए शब्द को लोकपुर्ण। यहां तक हुमा । अब आगे अरहन्त भगवान से लेकर सिद्ध भगवान तक का: समुद्घात के समय में नहीं लिखा जाता । कदाचित् लिखा भी जाय तो पढ़ वर्णन करेंगे ।।२४।। नहीं सकते। ऐसे सम्पत्ति शाली सिद्धस्य की प्रथम सिद्धि यह भवलय है ॥४॥ क्रोष मान माया और लोभ इस तरह चार कथायें अनन्तानुबन्धी ऐसे परिशुद्ध प्रात्मा के लिए यह भूवलय ग्रन्थ है ॥५॥ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप में परिणत होती अब तक सिद्ध होने से पहले तीर्थकर अवस्था थी अब वह नष्ट हो। है अतः कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं । इन सबके नष्ट होजाने के बाद यह गई॥६॥ मात्मा अपने ग्राम स्वरूप में लीन होकर आनन्द मय बन जाता है ।।२।। परहन्त ये तब तक सबके गुरु ये अव सद्गुरु बन गये |॥७॥ वह मानन्द रत्नत्रय का सम्मिलित रूप है। जोकि सर्व पोष्ठ, नूतहरि और विरंचि शरीरवों के द्वारा भी पाराधना करने योग्य सद्वलय । नान्तरङ्ग श्री निलय प है। प्रात्मा अपने प्रयत्न पूर्वक सद्धर्म रूप साम्राज्य है। का पाश्रय करते हुए इस रूप को प्राप्त कर पाता है। जब इस रूप को प्राप्त इस तरह से निरुपमहोकर भो उपमा के योग्य है क्योंकि यह त्रसना- कर लेता है और अपने प्रदेशों के प्रसारण की पराकाष्ठा को यह प्रात्मा प्राप्त ली के भीतर है और सिद्ध परमात्मा रूप होने वाला है ॥६-१०॥ होता है उसी प्राकार में नित्य रहनेवाला यह लोक भी है ।।२६ । प्रहन्त भगवान जिस अवस्था को प्राप्त करने के सम्मुख थे उस यह पराकाष्ठा को प्राप्त हुपा लोक का जो स्वरूप है वह अरहन्त अवस्था रूप यह भूवलय है।।११।। वाणी से निकले हुए नवमांक के समान परिपूर्णतावाला है। अब परहन्स . परमामृत रूप सिद्ध भगवान का यह प्रादि स्थान है ।।१२।। ६ दशा में यह परिपूर्ण अवस्था प्राप्त हो जाती है उसके अनन्तर यह पारमा सिद्ध
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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