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________________ ११३ सिरि मूवजय सर्वाण सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली रीति से चौबीस तीर्थंकर इस भरत क्षेत्र में हुए हैं तथा होते रहेंगे। अबतक और मागामी काल में समस्त कर्मों को नष्ट करके पाप भी उन तीर्थंकरों के भूत तथा वर्तमान भगवानों का कयन हुआ ऐसा कहने वाला यह भूदलय ग्रन्थ । समान निरजन बन जायें, इस बात को बताने के लिए भावी तीर्थकरों का है । ५६.७१ तक। निर्देश किया हुआ है। - अब तक मन्मथ को जीतकर अशरीरी होने वाले भूतकालीन भगवान ३४३ =8 तथा वर्तमान कालीन भगवानों का कथन हा। अब मन्मथ को जीतकर २४४३ = ७२ अशरीरी बननेवाले अागामी कालीन चौबोस तीर्थंकरों का कथन कर देने से ये तीन चौबीसी के मिलकर बहत्तर तीर्थकर हुये जो कि एक माला के नवमांक पूर्ण हो जाता है ! ७॥ मरिणयों के समान हैं। इनको यदि चौदह गुण स्थानों के अंकों से गुणा कर लिया पहिला महापद्म, दूसरा सूरदेव, तीसरा सुपाव, चौथा स्वयंप्रभ, जाय तो एक हजार पाठ हो जाते हैं, यही एक हजार आठ श्री भगवान के चरणों पांचवां सर्वात्मभूत, छठा देव पुत्र, सातवां उदक, आठवां श्रीकद, नवमां के नीचे आने वाले कमल के दल, होते हैं । इस १००८ को भी जोड़ दें तो नव प्रोष्ठिल, दशवां जयकीर्ति, ग्यारहवां मुनि सुद्रत, बारहवां अर, तेरहवां पुष्पदंत, हो जाता है । भगवान जब बिहार करते हैं और डग भरते हैं तो हरेक टम के चौदहवा निकषाय, पन्द्रहवा विपुल, सोलहवां निर्मल. सतरहवां चित्रगुप्त, १ नोचे २२५ कमल होते हैं उन दो सौ पच्चीस कमलों के पत्तों को मिलाकर कुल अठारहवां समाधिगुप्त, उन्नीसवां स्वयम्भू, बोसवां अनिवृत, इक्कीसवां विजय १२२५४१००८-२२६८०० पत्ते हो जाते हैं । ६.६ से १०० तक। बाईसवां विमल, तेईसवां देवपाल, चौबीसवां अनन्त बीयं, ये भविष्यत काल में उपयुक्त दो लास छब्बीस हजार पाठ सौ दल भगवान के प्रत्येक ही होने वाले चौबीस तीर्थकर हैं। ७३ से ५६ तक। चरण के नीचे होते हैं जो कि दूसरा चरण रखने के क्षरा तक सब घूम जावे ... ये सब तीर्थ धर कुसुम वाण कामदेव का नाश करने वाले होते हैं ।७।।हैं। जब भगवान दूसरा रखते हैं उसके नीचे भी इतने ही कमल और इतने पत्ते उपयुक्त तीन काल के तोर्यकरों को मिलाकर वहत्तर संख्या होती है।होते हैं अतः उन दोनों को परस्पर गुरणा करने पर लब्धांक ५१४३८२४०००० जिसको कि जोड़ने पर (७+२=8) नव बन जाता है ।।६०11 माये इन सब को परस्पर जोड़ देने पर भी नव हो पाता है । इस प्रकार गुणाजिस काल में तोयंकर विद्यमान रहते हैं उसको महापवित्र काल कार करते चले जावें उतना हो अतिशय भगवान का उत्तरोत्तर बढ़ता चला समझना चाहिए । उन तीर्थङ्करों का यशोगान करनेवाला यह भूवलय काव्य है। जाता है तथा उनके भक्त भव्य पुरुषों का पुण्य भी बढ़ता जाता है। इसलिए . नवमांक मणित पद्धति से उपलब्ध होने के कारण इस काव्य को भी भव्य जीयो ! इस भूवलय की पद्धति के अनुसार भगवान के चरण कमली नवमांक कहते हैं। 1 को गुणा करते हुये तुम लोग गणित शास्त्र में प्रवीण हो जाबो । नव का अंक विषमांक है जो कि तीन को परस्पर मुणा करने पर जिस प्रकार रसमणि के सम्पर्क से हरेक चौज पवित्र बन जाती है उसी आता है। तीन का अंक भी विषमाकं है जो कि तीनों कालों का द्योतक है एवं प्रकार इस गरिगत पद्धति का जान हो जाने से यह जीव भी परमपावन सिद्ध रूप विषमांक से उत्पन्न होने के कारण इस भूवलय काव्य को विषमांक काव्य भी हो जाता है ।।१०१॥ कहते हैं ।।६१-६५।। यह गणित शास्त्र जीवों की सम्पूर्ण प्राशायों को पूर्ण करने वाला प्रत्येक प्राणी को अपने पूर्वोपाजित कर्मों का ज्ञान कराने के लिए भूत- है ॥१२॥ काल चौबीसी बतलाई गई है तथा उन कर्मों को किस उद्योग से नष्ट करता यह गणित शास्त्र दुष्ट कर्मों को महाराशि को नष्ट करने वाला है, यह बतलाने के लिए वर्तमान तीर्थंकरों का नाम निर्देश किया गया है। है॥१०३।।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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