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सिरि भूजलय
सवार्य सिद्धि संघ बैंगलोर-बिल्ली यह है कि इह सोस्य विषम है तथा परलोक का सौख्य सम है। इन दोनों को किसी मनुष्य को सर्प काटता है तो वह मुरदे के समान प्रनेत दीखता है यदि समान रूप से बतलाने वाला यह भूबलय शास्त्र है।६६।
। उसे सर्प-विषनाशक औषधि दी जावे तो वह तत्काल सचेत हो जाता है। पादरस र ५४ 'ह' ६० म ४२ इन तीनों को मिलाने से -
1 में रहने वाले दोष नष्ट हो जाने पर पादरस में अमृत के समान शक्ति उत्पन्न ५४४६०४५२%: १६६ । हो जाती है। इसी तरह विपरीत मान्यता से जो देव में छोटा या बड़ा माव
रखता था वह अपनी विपरीत भावना (मिथ्या श्रद्धा) निकल जाने पर स्वस्थ शुद्ध पात्मा बन जाता है॥७६11
विवेचन-इस संसार में शुद्धात्मा को न जानकर यह मेरा देव है यह एक मिलाने से १७१
मेरा ब्रह्मा है । इस संसार में एक ब्रह्म ही है दूसरा कोई नहीं है। इसलिए तीनों मिलाने से ह नौ पाता है।।
हमारा धर्म मदत धर्म है। इत्यादि तरह से एकान्त पक्ष लेकर लोग सत्य का १७० एक षट् खण्ड प्रामम मिलाने से ण ४२ औरह = ६० निर्णय नहीं करते, वे पन्धकार में स्वयं भटकते हैं और दूसरों को भी भटकाते १ मिलाने से १७० षट खंड आगम मिलाने से १७६+४२+६०= २७८+ १ = २७६ २+७= &t+१८ = उपयुक्त लिपि हुई।
जब एक शव शिव को जगत में बड़ा मानता है तब वैष्णव अपने विष्णु इस प्रकार महान महान विषयों का सुलभ गति से इस के द्वारा अनुभव को बड़ा मानकर विष्णु के माथ लक्ष्मी को भी मानकर द्वैत रूप में अपने धर्म होता है ।। ६७ से ७२ ।।
का प्रचार करता है। इस तरह दोनों देवों के भक्तों में परस्पर विरोष फैम यह भूवलय ग्रन्थ इस लोक में मोक्ष के सम्पूर्ण विषय को बतलाता है। जाता है। इस विरोध के निराकरण के लिए कुमुदेन्दु आचार्य ने उपर्युक्त दो परलोक में अहमिन्द्र पद को प्राप्त कराकर अन्त में मोक्ष प्रदान करता । श्लोक लिखे हैं।
श्लोक लिखे हैं। है ।७३-७४।
प्रागे भाचार्य श्री दोनों धर्मों का समन्वय करने के लिए श्लोक इस भूवलय को भगवान महावीर ने सिद्ध करके अन्त में मोक्ष फल 1 कहते हैं:प्राप्त किया ऐसी महिमा. बतलाने वाले यह त्रय रत्न बलव यानी-रत्नत्रय
रत्नत्रय धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित स्पी घलय है ७६।
इन तीनों में यादि का सम्यक् दर्शन प्रदंत धर्म माना जाता है । परन्तु यह क्षुधा तृषादि १८ दोष जिनकी पात्मा में प्रचुर मौजूद है उनको यह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र बिना पूर्ण नहीं होता। देव बड़ा है और यह देव छोटा है। इस तरह उनको देवों में अनेक मेद दीखते
तीर्थकर जगज्येष्ठा यद्यपि मोक्षगामिनः । हैं। किन्तु जिनके हृदय में १८ दोप नष्ट करने की तीन इच्छा है उनके मन में
तथापि पालितं चंय चारित्रं मोक्षहेतवे ।। 'रत्नत्रय रूप प्रात्म धर्म ही स्वधर्म है' ऐसी धारणा होती है ।७७
जगत में श्रेष्ठ जन्म से ही मति, थुन, अवधि ज्ञान के बारक तद्भब मोक्षजिन्होंने विपरीत धारणा से संसार को ही अपना घर मान लिया है। गामी तोयंकर भी मोक्ष प्राप्ति के लिए चारित्र को प्राचरण कहते हैं तभी उनको स्वग्रात्म-धर्म में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है जब उनका ज्ञाना
। में अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है जब उनका ज्ञाना-1 उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है। वरस कर्म नष्ट होता है तब उन्हें अन्तकाल तक सुख देने वाले मोक्ष की । इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ सम्यकचारित्र धारण करने की अत्यात प्राप्ति होती है।
मावश्यकता है।