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सिरिमूवलय
सर्वार्थ सिदिसंभ वंगलोर-दिल्ली
ब्रह्म को प्रत धर्म कहने बाले की मान्यता को सुनकर द्वैतवादी एक साथ रखकर घुमाते हुये चले जाने वाला उनके बीच में धुरा होता है। उसी वैष्णवों को खेद हुआ अतः वे बोले कि ब्रह्म अत धर्म ठीक नहीं है हमारा प्रकार द्वैत और भवंत इन दोनों को टकराने न देकर एक साथ रखने वाला विष्णु धर्म हो (वंत धर्म हो) श्रेष्ठ है क्योंकि विष्णु के साथ लक्ष्मीः रहेती और दोनों को सफल बनाने वाला घुरे के समान यह अनेकान्त धर्म है ॥१०॥ है। इस प्रकार दोनों धर्मों में स्पर्धा होने लगी। तब श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने अद्वैत दंत और अनेकान्त ये तीनों रत्नत्रय रूप महान धर्म हैं और कहा कि माई ! विवाद मत करो आप यथार्य बात सोचो अद्वैत भी श्रेष्ठ ग्रहन्त भगवान के हार के प्रमुख रत्न हैं। इस रत्नत्रय हार की मम धन है और द्वैत भी क्योंकि 'न त अव तं इस प्रकार कहने में दो का निषेध काय, कृत कारित अनुमोदना रूप ३४३% परिपूर्ण अंक रूप कड़ियां हैं। इन करके एक होता है प्रर्यात् दो के बिना एक नहीं होता।
परिपूर्ण अंकों में ३६३ मतों का समावेश हो जाता है विचार कर देखें तो पद्धत शब्द का पर्व ब्रह्म न होकर एक होता है। उसो परिपूर्ण अंक के ऊपर एक १ का अंक मिलाने से एक सहित १ तथा द्वैत शब्द का अर्थ विष्ण और लक्ष्मी न होकरः दो होता है। एवं . इन मून्य (१०) आता है । उससे ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति हुई है। उस ब्राह्मी लिपि दोनों को मिला कर तीन का अंक जो बनता है वह मनेकान्त स्वरूप हो जाता को देव नागरी लिपि कहते है तथा उसी को ऋग्वेदांक भी कहते हैं। है। तात्पर्य यह है कि कथंचित् एक, और कथंचित दो ठीक होता है, प्रतएव ! एक से लेकर नौ तक अंकों द्वारा द्वादशांग को उत्पत्ति होती है उस दोनों का समावेश रूप रत्नत्रय धर्म अनेकान्त धर्म ही सर्ममेष्ठ धर्म है और सोअंक में एक और मिलाने से उस १० दश अंक से ऋग्वेद को उत्पत्ति होती है।
को जैन धर्म कहते हैं । कर्मारातीन जयतीति मिनः जो सम्पूर्ण कर्मों को नीतनेइसी को पूर्वानुपूर्वी, पश्चात् अनुपूर्वी कहते हैं। द्वादशांग रूप वृक्ष की शाखाप - वाला हो उसको जिन कहते हैं और उस जिन भगवान का जो धर्म-पाचरण है, ऋग्वेद है। इसलिए इस वेद का प्रचलित नाम ऋक शाखा है ॥२॥ वह जैन धर्म है, ऐसा सुन्दर अर्थ होता है। यही प्राणीमात्र का धर्म सार्व- ऋग्वेद तीन प्रकार का है मानव ऋग्वेद, देव ऋग्वेद तथा दनुज
(दानव राक्षस) ऋग्वेद । इन वेदों द्वारा पशुओं को रक्षा, गो-ब्राह्मण की रक्षा कर्मों को अपने अन्दर बनाये रखना न तोल वादियों को इष्ट है और तथा जैन धर्म को समानता सिद्धि हो, ऐसा कुमुदेन्दु आचार्य प्राशीर्वाद देते न भन्दै सवादियों को इष्ट है। इसलिए जैन धर्म होः सर्वश्रेष्ठ धर्म है, यह सबको है ॥३॥ - 'मानना पड़ेगा।
विवेचन–प्रचलित ऋग्वेद का प्रारम्भ 'अग्निमीले पुरोहितम्' से होता जैन धर्म रलत्रयात्मक है रलत्रय में सम्यादर्शन पहले है जो कि एक होता है परन्तु भूवलय में ऋग्वेद का प्रारम्भ 'ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य होने से प्रदत हैं और उसके अनन्तर ज्ञान तथा चारित है जो द्वैत रूप हैं । इस धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' से है। 'अग्निमीले पुरोहितम्' भी बाद में मा
पर अद्वैतवादी कह सकता है कि पहले पाने की वजह से हमारा धर्म : प्रधान है । जाता है । अब तक वैदिक लोग जैनों को वेद न मानने के कारण वेद-ग्रह .. परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि यहां पर जिस प्रकार पूर्वानुपूर्वी क्रम लिया जाता है । कहते थे । भूवलय के अतिरिक्त अन्य जन ग्रन्थों ने वेदों में हिंसा का विधान नवसे ही पश्चादानुपूर्वी क्रम भी लिया जाता है। पूर्वानुमूर्ती में सम्यग्दर्शन रूप होने से उस को अमान्य मानकर छोड़ दिया है। किन्तु मुबलय में उपलब्ध
अदत धर्म पहले आ जाता है तो पश्चादानुपूर्वी में करिव और ज्ञान रूप द्वैत । ऋग्वेद में हिंसा विधान, मद्यपान, चूत क्रीडा, दुराचार आदि नहीं है। यह . धर्म पहले आ जाता है । इस युक्ति को लेकर सब का समन्वय करके एक साथ दुराचार दानवीय ऋग्वेद में है, मानवीय तथा देवोय ऋग्वेद नहीं है । जैन ग्रन्यों रखने वाला अनेकान्त पर्म है।
में हिमा का विशद विस्तृत वर्णन है उसके विपरीत हिंसा के त्याग रूप हिंसा जैसे कि एक गाड़ी को बहन करने वाले दो चक्के होते हैं उन दोनों को । का वर्णन है क्योंकि हिंसा का विवरण बताने पर ही अहिंसा का विधान होता