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सिरि भुक्षय
हैं। दानवीय ऋग्वेद में मानवीय ऋग्वेद के हिंसा के विवरण के ही विधेय रूप से फर्शन किया है, अहिंसा का विधान छोड़ दिया है।
मानवीय ऋग्वेद के लुप्त हो जाने से दानवीय ऋग्वेद ही प्रचार में प्राता रहा, जैसे कि द्वादशांग वाली विलुप्त हुई। मानवीय ऋग्वेद के लुप्त हो जाने पर मनुष्यों ने दानवीय वेद को अपना लिया। इस कारण पशु हिंसा आदि क्रियाएं वेद का आधार लेकर चल पड़ीं। इस वैदिक हिंसा को रोकने के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा का प्रचार किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी वैदिक हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई। जब भूवलय में ऋग्वेद का समावेश उपलब्ध हुआ तब से स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी प्रार्य समाज की वारणा जैन धर्म या जैन समाज के प्रति बदल गई है।
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तदनुसार आर्य मार्तण्ड, सार्वदेशिक पत्रिका यदि अपने मासिक पत्रों में आर्य समाजी विद्वानों ने भूवलय ग्रन्थ की प्रशंसात्मक लेखमालाएं प्रकाशित की हैं । उन लेख-मालाओं के आधार से कल्याण, विश्वमित्र, P.E. N तथा श्रागंनाईजर यादि विख्यात पत्रों ने भी भूवलय ग्रन्थ का महत्व विश्व में फैला दिया है। बेंगलोर आर्य समाज के प्रमुख श्री भास्कर पंत ने अजमेर के प्रसिद्ध भार्य समाजी विद्वान डा० सूर्यदेव जी शर्मा एम० ए० तथा विश्वविख्यात विद्वान् स्वा० ध्रुवानन्द जी को तथा अन्य चार्य विद्वानों को ग्रामंत्रित करके सर्वार्थसिद्धि बेंगलोर में लाने का प्रयास किया। उन विद्वानों ने बेंगलोर में भूवलय ग्रन्थ का अवलोकन करके हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की तथा श्री डा० सूर्यदेव जी ने भूवलय की महिमा में निम्नलिखित श्लोक निर्माण किया
अनादिनिधाना वाक्, दिव्यमीश्वरीयंवचः । ऋग्वेदोहि भूवलयः दिव्यज्ञानमयो हि सः ।।
अर्थ भूवलय ग्रन्थ अनादि अनन्त वाणी स्वरूप है, दिव्य ईश्वरीय वचन
है, दिव्य ज्ञानमय है और ॠग्वेद रूप है ।
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य आशीर्वाद देते हैं कि इतिहास काल से पूर्व का प्रचलित वेद का ज्ञान प्रसार भविष्य में भी हो ॥६४॥
श्री जिनेन्द्र वर्द्धमानांक यत्र तत्रानुपूर्वी के क्रम से नवम है ॥ ८५ ॥ यह नवमी कही जाने वाली लिपि ही अक्षांश में है ॥८६॥
सर्वार्थ सिद्धि बंगलौर-दिल्ली
विदी से प्रारम्भ होकर बिंदी के साथ ही अंत होने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ||८||
इसकी उत्पत्ति इस तरह है
९ अंक शून्य से निष्पन्न हुआ है और वह शून्य भगवान के सर्वाग से प्रगट हुआ है। जिस प्रकार हम लोग वार्तालाप करते समय अपना मुख खोलकर बातचीत करते हैं उस प्रकार भगवान अपना मुख खोलकर नहीं करते । भगवद्गीता में भी कहा गया है कि:
सर्वद्वारेषु कौन्तेय प्रकाश उपजायते !
इसी प्रकार उपनिषद् में भी 'मौन व्याख्या प्रकटित परब्रह्म' इत्यादि रूप से कहते हैं । मोन व्याख्या का अर्थ भगवान के सर्वांग से ध्वनि निकलना है। अभी तक इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सका था, किन्तु जबसे सुवलय सिद्धांत शास्त्र उपलब्ध हुआ तब से यह आधुनिक विचारज्ञों के लिये नूतन विषय दृष्टिगोचर हुआ । ऋषभनाथ भगवान् ने अपनी कनिष्ठ कन्या सुन्दरी देवी की हथेली पर प्रमृतांगुली के मूल भाग से वायों योर एक बिन्दी लिखी। तत्पश्चात् उस बिन्दी को श्रर्द्धच्छेद शलाका से दो टुकड़ों में बनाया। उन्हीं दोनों टुकड़ों के द्वारा अंकशास्त्र की पद्धति के अनुसार घुमाते हुये ६ अंक बनाये, जो कि अन्यत्र चित्र में दिया गया है । किन्तु अंक में रहने वाले दोनों टुकड़ों को यदि परस्पर में मिला दिया जाय तो पुनः बिन्दी बन जाती है ।
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यही बिन्दी श्री ऋषभदेव भगवान के बन्द मुँह से हूं इस ध्वनि के रूप में निकली जोकि भूवलय के ६४ प्रक्षरांकों में से इकसठवां अकाक्षर है । यानी (०) अनुस्वार है न कि ५२ व अक्षरांक (म) है।
है
अब उस बिन्दों (०) को ठोक मध्य भाग से तोड़कर दो टुकड़े करने से उसके ऊपर का भाग कानड़ी भाषा का १ अंक बन जाता है, जोकि संस्कृतादिक द्राविडेतर भाषाओं में नहीं बनता । भगवान के सर्वांग से जो ध्वनि निकलो वह भी उपर्युक्त बिन्दी के रूप में हो प्रगट हुई। इसलिए उसका लिपि आकार भी "" ऐसा प्रचलित हुआ। इस प्रकार लिपि के आकार का मर ध्वनि निकलने के स्थान का परस्पर में सम्बन्ध होने से इसी बिन्दी का दूसरा
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