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सिरि मलय
सर्वार्थ सिद्धि संभ बैंगलोर-दिल्ली
नाम "गौड़” नाम पद है। इसी बिन्दी को कानड़ी भाषा में सोन्ने, प्राकृत में है ऐसा हम पहले भी अनेक स्थानों पर बता चुके हैं। यह भूवलय आदि में और - शून्य तथा हिन्दी भाषा में बिन्दी इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं ।
अन्त में एकसा है | १२
मनु और मुनि इत्यादि महात्माओं के ध्यान करने योग्य यह भूवलय - ध्यानाक है |३|
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शून्य का अर्थ प्रभाव होता है और उस शून्य को काटकर ही कानडी भाषा के १ और २ बने । इन दोनों को मिलाकर ३ हुए और ३ को परस्पर में गुणा करने से होते हैं, जोकि सद्भाव को सूचित करते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रभाव और सद्भाव कथंचित् प्रभिन्न धीर कथंचित् भित है। एवं भिन्नाभिन्न हो स्याद्वाद का मूल सिद्धान्त है। यहां तक ८७ श्लोक का अर्थ समाप्त हुआ।
कामदेव व यशोगान करने वाला है उस ऋग्वेद को देव, मानव और दानव तीनों ही गाते रहते हैं परन्तु उनमें परस्पर में कुछ विशेषता होती है । मनुज और देव ये दोनों तो सौम्य प्रकृति हैं इसलिए गो, पशु और ब्राह्मण इन तीनों को रक्षा करने वाले तथा शुभाशीर्वाद देने वाले हैं एवं जैन धर्म की प्रभावना करने वाले हैं। किन्तु दानव क्रूरकृति वाले होते हैं इसलिए उसी ऋगवेद को क्रूरता के रूप से उपयोग में लाने वाले एवं हिंसा का प्रचार करने वाले हैं। अब यह भूवलय अङ्क उन तीनों के परस्पर विरोध को मिटाकर उन्हें एकता के साम्राज्य में स्थापित करने वाला है तथा उपर्युक्त श्रद्धंत, हंस और अनेकान्त तोनों में भी परस्पर प्रेम बढ़ाकर समन्वय करने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है |
यद्यपि ये तीनों धर्म परस्पर में कुछ विरोध रखने वाले हैं । फिर भी इन तीनों को यहां रहना है अतएव यह भूवलय ग्रन्थ उन तीनों को नियन्त्रित करके निराकुल करने वाला है ॥६.०१
यह भूवलल ग्रन्थ हम लोगों को बतलाता है कि सम्पूर्ण प्राणी मात्र के लिए समान रूप से एक ही धर्म का उपदेश देने वाला ऋग्वेदा है । ६१ ।
यह भूवलय ग्रन्थ आदि में भी और अन्त में भी परिपूर्णाङ्क वाला है । सो बताते हैं - यह भूवलय ग्रत्य - विन्दु से प्रारम्भ होता है अतएव आदि के बिन्दु है उस बिन्दु को काटकर कानड़ो लिपि के १-२-३ आदि नौ तक के प्रक" बनते हैं । अन्त में जो तो का श्रद्ध है वह भी बिन्दु के दोनों टुकड़ों से बनता है ।
यह भूवलय ग्रन्थ-स्वप्न में भी सब लोगों को सुख देने वाला हैश्रतएव शुभाङ्क है |२४|
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सभी मन्मयों का यह श्राद्यन्त अंक है |२५|
जिनरूपता को सिद्ध कर दिखलाने वाला यह अंक है |१६|
जिस प्रकार चन्द्रमा के प्रकाश में आदि से लेकर अन्त तक कोई भी अन्तर नहीं पड़ता उसी प्रकार इस भूवलय में भी ग्रादि से अन्त तक कोई अन्तर नहीं है | ७|
इस भूवलय की भाषा कर्मा (र्णा) टक है जोकि ऋद्धि रूप है और अपने गर्भ में सभी भाषाओं को लिए हुए है | ६८
शरीर को पवित्र और पाचन बनाने वाला यह अंक है अर्थात् महाव्रतों को धारण करने की प्रेरणा देने वाला है । ६६
आदि से अन्त तक यह भूवलय ब्राह्मी (लिपि) अंक है ॥१००॥
अद्वैत का प्रतिपादन करने वाला एक का अंक पूर्वानुपूर्वी में जिस प्रकार प्रारम्भ में आता है उसी प्रकार पश्चादानुपूर्वी में नौ के समान सबसे अन्त में आता है, इस बात को बताने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है । १०१।
अद्वैत का श्रयं सम्यग्दर्शन है, क्योंकि सम्यग्दर्शन हो जाने पर यह जीव अपनी आत्मा के समान इतर समस्त आत्माओं को भी इस शरीर से भिन्न ज्ञानमय एक समान जानने लगता है। द्वैत का प्रयं सम्यग्ज्ञान है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण आत्माओं की या इतर समस्त पदार्थों की विशेषताओं को ग्रहण करते हुए आपापर का भेद व्यक्त हो जाता है। इसी प्रकार अनेकान्त का अर्थ सम्यक् चारित्र लेना चाहिए; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान इन दोनों को एकता रूप करते हुए स्थिरतामय हो जाता है । यब पूर्वानुपूर्वी क्रम में सम्यग्दर्शन प्रथम श्राने से प्रधान है, तो पश्चादानुपूर्वी क्रम में सम्यक्चारित्र प्रधान बन जाता है । इसी प्रकार यत्रतत्रानुपूर्वी क्रम में सम्यग्ज्ञान मुख्य ठहरता