________________
२८
सिरि भूषलव
चारिणी हैं। ऐसे पवित्रात्माओं से ही यदि काम कला निकले तो वह लोकोपकारी हो और प्रायुर्वेद विद्या शारीरिक स्वास्थ्य दायिनी बने। इस आयुर्वेद और कामुक दोनों का परस्पर में अभिन्न संबंध है । और ये दोनों ही अनादि भगवदवाणी से निकली हुई हैं । अर्थान् पवित्र और अपवित्र ये दोनों कलायें भगवदवाणी से निकलती है. अन्यथा भगवदवासी अपूर्ण हो जाती है। कुमुदेन्दु श्राचार्य ने कहा है कि पवित्रता तथा पवित्रता पदार्थ में नहीं, बल्कि वीतराग अथवा सराग रहने वाले जीवों में है । इसलिए इसे ४ पवित्रात्माओं की चर्चा करनी चाहिये । इसके लिए एक कथा भी है, सो देखिये ।
भगवज्जिन सेनाचार्य श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य के सहाध्यायी थे। बे सकल जैन समाज में मान्य दिगम्बर जैन मुनि थे, यह इतिहास देखने : से ज्ञात होता है। कि जब जिनसेन पवित्रकुल में पैदा हुये तब उस घर में एक वे ही लड़के थे। उनकी उम्र ४ वर्ष की थी जिससे कि वे घर - में बालक्रीडा किया करते थे । एक दिन आचार्य कुमुदेन्दु के गुरु श्री नीरसेनाचार्य [घवल और जय धवल ग्रंथ के कर्ता ] श्राहार के लिये इसी घर में आ पहुंचे। आप आहार के पश्चात् तेजस्वी बालक को शुभ लक्षणों सहित समझकर उसके माता-पिता से कहने लगे कि इस बच्चे को संघ में सौंप दो वह होनहार बालक प्रपने माँ-बाप का इकलौता लाड़ला था, अतः उन लोगों की इच्छा न होने पर भी गुरु वचनमनुल्लंघनीयम् अर्थात् गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए इस नियम से तथा आचार्य वीरसेन की आज्ञा को चक्रवर्ती राजे महाराजे आदि सभी सहर्ष शिरोधार्य करते थे। अतः उनकी आज्ञा अप्रतिहत प्रवाहरूप चलती थी। इसलिये उन्हें सौंपना ही पड़ा । बालक कच्छेद, उपनयन तथा चूडाकर्म संस्कार से रहित था । यथा जात रूप [ दिगम्बर रूप था। उनका चूडा कर्म ही केशलुचन रूप प्रतिभासित होता था । इसी रूप में साधक ८ वर्ष के पश्चात् केशलुव करके यथाविधि दिगम्बर दीक्षा धारण की इसलिये वे प्रागर्म दिगम्बर मुनि कहलाते हैं। ऐसे दिगम्बर मुनियों का शुभ समागम प्राप्त होना
सर्वार्थ सिद्धि संच बेंगलोर - दिल्ल
प्राजकल परम दुर्लभ है ।
जिनसेन श्राचार्य के नाम से चार आचार्य हुये हैं । उनमें से हमारे कथानायक जिनसेनाचार्य पहले वाले कुमुदेन्दु प्राचार्य के सहपाठी थे । इसी प्रकार वीर सेनाचार्य भी प्राजकल मिलने वाले धवल तथा जयधवल टीका के कर्ता वीरसेन नहीं बल्कि इससे पहले के पश्चात्मक धवल टीका के जो कर्ता थे वे ही कुमुदेन्दु आचार्य के गुरु थे । घाजकल पद्यात्मक बबल टीका उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार कल्याण कारक ग्रंथकर्ता उग्रादित्याचार्य भी राष्ट्रकूट प्रमोध वर्ष नृप के समय वाला नहीं है। क्योंकि कल्याण कारक में जितने भी श्लोक हैं वे सभी भूवलय में आते हैं, इसलिये उस काल के उम्रादित्याचार्य नहीं हैं । उग्रादित्याचार्य श्री कुमुवेन्दु भाचार्य के समय में थे, ऐसा कतिपय विद्वानों का मत हैं यद्यपि यहाँ इस समय इस विषय की आवश्यकता नहीं थी, तथापि इसका कुछ घोड़ा विवेचन यहाँ किया गया है।
पहले गोम्मट देव अर्थात् बाहुबली काम कला तथा आयुर्वेद पढ़ते थे वैसे ही इस काल में भी आचार्य कुमुदेन्दु के शिष्य शिवकुमार, उनकी पत्नी जक्की लक्को प्रब्वे तथा कुमुदेन्दु वीरसेन, और उग्रादित्याचार्य आदि मेधावी आचार्य उस समय मौजूद थे । इसलिये वन्य है वह काल । ऐसे दिगम्बर मुनि साक्षात् भगवान् का रूप धारण करके संपूर्ण भारत में जैन धर्म का डंका चारों मोर बजाया करते थे । वह महोन्नति काल जैन धर्म के लिये या । कर्णाटक के एक राजा ने सारे भरत खंड को जीत कर उसे अपने अधीन कर हिमवान् पर्वत के ऊपर अपने झंडे को फहराया था । इतिहास में कमटक देश का राजा पहले शिवमार ही था । जिनसेनाचार्य :
जिनसेन दिगम्बर जैनाचार्य होकर राजस्थान में भी बिहार करके वहां उपदेश दिया करते थे । वीतरागी जिनमुद्राधारी भगवान स्वरूप जिनसेनाचार्य कहलाते थे। ऐसे जिनसेनाचार्य अपने एक काव्य में