________________
२२०
सिरि भूषजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली
से उलटी है। जहां कहां से क्रम प्रारम्भ करके मागे बढ़ना यत्रतत्रानुपूर्वी है ठीक भी है । जो विषय स्वयं समझ में न पावे वह गलत मालूम होना स्वाजसे ४,१,३,२ यादि ।
भाविक ही होता है । केवल एक ही भाषा में शुद्ध रूप से यदि वाक्य रचना माधुनिक गणित पद्धति केवल पश्चादानुपूर्वी से प्रचलित है । अत: वह करली जाय तो भी उस भाषा में रहनेवाले श्री वर्धमान जिनेन्द्र देव के केवल अधूरा है, यदि तोनों भानुपूर्तियों को लेकर बह प्रवृत्त होता तो पूर्ण बन जाता। ज्ञान में भलकनेवाली समस्त भाषानों को एक साथ शुद्ध वाक्य रचना करनेवाले श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भूवलय सिद्धान्य में तोनों पानुपवियों को अपनाया है। जीव इस काल में नहीं है। और इस अवसपिणी काल में आगे भी नहीं होंगे, इसी कारण उन्होंने भूवलय द्वारा संसार के समस्त विषय और समस्त भाषामों। ऐसा प्रतीत होता है ।। को उसमें गर्भित कर दिया है ।
भगवान महावीर के दिव्य वाणी में इस प्रकार मलको हुई दिव्यध्वनि पूर्वानुपूर्वी पद्धति से भूवलय में जैन सिद्धान्त प्रगट होता है, पश्चा-१ को चौथे मनः पर्ययज्ञानधारी ऋग्वेदादिचतुर्वेद पारङ्गत ब्रह्मज्ञान के सोमातीत दानुपूर्वी से भूवलय में जनेतर मान्यता वाले ग्रन्थ प्रगट होते हैं। यत्रतत्रानुपूर्वी पदों में विराजित बाह्मणोत्तमों ने अवधारण करके भूवलय नामक अंगज्ञान को से भूवलय में अनेक विभिन्न विषय प्रगट होते हैं।
ग्रन्थों में गुथित किया । अर्थात् सर्वभाषामपी, सर्वविषयमयी तथा सर्व कलाकिसी भी विषयका विवेचन करने के लिए प्रथम ही अक्षर पद्धति का। मयी इन तीनों रहस्यमयी विद्याओं को भेद विज्ञान रूप महान गुणों से युक्त प्राश्रय लिया जाता है किन्तु अक्षर पद्धति से विशाल विवरण पूर्ण तरह से होकर सिद्धान्त ग्रन्थों में गुचित कर दिया । उसका विस्तार रूप कंचन प्रगट नहीं हो पाता, तब अंक पद्धति का सहारा लेना पड़ता है। मंकों द्वारा ही यह भूवलय सिद्धान्त अन्य है । अक्षरों की अपेक्षा बहुत अधिक विषय प्रगट किया जा सकता है। परन्तु जब विवेचन:-श्री भगवद्गीता में अनादि कालीन समस्त भगवद्वाणी को
और भी अधिक विशाल विषय को अंक बललाने में असमर्थ हो जाते हैं तब मिला देने की असाधारण शक्ति विद्यमान है। गौतमऋषि वैदिक सम्प्रदाय के रेखा पद्धति का आश्रय लेना पड़ता है।
प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण वृषभसेन गणधर से लेकर अपने समय तक भूवलय में तीनों पद्धतियों को अपनाया गया है इसी कारण भूवलय । समस्त भमवद्वाणी रूप पुरुगीता, नेमिगीता, कृष्णगीता (भगवद्गीता) और द्वारा समस्त विषय प्रगट हो जाता है।
1 महावीर गीता इन चार गीतामों की रचना की थी और भविष्य वाणी रूपो महान मेधावी विद्वान रेखा-पद्धति से विषय विवेचन कर सकते हैं। आचार्य श्री कुमुदेन्दु की गीता का भी वर्णन संक्षेप रूप से किया था। उसके उससे कम बुद्धिमान विद्वान अंकों द्वारा विवेचन करते हैं । उसमे भी कम प्रति- उदाहरण को इसी अध्याय के कानड़ी मूल श्लोकों के अन्तिम अक्षर से देख भाशाली विद्वान अक्षरों के द्वारा ही विषय विवेचन कर सकते हैं। इसी क्रम सकते हैं । ऋषभमेन गाधर ने भी इसी क्रम से अतीतकालीन समस्त भगवद् से वर्गों से भी केवल ज्ञान के समस्त विषयों के ज्ञाता महात्मा थे। वह अवधि । वाणी की रचना को थी और उसी वाणो को श्री आदिनाथ स्वामी ने ग्राही ज्ञान का विषय है। आगे इन सभी विषयों को श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य विस्तृत । देवी के नाम से अक्षर रूप तथा सुन्दरी देवी के नाम से अंक रूप प्रकट किया रूप से बतलायेंगे ।३। ।
इसका जोकि विवेचन पहले कर चुके हैं इस समय भूवलय में दृष्टिगोचर हो संसार में रहनेवाले सभी जीवों के वचन में कुछ न कुछ दोष रहता। रहा है । इस प्रकार उपदेश करके वे सभी गणधर परमेष्ठी ने क्षणिक शरीर है। उस दोष को मिटाने के लिए विद्वज्जन शब्द शास्त्र की रचना करते हैं, ३ को त्यागकर चिरस्थायो शाश्वत सुख को प्राप्त कर लिया। इन सभी ग्रन्यों को किन्तु फिर भी उनको विद्वत्ता केवल एक ही भाषा के लिए सीमित रहती है ।। अंग ज्ञान परिपाटो से बस्तु नामक छन्द कहते हैं। ३००० सूबाहों के ज्ञाता वह निगुख भाषा दूसरे भाषायों के जानकारों को अशुद्ध सी मालूम पड़ती है। को विद्याधर चक्रवर्ती कहते हैं। उन समस्त गणघर परमेष्ठियों के वचन