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सिरि मूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ गतौर-दिल्ली मधुर, मिष्ट एवं सर्वजन हितकारी होते हैं । दयाधर्म का प्रचार ही इन समस्त लाने वाले ये मुनिराज हैं। उन्हीं के द्वारा विरचित यह भूवलय काव्य है। ग्रन्थों का उद्देश्य है तथा इसमें उत्तम क्षमा, मार्दव प्रार्जवादि दशधर्मो हो।
॥१३-२६॥ यतिशय वर्णन है।
६४ अक्षरों की जो वर्गित संवर्जित राशि आती है उन समस्त अंकों का जिस प्रकार अन्य जलों में कुछ न कुछ गर्दा (कीचड़) रहता है पर ज्ञान जिस महानुभाव को रहता है उन्हें श्रुत केवलो कहते हैं। और वैदिक सुगंवित जल में किसी भी प्रकार का किंचिद्मात्र भी गर्दा नहीं रहता, उसी प्रकार 1 मतानुयायी मंत्र-द्रष्टा कहते हैं। मंत्र-द्रष्टा वे ही होते हैं जो कि ११ मा अन्य धर्मों में कुछ न कुछ दुर्गुण पाये जाते है। परन्तु परमेष्ठी प्रतिपादित दश ! तथा १४ पूर्व से निष्पन्न समस्त बेद ज्ञान को मंक भाषा में निकालने में समर्थ घमों में किसी भी प्रकार की मलिनता नहीं पाई जाती ॥६ लेकर १३ श्लोक।। होते हैं। ऐसे समय मुनि श्री महावार भगवान से लेकर श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य
विवेचन:-इस अन्तर श्लोक के २६ वें श्लोक से लेकर ६ वें श्लोक पर्यन्त एक सौ (१००) थे। ये समस्त मुनि सदा स्व-पर कल्याण में संलग्न तक यदि पा जाये तो प्रथम अध्याय में कथित, कमलों का वर्णन पुन रुक्ति से रहते थे।।३ ॥ प्राता है। उसमें सात कमल पुष्पों से मुगन्धित जल (गुलाब जल) तैयार कर १४ पूर्वो में प्रथम के पूर्व को निकाल कर शेष ५ पूर्षों में विश्व लेते थे, ऐसा प्रर्य निष्पन्न होता है। यह काव्य रचना की अतिशय महिमा है। के समस्त जीवों के जीवन-निर्वाह करने के लिये वैद्यक, मंत्र, तन्त्र, यन्त्र, रस
दशधों को पालने वाले प्रोषधोपबासी मुनि होते हैं। उपवास शब्द वाद, ज्योतिष तथा काम शास्त्र आदि प्रकट होते हैं। उन सभी विद्यामों में का अर्थ-"उप समीपे बसतीत्युपवासः" अर्थात् प्रात्मा के समीप में वास करना । गूढातिगूढ़ रहस्य छिपा रहता है। उसमें रमणीय शरीर-विज्ञान को बतलाने उपवास है। और इसी प्रकार के उपवासी मुनिराज अविनाशी ग्रन्थों को। वाला, प्राणावाय (मायुर्वेद) एक महान शास्त्र निकलता है जो कि चौथे संद रचना करके शापयत् यश को प्राप्त कर लिया करते थे। वे महात्मा सदा । में विस्तार रूप वरिणत है ॥३१॥ अपने गुरु गरगघर परमेष्ठियों के साथ निर्भय विचरण करते रहते थे। इसी लिये। विवेचन-प्राणावाय पूर्व में १०००००० कानड़ी श्लोक हैं.। उन श्लोकों इन्ह कसा प्रकार के शस्त्रास्त्रा का प्रावश्यकता नहीं पड़ती थी। वे महात्मा में पृथक पृथक भाषा के भनेक लक्षकोटि श्लोक निकल कर मा जाते हैं। उसका पाहुड (प्राभूत) पन्ध की रचना करने में बड़े बुद्धिमान है । इतना ही नहीं, बल्कि ! अंक नीचे दिया गया है। बे अनियोग द्वार नामक ग्रन्थ की रचना करने में भी परम प्रवीण हैं। वे सूक्ष्मा-1 महा महिमावान आयुर्वेद शास्त्र भूवलय तृतीय पंड मूत्रावतार से भी तिसूक्ष्म ज्ञान में गम्य होने वाले जीवादि षद्रव्यों को गणित-बन्ध में बांधकर निकलकर पा जाता है। वह सूत्रावतार नामक तृतीय संड दूसरे तावतार अङ्गज्ञान में मिलाने वाले गरिणतागमज्ञ और अंक-शास्त्रज्ञ होते है। विविध खंड से भी निकल कर पा जाता है। वहश्रुतावतार नामक दूसरा खंड इस वस्तु अथवा शब्द को देख तथा जानकर उनकी वाह्याभ्यन्तरिक समस्त कलाग्यो । मंगल प्रामुत नामक प्रथम खंड के ५६ वें अध्याय के अन्तिम अक्षर से लेकर यदि को तत्काल ही व्याख्यान करने में कुशल होने से तत्तकालीन समस्त विद्वान् । ऊपर पढ़ते चले जाये तो यथावत् निकल कर पा जाता है। ब्राह्मण उनके यशों का गुणगान करते थे। यह अद्भुत ज्ञान साधारण जनता। यही क्रम आगे भी चालू रहेगा। अर्थात् पाँचवां खंड विजय धवल प्रत्य को सहज में नहीं मिल सकता। छोटे अंक को लेकर गुणाकार क्रिया से बड़ा । चौथे खण्ड के प्राणावाय पर्वक नामक खण्ड में यथा तथा निकल कर पा जाता अंक बनाने के बाद उन मत्रको अंक में एकत्रित करके उसके फलों को दिख- है। इसी क्रम से पागे चलकर यदि 8वें खण्ड तक पहुंच जायें तो अन्तिम . लाने वाला सबसे जघन्यांक २ है सर्वोत्कृष्टांक है तथा उसके अन्दर रहकर । मंगल प्राभुत रूप नववें खण्ड तक एक ऐसी चमत्कारिक काव्य रचना है जिससे प्रतशिय विद्या को प्रदान करने वाले अलोकाकाश पर्यन्त समस्त अंकों को बत- कि अष्ठ महाप्रातिहार्य वैभव से लेकर समस्त : खण्ड एक साथ सुगमता से