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सिरि भूवलय
सर्वाष सिबि संघ,बैंगलोर-दिल्ली
पड़ा जा सकता है जो कि कि धुतके.वलियों के साक्षात मूर्न स्वरूप है। पद का अर्थ दुरूह होने से इसे छोड़ देना पड़ा । अनादि सिद्धान्त पद के एक में .
हाथो के ऊपर रक्खी हुई अम्बारी को स्याही (इङ्क) से पूर्ण करके रहने वाले ग्यारह अंक प्रमाण अक्षरों के समूह को कौन ध्यान रखने में समर्थ हो उस स्याही से जितने प्रमाण में ग्रन्थ लिखा जा सकता है उसे प्राचीन काल में । सकता है ? अर्थात् इस काल में कोई भी नहीं क्योंकि यह श्रुतकेवली गम्य है। एक पूर्व कहा जाता था; आधुनिक वैज्ञानिकों के मन में यह बात नहीं पाती। ऋद्धिधारी मुनियों को इस क्रम प्राप्त वेद ज्ञान के अंक को प्रक्रमवर्ती यो। उनका तर्क था कि इतनी विशालता एक पूर्व की नहीं हो सकती; किन्तु 1 ज्ञान से समझ कर निर्मल रूप मध्यम ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उन्हीं मुनियों जब उनके सामने अद्भुत भूवजय शास्त्र तथा उसके अन्तर्गत प्रामाणिक गणित के द्वारा विरचित होने से यह भूवलय ग्रन्थराज महा महिमा संपन्न होकर शास्त्र प्रस्तुत हुया तब सभी को पूर्ण रूप से विश्वास हो गया और श्रद्धा पूर्वक पुण्य पुरुषों के दर्शन तथा स्वाध्याय के लिये प्रकट हुप्रा ॥३२-३३॥ लोग इसका स्वाध्याय करने लगे। इतना ही नहीं इसकी मान्यता इतनी अधिक ! विद्वानों ने माला के समान इन अंकों को गुणाकार करते हुये एक विशिष्ट बह गई है कि यह ग्रन्थराज राजभवन, राष्ट्रपति भवन तथा विश्व विद्यालयों । विधि से प्राणावाय पूर्व नामक ग्रन्थ से अंकों द्वारा अक्षरों को बनाकर दिव्यो(यूनिसिटीज) के सरस्वती भवनों (लाइब्रेरियों) में विराजमान होकर सभी वधियों को जान लिया था। वह समस्तांक छह वार शून्य और सरलमार्ग से को स्वाध्याय करने के लिए सरकार से मान्यता मिल गई है और भारत सरकार चार, चार, पाँच, दो बिन्दी, बिन्दी, पाठ, दो, पांच, दो एक, दो अर्थात् २१ की विधान सभा तथा मैसूर प्रान्त की विधान सभा में इसकी चर्चा बड़े जोरों हजार कोडा कोड़ी २५ कोटा कोटि, दो कोड़ा कोड़ी। से चल रही है।
आठ सौ करोड़ पच्चीस लाख कोड़ी चालीस कोड़ी अंक प्रमाण होता इस प्राणावाय पूर्व में १३००००००० (तेरह करोड़) पद हैं । और एक । है । उसको अंक संदृष्टि से दें तो २१२५२८००२५४४०००००० अंक प्रमाण पद में १६३४८३०७८८८ पक्षर होते हैं। १३००००००० को यदि उपयुका होता है। अकू से गुणा करें तो जितमा अंक प्रमाण होगा उतनी अंक प्रमाण प्राणाबाय प्राणावाय पूर्व द्वादशांग के अन्तर्गत एक पूर्व है जोकि उपयुक्त अंक पूर्व का पक होगा। यह सैद्धान्तिक गाना का क्रम है। भूवलय का क्रमांक प्रमाण अक्षरमय है, उसमें वैद्यक विषय विद्यमान है। चरक सुश्रुत वाग्भट्ट असाधा है, क्योंकि ३ प्रानुपूर्वियों को पृथक् पृथक गणना होने से अंक बढ़। को वृद्धत्रय कहते हैं वह वृद्धत्रय ग्रन्थ अथर्ववेद से प्रगट हुआ है, ऐसी वैदिक गया है। अर्थात् तेरह करोड़ तेरह करोड़ =जो अंक प्राता है उस अंक को। विद्वानों की मान्यता है। किन्तु यह बात ठीक प्रतीत नहीं होती क्योंकि उपयुक्त ग्यारह अंक ४ ग्यारह अंक=जो अंक प्राता है उसमे गुरणा करने से आने । अथर्ववेद छोटा है उसमें से वृद्धत्रय जैसे विशाल ग्रन्ध प्रगट नहीं हो सकते। वाला सम्घांक प्रमाण संपूर्ण आयुर्वेद शास्त्र बन जाता है।
किन्तु भूवलय ग्रन्थ का निर्माण ६४ अक्षरों को विविध रूप भंगों से ६२ मंक विवेचन:-पद पाब्द का अर्थ तीन प्रकार का है
प्रमाण अक्षरों से हुया है अतः भूवलय से सब भाषायें और सर्व विषय करोड़ों १-प्रर्यपद, २-प्रमाण पद और ३-मध्यम पद अथवा अनादि सिद्धान्त | श्लोकों में प्रगट होते हैं । इसलिए भ्रूवलय से समस्त वैद्यक विषय स्वतन्त्र रूप पद । अर्थ पद में केवल पर्याववोध यदि हो गया तो बस ठोक है। वहां पर से प्रगट होता है। उसका उदाहरण यह हैअन्य व्याकरण तथा गणितादि लक्षणों को प्रावश्यकता नहीं पड़ती। प्रमाण श्रीमद् भल्लातकाद्रिवसतिजिनमुनिसूतवादेरसाब्जम, पद में अनुष्टुप् प्रादि छंदों के एक चरण में पाठ आदि नियत अक्षर होते हैं।। 'अन्यार्थ' लाञ्छनाक्षं घटपुटरबनानागतातोतमूलम् । [भूवलय में इससे व्यतिरेक कम है ] सभी व्यावहारिक विद्वानों ने इन दोनों पदों देमंदुवर्णसूत्रागविधिगरिणतं सर्वलोकोपकारं, का प्रयोग व्यवहार में रखकर लोसरे को छोड़ दिया है क्योंकि अनादि सिद्धान्त ।
पञ्चास्यं लाजनाग्निभसितगुरपकरं भद्रसूरिः समन्तः ।