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चौदहवां अध्याय
स्वर अक्षरों में कु १४ वां अक्षर है । इसी अक्षर का नाम प्राचार्य सक्रम से निर्मोही होकर निर्मल तपस्या करनेवालों को इस भूवलय ने इस १४ वें अध्याय को दिया है , १४ वें तीर्थंकर श्री अनन्तनाय भगवान । ग्रन्य में छिपी हुई अनेक अद्भुन विद्यानों की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए हैं। वे अनन्त फल को देने वाले होने के कारण अतिशय धवल रूप भूवलय। मूवलय सिद्धान्त अन्य को सभी को भक्ति भाव से नमस्कार करना चाहिए। ग्रन्थ में स्वर अक्षर के दीपक को १४ मानकर अंग ज्ञान को अनन्त रूप गणित ! मन में जब विकल्प उत्पन्न होते हैं तब सिद्धांत शास्त्रों का यथार्थ रूप से अर्थ से लेकर गणना करते हुए ग्रन्थ को रचना की गई है। इन्हीं अनन्तनाथ भगवान नहीं हो पाता । मन की स्थिरता तभी प्राप्त होता है कि जब प्राणाबाय पूर्वक को वैदिकों ने अनन्त पद्म नाम भो कहा है। वह अनन्तपदन नाम श्री कृष्ण ज्ञान से शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है और तभी तपस्या करने की भी अनुरूप पर्यायसे जन्म लेकर कुरुक्षेत्र में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने के इच्छुक । कूलता रहती है। इसीलिए आर्यजन त्रिकरण शुद्धि को सबसे पहले प्राप्त कर अर्जुन को कर्तव्य कर्म का बोध, करानेवाली गीता का उपदेश भूवलय के ढंग लेते थे।३। से दिया था। उसका नाम श्री मद्भगवद् गीता पांच भाषाओं में अन्यत्र अलभ्य विवेचन:-इस तीसरे श्लोक के मध्य में अन्तरान्तर का एक श्लोक काव्य इसो अध्याय के अन्तरान्तर श्लोक में गनमः श्री वर्धमानाय” इत्यादि रूप समाप्त होता है। उसके अन्त में "नमिप ओ" शब्द है। जिसका अर्थ कानड़ो कानडी श्लोक के अन्तिम दो अक्षरों से निकल आता है। इस अध्याय के अन्त । भाषा में नमस्कार करेंगे ऐसा होता है । अन्तिमाक्षर प्रो भगवद्गीता के में बसा है उसी प्रकार से हम प्रतिपादन करेंगे। वहां "प्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म" ! प्रोमित्येकाक्षर का प्रयमाक्षर हो जाता है। वही प्रो अक्षर ऋग्वेद का गायत्री से लेकर भगवद्गीता प्रारम्भ होगी। माजकल प्रचलित भगवद्गीता से परे । मन्त्र रूप में रहनेबाले 'प्रोतत्सवितुर्वरेण्यं के लिए प्रथमाक्षर हो जाता है। इसो पौर विशिष्ट कला से निष्पन्न वह संस्कृत साहित्य अपूर्व है ।।
प्रकार मागे भी अनेक भाषाओं में कभी आदि में व कभी अन्त में प्रो मिलेगा; यह भगवद गीता पांच भाषाओं में है। पहले की पुरु गीता है। पुरुजिन पर वह हमें ज्ञात नहीं है। इस पद्धति से तीन आनुपर्वी को ग्रहण करना। पर्यात ऋषभदेव के समय में उनकी दोनों रानियों के दो भाइयों का नाम: इसका विवरण इस प्रकार है:विनमि पौर नमिनाथ था। उन दोनों राजाओं ने अयोध्या के पाववर्ती नगरों पहले-पहले अक्षर या ग्रंक को लेकर पाये-आगे बढ़ना प्रानुपूर्वी (पूर्व में राज्य किया था। उनके राज्य शासन काल में विज्ञान की सिद्धि के लिए अनु इति अनुपूर्व, अनुपूर्वस्य भावः प्रानुपूर्वी ) है । जिसका अभिप्राय 'क्रमशः बकुल ( सुमन ) श्रृंग देवदारु इत्यादि वृक्षों का उपयोग किया जाता था। प्रवृत्ति' है। वे दोनों राजा विविध भांति को विद्याओं में प्रवीण होने के कारण विद्याधर
आनुपूर्वी के तीन भेद हैं पूर्वानुपूर्वी, २-पश्चादानुपूर्वी, १-पत्रस्वरूप ही थे। और विविध विद्यानों को सिद्ध करने के लिए इन्हीं वृक्षों के तत्रानुपूर्वी । जो बांयी ओर से प्रारम्भ होकर दाहिनी ओर क्रम चलता है वह फूलों के रस से रसायन तैयार कर लेते थे। इसी के दूसरे कानड़ी श्लोक के पूर्वानुपूर्वी है जैसे कि अक्षरों के लिखने की पद्धति है। अथवा १-२-३-४-५ अन्तिम में "इन्द्रियाणां हिवरता' नामक संस्कृत श्लोक के अन्त में मिवा- आदि अंकों को कम से लिखा जाना जो क्रम दाहिनो मोर से प्रारम्भ होकर म्भास" है। इस वैज्ञानिक महत्व को रखनेवाले से बढ़कर अपूर्व पूर्व ग्रन्थों के 1 बांयी पोर उलटा चलता है जिसको वामगति भी कहते हैं, वह पश्चादानुपूर्वी मिलने से यह अनन्त गुस्सात्मक काव्य है। इस कारण श्री अनन्तनाथ भगवान है, जैसे कि गणित में इकाई दहाई सैकड़ा हजार प्रादि लिखने की पद्धति है का स्मरण किया गया है ।।
। इसी कारण कहा गया है 'मानां वामतोगतिः' यानी-अंकों को पति प्रक्षरों