SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . सिरि भूषलय सवार्य सिकि संच बेगलोर-बिल्ली इस प्राणादाय आयुर्वेद को प्रौषधि तैयार करने के लिए जोवरक्षा करना बहुत 1 को जड़ आदि को यहां ग्रहण नहीं किया गया है। रसायन औषधि का विधान अनिवार्य है। क्योंकि इसमें पाप का बंध नहीं होता। परन्तु अपनो कल्पना के केवल पुष्पों से ही होता है । इसलिए केवल पुष्पों का ही यहां वर्णन किया द्वारा कल्पित हिंसामय ग्रन्थ को रचना करके कर राक्षस के समान प्रकृति के गया है। मनुष्यों ने इस ग्रन्य की रचना करके प्रचलित किया है। प्राणवायु के बारे में कहा भी है कि. इस तरह हिंसामय ग्रन्थ की रचना करने का कारण यह हुमा कि । "प्राणपानस्समानस्य दानव्यानस्सभानगः" भगवान महावीर स्वामी को अहिंसामय वारणी को तथा हिंसा और अहिंसा के इत्यादि दश वायु को सहायता लेनी पड़ती है। किन्तु जिनेन्द्र भगवान भाव को ठोक न समझने के कारण तथा इनको भावना पहले से ही हिंसामय ! को वाणी में प्राण आदि वायु की जरूरत नहीं पड़ती अनेक वस्तुओं से मिश्रित होने के समान तीन चढ़ी हुई थी। इसलिए इन दुष्ट तथा कर परिणाम के 1 होने पर भी उनकी वाणी का अर्थ स्पष्ट रीति से प्रतिपादित होता है। द्वारा विरचित इस पाप तथा हिंसामय अायुर्वेद ग्रन्थ को धिकार हो, ऐसा थी। इस प्रकार जो औषधि ऋद्धि है वह ऋद्धि जिस भव्य मानव को प्राप्त दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदेन्दु कहते हैं ।१७१।। हुई है, उनको स्पर्श करने मात्र से परम्परा से आत्मा के साथ लगा हुपा कर्म सबसे पहले किसी भी मत का पागम, कास्त्र, घायुवद या प्राणावाय! वंश तत्काल नष्ट होता है ।१७३। इत्यादि जो भी शास्त्र हों उन सभी ग्रन्थों में सबसे पहले जीव दया अर्थात् इस ऋद्धि को प्राप्त किये हुए मानव में बेष्ठ १-२-३ ॥१७४। सम्पूर्ण जीवों के प्रति करुणा भाव अवश्य होना चाहिए क्योंकि यहां जीतों ४-५-६-८-६ १७ के प्रति बया या करुणा भावना निरूपण न हो वह कभी भी आयुर्वेद वद्यागम १०-११-१२।१७६। नहीं कहा जा सकता । इसलिए सदा जीवों की रक्षा करने की भावना रखना १३-१४-१९-२१ । ये राजबश तथा इक्ष्वाकु वंश के थे।। ७७-१७६। ही तप है और इसो के द्वारा रस ऋद्धि अर्थात् औषधि ऋद्धि की प्राप्ति होती श्री पाश्च नाय और सुपार्श्वनाथ उग्र वंश के हैं। धर्म शान्ति नाप है।१७२-१७३। और कु'घुनाथ अरहनाथ, ये कुरु वश के हैं ।१८०-१८१-१८२४ विशेषार्थ:-इस भगवान महावीर स्वामी के मुख से निकली हुई दिव्य I बीस तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ हरिवंश में हुए हैं । श्री बर्द्धमान ध्वनि के प्राणावाय पूर्व से निकलने के कारण इस सूचलय नामक ग्रन्थ में । नाथ वंश के है ।१८३ से १५६। किसी जीव की हिंसा नहीं है। महावीर भगवान से लेकर श्री कुमुदेन्दु आचार्य श्री नेमिनाथ हरिवंश के हैं 1१७ तक जितने भी यहां व्रतधारी दिगम्बर मुनि हो गये हैं वे सभी अनादि कालीन है ये पांचों वश हरिवंश ( इक्ष्वाकु वंश, कुरुवंश, हरिवंश, वंश, भगवान वीतराग की परम्परा से भगवान महावीर स्वामी के अनुशासन के और नाथ बश) भारत के प्रमुख राजवश हैं, इनमें धर्म परम्परा चली पाई अनुसार थे और भगवान महावीर से लेकर कुमुदेन्दु प्राचार्य तक जितने भी है और इस वश को दूसरों के ऊपर अच्छा प्रभाव रहा है ।१८८ से १९श व्रती दिगम्बर मुनि ये वे सभी भगवान महावीर के अनुयायी थे। इसीलिए । भगवान ग्रादिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक चले पाये हुए १६००० हजार जाति के पुष्पों से वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया गया था। हुएडाव-सर्पिणी काल में यह भूवलय ग्रन्थ कार्य कारण रूप है। यानीयहां पर यह प्रश्न उठता है कि वृक्ष की जड़, पत्ता और छाल इत्यादि न लेकर तीर्थंकर की वाणो कारण रूप और भूवलय कार्य रूप है ।१९२ से १९४१ केवल पुष्प को ही क्यों लिया ? यह भूवलय अन्य किसी अल्पज्ञ का कल्पित नहीं है, बल्कि सबस उत्तर-रसायन औषधियां केवल पुष्पों से ही तैयार होती हैं । इसलिए वृक्ष तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि से इसका प्रादुर्भाव हुआ है। भगवान महावीर के
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy