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सिरि भूवजय
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अनन्तर श्री समन्तभद्र, पूज्य पाद आदि याचार्यों की गुरु परम्परा द्वारा सुवलय ग्रन्थ का समस्त विषय श्री कुमुदेन्दु आचार्य तक चला आया है। ये समस्त श्राचार्य भगवान महावीर के अनुयायी थे। इन आचार्यों ने ग्रन्थ रचना किसी स्याति, लाभ, पूजा प्रादि की भावना से नहीं का इनका उद्देश्य स्व-पर-कल्याण तथा आध्यात्मिक विकास एवं प्रात्मा की सिद्धि हो रहा है | १६५ |
"श्री समन्तभद्र, श्री पूज्यपाद आदि आचार्यों ने जो लोक कल्याण के लिए रस-सिद्धि आदि का विज्ञान अपने मन्थों में किया, चरक आदि ने उनका यादर, आभार न मानते हुए अपनी ख्याति के लिए उप प्राचार्यो के ग्रन्थों का अनुकरण करके ग्रन्थ रचना की है । १६६।
. १८ हजार पुष्पों का रस निकालकर उसको पुट देवे फिर अन्य बर्तन में उसे रखकर उसका मुख बन्द कर देवे फिर उसे अग्नि पर चढ़ावे, तब वह नवीन रस सिद्ध होता है। इस रस सिद्धि के श्रनन्तर ही श्री समन्तभद्र, पूज्यपाद आचार्य ने वैद्यागम कल्प सूत्र की रचना की है। श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य कहते हैं कि श्री समन्तभद्र श्राचार्य ने प्रारणावाय द्वारा जो वैद्यागम कल्प सूत्र की रचना की थी वह अदृश्य होने के कारण रस सिद्धि विधान चरक श्रादि को प्राप्त नहीं हुआ तब उन चरक आदि परम्परागत रस विज्ञान को त्यागकर कल्पित रचना की तथा श्रायुर्वेद ग्रन्थ रचना चरक आदि से ही प्रारम्भ हुग्रा. ऐसी प्रसिद्ध कर दी और उस रसायन में जीव हिंसा का विधान किया ऐसे हिंसा विधान करने वालों को श्राचार्य धिक्कारते हैं प्रारणावाय यानी प्राणियों की प्राण रक्षा रूप प्रायुर्वेद तीर्थंकरों की वाणी से प्रगट हुआ है । चरक आदि ने अस जीवों की हिंसा द्वारा रस श्रौषधि विधान किया है उसे प्राणियों की प्राण रक्षा रूप प्राणावाय या आयुर्वेद कैसे माना जा सकता है ।१६७ | जन वृक्षों की कलियों ( फूल की अविकसित अवस्था ) को तोड़ कर अथवा वृक्ष से गिरी हुई कलियों को एकत्र करके जल में डालकर उन्हें खिलाते हैं, फिर उन कलियों का रस निकालकर उस रस से प्रतिशय प्रभावशाली रस औषधि तैयार होती है, जोकि इन्द्र को भी दुर्लभ है। गृहस्थ स्थावर जीव हिसा का त्याग नहीं है, अतः वह वृक्षों से फूल की कलियों को तोड़कर रसायन तैयार कर सकता है । दो इन्द्रिय आदि यस जीवों का संकल्प से घात करना गृहस्थ के लिए त्याज्य हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । १६८ ।
सर्वार्थ सिद्धिसंघ बेंगलौर-दिल्ली
उस रसायन की स्वल्पमात्रा भी सेवन करने से मनुष्य के महान तथा जो रोग नष्ट हो जाते हैं । स्वस्थ शरीर द्वारा मनुष्य तपश्चरण आदि करके स्वर्गादि के सांसारिक सुख प्राप्त कर लेता है और अन्त में अपने स्वस्थ शरीर द्वारा कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लिया करता है । १३३ ।
ऐसे प्रभावशाली जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट प्रायुर्वेद प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त करना चाहिए जिससे वह स्वपर कल्याण करके मनुष्य इस लोक परलोक में सुख प्राप्त कर सके। आयुर्वेद समस्त शारीरिक दोषों को नष्ट करके भौषaियों के गुणों से शारीरिक बल आदि गुण प्रगट करने वाला है ऐसे जयशील आयुर्वेद को सबसे प्रथम कर्म भूमि के प्रारम्भ में राजा नाभि राय के पुत्र भगवान ऋषभनाथ ने अपने पुत्रों को पढ़ाया था । २०० से २०२॥
प्रारणानुवाद पूर्व के रूप में भगवान आदिनाथ के बाद क्रमशः राजा जित शत्रु के पुत्र भगवान अजितनाथ ने राजा जितारि के पुत्र भगवान शम्भव नाथ ने राजा संवर के तनय भगवान अभिनन्दन ने राजा मेघप्रभ के पुत्र भगवान सुमतिनाथ ने, नृपतिघरण के पुत्र श्री पद्मप्रभ तीर्थंकर ने, सुप्रतिष्ठ राजा के पुत्र श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी ने राजा महासेन के पुत्र भगवान चन्द्रप्रभ ने, सुग्रीव राजा के पुत्र भगवान पुष्पदन्त ने, हड़रथ राजा के पुत्र श्री शीतलनाथ तीर्थंकर ने, विष्णुनरेन्द्र के पुत्र भगवान श्रेयांसनाथ ने वसुपूज्य राजा के पुत्र भगवान वासु पूज्य ने राजा कृतवर्मा के पुत्र भगवान विमलनाथ ने, श्री सिंहसेन के पुत्र भगवान अनन्तनाथ ने भानु राजा के आत्मज श्री धर्मनाथ तीर्थंकर ने राजा विश्वसेन के पुत्र भगवान शान्तिनाथ ने सूर्य सेन राजा के पुत्र भगवान कुन्थुनाथ ने राजा सुदर्शन के पुत्र भगवान अरनाथ ने, राजा कुम्भ के पुत्र भगवान मल्लिनाथ ने राजा सुमित्र के पुत्र श्री मुनि सुव्रत नाय तीर्थंकर ने, विजय नरेन्द्र के पुत्र भगवान नमिनाथ ने रजा समुद्र विजय के पुत्र भगवान नेमिनाथ दे, श्री भरवत राजा के पुत्र भगवान पाश्र्वनाथ ने और राजा सिद्धार्थ के पुत्र भगवान महावीर ने अर्हन्त पद पाकर उसी श्रायुर्वेद का उपदेश समवशरण द्वारा सूवलय ( भूमण्डल) में अपनी दिव्यध्वनि द्वारा दिया इस प्रकार इसको पितृ कुल भूवलय कहते हैं । २०३ से २२० तक।
पितृकुल परम्परा से चले आये प्रारणावाय श्रायुर्वेद से गर्मित सूवलय का स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति अपना शरीर निरोग करके परमार्थ को सिद्धि कर